फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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यूँ भी कहा जा सकता है: हम अपनी अभिव्यक्तियों को अधिक यथार्थ बनाकर भ्रान्तियों का निवारण कर सकते हैं; किन्तु अब ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हम एक विशेष स्थिति, यथार्थता की स्थिति की ओर बढ़ रहे हों; और मानों यही हमारे अन्वेषण का वास्तविक ध्येय हो।
यूँ भी कहा जा सकता है: हम अपनी अभिव्यक्तियों को अधिक यथार्थ बनाकर भ्रान्तियों का निवारण कर सकते हैं; किन्तु अब ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हम एक विशेष स्थिति, यथार्थता की स्थिति की ओर बढ़ रहे हों; और मानों यही हमारे अन्वेषण का वास्तविक ध्येय हो।
{{ParPU|92}} भाषा के, प्रतिज्ञप्तियों के विचार के, सार संबंधी प्रश्नों में इसकी अभिव्यक्ति होती है। — क्योंकि इन अन्वेषणों में यद्यपि हम भी भाषा के सार — उसके कार्यों, उसकी संरचना को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं — फिर भी इन प्रश्नों का यह उद्देश्य नहीं है। क्योंकि सार से वे कुछ ऐसा नहीं समझते जो पहले से ही दृश्यमान हो और जिसका पुनर्विन्यास किए जाने पर सर्वेक्षण किया जा सकता हो, अपितु उसे वे कुछ ऐसा समझते हैं जो सतह के नीचे स्थित हो। कुछ ऐसा जो अन्तर्भाग में रहता है, जिसे हम पदार्थ का निरीक्षण करने पर देखते हैं, और जिसे विश्लेषण खोद कर बाहर निकालता है।
‘''सार तो हमसे छुपा हुआ है''’ : अब हमारी समस्या का यह आकार हो सकता है। हम पूछते हैं: "भाषा ''क्या है?''", "प्रतिज्ञप्ति क्या है?" और इन प्रश्नों का उत्तर किसी भी भावी अनुभव पर विचार किये बिना हमेशा-हमेशा के लिए दिया जाना है।
{{ParPU|93}} कोई व्यक्ति कह सकता है "प्रतिज्ञप्ति तो संसार की सर्वाधिक साधारण वस्तु है" और दूसरा व्यक्ति कह सकता है: “प्रतिज्ञप्ति — क्या ही विलक्षण विषय!" — और कोई अन्य व्यक्ति यह देखने में बिल्कुल असमर्थ है कि प्रतिज्ञप्ति वास्तव में कैसे कार्य करती है। प्रतिज्ञप्तियों एवं विचार को अभिव्यक्त करने में प्रयुक्त हमारे आकार उस व्यक्ति के आड़े आते हैं।
हम क्यों कहते हैं कि प्रतिज्ञप्ति तो विशिष्ट होती है? एक तो इसलिए कि इसकी अत्यधिक महत्ता है। (और यह उचित ही है)। दूसरी ओर भाषा के तर्क की गलतफहमी के साथ मिलकर यह महत्ता हमें प्रतिज्ञप्ति द्वारा अवश्य ही कुछ असाधारण, कुछ अप्रतिम निष्पादित किया जाएगा — ऐसा सोचने का प्रलोभन देती है। ''गलतफहमी'' के कारण हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रतिज्ञप्ति विलक्षण है।
{{ParPU|94}} 'प्रतिज्ञप्ति एक विलक्षण विषय है!' इसमें तर्कशास्त्र के हमारे संपूर्ण विवरण को उत्कृष्ट समझने का बीज है। प्रतिज्ञप्ति संबंधी ''संकेतों'' एवं तथ्यों के बीच विशुद्ध मध्यस्थता अपनाने की प्रवृत्ति अथवा संकेतों के शुद्धीकरण, उदात्तीकरण का प्रयास भी इसमें निहित है। — क्योंकि हमें मृग-मरीचिका की खोज में लगाकर हमारी अभिव्यक्ति के आकार अनेक ढंगों से हमें यह समझने से बचाते हैं कि इस खोज में कुछ भी असाधारण नहीं है।
{{ParPU|95}} "विचार को तो अपूर्व होना ही चाहिए"। जब हम अमुक-अमुक स्थिति है, ऐसा कहते हैं और इससे यही हमारा ''अभिप्राय'' होता है तो हम — और हमारा अभिप्राय — तथ्य को जाने बिना कभी नहीं रुकते; किन्तु हमारा अभिप्राय है: ''यह'' — ऐसा — है। किन्तु इस विरोधाभास (जो यथातथ्यता के आकार वाला है) को इस प्रकार भी अभिव्यक्त किया जा सकता है: जो स्थिति ''नहीं'' है, उस की भी ''धारणा'' बनाई जा सकती है।
{{ParPU|96}} यहाँ उल्लिखित विशिष्ट भ्रांति के साथ विभिन्न स्थितियों में पाई जाने वाली अन्य भ्रान्तियां भी जुड़ जाती हैं। अब हमें विचार और भाषा, संसार के सहसंबद्ध अपूर्व चित्र प्रतीत होते हैं। ये प्रत्यय प्रतिज्ञप्ति, भाषा, विचार, संसार, एक दूसरे के पीछे पंक्तिबद्ध खड़े हैं, इनमें से हर एक दूसरे का समानार्थी है। (किन्तु अब इन शब्दों का किसके लिए प्रयोग करें? जिस भाषा-खेल में इनका प्रयोग करना है वह तो यहाँ है ही नहीं।)
{{ParPU|97}} विचार के चारों ओर एक प्रभामण्डल होता है। — इसका सार, अतः तर्क, एक व्यवस्था, वस्तुतः संसार की प्रागनुभव व्यवस्था, प्रस्तुत करता है: अतः ''संभावनाओं'' की व्यवस्था जो संसार और विचार दोनों में ही साझी होंगी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यवस्था ''पूर्णतः सरल'' होनी चाहिए। यह समस्त अनुभव से पूर्ववर्ती है, इसे समस्त अनुभव में आद्योपांत रहना चाहिए; इस पर किसी भी आनुभविक भटकाव अथवा अनिश्चितता का प्रभाव नहीं पड़ने देना चाहिए — बल्कि इसे तो सर्वाधिक शुद्ध स्फटिक होना चाहिए। किन्तु यह स्फटिक अमूर्त तो प्रतीत नहीं होता; बल्कि यह तो मूर्त, वास्तव में सर्वाधिक मूर्त, प्रतीत होता है मानो सत्तावान पदार्थों में यह सर्वाधिक कठोर पदार्थ हो (''ट्रेकटेटस लॉजिको-फिलोसफ़िकस'' न. 5.5563)।
हमें यह भ्रम है कि हमारी अन्वेषणा की विशिष्टता, गहनता, एवं अपरिहार्यता भाषा के अनुपमेय सार को ग्रहण करने के प्रयत्न में निहित है; यानी प्रतिज्ञप्ति, शब्द, प्रमाण, सत्य, अनुभव इत्यादि के प्रत्ययों में पाई जाने वाली व्यवस्था में। यह व्यवस्था तो — यूँ कहिये कि — ''परा''-प्रत्ययों के मध्य ''परा''-व्यवस्था है। "भाषा", "अनुभव", "संसार" शब्दों का यदि प्रयोग है तो बेशक वह "मेज", "दीपक", "द्वार", शब्दों के समान ही साधारण होना चाहिए।
{{ParPU|98}} एक ओर तो यह स्पष्ट है कि हमारी भाषा का प्रत्येक वाक्य 'जैसे भी है ठीक है'। यानी हम किसी आदर्श के ''पीछे'' नहीं ''पड़े हैं'', मानो हमारे साधारण अस्पष्ट वाक्यों को अभी पूर्णतः असाधारण अर्थ नहीं मिले हों और एक परिपूर्ण भाषा को हमारे द्वारा रचे जाने की प्रतीक्षा हो। — दूसरी ओर, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि जहाँ अर्थ होता है वहाँ परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए। — अतः अत्यन्त अस्पष्ट वाक्यों में भी परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए।
{{ParPU|99}} वाक्य का अर्थ — कोई कह सकता है — बेशक इसे या उसे अनिर्धारित छोड़ सकता है, किन्तु फिर भी वाक्य का कोई निर्धारित अर्थ तो होना ही चाहिए। अनिर्धारित अर्थ — वह तो ''कोई'' अर्थ ही नहीं हुआ। — यह ऐसा है: अनिर्धारित सीमा तो वास्तव में कोई सीमा ही नहीं होती। यहाँ संभवत : कोई विचार करता है: यदि मैं कहता हूँ "मैंने व्यक्ति को कमरे में अच्छी तरह बन्द कर दिया है — केवल एक द्वार ही खुला रख छोड़ा है" — तो मैंने उसे कमरे में बन्द किया ही नहीं; उसका कमरे बन्द होना तो ढोंग है। कोई यहाँ कहना चाहेगा : "आपने तो कुछ किया ही नहीं"। टूटा हुआ अहाता तो अहाता न होने के समान ही है। — किन्तु क्या यह सत्य है?
{{ParPU|100}} "परन्तु फिर भी, यदि ''नियमों में'' कुछ अस्पष्टता है तो यह खेल नहीं है" — किन्तु ''क्या'' यह उसे खेल होने से रोकता है? — "संभवतः आप इसे खेल कहेंगे, किन्तु निश्चय ही किसी भी प्रकार यह परिपूर्ण खेल नहीं है।" इसका अर्थ है: इसमें अशुद्धियां हैं, और इस समय मेरी रुचि पूर्ण विवरण में है। — किन्तु मैं कहना चाहता हूँ : हमारी भाषा में आदर्श की भूमिका को हम गलत ढंग से समझते हैं। अतएव हमें भी इसे खेल ही कहना चाहिए, किन्तु आदर्श ने हमें हतप्रभ कर दिया है और इसलिए हम "खेल" शब्द के वास्तविक प्रयोग को स्पष्टतः देखने में असमर्थ हैं।
{{ParPU|101}} हम कहना चाहते हैं कि तर्कशास्त्र में तो कोई अस्पष्टता हो ही नहीं सकती। अब हम इस विचार में मग्न रहते हैं कि आदर्श तो ‘''अनिवार्यतः''’ वास्तविकता में ही मिलना चाहिए। इस बीच, हमें यह नहीं पता चलता कि यह वहाँ ''कैसे'' पाया जाता है, न ही हम इस "अनिवार्यतः" के स्वभाव को समझते हैं। हम सोचते हैं कि इस अनिवार्यतः को वास्तविकता में होना चाहिए; क्योंकि हमें लगता है कि हम उसे पहले से ही वहाँ देख रहे हैं।
{{ParPU|102}} प्रतिज्ञप्तियों की तार्किक संरचना के सुनिश्चित एवं स्पष्ट नियम हमें पृष्ठभूमि में विवेक के माध्यम द्वारा छुपाये हुए से प्रतीत होते हैं। मैं पहले से ही उन्हें देख सकता हूँ (यद्यपि किसी माध्यम के द्वारा) : क्योंकि मैं प्रतिज्ञप्ति-संकेत को समझता हूँ मैं उसका प्रयोग कुछ कहने के लिए करता हूँ।
{{ParPU|103}} आदर्श के बारे में हम सोचते हैं कि वह दृढ़ होता है। आप उससे बाहर नहीं जा सकते आपको सदैव वहीं लौटना होगा। बाहर तो है ही नहीं; बाहर तो आप सांस भी नहीं ले सकते। — यह विचार कहाँ से आता है? यह तो हमारी आँख पर लगे चश्मे जैसा है और सभी विषयों का निरीक्षण हम उसी माध्यम से करते हैं उसे उतारने की तो हम कभी सोचते ही नहीं।
{{ParPU|104}} किसी पदार्थ को निरूपित करने वाली पद्धति को ही हम विधेय कहते हैं। तुलना की सम्भावना से प्रभावित होकर हम सोचते हैं कि हम अत्यन्त व्यापकता की स्थिति को देख रहे हैं।
{{ParPU|105}} जब हम यह समझते हैं कि हमें अपनी वास्तविक भाषा में उस व्यवस्था को, आदर्श को, अनिवार्यतः ढूँढना ही चाहिए तो सामान्यतः हम "प्रतिज्ञप्तियां", "शब्द", "संकेत" कहे जाने वाले विषयों से असन्तुष्ट हो जाते हैं।
ऐसा माना जाता है कि तर्कशास्त्र द्वारा व्यवहृत प्रतिज्ञप्ति एवं शब्द शुद्ध एवं स्पष्ट होते हैं। और हम ''वास्तविक'' संकेत के स्वभाव के बारे में ही मगज़पच्ची करते रहते हैं। — सम्भवतः यह संकेत का ''विचार'' है? अथवा इस क्षण होने वाला यह विचार है?
{{ParPU|106}} यहाँ पर ऐसा लगता है मानो सिर उठाए रखना कठिन है, — इसे समझने के लिए हमें अपने दैनिक विषयों पर ही टिके रहना चाहिए, और न तो पथभ्रष्ट होना चाहिए और न ही यह कल्पना करनी चाहिए कि हमें ऐसे सूक्ष्म प्रभेदों का विवरण देना होगा, जिनका विवरण अन्ततोगत्वा अपने पास उपलब्ध साधनों से देने में हम नितान्त असमर्थ हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो हमें अपनी अंगुलियों से मकड़ी के टूटे हुए जाल की मरम्मत करनी हो।
{{ParPU|107}} जितनी अधिक सूक्ष्मता से हम अपनी वास्तविक भाषा का परीक्षण करते हैं उतना ही उसमें, और हमारी आवश्यकता में, विरोध स्पष्ट होता जाता है। (क्योंकि तर्कशास्त्र की स्फुटिक शुद्धता बेशक अन्वेषण ''का फल'' तो नहीं थी : यह तो एक आवश्यकता थी।) यह विरोध असहनीय हो जाता है; आवश्यकता के तो अब निरर्थक हो जाने का अंदेशा है। — हम तो अब ऐसी फिसलनी बर्फ पर पहुँच चुके हैं जहाँ घर्षण ही नहीं है, और इसलिए किसी विशिष्ट अर्थ में यह एक आदर्श परिस्थिति है, किन्तु इसी कारण हम चलने में असमर्थ भी हैं। हम चलना चाहते हैं: इसलिए हमें ''घर्षण'' की आवश्यकता है। अब असमतल भूमि पर लौटिये।
{{ParPU|108}} हम देखते हैं कि जिन्हें हम "वाक्य" एवं "भाषा" कहते हैं उन में वैसी आकारिक एकता नहीं है जिसकी मैंने कल्पना की थी, अपितु वह तो एक दूसरे से
{{PU box|द ''कैमिकल हिस्ट्री ऑफ ए कैंडल'' में फैराडे ने लिखा : "जल एक ऐसी वस्तु है जो कभी भी परिवर्तित नहीं होती।"}}
न्यूनाधिक सम्बद्ध संरचनाओं का परिवार है। — किन्तु अब तर्कशास्त्र का क्या होगा? इसकी दृढ़ता तो यहाँ कमजोर पड़ गई प्रतीत होती है। — किन्तु क्या उस परिस्थिति में तर्कशास्त्र पूर्णतः लुप्त नहीं हो जाएगा? — क्योंकि वह अपनी दृढ़ता कैसे खो सकता है ? बेशक अपनी दृढ़ता की कीमत पर तो नहीं  — स्फुटिक शुद्धता के ''पूर्वकल्पित विचार'' को तो अपने सम्पूर्ण परीक्षण को पूरी तरह उलट कर ही दूर किया जा सकता है। (कहा जा सकता है: अपने परीक्षण के संदर्भ की धुरी को तो हमें घुमाना ही चाहिए, किन्तु अपनी वास्तविक आवश्यकता के केन्द्रबिन्दु के इर्द-गिर्द ही।)
वाक्यों और शब्दों के बारे में तर्कशास्त्र का दर्शन बिल्कुल उसी अर्थ में उल्लेख करता है जिसमें हम अपने दैनिक जीवन में उनका उल्लेख करते हैं, उदाहरणार्थ, जब हम कहते हैं, "यह एक चीनी वाक्य है" अथवा "नहीं वह तो लिपि प्रतीत भर होती है; वास्तव में तो वह अलंकृति है"।
और हम बातें कर रहे हैं भाषा की दिक् एवं काल संबंधी संवृत्ति के बारे में, न कि दिक्कालरहित किसी फंतासी के बारी में। (हाशिये पर टिप्पणी : किसी संवृत्ति में अनेक प्रकार से रुचि ली जा सकती है।) किन्तु हम इसके बारे में उसी प्रकार बात करते हैं जैसे कि हम शतरंज के खेल के नियमों का उल्लेख करते हुए शतरंज के मोहरों के बारे में बात करते हैं। किन्तु ऐसा करते समय उनके भौतिक गुणों का विवरण नहीं देते।
"वास्तव में शब्द क्या है?" यह प्रश्न, "शतरंज में मोहरा क्या है?" इस प्रश्न के समान है।
{{ParPU|109}} यह कहना सही था कि हमारी समीक्षाएं तो वैज्ञानिक हो ही नहीं सकती थीं। 'हमारे पूर्वकल्पित विचारों के विपरीत अमुक-अमुक सोचना सम्भव है' इसके परीक्षण में — चाहे उसका जो कुछ भी अर्थ हो, हमारी कोई भी रुचि नहीं थी। (गैस जैसा माध्यम होने जैसी विवेक की धारणा) और मनमर्जी सिद्धान्त प्रस्तुत न करें। हमारी समीक्षाओं में कुछ भी परिकल्पित नहीं होना चाहिए। हमें ''व्याख्या'' को सम्पूर्णतः हटा देना चाहिए और मात्र विवरण को उसका स्थान दे देना चाहिए। और यह विवरण अपना अर्थ अतएव अपना उद्देश्य, दार्शनिक समस्याओं से प्राप्त करता है। बेशक ये आनुभविक समस्याएं नहीं हैं; वस्तुतः उनका समाधान हमारी भाषा की कार्यपद्धति का निरीक्षण करने से हो जाता है, और वह भी इस प्रकार से कि हम इन कार्यपद्धतियों को स्वीकार कर लें : उनको गलत अर्थ में लेने की उत्कट इच्छा ''होते हुए भी''। समस्याओं का समाधान नई सूचना देने से नहीं होता, अपितु समाधान सदैव पूर्वज्ञात सूचनाओं को व्यवस्थित करने से होता है। दर्शन तो भाषा द्वारा हमारी बुद्धि के वशीकरण के विरुद्ध संघर्ष है।
{{ParPU|110}} "भाषा (अथवा विचार) तो कुछ अपूर्व है" — यह तो एक अंधविश्वास (न कि भ्रान्ति) सिद्ध होता है, जो स्वयं ही व्याकरण सम्बन्धी भ्रान्तियों की उपज है। और यह अपूर्वता अब, इन भ्रान्तियों, इन समस्याओं में छुप जाती है।
{{ParPU|111}} हमारी भाषा के आकारों की गलत व्याख्या से उत्पन्न समस्याओं में ''गहनता'' होता है। वे उग्र व्यग्रताएं होती हैं; भाषा-आकारों की भांति हमारे भीतर उनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। और वे हमारी भाषा के समान ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। — आइए हम अपने आप से पूछें : हमें व्याकरण-सम्बन्धी चुटकुला ''गहन'' क्यों प्रतीत होता है? (और इसे ही दर्शन की गहनता कहा जाता है।)
{{ParPU|112}} हमारे भाषा-आकारों में आत्मसात् हुई उपमाएं मिथ्या आभास उत्पन्न करती हैं, और इससे हम व्याकुल हो जाते हैं। "किन्तु यह ''ऐसा'' तो नहीं है!" — हम कहते हैं "तथापि इसे ''ऐसा'' ही होना चाहिए!"
