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{{ParUG|149}} मेरे निर्णय ही मेरे निर्णय लेने के स्वरूप के परिचायक हैं, वे ही निर्णय के स्वरूप को लक्षित करते हैं। | {{ParUG|149}} मेरे निर्णय ही मेरे निर्णय लेने के स्वरूप के परिचायक हैं, वे ही निर्णय के स्वरूप को लक्षित करते हैं। | ||
{{ParUG|150}} हम अपने दायें और बायें हाथ का भेद कैसे जानते हैं? मैं कैसे जानता हूँ कि मेरा और अन्य व्यक्ति का निर्णय समान होगा? मैं कैसे जानता हूँ कि यह नीला रंग है? इस बारे में जब मैं ''अपने आप'' पर ही विश्वास नहीं करता तो मैं किसी अन्य व्यक्ति के निर्णय पर विश्वास क्यों करूँ? क्या यहाँ ‘क्यों’ का प्रश्न उठता है? क्या मुझे कहीं न कहीं विश्वास की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। यानी: कहीं से तो मुझे बिना संशय आरंभ करना होगा; और ऐसा करना जल्दबाज़ी न होकर सामान्यतः ठीक होगा। यह निर्णय प्रक्रिया का अंश है। | {{ParUG|150}} हम अपने दायें और बायें हाथ का भेद कैसे जानते हैं? मैं कैसे जानता हूँ कि मेरा और अन्य व्यक्ति का निर्णय समान होगा? मैं कैसे जानता हूँ कि यह नीला रंग है? इस बारे में जब मैं ''अपने आप'' पर ही विश्वास नहीं करता तो मैं किसी अन्य व्यक्ति के निर्णय पर विश्वास क्यों करूँ? क्या यहाँ ‘क्यों’ का प्रश्न उठता है? क्या मुझे कहीं न कहीं विश्वास की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। यानी: कहीं से तो मुझे बिना संशय आरंभ करना होगा; और ऐसा करना जल्दबाज़ी न होकर सामान्यतः ठीक होगा। यह निर्णय-प्रक्रिया का अंश है। | ||
{{ParUG|151}} मैं कहना चाहूँगा: मूअर ऐसे विषयों को नहीं ''जानते'' जिन्हें वे ज्ञात-विषय कहते हैं, यह बात हम दोनों पर समान रूप से लागू होती है; इसे बिल्कुल ठीक मानना हमारी शोध-प्रक्रिया और संशय ''विधि'' का अंग है। | {{ParUG|151}} मैं कहना चाहूँगा: मूअर ऐसे विषयों को नहीं ''जानते'' जिन्हें वे ज्ञात-विषय कहते हैं, यह बात हम दोनों पर समान रूप से लागू होती है; इसे बिल्कुल ठीक मानना हमारी शोध-प्रक्रिया और संशय ''विधि'' का अंग है। | ||
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यानी: उन संकेतों को संशय के संकेतों जैसा समझने के लिए उनका विशिष्ट परिस्थितियों में ही प्रयोग करना चाहिए, सभी स्थितियों में नहीं। | यानी: उन संकेतों को संशय के संकेतों जैसा समझने के लिए उनका विशिष्ट परिस्थितियों में ही प्रयोग करना चाहिए, सभी स्थितियों में नहीं। | ||
{{ParUG|155}} किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में भूल हो ही नहीं सकती। (“सकती” शब्द को यहाँ तार्किक रूप में प्रयोग किया जा रहा है, और इस प्रतिज्ञप्ति का यह अर्थ नहीं है कि उन परिस्थितियों में कोई दोषयुक्त बात नहीं कही जा सकती।) यदि मूअर स्वघोषित निश्चित प्रतिज्ञप्ति को विलोम अर्थ में प्रयुक्त करते तो ऐसा नहीं है कि हम उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते: हम उन्हें सिरफिरा मानते। | {{ParUG|155}} किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में ''भूल'' हो ही नहीं सकती। (“सकती” शब्द को यहाँ तार्किक रूप में प्रयोग किया जा रहा है, और इस प्रतिज्ञप्ति का यह अर्थ नहीं है कि उन परिस्थितियों में कोई दोषयुक्त बात नहीं कही जा सकती।) यदि मूअर स्वघोषित निश्चित प्रतिज्ञप्ति को विलोम अर्थ में प्रयुक्त करते तो ऐसा नहीं है कि हम उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते: हम उन्हें सिरफिरा मानते। | ||
