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324. क्या यह कहना उचित होगा कि यह आगमनात्मक वस्तु है और यह भी कि श्रृंखला को आगे बढ़ाने की अपनी योग्यता के बारे में मैं उतना ही निश्चिन्त हूँ जितना मैं इस पुस्तक को हाथ से छोड़ने पर इसके फर्श पर गिर जाने के बारे में होता हूँ; और यह कहना भी कि यदि मैं यकायक और बिना कारण श्रृंखला को हल करने में अटक जाऊँ तो मुझे उतना ही आश्चर्य होगा जितना कि गिरने के बजाय इस पुस्तक के अधर में लटक जाने से होगा। इसके उत्तर में मैं कहूँगा कि इस निश्चिन्तता के लिए भी किसी आधार की आवश्यकता नहीं है। निश्चिन्तता का सफलता से अधिक अच्छा औचित्य क्या हो सकता है?
325. “यह निश्चिन्तता कि ऐसा अनुभव होने — उदाहरणार्थ, सूत्र को समझने के अनुभव — के पश्चात् मैं श्रृंखला को आगे बढ़ाने के योग्य हो जाऊँगा यह तो आगमन पर ही आधारित है।” इसका क्या अर्थ है? — “यह निश्चितता कि अग्नि मुझे जला देगी, आगमन पर आधारित है।” क्या इसका अर्थ यह है कि मैं अपने आप से तर्क करता हूँ : “अग्नि ने हमेशा मुझे जलाया है, अतः अब भी ऐसा ही होगा?” अथवा क्या पूर्वानुभव मेरी निश्चितता का कारण है, न कि उसका आधार? पूर्वानुभव का इस निश्चितता का कारण होना तो प्राक्कल्पनाओं, प्राकृतिक नियमों की उस प्रणाली पर निर्भर करता है, जिसमें हम निश्चितता की संवृत्ति पर विचार कर रहे हैं।
क्या हमारे विश्वास का कोई औचित्य है? — जिसे लोग औचित्य मानते हैं — उसका तो उनके विचार और व्यवहार से पता चलता है।
326. हम इसकी अपेक्षा करते हैं, और उस पर विस्मित होते हैं। किन्तु कारण-श्रृंखला का कहीं तो अन्त होता है।
327. “क्या कोई बोले बिना सोच सकता है?” — और सोचना क्या होता है? अच्छा, क्या आप कभी भी नहीं सोचते? क्या आप आत्मालोचन करके यह नहीं समझ सकते कि क्या हो रहा है? यह तो बिल्कुल आसान होना चाहिए। इसके लिए आपको किसी खगोलीय घटना की तरह न तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है और न ही कोई तुरंत टिप्पणी देनी पड़ती है।
328. अच्छा, ‘विचार किया’ इस अभिव्यक्ति में हम क्या शामिल करते हैं? इस शब्द का प्रयोग हमने किस विषय के लिए करना सीखा है? — जब मैं कहता हूँ कि मैंने विचार किया — तो क्या मेरा सदैव ठीक होना आवश्यक होता है? यहाँ किस प्रकार की गलतियों की संभावना है? क्या ऐसी परिस्थितियां होती हैं जिनमें पूछा जा सकता है: क्या जो मैं उस समय कर रहा था वह वास्तव में विचार-क्रिया थी; कहीं मैं भूल तो नहीं कर रहा? मान लीजिए कि विचार-श्रृंखला के बीच में कोई व्यक्ति माप-तोल करता है: माप-तोल करते समय यदि वह अपने से कुछ भी न बोले तो क्या उसकी विचार-श्रृंखला टूटती है।
329. जब मैं भाषा के माध्यम से विचार करता हूँ तो मौखिक अभिव्यक्तियों के अतिरिक्त मेरे मन में कोई दूसरे ‘अर्थ’ नहीं होते : भाषा तो स्वयं ही विचार की वाहक होती है।
330. क्या सोचना किसी प्रकार को बोलना होता है? हम कहना चाहेंगे कि इससे तो सोचने के साथ बोलने, और बिना सोचे बोलने में भेद किया जाता है — और इसलिए यह भाषा का सहगामी प्रतीत होता है। ऐसी प्रक्रिया जो किसी अन्य की सहवर्ती हो सकती है, या फिर स्वतः चलती रह सकती है।
बोलें कि : “हाँ, यह कलम कुंद है। चलो ठीक है, काम चलेगा।” पहले इस पर विचार करके; फिर बिना विचारे; फिर इस विचार को बिना शब्दों के ही सोचिए। — निस्संदेह, कुछ लिखते समय हो सकता है कि मैं अपनी कलम की नोक को देखूँ, मुँह बनाऊँ — और फिर उदासीन भाव से आगे बढ़ता बनाऊँ। — नाप-तोल करते समय मैं ऐसा व्यवहार भी कर सकता हूँ कि कोई कहे कि मैंने — बिना शब्दों के विचार किया : यदि दो परिमाण किसी तीसरे परिमाण के बराबर होते हों तो वे एक-दूसरे के बराबर होंगे। — किन्तु यहाँ जिससे विचार गठित होता है वह कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं होती जो ऐसे शब्दों से जुड़ी हो जिन्हें बिना विचारे बोला न जा सके।
331. ऐसे लोगों की कल्पना कीजिए जो केवल उच्च स्वर में ही सोच सकते हों। (जैसे ऐसे लोग होते हैं जो केवल उच्च स्वर में ही पढ़ सकते हैं।)
332. हालाँकि कभी-कभी हम कहते हैं कि “विचार कना” वाक्य की सहगामी मानसिक प्रक्रिया होती है, फिर भी “विचार” से हमारा तात्पर्य वह सहगामी विषय नहीं होता। — वाक्य को बोलो और उस पर विचार करो; फिर उसे समझ कर बोलो। — और अब इसे बोलो मत, केवल वही करो जो उस समय किया था जब आपने इसे कहा था! — (इस धुन को भावाभिव्यक्ति सहित गाओ। और अब इसे गाओ नहीं, अपितु इसकी भावाभिव्यक्ति को दोहराओ! — और वास्तव में यहाँ कुछ दोहराया जा सकता है। उदाहरणार्थ, विभिन्न भावभंगिमाएं बनाना, श्वासों को तेजी से अथवा धीरे-धीरे लेना, इत्यादि।)
333. “ऐसा केवल वही कह सकता है जो आश्वस्त हो।” — जब वह उसे कहता है तो उसका विश्वास किस प्रकार सहायक होता है? — क्या यह उच्चारित अभिव्यक्ति के आस-पास ही कहीं होता है? (अथवा, मध्यम स्वरों के उच्च स्वरों से दब जाने के समान क्या वह उससे छुप जाता है, ताकि जब इसे उच्च स्वर में अभिव्यक्त किया जाता है तब मानो इसे सुना ही न जा सकता हो?) क्या हो यदि कोई कहे : “स्मृति से किसी धुन को गाने के सामर्थ्य के लिए हमें उसे अपने मन में सुनना पड़ता है, और उसे मन में सुनकर गाना पड़ता है”?
