ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

last edit.
No edit summary
(last edit.)
Line 1,400: Line 1,400:
{{ParUG|539}} क्या जानना संग्रह करने जैसा है?
{{ParUG|539}} क्या जानना संग्रह करने जैसा है?


{{ParUG|540}} कुत्ता “न” की और “म” की आवाजें सुन कर न और म के पास जाना सीख जाता है, परन्तु इसका यह तो अभिप्राय नहीं कि कुत्ता उनके नाम जानता है?
{{ParUG|540}} कुत्ता “'''न'''” की और “'''म'''” की आवाजें सुन कर '''''' और '''''' के पास जाना सीख जाता है, परन्तु इसका यह तो अभिप्राय नहीं कि कुत्ता उनके नाम जानता है?


{{ParUG|541}} “वह इस व्यक्ति के नाम को तो जानता है — परन्तु उस व्यक्ति के नाम को नहीं”। यह बात हम उस व्यक्ति के बारे में तो कह ही नहीं सकते जो अभिधान के प्रत्यय से अनभिज्ञ है।
{{ParUG|541}} “वह इस व्यक्ति के नाम को तो जानता है — परन्तु उस व्यक्ति के नाम को नहीं”। यह बात हम उस व्यक्ति के बारे में तो कह ही नहीं सकते जो अभिधान के प्रत्यय से अनभिज्ञ है।
Line 1,484: Line 1,484:
बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे “इस रंग को.... कहते हैं”।) — अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं “और इस ईंट को ‘....’ कहते हैं”, और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।
बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे “इस रंग को.... कहते हैं”।) — अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं “और इस ईंट को ‘....’ कहते हैं”, और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।


{{ParUG|567}} और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे लु.वि. कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।
{{ParUG|567}} और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे '''लु.वि.''' कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।


{{ParUG|568}} यदि मेरा कोई नाम कभी-कभार ही प्रयुक्त किया जाए तो यह सम्भावना है कि मैं उसे न जानूँ। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मैं अपना नाम जानता हूँ क्योंकि अन्य लोगों की तरह मैं भी उसका बारम्बार प्रयोग करता हूँ।
{{ParUG|568}} यदि मेरा कोई नाम कभी-कभार ही प्रयुक्त किया जाए तो यह सम्भावना है कि मैं उसे न जानूँ। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मैं अपना नाम जानता हूँ क्योंकि अन्य लोगों की तरह मैं भी उसका बारम्बार प्रयोग करता हूँ।
Line 1,490: Line 1,490:
{{ParUG|569}} आन्तरिक अनुभव यह नहीं बतलाता कि मैं किसी बात को ''जानता'' हूँ।
{{ParUG|569}} आन्तरिक अनुभव यह नहीं बतलाता कि मैं किसी बात को ''जानता'' हूँ।


अतः, “मैं जानता हूँ कि मेरा नाम” मेरे ऐसा कहने पर भी स्पष्टतः यह कोई आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं होती, — — —।
अतः, “मैं जानता हूँ कि मेरा नाम....” मेरे ऐसा कहने पर भी स्पष्टतः यह कोई आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं होती, — — —।


{{ParUG|570}} “मैं जानता हूँ कि यह मेरा नाम है; हम में से प्रत्येक वयस्क अपना नाम जानता है।”
{{ParUG|570}} “मैं जानता हूँ कि यह मेरा नाम है; हम में से प्रत्येक वयस्क अपना नाम जानता है।”
Line 1,560: Line 1,560:
{{ParUG|592}} “मैं आपको बतला सकता हूँ कि वह कौनसा.... यानी, इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।”
{{ParUG|592}} “मैं आपको बतला सकता हूँ कि वह कौनसा.... यानी, इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।”


{{ParUG|593}} जहाँ हम “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति को “यह एक है” अभिव्यक्ति से प्रतिस्थापित कर सकते हैं वहाँ भी हम एक के निषेध को दूसरे के निषेध से प्रतिस्थापित नहीं कर सकते।
{{ParUG|593}} जहाँ हम “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति को “यह एक....है” अभिव्यक्ति से प्रतिस्थापित कर सकते हैं वहाँ भी हम एक के निषेध को दूसरे के निषेध से प्रतिस्थापित नहीं कर सकते।


“मैं नहीं जानता कि....” अभिव्यक्ति के आते ही हमारे भाषा-खेल में एक नया घटक प्रवेश कर जाता है।
“मैं नहीं जानता कि....” अभिव्यक्ति के आते ही हमारे भाषा-खेल में एक नया घटक प्रवेश कर जाता है।


