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{{ParPU|160}} किन्तु निम्नलिखित स्थिति की कल्पना कीजिए : हम धाराप्रवाह पढ़ सकने वाले किसी व्यक्ति को एक ऐसा मजमून देते हैं जिसे उसने पहले कभी न देखा हो। वह उसे हमें पढ़ कर सुनाता है — किन्तु उसमें किसी कंठस्थ मजमून के पठन की अनुभूति होती है (यह किसी दवा का प्रभाव हो सकता है)। क्या ऐसी स्थिति में हमें कहना चाहिए कि वह वास्तव में मजमून को पढ़ रहा है? क्या हमें यहाँ उसकी संवेदनाओं को, उसके पढ़ने अथवा न पढ़ने की कसौटी नहीं मानना चाहिए? | {{ParPU|160}} किन्तु निम्नलिखित स्थिति की कल्पना कीजिए : हम धाराप्रवाह पढ़ सकने वाले किसी व्यक्ति को एक ऐसा मजमून देते हैं जिसे उसने पहले कभी न देखा हो। वह उसे हमें पढ़ कर सुनाता है — किन्तु उसमें किसी कंठस्थ मजमून के पठन की अनुभूति होती है (यह किसी दवा का प्रभाव हो सकता है)। क्या ऐसी स्थिति में हमें कहना चाहिए कि वह वास्तव में मजमून को पढ़ रहा है? क्या हमें यहाँ उसकी संवेदनाओं को, उसके पढ़ने अथवा न पढ़ने की कसौटी नहीं मानना चाहिए? | ||
अथवा फिर मान लीजिए कि किसी विशेष दवा से प्रभावित किसी मनुष्य के प्रत्यक्ष, संतों की एक श्रृंखला है (यह आवश्यक नहीं कि वे संकेत किसी वर्तमान वर्णमाला के हो)। वह संकेतों के अनुरूप शब्द उच्चारित करता है, मानो वे अक्षर हों और ऐसा करते समय उसमें पठन के सभी बाह्य संकेत, तथा संवेदनाएं होती हैं (हमें स्वप्नों इस प्रकार के अनुभव होते हैं; ऐसी स्थिति में जागने पर हम संभवतः कहते हैं: “मुझे प्रतीत हुआ मानो मैं किसी लिपि को पढ़ रहा हूँ, यद्यपि वह लिपि तो थी ही नहीं।”) ऐसी स्थिति में कुछ लोग ऐसा कहना चाहेंगे कि व्यक्ति उन संकेतों को ''पढ़'' रहा था। दूसरे लोग कहेंगे, नहीं। — मान लीजिए कि उसने इस प्रकार पाँच चिन्हों के ऐसे समूह '''उ प र्यु | अथवा फिर मान लीजिए कि किसी विशेष दवा से प्रभावित किसी मनुष्य के प्रत्यक्ष, संतों की एक श्रृंखला है (यह आवश्यक नहीं कि वे संकेत किसी वर्तमान वर्णमाला के हो)। वह संकेतों के अनुरूप शब्द उच्चारित करता है, मानो वे अक्षर हों और ऐसा करते समय उसमें पठन के सभी बाह्य संकेत, तथा संवेदनाएं होती हैं (हमें स्वप्नों इस प्रकार के अनुभव होते हैं; ऐसी स्थिति में जागने पर हम संभवतः कहते हैं: “मुझे प्रतीत हुआ मानो मैं किसी लिपि को पढ़ रहा हूँ, यद्यपि वह लिपि तो थी ही नहीं।”) ऐसी स्थिति में कुछ लोग ऐसा कहना चाहेंगे कि व्यक्ति उन संकेतों को ''पढ़'' रहा था। दूसरे लोग कहेंगे, नहीं। — मान लीजिए कि उसने इस प्रकार पाँच चिन्हों के ऐसे समूह '''उ प र्यु क् त''' को पढ़ा (अथवा उनकी व्याख्या की) — और अब हम उसे वही संकेत विपरीत क्रम में दिखाते हैं और वह उन्हें '''त''' '''क् र्यु प उ''' पढ़ता है; और आगामी परीक्षणों में भी उसे संकेतों की यही व्याख्या याद रहती है: यहाँ निश्चय ही हम यह कहना चाहेंगे कि वह अपने प्रयोग के लिए किसी संदर्भ का निर्माण करता है और तदनुसार उसे पढ़ता है। | ||
{{ParPU|161}} और यह भी याद रहे कि उन दोनों स्थितियों में जिनमें यह माना जा रहा हो कि कोई व्यक्ति पढ़कर बोल रहा है — पहली, एक जिसमें वह कंठस्थ विषय को कहता है, दूसरी, जिसमें वह न तो सन्दर्भ से और न ही स्मृति से बल्कि वास्तव में एक-एक अक्षर पढ़कर बोलता है — एक अनवरत संक्रमण शृंखला होती है। | {{ParPU|161}} और यह भी याद रहे कि उन दोनों स्थितियों में जिनमें यह माना जा रहा हो कि कोई व्यक्ति पढ़कर बोल रहा है — पहली, एक जिसमें वह कंठस्थ विषय को कहता है, दूसरी, जिसमें वह न तो सन्दर्भ से और न ही स्मृति से बल्कि वास्तव में एक-एक अक्षर पढ़कर बोलता है — एक अनवरत संक्रमण शृंखला होती है। | ||
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किन्तु क्या इसका अर्थ है कि “व्युत्पन्न करना” शब्द का वास्तव में कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि जब हम उसके अर्थ को समझने का प्रयास करते हैं तो उस अर्थ का विघटन हो जाता है। | किन्तु क्या इसका अर्थ है कि “व्युत्पन्न करना” शब्द का वास्तव में कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि जब हम उसके अर्थ को समझने का प्रयास करते हैं तो उस अर्थ का विघटन हो जाता है। | ||
{{ParPU|164}} §162 की स्थिति में “व्युत्पन्न करना” का अर्थ स्पष्ट था। किन्तु हमने अपने-आप से कहा क यह व्युत्पत्ति की अति विशिष्ट स्थिति थी; वहाँ ( | {{ParPU|164}} §162 की स्थिति में “व्युत्पन्न करना” का अर्थ स्पष्ट था। किन्तु हमने अपने-आप से कहा क यह व्युत्पत्ति की अति विशिष्ट स्थिति थी; वहाँ (व्युत्पत्ति तो घूँघट में छिपी थी, और उसका सार जानने के लिये हमें घूँघट हटाना होगा। अतः हमने उस घूँघट हो हटा दिया; किंतु घूँघट हटाते ही स्वयं व्युत्पत्ति ही लुप्त हो गई। — हाथीचक (एक प्रकार का केले जैसा पौधा) की वास्तविकता को जानने के लिए हमने उसके पत्ते हटा दिये, यानी उसकी सतह हमने हटा दी। क्योंकि, निश्चित रूप से §162 की स्थिति व्युत्पत्ति की विशिष्ट स्थिति थी; बहरहाल, इस स्थिति में व्युत्पत्ति का सार सतह के नीचे छुपा हुआ न था, अपितु उसकी ‘सतह’ तो व्युत्पत्ति के उदाहरण-समूहों में से एक उदाहरण था। | ||
और इसी प्रकार हम “पढ़ना” शब्द का प्रयोग भी स्थितियों के समूह के लिए करते हैं। और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में यह निर्धारित करने के लिए कि कोई पढ़ रहा है, हम विभिन्न कसौटियों का प्रयोग करते हैं। | और इसी प्रकार हम “पढ़ना” शब्द का प्रयोग भी स्थितियों के समूह के लिए करते हैं। और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में यह निर्धारित करने के लिए कि कोई पढ़ रहा है, हम विभिन्न कसौटियों का प्रयोग करते हैं। | ||
