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{{ParUG|31}} उन्मत्त व्यक्ति की भाँति बारम्बार दोहराए जाने वाले वाक्यों को मैं दार्शनिक-भाषा से बहिष्कृत कर देना चाहता हूँ। | {{ParUG|31}} उन्मत्त व्यक्ति की भाँति बारम्बार दोहराए जाने वाले वाक्यों को मैं दार्शनिक-भाषा से बहिष्कृत कर देना चाहता हूँ। | ||
{{ParUG|32}} यह ''मूअर'' के जानने की बात नहीं है कि यह एक हाथ है, अपितु स्थिति तो यह है कि यदि वे कहते “निस्संदेह मैं इस विषय में भूल कर सकता हूँ” तो हम उनकी बात को समझ नहीं पाते। हमें पूछना चाहिए “ऐसी त्रुटि कैसे होगी?"— उदाहरणार्थ, ऐसी त्रुटि का पता कैसे चलेगा? | {{ParUG|32}} यह ''मूअर'' के जानने की बात नहीं है कि यह एक हाथ है, अपितु स्थिति तो यह है कि यदि वे कहते “निस्संदेह मैं इस विषय में भूल कर सकता हूँ” तो हम उनकी बात को समझ नहीं पाते। हमें पूछना चाहिए “ऐसी त्रुटि कैसे होगी?" — उदाहरणार्थ, ऐसी त्रुटि का पता कैसे चलेगा? | ||
{{ParUG|33}} अतः, हम ऐसी प्रतिज्ञप्तियों को बहिष्कृत कर देते हैं जिनसे हमें कोई लाभ नहीं होता। | {{ParUG|33}} अतः, हम ऐसी प्रतिज्ञप्तियों को बहिष्कृत कर देते हैं जिनसे हमें कोई लाभ नहीं होता। | ||
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{{ParUG|89}} कहा जा सकता है : “.... से भी बहुत पहले से पृथ्वी के अस्तित्व के पक्ष में सभी बातें हैं और उसके विपक्ष में कोई भी बात नहीं है।” | {{ParUG|89}} कहा जा सकता है : “.... से भी बहुत पहले से पृथ्वी के अस्तित्व के पक्ष में सभी बातें हैं और उसके विपक्ष में कोई भी बात नहीं है।” | ||
फिर भी क्या मैं इससे विपरीत-कल्पना नहीं कर सकता? किन्तु प्रश्न तो यह है : ऐसी मान्यता का व्यवहार पर क्या असर पड़ेगा?— संभवत : कोई कहे : “बात यह नहीं है। मान्यता तो मान्यता है, वह व्यावहारिक हो या नहीं।” कोई सोच सकता है : यह तो मानव-मन को समझाना ही है। | फिर भी क्या मैं इससे विपरीत-कल्पना नहीं कर सकता? किन्तु प्रश्न तो यह है : ऐसी मान्यता का व्यवहार पर क्या असर पड़ेगा? — संभवत : कोई कहे : “बात यह नहीं है। मान्यता तो मान्यता है, वह व्यावहारिक हो या नहीं।” कोई सोच सकता है : यह तो मानव-मन को समझाना ही है। | ||
{{ParUG|90}} “मैं जानता हूँ” का आदिम अर्थ “मैं देखता हूँ” से मिलता-जुलता है। और “मैं जानता था कि वह कमरे में है किन्तु वह कमरे में था नहीं” यह कथन “मैंने उसे कमरे में देखा किन्तु वह वहाँ नहीं था” इस कथन के समान है। “मैं जानता हूँ” यह कथन मेरे और किसी प्रतिज्ञप्ति (जैसे कि “मेरी मान्यता है”) के अर्थ-संबंध को अभिव्यक्त न करके, मेरे और तथ्य के बीच संबंध को अभिव्यक्त करता है। ताकि तथ्य मेरी चेतना में समाहित हो जाये। (इसी कारण हम यह कहना चाहते हैं कि बाह्य जगत् में घटित घटनाओं के बारे में हम कुछ भी नहीं जान सकते, किन्तु इन्द्रियगोचर विषय के क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं को ही हम वस्तुत : जान सकते हैं।) इससे हमें प्रत्यक्ष-ज्ञान की प्रतीति होगी, और वह ज्ञान, मन और इन्द्रिय-सन्निकर्ष से प्राप्त होगा। तभी इस प्रतीति की ''निश्चितता'' के बारे में सन्देह उत्पन्न हो जाता है। इस प्रतीति से यह तो पता चल ही जाता है कि हमारी ''कल्पना'' ज्ञान को कैसे प्रस्तुत करती है, पर यह पता नहीं चलता कि इस प्रस्तुति का आधार क्या है। | {{ParUG|90}} “मैं जानता हूँ” का आदिम अर्थ “मैं देखता हूँ” से मिलता-जुलता है। और “मैं जानता था कि वह कमरे में है किन्तु वह कमरे में था नहीं” यह कथन “मैंने उसे कमरे में देखा किन्तु वह वहाँ नहीं था” इस कथन के समान है। “मैं जानता हूँ” यह कथन मेरे और किसी प्रतिज्ञप्ति (जैसे कि “मेरी मान्यता है”) के अर्थ-संबंध को अभिव्यक्त न करके, मेरे और तथ्य के बीच संबंध को अभिव्यक्त करता है। ताकि तथ्य मेरी चेतना में समाहित हो जाये। (इसी कारण हम यह कहना चाहते हैं कि बाह्य जगत् में घटित घटनाओं के बारे में हम कुछ भी नहीं जान सकते, किन्तु इन्द्रियगोचर विषय के क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं को ही हम वस्तुत : जान सकते हैं।) इससे हमें प्रत्यक्ष-ज्ञान की प्रतीति होगी, और वह ज्ञान, मन और इन्द्रिय-सन्निकर्ष से प्राप्त होगा। तभी इस प्रतीति की ''निश्चितता'' के बारे में सन्देह उत्पन्न हो जाता है। इस प्रतीति से यह तो पता चल ही जाता है कि हमारी ''कल्पना'' ज्ञान को कैसे प्रस्तुत करती है, पर यह पता नहीं चलता कि इस प्रस्तुति का आधार क्या है। |