{{ParUG|594}} मेरा नाम लु.वि. है। इसके बारे में बखेड़ा खड़ा करने पर मैं इससे संबंधित इतने प्रमाण जुटा दूँगा जिससे इसके बारे में कोई सन्देह नहीं रहेगा।
{{ParUG|594}} मेरा नाम '''लु.वि.''' है। इसके बारे में बखेड़ा खड़ा करने पर मैं इससे संबंधित इतने प्रमाण जुटा दूँगा जिससे इसके बारे में कोई सन्देह नहीं रहेगा।


{{ParUG|595}} “किन्तु फिर भी मैं ऐसे व्यक्ति की कल्पना कर सकता हूँ जो इन सब बातों को समझे किन्तु फिर भी वास्तविकता को न समझे। मैं भी ऐसी स्थिति में क्यों नहीं हो सकता?”
{{ParUG|595}} “किन्तु फिर भी मैं ऐसे व्यक्ति की कल्पना कर सकता हूँ जो इन सब बातों को समझे किन्तु फिर भी वास्तविकता को न समझे। मैं भी ऐसी स्थिति में क्यों नहीं हो सकता?”
Line 1,618: Line 1,618:
{{ParUG|612}} मैंने कहा कि मैं दूसरे व्यक्ति का ‘मुकाबला’ करूँगा, — किन्तु, क्या मैं उसे ''युक्ति'' नहीं दूँगा? निश्चय ही मैं उसे युक्ति दूँगा; किन्तु उनसे हम कितनी दूर जा सकेंगे? अन्ततोगत्वा युक्ति के बाद ''समझाना'' पड़ता है। (मिशनरियों द्वारा आदिम लोगों के धर्म परिवर्तन की स्थिति पर विचार करें।)
{{ParUG|612}} मैंने कहा कि मैं दूसरे व्यक्ति का ‘मुकाबला’ करूँगा, — किन्तु, क्या मैं उसे ''युक्ति'' नहीं दूँगा? निश्चय ही मैं उसे युक्ति दूँगा; किन्तु उनसे हम कितनी दूर जा सकेंगे? अन्ततोगत्वा युक्ति के बाद ''समझाना'' पड़ता है। (मिशनरियों द्वारा आदिम लोगों के धर्म परिवर्तन की स्थिति पर विचार करें।)


{{ParUG|613}} यदि अब मैं कहूँ “मैं जानता हूँ कि आँच पर रखी केतली में भरा पानी खौलेगा न कि जमेगा”, तो “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का औचित्य ''किसी भी'' प्रयोग जैसा होता है। ‘यदि मैं कुछ भी जानता हूँ तो मैं इसे जानता हूँ।’ — अथवा, क्या इससे भी ''अधिक'' निश्चितता से मैं जानता हूँ कि मेरे सामने बैठा व्यक्ति मेरा अमुक मित्र है? और इसकी तुलना इस बात से कैसे होगी कि मैं दो आँखों से देखता हूँ और दर्पण में देखने पर वे मुझे दिखाई देंगी? — मैं निश्चयपूर्वक इसका उत्तर नहीं दे सकता। — किन्तु फिर भी इन स्थितियों में भेद तो है। आँच पर रखे पानी के जम जाने पर बेशक मैं स्तंभित हो जाऊँगा, किन्तु इसके लिए किसी अनजाने कारण की कल्पना करूँगा और संभवत: इस मामले को भौतिक-शास्त्रियों के निर्णय के लिए छोड़ दूँगा। किन्तु, मेरे सामने बैठा व्यक्ति वर्षों से मेरा परिचित न. न. है इस बात पर मैं क्योंकर संदेह करूँगा? इस पर संदेह करने से सभी बातें संदेहास्पद हो जाएंगी और सब कुछ गड़बड़ा जाएगा।
{{ParUG|613}} यदि अब मैं कहूँ “मैं जानता हूँ कि आँच पर रखी केतली में भरा पानी खौलेगा न कि जमेगा”, तो “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का औचित्य ''किसी भी'' प्रयोग जैसा होता है। ‘यदि मैं कुछ भी जानता हूँ तो मैं इसे जानता हूँ।’ — अथवा, क्या इससे भी ''अधिक'' निश्चितता से मैं जानता हूँ कि मेरे सामने बैठा व्यक्ति मेरा अमुक मित्र है? और इसकी तुलना इस बात से कैसे होगी कि मैं दो आँखों से देखता हूँ और दर्पण में देखने पर वे मुझे दिखाई देंगी? — मैं निश्चयपूर्वक इसका उत्तर नहीं दे सकता। — किन्तु फिर भी इन स्थितियों में भेद तो है। आँच पर रखे पानी के जम जाने पर बेशक मैं स्तंभित हो जाऊँगा, किन्तु इसके लिए किसी अनजाने कारण की कल्पना करूँगा और संभवत: इस मामले को भौतिक-शास्त्रियों के निर्णय के लिए छोड़ दूँगा। किन्तु, मेरे सामने बैठा व्यक्ति वर्षों से मेरा परिचित '''न. न.''' है इस बात पर मैं क्योंकर संदेह करूँगा? इस पर संदेह करने से सभी बातें संदेहास्पद हो जाएंगी और सब कुछ गड़बड़ा जाएगा।