334. “अतः आप वास्तव में कहना चाहते थे कि....।” — किसी व्यक्ति को किसी एक अभिव्यक्ति से किसी अन्य अभिव्यक्ति पर लाने के लिए हम इस शैली का प्रयोग करते हैं। हम निम्नलिखित चित्र का प्रयोग करने के लिए भी प्रवृत्त होते हैं: जो वह वास्तव में ‘कहना चाहता था’, जो उसका ‘अर्थ’ था वह तो हमारे उसे अभिव्यक्त करने से पहले ही उसके मन में कहीं उपस्थित था। एक अभिव्यक्ति को छोड़ कर उसके स्थान पर किसी अन्य अभिव्यक्ति को अपनाने के लिए प्रेरित करने वाली अनेक बातें हो सकती हैं। गणितीय समस्याओं के समाधानों एवं उनके सूत्रीकरण के संदर्भ एवं आधार पर विचार करना इसे समझने में सहायक होता है। ‘रेखनी एवं कम्पास की सहायता से कोण का समत्रिभाजन करना’ प्रत्यय, उस समय जब लोग ऐसा करने का प्रयत्न कर रहे हों, और दूसरी ओर तब जब यह सिद्ध किया जा चुका हो कि ऐसा कुछ नहीं होता।
335. क्या होता है जब हम, मान लीजिए कि, पत्र लिखते समय अपने विचारों की उचित अभिव्यक्ति खोजने का प्रयत्न करते हैं? — यह शब्दावली इस प्रक्रिया की तुलना अनुवाद, अथवा विवरण की प्रक्रिया से करती है: विचार तो पहले से ही हैं (संभवत : पहले से ही थे) और हम उनकी अभिव्यक्ति को ही खोजते हैं। विभिन्न परिस्थितियों में यह चित्रण न्यूनाधिक उचित है। — किन्तु क्या यहाँ सभी प्रकार की बातें नहीं हो सकतीं। — किसी भावदशा को मैं स्वीकार करता हूँ और अभिव्यक्ति आ जाती है। अथवा कोई चित्र मुझे सूझता है और मैं उसका विवरण देने का प्रयत्न करता हूँ। अथवा, कोई अंग्रेजी भाषा की अभिव्यक्ति मुझे सूझती है और मैं उसके अनुरूप जर्मन भाषा की अभिव्यक्ति को पाने का प्रयास करता हूँ। अथवा मैं कोई भावभंगिमा बनाता हूँ और अपने आप से पूछता हूँ : इस भावभंगिमा के अनुरूप कौन से शब्द होते हैं? आदि।
यदि अब पूछा जाए : “क्या अभिव्यक्ति को खोजने से पहले आप के पास विचार होता है?” तो क्या कोई उत्तर देगा? और इस प्रश्न का : “अपनी अभिव्यक्ति से विचार में क्या निहित था?” कोई क्या उत्तर दे सकता है?
336. यह स्थिति उस स्थिति के सदृश है जिसमें कोई कल्पना करता है कि वह कोई ऐसा वाक्य नहीं सोच सकता जिसमें जर्मन अथवा लैटिन भाषा का दिया हुआ कोई विशिष्ट शब्द-क्रम हो। पहले हमें यह सोचना पड़ता है तत्पश्चात् हम शब्दों को उस विलक्षण क्रम में व्यवस्थित करते हैं। (किसी फ्रांसिसी राजनीतिज्ञ ने लिखा था कि फ्रेंच भाषा की यह विशिष्टता है कि उसमें शब्द उसी क्रम में आते हैं जिसमें कि हम उन्हें सोचते हैं।)
337. किन्तु वाक्य के, उदाहरणार्थ, आरंभ में ही क्या पहले से ही मेरा अभिप्राय उसकी संपूर्ण संरचना नहीं था? अतः निस्संदेह मेरे मन में इसका अस्तित्व मेरे इसे उच्चारित करने से पूर्व ही था! — यदि यह मेरे मन में हो भी, तो भी यह किसी भिन्न शब्द-क्रम में सामान्यतः नहीं होगा। किन्तु यहाँ हम ‘अभिप्राय होने’ के भ्रामक चित्र की संरचना कर रहे हैं, यानि इस शब्द के प्रयोग की अभिप्राय अपनी स्थितियों में, मानवीय प्रथाओं एवं संस्थाओं में निहित होते हैं। यदि शतरंज के खेल की तकनीक ही न होती तो मेरा अभिप्राय शतरंज के खेल को खेलना हो ही नहीं सकता था। जहाँ तक पहले से ही वाक्य की संरचना के मेरे अभिप्राय की बात है तो उसे यह तथ्य संभव बनाता है कि मैं प्रसंगगत भाषा को बोल सकता हूँ।
338. बहरहाल, कुछ भी हो, हम केवल तभी कुछ कह सकते हैं जब हमने बोलना सीखा हो। अतः कुछ कहना चाहने के लिए हमें भाषा में निपुण भी होना चाहिए; और फिर भी यह स्पष्ट ही है कि हम बिना बोले ही बोलना चाहें। उसी प्रकार जैसे कि हम बिना नाचे ही नाचना चाहें।
और जब हम इस बारे में विचार करते हैं तो हमें नाचने, बोलने, इत्यादि के प्रतिबिंब का बोध होता है।
339. सोचना ऐसी निराकार प्रक्रिया नहीं होती जिससे बोलने को जीवन एवं अर्थ मिलता है, और जिसे बोलने से उसी प्रकार पृथक् करना संभव हो, जैसे कि डैविल (शैतान) ने शमिहल की परछाई को धरती पर से उठा लिया था। — किन्तु “निराकार प्रक्रिया कैसे नहीं”? क्या मैं निराकार प्रक्रियाओं से परिचित हूँ, और क्या मात्र सोचना ही उनमें से एक नहीं है? नहीं; “निराकार प्रक्रिया” इस अभिव्यक्ति को मैं अपनी व्याकुलता को छुपाने के लिए उस समय लाया जब मैं “सोचने” शब्द के अर्थ को आदिम ढंग से व्याख्यायित करने का प्रयत्न कर रहा था।
बहरहाल, हम कह सकते हैं, “सोचना एक निराकार प्रक्रिया होती है”, जिसका प्रयोग हम “सोचने” शब्द के व्याकरण का, मान लीजिए कि “खाने” शब्द के व्याकरण से भेद करने के लिए करते हैं। इससे अर्थों में भेद अत्यन्त महत्त्वहीन ही प्रतीत होता है। (यह ऐसा कहने के समान है: संख्येय वास्तविक, और संख्याएं अवास्तविक विषय होते हैं।) अनुचित प्रकार की अभिव्यक्ति मतिभ्रम की स्थिति में रहने का असंदिग्ध साधन है। वह मानो निकास मार्ग को अवरुद्ध कर देती है।
340. शब्द कैसे कार्य करते हैं, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हमें उनके प्रयोग का निरीक्षण करना, और उससे सीखना पड़ता है।
किन्तु कठिनाई तो इसके मार्ग में आने वाले पूर्वग्रह को हटाना है। यह मूर्खतापूर्ण पूर्वग्रह नहीं है।
341. विचार के साथ और विचार के बिना बोलने की तुलना संगीत को विचार के साथ, और विचार के बिना बजाने से ही करनी चाहिए।
342. विलियम जेम्स यह सिद्ध करने के लिए कि बोलने के बिना विचार करना संभव है किसी मूक-बधि श्री बॅलार्ड के संस्मरण को उद्धृत करते हैं जिनमें यह कहा गया कि युवावस्था में बोल सकने से पूर्व भी उन्हें ईश्वर एवं संसार के बारे में विचार आते थे। — इससे उनका क्या अभिप्राय हो सकता था? — बॅलार्ड लिखते हैं: “आह्लादकारी घुड़सवारी के दौरान प्रारंभिक लिखित भाषा में मेरी दीक्षा से लगभग दो-तीन वर्ष पूर्व मैंने अपने से यह प्रश्न पूछना आरंभ कर दिया : संसार सत्ता में कैसे आया?” क्या आप विश्वस्त हैं — हम पूछना चाहेंगे — कि यह आपके शब्दहीन विचार का शब्दों में उचित अनुवाद है? और यह प्रश्न — जिसके अस्तित्व के बारे में अन्यथा पता नहीं चलता — यहाँ क्यों उत्पन्न हो रहा है? क्या मैं यह कहना चाहता हूँ कि लेखक की स्मृति उसे धोखा दे रही है? — मैं यह नहीं जानता कि क्या मुझे ऐसा कहना चाहिए? ये संस्मरण तो विचित्र स्मृति-संवृत्तियां हैं, — और मुझे स्वयं पता नहीं कि इन संस्मरणों को सुनाने वाले व्यक्ति के विगत जीवन के बारे में इनसे कौन से निष्कर्ष निकालने चाहिए।
343. जिन शब्दों से मैं अपनी स्मृति को अभिव्यक्त करता हूँ वे मेरी स्मृति-प्रतिक्रियाएं हैं।
344. क्या यह कल्पना की जा सकती है कि लोग कभी भी श्रव्य भाषा न बोलें, किन्तु फिर भी कल्पना में अपने आप से बातें करें?