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{{ParPU|194}} यह विचार कब आता है: यंत्र की सामान्य संभावित गतिविधियाँ किसी रहस्यपूर्ण ढंग से उसमें पहले से ही उपस्थित रहती हैं? बेशक, तब, जब हम तत्त्व-चिंतन कर रहे होते हैं। और हम ऐसा क्यों सोचते हैं? जिस ढंग से हम यंत्रों के बारे में बात करते हैं; उदाहरणार्थ, हम कहते हैं कि यंत्र में गतिविधियों की अमुक-अमुक संभावनाएं ''होती'' हैं; हम अमुक-अमुक ढंग से ही गतिमान हो सकने वाले वाले पूर्ण दुर्धर्ष यंत्र का उल्लेख करते हैं। — गतिविधि की यह संभावना क्या होती है? वह ''गतिविधि'' तो नहीं होती — जैसे पिन और सॉकेट की फिटिंग में ढील रहना, पिन का सॉकेट में पूरी तरह फिट न होना। जबकि गतिविधि की यह आनुभविक परिस्थिति है, तो भी इससे भिन्न कल्पना करना भी संभव है। गतिविधि की संभावना, तो वस्तुतः गतिविधि की परछाईं के समान ही मानी जाती है। किन्तु क्या आप ऐसी परछाई के बारे में जानते हैं? और परछाई से मेरा तात्पर्य गतिविधि का कोई चित्र नहीं है — क्योंकि ऐसे चित्र को मात्र ''इस'' गतिविधि का ही चित्र नहीं होना होगा। किन्तु इस गतिविधि की संभावना को मात्र इस गतिविधि की ही संभावना होना चाहिए। (यहाँ इस पर गौर करें कि भाषा की लहरें कितने ऊँची उठती हैं।) | {{ParPU|194}} यह विचार कब आता है: यंत्र की सामान्य संभावित गतिविधियाँ किसी रहस्यपूर्ण ढंग से उसमें पहले से ही उपस्थित रहती हैं? बेशक, तब, जब हम तत्त्व-चिंतन कर रहे होते हैं। और हम ऐसा क्यों सोचते हैं? जिस ढंग से हम यंत्रों के बारे में बात करते हैं; उदाहरणार्थ, हम कहते हैं कि यंत्र में गतिविधियों की अमुक-अमुक संभावनाएं ''होती'' हैं; हम अमुक-अमुक ढंग से ही गतिमान हो सकने वाले वाले पूर्ण दुर्धर्ष यंत्र का उल्लेख करते हैं। — गतिविधि की यह संभावना क्या होती है? वह ''गतिविधि'' तो नहीं होती — जैसे पिन और सॉकेट की फिटिंग में ढील रहना, पिन का सॉकेट में पूरी तरह फिट न होना। जबकि गतिविधि की यह आनुभविक परिस्थिति है, तो भी इससे भिन्न कल्पना करना भी संभव है। गतिविधि की संभावना, तो वस्तुतः गतिविधि की परछाईं के समान ही मानी जाती है। किन्तु क्या आप ऐसी परछाई के बारे में जानते हैं? और परछाई से मेरा तात्पर्य गतिविधि का कोई चित्र नहीं है — क्योंकि ऐसे चित्र को मात्र ''इस'' गतिविधि का ही चित्र नहीं होना होगा। किन्तु इस गतिविधि की संभावना को मात्र इस गतिविधि की ही संभावना होना चाहिए। (यहाँ इस पर गौर करें कि भाषा की लहरें कितने ऊँची उठती हैं।) | ||
ये लहरें शांत हो जाती हैं ज्यों ही हम अपने आप से यह प्रश्न पूछते हैं: जब हम किसी यंत्र के बारे में बात करते हैं “तो गतिविधि की संभावना” वाक्यांश का प्रयोग हम किस प्रकार करते हैं? — किन्तु इस स्थिति में विचित्र विचार हमें कहाँ से आए? अच्छा मैं आपको गतिविधि की संभावना प्रदर्शित करता हूँ, मान लीजिए गतिविधि के ''चित्र'' द्वारा : ‘अत: संभावना तो वास्तविकता के समान कुछ होती है’। हम कहते हैं: “यह अभी तक गतिमान नहीं है, किन्तु इसमें गतिशील होने की संभावना है” — अतः संभावना तो वास्तविकता के अत्यन्त सन्निकट होती है। क्या अमुक-अमुक भौतिक परिस्थितियाँ इस गतिविधि को संभव बनाती हैं, इसके बारे में यद्यपि हमें शंका हो सकती है परन्तु हम यह विवेचन कभी नहीं करते कि ''यह'' इस अथवा उस गतिविधि की संभावना है। | ये लहरें शांत हो जाती हैं ज्यों ही हम अपने आप से यह प्रश्न पूछते हैं: जब हम किसी यंत्र के बारे में बात करते हैं “तो गतिविधि की संभावना” वाक्यांश का प्रयोग हम किस प्रकार करते हैं? — किन्तु इस स्थिति में विचित्र विचार हमें कहाँ से आए? अच्छा मैं आपको गतिविधि की संभावना प्रदर्शित करता हूँ, मान लीजिए गतिविधि के ''चित्र'' द्वारा : ‘अत: संभावना तो वास्तविकता के समान कुछ होती है’। हम कहते हैं: “यह अभी तक गतिमान नहीं है, किन्तु इसमें गतिशील होने की संभावना है” — अतः संभावना तो वास्तविकता के अत्यन्त सन्निकट होती है। क्या अमुक-अमुक भौतिक परिस्थितियाँ इस गतिविधि को संभव बनाती हैं, इसके बारे में यद्यपि हमें शंका हो सकती है परन्तु हम यह विवेचन कभी नहीं करते कि ''यह'' इस अथवा उस गतिविधि की संभावना है। ‘यानी गतिविधि की संभावना का स्वयं गतिविधि से अप्रतिम संबंध होता है; ऐसा संबंध जो किसी चित्र के अपने विषय संबंध से कहीं अधिक होता है; क्योंकि संदेह किया जा सकता है कि चित्र इस विषय का है अथवा उस विषय का। हम कहते हैं: “अनुभव ही बताएगा कि ऐसा करने पर इस पिन को गतिविधि की यही संभावना प्राप्त होगी या नहीं”, किन्तु हम ऐसा नहीं कहते कि “अनुभव ही बताएगा कि क्या इस गतिविधि की यही संभावना है”: ‘अतः यह एक आनुभविक तथ्य नहीं है कि यह संभावना यथार्थतः इसी गतिविधि की संभावना है। | ||
इन विषयों के लिए प्रयुक्त अभिव्यक्तियों के बारे में हम सतर्क रहते हैं; बहरहाल हम उन्हें समझते नहीं हैं, अपितु उनकी गलत व्याख्या करते हैं। तत्त्व-चिन्तन करते समय हम उन असभ्य आदिम व्यक्तियों के समान होते हैं जो सभ्य मनुष्यों की अभिव्यक्तियों को सुनते हैं, उन पर मिथ्या व्याख्याएं आरोपित करते हैं, और फिर उनके विचित्र निष्कर्ष निकालते हैं। | इन विषयों के लिए प्रयुक्त अभिव्यक्तियों के बारे में हम सतर्क रहते हैं; बहरहाल हम उन्हें समझते नहीं हैं, अपितु उनकी गलत व्याख्या करते हैं। तत्त्व-चिन्तन करते समय हम उन असभ्य आदिम व्यक्तियों के समान होते हैं जो सभ्य मनुष्यों की अभिव्यक्तियों को सुनते हैं, उन पर मिथ्या व्याख्याएं आरोपित करते हैं, और फिर उनके विचित्र निष्कर्ष निकालते हैं। | ||
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{{ParPU|197}} “यह तो ऐसा ही है मानो हम शब्द के संपूर्ण प्रयोग को एकाएक समझा सकते हों।” — और यही तो हम कहते हैं कि हम ऐसा करते हैं। यानी जो हम करते हैं उसका हम कभी-कभी इन शब्दों में विवरण देते हैं। किन्तु जो कुछ होता है उस के बारे में कुछ भी विस्मयकारी, कुछ भी विचित्र नहीं है। विचित्र तो यह तब बनता है जब हमें यह सोचने के लिए विवश किया जाता है कि प्रयोग को समझने की क्रिया में आगामी परिवर्धन तो किसी प्रकार पहले से ही उपस्थित होते भी हैं, और नहीं भी। — क्योंकि हम कहते हैं कि इसमें कोई संशय नहीं है कि हम शब्द को समझते हैं, और साथ ही यह भी कहते हैं कि उसका अर्थ तो उसके प्रयोग में निहित है। इसमें कोई संशय नहीं कि अब मैं शतरंज खेलना चाहता हूँ, किन्तु शतरंज अपने नियमों (इत्यादि) के कारण ही खेल होता है। मैं कौन सा खेल खेलना चाहता हूँ, क्या यह मैं तब तक नहीं जानता, जब तक मैं उसे खेल नहीं ''लेता''? अथवा क्या सभी नियम मेरे अभिप्राय में होते हैं? क्या मुझे अनुभव से पता चलता है कि साधारणतः अमुक अभिप्राय का परिणाम अमुक खेल होता है? तो अपने अभिप्रेत कार्य के बारे में क्या मेरा निश्चित होना असंभव है? और यदि यह निरर्थक है, तो अभिप्राय एवं अभिप्रेत विषय में किस प्रकार का अटूट संबंध है? — “आइए, शतरंज का खेल खेलें” इस अभिव्यक्ति के अर्थ और इस खेल के सभी नियमों के परस्पर संबंध कैसे प्रभावित होते हैं? — बेशक, खेल के नियमों की नियमावली में, उसे सिखाने में, खेलने के दैनंदिन अभ्यास में। | {{ParPU|197}} “यह तो ऐसा ही है मानो हम शब्द के संपूर्ण प्रयोग को एकाएक समझा सकते हों।” — और यही तो हम कहते हैं कि हम ऐसा करते हैं। यानी जो हम करते हैं उसका हम कभी-कभी इन शब्दों में विवरण देते हैं। किन्तु