{{ParUG|614}} यानी: यदि चारों ओर मेरा विरोध हो और मुझे बताया जाए कि इस व्यक्ति का नाम वह नहीं है जिसे मैं सदा से जानता हूँ (और मैं यहाँ “जानना” शब्द का प्रयोग जान-बूझकर कर रहा हूँ), तो मेरे सभी निर्णयों का आधार ही मुझसे छिन जायेगा।
{{ParUG|614}} यानी: यदि चारों ओर मेरा विरोध हो और मुझे बताया जाए कि इस व्यक्ति का नाम वह नहीं है जिसे मैं सदा से जानता हूँ (और मैं यहाँ “जानना” शब्द का प्रयोग जान-बूझकर कर रहा हूँ), तो मेरे सभी निर्णयों का आधार ही मुझसे छिन जायेगा।
Line 1,662: Line 1,662:
{{ParUG|627}} क्या हमें ''सभी'' भाषा-खेलों में इस शर्त को स्थान नहीं देना होगा? (जिससे इसकी निरर्थकता का पता चलता है।)
{{ParUG|627}} क्या हमें ''सभी'' भाषा-खेलों में इस शर्त को स्थान नहीं देना होगा? (जिससे इसकी निरर्थकता का पता चलता है।)


{{ParUG|628}} जब हम कहते हैं कि “कुछ प्रतिज्ञप्तियों को संशय से परे रखना चाहिए” तो ऐसा लगता है कि मुझे लु. वि. कहते हैं जैसी प्रतिज्ञप्तियों को तर्क-शास्त्र की पुस्तक में ही रखना होगा। क्योंकि यदि यह भाषा-खेल के विवरण से संबंधित है, तो यह तर्क-शास्त्र का विषय है। किन्तु मुझे लु. वि. कहते हैं इसका किसी भी ऐसे विवरण से सम्बन्ध नहीं है। अपने नाम के बारे में मेरे गलती करने पर भी, लोगों के नामों पर लागू होने वाला भाषा-खेल निश्चित रूप से संभव है, — किन्तु इसकी पूर्वमान्यता है कि यह कहना निरर्थक है कि अधिकांश लोग अपने नामों के संबंध में भूल करते. हैं।
{{ParUG|628}} जब हम कहते हैं कि “कुछ प्रतिज्ञप्तियों को संशय से परे रखना चाहिए” तो ऐसा लगता है कि मुझे '''लु. वि.''' कहते हैं जैसी प्रतिज्ञप्तियों को तर्क-शास्त्र की पुस्तक में ही रखना होगा। क्योंकि यदि यह भाषा-खेल के विवरण से संबंधित है, तो यह तर्क-शास्त्र का विषय है। किन्तु मुझे '''लु. वि.''' कहते हैं इसका किसी भी ऐसे विवरण से सम्बन्ध नहीं है। अपने नाम के बारे में मेरे गलती करने पर भी, लोगों के नामों पर लागू होने वाला भाषा-खेल निश्चित रूप से संभव है, — किन्तु इसकी पूर्वमान्यता है कि यह कहना निरर्थक है कि अधिकांश लोग अपने नामों के संबंध में भूल करते हैं।