“यदि लोग सदैव केवल अपने आप से बातें करें तो जो अब वे कभी-कभी करते हैं उसे ही सदैव कर रहे होंगे।” — अतः यह कल्पना करना नितान्त सरल है: करना तो केवल यह है कि हमें कभी-कभी से हमेशा की ओर छलांग लगानी होगी। (जैसे : “पेड़ों की अनन्त कतार वह होती है जो कभी समाप्त नहीं होती।”) किसी के आत्मकथन की हमारी कसौटी उसका संपूर्ण व्यवहार, और जो वह हमें बताता है, होती है। और हम केवल तभी कहते हैं कि कोई आत्मकथन प्रस्तुत करता है जब, शब्दों के साधारण अर्थ में, वह बोल सकता है। और न तो हम तोते के बारे में ऐसा कहते हैं और न ही ग्रामोफोन के बारे में।
345. “जो कभी-कभी घटता है, सदैव घटित हो सकता है।” यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है? यह इस प्रकार की है: यदि “F(a)” का कोई अर्थ होता है तो “(x) . F(x)” का भी अर्थ होता है।
“यदि किसी का किसी खेल में कूट चाल चलना संभव है तो प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक खेल में कूट चाल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चलना संभव हो सकता है।” — अतः यहाँ हम अपनी अभिव्यक्तियों के तर्क का गलत अर्थ समझने, अपने शब्द-प्रयोग का अनुचित विवरण देने को, लालायित हैं।
कभी-कभी आदेश का पालन नहीं होता। किन्तु किसी भी आदेश का कभी भी पालन न होना कैसा होगा? ‘आदेश’ प्रत्यय का उद्देश्य ही लुप्त हो जाएगा।
346. “किन्तु क्या हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि ईश्वर ने किसी तोते को यकायक समझ दे दी हो और वह अपने आप से बातें करने लगा हो?” किन्तु यहाँ यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि ऐसी कल्पना करने के लिए मुझे ईश्वर की कल्पना करनी पड़ी।
347. “किन्तु कम से कम मुझे स्वयं अपनी स्थिति से पता चलता है कि : ‘अपने आप से बातें करना’ क्या होता है। और यदि मुझे वाणी से वंचित कर दिया जाए तो भी मैं अपने आप से बातें कर सकता हूँ।”
यदि मुझे इसका ज्ञान केवल अपनी स्थिति से ही होता है तो मुझे केवल यह ज्ञात होता है कि मैं उसे क्या कहता हूँ, न कि अन्य लोग उसे क्या कहते हैं।
348. “इन मूक-बधिरों ने केवल संकेत-भाषा ही सीखी है, किन्तु इनमें से प्रत्येक अपने आप से मन-ही-मन शाब्दिक भाषा में बातें करता है।” — क्या आप इसे नहीं समझते? — किन्तु मैं कैसे जानता हूँ कि मैं इसे समझता हूँ?! — मैं इस जानकारी (यदि यह जानकारी हो) का क्या कर सकता हूँ? यहाँ तो समझने का संपूर्ण विचार ही संदिग्ध लगता है। मैं नहीं जानता कि मैं कहूँ कि मैं इसे समझता हूँ अथवा नहीं समझता। मैं उत्तर दे सकता हूँ “यह हिन्दी भाषा का वाक्य है; देखने में तो यह बिल्कुल ठीक है — यानी जब तक कि हम इससे कुछ करना न चाहें; इसके अन्य वाक्यों से ऐसे संबंध हैं जिनसे हमारे लिए यह कहना कठिन हो जाता है कि वास्तव में कोई भी नहीं जानता कि इससे हमें क्या पता चलता है; अपितु ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जो दार्शनिक चिन्तन करने से रूखा न हो गया हो, उसे पता चल जाता है कि यहाँ कुछ गड़बड़ है।
349. “किन्तु मान्यता निश्चय ही सार्थक होती है!” — हाँ; साधारण परिस्थितियों में इन शब्दों का और इस चित्र का ऐसा प्रयोग होता है जिससे हम परिचित हैं। — किन्तु यदि हम ऐसी स्थिति की कल्पना करें जिसमें यह प्रयोग नष्ट हो जाता है तो मानो पहली बार हम शब्दों एवं चित्र की निरर्थकता के प्रति सचेत होते हैं।
350. “किन्तु यदि मैं यह मानता हूँ कि कोई वेदनाग्रस्त है तो मैं यही मानता हूँ कि उसे वही हो रहा है जो मुझे बहुधा होता है।” — इससे हम कहीं नहीं पहुँचते। यह तो मेरे ऐसा कहने के समान ही है: “निस्संदेह आप जानते हैं कि ‘यहाँ पाँच बजे हैं’ का क्या अर्थ होता है; अतः आप यह भी जानते हैं कि ‘सूर्य पर पाँच बजे हैं’ का क्या अर्थ होता है। इसका अर्थ केवल यह है कि जब पाँच बजते हैं तो वहाँ पर भी वही समय होता है जो यहाँ होता है।” — तद्रूपता द्वारा व्याख्या यहाँ नहीं चलती। क्योंकि मैं भली-भाँति जानता हूँ कि यहाँ पाँच बजने को और वहाँ पाँच बजने को हम “एक ही बात” कह सकते हैं, किन्तु मैं नहीं जानता कि हमें किन स्थितियों में यह कहना है कि यहाँ और वहाँ एक ही समय है।
बिल्कुल उसी प्रकार यह कहना कोई व्याख्या नहीं होता : उसके वेदनाग्रस्त होने की मान्यता तो बस यही मान्यता है कि उसे वही अनुभव हो रहा है जो मुझे। क्योंकि व्याकरण का वह अंश तो मेरे लिए नितान्त स्पष्ट है; यानी हम कहेंगे कि स्टोव को वही अनुभव हो रहा है जो मुझे, यदि कोई कहे : वह स्टोव वेदनाग्रस्त है, और मैं वेदनाग्रस्त हूँ।