{{ParPU|113}} "किन्तु यह ''ऐसा'' है" — मैं अपने आप बार-बार कहता हूँ। मुझे प्रतीत होता है मानो यदि मैं इस तथ्य पर गौर कर पाता, इस पर ध्यान केन्द्रित कर पाता, तो मैं निश्चय ही इसके सार को ग्रहण कर पाता।
{{ParPU|114}} (''ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलोसॅफिक्स'', 4.5) "प्रतिज्ञप्ति का साधारण आकार है: पदार्थ ऐसे होते हैं।" — इस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति को कोई अनेक बार दोहराता है। वह ऐसा सोचता है कि पदार्थ के स्वभाव की रूपरेखा को वह बार-बार बना रहा है, किन्तु वस्तुतः वह उस आकार को ही रेखांकित कर रहा होता है जिसके माध्यम से हम उसे देखते हैं।
{{ParPU|115}} ''चित्र'' ने हमें बाँध लिया है। और हम उससे बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि वह हमारी भाषा में ही था और हमें ऐसा लगता है कि भाषा इसे निरपवाद रूप से दोहराती रहती है।
{{ParPU|116}} जब दार्शनिक — "ज्ञान", "सत्ता", "वस्तु", "मैं", "प्रतिज्ञप्ति”, "नाम" जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं — और पदार्थ के ''सार'' को ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं तो हमें प्रश्न करना चाहिए : इस शब्द के मौलिक निवास-स्थान, भाषा-खेल में क्या कभी इसे इस ढंग से प्रयोग किया जाता है? —
इससे ''हम'' शब्दों को उनके परा-भौतिक प्रयोग से वापिस दैनन्दिन प्रयोग में लौटा लाते हैं।
{{ParPU|117}} आप मुझे कहते हैं: "आप इस अभिव्यक्ति को समझते हैं, क्या आप नहीं समझते? ठीक है, तब तो — मैं इसका उसी अर्थ में प्रयोग कर रहा हूँ जिससे आप परिचित हैं।" — मानो अर्थ शब्द से संलग्न ऐसा वातावरण हो जो उसके हर प्रकार के प्रयोग का सहगामी हो।
उदाहरणार्थ, यदि कोई कहे कि "यह यहाँ है" (और इस वाक्य को कहने के साथ-साथ वह अपने समक्ष रखी किसी वस्तु को इंगित करे) का अर्थ वह समझता है तो उसे स्वयं से पूछना चाहिए कि वास्तव में इस वाक्य का प्रयोग किन विशिष्ट परिस्थितियों में किया जाता है। उन्हीं परिस्थितियों में उसका अर्थ होता है।
{{ParPU|118}} हमारा अन्वेषण महत्त्वपूर्ण क्योंकर होता है, क्योंकि यह तो सभी रुचिकर विषयों : अतः उन सब का जो महान एवं महत्त्वपूर्ण हैं, विनाश ही करना प्रतीत होता है? (मानो सभी भवनों का विनाश, और बचे रहते हैं केवल टूटे पत्थर और उनका मलबा।) हम जिसका विनाश कर रहे हैं वह ताश के पत्तों से बने घरों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, और हम भाषा के उसी आधार को खत्म कर रहे हैं जिस पर वे बने हैं।
{{ParPU|119}} किसी विशुद्ध ''बकवास'' को प्रदर्शित करना, और बोध के द्वारा भाषा की सीमाओं से सिर फोड़ने से आई चोटों को दिखाना दर्शन के परिणाम हैं। इन चोटों से 'हमें खोज की महत्ता पता चलती है।
{{ParPU|120}} जब मैं भाषा (शब्दों, वाक्यों इत्यादि) के बारे में बात करता हूँ तो मुझे दैनन्दिन भाषा का उल्लेख करना चाहिए। क्या यह भाषा हमारी अभिव्यक्ति के लिए कोई बेहद घटिया एवं दुनियावी साधन है? ''तो किसी अन्य भाषा का निर्माण कैसे होगा?'' — यह विचित्र ही है कि उपलब्ध भाषा द्वारा हम कुछ भी कर पाते हैं!
व्याख्याओं के लिए मुझे पूर्णत : पूर्व-विकसित (न कि किसी प्रकार की प्रारम्भिक, कामचलाऊ) भाषा का प्रयोग करना पड़ता है; इसी से पता चलता है कि मैं तो भाषा के बारे में केवल बाह्य तथ्यों को ही प्रस्तुत कर सकता हूँ।
हाँ, किन्तु तब इन व्याख्याओं से हमें कैसे संतोष होगा? अच्छा, आपके प्रश्न भी तो इसी भाषा में ही गढ़े गये थे; यदि कोई जिज्ञासा हो तो उसे इसी भाषा में अभिव्यक्त करना पड़ेगा!
और आपकी आशंकाएं तो गलतफहमियां ही हैं।
आपके प्रश्न शब्दों को इंगित करते हैं; इसीलिए मुझे शब्दों के बारे में बात करनी पड़ती है।
आप कहते हैं: बात शब्द की नहीं अपितु उसके अर्थ की है, और अर्थ को आप शब्द के समान ही समझते हैं; यद्यपि उससे भिन्न भी। यह शब्द, और उसका वह अर्थ। धन, और इस धन से खरीदी जा सकने वाली गाय। (किन्तु तुलना कीजिए : धन, और उसके प्रयोग की।)
{{ParPU|121}} कोई समझ सकता है: यदि दर्शन "दर्शन" शब्द के प्रयोग का उल्लेख करता है तो दर्शन का कोई अवर-क्रम (सैकण्ड-ऑर्डर) भी होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं है; वस्तुत : यह वर्तनी-विचार के समान है जो यद्यपि अन्य शब्दों के साथ-साथ "वर्तनी-विचार" शब्द की भी व्याख्या देता है, तो भी उसका अवर-क्रम नहीं होता।
{{ParPU|122}} किसी विषय को समझने की हमारी असफलता का मुख्य कारण तो यह है कि हमें अपने-शब्द प्रयोग का कोई ''स्पष्ट-विचार'' नहीं होता। — हमारे व्याकरण में इस प्रकार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की कमी है। सुस्पष्ट निरूपण 'सम्बन्धों को देखने' वाली समझ ही उत्पन्न करता है। अतः ''मध्यवर्ती स्थितियों'' को पाने एवं खोजने का महत्त्व होता है।
सुस्पष्ट निरूपण का प्रत्यय हमारे लिए मौलिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। यह हमारे द्वारा दिए गए विवरण के आकार को, पदार्थों को, समझने के हमारे ढंग को, निर्धारित करता है। (क्या यह ‘''वेल्टनश्युआंग''’ है?)
{{ParPU|123}} दार्शनिक समस्या का रूप यह है: "मुझे नहीं मालूम कि मेरा मार्ग कौन सा है?"
{{ParPU|124}} भाषा के वास्तविक प्रयोग में दर्शन किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करे; अन्ततः तो वह उसका विवरण ही दे सकता है।
क्योंकि वह उसे कोई आधार भी नहीं दे सकता। वह तो प्रत्येक विषय को जस-का-तस छोड़ देता है।
वह गणित को भी जस-का-तस छोड़ देता है, और कोई भी गणितीय खोज उसे आगे नहीं बढ़ा सकती। हमारे लिए "गणितीय तर्कशास्त्र की प्रमुख समस्या" गणित की अन्य किसी समस्या के समान ही होती है।
{{ParPU|125}} दर्शन का कार्य गणितीय अथवा तर्क-गणितीय खोजों द्वारा व्याघातों का समाधान देना नहीं है, अपितु इसका कार्य हमें बेचैन करने वाली गणित की अवस्था, व्याघात-समाधान से ''पूर्व-अवस्था'', को स्पष्ट कर सकना है। (पर इसका अर्थ कठिनाइयों से बचना नहीं है।)
मूल बात यह है कि इस खेल के नियम, उसकी पद्धतियां बनाते हैं और फिर जब हम उन नियमों का पालन करते हैं तब वह नहीं होता जो हमने सोचा था। इसलिए मानो हम स्वयं अपने नियमों में ही उलझ गये हैं।
अपने नियमों में इस उलझाव को ही हम समझना (अतः उसे स्पष्टतः देखना) चाहते हैं।
यह हमारे किसी ''अर्थ'' होने के प्रत्यय पर प्रकाश डालता है। क्योंकि तब स्थितियां हमारे पूर्वाभास से उलट निकलती हैं। उदाहरणार्थ, जब भी कोई व्याघात प्रकट होता है हम यही कहते हैं: "मेरा वह अर्थ तो नहीं था। "
व्याघात की शिष्ट स्थिति अथवा शिष्ट जनों में उसकी स्थिति : यही तो दार्शनिक समस्या है।
{{ParPU|126}} दर्शन तो हमारे सामने सब कुछ रखता भर है, वह न तो कोई व्याख्या देता है और न ही कोई निर्गमन करता है। — क्योंकि सब कुछ हमारी आँखों के सामने खुला होता है, व्याख्या के लिए कुछ बचता ही नहीं। क्योंकि छुपे हुए विषय में हमारी कोई रुचि नहीं होती।
सभी नई खोजों एवं अन्वेषणों से ''पूर्व'' सम्भव विषयों को भी "दर्शन" नाम दिया जा सकता है।
{{ParPU|127}} दार्शनिक का कार्य तो किसी विशेष प्रयोजन के लिए अनुस्मारक एकत्र करना होता है।
{{ParPU|128}} यदि कोई दर्शन में स्थापना प्रस्तुत करे तो उस पर चर्चा करना कभी भी सम्भव नहीं होगा, क्योंकि सभी उससे सहमत होंगे।
{{ParPU|129}} हमारे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषयों के पहलू अपनी सरलता एवं अंतरंगता के कारण हमसे छुपे रहते हैं। (हम किसी वस्तु पर ध्यान देने में असमर्थ होते हैं — क्योंकि वह सदैव ही हमारी आँखों के सामने रहती है।) मनुष्य को अपनी जाँच का वास्तविक आधार तो सूझता ही नहीं जब तक कि कभी ''इस'' तथ्य ने उसे आकर्षित न किया हो। — और इसका अर्थ है: हमें एक बार समझ आ जाने पर जो विषय सर्वाधिक आकर्षक एवं सर्वाधिक प्रभावकारी है उससे आकृष्ट होने में साधारणतः हम असफल रहते हैं।
{{ParPU|130}} हमारे स्पष्ट एवं सरल भाषा-खेल, भाषा के भावी व्यवस्थापन के प्रारम्भिक अध्ययन नहीं हैं — यानी ये घर्षण एवं वायु-प्रतिरोध की उपेक्षा करके उस (भावी अध्ययन) के सबसे निकट हैं। भाषा-खेलों का गठन तो वस्तुतः ''तुलना के उन विषयों'' के समान है जिनका कार्य न केवल समानताओं द्वारा, अपितु असमानताओं द्वारा भी हमारी भाषा के तथ्यों पर प्रकाश डालना है।
{{ParPU|131}} क्योंकि हम अपने अभिकथनों में असंगति अथवा शून्यता के आदर्श को जस-का-तस, उपमान के समान, यानी मापदण्ड के समान, प्रस्तुत करके बच सकते हैं; न कि उस पूर्वकल्पित विचार को प्रस्तुत करके जिसके अनुरूप वास्तविकता को ''अनिवार्यतः'' होना चाहिए। (यह वही रूढ़िवाद है जिसमें हम तत्त्व-विचार करते समय सरलता से फँस सकते हैं।)
{{ParPU|132}} अपने भाषा-प्रयोग में हम व्यवस्था, किसी विशेष प्रयोजन हेतु व्यवस्था; अनेक सम्भव व्यवस्थाओं में से एक, न कि ''सर्वश्रेष्ठ'' व्यवस्था, स्थापित करना चाहते हैं। इसलिए हम उन भेदों को निरंतर प्रमुखता देंगे जिनकी भाषा के हमारे साधारण आकार सुगमता से उपेक्षा करवा देते हैं। इससे ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हमारा कार्य भाषा सुधारना हो।
किन्हीं विशिष्ट प्रयोजनों के लिए व्यवहार में गलतफहमियों से बचने के लिए अपनी शब्दावली में सुधार जैसा सुधार पूर्णतः सम्भव है। किन्तु ये वे स्थितियां नहीं हैं जिनसे हमें निपटना पड़ता है। उलझाने वाली भ्रान्तियां तभी उत्पन्न होती हैं जब भाषा एक निष्क्रिय इंजिन के समान होती है, न कि तब जब वह कार्यरत होती है।
{{ParPU|133}} हमारा उद्देश्य शब्द-प्रयोग की अपनी नियम-प्रणाली को बिल्कुल नये ढंग से संशोधित करना अथवा पूर्ण करना नहीं है।
क्योंकि जो स्पष्टता हमारा ध्येय है वह वास्तव में तो ''सम्पूर्ण'' स्पष्टता है। किन्तु इसका अर्थ तो केवल यह है कि दार्शनिक समस्याओं को ''पूर्णतः'' लुप्त हो जाना चाहिए।
खोज तो वह होती है जो मुझे यह क्षमता प्रदान करे कि मैं जब चाहूँ तब दार्शनिक चिन्तन से विरत हो सकूँ। — ऐसी खोज, जो दार्शनिक चिन्तन को शान्त करे, ताकि वह ''स्वयं को'' पैदा करने वाले प्रश्नों से खिन्न न हो। हम उदाहरणों द्वारा एक पद्धति प्रदर्शित करते हैं; और उदाहरणों की श्रृंखला को भंग किया जा सकता है। — इससे समस्याओं का समाधान (कठिनाइयों का खात्मा) किया जा सकता है, किसी ''एक'' समस्या का नहीं।
यद्यपि कोई ''एक'' दार्शनिक पद्धति नहीं होती, तथापि विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियों के समान दार्शनिक पद्धतियां तो होती हैं।
{{ParPU|134}} आइए हम इस प्रतिज्ञप्ति का परीक्षण करें : "पदार्थ ऐसे होते हैं।" — मैं कैसे कह सकता हूँ कि यह प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार है? मुख्य रूप से यह ''स्वयं'' ही एक प्रतिज्ञप्ति, एक हिन्दी वाक्य है, क्योंकि इसमें एक विषय एवं एक विधेय है। किन्तु इस वाक्य का प्रयोग हमारे दैनिक जीवन में कैसे किया जाता है? क्योंकि वह मुझे वहीं से मिला है, कहीं और से नहीं।
उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं: "उसने मुझे अपनी स्थिति बतलाई, अपनी कठिनाई बतलाई और यह कहा कि इसीलिए उसे पेशगी की जरूरत थी।" अब तो यह कहा जा सकता है कि वाक्य किसी अन्य कथन का पर्याय है। इसका प्रतिज्ञप्ति सम्बन्धी आकृति-कल्प के समान प्रयोग करने का कारण केवल यह है कि इसकी संरचना हिन्दी वाक्य वाली है। विकल्प में यह कहना सम्भव है कि "अमुक-अमुक स्थिति है", "यह स्थिति है", और तथावत्। यहाँ पर प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र में होने वाले प्रयोग के समान मात्र एक अक्षर, एक चर, का प्रयोग भी सम्भव है। किन्तु कोई भी "प" अक्षर को प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार नहीं कहेगा। यानी "पदार्थ ऐसे होते हैं" उसकी इस स्थिति का कारण हिन्दी का वाक्य होना है। पर यद्यपि यह एक प्रतिज्ञप्ति है, तो भी यह वाक्य प्रतिज्ञप्ति सम्बन्धी चर के समान प्रयुक्त होता है। यह कहना, कि यह प्रतिज्ञप्ति वास्तविकता के अनुरूप (अथवा उसके अनुरूप नहीं है, तो स्पष्टतः कोरी बकवास होगी। अतः इससे पता चलता है कि ''प्रतिज्ञप्ति के समान प्रतीत होना'' तो प्रतिज्ञप्ति के हमारे प्रत्यय का ''एक'' लक्षण है।
{{ParPU|135}} किन्तु हमारे पास प्रतिज्ञप्ति क्या होती है, "प्रतिज्ञप्ति" से हम क्या समझते हैं — इनका क्या कोई प्रत्यय नहीं होता? — हाँ, उसी तरह जैसे कि हमारे पास "खेल" से हमारा क्या अर्थ है इस का प्रत्यय होता है। प्रतिज्ञप्ति क्या होती है यह पूछे जाने पर — चाहे इसका उत्तर हमें किसी अन्य व्यक्ति को अथवा अपने आप को देना हो — हम उदाहरण देंगे, और इनमें आगमनात्मक विधि से परिभाषित की जाने वाली प्रतिज्ञप्तियों की श्रृंखला भी होगी। इस प्रकार के ढंग से ही हम 'प्रतिज्ञप्ति' जैसे प्रत्यय को जानते हैं। (प्रतिज्ञप्ति के प्रत्यय की, अंक के प्रत्यय से तुलना कीजिए।)
{{ParPU|136}} अंतत : "पदार्थ ऐसे होते हैं" इसको प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार कहना
यह परिभाषा देने के समान है कि जो भी सत्य अथवा असत्य हो सकती है वह प्रतिज्ञप्ति है। क्योंकि "पदार्थ ऐसे होते हैं" के बदले मैं कह सकता था "यह सत्य है"। (या फिर "यह असत्य है"।) किन्तु हमारे लिए :
‘'''प'''’ सत्य है = '''प'''
‘'''प'''’ असत्य है = नहीं - '''प'''
और यह कहना कि जो सत्य अथवा असत्य हो सकता है वह प्रतिज्ञप्ति होता है, इस कथन के समान है: जब ''अपनी भाषा में'' हम किसी विषय पर सत्य-फलन कलन (कैलकुलस) पद्धति को लागू करते हैं तो हम उसे प्रतिज्ञप्ति कहते हैं।
अब ऐसा प्रतीत होता है मानो — जो भी सत्य अथवा असत्य हो सकता है प्रतिज्ञप्ति होता है — इस परिभाषा ने प्रतिज्ञप्ति का निर्धारण यह कह कर किया : जो 'सत्य' के प्रत्यय के अनुकूल है, अथवा 'सत्य' का प्रत्यय जिसके अनुकूल होता है उसे प्रतिज्ञप्ति कहते हैं। यानी यह तो ऐसा ही हुआ जैसे हमारे पास सत्य अथवा असत्य का प्रत्यय था जिसे हम प्रतिज्ञप्ति क्या है अथवा क्या नहीं है इसका निर्धारण करने के लिए प्रयोग कर सकते थे। जो (दांतेदार पहिये के समान) सत्य के प्रत्यय के साथ ''सम्बद्ध'' हो जाता है, वही प्रतिज्ञप्ति कहलाता है।
किन्तु यह कोई अच्छी तस्वीर नहीं है। यह तो ऐसा हुआ जैसे शतरंज में राजा "वह मोहरा होता है जिसे शह दी जा सके।" किन्तु इसका अर्थ केवल यही हुआ कि शतरंज के खेल में हम केवल राजा को ही शह दे सकते हैं। उसी प्रकार यह प्रतिज्ञप्ति कि केवल ''प्रतिज्ञप्ति'' ही सत्य अथवा असत्य हो सकती है, का अर्थ इससे अधिक कुछ नहीं हो सकता कि केवल प्रतिज्ञप्ति कहलाने वाले विषय के लिए ही हम "सत्य" अथवा "असत्य" का विधान करते हैं। और प्रतिज्ञप्ति क्या होती है इसका निर्धारण एक अर्थ में तो वाक्य-रचना के नियमों (उदाहरणार्थ, हिन्दी भाषा के नियमों) द्वारा होता है, और एक अन्य अर्थ में भाषा-खेल में संकेतों के प्रयोग द्वारा भी। और "सत्य" एवं "असत्य" शब्दों का प्रयोग तो इस भाषा के संघटक भागों में से एक भाग हो सकता है; और यदि ऐसा है तो यह 'प्रतिज्ञप्ति' के हमारे प्रत्यय से सम्बन्धित तो है किन्तु उसके ‘''अनुकूल''’ नहीं है। जैसे हम कह सकते हैं कि शह देना शतरंज के राजा के हमारे प्रत्यय से सम्बन्धित है ( मानो वह उसका संघटक भाग हो)। शह देना प्यादों के हमारे प्रत्यय के ''अनुकूल'' नहीं है ऐसा कहने का अर्थ होगा कि ऐसा खेल जिसमें प्यादों को शह दी जाती हो, जिसमें अपने प्यादों को खो देने वाले खिलाड़ी हार जाते हों, अरुचिकर अथवा, मूर्खतापूर्ण, अथवा अत्यधिक जटिल, अथवा कुछ इसी प्रकार का होगा।
{{ParPU|137}} "क्यों अथवा क्या....?" प्रश्न द्वारा वाक्य के विषय को जानना सीखने के बारे में क्या कहें? — निश्चित रूप से यहाँ विषय का इस प्रश्न के 'अनुकूल' होने जैसा कुछ है; क्योंकि अन्यथा हमें प्रश्न द्वारा विषय क्या था इसका पता कैसे चलेगा? हमें इसका पता उसी प्रकार से चलता है जैसे हमें 'र' अक्षर के बाद कौन सा अक्षर आता है इस का पता 'र' अक्षर तक वर्णमाला के अक्षरों को याद करने पर चलता है। अब 'ल' शब्द किस अर्थ में इस अक्षर-श्रृंखला में फिट बैठता है। उसी अर्थ में "सत्य" एवं "असत्य" को प्रतिज्ञप्तियों के अनुकूल कहा जा सकता है; और शिशु को प्रतिज्ञप्तियों एवं अन्य अभिव्यक्तियों में भेद करना यह कहकर सिखाया जा सकता है "स्वयं से पूछो कि क्या तुम इसके पश्चात् 'सत्य है' कह सकते हो। यदि ये शब्द ऐसा कह सकने के अनुकूल हैं तो यह प्रतिज्ञप्ति है।" (और इसी प्रकार कहा जा सकता है कि स्वयं से पूछो कि क्या तुम “पदार्थ ''ऐसे'' होते हैं:" इन शब्दों को प्रतिज्ञप्ति के पहले रख सकते हो।)
{{ParPU|138}} किन्तु क्या मुझे समझ आने वाले शब्द का अर्थ मुझे समझ आने वाले वाक्य के अर्थ के अनुकूल नहीं हो सकता? अथवा एक शब्द का अर्थ दूसरे के अनुकूल नहीं हो सकता? — बेशक, यदि अर्थ हमारे द्वारा किये गये शब्द का ''प्रयोग'' है तो ऐसी 'अनुकूलता' के उल्लेख का कोई अर्थ ही नहीं होता। किन्तु जब हम शब्द को सुनते अथवा कहते हैं तो हम अर्थ को समझते हैं; हम उसे एकाएक ग्रहण कर लेते हैं, और इस प्रकार जिसे हम ग्रहण करते हैं उसे तो काल के परिमाण में होने वाले प्रयोग से भिन्न होना चाहिए !