{{ParUG|156}} भूल सामाजिक नियमों के दायरे में ही सम्भव है। | {{ParUG|156}} भूल सामाजिक नियमों के दायरे में ही सम्भव है। | ||
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रासायनिक अनुसंधान पर विचार करें। लेवोइसियर अपनी अनुसंधानशाला में पदार्थ-प्रयोग द्वारा इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि जलने पर अमुक प्रतिक्रिया होती है। वे यह नहीं कहते कि किसी अन्य समय पर इससे उलट भी हो सकता है। उनके मन में संसार का एक विशिष्ट चित्र है — यह चित्र उनकी खोज का परिणाम नहीं है: उन्होंने उस चित्र को शैशवावस्था से सीखा है। मैं यहाँ संसार के चित्र का उल्लेख कर रहा हूँ न कि प्राक्कल्पना का, क्योंकि यह उनके अनुसंधान का ''सहज'' आधार है और इसीलिए इसका उल्लेख भी नहीं होता। | रासायनिक अनुसंधान पर विचार करें। लेवोइसियर अपनी अनुसंधानशाला में पदार्थ-प्रयोग द्वारा इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि जलने पर अमुक प्रतिक्रिया होती है। वे यह नहीं कहते कि किसी अन्य समय पर इससे उलट भी हो सकता है। उनके मन में संसार का एक विशिष्ट चित्र है — यह चित्र उनकी खोज का परिणाम नहीं है: उन्होंने उस चित्र को शैशवावस्था से सीखा है। मैं यहाँ संसार के चित्र का उल्लेख कर रहा हूँ न कि प्राक्कल्पना का, क्योंकि यह उनके अनुसंधान का ''सहज'' आधार है और इसीलिए इसका उल्लेख भी नहीं होता। | ||
{{ParUG|168}} किन्तु समान परिस्थितियों में पदार्थ क, पदार्थ ख से सदैव एक सी प्रतिक्रिया करता है, इस प्राक्कल्पना की अब क्या भूमिका है? या फिर, क्या यह पदार्थ की परिभाषा का ही अंग है? | {{ParUG|168}} किन्तु समान परिस्थितियों में पदार्थ '''क''', पदार्थ '''ख''' से सदैव एक सी प्रतिक्रिया करता है, इस प्राक्कल्पना की अब क्या भूमिका है? या फिर, क्या यह पदार्थ की परिभाषा का ही अंग है? | ||
{{ParUG|169}} रसायन शास्त्र की ''संभावना'' को अभिव्यक्त करने वाली प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना की जा सकती है। और वे प्राकृतिक-विज्ञान की प्रतिज्ञप्तियां ही होंगी। क्योंकि अनुभव के सिवाय उनका क्या आधार होगा? | {{ParUG|169}} रसायन-शास्त्र की ''संभावना'' को अभिव्यक्त करने वाली प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना की जा सकती है। और वे प्राकृतिक-विज्ञान की प्रतिज्ञप्तियां ही होंगी। क्योंकि अनुभव के सिवाय उनका क्या आधार होगा? | ||
{{ParUG|170}} लोगों के विशेष लहजे में बात करने पर मुझे उन पर भरोसा होता है। इसी प्रकार मैं भौगोलिक, रासायनिक, ऐतिहासिक इत्यादि तथ्यों पर विश्वास करता हूँ। विज्ञान के विषय को भी मैं इसी प्रकार ''सीखता'' हूँ। सीखने का आधार तो विश्वास ही है। | {{ParUG|170}} लोगों के विशेष लहजे में बात करने पर मुझे उन पर भरोसा होता है। इसी प्रकार मैं भौगोलिक, रासायनिक, ऐतिहासिक इत्यादि तथ्यों पर विश्वास करता हूँ। विज्ञान के विषय को भी मैं इसी प्रकार ''सीखता'' हूँ। सीखने का आधार तो विश्वास ही है। | ||