351. फिर भी हम यही कहना चाहते हैं: “वेदना तो वेदना है — चाहे उसे हो अथवा मुझे, और बहरहाल मैं जान ही जाता हूँ कि वह वेदनाग्रस्त है अथवा नहीं।” — मैं सहमत हो सकता हूँ। — और जब आप मुझसे पूछते हैं “तो क्या तुम नहीं जानते कि जब मैं कहता हूँ कि स्टोव वेदनाग्रस्त है तो मेरा क्या अर्थ होता है?” — मैं उत्तर दे सकता हूँ : इन शब्दों द्वारा विभिन्न प्रकारों के प्रतिबिम्ब तो मेरे समक्ष प्रस्तुत होते हैं; किन्तु उनकी कोई और उपयोगिता नहीं होती। और इन शब्दों : “सूर्य पर शाम के ठीक पाँच बजे थे” के संबंध में भी मैं कोई कल्पना कर सकता हूँ — जैसे कि पुरानी दीवार-घड़ी पाँच बजा रही है। — किन्तु इससे भी अधिक उचित उदाहरण पृथ्वी के सन्दर्भ में “ऊपर” एवं “नीचे” शब्दों का प्रयोग होगा। “ऊपर” एवं “नीचे” के अर्थ को हम भली-भांति जानते हैं। मैं भली-भांति जानता हूँ कि मैं ऊपर हूँ; पृथ्वी निस्संदेह मेरे नीचे है! (और इस उदाहरण पर आप मुस्कुराएं नहीं। हम सभी को पाठशाला में ही सिखाया गया था कि ऐसी बातें करना मूर्खतापूर्ण है। किन्तु समस्या को दफनाना उसे सुलझाने से कहीं अधिक सरल होता है।) और इस पर पुनर्विचार करने पर ही यह पता चलता है कि इस स्थिति में “ऊपर” एवं “नीचे” का साधारण ढंग से प्रयोग नहीं किया जा सकता। (उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं कि प्रतिध्रुव पर रहने वाले लोग हमारे “नीचे” रहते हैं, किन्तु उन्हें भी हमारे बारे में ऐसा कहने का अधिकार हमें देना होगा।)
352. यहाँ हमारी समझ हमसे एक विलक्षण खेल खेलती है। अतः हम नियम को उद्धृत करना चाहते हैं और कहना चाहते हैं: “या तो ऐसा प्रतिबिम्ब उसके मन में है अथवा नहीं है; कोई तीसरी संभावना नहीं है।” — दर्शन के अन्य क्षेत्रों में भी हम इसी विचित्र तर्क का सामना करते हैं। “π के दशमलव प्रसरण में या तो ‘7777’ का समूह होता है अथवा नहीं होता — कोई तीसरी संभावना नहीं है। यानी ईश्वर देखता है — किन्तु हमें पता नहीं चलता।” किन्तु इसका क्या अर्थ है? — हम चित्र का प्रयोग करते हैं; एक ऐसी प्रत्यक्ष श्रृंखला का चित्र जिसे एक व्यक्ति तो संपूर्ण रूप से देखता है किन्तु दूसरा व्यक्ति नहीं देखता। मध्याभाव नियम यहाँ कहता है: इसे या तो ऐसा दिखना चाहिए अथवा वैसा। अतः वास्तव में — और यह स्वयंसिद्ध सत्य भी है — यह कुछ भी नहीं कहता, अपितु एक चित्र प्रदान करता है। और अब समस्या होनी चाहिए : क्या वास्तविकता चित्र के अनुकूल है या नहीं? और ऐसा प्रतीत होता है कि यही चित्र निर्धारित करता है कि हमें क्या करना है, किसे खोजना है और कैसे — किन्तु यह ऐसा करता नहीं है, क्योंकि हम यह ही नहीं जानते कि इसका प्रयोग कैसे करना है। यहाँ “कोई तीसरी संभावना नहीं है” अथवा “किन्तु तीसरी संभावना हो ही नहीं सकती!” यह कहना — इस चित्र से अपनी आँखें फेर सकने में हमारी अयोग्यता को अभिव्यक्त करता है: ऐसे चित्र से जिसमें ऐसा प्रतीत होता है मानो उसमें पहले से ही समस्या और उसका समाधान निहित हो, जबकि हर समय हमें यह लगता रहता है कि ऐसा नहीं है।
इसी प्रकार जब कहा जाता है “या तो उसे यह अनुभव है अथवा नहीं है” — तो मुख्यतः हमें ऐसे चित्र का अनुभव होता है जो स्वतः ही अभिव्यक्तियों के अर्थ को सुस्पष्ट कर देता है: “अब आप जानते हैं कि मुद्दा क्या है” — हम कहना चाहेंगे। और बिल्कुल यही बात उसे बता नहीं पाते।
353. यह पूछना कि प्रतिज्ञप्ति को क्या और कैसे सत्यापित किया जा सकता है, तो “आपका क्या अर्थ है?” पूछने का ही एक विशेष ढंग है। इसका उत्तर प्रतिज्ञप्ति के व्याकरण में वृद्धि करता है।
354. कसौटियों एवं लक्षणों के व्याकरण में परिवर्तन से ऐसा प्रतीत होता है मानो लक्षणों के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। उदाहरणार्थ, हम कहते हैं: “अनुभव सिखाता है कि जब बैरोमीटर में गिरावट आती है तो वर्षा होती है, किन्तु वह यह भी सिखाता है कि जब हमें नमी एवं शीतलता की संवेदनाएं होती हैं अथवा अमुक-अमुक दृश्य दिखाई देता है, तो वर्षा होती है।” प्रत्युत्तर में हम कहते हैं कि ये इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष हमें धोखा दे सकता है। किन्तु यहाँ हम इस तथ्य पर विचार करने से चूक जाते हैं कि वर्षा की मिथ्या प्रतीति भी किसी परिभाषा पर आधारित होती है।
355. यहाँ बात यह नहीं है कि इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष से हमें मिथ्याज्ञान होता है, अपितु बात यह है कि हम उनकी भाषा को समझते हैं। (और अन्य भाषाओं के समान यह भाषा भी परिपाटियों पर आधारित है।)
356. हम कहना चाहेंगे : “या तो वर्षा हो रही है अथवा नहीं — यह मैं कैसे जानता हूँ, यह जानकारी मुझ तक कैसे पहुँची है, इसकी तो अलग बात है।” किन्तु तब हमें इस प्रश्न को इस प्रकार पूछना होगा : “वर्षा होने की जानकारी” मैं किसे कहता हूँ? (अथवा क्या इस जानकारी की भी केवल जानकारी ही मेरे पास है?) और इस ‘जानकारी’ को किसी के बारे में जानकारी होने का गुण कौन प्रदान करता है? क्या अभिव्यक्ति का आकार यहाँ हमें भ्रान्त नहीं करता? क्योंकि भला यह कहना भ्रान्ति-रूप अलंकार नहीं है: “मेरी आँखें मुझे बताती हैं कि वहाँ एक कुर्सी है?”