जो कुछ होता है उस के बारे में कुछ भी विस्मयकारी, कुछ भी विचित्र नहीं है। विचित्र तो यह तब बनता है जब हमें यह सोचने के लिए विवश किया जाता है कि प्रयोग को समझने की क्रिया में आगामी परिवर्धन तो किसी प्रकार पहले से ही उपस्थित होते भी हैं, और नहीं भी। — क्योंकि हम कहते हैं कि इसमें कोई संशय नहीं है कि हम शब्द को समझते हैं, और साथ ही यह भी कहते हैं कि उसका अर्थ तो उसके प्रयोग में निहित है। इसमें कोई संशय नहीं कि अब मैं शतरंज खेलना चाहता हूँ, किन्तु शतरंज अपने नियमों (इत्यादि) के कारण ही खेल होता है। मैं कौन सा खेल खेलना चाहता हूँ, क्या यह मैं तब तक नहीं जानता, जब तक मैं उसे खेल नहीं ''लेता''? अथवा क्या सभी नियम मेरे अभिप्राय में होते हैं? क्या मुझे अनुभव से पता चलता है कि साधारणतः अमुक अभिप्राय का परिणाम अमुक खेल होता है? तो अपने अभिप्रेत कार्य के बारे में क्या मेरा निश्चित होना असंभव है? और यदि यह निरर्थक है, तो अभिप्राय एवं अभिप्रेत विषय में किस प्रकार का अटूट संबंध है? — “आइए, शतरंज का खेल खेलें” इस अभिव्यक्ति के अर्थ और इस खेल के सभी नियमों के परस्पर संबंध कैसे प्रभावित होते हैं? — बेशक, खेल के नियमों की नियमावली में, उसे सिखाने में, खेलने के दैनंदिन अभ्यास में। | ||
{{ParPU|198}} “किन्तु कोई नियम कैसे बता सकता है कि मुझे इस स्थान पर क्या करना है? मैं जो कुछ भी करता हूँ वह किसी न किसी व्याख्या के अनुसार, किसी न किसी नियम के अनुरूप होता है।” — हमें ऐसा नहीं कहना चाहिए, अपितु हमें वस्तुतः यह कहना चाहिए | {{ParPU|198}} “किन्तु कोई नियम कैसे बता सकता है कि मुझे इस स्थान पर क्या करना है? मैं जो कुछ भी करता हूँ वह किसी न किसी व्याख्या के अनुसार, किसी न किसी नियम के अनुरूप होता है।” — हमें ऐसा नहीं कहना चाहिए, अपितु हमें वस्तुतः यह कहना चाहिए : कोई भी व्याख्या व्याख्येय विषय के साथ अधर में लटकती रहती है, और उस विषय को कोई आधार नहीं देती। व्याख्याएं अपने आप किसी अर्थ का निर्धारण नहीं करतीं। | ||
“तो जो कुछ भी मैं करता हूँ क्या उसको नियम के अनुरूप बनाया जा सकता है?” — मुझे यह पूछने दें | “तो जो कुछ भी मैं करता हूँ क्या उसको नियम के अनुरूप बनाया जा सकता है?” — मुझे यह पूछने दें : नियम की अभिव्यक्ति का — उदाहरणार्थ, संकेत-स्तंभ का — मेरी क्रियाओं से क्या संबंध है? यहाँ किस प्रकार का संबंध है? — संभवतः यह : मुझे इस संकेत पर इस प्रकार की प्रतिक्रिया करने का प्रशिक्षण दिया गया है, और इस समय मैं इस पर उसी प्रकार की प्रतिक्रिया कर रहा हूँ। | ||
किन्तु यह तो केवल कार्य-कारण संबंध बताना ही है; यह बताना कि संकेत-स्तंभ अनुसरण की परिपाटी प्रचलित हुई; न कि यह बताना कि संकेत का अनुसरण किसमें निहित है। इससे विपरीत, मैंने यह भी इंगित किया है कि कोई व्यक्ति संकेत-स्तंभ के अनुसार केवल तभी जा सकता है जब संकेत-स्तंभों का कोई नियमित प्रयोग हो, या फिर कोई परिपाटी हो। | किन्तु यह तो केवल कार्य-कारण संबंध बताना ही है; यह बताना कि संकेत-स्तंभ अनुसरण की परिपाटी प्रचलित हुई; न कि यह बताना कि संकेत का अनुसरण किसमें निहित है। इससे विपरीत, मैंने यह भी इंगित किया है कि कोई व्यक्ति संकेत-स्तंभ के अनुसार केवल तभी जा सकता है जब संकेत-स्तंभों का कोई नियमित प्रयोग हो, या फिर कोई परिपाटी हो। | ||
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क्या यह उस स्थिति के समान है जिसमें मैं सीमित न होने की व्याख्या एक ऐसी लम्बाई के रूप में देता हूँ जो हर लम्बाई के पार पहुँच जाती है? | क्या यह उस स्थिति के समान है जिसमें मैं सीमित न होने की व्याख्या एक ऐसी लम्बाई के रूप में देता हूँ जो हर लम्बाई के पार पहुँच जाती है? | ||
{{ParPU|210}} “किन्तु क्या जो आप स्वयं समझते हैं उसकी व्याख्या आप किसी अन्य व्यक्ति के लिए भी करते हैं? क्या आप उसे अपरिहार्य विषय का ''अनुमान'' नहीं लगाने देते? आप उसे उदाहरण देते हैं, — किन्तु उसे आपके अभिप्राय के बारे में अनुमान लगाने के लिए उन उदाहरणों के उद्देश्यों के बारे में अनुमान लगाना पड़ता है।” — मैं उसे वे सभी व्याख्याएं देता हूँ जिन्हें मैं स्वयं समझता हूँ। — “मेरे अभिप्राय के बारे में वह अनुमान लगाता है” इसका अर्थ होगा : उसके मन में मेरी व्याख्या के विभिन्न | {{ParPU|210}} “किन्तु क्या जो आप स्वयं समझते हैं उसकी व्याख्या आप किसी अन्य व्यक्ति के लिए भी करते हैं? क्या आप उसे अपरिहार्य विषय का ''अनुमान'' नहीं लगाने देते? आप उसे उदाहरण देते हैं, — किन्तु उसे आपके अभिप्राय के बारे में अनुमान लगाने के लिए उन उदाहरणों के उद्देश्यों के बारे में अनुमान लगाना पड़ता है।” — मैं उसे वे सभी व्याख्याएं देता हूँ जिन्हें मैं स्वयं समझता हूँ। — “मेरे अभिप्राय के बारे में वह अनुमान लगाता है” इसका अर्थ होगा : उसके मन में मेरी व्याख्या के विभिन्न विवेचन आते हैं, और वह उनमें से किसी एक को स्वीकार कर लेता है। यानी इस स्थिति में वह प्रश्न पूछ सकता है; मैं उसे उत्तर दे सकता हूँ, और मुझे उसे उत्तर देना भी चाहिए। | ||
{{ParPU|211}} उसे आप जो भी अनुदेश देते हैं उससे वह कैसे ''समझ'' सकता है कि उसे रचना को आगे बढ़ाना है? — मैं कैसे समझता हूँ? — यदि उसका अर्थ है “क्या मेरे पास कारण हैं?” तो उसका उत्तर है: शीघ्र ही मेरे कारण समाप्त हो जाएंगे। और फिर मैं कारणों के बिना ही क्रिया करूँगा। | {{ParPU|211}} उसे आप जो भी अनुदेश देते हैं उससे वह कैसे ''समझ'' सकता है कि उसे रचना को आगे बढ़ाना है? — मैं कैसे समझता हूँ? — यदि उसका अर्थ है “क्या मेरे पास कारण हैं?” तो उसका उत्तर है: शीघ्र ही मेरे कारण समाप्त हो जाएंगे। और फिर मैं कारणों के बिना ही क्रिया करूँगा। | ||
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“प्रत्येक रंगीन धब्बा अपने परिवेश में बिल्कुल फिट हो जाता है” तो वस्तुतः तद्रूपता के सिद्धान्त का विशेष आकार है। | “प्रत्येक रंगीन धब्बा अपने परिवेश में बिल्कुल फिट हो जाता है” तो वस्तुतः तद्रूपता के सिद्धान्त का विशेष आकार है। | ||
{{ParPU|217}} “मैं नियम का पालन करने के योग्य कैसे होता हूँ?” — यदि यह कारणों के बारे में प्रश्न | {{ParPU|217}} “मैं नियम का पालन करने के योग्य कैसे होता हूँ?” — यदि यह कारणों के बारे में प्रश्न नहीं है तो मेरे नियमानुसरण-विधि के औचित्य के बारे में है। | ||
यदि मैंने औचित्य समाप्त कर दिये हों तो मैं चट्टान पर पहुँच जाता हूँ और मेरी कुदाल मुड़ जाती है। तब मैं यह कहना चाहता हूँ “मैं तो यही करता हूँ।” | यदि मैंने औचित्य समाप्त कर दिये हों तो मैं चट्टान पर पहुँच जाता हूँ और मेरी कुदाल मुड़ जाती है। तब मैं यह कहना चाहता हूँ “मैं तो यही करता हूँ।” | ||