{{PU box|क्या मुझे यह ''विदित'' होना चाहिए कि मैं शब्द को समझता हूँ? कभी-कभी क्या मैं शब्द को समझने की कल्पना नहीं करता। (जैसे मैं एक प्रकार के परिकलन को समझने की कल्पना कर सकता हूँ) और फिर अनुभव करता हूँ कि मैं उसे नहीं समझता? ("मैं समझता था कि मुझे 'सापेक्ष' एवं 'निरपेक्ष' गति के अर्थ का ज्ञान है, किन्तु मैं पाता हूँ कि मुझे उसका ज्ञान नहीं है।")}}
{{ParPU|139}} उदाहरणार्थ, जब कोई मेरे सामने "घन" शब्द का उल्लेख करता है तो मैं जानता हूँ कि इसका क्या अर्थ है। किन्तु जब मैं उसे इस ढंग से ''समझता'' हूँ तो क्या उस शब्द के सम्पूर्ण ''प्रयोग'' मेरे समक्ष आ जाते हैं?
किन्तु दूसरी ओर क्या शब्द का अर्थ निर्धारित करने के इन ढंगों में कोई विरोध नहीं हो सकता? क्या जिसे हम ''यकायक'' ग्रहण करते हैं उसका किसी प्रयोग से तालमेल हो सकता है, — क्या वह उसके अनुकूल है अथवा उसके प्रतिकूल ? और जो क्षण-भर में हमारे समक्ष, हमारे मन के समक्ष आ जाता है, वह किसी ''प्रयोग'' के अनुकूल कैसे हो सकता है?
जब हम किसी शब्द को ''समझते'' हैं तो हमारे मन के समक्ष क्या आता है? — क्या वह चित्र जैसा ही कुछ नहीं होता? क्या वह चित्र नहीं हो ''सकता''?
हाँ तो मान लें कि जब आप "घन" शब्द सुनते हैं तो आपके मन के समक्ष एक चित्र, यानी किसी घन का रेखांकन, आता ही है। किन अर्थों में यह चित्र "घन" शब्द प्रयोग के अनुकूल अथवा प्रतिकूल हो सकता है। — सम्भवतः आप कहें : "यह तो नितान्त सरल है; — यदि मेरे ध्यान में वह चित्र आता है और उदाहरणार्थ, मैं एक तिकोने प्रिज्म को इंगित करता हूँ और कहता हूँ कि वह एक घन है, तो इस शब्द का यह प्रयोग चित्र के अनुकूल नहीं होता।" — किन्तु क्या यह अनुकूल नहीं है? मैंने जानबूझ
कर ऐसा उदाहरण चुना है ताकि ''प्रक्षेपण की ऐसी पद्धति'' — जिसके अनुसार अन्ततः चित्र अनुकूल हो जाता है — की कल्पना नितान्त सुगम हो जाये।
वास्तव में घन का चित्र एक विशेष प्रयोग सुझाता है, किन्तु मैं उसका प्रयोग विभिन्न ढंगों से कर सकता था।
{{PU box|(क) "इस स्थिति में मेरा विश्वास है कि... उचित शब्द है"। क्या यह नहीं दर्शाता कि शब्द का अर्थ वह है जो हमारे मन के समक्ष आता है, जो कि, मानो एक निश्चित चित्र है जिसे यहाँ हम प्रयोग करना चाहते हैं? मान लीजिए मुझे "प्रभावशाली", "अभिजात", "गौरवान्वित", "श्रद्धेय" शब्दों में चुनाव करना है; क्या यह पोर्टफोलियो में से किसी एक चित्र को चुनने के समान नहीं है? — नहीं; हम ''उचित'' शब्द का प्रयोग करते हैं इस तथ्य से यह ''पता'' नहीं लगता कि उस प्रकार के विषय का कोई अस्तित्व है। क्योंकि हमें कोई शब्द उचित शब्द लगता है; क्योंकि हम मिलते-जुलते किन्तु असमान चित्रों में चुनाव के समान शब्दों का चुनाव करते हैं; क्योंकि हम बहुधा शब्दों के स्थान पर चित्रों का प्रयोग करते हैं, अथवा शब्दों का उदाहरण देने के लिए चित्रों का प्रयोग करते हैं एवं इसी प्रकार की अन्य क्रियाएं करते हैं, इसीलिए हम चित्र के समान विषय का उल्लेख करने को प्रवृत्त होते हैं।
(ख) मैं एक चित्र देखता हूँ; जिसमें छड़ी पर झुके एक वृद्ध व्यक्ति को दुर्गम मार्ग पर चलते हुए दिखाया गया है। — कैसे? क्या वह बिल्कुल वैसा ही नहीं दिखता यदि वह उस स्थिति में नीचे फिसल रहा होता? सम्भवतः कोई मंगलग्रहवासी चित्र की ऐसी ही व्याख्या करे। ''हम'' उसका विवरण ऐसे क्यों नहीं देते यह व्याख्या करना मेरे लिए आवश्यक नहीं है।}}
{{ParPU|140}} तो मैंने किस प्रकार की भूल की; क्या हम उसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार करेंगे : मुझे यह समझना चाहिए था कि चित्र ने मुझपर एक विशेष प्रयोग आरोपित किया? मैं यह कैसे समझ सकता था? मैंने क्या ''समझा''? क्या चित्र जैसी कोई वस्तु होती है, अथवा चित्र के समान कुछ होता है जो हम पर एक विशेष प्रयोग आरोपित करता है; यानी मेरी भूल का कारण तो मेरे द्वारा एक चित्र को किसी अन्य चित्र के समान समझ लेना था? — क्योंकि हम ऐसा भी कह सकते हैं: हमें तार्किक मजबूरी की बजाय ज्यादा से ज्यादा मनोवैज्ञानिक मजबूरी ही है। और अब हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो हमें स्थिति के दो प्रकारों का ज्ञान हो।
मेरे तर्क का परिणाम क्या था? उसने हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया (हमें याद दिलाया) कि आरम्भ में जिस प्रक्रिया के बारे में हमने सोचा था, उससे भिन्न कई अन्य प्रतिक्रियाएं भी होती हैं जिन्हें हमें "घन के चित्र का प्रयोग" कहने को तत्पर रहना चाहिए। अतः हमारा 'विश्वास कि चित्र ने हम पर एक विशेष प्रयोग आरोपित किया' इस तथ्य में निहित है कि हमें केवल एक ही बात सूझी। "कोई अन्य समाधान भी होता है" इसका अर्थ है: मैं किसी अन्य को भी "समाधान" कहने के लिए तत्पर हूँ; जिसके लिए मैं अमुक-अमुक चित्र अमुक-अमुक उपमा आदि का प्रयोग करने के लिए तैयार हूँ।
आवश्यक तो यह समझना है कि जब हम शब्द चुनते हैं तो हमारे मन के समक्ष एक ही विषय आ सकता है, किन्तु फिर भी उस शब्द के प्रयोग भिन्न हो सकते हैं। क्या दोनों बार उसका ''एक-ही'' अर्थ होता है? मैं समझता हूँ कि हम कहेंगे, नहीं।
{{ParPU|141}} बहरहाल, मान लीजिए कि न केवल घन का चित्र अपितु प्रक्षेपण की पद्धति भी हमारे मन के समक्ष आती है? — मैं इसकी कल्पना कैसे करूँ? — सम्भवतः मैं अपने समक्ष प्रक्षेपण-पद्धति को प्रदर्शित करने वाले आकृति-कल्प, मान लीजिए कि प्रक्षेपण की रेखाओं द्वारा जुड़े दो घनों के चित्र को देखता हूँ। — किन्तु वास्तव में क्या मैं इससे कुछ आगे बढ़ सकता हूँ? क्या अब मैं इस आकृति-कल्प के भी भिन्न प्रयोगों की कल्पना नहीं कर सकता? — बेशक हाँ, किन्तु तब क्या ''प्रयोग मेरे मन के समक्ष'' नहीं आ सकता? — आ सकता है: हमें मात्र इस अभिव्यक्ति के प्रयोग के बारे में स्पष्ट होने की आवश्यकता भर है। मान लीजिए कि मैं किसी को प्रक्षेपण की विविध पद्धतियों की व्याख्या करता हूँ ताकि वह उनका प्रयोग कर सके; आइए हम अपने आप से पूछें कि हमें कब कहना चाहिए कि उसके मन के समक्ष ''वही'' पद्धति आती है जिसे मैं उसे बताना चाहता हूँ।
अब यह तो स्पष्ट है कि हमें दो भिन्न प्रकारों की कसौटियां स्वीकार्य हैं: एक ओर तो (किसी भी प्रकार का) वह चित्र है जो कभी न कभी उसके मन के समक्ष आता है; दूसरी ओर, उसके द्वारा कल्पित विषय का कालक्रम में, उसी के द्वारा किया गया प्रयोग होता है। (और क्या यहाँ स्पष्ट रूप से यह नहीं समझा जा सकता कि उसकी कल्पना में चित्र का होना बहुत अनावश्यक है, उसके समक्ष उपस्थित किसी आरेखन या मॉडल की तरह; अथवा किसी ऐसे विषय की तरह जिसे वह मॉडल के रूप में समझता है।)
क्या चित्र और प्रयोग में भिड़न्त हो सकती है? बिल्कुल हो सकती है, क्योंकि चित्र से हमें किसी भिन्न प्रयोग की अपेक्षा रहती है, क्योंकि सामान्यतः, लोग ''इस'' चित्र को इस प्रकार प्रयोग करते हैं।
मैं कहना चाहता हूँ : हमारे पास यहाँ एक सामान्य स्थिति और अनेक असामान्य स्थितियां हैं।
{{ParPU|142}} शब्द का प्रयोग सामान्य स्थितियों में ही निर्धारित होता है; हमें इस अथवा उस स्थिति में क्या कहना है इसके बारे में हम जानते हैं, हमें कोई संदेह नहीं होता। स्थिति जितनी अधिक असामान्य होती है उतनी ही अपनी अभिव्यक्ति के बारे में हमारी संदिग्धता बढ़ती जाती है। और यदि विषय अपनी वस्तुस्थिति से अत्यन्त भिन्न होते — उदाहरणार्थ, यदि वेदना की, भय की, हर्ष की, कोई विशेष अभिव्यक्ति न होती; यदि नियम अपवाद बन जाते, और अपवाद नियम; अथवा दोनों लगभग समान आवृत्ति वाली संवृत्तियां बन जातीं — तो हमारे सामान्य भाषा-खेलों की विशेषता लुप्त हो जाती। — यदि पनीर के टुकड़े अनायास घट-बढ़ जाते तो उन्हें तोलने और दाम लगाने की पद्धति की विशेषता लुप्त हो जाती। यह टिप्पणी तब और भी अधिक स्पष्ट हो जाएगी जब हम अनुभूति का अभिव्यक्ति से सम्बन्ध जैसे विषयों, और वैसे ही अन्य विषयों की व्याख्या करेंगे।
{{PU box|प्रत्यय की सार्थकता, मेरा तात्पर्य उसकी महत्ता से है, की व्याख्या करने के लिए बहुधा हमें प्रकृति के अत्यन्त सामान्य तथ्यों का उल्लेख करना पड़ता है ऐसे तथ्यों का जिनका उल्लेख उनके अति सामान्य होने के कारण कभी किया ही नहीं जाता।}}
{{ParPU|143}} आइए अब हम निम्नलिखित प्रकार के भाषा-खेल का परीक्षण करें : जब क आदेश दे तो ख को एक विशिष्ट संरचना-नियमावली के अनुसार संकेत-श्रृंखला लिखनी पड़ेगी।
इनमें से प्रथम श्रृंखला दशमलव अंकन पद्धति के घन पूर्णांकों की है। — वह इस अंकन-पद्धति को कैसे समझता है? — सर्वप्रथम उसके लिए अंकों की श्रृंखला को लिखा जाएगा और उनकी नकल करनी होगी। ("अंकों की शृंखला" इस अभिव्यक्ति पर अचकचाने की आवश्यकता नहीं है; यहाँ इसका प्रयोग अनुचित नहीं है।) और यहाँ पर पहले से ही सामान्य एवं असामान्य शिक्षार्थी की प्रतिक्रिया होती है। — सम्भवतः, सर्वप्रथम हम उसका हाथ पकड़ कर 0 से 9 श्रृंखला लिखने में मदद करते हैं; परन्तु फिर ''उसकी समझ में आने की सम्भावना'' इस बात पर निर्भर करती है कि वह बिना किसी सहायता के लिखता चला जाये। — और यहाँ हम कल्पना कर सकते हैं कि वह अपने-आप अंकों की नकल तो करता है, किन्तु उनके उचित क्रम में नहीं; वह अपनी मनमर्जी से कभी एक और कभी किसी अन्य अंक को लिखता है। और ''उस'' बिन्दु पर संवाद थम जाता है। अथवा पुनः, वह क्रम में ‘''त्रुटियां''’ करता है। बेशक, इसमें और प्रथम स्थिति में मात्र आवृत्ति का अन्तर है। — अथवा वह ''नियमित'' गलती करता है; उदाहरणार्थ वह एक अंक छोड़कर दूसरे अंक को नकल करता है, यानी वह 0, 1, 2, 3, 4, 5.... श्रृंखला की इस प्रकार नकल करता है: 1, 0, 3, 2, 5, 4....। यहाँ हम यह कहना चाहेंगे कि उसने ''गलत'' समझा है।
बहरहाल गौर कीजिए कि मनमानी त्रुटि और नियमित त्रुटि में स्पष्ट भेद नहीं है। यानी उनमें जिन्हें आप "मनमानी" और "नियमित" त्रुटि कहना चाहते हैं।
यह सम्भव है कि उसे नियमित त्रुटि से प्रयत्नपूर्वक बचाया जा सके (जैसे किसी गंदी आदत से किसी को बचाया जाता है)। अथवा सम्भवतः हम उसके नकल करने के ढंग को स्वीकार कर लें और उसे अपना ढंग उसके ढंग से व्युत्पन्न ढंग के समान, उसके ढंग के परिवर्तित ढंग के रूप में सिखाने का प्रयत्न करें। — और यहाँ भी हमारे शिष्य के सीखने की क्षमता समाप्त हो सकती है।