{{ParUG|629}} दूसरी ओर, अपने बारे में मेरा यह कथन बेशक ठीक है कि “मैं अपने नाम सम्बन्ध में भूल नहीं कर सकता”, और यह कहना गलत है कि “संभवत: मैं भूल कर रहा हूँ”। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिसे मैं सुनिश्चित कहता हूँ उस पर अन्य व्यक्तियों द्वारा संशय करना निरर्थक है।
{{ParUG|629}} दूसरी ओर, अपने बारे में मेरा यह कथन बेशक ठीक है कि “मैं अपने नाम सम्बन्ध में भूल नहीं कर सकता”, और यह कहना गलत है कि “संभवत: मैं भूल कर रहा हूँ”। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिसे मैं सुनिश्चित कहता हूँ उस पर अन्य व्यक्तियों द्वारा संशय करना निरर्थक है।
Line 1,694: Line 1,694:
{{ParUG|641}} “उसने आज ही मुझे इस बारे में बताया है — मैं इस बारे में भूल कर ही नहीं सकता।” — किन्तु इसके गलत निकलने पर क्या होगा?! — किसी बात के ‘गलत निकलने’ के ढंगों में क्या हमें भेद नहीं करना होगा? — अपने कथन की भूल को कैसे ''प्रदर्शित'' किया जा ''सकता'' है? यहाँ प्रमाण के सामने प्रमाण है, और यह ''निर्णय लेना होगा'' कि कौनसा प्रमाण रहे और कौनसा न रहे।
{{ParUG|641}} “उसने आज ही मुझे इस बारे में बताया है — मैं इस बारे में भूल कर ही नहीं सकता।” — किन्तु इसके गलत निकलने पर क्या होगा?! — किसी बात के ‘गलत निकलने’ के ढंगों में क्या हमें भेद नहीं करना होगा? — अपने कथन की भूल को कैसे ''प्रदर्शित'' किया जा ''सकता'' है? यहाँ प्रमाण के सामने प्रमाण है, और यह ''निर्णय लेना होगा'' कि कौनसा प्रमाण रहे और कौनसा न रहे।


{{ParUG|642}} पर मान लो कोई झिझकते हुए कहे: क्या होगा यदि मैं अचानक जागूँ और कहूँ कि “जरा रुकिए, मैं कल्पना कर रहा था कि मुझे लु. वि. कहते हैं!” — बेशक, किन्तु कौन जानता है कि मैं पुनः न जागूँ और इसे विचित्र कल्पना न कहूँ, इत्यादि, इत्यादि?
{{ParUG|642}} पर मान लो कोई झिझकते हुए कहे: क्या होगा यदि मैं अचानक जागूँ और कहूँ कि “जरा रुकिए, मैं कल्पना कर रहा था कि मुझे '''लु. वि.''' कहते हैं!” — बेशक, किन्तु कौन जानता है कि मैं पुनः न जागूँ और इसे विचित्र कल्पना न कहूँ, इत्यादि, इत्यादि?


{{ParUG|643}} हम ऐसी स्थिति की कल्पना तो कर ही सकते हैं — और ऐसी स्थितियाँ होती भी हैं — जिनमें ‘जागने’ के बाद कोई संदेह ही नहीं रहे कि कौनसी कल्पना थी और कौनसी वास्तविकता। किन्तु, ऐसी स्थिति या उसकी संभावना से “मैं भूल कर ही नहीं सकता” प्रतिज्ञप्ति की साख कम नहीं हो जाती।
{{ParUG|643}} हम ऐसी स्थिति की कल्पना तो कर ही सकते हैं — और ऐसी स्थितियाँ होती भी हैं — जिनमें ‘जागने’ के बाद कोई संदेह ही नहीं रहे कि कौनसी कल्पना थी और कौनसी वास्तविकता। किन्तु, ऐसी स्थिति या उसकी संभावना से “मैं भूल कर ही नहीं सकता” प्रतिज्ञप्ति की साख कम नहीं हो जाती।
Line 1,726: Line 1,726:
{{ParUG|655}} गणितीय प्रतिज्ञप्ति पर तो, मानो आधिकारिक रूप से, अकाट्यता की मुहर लगा दी गई है। यानी: “अन्य बातों के बारे में विवाद कीजिए; ''यह'' तो ध्रुव है — यह तो ऐसी धुरी है जिसके चारों ओर आपके विवाद घूमते हैं।”
{{ParUG|655}} गणितीय प्रतिज्ञप्ति पर तो, मानो आधिकारिक रूप से, अकाट्यता की मुहर लगा दी गई है। यानी: “अन्य बातों के बारे में विवाद कीजिए; ''यह'' तो ध्रुव है — यह तो ऐसी धुरी है जिसके चारों ओर आपके विवाद घूमते हैं।”