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{{ParPU|223}} ऐसा तो नहीं लगता कि हमें नियम की अनुमति की, (फुसफुसाहट की) सदैव प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इसके विपरीत हमें यह असमंजस नहीं होता कि यह आगे चलकर हमें क्या कहेगा, किन्तु वह हमें सदैव एक ही बात बताता है, और हम वही करते हैं जो वह हमें बताता है। | {{ParPU|223}} ऐसा तो नहीं लगता कि हमें नियम की अनुमति की, (फुसफुसाहट की) सदैव प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इसके विपरीत हमें यह असमंजस नहीं होता कि यह आगे चलकर हमें क्या कहेगा, किन्तु वह हमें सदैव एक ही बात बताता है, और हम वही करते हैं जो वह हमें बताता है। | ||
अपने शिक्षार्थी को हम कह सकते हैं: “ध्यान दो, मैं सदैव एक ही बात करता | अपने शिक्षार्थी को हम कह सकते हैं: “ध्यान दो, मैं सदैव एक ही बात करता हूँः मैं....”। | ||
{{ParPU|224}} “सहमति” शब्द और “नियम” शब्द एक दूसरे से ''सम्बन्धित'' हैं, वे तो भाई-भतीजे हैं। यदि मैं किसी व्यक्ति को इनमें से कोई एक शब्द सिखाता हूँ तो वह उसके साथ ही दूसरे को भी सीख जाता है। | {{ParPU|224}} “सहमति” शब्द और “नियम” शब्द एक दूसरे से ''सम्बन्धित'' हैं, वे तो भाई-भतीजे हैं। यदि मैं किसी व्यक्ति को इनमें से कोई एक शब्द सिखाता हूँ तो वह उसके साथ ही दूसरे को भी सीख जाता है। | ||
Line 1,149: | Line 1,149: | ||
“‘लाल’ रंग का अर्थ वह रंग होता है जो ‘लाल’ शब्द सुनने पर मेरे सामने आता है” — यह तो ''परिभाषा'' होगी। न कि शब्द को नाम के समान प्रयोग ''करना क्या होता'' है, इसकी व्याख्या। | “‘लाल’ रंग का अर्थ वह रंग होता है जो ‘लाल’ शब्द सुनने पर मेरे सामने आता है” — यह तो ''परिभाषा'' होगी। न कि शब्द को नाम के समान प्रयोग ''करना क्या होता'' है, इसकी व्याख्या। | ||
{{ParPU|240}} किसी नियम के पालन करने अथवा न करने के प्रश्न | {{ParPU|240}} किसी नियम के पालन करने अथवा न करने के प्रश्न पर विवाद नहीं उठते (उदाहरणार्थ, गणितज्ञों में)। इस पर लोग कभी हाथापाई पर नहीं उतरते। यह उस ढांचे का अंग है जिस पर हमारी भाषा का क्रियान्वयन आधारित है (उदाहरणार्थ, विवरण देते समय)। | ||
{{ParPU|241}} “यानी आप कह रहे हैं कि मानवीय सहमति ही सत्य और असत्य का निर्धारण करती है?” मनुष्य जो कहते हैं वही सत्य और असत्य होता है; और वे प्रयुक्त-''भाषा'' के बारे में आपस में सहमत होते हैं। वह मतों की सहमति न होकर, जीवन-पद्धति की सहमति है। | {{ParPU|241}} “यानी आप कह रहे हैं कि मानवीय सहमति ही सत्य और असत्य का निर्धारण करती है?” मनुष्य जो कहते हैं वही सत्य और असत्य होता है; और वे प्रयुक्त-''भाषा'' के बारे में आपस में सहमत होते हैं। वह मतों की सहमति न होकर, जीवन-पद्धति की सहमति है। | ||
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{{ParPU|243}} कोई मनुष्य स्वयं प्रेरित हो सकता है; अपने आप को आदेश दे सकता है; अपनी आज्ञा का पालन कर सकता है, स्वयं को दोषी ठहरा सकता है, और अपने आप को दंडित कर सकता है; वह अपने से प्रश्न पूछ सकता है और उस प्रश्न का उत्तर दे सकता है। हम एकालाप करने वाले, स्वगत भाषण द्वारा ही क्रियाकलाप करने वाले, मनुष्यों की कल्पना भी कर सकते हैं। — उनको देखने और सुनने वाला शोधार्थी उनकी भाषा को हमारी भाषा में अनूदित करने में सफलता प्राप्त कर सकता है। (इससे वह उन लोगों की क्रियाओं की उचित भविष्यवाणी भी कर सकता है, क्योंकि वह उन्हें संकल्प करते और निर्णय लेते हुए भी सुनता है।) | {{ParPU|243}} कोई मनुष्य स्वयं प्रेरित हो सकता है; अपने आप को आदेश दे सकता है; अपनी आज्ञा का पालन कर सकता है, स्वयं को दोषी ठहरा सकता है, और अपने आप को दंडित कर सकता है; वह अपने से प्रश्न पूछ सकता है और उस प्रश्न का उत्तर दे सकता है। हम एकालाप करने वाले, स्वगत भाषण द्वारा ही क्रियाकलाप करने वाले, मनुष्यों की कल्पना भी कर सकते हैं। — उनको देखने और सुनने वाला शोधार्थी उनकी भाषा को हमारी भाषा में अनूदित करने में सफलता प्राप्त कर सकता है। (इससे वह उन लोगों की क्रियाओं की उचित भविष्यवाणी भी कर सकता है, क्योंकि वह उन्हें संकल्प करते और निर्णय लेते हुए भी सुनता है।) | ||
किन्तु क्या हम ऐसी भाषा की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें कोई व्यक्ति अपने आंतरिक अनुभवों — अपनी अनुभूतियों, भावदशाओं आदि — को अपने निजी प्रयोग के लिए लिखित अथवा मौखिक रूप से अभिव्यक्त कर सकता हो। — हाँ, तो क्या हम अपनी साधारण भाषा में ऐसा नहीं कर सकते? — किन्तु यह मेरा तात्पर्य नहीं है। इस भाषा का प्रत्येक शब्द, उस शब्द को उच्चारित करने वाले व्यक्ति को ही समझ आने वाले विषय को, उसकी निजी तात्कालिक संवेदनाओं को, इंगित करता है। यानी कोई अन्य व्यक्ति | किन्तु क्या हम ऐसी भाषा की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें कोई व्यक्ति अपने आंतरिक अनुभवों — अपनी अनुभूतियों, भावदशाओं आदि — को अपने निजी प्रयोग के लिए लिखित अथवा मौखिक रूप से अभिव्यक्त कर सकता हो। — हाँ, तो क्या हम अपनी साधारण भाषा में ऐसा नहीं कर सकते? — किन्तु यह मेरा तात्पर्य नहीं है। इस भाषा का प्रत्येक शब्द, उस शब्द को उच्चारित करने वाले व्यक्ति को ही समझ आने वाले विषय को, उसकी निजी तात्कालिक संवेदनाओं को, इंगित करता है। यानी कोई अन्य व्यक्ति तो उस भाषा को समझ ही नहीं सकता। | ||
{{ParPU|244}} संवेदनाओं को शब्द कैसे ''इंगित'' करते हैं? — यहाँ तो कोई समस्या ही नहीं जान पड़ती; क्या हम प्रतिदिन संवेदनाओं के बारे में बातचीत और उनका नामकरण नहीं करते? किन्तु नाम और उस नाम-विषय में संबंध कैसे स्थापित होता है? यह तो इसी प्रकार का प्रश्न है: कोई व्यक्ति संवेदनाओं — उदाहरणार्थ “वेदना”, शब्द — के नामों के अर्थ कैसे सीखता है? यहाँ एक संभावना है: शब्द संवेदना की आदिम, स्वाभाविक अभिव्यक्तियों से संबंधित होते हैं और उनके स्थान पर प्रयुक्त किए जाते हैं। शिशु चोट खा कर चिल्लाता है; फिर बड़े-बूढ़े उसे समझाते हैं, विस्मयादि-बोधक शब्दों, और बाद में वाक्यों को सिखाते हैं। वे शिशु को नवीन वेदना-व्यवहार सिखाते हैं। | {{ParPU|244}} संवेदनाओं को शब्द कैसे ''इंगित'' करते हैं? — यहाँ तो कोई समस्या ही नहीं जान पड़ती; क्या हम प्रतिदिन संवेदनाओं के बारे में बातचीत और उनका नामकरण नहीं करते? किन्तु नाम और उस नाम-विषय में संबंध कैसे स्थापित होता है? यह तो इसी प्रकार का प्रश्न है: कोई व्यक्ति संवेदनाओं — उदाहरणार्थ “वेदना”, शब्द — के नामों के अर्थ कैसे सीखता है? यहाँ एक संभावना है: शब्द संवेदना की आदिम, स्वाभाविक अभिव्यक्तियों से संबंधित होते हैं और उनके स्थान पर प्रयुक्त किए जाते हैं। शिशु चोट खा कर चिल्लाता है; फिर बड़े-बूढ़े उसे समझाते हैं, विस्मयादि-बोधक शब्दों, और बाद में वाक्यों को सिखाते हैं। वे शिशु को नवीन वेदना-व्यवहार सिखाते हैं। | ||
