52
edits
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 138: | Line 138: | ||
'''22.''' फ्रेगे की यह धारणा, कि प्रत्येक कथ्य में एक तथ्य निहित होता है, वास्तव में हमारी भाषा में प्रत्येक कथन को "यह अभिकथित है कि अमुक स्थिति है" — रूप में लिखने की संभावना पर आधारित है। किन्तु "अमुक स्थिति है" हमारी भाषा का वाक्य नहीं है — भाषा-खेल में ऐसी तो कोई चाल ही नहीं है। और "यह अभिकथित है कि..." न लिखकर यदि मैं "यह अभिकथित है: अमुक अमुक स्थिति है" लिखूँ तो "यह अभिकथित है" शब्द निष्प्रयोजन हो जाते हैं। | '''22.''' फ्रेगे की यह धारणा, कि प्रत्येक कथ्य में एक तथ्य निहित होता है, वास्तव में हमारी भाषा में प्रत्येक कथन को "यह अभिकथित है कि अमुक स्थिति है" — रूप में लिखने की संभावना पर आधारित है। किन्तु "अमुक स्थिति है" हमारी भाषा का वाक्य नहीं है — भाषा-खेल में ऐसी तो कोई चाल ही नहीं है। और "यह अभिकथित है कि..." न लिखकर यदि मैं "यह अभिकथित है: अमुक अमुक स्थिति है" लिखूँ तो "यह अभिकथित है" शब्द निष्प्रयोजन हो जाते हैं। | ||
प्रत्येक कथन को एक प्रश्न के रूप में लिखकर फिर "हाँ" जोड़कर भी तो लिखा जा सकता है; उदाहरणार्थ: "क्या वर्षा हो रही है? हाँ !"। क्या इससे यह प्रदर्शित होता है कि प्रत्येक कथन में एक प्रश्न निहित है? | प्रत्येक कथन को एक प्रश्न के रूप में लिखकर फिर "हाँ" जोड़कर भी तो लिखा जा सकता है; उदाहरणार्थ: "क्या वर्षा हो रही है? हाँ!"। क्या इससे यह प्रदर्शित होता है कि प्रत्येक कथन में एक प्रश्न निहित है? | ||
उदाहरणार्थ: प्रश्नवाचक चिह्न से भेद करते हुए अभिकथन चिह्न के प्रयोग का तो हमें बेशक अधिकार है ही, या फिर यदि हम चाहें तो इसका प्रयोग अभिकथन को गल्प अथवा प्राक्कल्पना से भेद करने के लिए भी कर सकते हैं। यह सोचना तो भ्रम ही है कि किसी अभिकथन में दो क्रियाएं होती हैं, ग्रहण करना तथा अभिकथित करना (सत्य/असत्य कहना या कुछ ऐसा ही तय करना), तथा यह कि इन क्रियाओं में हम कथनात्मक चिह्न को उसी प्रकार समझते हैं जैसे कि स्वरलिपि को उसे पढ़कर गाते समय समझते हैं। लिखित वाक्य को ऊँचे अथवा नीचे सुर में पढ़ना तो स्वरलिपि से गाने के समान है, किन्तु यह पढ़े हुए वाक्य का '''अर्थ करना''<nowiki/>' (सोचना) नहीं होता। | उदाहरणार्थ: प्रश्नवाचक चिह्न से भेद करते हुए अभिकथन चिह्न के प्रयोग का तो हमें बेशक अधिकार है ही, या फिर यदि हम चाहें तो इसका प्रयोग अभिकथन को गल्प अथवा प्राक्कल्पना से भेद करने के लिए भी कर सकते हैं। यह सोचना तो भ्रम ही है कि किसी अभिकथन में दो क्रियाएं होती हैं, ग्रहण करना तथा अभिकथित करना (सत्य/असत्य कहना या कुछ ऐसा ही तय करना), तथा यह कि इन क्रियाओं में हम कथनात्मक चिह्न को उसी प्रकार समझते हैं जैसे कि स्वरलिपि को उसे पढ़कर गाते समय समझते हैं। लिखित वाक्य को ऊँचे अथवा नीचे सुर में पढ़ना तो स्वरलिपि से गाने के समान है, किन्तु यह पढ़े हुए वाक्य का '''अर्थ करना''<nowiki/>' (सोचना) नहीं होता। | ||