{{ParPU|144}} "यहाँ शिष्य के सीखने की क्षमता ''समाप्त हो सकती'' है" यह कहने से मेरा क्या तात्पर्य है? क्या मैं ऐसा अपने अनुभव से कहता हूँ? बेशक नहीं। (चाहे मुझे ऐसा अनुभव हुआ भी हो।) तो, मैं उस प्रतिज्ञप्ति का क्या कर रहा हूँ? बेशक, मैं चाहता हूँ कि आप कहें : "हाँ यह सत्य है, आप इसकी कल्पना भी कर सकते हैं, ऐसा हो भी सकता है!" — किन्तु क्या मैं इस तथ्य की ओर किसी का ध्यान दिलाना चाहता था कि उसमें यह क्षमता है कि वह इसकी कल्पना कर सके? — मैं उस चित्र को उसके समक्ष रखना चाहता था, और चित्र की उसकी ''समझ'' उस प्रदत्त स्थिति को भिन्न प्रकार से समझ सकने में निहित है: यानी इस स्थिति की तुलना चित्रों के ''इस'' समूह से, न कि ''उस'' समूह से कर सकने में। मैंने ''विषयों सम्बन्धी उसकी दृष्टि'' में परिवर्तन कर दिया है। (भारतीय गणितज्ञ : "इस पर विचार करें")
{{ParPU|145}} मान लीजिए अब शिष्य द्वारा 0 से 9 तक अंक-श्रृंखला लिखने से हम संतुष्ट हैं। — और यह संतुष्टि उसके बहुधा सफल होने पर ही होगी न कि उसके सौ बार में से एक बार ठीक होने पर। अब मैं श्रृंखला को आगे बढ़ाता हूँ और इकाई की प्रथम श्रृंखला में पुनरावृत्ति की ओर उसका ध्यान आकर्षित करता हूँ, और फिर दहाई की पुनरावृत्ति की ओर। (इसका अर्थ मात्र यह है कि मैं एक विशिष्ट बलाघात का प्रयोग करता हूँ, अंकों को रेखांकित करता उनको अमुक-अमुक ढंग से एक के बाद दूसरा अंक लिखता हूँ, और इस समान ही कुछ और करता हूँ।) — और अब कुछ समय बाद वह श्रृंखला को स्वाधीनतापूर्वक आगे बढ़ाता है — अथवा नहीं बढ़ाता। — किन्तु आप ऐसा क्यों कहते हैं? ''इतना'' तो स्पष्ट ही है! — बेशक; मैं तो यही कहना चाहता था : किसी भी आगामी ''व्याख्या'' का परिणाम तो शिक्षार्थी की ''प्रतिक्रिया'' पर निर्भर करता है।
बहरहाल, अब हम मान लेते हैं कि अध्यापक के थोड़े प्रयत्नों के बाद वह श्रृंखला को ठीक ढंग से आगे बढ़ाता है, ठीक वैसे ही जैसे हम उसे आगे बढ़ाते हैं। तो अब हम कह सकते हैं कि उसने प्रणाली में निपुणता प्राप्त कर ली है। —  किन्तु उसे श्रृंखला
को कहाँ तक बढ़ाना पड़ेगा ताकि हम ऐसा कह सकें? स्पष्ट है कि यहाँ आप कोई सीमा तय नहीं कर सकते।
{{ParPU|146}} मान लीजिए कि अब मैं पूछता हूँ : "जब वह सौवें स्थान तक श्रृंखला को आगे बढ़ाता है, क्या तब वह प्रणाली को समझ जाता है?" अथवा — क्या मुझे हमारी आदिम भाषा-खेल के सम्बन्ध में 'समझने' का उल्लेख ही नहीं करना चाहिए : यदि वह श्रृंखला को उचित रूप से यहाँ तक आगे बढ़ा लेता है, तो क्या वह प्रणाली को समझ जाता है? — सम्भवतः, यहाँ आप कहेंगे : प्रणाली को जानना (अथवा, फिर, उसे समझना) श्रृंखला को ''इस'' या ''उस'' संख्या तक आगे बढ़ाने में निहित नहीं हो सकता : ''वह'' तो अपनी समझ के प्रयोग में निहित है। समझना तो स्वयं ही एक स्थिति है जो उचित प्रयोग का स्रोत है।
वास्तव में हम यहाँ क्या सोच रहे हैं? क्या हम श्रृंखला को बीजगणितीय सिद्धान्त से व्युत्पत्ति के बारे में नहीं सोच रहे? अथवा कमोबेश इसी जैसे किसी विषय के बारे में? — किन्तु यही बात तो हम पहले भी कह रहे थे। बात यह है कि बीजगणितीय सिद्धान्त के ''एक'' से अधिक प्रयोग के बारे में हम सोच सकते हैं; और हर प्रकार के प्रयोग का बीजगणितीय सूत्रीकरण भी किया जा सकता है; किन्तु निश्चित रूप से यह हमें कुछ आगे नहीं बढ़ाता। — अब भी समझने की कसौटी तो प्रयोग ही है।
{{ParPU|147}} "किन्तु ऐसा कैसे हो सकता है? जब मैं कहता हूँ कि मैं श्रृंखला के नियम को समझ गया हूँ तो मैं निश्चयपूर्वक ऐसा इसलिए नहीं कहता कि मुझे ''ज्ञात हो गया है'' कि मैंने अब तक बीजगणितीय सिद्धान्त को अमुक-अमुक ढंग से प्रयोग किया है! मेरी अपनी स्थिति में, प्रत्येक अवस्था में, मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि मेरा तात्पर्य अमुक-अमुक श्रृंखला है; इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि मैंने उसे कहाँ तक विकसित किया है।" —
तो आपका विचार है कि विशेष अंकों पर वास्तविक प्रयोगों को पूरी तरह भुलाकर आप शृंखला-नियम प्रयोग के बारे में पूरी तरह जानते हैं? और सम्भवतः आप कहें : "बेशक! क्योंकि शृंखला तो अपरिमित है और जिस खंड को मैं विकसित कर सकता हूँ वह तो सीमित होती है।"
{{ParPU|148}} किन्तु इस ज्ञान में क्या निहित है? मैं पूछना चाहता हूँ! आपको उस प्रयोग का ज्ञान कब होता है? सदैव? दिन-रात? अथवा केवल तब जब आप वास्तव में नियम के बारे में सोचते हैं? क्या आप उसे जानते हैं, यानी, उसी प्रकार जैसे आप वर्णमाला को एवं पहाड़े को जानते हैं? अथवा जिसे आप "ज्ञान" कहते हैं क्या वह चेतना की अथवा किसी प्रक्रिया की अवस्था है — यानी किसी विषय अथवा उसके समान किसी विचार की?
{{ParPU|149}} यदि कोई कहे कि क ख ग जानना तो मन की एक स्थिति है, तो वह हमारे द्वारा ज्ञान की ''अभिव्यक्तियों'' की व्याख्या देने वाले मानसिक उपकरण की (सम्भवतः मस्तिष्क की) स्थिति के बारे में सोचता है। ऐसी स्थिति आदत कहलाती है। किन्तु मन की स्थिति के उल्लेख पर आपत्तियां हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति की दो भिन्न-भिन्न कसौटियां होनी चाहिए : उपकरण की क्रिया से नितान्त भिन्न उसकी संरचना का ज्ञान। (यहाँ चेतना की अवस्था और आदत में तुलना के लिए "चेतन" और "अचेतन" शब्दों के प्रयोग से अधिक भ्रमित करने वाला कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि पदों का यह युग्म व्याकरणगत भेद को छिपा देता है।)
{{PU box|(क) “शब्द को समझना” : एक स्थिति। किन्तु एक ''मानसिक'' स्थिति? — विषाद, उत्तेजना, वेदना मानसिक स्थितियां कहलाती हैं। निम्नलिखित व्याकरणिक अन्वेषण कीजिए : हम कहते हैं,
"सारे दिन वह उदास रहा।"
"सारे दिन वह उत्तेजित रहा।"
"उसे कल से निरन्तर वेदना हो रही है।"
हम यह भी कहते हैं "इस शब्द को मैं कल ही समझ पाया।" यद्यपि क्या उसके बाद मैं "''निरन्तर''" उस शब्द को समझता रहा? — वस्तुतः समझ में रुकावट आने के बारे में तो हम कह सकते हैं। किन्तु कौनसी स्थितियों में? तुलना कीजिए : "आपका दर्द कब कम हुआ?" इस अभिव्यक्ति और "आपने इस शब्द को समझना कब छोड़ दिया?" अभिव्यक्ति में।
(ख) मान लीजिए कि कोई पूछे : "आप ''कब'' कहते हैं कि आपको शतरंज खेलना आता है? हर समय? या फिर चाल चलते समय ही? और हर चाल के दौरान ''पूरे'' शतरंज के खेल के बारे में? — कितनी विचित्र बात है कि शतरंज का खेल खेलना आने में इतना कम समय लगता है और इसको खेलने में इतनी देर!"}}
{{ParPU|150}} "विदित होना" शब्द के व्याकरण का तो "सकने", "समर्थ होना" शब्दों व्याकरण से गहरा सम्बन्ध है। किन्तु उसका "समझना" के व्याकरण से भी गहरा सम्बन्ध है। (किसी तकनीक में निपुणता।)
{{ParPU|151}} किन्तु "विदित होना" शब्द का ''यह'' प्रयोग भी है: हम कहते हैं "अब मैं इसे जानता हूँ!" — और उसी प्रकार "अब मैं इसे कर सकता हूँ!" और "अब मैं इसे समझता हूँ!"
मुझे निम्नलिखित उदाहरण की कल्पना करने दें&nbsp;: क अंकों की शृंखला को लिखता है; ख उसे देखता है और अंकों के अनुक्रम के नियम को खोजने का प्रयत्न करता है। यदि वह सफल हो जाता है तो वह खुशी से चीख उठता है "अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ!" अतः यह क्षमता, यह बोध कुछ ऐसा है जो क्षण में ही प्रकट हो जाता है। तो आइए हम विचार करें कि क्या प्रकट होता है। — क ने 1, 5, 11, 19, 20 संख्याएं लिखीं हैं; इस क्षण ख कहता है कि वह जानता है कि आगे कैसे बढ़ना है। यहाँ क्या हुआ? विभिन्न बातें हो सकती हैं; उदाहरणार्थ, जब क धीरे-धीरे एक के बाद दूसरी संख्या लिख रहा था, तो ख लिखित संख्याओं पर विभिन्न बीजगणितीय सिद्धान्तों का परीक्षण करने में व्यस्त था। जब क ''19'' संख्या लिख चुका तो ख ने अ<sub>न</sub> = न<sup>2</sup> + न − 1 सिद्धान्त का परीक्षण किया; और क द्वारा लिखित उससे आगामी संख्या ने ख की परिकल्पना की पुष्टि कर दी।
अथवा फिर ख सिद्धान्तों के बारे में सोचता ही नहीं। वह क को तनावपूर्ण स्थिति में संख्याएं लिखते हुए देखता है, और उसके मन में अनेक संकल्प-विकल्प उठते हैं। अन्ततः वह अपने आप से पूछता है: "व्यतिरेक श्रृंखला क्या होती है? वह 4, 6, 8, 10 श्रृंखला को खोज लेता है और कहता है: अब मैं श्रृंखला को आगे बढ़ा सकता हूँ।
अथवा वह निरीक्षण करता है और कहता है "हाँ मैं उस श्रृंखला को जानता हूँ" — और उसे वैसे आगे बढ़ाता है जैसे वह क द्वारा लिखी गई 1, 3, 5, 7, 9 श्रृंखला को आगे बढ़ाता। — अथवा वह कुछ भी नहीं कहता और श्रृंखला को आगे बढ़ाता चला जाता है। सम्भवतः, उसे "यह तो सरल है!" ऐसी अनुभूति होती है। (उदाहरणार्थ, स्तम्भित होने पर लंबी सांस लेना एक ऐसी ही अनुभूति है।)
{{ParPU|152}} किन्तु क्या मेरे द्वारा व्याख्यायित प्रक्रियाओं को ''समझ'' कहा जा सकता है?
"ख श्रृंखला-सिद्धान्त को समझाता है" इसका निश्चित रूप से यह अर्थ तो नहीं है: ख को "अ<sub>न</sub> = ...." सिद्धान्त सूझता है। क्योंकि इसकी कल्पना तो की जा सकती है कि उसे वह सिद्धान्त सूझता है किन्तु वह उसे समझ नहीं आता। "वह समझता है" इसमें सिद्धान्त उसे सूझता है, इससे अधिक कुछ निहित होना चाहिए। और इसी प्रकार कमोबेश उसके ''सहगामी'' गुणों अथवा समझ की अभिव्यक्तियों से अधिक कुछ।
{{ParPU|153}} हम समझ की ऐसी मानसिक प्रक्रियाओं को पाने का प्रयत्न कर रहे हैं स्थूल और इसीलिए उससे जुड़े सरलता से दिखाई दी जाने वाले संलग्नी विषयों के पीछे छिपी हुई प्रतीत होती हैं। किन्तु हम सफल नहीं होते; अथवा, वस्तुतः वह वास्तविक प्रयत्न के पास भी नहीं पहुँचता। क्योंकि यदि हम मान भी लें कि समझ की इन सभी स्थितियों में होने वाला विषय मुझे मिल भी गया हो, — तो भी ''वह'' समझ क्योंकर हो? और समझ की प्रक्रिया छिपी हुई कैसे हो सकती है जब मैं कहता हूँ, "अब मैं समझता हूँ" ''क्योंकि'' मैं समझ गया हूँ! और यदि मैं कहता हूँ कि वह छिपी हुई है — तो मैं कैसे जानता हूँ कि मुझे क्या खोजना है? मैं दलदल में फँसा हूँ।
{{ParPU|154}} किन्तु थोड़ी प्रतीक्षा करें — यदि "अब मैं सिद्धान्त को समझता हूँ" का अर्थ "... सिद्धान्त मेरे ध्यान में आता है" (अथवा "मैं सिद्धान्त का उल्लेख करता हूँ", "मैं उसे लिखता हूँ", इत्यादि) के समान नहीं है — तो क्या उससे यह परिणाम निकलता है कि "अब मैं समझता हूँ....." अथवा "अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ" इन वाक्यों का प्रयोग उस सिद्धान्त के उल्लेख की अनुवर्ती अथवा सहवर्ती प्रक्रिया के विवरण के रूप में करता हूँ?