{{ParUG|656}} पर मैं लु. वि. कहलाता हूँ, इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में ऐसा ''नहीं'' कहा जा सकता। न ही यह बात इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में कही जा सकती है कि अमुक लोगों ने अमुक समस्या का ठीक-ठीक समाधान कर लिया है।
{{ParUG|656}} पर मैं '''लु. वि.''' कहलाता हूँ, इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में ऐसा ''नहीं'' कहा जा सकता। न ही यह बात इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में कही जा सकती है कि अमुक लोगों ने अमुक समस्या का ठीक-ठीक समाधान कर लिया है।


{{ParUG|657}} गणित की प्रतिज्ञप्तियों के बारे में कहा जा सकता है कि वे जड़ हो चुकी हैं। — “मैं.... कहलाता हूँ”, के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु मेरे जैसे
{{ParUG|657}} गणित की प्रतिज्ञप्तियों के बारे में कहा जा सकता है कि वे जड़ हो चुकी हैं। — “मैं.... कहलाता हूँ”, के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु मेरे जैसे
Line 1,762: Line 1,762:
{{ParUG|668}} किसी को कोई सूचना देने के साथ-साथ मेरे इस कथन कि मैं उसके बारे में कोई भूल कर ही नहीं सकता के क्या व्यावहारिक परिणाम होंगे?
{{ParUG|668}} किसी को कोई सूचना देने के साथ-साथ मेरे इस कथन कि मैं उसके बारे में कोई भूल कर ही नहीं सकता के क्या व्यावहारिक परिणाम होंगे?


(बल्कि मैं यह भी जोड़ सकता हूँ: “जैसे मैं अपना नाम लु. वि. होने के बारे में भूल नहीं कर सकता, वैसे ही इसके बारे में भी भूल नहीं कर सकता।”)
(बल्कि मैं यह भी जोड़ सकता हूँ: “जैसे मैं अपना नाम '''लु. वि.''' होने के बारे में भूल नहीं कर सकता, वैसे ही इसके बारे में भी भूल नहीं कर सकता।”)


फिर भी कोई अन्य व्यक्ति मेरे कथन पर संशय प्रकट कर सकता है। किन्तु, मुझ ‘पर भरोसा करने पर वह न केवल मेरी सूचना को स्वीकार करता है अपितु वह मेरी धारणा से मेरे आगामी व्यवहार का भी निश्चित अनुमान लगा लेता है।
फिर भी कोई अन्य व्यक्ति मेरे कथन पर संशय प्रकट कर सकता है। किन्तु, मुझ ‘पर भरोसा करने पर वह न केवल मेरी सूचना को स्वीकार करता है अपितु वह मेरी धारणा से मेरे आगामी व्यवहार का भी निश्चित अनुमान लगा लेता है।
Line 1,780: Line 1,780:
{{ParUG|674}} बेशक, ऐसी स्थितियाँ होती हैं जिनमें मेरा यह कहना उचित होता है कि मैं भूल कर ही नहीं सकता, और मूअर उन स्थितियों के कुछ उदाहरण देते हैं।
{{ParUG|674}} बेशक, ऐसी स्थितियाँ होती हैं जिनमें मेरा यह कहना उचित होता है कि मैं भूल कर ही नहीं सकता, और मूअर उन स्थितियों के कुछ उदाहरण देते हैं।


मैं ऐसी अनेक स्थितियों का वर्णन कर सकता हूँ किन्तु उनके किसी सामान्य गुण के बारे में नहीं बता सकता। (न. न. यह भूल नहीं कर सकता कि उसने कुछ ही दिन पहले अमेरिका से इंगलैंड के लिए उड़ान भरी थी। पागल होने की स्थिति में ही वह किसी अन्य बात की संभावना को स्वीकार करेगा।)
मैं ऐसी अनेक स्थितियों का वर्णन कर सकता हूँ किन्तु उनके किसी सामान्य गुण के बारे में नहीं बता सकता। ('''न. न.''' यह भूल नहीं कर सकता कि उसने कुछ ही दिन पहले अमेरिका से इंगलैंड के लिए उड़ान भरी थी। पागल होने की स्थिति में ही वह किसी अन्य बात की संभावना को स्वीकार करेगा।)


{{ParUG|675}} यदि कोई यह सोचे कि उसने कुछ ही दिन पहले अमेरिका से इंगलैंड के लिए उड़ान भरी थी, तो, मेरा विश्वास है कि वह ''भूल'' कर ही नहीं सकता।
{{ParUG|675}} यदि कोई यह सोचे कि उसने कुछ ही दिन पहले अमेरिका से इंगलैंड के लिए उड़ान भरी थी, तो, मेरा विश्वास है कि वह ''भूल'' कर ही नहीं सकता।