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{{ParPU|245}} वेदना और अभिव्यक्ति के बीच भाषा का प्रयोग करने की हिमाकत भी मैं कैसे कर सकता हूँ? | {{ParPU|245}} वेदना और अभिव्यक्ति के बीच भाषा का प्रयोग करने की हिमाकत भी मैं कैसे कर सकता हूँ? | ||
{{ParPU|246}} मेरी संवेदनाएं किस अर्थ में ''निजी'' हैं? — बेशक | {{ParPU|246}} मेरी संवेदनाएं किस अर्थ में ''निजी'' हैं? — बेशक, केवल मैं ही जान सकता हूँ कि क्या वास्तव में मैं वेदनाग्रस्त हूँ; कोई अन्य व्यक्ति तो केवल उसका अनुमान ही कर सकता है। — एक प्रकार से तो यह अनुचित है, और दूसरे प्रकार से निरर्थक। यदि हम “जानने” शब्द का प्रयोग उसी प्रकार कर रहे हैं जैसे कि उसका प्रयोग सामान्यतः किया जाता है, (और अन्यथा उसका प्रयोग हम कैसे करें?) तो जब मैं वेदनाग्रस्त होता हूँ तब दूसरे लोग बहुधा जानते हैं कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ। — हाँ किन्तु फिर भी मेरी जितनी निश्चितता से तो नहीं। — मेरे बारे में यह कतई नहीं कहा जा सकता (सिवाय हँसी-मजाक के) कि मैं ''जानता'' हूँ कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ। इसका क्या अर्थ हो सकता है — सिवाय यह कहने के कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ। | ||
अन्य व्यक्तियों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वे मेरे व्यवहार से ''ही'' मेरी संवेदनाओं को जानते हैं — क्योंकि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ''मैं'' उनको जानता हूँ। वे तो मेरी ही हैं। | अन्य व्यक्तियों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वे मेरे व्यवहार से ''ही'' मेरी संवेदनाओं को जानते हैं — क्योंकि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ''मैं'' उनको जानता हूँ। वे तो मेरी ही हैं। | ||
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{{ParPU|274}} निस्संदेह “लाल” शब्द का “अर्थ” कोई निजी विषय है कहने के बजाय यह कहने से कि “लाल” शब्द किसी निजी विषय को “इंगित करता है”, लाल शब्द के क्रियाकलापों को समझने में हमें कोई मदद नहीं मिलती; किन्तु तत्त्व-चिन्तन में किसी विशिष्ट अनुभव के लिए यह मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावशाली अभिव्यक्ति है। यह तो ऐसा ही है मानो शब्द का उच्चारण करते समय मैंने निजी संवेदना की ओर इस तरह झाँका कि अपने आप से यह कह सकूँ : मैं सही तौर पर जानता हूँ कि इससे मेरा क्या तात्पर्य है। | {{ParPU|274}} निस्संदेह “लाल” शब्द का “अर्थ” कोई निजी विषय है कहने के बजाय यह कहने से कि “लाल” शब्द किसी निजी विषय को “इंगित करता है”, लाल शब्द के क्रियाकलापों को समझने में हमें कोई मदद नहीं मिलती; किन्तु तत्त्व-चिन्तन में किसी विशिष्ट अनुभव के लिए यह मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावशाली अभिव्यक्ति है। यह तो ऐसा ही है मानो शब्द का उच्चारण करते समय मैंने निजी संवेदना की ओर इस तरह झाँका कि अपने आप से यह कह सकूँ : मैं सही तौर पर जानता हूँ कि इससे मेरा क्या तात्पर्य है। | ||
{{ParPU|275}} आकाश की नीलिमा को देखें और विचार करें : “आकाश कितना नीला है!” — जब आप बिना किसी दार्शनिक अभिप्राय के सहज भाव से ऐसा करते हैं तो आपके मन में यह विचार कभी नहीं आता कि रंग की इस छाप पर केवल ''आपका'' अधिकार है। और इसे किसी अन्य के समक्ष अभिव्यक्त करने में आपको कोई झिझक नहीं होती। और इन शब्दों को कहते हुए यदि आप किसी वस्तु को इंगित करते भी, तो वह इशारा आकाश की ओर ही होता। मेरा कहना है: आपको अपने भीतर इंगित करने की वैसी अनुभूति नहीं होती जैसी ‘निजी-भाषा’ में ‘संवेदना का नामकरण’ करते | {{ParPU|275}} आकाश की नीलिमा को देखें और विचार करें : “आकाश कितना नीला है!” — जब आप बिना किसी दार्शनिक अभिप्राय के सहज भाव से ऐसा करते हैं तो आपके मन में यह विचार कभी नहीं आता कि रंग की इस छाप पर केवल ''आपका'' अधिकार है। और इसे किसी अन्य के समक्ष अभिव्यक्त करने में आपको कोई झिझक नहीं होती। और इन शब्दों को कहते हुए यदि आप किसी वस्तु को इंगित करते भी, तो वह इशारा आकाश की ओर ही होता। मेरा कहना है: आपको अपने भीतर इंगित करने की वैसी अनुभूति नहीं होती जैसी ‘निजी-भाषा’ में ‘संवेदना का नामकरण’ करते बहुधा होती है। न ही आप यह सोचते हैं कि रंग की ओर आपको हाथ की बजाय अपने ध्यान से इंगित करना चाहिए। (“ध्यान से किसी की ओर इंगित करने” का क्या अर्थ होता है इस पर विचार कीजिए।) | ||
{{ParPU|276}} किन्तु जब हम रंग को देखते हैं और उसके बारे में अपनी छाप का नामकरण करते हैं तो क्या अन्ततः हमारा ''अर्थ'' पूर्णतः निर्धारित नहीं होता? यह तो कुछ ऐसा ही है जैसे हमने झिल्ली समान रंग की ''छाप'' को विषय से पृथक् कर दिया हो। (इससे हमें सावधान रहना चाहिए।) | {{ParPU|276}} किन्तु जब हम रंग को देखते हैं और उसके बारे में अपनी छाप का नामकरण करते हैं तो क्या अन्ततः हमारा ''अर्थ'' पूर्णतः निर्धारित नहीं होता? यह तो कुछ ऐसा ही है जैसे हमने झिल्ली समान रंग की ''छाप'' को विषय से पृथक् कर दिया हो। (इससे हमें सावधान रहना चाहिए।) | ||
{{ParPU|277}} किन्तु यह कैसे सम्भव है कि कभी तो हम प्रत्येक व्यक्ति द्वारा | {{ParPU|277}} किन्तु यह कैसे सम्भव है कि कभी तो हम प्रत्येक व्यक्ति द्वारा ज्ञात में रंग शब्द का प्रयोग करना चाहते हैं — और कभी हम रंग शब्द का प्रयोग ''मुझे इस समय'' होने वाले ''दृश्य-अनुभव'' के अर्थ में करते हैं। यहाँ ऐसी इच्छा ही कैसे हो सकती है? — इन दोनों स्थितियों में रंग पर मैं एक सा ध्यान नहीं देता। जब मेरा अभिप्राय उस रंग-अनुभव से होता है जिस पर (जैसा कि मैं कहना चाहूँगा) मात्र मेरा अधिकार है, तो मैं अपने आपको उस रंग में डुबो लेता हूँ ‘मानो रंग से मेरी तृप्ति नहीं हो सकती’। यानी किसी चटकीले रंग अथवा किसी प्रभावी रंग-योजना का अवलोकन करते समय ऐसा अनुभव सुगमता से होता है। | ||