यदि 'सिद्धान्त के उच्चारण के पीछे' कुछ होना जरूरी है तो वह हैं कुछ विशिष्ट परिस्थितियाँ — जो सिद्धान्त का स्मरण करते समय मेरे आगे बढ़ सकने के कथन का औचित्य बताती हैं।
समझ को 'मानसिक प्रक्रिया' जैसा समझने का प्रयत्न बिल्कुल न करें — क्योंकि ''वह'' अभिव्यक्ति ही आपको भ्रमित करती है। किन्तु अपने आप से पूछें&nbsp;: किस प्रकार की स्थिति में, किस प्रकार की परिस्थितियों में हम कहते हैं "अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है", यानी उस समय जब सिद्धान्त मेरे ध्यान में आ ''गया'' हो? —
उस अर्थ में जिसमें समझ की विशिष्ट प्रक्रियाएं (मानसिक प्रक्रियाओं को सम्मिलित करके) होती हैं, समझ मानसिक प्रक्रिया नहीं है।
(वेदना कम या अधिक हो रही है; गाने की धुन अथवा वाक्य को सुनना&nbsp;: ये मानसिक प्रक्रियाएं हैं।)
{{ParPU|155}} अतः मैं जो कहना चाहता था&nbsp;: जब उसने यकायक जाना कि आगे कैसे बढ़ना है, जब उसने सिद्धान्त को समझा, तो संभवतः उसे कोई विशेष अनुभव हुआ — और यदि उससे पूछा जाए&nbsp;: "वह क्या था?, जब तुमने सिद्धान्त को यकायक समझ लिया तो क्या घटित हुआ?" संभवतः वह इसका विवरण हमारे उपर्युक्त विवरण के समान ही देगा — किन्तु हमारे लिए तो ''ऐसी परिस्थितियां'' — जिनमें उसको इस प्रकार का अनुभव हुआ हो कि वह कह सके कि वह समझता है, वह जानता है कि आगे कैसे बढ़ना है — ही उसके ऐसा कहने का औचित्य सिद्ध करती हैं।
{{ParPU|156}} एक अन्य शब्द, उदाहरणार्थ, "पठन" शब्द की समीक्षा को यदि हम समाविष्ट कर लें तो यह अधिक स्पष्ट हो जाएगा। मुझे यह टिप्पणी करने की आवश्यकता है कि इस अन्वेषण के लिए मैं, पठन की समझ को, 'पठन' का भाग नहीं मानता&nbsp;: यहाँ पठन से तात्पर्य लिखित अथवा मुद्रित सामग्री को उच्चस्वर में अभिव्यक्त करना, इमला से लिखना, मुद्रित सामग्री को लिखना और स्वरलिपि से गायन आदि है।
हमारे जीवन की साधारण परिस्थितियों में इस शब्द के प्रयोग से बेशक हम बेहद परिचित हैं। किन्तु हमारे जीवन में और इसीलिए उस भाषा-खेल में जिसमें हम उस शब्दको प्रयुक्त करते हैं इस शब्द की भूमिका की अस्पष्ट व्याख्या करना भी कठिन होगा। किसी व्यक्ति ने, मान लीजिए किसी अंग्रेज़ ने, पाठशाला में अथवा अपने घर पर, प्रचलित शिक्षा प्राप्त की है, और उस अवधि में अपनी मातृभाषा भी सीख ली है। इसके बाद वह पुस्तकें, पत्र, समाचार-पत्र आदि पढ़ता है।
अब, क्या घटित होता है जब वह, मान लीजिए कि, समाचार-पत्र पढ़ता है? — उसकी दृष्टि — जैसा हम कहते हैं — मुद्रित शब्दों के साथ-साथ चलती है, वह जोर से अथवा मन ही मन शब्दों को बोलता है; विशेषतः वह कुछ विशेष शब्दों को उनकी मुद्रित आकृतियों को, पूर्ण रूप से देख-समझकर पढ़ता है, अन्य शब्दों को उनके प्रथमाक्षर देखते ही, अन्यान्य शब्दों को अक्षर-दर-अक्षर और संभवतः किसी-किसी शब्द को एक-एक अक्षर जोड़कर। — हमें यह भी कहना चाहिए कि उसने वाक्य को पढ़ लिया था चाहे उसने पढ़ते समय न तो उच्चस्वर से और न ही मन-ही-मन पाठ किया हो, किन्तु बाद में वाक्य को शब्दानुसार अथवा लगभग शब्दानुसार, दुहरा दिया हो। — वह पढ़े हुए विषय पर ध्यान दे सकता है, या फिर — जैसा हम कह सकते हैं — वह एक पठन-यंत्र के समान ही कार्य करे&nbsp;: मेरा तात्पर्य है, वह पाठ को बिना ध्यान दिए उच्चस्वर से ठीक-ठीक पढ़े; संभवतः उसका ध्यान किसी नितान्त भिन्न विषय में हो। (यानी यदि पढ़ने के एक दम बाद ही उससे पूछा जाए कि वह क्या पढ़ रहा था तो वह उत्तर देने में असमर्थ हो।)
अब एक नौसिखिए की इस पाठक से तुलना कीजिए। नौसिखिया शब्दों को बड़ी ठता से एक एक अक्षर बाँच कर पढ़ता है। — कुछ को तो, वह प्रसंग से ही भाँप लेता है, अथवा संभवतः उसे वह उद्धरण पहले से ही अंशत&nbsp;: कंठस्थ है। ऐसी स्थिति में अध्यापक कहता है कि वह वास्तव में शब्दों को ''पढ़'' नहीं रहा (और कुछ अन्य स्थितियों में अध्यापक कहता है कि वह उनको पढ़ने का नाटक कर रहा है)।
यदि हम ''इस'' प्रकार के पढ़ने को नौसिखिए का पढ़ना समझें और अपने आप से पूछें कि ''पठन'' में क्या निहित है, तो हम कहना चाहेंगे&nbsp;: यह मन की एक चेतन क्रिया है।
हम शिष्य के बारे में भी यही कहते हैं: "बेशक, वही जानता है कि वह वास्तव में पढ़ रहा है अथवा शब्दों को स्मृति से बोल रहा है"। (अभी हमें इन प्रतिज्ञप्तियों का विवेचन करना है: "वही जानता है कि....."।)
किन्तु मैं कहना चाहता हूँ हमें यह मानना पड़ेगा कि — जहाँ तक मुद्रित शब्दों के उच्चारण का प्रश्न है — पढ़ने का 'नाटक करने' वाले शिष्य की चेतना में और वस्तुतः 'पढ़ने' वाले अनुभवी पाठक की चेतना में एक ही प्रक्रिया होती है। जब हम नौसिखिए और अनुभवी पाठक का उल्लेख करते हैं तो हम "पठन" शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार से करते हैं। — बेशक अब हम कहना चाहेंगे&nbsp;: शब्द का उच्चारण करते हुए नौसिखिए और अनुभवी पाठक में समान प्रक्रिया नहीं हो ''सकती''। और यदि जिसके प्रति वे सचेत होते हैं में कोई भेद न हो, तो उनके अचेतन मन में अथवा फिर उनके मस्तिष्क में कोई भेद अवश्य होना चाहिए। — अतः हम कहना चाहेंगे&nbsp;: यहाँ सभी परिस्थितियों में दो भिन्न प्रणालियां कार्यरत हैं। इन्हीं प्रणालियों द्वारा पठन और अपठन का भेद करना चाहिए — किन्तु ये प्रणालियां तो मात्र परिकल्पनाएं हैं, वे तो आपके प्रेक्षणों के संकलन और उनकी व्याख्या के लिए बनाये गये नमूने हैं।
{{ParPU|157}} निम्नलिखित स्थिति पर ध्यान दीजिए। हम मनुष्यों को अथवा किसी अन्य प्रकार के प्राणियों को पठन-यंत्रों के समान प्रयुक्त करते हैं। उन्हें इस उद्देश्य से प्रशिक्षित करते हैं। उनमें से कुछ के बारे में प्रशिक्षक कहता है कि वे पहले से ही पढ़ सकते हैं, दूसरों के बारे में वह कहता है कि वे अभी नहीं पढ़ सकते। अब ऐसी स्थिति को लें जिसमें शिक्षार्थी ने अभी तक प्रशिक्षण में भाग न लिया हो&nbsp;: यदि उसे कोई लिखित शब्द दिखाया जाए तो कभी-कभी वह कोई ध्वनि निकालेगा, और वह ध्वनि 'कभी कभी संयोगवश' लगभग ठीक भी हो सकती है। कोई अन्य व्यक्ति ऐसे अवसर पर शिक्षार्थी को सुनता है, और कहता है: "वह पढ़ रहा है"। किन्तु अध्यापक कहता है: "नहीं वह पढ़ नहीं रहा; वह तो मात्र एक संयोग था"। — किन्तु आइए हम मान लें कि शिक्षार्थी उसके सामने आने वाले आगामी शब्दों पर सही प्रतिक्रिया करता रहता है। कुछ समय बाद अध्यापक कहता है: "अब वह पढ़ सकता है!" — किन्तु अब उसके पहले कथन का क्या हो? क्या अध्यापक को कहना पड़ेगा&nbsp;: "मेरी भूल थी, उसने ''तो'' इसे पढ़ा था" — अथवा&nbsp;: "वास्तव में उसने उसके पश्चात् ही पढ़ना आरम्भ किया?" — कौन सा पहला शब्द उसने ''पढ़ा''? इस प्रश्न का यहाँ कोई अर्थ ही नहीं है। जब तक वस्तुतः हम यह परिभाषा न दें&nbsp;: "व्यक्ति द्वारा 'पढ़े' जाने वाला प्रथम शब्द तो उसके द्वारा उचित रूप से पढ़े जाने वाले 50 शब्दों की प्रथम श्रृंखला का प्रथम शब्द होता है" (अथवा इसी प्रकार का कुछ)।
दूसरी ओर, यदि "पठन" का प्रयोग हम संकेतों को ध्वनियों में परिवर्तित करने के विशिष्ट अनुभव के लिए करते हैं तो निस्संदेह शिक्षार्थी द्वारा पढ़े जाने वाले ''प्रथम'' शब्द के बारे में बात करने का अर्थ होता है। उदाहरणार्थ, तब वह कह सकता है, "इस शब्द पर मुझे पहली बार यह अनुभूति हुई&nbsp;: 'अब मैं पढ़ सकता हूँ'।"
या फिर पियानोला ध्वनि-यंत्र के समान, चिन्हों को ध्वनियों में अनूदित करने वाले पठन-यंत्रों के बारे में यह कहना संभव होगा&nbsp;: "यंत्र ने अमुक-अमुक घटित होने के बाद ही पढ़ा — अमुक-अमुक भागों को तारों से जोड़ने के पश्चात्; यंत्र के द्वारा पढ़े जाने वाला पहला शब्द........ था।"
किंतु जीवंत पठन-यंत्र की स्थिति में, "पठन" का अर्थ लिखित संकेतों पर अमुक-अमुक ढंग की प्रतिक्रिया करना होता है। यानी यह प्रत्यय मानसिक अथवा अन्य प्रणालियों से नितान्त भिन्न प्रत्यय है। — न तो यहाँ अध्यापक शिक्षार्थी के बारे में कह सकता है: "जब उसने वह शब्द उच्चारित किया तो संभवतः वह पहले से ही पढ़ रहा था"। क्योंकि उसकी क्रिया के बारे में कोई संदेह ही नहीं है। — पढ़ना आरम्भ करने पर शिक्षार्थी में हुआ परिवर्तन तो उसके ''व्यवहार'' में हुआ परिवर्तन है; और यहाँ 'उसकी नवीन अवस्था में प्रथम शब्द' के उल्लेख का कोई अर्थ नहीं होता।
{{ParPU|158}} किन्तु मस्तिष्क एवं स्नायु यंत्र में होने वाली प्रक्रियाओं के बारे में हमारा अत्यधिक अल्प ज्ञान क्या इसका एकमात्र कारण नहीं है? यदि इन विषयों के बारे हमारा ज्ञान अधिक यथार्थ होता तो प्रशिक्षण द्वारा स्थापित संबंधों को हम समझ जाते, और फिर शिक्षार्थी के मस्तिष्क के भीतर झाँक कर हम कह सकते&nbsp;: "अब उसने शब्द को ''पढ़'' लिया है, अब पठन-संबंध स्थापित हो चुका है"। — और सम्भवत&nbsp;: इसे ऐसा ''ही'' होना चाहिए — अन्यथा, हमें कैसे पता चलता कि ऐसा संबंध होता है? ऐसा होता ही है कहना तो सम्भवत&nbsp;: प्रागनुभव है — अथवा क्या यह सम्भावना मात्र है? और इसकी कितनी सम्भावना है? अब अपने आप से पूछें&nbsp;: आप इन विषयों के बारे में क्या ''जानते'' हैं? — किन्तु यदि यह प्रागनुभव है तो उसका अर्थ है कि यह हमें अत्यंत विश्वसनीय लगनेवाला विवरण है।
{{ParPU|159}} किन्तु जब हम इस विषय पर विचार करते हैं तो हम यह कहना चाहते हैं: ''पठन'' की वास्तविक कसौटी को पढ़ने की सचेत क्रिया, अक्षरों से ध्वनियों को पढ़ने की क्रिया है। "निश्चय ही हर व्यक्ति जानता है कि वह पढ़ सकता है अथवा
पढ़ने का नाटक मात्र कर रहा है" — '''क''' चाहता है कि '''ख''' समझे कि '''क''' स्लाव लिपि पढ़ सकता है। वह एक रूसी वाक्य को कंठस्थ कर लेता है और मुद्रित शब्दों को देखते हुए उन्हें ऐसे उच्चारित करता है मानो वह उन्हें पढ़ रहा हो। यहाँ हम निश्चय ही कहेंगे कि '''क''' जानता है कि वह पढ़ नहीं रहा और उसे पढ़ने का नाटक करते समय ठीक ऐसी ही अनुभूति होती है। बेशक, मुद्रित वाक्यों को पढ़ते हुए कमोबेश विशिष्ट संवेदनाएं होती हैं; ऐसी संवेदनाओं को स्मरण रखना कठिन नहीं है: संकोच की, ध्यान केंद्रित करने की गलत पढ़ने की शब्दों के कमोबेश कठिनाई-रहित सहज अनुगमन करने इत्यादि की, संवेदनाओं पर गौर कीजिए। और उसी प्रकार किसी कंठस्थ किए हुए विषय को सुनाने की भी विशिष्ट संवेदनाएं होती हैं। हमारे उदाहरण में '''क''' को पढ़ने में होने वाली विशिष्ट संवेदनाएं नहीं होगी, और संभवतः उसे नाटक करने की विशिष्ट संवेदनाएं होंगी।
{{ParPU|160}} किन्तु निम्नलिखित स्थिति की कल्पना कीजिए&nbsp;: हम धाराप्रवाह पढ़ सकने वाले किसी व्यक्ति को एक ऐसा मजमून देते हैं जिसे उसने पहले कभी न देखा हो। वह उसे हमें पढ़ कर सुनाता है — किन्तु उसमें किसी कंठस्थ मजमून के पठन की अनुभूति होती है (यह किसी दवा का प्रभाव हो सकता है)। क्या ऐसी स्थिति में हमें कहना चाहिए कि वह वास्तव में मजमून को पढ़ रहा है? क्या हमें यहाँ उसकी संवेदनाओं को, उसके पढ़ने अथवा न पढ़ने की कसौटी नहीं मानना चाहिए?
अथवा फिर मान लीजिए कि किसी विशेष दवा से प्रभावित किसी मनुष्य के प्रत्यक्ष, संतों की एक श्रृंखला है (यह आवश्यक नहीं कि वे संकेत किसी वर्तमान वर्णमाला के हो)। वह संकेतों के अनुरूप शब्द उच्चारित करता है, मानो वे अक्षर हों और ऐसा करते समय उसमें पठन के सभी बाह्य संकेत, तथा संवेदनाएं होती हैं (हमें स्वप्नों इस प्रकार के अनुभव होते हैं; ऐसी स्थिति में जागने पर हम संभवतः कहते हैं: "मुझे प्रतीत हुआ मानो मैं किसी लिपि को पढ़ रहा हूँ, यद्यपि वह लिपि तो थी ही नहीं।") ऐसी स्थिति में कुछ लोग ऐसा कहना चाहेंगे कि व्यक्ति उन संकेतों को ''पढ़'' रहा था। दूसरे लोग कहेंगे, नहीं। — मान लीजिए कि उसने इस प्रकार पाँच चिन्हों के ऐसे समूह '''उ प र्यु क??? त''' को पढ़ा (अथवा उनकी व्याख्या की) — और अब हम उसे वही संकेत विपरीत क्रम में दिखाते हैं और वह उन्हें '''त क??? र्यु प उ''' पढ़ता है; और आगामी परीक्षणों में भी उसे संकेतों की यही व्याख्या याद रहती है: यहाँ निश्चय ही हम यह कहना चाहेंगे कि वह अपने प्रयोग के लिए किसी संदर्भ का निर्माण करता है और तदनुसार उसे पढ़ता है।
{{ParPU|161}} और यह भी याद रहे कि उन दोनों स्थितियों में जिनमें यह माना जा रहा हो कि कोई व्यक्ति पढ़कर बोल रहा है — पहली, एक जिसमें वह कंठस्थ विषय को कहता है, दूसरी, जिसमें वह न तो सन्दर्भ से और न ही स्मृति से बल्कि वास्तव में एक-एक अक्षर पढ़कर बोलता है — एक अनवरत संक्रमण शृंखला होती है।
यह प्रयोग करके देखें&nbsp;: 1 से 12 तक अंक बोलें। अब घड़ी के डायल को देखें और उन अंकों को ''पढ़ें''। — उपरोक्त स्थिति में ऐसा क्या था जिसे आपने "पढ़ना" कहा? यानी आप ने उसे ''पढ़ना'' संभव बनाने के लिए क्या किया?
{{ParPU|162}} आइए हम निम्नलिखित परिभाषा का परीक्षण करें&nbsp;: जब आप मूल की नकल ''करते हैं'' तो आप पठन-क्रिया करते हैं। और "मूल" से मेरा तात्पर्य वह पाठ है जिसे आप पढ़ते हैं अथवा जिसकी आप नकल करते हैं; वह इमला है जिसे आप लिखते हैं; वह स्वरलिपि है जिससे आप गाते-बजाते हैं; इत्यादि, इत्यादि। — उदाहरणार्थ, अब मान लीजिए कि हमने किसी को स्लाव वर्णमाला सिखाई है और उसे प्रत्येक अक्षर का उच्चारण सिखाया है। फिर हम उसे एक गद्यांश देते हैं और वह उसके प्रत्येक अक्षर का हमारी सिखाई विधि के अनुसार उच्चारण करते हुए उसे पढ़ता है। इस स्थिति में हमारे यह कहने की अत्यधिक संभावना है कि वह हमारे द्वारा सिखाए नियमानुसार लिखित-संरूप से शब्द-ध्वनि की नकल करता है। और यह भी ''पठन'' की स्पष्ट स्थिति है। (हम कह सकते हैं कि हमने उसे 'वर्णमाला नियम' सिखाया था।)
किन्तु हम ऐसा क्यों कहते हैं कि उसने मुद्रित शब्दों से उच्चारित शब्दों की व्युत्पत्ति की? क्या हम इससे अधिक कुछ जानते हैं कि हमने उसे सिखाया कि प्रत्येक अक्षर को कैसे उच्चारित किया जाना चाहिए और फिर उसने शब्दों का उच्चारण किया? संभवतः हमारा उत्तर होगा&nbsp;: शिक्षार्थी यह प्रदर्शित करता है कि वह हमारे द्वारा बनाये गये मुद्रित से उच्चारित शब्दों पर जाने के नियम का प्रयोग कर रहा है। — यह अधिक स्पष्टता से तब ''प्रदर्शित'' होता है जब हम अपने उदाहरण को ऐसे उदाहरण में परिवर्तित करते हैं जिसमें शिक्षार्थी पाठ को हमें पढ़ कर नहीं सुनाता अपितु उसे लिखता है, उसे मुद्रित-सामग्री को हस्तलेख में परिवर्तित करना होता है। क्योंकि ऐसी स्थिति में हम उसे नियम एक ऐसी सारिणी के रूप में दे सकते हैं जिसमें एक खाने में तो मुद्रित अक्षर हैं और दूसरे में घसीट-लेख। और वह प्रदर्शित करता है कि वह मुद्रित शब्दों को सारिणी की सहायता से हस्तलेख में परिवर्तित करता है।
{{ParPU|163}} किन्तु मान लीजिए कि ऐसा करते समय वह सदैव '''क''' के स्थान पर, '''ख''', '''ख''' के स्थान पर '''ग''', '''ग''' के स्थान पर '''घ''', और अन्ततः '''ज्ञ''' के स्थान पर '''क''' लिखता है? — निश्चय ही हमें इसे भी सारिणी द्वारा व्युत्पत्ति कहना चाहिए — हम कह सकते हैं कि अब वह उसका §86 में दिये गये, पहले के बजाय दूसरे आकृति-कल्प के अनुसार प्रयोग कर रहा है।
तब भी यह सारिणी के अनुसार की गई व्युत्पत्ति का सटीक उदाहरण होगा जब वह संकेत-योजना में किसी साधारण नियमितता के बिना भी व्युत्पत्ति की विधि को दिखाये।
बहरहाल, मान लीजिए कि वह प्रतिलेखन की किसी ''एक'' विधि का पालन नहीं करता, अपितु अपनी विधि को किसी सरल नियम के अनुसार परिवर्तित करता रहता है: यदि उसने '''अ''' के स्थान पर एक बार '''न''' लिखा है, तो वह आगामी '''अ''' के स्थान पर '''प''' लिखता है, उससे आगामी के स्थान पर '''क''' और तथावत्। — किन्तु इस प्रक्रिया और मनमानी प्रक्रिया में फर्क ही कहाँ है?