357. हम नहीं कहते कि संभवतः कुत्ता अपने आप से बातें करता है। क्या इसका कारण यह है कि हम उसकी आत्मा से पूर्णतः परिचित हैं? हाँ तो, कोई यह कह सकता है: जब हम किसी जीवित प्राणी के आचरण का अवलोकन करते हैं तो हम उसकी आत्मा का अवलोकन करते हैं। किन्तु क्या मैं अपने बारे में भी यही कहता हूँ कि मैं अपने आप से कुछ कहता हूँ क्योंकि मैं अमुक-अमुक ढंग से आचरण करता हूँ? — मैं अपने आचरण के निरीक्षण से ऐसा नहीं कहता। किन्तु ये मेरे इसी ढंग से आचरण करने के कारण ही सार्थक होता है।― तो यह मेरे तात्पर्य से ही सार्थक नहीं हो जाता?
358. किन्तु क्या हमारा वाक्य को समझना ही उसे अर्थ प्रदान नहीं करता? (और निस्संदेह इससे इस तथ्य का पता चलता है कि हम निरर्थक शब्दों की श्रृंखला को नहीं समझ सकते।) और ‘इसे समझना’ तो मन का विषय है। किन्तु यह तो निजी ‘विषय’ भी है! यह तो अमूर्त विषय है; जिसकी तुलना केवल चेतना से ही की जा सकती है।
यह हास्यास्पद कैसे प्रतीत हो सकता है? यह तो, मानो हमारी भाषा का स्वप्न है।
359. क्या यंत्र विचार कर सकता है? — क्या वह वेदना-ग्रस्त हो सकता है? — अच्छा, क्या मानव देह को ऐसा यंत्र कहा जा सकता है? निश्चित रूप से देह यन्त्र जैसी ही है।
360. किन्तु निश्चय ही यंत्र विचार नहीं कर सकता! — क्या यह आनुभविक कथन है? नहीं। हम केवल मनुष्यों के और उसके सदृश जीवों के बारे में ही कहते हैं कि वे विचार करते हैं। पुत्तलिकाओं के और निस्संदेह आत्माओं के बारे में भी हम ऐसा ही कहते हैं। “विचार करना” शब्द को उपकरण के समान ही समझिये।
361. कुर्सी सोच रही है कि.........
कहाँ? अपने किसी भाग में, अथवा अपनी देह से बाहर; अपने चारों ओर के वायुमण्डल में? अथवा कहीं भी नहीं? किन्तु तब उस कुर्सी के अपने आप कुछ कहने में, और इसके साथ पड़ी कुर्सी के ऐसा ही करने में क्या भेद है? — तब मनुष्य के साथ ऐसा कैसे होता है: वह अपने आप से कहाँ बातें करता है? यह प्रश्न अर्थहीन क्यों प्रतीत होता है; और सिवा यह कहने के कि यह मनुष्य अपने आप से कुछ कह रहा है, देह अथवा देह से बाहर उस स्थान के बारे में जहाँ वह अपने से कुछ कहता है, कुछ भी कहना आवश्यक नहीं है? जबकि ऐसा लगता है कि कुर्सी किस स्थान पर स्वयं से वार्तालाप करती हैं, इस प्रश्न का उत्तर होना चाहिए। — कारण यह है: हम जानना चाहते हैं कि कुर्सी मनुष्य के समान कैसे हो सकती है; उदाहरणार्थ, क्या कुर्सी का सिर उसकी टेक के ऊपर है, इत्यादि।
अपने आप से बात करना कैसा होता है; यहाँ क्या होता है? — मैं इसकी व्याख्या कैसे करूँ? अच्छा, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार आप किसी को “अपने आप से कुछ कहना” इस अभिव्यक्ति का अर्थ सिखाते हैं। और निश्चित रूप से बाल्यकाल में हम उसका अर्थ सीखते हैं। — कोई भी यह नहीं कहेगा कि जिस व्यक्ति ने हमें यह सिखाया है उसने ‘क्या घटित होता है’ यह भी बताया है।
362. वस्तुत : हमें ऐसा प्रतीत होता है, मानो इस स्थिति में शिक्षक ने शिक्षार्थी को — उसे प्रत्यक्ष रूप में बताये बिना इसका अर्थ समझाया; किन्तु अन्त में शिक्षार्थी को प्रशिक्षण द्वारा उस अवस्था में पहुँचाया गया जिसमें वह स्वयं को उचित निदर्शनात्मक परिभाषा प्रदान न कर सका। और हमारा भ्रम यहीं पर है।
363. “किन्तु जब मैं किसी विषय की कल्पना करता हूँ, तो कुछ अवश्य घटित होता है!” हाँ, कुछ होता तो है — और फिर मैं शोर मचाता हूँ। किसलिए? संभवतः, यह बताने के लिए कि क्या घटित हुआ है। — किन्तु बताया कैसे जाता है? कब कहा जाता है हमने कुछ बताया है? — बताने का भाषा-खेल कौन सा होता है?
मैं कहना चाहूँगा : आप इसे अत्यधिक मामूली बात मानते हैं कि कोई किसी को कुछ भी बता सकता है। यानी : वार्तालाप में हम भाषा के माध्यम से संप्रेषण के इतने आदी हो जाते हैं कि हमें प्रतीत होता है मानो संप्रेषण का सारा उद्देश्य यही है: कोई अन्य व्यक्ति मेरे शब्दों के अर्थ — जो कि मानसिक होता है, को ग्रहण करता है: मानो वह उसे अपने मन में ले जाता है। यदि फिर वह उस के साथ कुछ और भी करता है तो वह भाषा के तात्कालिक उद्देश्य का कोई भी भाग नहीं होता।
हम कहना चाहेंगे “बताने से वह जान जाता है कि मैं वेदना-ग्रस्त हूँ, यह उस मानसिक संवृत्ति को उत्पन्न करता है; बताने के लिए दूसरी सभी चीजें गौण हैं।” जहाँ तक ज्ञान की विचित्र संवृत्ति का प्रश्न है — उसके लिए पर्याप्त समय है। मानसिक प्रक्रियाएं तो विचित्र ही होती हैं। (मानो कोई कहे : “घड़ी हमें समय बताती है। समय क्या है, इसका अभी तक निर्धारण नहीं हुआ है। और जहाँ तक यह प्रश्न है कि कोई समय बताता ही क्यों है, यह प्रश्न तो यहाँ उठता ही नहीं है।”)
364. कोई मन-ही-मन में अंकगणित के किसी प्रश्न को हल करता है। मान लीजिए कि वह उसके परिणाम को पुल अथवा यन्त्र बनाने के लिए प्रयोग करता है। — क्या आप यह कहना चाहेंगे कि वह वास्तव में गणन द्वारा इस संख्या पर नहीं पहुँचा? या यह कि यह संख्या तो उसे किसी स्वप्न में ‘सूझी’ है। निस्संदेह, कोई गणन तो हुआ होगा, और ऐसा था भी। क्योंकि वह जानता है कि उसने गणन किया और कैसे; और यह भी कि जो सही उत्तर उसने पाया उसकी ऐसे गणन के बिना व्याख्या नहीं की जा सकती। — किन्तु क्या हो, यदि मैं कहूँ : “उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो उसने गणन किया। और उचित परिणाम की व्याख्या क्यों होनी चाहिए? क्या यह समझ से परे नहीं है कि कोई बिना कोई शब्द बोले, बिना कुछ लिखे गणन कर सका।
कल्पना में गणन करना, कागज पर गणन करने से क्या किसी अर्थ में कम होता है? मन-में-गणन तो होता है। — क्या यह कागज पर गणन के समान है? — मुझे नहीं पता कि इन्हें एक समान कहना चाहिए या नहीं। क्या काली रेखाओं वाला सफेद कागज मानव-शरीर के समान है?