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तो क्या यह कहा जा सकता है: हम इसे विश्वसनीय मानते हैं क्योंकि इससे हमें लाभ हुआ है? | तो क्या यह कहा जा सकता है: हम इसे विश्वसनीय मानते हैं क्योंकि इससे हमें लाभ हुआ है? | ||
{{ParUG|171}} मूअर के कभी चाँद पर न जाने के विश्वास का मुख्य कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति कभी चाँद पर नहीं गया, या कभी भी वहाँ नहीं ''पहुँचा''। यह विश्वास हमारी शिक्षा पर आधारित है। | {{ParUG|171}} मूअर के कभी चाँद पर न जाने के विश्वास का मुख्य कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति कभी चाँद पर नहीं गया, या कभी भी वहाँ नहीं ''पहुँचा'' । यह विश्वास हमारी शिक्षा पर आधारित है। | ||
{{ParUG|172}} संभवत: कोई कहे कि “किसी बात को विश्वसनीय मानने का हमारा कोई मुख्य आधार तो होगा”, किन्तु ऐसे आधार से क्या उपलब्धि होगी? क्या यह ‘सत्य मानने’ के प्राकृतिक नियम से बेहतर है? | {{ParUG|172}} संभवत: कोई कहे कि “किसी बात को विश्वसनीय मानने का हमारा कोई मुख्य आधार तो होगा”, किन्तु ऐसे आधार से क्या उपलब्धि होगी? क्या यह ‘सत्य मानने’ के प्राकृतिक नियम से बेहतर है? | ||
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{{ParUG|177}} मैं जो जानता हूँ, उस पर विश्वास भी करता हूँ। | {{ParUG|177}} मैं जो जानता हूँ, उस पर विश्वास भी करता हूँ। | ||
{{ParUG|178}} मूअर की “मैं जानता हूँ कि | {{ParUG|178}} मूअर की “मैं जानता हूँ कि....” प्रतिज्ञप्ति के दोषपूर्ण प्रयोग का कारण यह है कि वे इसे “मैं वेदना-ग्रस्त हूँ” इस कथन के समान संशयरहित समझ लेते हैं। और क्योंकि “मैं इसे जानता हूँ” से “ऐसा ही है” निष्पन्न होता हैं, इसीलिए उस पर भी संशय नहीं किया जा सकता। | ||
{{ParUG|179}} यह कहना ठीक है: “मेरा विश्वास है कि | {{ParUG|179}} यह कहना ठीक है: “मेरा विश्वास है कि....” एक मनोगत सत्य है लेकिन; “मैं जानता हूँ कि....” मनोगत सत्य नहीं है। | ||
{{ParUG|180}} या फिर “मेरा विश्वास है | {{ParUG|180}} या फिर “मेरा विश्वास है....” एक ‘अभिव्यक्ति’ है, किन्तु “मैं जानता हूँ कि....” कोई ‘अभिव्यक्ति’ नहीं है। | ||
{{ParUG|181}} मान लीजिए कि मूअर “मैं जानता हूँ कि | {{ParUG|181}} मान लीजिए कि मूअर “मैं जानता हूँ कि....” कहने के बजाय “मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि....” कहते। | ||
{{ParUG|182}} इससे भी कच्ची बात तो यह है कि पृथ्वी ''अनादि'' है। किसी भी बालक को यह पूछने का अधिकार नहीं है कि पृथ्वी का अस्तित्व कब से है, क्योंकि सब कुछ तो उसी ''पर'' घटित होता है। यदि पृथ्वी नामक ग्रह का किसी समय — कल्पनातीत समय — उद्भव हुआ हो तो इसके उद्भव-काल को कल्पनातीत मानना होगा। | {{ParUG|182}} इससे भी कच्ची बात तो यह है कि पृथ्वी ''अनादि'' है। किसी भी बालक को यह पूछने का अधिकार नहीं है कि पृथ्वी का अस्तित्व कब से है, क्योंकि सब कुछ तो उसी ''पर'' घटित होता है। यदि पृथ्वी नामक ग्रह का किसी समय — कल्पनातीत समय — उद्भव हुआ हो तो इसके उद्भव-काल को कल्पनातीत मानना होगा। | ||