किन्तु क्या इसका अर्थ है कि "व्युत्पन्न करना" शब्द का वास्तव में कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि जब हम उसके अर्थ को समझने का प्रयास करते हैं तो उस अर्थ का विघटन हो जाता है।
{{ParPU|164}} §162 की स्थिति में "व्युत्पन्न करना" का अर्थ स्पष्ट था। किन्तु हमने अपने-आप से कहा क यह व्युत्पत्ति की अति विशिष्ट स्थिति थी; वहाँ (???व्युत्पत्ति तो घूँघट में छिपी थी, और उसका सार जानने के लिये हमें घूँघट हटाना होगा। अतः हमने उस घूँघट हो हटा दिया; किंतु घूँघट हटाते ही स्वयं व्युत्पत्ति ही लुप्त हो गई। — हाथीचक (एक प्रकार का केले जैसा पौधा) की वास्तविकता को जानने के लिए हमने उसके पत्ते हटा दिये, यानी उसकी सतह हमने हटा दी। क्योंकि, निश्चित रूप से §162 की स्थिति व्युत्पत्ति की विशिष्ट स्थिति थी; बहरहाल, इस स्थिति में व्युत्पत्ति का सार सतह के नीचे छुपा हुआ न था, अपितु उसकी 'सतह' तो व्युत्पत्ति के उदाहरण-समूहों में से एक उदाहरण था।
और इसी प्रकार हम "पढ़ना" शब्द का प्रयोग भी स्थितियों के समूह के लिए करते हैं। और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में यह निर्धारित करने के लिए कि कोई पढ़ रहा है, हम विभिन्न कसौटियों का प्रयोग करते हैं।
{{ParPU|165}} किन्तु निश्चय ही — हम कहना चाहेंगे — पढ़ना तो अति विशिष्ट प्रक्रिया होती है! मुद्रित पृष्ठ को पढ़िए और आप समझ जाऐंगे कि कुछ विशिष्ट, कुछ अत्यन्त विशिष्ट घटित हो रहा है। — तो क्या घटित होता है जब मैं पृष्ठ को पढ़ता हूँ? मैं मुद्रित शब्दों को देखता हूँ और शब्दों को उच्चारित करता हूँ। किन्तु बेशक, यही सब कुछ नहीं है, क्योंकि यह सम्भव है कि मैं मुद्रित शब्दों को देखूँ और शब्दों का उच्चारण करूँ किन्तु फिर भी उन्हें पढ़ न रहा होऊँ। चाहे वे शब्द वही हों जिन्हें वर्तमान नियमानुसार मुद्रित शब्दों से पढ़ा जाना चाहिए। — और यदि आप कहते हैं कि पढ़ना तो विशिष्ट अनुभव होता है, तो यह नितान्त महत्त्वहीन हो जाता है कि आप किसी सामान्य-स्वीकृत वर्णमाला-नियम के अनुसार पढ़ते हैं, अथवा उसके अनुसार नहीं पढ़ते। — और पठनानुभव की विशिष्टता किसमें निहित है? — मैं यहाँ कहना चाहूंगा&nbsp;: "मेरे द्वारा उच्चारित शब्द विशेष ढंग से मेरी जुबान पर आते हैं।" वे वैसे नहीं आते जैसे कि, उदाहरणार्थ, वे मेरे द्वारा गढ़े जाने पर आते। वे तो अपने आप आते हैं। — किन्तु यह पर्याप्त नहीं है; क्योंकि हो सकता है कि जब मैं मुद्रित शब्दों का अवलोकन कर रहा होऊँ तो शब्दों की ध्वनियां मुझे ''सुनाई'' दें, किन्तु उसका अर्थ यह तो नहीं कि मैंने उन्हें पढ़ा। उदाहरणार्थ, मैं यह नहीं कहना चाहूँगा&nbsp;: मुद्रित शब्द "शून्य" मुझे सदैव "शून्य" ध्वनि की याद दिलाता है — किन्तु पढ़ते समय उच्चारित शब्द तो मानो फिसल जाते हैं। और यदि मैं जर्मन भाषा के मुद्रित शब्द को देख भर लूं तो मेरे अन्तर्मन में उसकी ध्वनि सुनने की एक विशिष्ट प्रक्रिया होती है।
{{PU box|"नितान्त विशिष्ट" (परिवेश) अभिव्यक्ति का व्याकरण। हम "इस मुख पर ''विशिष्ट'' अभिव्यक्ति है" कहते हैं, और उसके लक्षणों के विवरण के लिए शब्द खोजते हैं।}}
{{ParPU|166}} मैंने कहा कि जब कोई पढ़ता है तो उच्चारित शब्द 'एक विशेष ढंग से' उसकी जुबान पर आते हैं: किन्तु किस ढंग से? क्या यह गल्प नहीं है? आइए हम एक-एक अक्षर को देखें और उसके ध्वनित होने के ढंग पर ध्यान दें। '''A''' अक्षर को पढ़ें। — अब, यह कैसे ध्वनित हुआ? — हम नहीं जानते कि इस बारे में क्या कहें — अब छोटा रोमन '''a''' लिखें — लिखते समय आपके हाथ ने कैसे हरकत की? पूर्ववर्ती प्रयोग में शब्द के ध्वनित होने के भिन्न ढंग से? — मैं तो केवल यह जानता हूँ कि मैंने मुद्रित अक्षर को देखा और हाथ से लिखा। — अब [[File:Par. 166.png|30px|link=]] चिह्न को देखें और ऐसा करते समय किसी ध्वनि को सुनें — उसका उच्चारण करें। मुझे '''‘U’''' ध्वनि सुनाई दी; किन्तु मैं नहीं कह सकता कि जिस ढंग से वह ध्वनि ''आई'' उस में और पहली स्थिति में कोई अनिवार्य भिन्नता थी। भिन्नता तो स्थिति की भिन्नता में है। मैंने पहले ही अपने आप सोच रखा था कि मुझे किसी ध्वनि को सुनना है; ध्वनि आने से पहले विशेष तनाव विद्यमान था। और मैंने '''‘U’''' को उसी प्रकार सहज ढंग से नहीं कहा जैसे मैं '''U''' अक्षर को देखने पर कहता हूँ। इसके अतिरिक्त इस चिह्न से मैं उस प्रकार सुपरिचित नहीं था जिस प्रकार कि मैं वर्णमाला के अक्षरों से होता हूँ। मैंने वस्तुतः उसे गौर से, और उसकी आकृति में विशेष रुचि लेकर देखा; उसे देखते ही मेरे मन में ग्रीक उल्टे सिग्मा (ग्रीक वर्णमाला का अक्षर) का विचार आया — इस चिह्न की नियमित रूप से एक अक्षर के समान प्रयोग किए जाने की कल्पना कीजिए; ताकि आप को इसे देखने पर एक विशेष ध्वनि, कहिए कि 'श' ध्वनि, उच्चारण करने की आदत पड़ जाए। क्या हम इसके अतिरिक्त कुछ कह सकते हैं कि कुछ समय उपरान्त जब हम चिह्न को देखते हैं तो हमें यह ध्वनि सहज ही आ जाती है? यानी मैं उसे देखने पर अब अपने-आप से नहीं पूछता "यह किस प्रकार का अक्षर है?" — न ही मैं अपने-आप को कहता हूँ "यह चिह्न मुझसे 'श' की ध्वनि उच्चारित करवाना चाहता है", और न ही "किसी प्रकार से यह चिह्न मुझे 'श' ध्वनि की याद दिलाता है"।
(स्मृति-प्रतिबिम्बों की अन्य मानसिक प्रतिबिम्बों से भिन्नता, कुछ विशेष गुणों द्वारा की जाती है इस विचार की उपर्युक्त स्थिति से तुलना कीजिए। )
{{ParPU|167}} पढ़ना एक 'विशिष्ट प्रक्रिया' होती है, इस प्रतिज्ञप्ति में अब क्या रह गया? अनुमानत&nbsp;: इसका अर्थ है कि जब हम पढ़ते हैं तो ''एक'' विशेष प्रक्रिया होती है जिसे हम पहचानते हैं। — किन्तु मैं एक समय में तो मुद्रित वाक्य को पढ़ता हूँ और दूसरे . समय पर उसे मोर्स संकेत-पद्धति में लिखता हूँ — क्या इन दोनों में मानसिक प्रक्रिया वास्तव में समान है? बहरहाल, दूसरी ओर, मुद्रित पृष्ठ को पढ़ने के अनुभव में निश्चय ही एकरूपता होती है। क्योंकि प्रक्रिया तो एकरूप होती है। और यह समझना तो नितान्त सरल है कि इस प्रक्रिया में और कहिए कि यादृच्छिक चिह्नों को देखने पर शब्दों के ध्यान में आने की प्रक्रिया में भिन्नता होती है। — क्योंकि मुद्रित पंक्ति को देखना भर ही अपने आप में अत्यन्त विशिष्ट होता है — अतः यह लगभग एक समान लम्बे-चौड़े और मोटे, एक सदृश आकृति वाले, और सदैव पुनरावृत्त होने वाले अक्षरों का विशिष्ट स्वरूप प्रस्तुत करती है; शब्दों में से अधिकतर तो लगातार बारम्बार दोहराए जाते हैं और सुपरिचित चेहरों के समान हम उनसे अत्यधिक परिचित होते हैं। — किसी शब्द के वर्ण-विन्यास में किए गए परिवर्तन से हमें होने वाली बेचैनी के बारे में विचार कीजिए। (और शब्दों के वर्ण विन्यास के बारे में विवादों से उत्पन्न बल्कि उससे भी तीव्र संवेगों के बारे में भी।) बेशक सभी संकेत हम पर उतना ''प्रबल'' प्रभाव नहीं डालते। उदाहरणार्थ, हमें उद्वेलित किये बिना तर्कशास्त्रीय बीजगणित के किसी संकेत को, किसी भी अन्य संकेत द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है। —
याद रहे कि शब्द की आकृति से हम उसी प्रकार परिचित होते हैं जिस प्रकार कि उसकी ध्वनि से।
{{ParPU|168}} यादृच्छिक अलंकृतियों और हस्तलिपि के भेदों पर हमारी दृष्टि मुद्रित पंक्तियों से भिन्न ढंग से पड़ती है। (यहाँ मैं उसका उल्लेख नहीं कर रहा जिसका पता पाठक की आंखों में हलचल के निरीक्षण से चलता है।) हम कहना चाहेंगे कि हमारी दृष्टि अनवरत बेहद आसानी से बिना ''फिसले'' चलती चली जाती है। और उसके साथ-साथ हमारी कल्पना में अनैच्छिक पाठ चलता रहता है। विविध शैलियों में जब मैं मुद्रित अथवा लिखित, जर्मन एवं अन्य भाषाएं पढ़ता हूँ तो ऐसा ही होता है। — किन्तु इस सब में पढ़ने के लिए अनिवार्य क्या है? पढ़ने की सभी स्थितियों में उपलब्ध कोई एक सामान्य लक्षण तो नहीं। (साधारण मुद्रित शब्दों को पढ़ने की तुलना पूर्णतः बड़े अक्षरों में मुद्रित शब्दों — जिनमें कभी-कभी वर्ग पहेलियों के समाधान छपे होते हैं, — को पढ़ने से, अथवा हमारी लिपि को दाएं से बाएं पढ़ने से करें। कितना भिन्न है यह!)
{{ParPU|169}} किन्तु जब हम पढ़ते हैं तो क्या हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता कि शब्द आकृतियां किसी-न-किसी प्रकार हमारे उच्चारण का निमित्त हैं। — वाक्य को पढ़ें। — और अब निम्नलिखित पंक्ति को देखें&nbsp;:
{{P center|1=&8§= §=?β +% 8!'§*}}
और ऐसा करते समय कोई वाक्य बोलें। क्या हमें ऐसा प्रतीत नहीं हो सकता कि प्रथम स्थिति में तो उच्चारण का सम्बन्ध संकेतों को देखने के साथ था, और दूसरी स्थिति में उच्चारण बिना किसी सम्बन्ध को देखे हुआ?
किन्तु आप क्यों कहते हैं कि हमें हेतु-सम्बन्ध प्रतीत हुआ? कार्य-कारणवाद तो निश्चय ही प्रयोगों द्वारा, उदाहरणार्थ, घटनाओं के नियमित सहवर्तन के निरीक्षण द्वारा, सिद्ध किया जाता है। अतः मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि मुझे वही प्रतीत हुआ, जो प्रयोग द्वारा सिद्ध किया गया है। (सच्चाई तो यह है कि केवल नियमित सहवर्तन का निरीक्षण ही वह ढंग नहीं है जिससे हम कार्य-कारण सिद्धान्त को स्थापित करते हैं।) वस्तुतः हम कह सकते हैं, कि मुझे प्रतीत होता है, कि मेरे अमुक-अमुक पढ़ने का ''कारण'' तो अक्षर ही हैं। क्योंकि यदि कोई मुझसे पूछता है "आप अमुक-अमुक क्यों पढ़ते हैं?" — मैं अपने पढ़ने का औचित्य वहाँ उपस्थित अक्षरों द्वारा देता हूँ।
बहरहाल, यह औचित्य तो मेरे कुछ कहने अथवा समझने में था&nbsp;: यह कहने का क्या अर्थ है कि मैं इसे ''अनुभव'' करता हूँ? मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: जब मैं पढ़ता हूँ तो
मुझे प्रतीत होता है कि मैं अक्षरों के किसी प्रभाव से संचालित हो रहा हूँ — किन्तु मेरे द्वारा कही गई यादृच्छिक अलंकृत अभिव्यक्तियों की श्रृंखलाओं का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आइए, एक बार फिर हम किसी एक अक्षर की ऐसी अलंकृति से तुलना करें। क्या मुझे यह भी कहना चाहिए कि जब मैं "''मैं''" को पढ़ता हूँ तो क्या मुझ पर उसका प्रभाव पड़ता है? बेशक, मेरे "मैं" को देखने पर "मैं" कहने में, अथवा 8 चिह्न देखने पर "मैं" कहने में अन्तर होता है। अन्तर, उदाहरणार्थ, यह है कि "मैं" अक्षर को देखने पर स्वतः अपने अन्तर्मन में "मैं" ध्वनि सुनाई देती है, ऐसा मेरी इच्छा के विरुद्ध भी होता है; और "§" देखने पर "मैं" उच्चारण करने की अपेक्षा "मैं" अक्षर को देखकर "मैं" का उच्चारण मैं कहीं अधिक सरलता से करता हूँ। यानी ऐसा ही होता है जब मैं कोई प्रयोग करता हूँ; किन्तु बेशक, ऐसा नहीं होता जब मैं § चिह्न को देख रहा होता हूँ और उसके साथ-साथ "मैं" ध्वनि वाले शब्द को उच्चारित करता हूँ।
{{ParPU|170}} यदि हमने अक्षरों की यादृच्छिक चिह्नों से तुलना न की होती तो हमें पढ़ते समय अक्षरों के ''प्रभाव'' के ''अनुभव'' पर विचार करने के बारे में सूझता ही नहीं। और यहाँ हम ''भिन्नता'' तो देख ही रहे हैं। और इसकी व्याख्या हम प्रभावित होने और प्रभावित न होने में भेद के समान कर रहे हैं।
विशेषतः यह व्याख्या हमें तब रुचिकर लगती हैं जब हम — सम्भवतः यह जानने के लिए कि जब हम पढ़ते हैं तो क्या होता है, धीरे-धीरे पढ़ते हैं। जब हम मानो, जान-बूझकर स्वयं को अक्षरों द्वारा ''नियंत्रित'' होने देते हैं। किन्तु यह 'स्वयं को नियंत्रित होने देना' तो अक्षरों को ''मेरे'' द्वारा ध्यानपूर्वक देखने में — और संभवतः कुछ अन्य विचारों का बहिष्कार करने में — निहित है।
हम कल्पना करते हैं कि संवेदना मानो वह कड़ी है जो शब्द की आकृति और हमारे द्वारा उच्चारित ध्वनि सम्बन्ध को हमें देखने योग्य बनाती है। क्योंकि, जब मैं प्रभावित होने के कार्य-कारण सम्बन्ध के, शब्दों द्वारा नियंत्रित होने के, अपने अनुभवों का उल्लेख करता हूँ तो उसका वास्तविक अर्थ होता है कि मुझे अक्षरों को देखने और उनको उच्चारित करने वाली कड़ी की हलचल का अनुभव होता है।
{{ParPU|171}} शब्द पठन के समय होने वाले अनुभव का उपयुक्त विवरण देने के लिए मैं अन्य शब्दों का प्रयोग भी कर सकता था। अतः मैं कह सकता था कि लिखित शब्द मुझे ध्वनि की ''सूचना'' देते हैं। — अथवा पुनः, पढ़ते समय अक्षर और ध्वनि ''एकाकार'' हो जाते हैं — मानो वे मिश्रधातु हों। (उदाहरणार्थ इसी प्रकार, प्रसिद्ध मनुष्यों के चेहरे और उनके नाम की ध्वनि भी एकाकार होते हैं। मुझे अमुक चेहरे के लिए केवल यही नाम उपयुक्त लगता है।) मैं कह सकता हूँ कि जब मैं इस ऐक्य का अनुभव करता हूँ तो मुझे लिखित शब्द में ध्वनि दिखाई अथवा सुनाई देती है।
किन्तु अब कुछ मुद्रित वाक्यों को वैसे ही पढ़िए जैसे आप साधारणतः तब पढ़ते हैं जब आप पढ़ने के प्रत्यय पर विचार नहीं कर रहे होते; और अपने आप से पूछिए कि पढ़ते समय क्या आपको ऐक्य के प्रभावित होने के, और अन्य प्रकार के अनुभव हुए। — ऐसा न कहें कि आपको ये अनुभव अनायास हुए। न ही हमें किसी ऐसे चित्रण से भ्रमित होना चाहिए जो सुझाता हो कि ये संवृत्तियां तो 'सूक्ष्म निरीक्षण' के कारण ही दृष्टिगोचर हुईं। दूर से कोई वस्तु कैसी लगती है यदि इसका विवरण मुझे देना हो, तो मैं वस्तु के सूक्ष्म निरीक्षण पर दिखाई देने वाली बातों का उल्लेख करके उस विवरण को अधिक यथार्थ नहीं बनाता।
{{ParPU|172}} आइए हम नियंत्रित होने के अनुभव पर ध्यान दें और अपने आप से पूछें&nbsp;: इस अनुभव — उदाहरणार्थ, जब हमारा मार्ग नियंत्रित होता है — में क्या निहित होता है। निम्नलिखित स्थितियों पर विचार कीजिए&nbsp;:
आप अपनी आँखों पर पट्टी बांधे हुए खेल के मैदान में हैं, और कोई आपका हाथ पकड़कर कभी बाएं, कभी दाएं ले जा रहा है; आपको उसके हाथ की गति के अनुरूप चलने के लिए सदा तत्पर रहना पड़ता है, और यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं है आप उसके अप्रत्याशित झटके के कारण लड़खड़ा न जाएं।
या फिर&nbsp;: कोई बलपूर्वक आपका हाथ पकड़कर आपको वहाँ ले जाता है जहाँ आप जाना नहीं चाहते।
अथवा&nbsp;: नृत्य में आप अपने साथी नर्तक द्वारा नियंत्रित होते हैं; आप अपने साथी के आशय को भाँपने एवं उसके थोड़े से इशारे पर नृत्य भंगिमा बदलने के हर सम्भव प्रयास के लिए तत्पर रहते हैं।
अथवा&nbsp;: कोई आपको सैर के लिए ले जाता है; आप वार्तालाप कर रहे हैं; वह जिस ओर जाता आप भी उसी ओर जाते हैं।
अथवा&nbsp;: आप किसी पगडंडी पर टहल रहे हैं, मात्र उसका अनुसरण करते हुए। ये सभी स्थितियां एक दूसरे के सदृश हैं; किन्तु इन सभी अनुभवों में साझा क्या है?