फ्रेगे का अभिकथन-चिह्न तो ''वाक्यारंभ'' चिह्न है। तो इसका कार्य पूर्णविराम चिह्न जैसा ही है। यह तो पूर्ण वाक्य का उसके उपवाक्य से भेद करता है। यदि मैं किसी को "वर्षा हो रही है", यह कहते हुए सुनूँ, किन्तु यह न जान पाऊँ कि मैंने वाक्य का आरम्भ तथा अन्त सुना है अथवा नहीं तो मैं इस वाक्य से कुछ भी न जान पाऊँगा। | फ्रेगे का अभिकथन-चिह्न तो ''वाक्यारंभ'' चिह्न है। तो इसका कार्य पूर्णविराम चिह्न जैसा ही है। यह तो पूर्ण वाक्य का उसके उपवाक्य से भेद करता है। यदि मैं किसी को "वर्षा हो रही है", यह कहते हुए सुनूँ, किन्तु यह न जान ---पाऊँ --- कि मैंने वाक्य का आरम्भ तथा अन्त सुना है अथवा नहीं तो मैं इस वाक्य से कुछ भी न जान पाऊँगा। | ||
{{PU box|विशिष्ट मुद्रा में खड़े हुए किसी मुक्केबाज के चित्र की कल्पना कीजिए। इस चित्र का प्रयोग किसी को यह बताने के लिए किया जा सकता है कि उसे कैसे खड़ा होना चाहिए, कैसे अपने आप को बचाना चाहिए: अथवा कैसे उसे अपने आप को नहीं बचाना चाहिए। अथवा यह बताने के लिए कि कोई व्यक्ति अमुक स्थान पर किस मुद्रा में खड़ा इत्यादि था; इस चित्र का प्रयोग किया जा सकता है। (रसायन-शास्त्र की भाषा में) हम इस चित्र को प्रतिज्ञप्ति मूलक कह सकते हैं। फ्रेंगे ने “पूर्वधारणा” की कल्पना इसी प्रकार बनाई होगी।}}'''23.''' परन्तु वाक्य कितने प्रकार के होते हैं? — उदाहरणार्थ: अभिकथन, प्रश्न, और आदेश? — ''अनगिनत'' प्रकार के होते हैं: "प्रतीकों" के "शब्दों" के, "वाक्यों" के ''अनगिनत'' विविध प्रयोग होते हैं। और यह अनेकता सदा के लिए निश्चित नहीं होती; अपितु कहा जा सकता है कि भाषा के नये प्रकारों का, नए भाषा-खेलों का उद्भव होता है, और उनमें से कुछ अप्रचलित हो जाते हैं और इसीलिए विस्मृत हो जाते हैं। (गणित में हुए परिवर्तनों से हमें इसका ''धुंधला चित्र'' मिल सकता है।) | {{PU box|विशिष्ट मुद्रा में खड़े हुए किसी मुक्केबाज के चित्र की कल्पना कीजिए। इस चित्र का प्रयोग किसी को यह बताने के लिए किया जा सकता है कि उसे कैसे खड़ा होना चाहिए, कैसे अपने आप को बचाना चाहिए: अथवा कैसे उसे अपने आप को नहीं बचाना चाहिए। अथवा यह बताने के लिए कि कोई व्यक्ति अमुक स्थान पर किस मुद्रा में खड़ा इत्यादि था; इस चित्र का प्रयोग किया जा सकता है। (रसायन-शास्त्र की भाषा में) हम इस चित्र को प्रतिज्ञप्ति मूलक कह सकते हैं। फ्रेंगे ने “पूर्वधारणा” की कल्पना इसी प्रकार बनाई होगी।}}'''23.''' परन्तु वाक्य कितने प्रकार के होते हैं? — उदाहरणार्थ: अभिकथन, प्रश्न, और आदेश? — ''अनगिनत'' प्रकार के होते हैं: "प्रतीकों" के "शब्दों" के, "वाक्यों" के ''अनगिनत'' विविध प्रयोग होते हैं। और यह अनेकता सदा के लिए निश्चित नहीं होती; अपितु कहा जा सकता है कि भाषा के नये प्रकारों का, नए भाषा-खेलों का उद्भव होता है, और उनमें से कुछ अप्रचलित हो जाते हैं और इसीलिए विस्मृत हो जाते हैं। (गणित में हुए परिवर्तनों से हमें इसका ''धुंधला चित्र'' मिल सकता है।) |