{{ParUG|183}} “यह सुनिश्चित है कि ऑस्ट्रलित्ज़ के युद्ध के बाद नेपोलियन | {{ParUG|183}} “यह सुनिश्चित है कि ऑस्ट्रलित्ज़ के युद्ध के बाद नेपोलियन....। तो यह भी सुनिश्चित ही है कि उस समय पृथ्वी का अस्तित्व था।” | ||
{{ParUG|184}} “यह सुनिश्चित है कि एक सौ वर्ष पहले हम इस ग्रह पर किसी अन्य ग्रह से नहीं आए हैं।” यह ऐसी बातों जैसा ही सुनिश्चित है। | {{ParUG|184}} “यह सुनिश्चित है कि एक सौ वर्ष पहले हम इस ग्रह पर किसी अन्य ग्रह से नहीं आए हैं।” यह ऐसी बातों जैसा ही सुनिश्चित है। | ||
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{{ParUG|189}} कभी तो व्याख्या से वर्णन मात्र पर पहुँचना पड़ता है। | {{ParUG|189}} कभी तो व्याख्या से वर्णन मात्र पर पहुँचना पड़ता है। | ||
{{ParUG|190}} जिसे हम ऐतिहासिक साक्ष्य कहते हैं वह बतलाता है कि मेरे जन्म के बहुत पहले से ही पृथ्वी का अस्तित्व है; — विपरीत-कल्पना के समर्थन में ''कुछ भी नहीं'' | {{ParUG|190}} जिसे हम ऐतिहासिक साक्ष्य कहते हैं वह बतलाता है कि मेरे जन्म के बहुत पहले से ही पृथ्वी का अस्तित्व है; — विपरीत-कल्पना के समर्थन में ''कुछ भी नहीं'' ''है''। | ||
{{ParUG|191}} यदि सभी कुछ किसी प्राक्कल्पना के पक्ष में हो और विपक्ष में कुछ भी न कहा जाए — तो क्या वह निश्चित रूप से सत्य होती है? उसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है। — किन्तु क्या वह निश्चित रूप से यथार्थ के, तथ्यों के अनुरूप होती है? — इस प्रश्न को पूछते ही आप एक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं। | {{ParUG|191}} यदि सभी कुछ किसी प्राक्कल्पना के पक्ष में हो और विपक्ष में कुछ भी न कहा जाए — तो क्या वह निश्चित रूप से सत्य होती है? उसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है। — किन्तु क्या वह निश्चित रूप से यथार्थ के, तथ्यों के अनुरूप होती है? — इस प्रश्न को पूछते ही आप एक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं। | ||
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{{ParUG|207}} “विचित्र संयोग है कि जिस किसी की भी खोपड़ी खोली गई उसमें मस्तिष्क पाया गया!” | {{ParUG|207}} “विचित्र संयोग है कि जिस किसी की भी खोपड़ी खोली गई उसमें मस्तिष्क पाया गया!” | ||
{{ParUG|208}} मैं न्यूयॉर्क में किसी से टेलीफोन पर बात करता हूँ। मेरा मित्र मुझे बताता है कि उसके घर में लगे पौधों पर अमुक प्रकार की कलियाँ खिली हैं। मैं विवरण सुन-कर आश्वस्त हो जाता हूँ कि उन पौधों का | {{ParUG|208}} मैं न्यूयॉर्क में किसी से टेलीफोन पर बात करता हूँ। मेरा मित्र मुझे बताता है कि उसके घर में लगे पौधों पर अमुक प्रकार की कलियाँ खिली हैं। मैं विवरण सुन-कर आश्वस्त हो जाता हूँ कि उन पौधों का.... नाम है। क्या मैं पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में भी आश्वस्त हो जाता हूँ? | ||
{{ParUG|209}} पृथ्वी का अस्तित्व है, यह उस पूरे ''चित्र'' का एक अंश है, जो मेरे विश्वास के आरम्भिक बिन्दु का निर्माण करता है। | {{ParUG|209}} पृथ्वी का अस्तित्व है, यह उस पूरे ''चित्र'' का एक अंश है, जो मेरे विश्वास के आरम्भिक बिन्दु का निर्माण करता है। | ||
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{{ParUG|216}} यह वाक्य “यह लिखित है”। | {{ParUG|216}} यह वाक्य “यह लिखित है”। | ||