{{ParPU|173}} "किन्तु निश्चय ही नियंत्रित होना तो एक विशेष अनुभव है!" — इसका उत्तर है: अब आप नियंत्रित होने के किसी विशेष अनुभव के बारे में ''सोच रहे हैं''।
यदि मैं पूर्वोदाहरणों में से ही किसी ऐसे व्यक्ति के अनुभव को समझना चाहूँ जिसका लेखन मुद्रित पाठ एवं सारिणी से नियंत्रित हो तो मैं उसके द्वारा 'विवेकपूर्ण' अवलोकन इत्यादि की कल्पना करता हूँ। ऐसा करते समय मेरे चेहरे पर एक विशेष भाव (मानो कि विवेकशील मुनीम का भाव) आता है। ''सतर्कता'' इस चित्र का अनिवार्य अंग है; किसी अन्य चित्र में अपने संकल्पों, समस्त इच्छाओं का निवारण अनिवार्य होगा। (किन्तु सामान्य लोगों द्वारा नितान्त तटस्थ रूप से की जाने वाली क्रिया पर ध्यान दें और कल्पना करें कि कोई उसे बेहद सतर्कता की अभिव्यक्ति के साथ — और संवेदनाओं के साथ भी क्यों नहीं? — करता है। — क्या इसका अर्थ होगा कि वह सतर्क है? बाहरी रूप से सतर्क दिखने वाले किसी नौकर द्वारा सामान सहित चाय की ट्रे को गिराने की कल्पना कीजिए।) यदि मैं ऐसे विशिष्ट अनुभव की कल्पना करता हूँ तो वह मुझे नियंत्रित होने (अथवा पढ़ने) का अनुभव प्रतीत होता है। किन्तु अब मैं अपने आप से पूछता हूँ&nbsp;: आप क्या कर रहे हैं? — आप प्रत्येक अक्षर को देख रहे हैं, आप ऐसी मुखाकृति बना रहे आप अक्षरों को सतर्कतापूर्वक लिख रहे हैं। (इत्यादि)। — तो नियंत्रित होना ऐसा अनुभव है? — यहाँ मैं कहना चाहूंगा&nbsp;: "नहीं वह ऐसा नहीं है; वह तो अधिक अंतर्वर्ती, अधिक मूलभूत है।" — मानो शुरू में ये सभी न्यूनाधिक अनावश्यक प्रक्रियाएँ ऐसे कोहरे से आच्छादित हैं जो मेरे सूक्ष्म निरीक्षण करने पर छूट जाता है।
{{ParPU|174}} अपने आप से पूछें कि आप 'सतर्कतापूर्वक' किसी रेखा के समानान्तर — और किसी अन्य समय सतर्कतापूर्वक उससे कोण बनाते हुए, रेखा कैसे खींचते हैं। सतर्कतापूर्ण होने का अनुभव कैसा होता है? यहाँ आपको यकायक एक विशिष्ट दृष्टि, विशिष्ट भंगिमा ध्यान आती है — और फिर आप कहना चाहेंगे&nbsp;: "पर यही तो एक ''विशिष्ट'' आंतरिक अनुभव होता है"। (पर यह तो कुछ भी नया कहना नहीं है।)
(इसका सम्बन्ध अभिप्राय और संकल्प की प्रकृति की समस्या से है।)
{{ParPU|175}} कागज के टुकड़े पर कोई यादृच्छिक डिज़ाइन बनाएं। — और अब उसके पास ही उसकी प्रतिकृति बनाएं ऐसा करते समय आप अपने आपको उससे नियंत्रित होने दें। — मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: "निश्चय ही, मैं यहाँ नियंत्रित था। किन्तु जहाँ तक घटित — यदि मैं उसे घटित होना कहूँ तो — में वैशिष्ट्य का प्रश्न है, वह अब मुझे विशिष्ट नहीं लगता।"
किन्तु अब इस पर ध्यान दें&nbsp;: ''जब तक'' मैं नियंत्रित होता हूँ तब तक सब कुछ बिल्कुल सामान्य रहता है, कुछ भी ''विशेष'' नहीं लगता; किन्तु बाद में जब मैं अपने आप से पूछता हूँ कि क्या हुआ था, तो वह मुझे अनिर्वचनीय प्रतीत होता है। ''बाद'' में कोई भी विवरण मुझे संतुष्ट नहीं करता। मानो मुझे विश्वास नहीं होता कि मैंने मात्र अवलोकन किया था, अमुक मुखाकृति बनाई थी, और अमुक रेखा खींची थी। — किन्तु क्या मुझे कुछ और ''स्मरण'' नहीं है? नहीं; और फिर भी मुझे प्रतीत होता है कि कुछ और अवश्य होना चाहिए; विशेषत&nbsp;: तब जब मैं स्वयं "''नियंत्रित'' होने", " ''प्रभावित'' होने" और अन्य ऐसे शब्दों का उल्लेख करता हूँ। "क्योंकि निश्चय ही" मैं अपने आप से कहता हूँ "मैं ''नियंत्रित'' था।" — केवल तभी उस सूक्ष्म, अमूर्त प्रभाव का विचार उठता है।
{{ParPU|176}} जब मैं अपने अनुभव का सिंहावलोकन करता हूँ तो मुझे प्रतीत होता है। कि इसके बारे में अनिवार्य बात तो यह है कि यह संवृत्तियों की समकालीनता का नहीं, अपितु उनके संबंधों से 'प्रभावित होने का अनुभव' है। किन्तु इसके साथ ही मैं किसी भी अनुभव की हुई संवृत्ति को "प्रभावित होने का अनुभव" नहीं कहना चाहूँगा। (इच्छा करना ''संवृत्ति'' तो नहीं होता, इस विचार का इसमें बीजाणु है।) मैं कहना चाहूँगा कि मुझे ‘''क्योंकि''’ का अनुभव हुआ पर फिर भी मैं किसी भी संवृत्ति को "क्योंकि का अनुभव" नहीं कहना चाहता।
{{ParPU|177}} मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: "मैं क्योंकि का अनुभव करता हूँ"। इसलिए नहीं कि मुझे ऐसे अनुभव की स्मृति है, अपितु इसलिए कि जब मैं ऐसी स्थिति में हुए अनुभव के बारे में विचार करता हूँ तो मैं उसे 'क्योंकि' (अथवा 'प्रभाव' अथवा 'कारण', अथवा 'सम्बन्ध') प्रत्यय के माध्यम से देखता हूँ — क्योंकि निस्संदेह यह कहना उचित है कि मैंने मूल से प्रभावित होकर रेखा खींची&nbsp;: बहरहाल, यह प्रभाव रेखा खींचते समय मुझे होने वाली संवेदनाओं में निहित नहीं होता — किन्हीं विशेष परिस्थितियों में यह समानान्तर रेखा खींचने में निहित हो सकता है — यद्यपि यह भी साधारणतः नियंत्रित होने में अनिवार्य नहीं होता। —
{{ParPU|178}} हम यह भी कहते हैं: "आप समझ सकते हैं कि मैं इससे नियंत्रित हूँ" — और यदि आप इसे समझते हैं तो आप क्या समझते हैं?
जब मैं अपने आप से कहता हूँ&nbsp;: "किन्तु मैं तो नियंत्रित हूँ" — सम्भवत&nbsp;: मैं अपने हाथ को कुछ इस तरह हिलाता हूँ जिससे नियन्त्रित किये जाने का पता चले। — हाथ को ऐसे ढंग से हिलायें, मानो, आप किसी को नियंत्रित कर रहे हों, और फिर अपने आप से पूछें कि इस गतिविधि में ''नियंत्रित'' करने वाला गुण किसमें निहित है। क्योंकि आप तो किसी का भी मार्गदर्शन नहीं कर रहे थे। किन्तु आप अब भी इस गतिविधि को 'नियंत्रण' करने वाली गतिविधि कहना चाहते हैं। इस गतिविधि एवं संवेदना में नियंत्रित करने का सार निहित नहीं है, तो भी यह शब्द आप पर हावी रहता है। नियंत्रित करने का ''एकल आकार'' ही हम पर अभिव्यक्ति को लादता है।
{{ParPU|179}} आइए हम §151 की स्थिति पर लौटें। यह तो स्पष्ट है कि हमें तब तक यह नहीं कहना चाहिए कि '''ख''' को केवल सूत्र सोचने के कारण "अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है" इन शब्दों का कहने का अधिकार है, — जब तक कि अनुभव ने यह प्रदर्शित न किया हो कि सूत्र को सोचने — उसका उल्लेख करने, उसे लिखने — और श्रृंखला को वस्तुतः आगे बढ़ाने में कोई संबंध होता है। और स्पष्ट रूप से ऐसा संबंध होता है। — और अब कोई समझ सकता है कि "मैं आगे बढ़ सकता हूँ" वाक्य का अर्थ होता है कि मुझे ऐसा अनुभव है जिस के बारे में मैं प्रयोग-ज्ञान से जानता हूँ कि वह श्रृंखला को आगे बढ़ाता है"। किन्तु जब '''ख''' कहता है कि वह आगे बढ़ सकता है तो क्या उसका यह तात्पर्य होता है? क्या वह वाक्य उसके मन में आता है, अथवा क्या वह उसे अपने तात्पर्य की व्याख्या करते समय देने को तत्पर है?
नहीं। जब उसने सूत्र के बारे में सोचा था तो "अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है" शब्दों का उचित प्रयोग हुआ; यानी जब तक पता हो कि उसने बीजगणित सीखा था, पहले ऐसे सूत्र प्रयोग किये थे। — किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उसका कथन हमारे भाषा-खेल के दृश्य की संरचना करने वाली सभी परिस्थितियों के विवरण का संक्षिप्त रूप है। — विचार कीजिए&nbsp;: "अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है", "अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ" और अन्य अभिव्यक्तियों को हम कैसे सीखते हैं; भाषा-खेलों के किस समूह में हम उनका प्रयोग सीखते हैं।
हम ऐसी स्थिति की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें '''ख''' के मन में सिवाए इसके कुछ भी नहीं होता कि उसने अचानक — सम्भवतः चैन के साथ — कहा "अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है" और बिना सूत्र का प्रयोग किए वह श्रृंखला को आगे बढ़ाता गया। और इस स्थिति में हमें कहना चाहिए&nbsp;: विशिष्ट परिस्थितियों में वह निश्चय ही जानता था कि आगे कैसे बढ़ना है।
{{ParPU|180}} ''ये शब्द इसी तरह प्रयुक्त होते हैं।'' उदाहरणार्थ, इस उत्तरोक्त स्थिति में शब्दों को "मनःस्थिति का विवरण" कहना तो अत्यन्त भ्रामक होगा। — वस्तुतः उन्हें "संकेतक" कहा जा सकता है; संकेतक के उचित प्रयोग के प्रश्न का निर्धारण हम उसके आगामी कार्य से करते हैं।
{{ParPU|181}} यह समझने के लिए हमें इस पर विचार करने की आवश्यकता है: मान लीजिए '''ख''' कहता है कि वह यह जानता है कि आगे कैसे बढ़ना है — किन्तु जब वह आगे बढ़ना चाहता है तो वह द्विविधा-ग्रस्त हो जाता है और आगे नहीं बढ़ पाता; क्या हमें कहना चाहिए कि जब उसने कहा कि वह आगे बढ़ सकता है तो वह गलती पर था, अथवा यह कि तब वह आगे बढ़ सकने में समर्थ था परन्तु अब नहीं? — स्पष्टतः हम भिन्न स्थितियों में भिन्न बातें कहेंगे। (दोनों प्रकार की स्थितियों पर विचार कीजिए।)
{{ParPU|182}} "फिट होने", "समर्थ होने", और "समझने" का व्याकरण।
अभ्यास&nbsp;: (1) हम कब कहते हैं कि बेलन '''ब''' खोखले बेलन '''ख''' में फिट होता है? केवल तभी जब '''ब''' को '''ख''' में फँसाया जाता है? (2) कभी-कभी हम कहते हैं कि अमुक-अमुक समय पर '''ब''', '''ख''' में फिट नहीं होता। ऐसी स्थिति में उसके फिट होने की कौन सी कसौटी प्रयुक्त की जाती है ? (3) किसी समय विशेष पर जब कोई वस्तु तुला पर नहीं होती उसके भार परिवर्तन की क्या कसौटी होगी ? (4) कल मुझे कविता कंठस्थ थी; परन्तु अब मुझे वह याद नहीं। किन स्थितियों में यह पूछने का अर्थ होता है: "मैं उसे कब से भूला?" (5) कोई मुझसे पूछता है: "क्या आप यह भार उठा सकते हैं?" मैं उत्तर देता हूँ "हां"। अब वह कहता है "उठाओ!" — पर मैं उठा नहीं पाता। किन स्थितियों में यह कहना असंगत होगा "जब मैंने 'हाँ' में उत्तर दिया था तो मैं ऐसा कर ''सकता'' था, किन्तु अब नहीं "?