{{ParPU|278}} “मैं जानता हूँ कि ''मुझे'' हरा रंग कैसा दिखाई देता है” — निश्चय ही इसका कोई अर्थ है! — बेशक : प्रतिज्ञप्ति के किस प्रयोग के बारे में आप विचार कर रहे हैं? | {{ParPU|278}} “मैं जानता हूँ कि ''मुझे'' हरा रंग कैसा दिखाई देता है” — निश्चय ही इसका कोई अर्थ है! — बेशक : प्रतिज्ञप्ति के किस प्रयोग के बारे में आप विचार कर रहे हैं? | ||
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{{ParPU|279}} मान लीजिए कोई कहता है: “निस्संदेह मैं जानता हूँ कि मेरी लम्बाई क्या है!” और इसे सिद्ध करने के लिए वह अपना हाथ अपने सिर पर रख लेता है। | {{ParPU|279}} मान लीजिए कोई कहता है: “निस्संदेह मैं जानता हूँ कि मेरी लम्बाई क्या है!” और इसे सिद्ध करने के लिए वह अपना हाथ अपने सिर पर रख लेता है। | ||
{{ParPU|280}} कोई अपने नाटक की दृश्य-कल्पना को प्रदर्शित करने के लिए एक चित्र बनाता है। और अब मैं कहता | {{ParPU|280}} कोई अपने नाटक की दृश्य-कल्पना को प्रदर्शित करने के लिए एक चित्र बनाता है। और अब मैं कहता हूँ : “इस चित्र का दोहरा कार्य है: यह चित्रों अथवा शब्दों के समान दूसरों को सूचना प्रदान करता है — परन्तु सूचना देने वाले के लिए यह एक अन्य प्रकार का चित्रण (अथवा सूचना?) है: उसके लिए तो यह उसकी कल्पना का एक ऐसा चित्र है, जो किसी अन्य व्यक्ति के लिए नहीं हो सकता। उसके लिए उस चित्र के निजी अनुभव का अर्थ वही है जिसकी उसने कल्पना की थी परन्तु दूसरों के लिए चित्र का वही अर्थ नहीं हो सकता।” — और — यदि ''प्रथम'' स्थिति में ये शब्द उचित रूप से प्रयुक्त किए गए थे, तो द्वितीय स्थिति में चित्रण अथवा सूचना के उल्लेख का मुझे क्या अधिकार है? | ||
{{ParPU|281}} “किन्तु आपके कहने का यह तात्पर्य तो नहीं है: ''वेदना -व्यवहार'' के बिना तो वेदना होती ही नहीं?” यानी केवल जिन्दा मानवों और उनसे मिलते-जुलते (समान व्यवहार करने वाले) प्राणियों के बारे में ही हम कह सकते हैं: उसमें संवेदनाएं हैं; वह देख सकता है, वह अन्धा है; वह सुन सकता है; बहरा है, बेहोश है, अथवा | {{ParPU|281}} “किन्तु आपके कहने का यह तात्पर्य तो नहीं है: ''वेदना -व्यवहार'' के बिना तो वेदना होती ही नहीं?” यानी केवल जिन्दा मानवों और उनसे मिलते-जुलते (समान व्यवहार करने वाले) प्राणियों के बारे में ही हम कह सकते हैं: उसमें संवेदनाएं हैं; वह देख सकता है, वह अन्धा है; वह सुन सकता है; बहरा है, बेहोश है, अथवा होश में है । | ||
{{ParPU|282}} “किन्तु परीकथा में बर्तन-भाँडे भी देख सुन सकते है!” (बेशक; और वह बोल भी तो ''सकते'' हैं।) | {{ParPU|282}} “किन्तु परीकथा में बर्तन-भाँडे भी देख सुन सकते है!” (बेशक; और वह बोल भी तो ''सकते'' हैं।) | ||
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{{ParPU|307}} “वास्तव में क्या आप छद्म व्यवहारवादी नहीं हैं? अंतत : क्या आप यह नहीं कहते कि मनुष्य के व्यवहार के अतिरिक्त सब कुछ कपोल-कल्पना है?” यदि मैं कपोल-कल्पना का उल्लेख करता हूँ तो यह वैयाकरणीय कपोल-कल्पना ही है। | {{ParPU|307}} “वास्तव में क्या आप छद्म व्यवहारवादी नहीं हैं? अंतत : क्या आप यह नहीं कहते कि मनुष्य के व्यवहार के अतिरिक्त सब कुछ कपोल-कल्पना है?” यदि मैं कपोल-कल्पना का उल्लेख करता हूँ तो यह वैयाकरणीय कपोल-कल्पना ही है। | ||
{{ParPU|308}} मानसिक प्रक्रियाओं, अवस्थाओं और व्यवहारवाद के बारे में दार्शनिक समस्याएं कैसे उत्पन्न होती हैं? — प्रारंभिक कदम की ओर तो हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हम प्रक्रियाओं एवं अवस्थाओं की तो बात करते हैं परन्तु उनकी प्रकृति के बारे | {{ParPU|308}} मानसिक प्रक्रियाओं, अवस्थाओं और व्यवहारवाद के बारे में दार्शनिक समस्याएं कैसे उत्पन्न होती हैं? — प्रारंभिक कदम की ओर तो हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हम प्रक्रियाओं एवं अवस्थाओं की तो बात करते हैं परन्तु उनकी प्रकृति के बारे में कुछ नहीं कहते। सम्भवतः, कभी हमें उनके बारे में अधिक ज्ञान होगा — ऐसा हम समझते हैं। किन्तु इसी कारण हम विषय-वस्तु का एक विशेष-ढंग से निरीक्षण करने को प्रतिबद्ध हो जाते हैं। क्योंकि प्रक्रिया के ज्ञान को ज्यादा अच्छी तरह सीखने के बारे में हमारा निश्चित मत होता है। (षड्यंत्र में निर्णायक चाल चल दी गई है, और यह वही चाल थी जिसे हम नितान्त निर्दोष समझते थे।) — और अब हमें हमारे विचारों को समझाने वाली उपमा छिन्न-भिन्न हो जाती है। अतः हमें अब तक अज्ञात माध्यम में अब तक की अनभिज्ञ प्रक्रिया की सत्ता को अस्वीकार करना होगा। और अब ऐसा प्रतीत होता है मानो हमने मानसिक प्रक्रियाओं को अस्वीकार किया हो। और स्वाभाविकतः, हम उनको अस्वीकार नहीं करना चाहते। | ||
{{ParPU|309}} दर्शन में आपका उद्देश्य क्या है? — बोतल में फँसी मक्खी को उससे बाहर निकलने का मार्ग बताना। | {{ParPU|309}} दर्शन में आपका उद्देश्य क्या है? — बोतल में फँसी मक्खी को उससे बाहर निकलने का मार्ग बताना। | ||
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मान लीजिए कि वह कहता है “इतनी बुरी हालत तो नहीं है।” — क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह मानता है कि वेदना की बाह्य अभिव्यक्ति की आड़ में कुछ छिपा है? — उसकी वृत्ति का प्रमाण है। केवल “मैं वेदना-ग्रस्त हूँ” शब्दों की ही नहीं अपितु “इतनी बुरी हालत तो नहीं” इस उत्तर की भी नैसर्गिक कोलाहल एवं भंगिमाओं द्वारा प्रतिस्थापन की कल्पना कीजिए। | मान लीजिए कि वह कहता है “इतनी बुरी हालत तो नहीं है।” — क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह मानता है कि वेदना की बाह्य अभिव्यक्ति की आड़ में कुछ छिपा है? — उसकी वृत्ति का प्रमाण है। केवल “मैं वेदना-ग्रस्त हूँ” शब्दों की ही नहीं अपितु “इतनी बुरी हालत तो नहीं” इस उत्तर की भी नैसर्गिक कोलाहल एवं भंगिमाओं द्वारा प्रतिस्थापन की कल्पना कीजिए। | ||
{{ParPU|311}} “कौन सा भेद बड़ा हो सकता है? — वेदना के बारे में मेरी मान्यता है कि मैं अपने लिए भेद का निजी प्रदर्शन कर सकता हूँ। किन्तु टूटे और साबुत दाँत | {{ParPU|311}} “कौन सा भेद बड़ा हो सकता है? — वेदना के बारे में मेरी मान्यता है कि मैं अपने लिए भेद का निजी प्रदर्शन कर सकता हूँ। किन्तु टूटे और साबुत दाँत भेद को मैं किसी को भी दिखा सकता हूँ। — किन्तु निजी प्रदर्शन के लिए अपने आपको वास्तविक पीड़ा नहीं देनी पड़ती; उसकी ''कल्पना'' ही पर्याप्त है — उदाहरणार्थ, आप अपने मुख को थोड़ा सा टेढ़ा कर लें। और क्या आप जानते हैं; कि जिसका आप अपने लिए प्रदर्शन कर रहे हैं वह वेदना ही है न कि, कोई मुख-भंगिमा? और आप ऐसा करने से पूर्व यह कैसे जानते हैं कि आपको अपने लिए किसका प्रदर्शन करना है? यह ''निजी'' प्रदर्शन तो भ्रम है। | ||