365. क्या अडेलहीड और बिशॅप शतरंज का वास्तविक खेल खेलते हैं? — निस्संदेह। वे खेलने का स्वांग तो नहीं कर रहे — ऐसा करना भी खेल का भाग हो सकता है। — किन्तु उदाहरणार्थ, खेल का कोई आरंभ ही नहीं है! — निस्संदेह आरंभ है; अन्यथा यह शतरंज का खेल ही नहीं होगा। —
366. क्या मन-ही-मन संख्याओं को जोड़ना कागज पर जोड़ लगाने से कम वास्तविक होता है? — संभवतः हम कुछ ऐसा कहना चाहेंगे; किन्तु हम मन-ही-मन यह कह कर इससे उलट भी सोच सकते हैं: कागज, स्याही, इत्यादि तो हमारी इन्द्रिय-प्रदत्त सामग्री की तार्किक संरचनाएं हैं।
“मैंने.... गुणन अपने मन में किया है” — क्या यह संभव है कि मैं ऐसे कथन पर विश्वास न करूँ? — किन्तु क्या वस्तुतः वह कोई गुणन था? यह ‘कोई’ भी गुणन नहीं था, अपितु यह मन में गुणन था। यहीं पर मैं गलती करता हूँ। क्योंकि अब मैं कहना चाहता हूँ : यह कागज पर गुणन के अनुरूप कोई मानसिक प्रक्रिया थी। अत : यह कहना सार्थक होगा : “मन की यह प्रक्रिया, कागज की इस प्रक्रिया के अनुरूप है।” और फिर प्रक्षेपण की ऐसी पद्धति के बारे में बात करना सार्थक होगा जिसके अनुसार संकेत का प्रतिबिम्ब स्वयं संकेत का निरूपण करे।
367. अपनी कल्पना का विवरण देते समय जिस चित्र का विवरण दिया जाता है वही चित्र मानसिक चित्र होता है।
368. मैं किसी को कमरे का विवरण देता हूँ और फिर यह जानने के लिए कि वह उसे समझ गया है, मैं उससे इस विवरण का प्रभाववादी चित्र बनवाता हूँ। — अब जिनको मैंने हरा बताया था उन कुर्सियों को वह, गहरे लाल रंग की बनाता है; जहाँ मैंने “पीला रंग” कहा था, वह नीला रंग रंगता है। उसने कमरे की यही धारणा बनाई। और अब मैं कहता हूँ : “बिल्कुल ठीक! वह कमरा ऐसा ही है।”
369. हम पूछना चाहते हैं: “मन ही मन संख्याओं का जोड़ करना कैसा लगता है — ऐसा करते समय क्या होता है?” — और किसी स्थिति विशेष में यह उत्तर हो सकता है “पहले मैं 17 एवं 18 का योग करता हूँ, फिर उस योगफल में से 39 को घटता हूँ....”। किन्तु यह तो हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं है। जिसे हम संख्याओं का जोड़ना कहते हैं उसकी व्याख्या ऐसे उत्तर से नहीं दी जाती।
370. यह नहीं पूछना चाहिए कि प्रतिबिम्ब क्या है अथवा किसी विषय की कल्पना करते समय क्या घटित होता है, अपितु यह पूछना चाहिए कि “कल्पना” शब्द का प्रयोग कैसे किया जाता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं शब्दों के बारे में ही बात करना चाहता हूँ। क्योंकि कल्पना के स्वभाव के बारे में कोई भी प्रश्न उसी तरह “कल्पना” शब्द के बारे में है जिस तरह कल्पना संबंधी मेरा प्रश्न है। और मैं केवल इतना ही कह रहा हूँ कि इस प्रश्न का निर्णय — न तो कल्पना करने वाले व्यक्ति के लिए, न ही किसी अन्य व्यक्ति के लिए — इंगित करके नहीं लिया जा सकता, और न ही यह निर्णय किसी भी प्रक्रिया के विवरण द्वारा लिया जा सकता है। पहला प्रश्न शब्द की व्याख्या भी पूछता है; किन्तु इससे अनुचित उत्तर की अपेक्षा भी पैदा होती है।
371. सार, व्याकरण द्वारा अभिव्यक्त होता है।
372. विचार कीजिए : “भाषा की मूलभूत आवश्यकता यादृच्छिक नियम ही हैं। इसी को मूलभूत आवश्यकता के जरिये प्रतिज्ञप्ति में परिणित किया जा सकता है।”
373. व्याकरण बताता है कि कोई वस्तु कैसी है। (धर्मशास्त्र के समान व्याकरण)
374. यहाँ सबसे बड़ी कठिनाई तो विषय को किसी ऐसे रूप में निरूपित नहीं करने की है जिसमें हम, मानो कि कुछ कर ही न सकते हों। मानो वास्तव में कोई ऐसा विषय तो है जिससे मैं उसके विवरण की व्युत्पत्ति करता हूँ, किन्तु मैं उसे किसी के समक्ष प्रस्तुत करने में असमर्थ होता हूँ। — और अधिकाधिक मैं यही कह सकता हूँ कि हमें इस चित्र के प्रयोग का प्रलोभन स्वीकार कर लेना चाहिए, किन्तु फिर इस बात की खोज करनी चाहिए कि इस चित्र का उपयोग कैसे होता है।
375. किसी को मन ही मन पढ़ने का प्रशिक्षण कैसे दिया जाता है? कैसे पता चलता है कि वह ऐसा कर सकता है? वह स्वयं ही कैसे जान पाता है कि वह वही कर रहा है जिसकी उससे अपेक्षा है?
376. जब मैं अपने आप क, ख, ग बोलता हूँ और कोई अन्य व्यक्ति भी मन ही मन चुपचाप उन्हें दोहराता है तो मेरी और उस व्यक्ति की क्रियाओं में समानता निर्धारित करने की कसौटी क्या है? यह पता चल सकता है कि मेरे और उसके कंठ में एक समान हलचल हो रही है। (और ऐसा ही होता है जब हम दोनों एक ही विषय के बारे में सोचते हैं, एक ही कामना करते हैं, इत्यादि-इत्यादि।) किन्तु फिर क्या हमने इन शब्दों : “अपने आप को अमुक बात कहना” का प्रयोग किसी व्यक्ति द्वारा कंठ अथवा मस्तिष्क की किसी प्रक्रिया को इंगित करने से सीखा था? क्या यह भी पूर्णत : संभव नहीं है कि क की ध्वनि का मेरा और उसका प्रतिबिम्ब अलग-अलग शारीरिक-क्रियाओं से संबद्ध हो? प्रश्न तो यह है: प्रतिबिम्बों की तुलना हम कैसे करते हैं?