"फिट होने", "योग्य होने", "समझने" के लिए जिन कसौटियों को हम स्वीकार करते हैं, वे पहली नजर में दिखाई देने वाली जटिलता से कहीं अधिक जटिल होती हैं। अतः इन शब्दों से खेले जाने वाले खेल, उनके प्रयोग द्वारा होने वाले भाषाई-सम्पर्क — हमारी भाषा में इन शब्दों की भूमिका — हमारी कल्पना से कहीं अधिक जटिल होते हैं।
(दार्शनिक विरोधाभासों के समाधान के लिए हमें इन भूमिकाओं को समझना आवश्यक है। और इसीलिए सामान्यतः, परिभाषाएं उनका समाधान करने में असफल होती हैं; और इसीलिए ''सुतरां स्पष्ट'' यह अभिकथन भी कि शब्द 'अनिर्वचनीय' है।)
{{ParPU|183}} किन्तु क्या §157 की स्थिति में "अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ" का अर्थ "अब मुझे सूत्र पता चल गया है" के समान था, अथवा इससे कुछ भिन्न? हम कह सकते हैं कि इन परिस्थितियों में दोनों वाक्यों का एक समान अर्थ है, उनकी निष्पत्ति भी समान है। किन्तु यह भी कह सकते हैं कि ''साधारणतया'' इन दो वाक्यों का अर्थ
एक समान नहीं होता। हम कहते ही हैं: "अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ, मेरा तात्पर्य है कि मुझे सूत्र ज्ञात है", इसको उसी प्रकार कहते हैं, जैसे "मैं चल सकता हूँ मेरा तात्पर्य है कि मेरे पास समय है"; और यह भी कह सकते हैं "मैं चल सकता हूँ मेरा तात्पर्य है कि मुझमें पहले से ही यथेष्ट बल है"; अथवा&nbsp;: "मैं चल सकता जहाँ तक कि मेरी अंगों की स्थिति का सम्बन्ध है", यानी जब हम चलने की इस परिस्थिति की तुलना चलने की अन्य परिस्थितियों से करते हैं। किन्तु यहाँ हमें इस समझ से बचना होगा कि प्रत्येक स्थिति, उदाहरणार्थ, व्यक्ति के चलने की स्थिति के अनुरूप परिस्थितियों, की ''सम्पूर्णता'' होती है ताकि यदि उन सब परिस्थितियों की पूर्ति हो जाए तो वह चलने के ''अतिरिक्त कुछ भी न'' कर पाएगा।
{{ParPU|184}} मैं किसी गाने की धुन को स्मरण करना चाहता हूँ, किन्तु वह मुझे याद नहीं आती; अचानक मैं कहता हूँ "अब मुझे वह ज्ञात है", और मैं उसे गाता हूँ। उस धुन को एकाएक जानने में क्या होता है? निश्चय ही उस क्षण वह अपनी ''सम्पूर्णता'' में तो मुझे याद नहीं आ सकती! — सम्भवतः आप कहें&nbsp;: "यह तो मानो वह धुन ''वहाँ'' मौजूद हो इस बात की विशेष अनुभूति है" — किन्तु क्या वह धुन वहाँ मौजूद ''होती है?'' — मान लीजिए कि मैं उसे गाना आरम्भ करता हूँ और अटक जाता हूँ? — किन्तु क्या उस क्षण उसे जानने के बारे में मैं ''निश्चित'' नहीं हो सकता था? अतः, किसी अर्थ में तो वह ''वहाँ'' मौजूद थी ही! — किन्तु किस अर्थ में? यदि कोई धुन को आद्योपांत गाए, अथवा उसे आरंभ से अन्त तक मन-ही-मन सुने तो आप कहेंगे कि वह वहाँ मौजूद थी। बेशक, मैं इस बात से इंकार नहीं कर रहा कि धुन वहाँ मौजूद है इस अभिकथन को नितान्त भिन्न अर्थ भी दिया जा सकता है — उदाहरणार्थ, मेरे पास ऐसा कागज का टुकड़ा है जिस पर धुन लिखी हुई है। — और उसका 'सुनिश्चित' होना, उसका उसे जानना, किस में निहित है? — बेशक हम कह सकते हैं: यदि कोई दृढ़ निश्चय से कहता है कि अब वह धुन जानता है तो वह सम्पूर्ण रूप से उसके मन में (किसी न किसी तरह) मौजूद होती है। — और यही "धुन सम्पूर्ण रूप में उसके मन में उपस्थित है" अभिव्यक्ति की परिभाषा है।
{{ParPU|185}} आइए हम §143 के अपने उदाहरण की ओर लौटें। अब — साधारण कसौटी द्वारा परखने पर — शिक्षार्थी पूर्णांकों की श्रृंखला में निपुण हो गया है। इसके बाद हम उसे अंकों की अन्य श्रृंखला लिखना सिखाते हैं और उसे इतना सिखा देते हैं कि '''+n''' आकार के आदेश देने पर वह '''0, n, 2n, 3n''' इत्यादि आकार की श्रृंखला लिख देता है; अतः +1 आदेश पर वह पूर्णांकों की शृंखला लिखता है। आइए हम मान लें कि हमने उसे 1000 तक अभ्यास कराया है और उसकी परीक्षा ली है।
अब हम शिक्षार्थी को श्रृंखला को 1000 से आगे बढ़ाने (मान लीजिए +2) को कहते हैं — और वह लिखता है 1000, 1004, 1008, 1012।
हम उसे कहते हैं: "देखो तुमने क्या किया!" — वह समझता नहीं। हम कहते हैं: तुम्हें तो दो जोड़ना था&nbsp;: "ध्यान दो कि तुमने श्रृंखला का आरम्भ कैसे किया था।" — वह उत्तर देता है: "ओह, क्या वह ठीक नहीं है? मैंने समझा कि मुझे ऐसा ही ''करना'' था।" — अथवा मान लीजिए कि वह श्रृंखला को इंगित करता है और कहता है: "किन्तु मैं तो उसी प्रकार आगे बढ़ा।" — अब उसे यह कहने "किन्तु क्या तुम्हें नहीं सूझता कि....?" — और पुराने उदाहरणों एवं व्याख्याओं को दुहराने से कोई लाभ नहीं होगा। ऐसी स्थितियों में सम्भवतः हम कहें&nbsp;: यह व्यक्ति हमारी व्याख्याओं सहित हमारे आदेश को स्वाभाविक रूप से उसी प्रकार समझता है जैसे हम "1000 तक 2 जोड़ो 2000 तक 4, 3000 तक 6, आदि" आदेशों को समझते हैं।
यह तो कुछ ऐसी स्थिति है जिसमें किसी व्यक्ति की अंगुली का इशारा दिखाने पर वह अंगुली की दिशा की ओर देखने के बजाय कलाई की ओर देखने लगे।
{{ParPU|186}} "तो आपके कहने का अर्थ यह होता है: '''+n''' को उचित रूप से पालन करने के लिए पग-पग पर नई अन्तर्दृष्टि — अन्तःप्रज्ञा — की आवश्यकता होती है।" — उचित रूप से पालन करने के लिए! किसी विशेष स्थिति में कौन सा उचित कदम है इस का निर्णय कैसे किया जाता है? — "उचित कदम वह होता है जो आदेश — जैसा कि उसका ''तात्पर्य'' है — के अनुरूप होता है।" अतः, जब आपने +2 का आदेश दिया तो आपका तात्पर्य था कि वह 1000 के पश्चात् 1002 लिखे — और क्या आपका तात्पर्य यह भी था कि उसे 1866 के पश्चात् 1868, और 100034 के पश्चात् 100036 इत्यादि ऐसी प्रतिज्ञप्तियों की अनन्त संख्या लिखनी चाहिए? "नहीं&nbsp;: मेरा तात्पर्य तो यह था कि वह ''प्रत्येक'' अंक से एक अंक छोड़कर लिखे&nbsp;: और उससे वे सभी प्रतिज्ञप्तियां निष्पादित होती हैं।" — किन्तु यही तो विवाद का विषय है: किसी भी स्थिति में उस वाक्य से क्या निष्पादित होता है? अथवा पुनः, किसी भी स्थिति में हमें उस वाक्य के "अनुरूप होना" किसे कहना चाहिए (वाक्य को आपके द्वारा दिए गए ''अर्थ'' के साथ — चाहे वह जिसमें भी निहित हो)। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि प्रत्येक स्थिति में अन्तःप्रज्ञा की आवश्यकता न होकर नए निर्णय की आवश्यकता होती है।
{{ParPU|187}} "आदेश देने के समय मैं पहले से ही जानता था कि उसे 1000 के पश्चात् 1002 लिखना चाहिए।" — निश्चित रूप से; और आप यह भी कह सकते हैं कि
उस समय आपका यह ''अर्थ'' था; किन्तु आप अपने आप को "जानने" और "अर्थ होने" के व्याकरण द्वारा भ्रमित न होने दें। क्योंकि आप यह नहीं कहना चाहते कि उस समय आपने 1000 से 1002 के पदन्यास के बारे में सोचा था — और यदि आपने इस पदन्यास के बारे में सोचा भी हो तो भी आपने अन्य पदन्यासों के बारे में तो नहीं सोचा था। जब आपने कहा "मैं उस समय पहले से ही जानता था..." तो उसका अर्थ कुछ इस प्रकार था&nbsp;: "यदि उस समय मुझसे पूछा जाता कि 1000 के पश्चात् किस संख्या को लिखा जाना चाहिए तो मैं उत्तर देता '1002' को।" और उसके बाद मैं शंकित नहीं हूँ। यह कल्पना तो वस्तुतः वैसी ही है: "यदि वह पानी में गिर जाता तो मैं भी उसके पीछे कूद पड़ता"। — तो, आपकी समझ में क्या गड़बड़ी थी?
{{ParPU|188}} यहाँ पहले तो मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: आप समझते थे कि आदेश का अर्थ होने की क्रिया से पहले ही, अपने ढंग से, आपने उन सभी पदन्यासों को पार कर लिया जिनकी किसी भी क्रिया को भौतिक रूप से करने से पहले आवश्यकता होती है: जब आपका वह अर्थ था तो आपके मन ने, मानो आगे उड़ान भरी और आपके इस या उस पदन्यास पर भौतिक रूप से पहुँचने से पहले ही उसने सभी पदन्यासों को पार कर लिया।
अतः आपकी रुचि ऐसी अभिव्यक्तियों को प्रयोग करने में हुई&nbsp;: "''वास्तव'' में कदम तो मेरे लिखने, बोलने अथवा विचार करने से पूर्व ही उठाये जा चुके हैं।" और ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे किसी ''अप्रतिम'' ढंग से पूर्वनिर्धारित, पूर्वानुमानित हों — क्योंकि मात्र अर्थ प्रदान करने की क्रिया ही वास्तविकता का पूर्वानुमान कर सकती है।
{{ParPU|189}} "किन्तु, तब, क्या पदन्यास बीजगणितीय सूत्र द्वारा निर्धारित ''नहीं'' किए जाते?" — इस प्रश्न में एक भ्रान्ति निहित है।
हम इस अभिव्यक्ति का प्रयोग करते हैं: "...... सूत्र द्वारा पदन्यास निर्धारित किए जाते हैं।" — इसका प्रयोग ''कैसे'' किया जाता है? — संभवतः हम इस तथ्य को उद्धृत करें कि लोगों को इस प्रकार शिक्षित (प्रशिक्षित) किया जाता है कि वे y = x<sup>2</sup> सूत्र का प्रयोग इस प्रकार करें कि जब वे x को एक ही संख्या से प्रतिस्थापित करें तब उन्हें y का एक ही मूल्य मिले। अथवा हम कह सकते हैं: "ये व्यक्ति इस प्रकार प्रशिक्षित हैं कि वे '3 जोड़ो' आदेश मिलने पर समान स्थान पर समान पदन्यास करते हैं"। हम इसे यह कहकर अभिव्यक्त कर सकते हैं: इन लोगों के लिए "3 जोड़ो" आदेश एक संख्या से आगामी संख्या तक प्रत्येक पदन्यास को पूर्णतः निर्धारित करता है। (उन अन्य लोगों की तुलना में जिन्हें यह नहीं पता कि यह आदेश मिलने पर उन्हें क्या करना है, अथवा उन लोगों की तुलना में जो इस पर पूर्ण निश्चितता से प्रतिक्रिया करते हैं, किन्तु अपने-अपने ढंग से।)
इसके विपरीत हम विभिन्न प्रकार के सूत्रों और उनके उपयुक्त विभिन्न प्रयोगों (विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षणों) की तुलना कर सकते हैं। फिर हम विशिष्ट प्रकार के सूत्र (उपयुक्त प्रयोग की विधियों सहित) को "x के प्रदत्त मूल्य के लिए y संख्या का निर्धारण करने वाला सूत्र" कहकर ''पुकारते'' हैं, और अन्य प्रकार के सूत्र को "x के प्रदत्त मूल्य के लिए y संख्या का निर्धारण न करने वाला" सूत्र कहते हैं। (प्रथम प्रकार का सूत्र y = x<sup>2</sup> होगा, y ≠ x<sup>2</sup> दूसरे प्रकार का सूत्र होगा।) "..... सूत्र y संख्या का निर्धारण करता है" प्रतिज्ञप्ति तो अब सूत्र के आकार के बारे में अभिकथन होगी — और अब हमें इस प्रकार की प्रतिज्ञप्तियों "मेरे द्वारा लिखित सूत्र y का निर्धारण करता है" अथवा "यहy का निर्धारण करने वाला सूत्र है" का निम्न प्रकार की प्रतिज्ञप्तियों से भेद करना होगा&nbsp;: "y = x<sup>2</sup> सूत्र x के प्रदत्त मूल्य के लिए y संख्या का निर्धारण करता है"। "क्या वहाँ लिखे हुए सूत्र द्वारा y का निर्धारण होता है?" प्रश्न का अर्थ तो "क्या जो वहाँ है वह इस अथवा उस प्रकार का सूत्र है?" इसके समान होगा — किन्तु यह तो तुरन्त स्पष्ट नहीं होता कि हम इस प्रश्न का क्या करें&nbsp;: "क्या y = x<sup>2</sup> सूत्र वही नहीं है जो x के प्रदत्त मूल्य के लिए y का निर्धारण करता है?" शिक्षार्थी से यह प्रश्न, यह जानने के लिए किया जा सकता है कि वह "निर्धारण करने" शब्द का प्रयोग समझता है या नहीं; अथवा किसी विशिष्ट प्रणाली में यह एक गणितीय समस्या हो सकती है — यह सिद्ध करने के लिए कि x का मात्र एक वर्ग होता है।
{{ParPU|190}} अब कहा जा सकता है: "सूत्र के अर्थ-निर्धारण से पदन्यास भी निर्धारित होता है"। सूत्र के अर्थ-निर्धारण की कौन सी कसौटी है? उदाहरणार्थ, यह उसी प्रकार की होती है जिसका हम सदैव प्रयोग करते हैं, हम उसे उसी प्रकार से प्रयोग करते हैं जिस प्रकार से उसे प्रयोग करने का हमें प्रशिक्षण दिया जाता है।
उदाहरणार्थ, किसी अपरिचित-संकेत का प्रयोग करने वाले को हम कहते हैं: "यदि x!2 से आपका तात्पर्य x<sup>2</sup> है तो आपको y का अमुक मूल्य मिलेगा, यदि आपका तात्पर्य 2x है तो अमुक।" — अब अपने आप से पूछें&nbsp;: x!2 से अमुक अथवा अमुक ''अर्थ'' कैसे होता है?
''इसी'' प्रकार सूत्र के अर्थ-निर्धारण से पहले ही पदन्यास निर्धारित हो जाते हैं।
{{ParPU|191}} "भानो शब्द का संपूर्ण प्रयोग हमने एकाएक समझ लिया।" उदाहरणार्थ ''किस'' प्रकार? — क्या प्रयोग को — एक विशेष अर्थ में — एकाएक समझा नहीं जा सकता? और ''किस'' अर्थ में इसे एकाएक समझा नहीं जा सकता — बात यह है इसे तो मानो अन्य, और इससे कहीं अधिक स्पष्ट अर्थ में, हम 'एकाएक समझ' सकते हों। — किन्तु क्या इसके लिए आपके पास कोई नमूना है? नहीं। यह अभिव्यक्ति तो स्वयं अपने आपको सुझाती है। विभिन्न चित्रों के मिश्रण के परिणाम की तरह।
{{ParPU|192}} आपके पास श्रेष्ठतम तथ्य का कोई नमूना नहीं है, किन्तु आप श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति को प्रयोग करने के लिए लालायित रहते हैं। (इसे दार्शनिक श्रेष्ठतम कहा जा सकता है।)
{{ParPU|193}} अपनी क्रिया के प्रतीक के रूप में यंत्र&nbsp;: सर्वप्रथम मैं यह कह सकता कि यंत्र की क्रिया — तो आरंभ से ही प्रतीत होती है। इसका क्या अर्थ है? — यदि यंत्र का ज्ञान है तो शेष सब कुछ, अतः उसकी गतिविधि, पहले से ही पूर्णत&nbsp;: निर्धारित प्रतीत होती है।
हम इस प्रकार वार्तालाप करते हैं मानो ये पुर्जे केवल इसी ढंग से गतिशील होते हैं, मानो वे कुछ और कर न सकते हों। ऐसा कैसे होता है — क्या हम उनके मुड़ने, टूटने, पिघलने इत्यादि की संभावना को भूल जाते हैं? हाँ, बहुत सी स्थितियों में तो हम उस के बारे में सोचते ही नहीं। हम यंत्र की किसी विशेष क्रिया को सांकेतिक रूप में दिखाने के लिए यन्त्र का, अथवा यन्त्र के आरेखन का प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ, हम किसी को ऐसा आरेखन देते हैं, और मान लेते हैं कि वह उससे पुर्जों की गतिविधि निष्पादित कर लेगा। (उसी प्रकार जैसे कि हम किसी को कोई संख्या यह कह कर बताते हैं कि वह संख्या 1, 4, 9, 16...... श्रृंखला में पच्चीसवीं है।)
"यंत्र की क्रिया आरंभ से ही उसमें प्रतीत होती है" का अर्थ है: हम यंत्र की आगामी गतिविधियों की निश्चितता की तुलना मेज की दराज में पहले से ही रखी वस्तुओं से करने को प्रवृत्त हैं जिन्हें हम बाद में बाहर निकाल लेते हैं। — किन्तु जब हम यंत्र की वास्तविक कार्य-प्रणाली का पूर्वानुमान करते हैं तो हम इस प्रकार की बातें नहीं करते। सामान्यतः उस समय तो हम पुर्जों के विकारों इत्यादि की संभावना को नहीं भूलते। — बहरहाल, जब हम यंत्र को किसी ''गतिशीलता'' के प्रतीकीकरण के लिए प्रयोग किए जा सकने के ढंग पर विचार करते हैं, तब हम इसी प्रकार की बातें ''करते'' हैं, क्योंकि वह नितान्त ''भिन्न'' ढंग से भी गतिशील हो सकता है।
हम कह सकते हैं कि जिस चित्र-श्रृंखला को हमने इसमें निष्पादित करना सीखा है उसका पहला चित्र तो यह यंत्र, या इस यंत्र का चित्र है।
किन्तु जब हम विचार करते हैं कि यंत्र किसी अन्य प्रकार से भी गतिमान हो सकता था तो ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो उसके वास्तव में गतिमान होने का निर्धारण तो वास्तविक यंत्र की अपेक्षा यंत्र-रूपी प्रतीक में कहीं अधिक निहित होता है। मानो वर्णित गतिविधियों का आनुभविक पूर्व निर्धारण पर्याप्त न हो, अपितु वस्तुतः उन्हें तो — रहस्यपूर्ण अर्थ में — पहले से ही ''उपस्थित'' होना पड़ता है। और यह बिल्कुल ठीक है: यंत्र-रूपी प्रतीक की गतिविधियों का पूर्वनिर्धारण, किसी वास्तविक यंत्र की गतिविधियों के पूर्वनिर्धारण से नितान्त भिन्न अर्थ में किया जाता है।
{{ParPU|194}} यह विचार कब आता है: यंत्र की सामान्य संभावित गतिविधियाँ किसी रहस्यपूर्ण ढंग से उसमें पहले से ही उपस्थित रहती हैं? बेशक, तब, जब हम तत्त्व-चिंतन कर रहे होते हैं। और हम ऐसा क्यों सोचते हैं? जिस ढंग से हम यंत्रों के बारे में बात करते हैं; उदाहरणार्थ, हम कहते हैं कि यंत्र में गतिविधियों की अमुक-अमुक संभावनाएं ''होती'' हैं; हम अमुक-अमुक ढंग से ही गतिमान हो सकने वाले वाले पूर्ण दुर्धर्ष यंत्र का उल्लेख करते हैं। — गतिविधि की यह संभावना क्या होती है? वह ''गतिविधि'' तो नहीं होती — जैसे पिन और सॉकेट की फिटिंग में ढील रहना, पिन का सॉकेट में पूरी तरह फिट न होना। जबकि गतिविधि की यह आनुभविक परिस्थिति है, तो भी इससे भिन्न कल्पना करना भी संभव है। गतिविधि की संभावना, तो वस्तुतः गतिविधि की परछाईं के समान ही मानी जाती है। किन्तु क्या आप ऐसी परछाई के बारे में जानते हैं? और परछाई से मेरा तात्पर्य गतिविधि का कोई चित्र नहीं है — क्योंकि ऐसे चित्र को मात्र ''इस'' गतिविधि का ही चित्र नहीं होना होगा। किन्तु इस गतिविधि की संभावना को मात्र इस गतिविधि की ही संभावना होना चाहिए। (यहाँ इस पर गौर करें कि भाषा की लहरें कितने ऊँची उठती हैं।)
ये लहरें शांत हो जाती हैं ज्यों ही हम अपने आप से यह प्रश्न पूछते हैं: जब हम किसी यंत्र के बारे में बात करते हैं "तो गतिविधि की संभावना" वाक्यांश का प्रयोग हम किस प्रकार करते हैं? — किन्तु इस स्थिति में विचित्र विचार हमें कहाँ से आए? अच्छा मैं आपको गतिविधि की संभावना प्रदर्शित करता हूँ, मान लीजिए गतिविधि के ''चित्र'' द्वारा&nbsp;: 'अत&nbsp;: संभावना तो वास्तविकता के समान कुछ होती है'। हम कहते हैं: "यह अभी तक गतिमान नहीं है, किन्तु इसमें गतिशील होने की संभावना है" — अतः संभावना तो वास्तविकता के अत्यन्त सन्निकट होती है। क्या अमुक-अमुक भौतिक परिस्थितियाँ इस गतिविधि को संभव बनाती हैं, इसके बारे में यद्यपि हमें शंका हो सकती है परन्तु हम यह विवेचन कभी नहीं करते कि ''यह'' इस अथवा उस गतिविधि की संभावना