{{ParPU|312}} किन्तु फिर क्या दाँत की, और वेदना की स्थितियां एक जैसी ''नहीं'' हैं? क्योंकि एक स्थिति में चाक्षुष संवेदन दूसरी स्थिति में वेदना-संवेदन के अनुरूप है। मैं अपने लिए चाक्षुष संवेदन का उतना ही कम या ज्यादा प्रदर्शन कर सकता हूँ जितना कि वेदना-संवेदन का। | {{ParPU|312}} किन्तु फिर क्या दाँत की, और वेदना की स्थितियां एक जैसी ''नहीं'' हैं? क्योंकि एक स्थिति में चाक्षुष संवेदन दूसरी स्थिति में वेदना-संवेदन के अनुरूप है। मैं अपने लिए चाक्षुष संवेदन का उतना ही कम या ज्यादा प्रदर्शन कर सकता हूँ जितना कि वेदना-संवेदन का। | ||
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{{ParPU|322}} अभिव्यक्ति का अर्थ क्या है, इस प्रश्न का उत्तर ऐसे विवरण से नहीं दिया जाता; और इससे भ्रान्त होकर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि समझना कोई विशिष्ट परिभाषातीत अनुभव होता है। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि हमारे लिए यह प्रश्न रुचिकर होना चाहिए : हम इन अनुभवों की ''तुलना'' कैसे करते हैं; इन अनुभवों के होने के लिए तद्रूपता की कौन सी कसौटियां ''हमने निर्धारित की है''? | {{ParPU|322}} अभिव्यक्ति का अर्थ क्या है, इस प्रश्न का उत्तर ऐसे विवरण से नहीं दिया जाता; और इससे भ्रान्त होकर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि समझना कोई विशिष्ट परिभाषातीत अनुभव होता है। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि हमारे लिए यह प्रश्न रुचिकर होना चाहिए : हम इन अनुभवों की ''तुलना'' कैसे करते हैं; इन अनुभवों के होने के लिए तद्रूपता की कौन सी कसौटियां ''हमने निर्धारित की है''? | ||
{{ParPU|323}} “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है!” यह तो विस्मयादिबोधक है; यह एक स्वाभाविक ध्वनि, एक शुभारंभ के अनुरूप होता है। निस्संदेह मेरी इस सोच से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि आगे बढ़ने का प्रयास करने पर मैं अटक भी सकता हूँ। — यहाँ ऐसी स्थितियां होती हैं जिनमें मैं कहना चाहूँगा : “जब मैंने कहा था कि मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है तो मुझे यह ''पता था'' कि आगे ''कैसे'' बढ़ना है। उदाहरणार्थ, किसी अनहोनी बाधा के आने पर, हम ऐसा ही कहेंगे। किन्तु अनहोनी यह तो नहीं होनी चाहिए कि मैं अटक कर रह | {{ParPU|323}} “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है!” यह तो विस्मयादिबोधक है; यह एक स्वाभाविक ध्वनि, एक शुभारंभ के अनुरूप होता है। निस्संदेह मेरी इस सोच से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि आगे बढ़ने का प्रयास करने पर मैं अटक भी सकता हूँ। — यहाँ ऐसी स्थितियां होती हैं जिनमें मैं कहना चाहूँगा : “जब मैंने कहा था कि मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है तो मुझे यह ''पता था'' कि आगे ''कैसे'' बढ़ना है। उदाहरणार्थ, किसी अनहोनी बाधा के आने पर, हम ऐसा ही कहेंगे। किन्तु अनहोनी यह तो नहीं होनी चाहिए कि मैं अटक कर रह जाऊँ। | ||
हम ऐसी स्थिति की भी कल्पना कर सकते हैं जिसमें ऐसा प्रतीत होता हो कि किसी व्यक्ति को यकायक कुछ सूझ जाता है — वह खुशी से कहेगा “अब तो मैं इसे समझ गया!” किन्तु फिर व्यवहार में वह कभी भी इसका औचित्य नहीं दे पाता। — उसे ऐसा प्रतीत हो सकता है कि पलक झपकते ही वह फिर से उस चित्र का अर्थ भूल गया जो उसे सूझा था। | हम ऐसी स्थिति की भी कल्पना कर सकते हैं जिसमें ऐसा प्रतीत होता हो कि किसी व्यक्ति को यकायक कुछ सूझ जाता है — वह खुशी से कहेगा “अब तो मैं इसे समझ गया!” किन्तु फिर व्यवहार में वह कभी भी इसका औचित्य नहीं दे पाता। — उसे ऐसा प्रतीत हो सकता है कि पलक झपकते ही वह फिर से उस चित्र का अर्थ भूल गया जो उसे सूझा था। | ||
{{ParPU|324}} क्या यह कहना उचित होगा कि यह आगमनात्मक वस्तु है और यह भी कि श्रृंखला को आगे बढ़ाने की अपनी योग्यता के बारे में मैं उतना ही निश्चिन्त हूँ जितना मैं इस पुस्तक को हाथ से छोड़ने पर इसके फर्श पर गिर जाने के बारे में होता हूँ; और यह कहना भी कि यदि मैं यकायक और बिना कारण श्रृंखला को हल करने में अटक जाऊँ | {{ParPU|324}} क्या यह कहना उचित होगा कि यह आगमनात्मक वस्तु है और यह भी कि श्रृंखला को आगे बढ़ाने की अपनी योग्यता के बारे में मैं उतना ही निश्चिन्त हूँ जितना मैं इस पुस्तक को हाथ से छोड़ने पर इसके फर्श पर गिर जाने के बारे में होता हूँ; और यह कहना भी कि यदि मैं यकायक और बिना कारण श्रृंखला को हल करने में अटक जाऊँ तो मुझे उतना ही आश्चर्य होगा जितना कि गिरने के बजाय इस पुस्तक के अधर में लटक जाने से होगा। इसके उत्तर में मैं कहूँगा कि इस निश्चिन्तता के लिए भी किसी आधार की आवश्यकता नहीं है। निश्चिन्तता का सफलता से ''अधिक अच्छा'' औचित्य क्या हो सकता है? | ||
{{ParPU|325}} “यह निश्चिन्तता कि ऐसा अनुभव होने — उदाहरणार्थ, सूत्र को समझने के अनुभव — के पश्चात् मैं श्रृंखला को आगे बढ़ाने के योग्य हो जाऊँगा यह तो आगमन पर ही आधारित है।” इसका क्या अर्थ है? — “यह निश्चितता कि अग्नि मुझे जला देगी, आगमन पर आधारित है।” क्या इसका अर्थ यह है कि मैं अपने आप से तर्क करता हूँ : “अग्नि ने हमेशा मुझे जलाया है, अतः अब भी ऐसा ही होगा?” अथवा क्या पूर्वानुभव मेरी निश्चितता का ''कारण'' है, न कि उसका आधार? पूर्वानुभव का इस निश्चितता का कारण होना तो प्राक्कल्पनाओं, प्राकृतिक नियमों की उस प्रणाली पर निर्भर करता है, जिसमें हम निश्चितता की संवृत्ति पर विचार कर रहे हैं। | {{ParPU|325}} “यह निश्चिन्तता कि ऐसा अनुभव होने — उदाहरणार्थ, सूत्र को समझने के अनुभव — के पश्चात् मैं श्रृंखला को आगे बढ़ाने के योग्य हो जाऊँगा यह तो आगमन पर ही आधारित है।” इसका क्या अर्थ है? — “यह निश्चितता कि अग्नि मुझे जला देगी, आगमन पर आधारित है।” क्या इसका अर्थ यह है कि मैं अपने आप से तर्क करता हूँ : “अग्नि ने हमेशा मुझे जलाया है, अतः अब भी ऐसा ही होगा?” अथवा क्या पूर्वानुभव मेरी निश्चितता का ''कारण'' है, न कि उसका आधार? पूर्वानुभव का इस निश्चितता का कारण होना तो प्राक्कल्पनाओं, प्राकृतिक नियमों की उस प्रणाली पर निर्भर करता है, जिसमें हम निश्चितता की संवृत्ति पर विचार कर रहे हैं। | ||