377. संभवत : तर्कशास्त्री सोचेगा : सादृश्य तो सादृश्य ही है — तादात्म्य कैसे स्थापित किया जाता है यह तो मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। (ऊँचा तो ऊँचा ही है — यह मनोवैज्ञानिक विषय है कि हम कभी तो ऊँचा देखते हैं, और कभी ऊँचा सुनते हैं।)
दो प्रतिबिम्ब के सादृश्य की कौन सी कसौटी है? — किसी प्रतिबिम्ब के रक्ताभ होने की कौन सी कसौटी है? जब वह किसी अन्य व्यक्ति का प्रतिबिम्ब होता है तो मेरे लिए कसौटी यह है: जो वह कहता है और करता है। जब वह मेरा प्रतिबिम्ब होता तो मेरे लिए कोई भी कसौटी नहीं होती। और जो “लाल” के साथ होता है वही “सदृश” के साथ भी होता है।
378. “इससे पूर्व कि मैं यह निर्णय करूँ कि मेरे दो प्रतिबिम्ब एक दूसरे के सदृश हैं, मुझे उन्हें सदृश रूप में पहचानना होगा।” और जब ऐसा हो चुका होता है तो मुझे कैसे पता चलेगा कि जिसे मैंने पहचाना है, “समान” शब्द वही बतलाता है? ऐसा तभी होगा जब मैं अपने अभिज्ञान को किसी अन्य ढंग से अभिव्यक्त कर सकता होऊँ, और यदि किसी अन्य व्यक्ति के लिए मुझे यह सिखाना संभव हो कि यहाँ पर “सदृश” शब्द उचित है।
क्योंकि यदि शब्द-प्रयोग के औचित्य की मुझे आवश्यकता है तो यह आवश्यकता किसी अन्य व्यक्ति को भी होगी।
379. पहले मैं उसे यह के रूप में पहचानता हूँ : और मुझे स्मरण होता है कि इसे क्या कहते हैं। — विचार कीजिए : किन स्थितियों में ऐसा कहना उचित है?
380. मैं कैसे पहचानता हूँ कि यह लाल है? — “मैं देखता हूँ कि यह यह है; और फिर मैं जानता हूँ कि इसे यह कहा जाता है।” यह? — क्या?! इस प्रश्न का कैसा उत्तर सार्थक होगा?
(आप निजी निदर्शनात्मक परिभाषा की ओर अग्रसर होते जाते हैं।) दिखाई देने वाले विषयों से शब्दों की ओर निजी संक्रमण के लिए मैं किसी भी नियम का प्रयोग नहीं कर सकता। वास्तव में नियम तो यहाँ अधर में लटके रहेंगे; क्योंकि उनकी प्रयोग-विधि का अभाव है।
381. मैं कैसे जानता हूँ कि यह रंग लाल है? — कोई ऐसा उत्तर देना होगा : “मैंने हिन्दी सीखी है”।
382. इन शब्दों को सुनकर मैं यह प्रतिबिम्ब बनाता हूँ। मैं इसका औचित्य कैसे सिद्ध कर सकता हूँ।
क्या किसी ने मुझे नीले रंग का प्रतिबिम्ब दिखाया है और मुझे बताया है कि यह नीले रंग का प्रतिबिम्ब है?
“यह प्रतिबिम्ब” इन शब्दों का क्या अर्थ है? — किसी प्रतिबिम्ब को इंगित कैसे किया जाता है? उसी प्रतिबिम्ब को दो बार कैसे इंगित किया जाता है?
383. हम किसी संवृत्ति (उदाहरणार्थ किसी विचार) का विश्लेषण नहीं कर रहे, अपितु प्रत्यय (उदाहरणार्थ, सोच) का और इसीलिए शब्द के प्रयोग का विश्लेषण कर रहे हैं। अतः ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हम नामरूपवाद में फँसे हों। नामरूपवादी सभी शब्दों का नामों के सदृश निर्वचन करने की भूल करते हैं, और इसीलिए उनके प्रयोग का यथार्थ विवरण नहीं देते अपितु यूँ कहिए कि, ऐसे विवरण का केवल कागजी प्रारूप ही देते हैं।
384. आपने ‘वेदना’ प्रत्यय को तब सीखा था जब आपने भाषा सीखी थी।
385. अपने आप से पूछें: क्या किसी के द्वारा कभी भी बिना लिखे या बोले संख्याओं को मन ही मन जोड़ने की कल्पना की जा सकती है? — “इसे सीखने” का अर्थ होगा: इसको करने के योग्य होना। प्रश्न तो यही होगा कि इसको करने के योग्य होने की कसौटी क्या होगी? — किन्तु क्या यह भी संभव है कि कोई जनजाति केवल मन ही मन संख्याओं का जोड़ करना जानती हो, और किसी भी अन्य प्रकार के जोड़ के तरीके को नहीं जानती हो? यहाँ अपने आप से पूछना होगा: “यह तरीका कैसा होगा?” — और इसीलिए सीमान्त स्थिति के रूप में इसका वर्णन करना होगा। और तब यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि क्या अभी भी यहाँ हम ‘मन में गणन करना’ प्रत्यय का प्रयोग करने के इच्छुक हैं — अथवा क्या ऐसी परिस्थितियों में इसका उद्देश्य समाप्त हो गया है, क्योंकि यह संवृत्ति किसी अन्य प्रतिमान की ओर झुक रही है।
386. “किन्तु आपमें आत्मविश्वास की इतनी कमी क्यों है? साधारणतया आप भली भाँति जानते हैं कि ‘गणन’ करना क्या होता है। अतः यदि आप कहते हैं कि आपने कल्पना में गिनती की है, तो आपने गिनती की होगी। यदि आपने गिनती नहीं की होती तो आप ऐसा नहीं कहते। इसी प्रकार यदि आप कहते हैं कि आप कल्पना में किसी लाल वस्तु को देखते हैं, तो वह लाल ही होगी। आप जानते हैं कि अन्यत्र ‘लाल’ कैसा होता है। — और फिर: आप हमेशा तो अन्य लोगों से सहमति पर निर्भर नहीं रहते; क्योंकि बहुधा आप बताते हैं कि आपने कुछ ऐसा देखा है जिसे अन्य किसी ने भी नहीं देखा।” — किन्तु मुझमें आत्मविश्वास है, मैं बेहिचक कहता हूँ कि मैंने मन-ही-मन इन संख्याओं का योग किया है, और यह भी बेहिचक कहता हूँ कि मैंने इस रंग की कल्पना की है। कठिनाई यह नहीं है कि मुझे किसी लाल वस्तु की कल्पना करने के बारे में शक है। किन्तु कठिनाई तो यह है: हम कल्पित रंग की ओर आसानी से इंगित कर सकते हैं और उसका विवरण भी दे सकते हैं। और यह भी कि प्रतिबिम्ब का यथार्थ रूप में परिवर्तन कोई भी कठिनाई प्रस्तुत नहीं करता। तो क्या वे इतने सदृश हैं कि हम उन्हें गड्डमड्ड कर दें? — किन्तु मैं मनुष्य को चित्र से सीधे भी पहचान सकता हूँ। — हाँ, किन्तु क्या मैं पूछ सकता हूँ: “इस रंग का उचित प्रतिबिम्ब कैसा प्रतीत होता है?” अथवा “यह किस प्रकार का विषय है?”; क्या मैं इसे सीख सकता हूँ? (मैं उसके साक्ष्य को स्वीकार नहीं करता क्योंकि वह साक्ष्य नहीं है। इससे मुझे केवल यही पता चलता है कि वह क्या कहना चाहता है।)
387. उस विषय का गहन पक्ष तो आसानी से हमसे छूट जाता है।
388. “मुझे यहाँ कोई बैंगनी वस्तु दिखाई नहीं देती, किन्तु यदि आप मुझे रंगों का डिब्बा दें तो मैं आपको इसे दिखा सकता हूँ।” कैसे जाना जा सकता है कि कोई इसे दिखा सकता है यदि...., दूसरे शब्दों में यह कि कोई इसे देखकर पहचान सकता है।
अपने प्रतिबिम्ब से मैं कैसे जानता हूँ कि रंग वास्तव में कैसा प्रतीत होता है?