{{ParUG|217}} यदि कोई (यह कहते हुए कि भूल तो सदा हो सकती है) मानता है कि हमारे सभी परिकलन अनिश्चित हैं और हम उन में से किसी पर विश्वास भी नहीं कर सकते तब हम उस व्यक्ति को कदाचित् सनकी कहेंगे। किन्तु क्या हम उसे गलत भी कह सकते हैं? क्या उसकी सोच हमसे भिन्न नहीं है? हम परिकलनों पर भरोसा करते हैं, वह भरोसा नहीं करता; हम आश्वस्त हैं, वह नहीं है। | {{ParUG|217}} यदि कोई (यह कहते हुए कि भूल तो सदा हो सकती है) मानता है कि हमारे ''सभी'' परिकलन अनिश्चित हैं और हम उन में से किसी पर विश्वास भी नहीं कर सकते तब हम उस व्यक्ति को कदाचित् सनकी कहेंगे। किन्तु क्या हम उसे गलत भी कह सकते हैं? क्या उसकी सोच हमसे भिन्न नहीं है? हम परिकलनों पर भरोसा करते हैं, वह भरोसा नहीं करता; हम आश्वस्त हैं, वह नहीं है। | ||
{{ParUG|218}} क्या मैं क्षण भर के लिए भी यह मान सकता हूँ कि मैं स्ट्रैटोस्फीयर (समताप-मण्डल) में रहा हूँ? नहीं। तो क्या मूअर की तरह मैं इससे उलट जान सकता हूँ? | {{ParUG|218}} क्या मैं क्षण भर के लिए भी यह मान सकता हूँ कि मैं स्ट्रैटोस्फीयर (समताप-मण्डल) में रहा हूँ? नहीं। तो क्या मूअर की तरह मैं इससे उलट जान सकता हूँ? | ||
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जब मैं कहता हूँ कि “आधा घंटा पहले यह पर्वत नहीं था” तो इस अटपटे कथन से पता ही नहीं चलता कि मेरा तात्पर्य क्या है। उदाहरणार्थ कहीं मैं कोई असत्य किन्तु वैज्ञानिक बात तो नहीं कर रहा। संभवतः आपको लगे कि ‘यह पर्वत तब तो नहीं था’ कथन सुस्पष्ट है, हालाँकि आपको इसके संदर्भ की कल्पना करनी पड़ती है। किन्तु कल्पना कीजिए कि कोई कहे “क्षण भर पहले यह पर्वत नहीं था अपितु उस समय बिल्कुल ऐसा ही पर्वत मौजूद था”। सुपरिचित संदर्भ से ही तात्पर्य का पता चलेगा। | जब मैं कहता हूँ कि “आधा घंटा पहले यह पर्वत नहीं था” तो इस अटपटे कथन से पता ही नहीं चलता कि मेरा तात्पर्य क्या है। उदाहरणार्थ कहीं मैं कोई असत्य किन्तु वैज्ञानिक बात तो नहीं कर रहा। संभवतः आपको लगे कि ‘यह पर्वत तब तो नहीं था’ कथन सुस्पष्ट है, हालाँकि आपको इसके संदर्भ की कल्पना करनी पड़ती है। किन्तु कल्पना कीजिए कि कोई कहे “क्षण भर पहले यह पर्वत नहीं था अपितु उस समय बिल्कुल ऐसा ही पर्वत मौजूद था”। सुपरिचित संदर्भ से ही तात्पर्य का पता चलेगा। | ||
{{ParUG|238}} मेरे जन्म से पूर्व पृथ्वी का अस्तित्व नहीं था ऐसा कहने वाले व्यक्ति की कौनसी धारणाएं मेरी धारणाओं से मेल नहीं खातीं यह जानने के लिए मुझे उससे पूछताछ करनी पड़ेगी। ''हो सकता'' है कि इस | {{ParUG|238}} मेरे जन्म से पूर्व पृथ्वी का अस्तित्व नहीं था ऐसा कहने वाले व्यक्ति की कौनसी धारणाएं मेरी धारणाओं से मेल नहीं खातीं यह जानने के लिए मुझे उससे पूछताछ करनी पड़ेगी। ''हो सकता'' है कि इस जान कारी के बाद मुझे पता चले कि वह मेरी आधारभूत मान्यताओं का ही विरोध कर रहा है। ऐसी स्थिति में मेरे पास उसके मत को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं होगा। | ||
इसी प्रकार मुझे उसके चाँद पर जाने के कथन को भी स्वीकार करना होगा। | इसी प्रकार मुझे उसके चाँद पर जाने के कथन को भी स्वीकार करना होगा। |