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{{ParPU|330}} क्या सोचना किसी प्रकार को बोलना होता है? हम कहना चाहेंगे कि इससे तो सोचने के साथ बोलने, और बिना सोचे बोलने में भेद किया जाता है — और इसलिए यह भाषा का सहगामी प्रतीत होता है। ऐसी प्रक्रिया जो किसी अन्य की सहवर्ती हो सकती है, या फिर स्वतः चलती रह सकती है। | {{ParPU|330}} क्या सोचना किसी प्रकार को बोलना होता है? हम कहना चाहेंगे कि इससे तो सोचने के साथ बोलने, और बिना सोचे बोलने में भेद किया जाता है — और इसलिए यह भाषा का सहगामी प्रतीत होता है। ऐसी प्रक्रिया जो किसी अन्य की सहवर्ती हो सकती है, या फिर स्वतः चलती रह सकती है। | ||
बोलें कि : “हाँ, यह कलम कुंद है। चलो ठीक है, काम चलेगा।” पहले इस पर विचार करके; फिर बिना विचारे; फिर इस विचार को बिना शब्दों के ही सोचिए। — निस्संदेह, कुछ लिखते समय हो सकता है कि मैं अपनी कलम की नोक को देखूँ, मुँह | बोलें कि : “हाँ, यह कलम कुंद है। चलो ठीक है, काम चलेगा।” पहले इस पर विचार करके; फिर बिना विचारे; फिर इस विचार को बिना शब्दों के ही सोचिए। — निस्संदेह, कुछ लिखते समय हो सकता है कि मैं अपनी कलम की नोक को देखूँ, मुँह बनाऊँ— और फिर उदासीन भाव से आगे बढ़ता बनाऊँ । — नाप-तोल करते समय मैं ऐसा व्यवहार भी कर सकता हूँ कि कोई कहे कि मैंने — बिना शब्दों के विचार किया : यदि दो परिमाण किसी तीसरे परिमाण के बराबर होते हों तो वे एक-दूसरे के बराबर होंगे। — किन्तु यहाँ जिससे विचार गठित होता है वह कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं होती जो ऐसे शब्दों से जुड़ी हो जिन्हें बिना विचारे बोला न जा सके। | ||
{{ParPU|331}} ऐसे लोगों की कल्पना कीजिए जो केवल उच्च स्वर में ही सोच सकते हों। (जैसे ऐसे लोग होते हैं जो केवल उच्च स्वर में ही पढ़ सकते हैं।) | {{ParPU|331}} ऐसे लोगों की कल्पना कीजिए जो केवल उच्च स्वर में ही सोच सकते हों। (जैसे ऐसे लोग होते हैं जो केवल उच्च स्वर में ही पढ़ सकते हैं।) | ||
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“यदि लोग सदैव केवल अपने आप से बातें करें तो जो अब वे ''कभी-कभी'' करते हैं उसे ही सदैव कर रहे होंगे।” — अतः यह कल्पना करना नितान्त सरल है: करना तो केवल यह है कि हमें कभी-कभी से हमेशा की ओर छलांग लगानी होगी। (जैसे : “पेड़ों की अनन्त कतार वह होती है जो कभी समाप्त नहीं होती।”) किसी के आत्मकथन की हमारी कसौटी उसका संपूर्ण व्यवहार, और जो वह हमें बताता है, होती है। और हम केवल तभी कहते हैं कि कोई आत्मकथन प्रस्तुत करता है जब, शब्दों के साधारण अर्थ में, वह ''बोल सकता'' है। और न तो हम तोते के बारे में ऐसा कहते हैं और न ही ग्रामोफोन के बारे में। | “यदि लोग सदैव केवल अपने आप से बातें करें तो जो अब वे ''कभी-कभी'' करते हैं उसे ही सदैव कर रहे होंगे।” — अतः यह कल्पना करना नितान्त सरल है: करना तो केवल यह है कि हमें कभी-कभी से हमेशा की ओर छलांग लगानी होगी। (जैसे : “पेड़ों की अनन्त कतार वह होती है जो कभी समाप्त नहीं होती।”) किसी के आत्मकथन की हमारी कसौटी उसका संपूर्ण व्यवहार, और जो वह हमें बताता है, होती है। और हम केवल तभी कहते हैं कि कोई आत्मकथन प्रस्तुत करता है जब, शब्दों के साधारण अर्थ में, वह ''बोल सकता'' है। और न तो हम तोते के बारे में ऐसा कहते हैं और न ही ग्रामोफोन के बारे में। | ||
{{ParPU|345}} “जो कभी-कभी घटता है, सदैव घटित हो सकता है।” यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है? यह इस प्रकार की है: यदि “F(a)” का कोई अर्थ होता है तो “(x) . F(x)” | {{ParPU|345}} “जो कभी-कभी घटता है, सदैव घटित हो सकता है।” यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है? यह इस प्रकार की है: यदि “F(a)” का कोई अर्थ होता है तो “(x) . F(x)” का भी अर्थ होता है। | ||
“यदि किसी का किसी खेल में कूट चाल चलना संभव है तो प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक खेल में कूट चाल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चलना संभव हो सकता है।” — अतः यहाँ हम अपनी अभिव्यक्तियों के तर्क का गलत अर्थ समझने, अपने शब्द-प्रयोग का अनुचित विवरण देने को, लालायित हैं। | “यदि किसी का किसी खेल में कूट चाल चलना संभव है तो प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक खेल में कूट चाल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चलना संभव हो सकता है।” — अतः यहाँ हम अपनी अभिव्यक्तियों के तर्क का गलत अर्थ समझने, अपने शब्द-प्रयोग का अनुचित विवरण देने को, लालायित हैं। | ||
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{{ParPU|377}} संभवत : तर्कशास्त्री सोचेगा : सादृश्य तो सादृश्य ही है — तादात्म्य कैसे स्थापित किया जाता है यह तो मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। (ऊँचा तो ऊँचा ही है — यह मनोवैज्ञानिक विषय है कि हम कभी तो ऊँचा ''देखते'' हैं, और कभी ऊँचा ''सुनते'' हैं।) | {{ParPU|377}} संभवत : तर्कशास्त्री सोचेगा : सादृश्य तो सादृश्य ही है — तादात्म्य कैसे स्थापित किया जाता है यह तो मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। (ऊँचा तो ऊँचा ही है — यह मनोवैज्ञानिक विषय है कि हम कभी तो ऊँचा ''देखते'' हैं, और कभी ऊँचा ''सुनते'' हैं।) | ||
दो प्रतिबिम्ब के सादृश्य की कौन सी कसौटी है? — किसी प्रतिबिम्ब के रक्ताभ होने की कौन सी कसौटी है? जब वह किसी अन्य व्यक्ति का प्रतिबिम्ब होता है तो मेरे लिए कसौटी यह है: जो वह कहता है और करता है। जब वह मेरा प्रतिबिम्ब होता तो मेरे लिए कोई भी कसौटी नहीं होती। और जो “लाल” के साथ होता है वही “सदृश” के साथ भी होता है। | |||
{{ParPU|378}} “इससे पूर्व कि मैं यह निर्णय करूँ कि मेरे दो प्रतिबिम्ब एक दूसरे के सदृश हैं, मुझे उन्हें सदृश रूप में पहचानना होगा।” और जब ऐसा हो चुका होता है तो मुझे कैसे पता चलेगा कि जिसे मैंने पहचाना है, “समान” शब्द वही बतलाता है? ऐसा तभी होगा जब मैं अपने अभिज्ञान को किसी अन्य ढंग से अभिव्यक्त कर सकता होऊँ | {{ParPU|378}} “इससे पूर्व कि मैं यह निर्णय करूँ कि मेरे दो प्रतिबिम्ब एक दूसरे के सदृश हैं, मुझे उन्हें सदृश रूप में पहचानना होगा।” और जब ऐसा हो चुका होता है तो मुझे कैसे पता चलेगा कि जिसे मैंने पहचाना है, “समान” शब्द वही बतलाता है? ऐसा तभी होगा जब मैं अपने अभिज्ञान को किसी अन्य ढंग से अभिव्यक्त कर सकता होऊँ, और यदि किसी अन्य व्यक्ति के लिए मुझे यह सिखाना संभव हो कि यहाँ पर “सदृश” शब्द उचित है। | ||
क्योंकि यदि शब्द-प्रयोग के औचित्य की मुझे आवश्यकता है तो यह आवश्यकता किसी अन्य व्यक्ति को भी होगी। | क्योंकि यदि शब्द-प्रयोग के औचित्य की मुझे आवश्यकता है तो यह आवश्यकता किसी अन्य व्यक्ति को भी होगी। |