मैं कैसे जानता हूँ कि मैं कुछ कर पाऊँगा? यानी अब मैं उस स्थिति में हूँ जिसमें उस कार्य को कर सकूँ?
389. “प्रतिबिम्ब को किसी चित्र की अपेक्षा अपने विषय से अधिक सदृश होना चाहिए। क्योंकि चित्र को मैं उसके विषय से चाहे जितना भी मिलता-जुलता बनाऊँ, वह सदैव किसी अन्य विषय का चित्र भी हो सकता है। किन्तु प्रतिबिम्ब के लिए यह अपरिहार्य है कि वह इसका प्रतिबिम्ब है और किसी अन्य का नहीं।” अतः प्रतिबिम्ब को अति-सादृश्य के रूप में मान्यता दी जा सकती है।
390. क्या किसी शिला में चेतना की कल्पना की जा सकती है? और यदि कोई ऐसा कर सके तो — इससे केवल यह सिद्ध क्यों नहीं होना चाहिए कि ऐसे प्रतिबिम्ब-व्यापार में हमारी कोई रुचि नहीं है?
391. मैं संभवतः यह कल्पना भी कर सकता हूँ (यद्यपि ऐसा करना सरल नहीं है) कि सड़क पर दिखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को घोर वेदना हो रही है, किन्तु उसे वह चतुराई से छिपा रहा है। और यह महत्त्वपूर्ण है कि मुझे यहाँ चतुराई से छिपाने की कल्पना करनी पड़ रही है। यह भी कि मैं अपने आप से सरलतापूर्वक नहीं कहता: “अच्छा उसकी आत्मा वेदना ग्रस्त है: किन्तु इससे उसके शरीर को क्या लेना देना?” अथवा “बहरहाल इसे उसके शरीर में दिखाई देने की आवश्यकता नहीं है!” — और यदि मैं इसकी कल्पना करता हूँ तो मैं क्या करता हूँ; मैं अपने आप से क्या कहता हूँ; मैं लोगों को कैसे समझता हूँ? संभवतः मैं किसी एक को देखूँ और सोचूँ: “जब कोई ऐसी वेदना से ग्रस्त हो, तो उसके लिए हँसना कठिन होता होगा”, और ऐसी और भी बहुत सी बातें। मानो मैं कोई नाटक खेल रहा हूँ, और इसमें ऐसा अभिनय करता हूँ जैसे कि दूसरे लोग वेदना-ग्रस्त हों। जब मैं ऐसा करता हूँ तो, उदाहरणार्थ, कहा जाता है कि मैं, ... कल्पना कर रहा हूँ।
392. “जब मैं उसके वेदना ग्रस्त होने की कल्पना करता तो मेरे अन्तर्मन में वास्तव में... होता है”। तब कोई अन्य व्यक्ति कहता है: “मेरा विश्वास है कि मैं बिना ‘...’ सोचे इसकी कल्पना कर सकता हूँ” (“मेरा विश्वास है कि मैं शब्दों के बिना सोच सकता हूँ।”) इससे कोई परिणाम नहीं निकलता। यह विश्लेषण प्राकृतिक विज्ञान एवं व्याकरण के बीच डोलता रहता है।
393. “जब मैं कल्पना करता हूँ कि वह हँसने वाला व्यक्ति वास्तव में वेदना-ग्रस्त है तो मैं किसी वेदना-व्यवहार की कल्पना नहीं करता क्योंकि मैं उसके ठीक विपरीत देखता हूँ। तो मैं किसकी कल्पना करता हूँ?” — मैंने पहले ही कह दिया है कि किसकी। और अनिवार्यतः मैं स्वयं अपने वेदना-ग्रस्त होने की कल्पना नहीं करता। — “किन्तु फिर इसकी कल्पना करने की प्रक्रिया क्या होगी?” — “मैं उसके वेदना-ग्रस्त होने की कल्पना कर सकता हूँ” अथवा “मैं कल्पना करता हूँ कि...” अथवा “कल्पना कीजिए कि...” शब्दों का प्रयोग हम (दर्शन से बाहर) कहाँ करते हैं?
उदाहरणार्थ, नाटक में भाग लेने वाले व्यक्ति को हम कहते हैं: “यहाँ आपको यह कल्पना करनी होगी कि यह मनुष्य वेदना-ग्रस्त है किन्तु उसे छिपा रहा है” — और अब हम उसे कोई निर्देश नहीं देते, उसे यह नहीं बताते कि उसे अब वास्तव में क्या करना है। इसी कारण प्रस्तावित विश्लेषण भी युक्तियुक्त नहीं है। — अब हम ऐसी स्थिति की कल्पना करने वाले अभिनेता का निरीक्षण करते हैं।
394. किन परिस्थितियों में हम पूछेंगे: “इसकी कल्पना करते समय आपके अन्तर्मन में वास्तव में क्या हुआ? — और हमें किस प्रकार के उत्तर की अपेक्षा है?
395. हमारे अन्वीक्षण में कल्पनाशीलता की भूमिका के बारे में स्पष्टता का अभाव है। यानी प्रतिज्ञप्ति के सार्थक होने के आश्वासन की सीमा के बारे में।
396. प्रतिज्ञप्ति को समझने के लिए उससे सम्बन्धित किसी विषय की कल्पना करना उतना ही महत्त्वहीन है जितना उससे कोई चित्र बनाना।
397. “कल्पनाशीलता” के बजाय यहाँ यह भी कह सकते हैं: निरूपण की विशेष पद्धति द्वारा निरूपण-योग्यता। और ऐसा निरूपण वस्तुतः वाक्य के और आगे प्रयोग के ढंग को सरलता से इंगित कर सकता है। दूसरी ओर चित्र हम पर हावी हो सकता है, और ऐसा होने पर वह हमारे किसी काम का नहीं रहता।
398. “किन्तु जब मैं किसी विषय की कल्पना करता हूँ, अथवा वस्तुतः विषयों को देखता भी हूँ, तो मेरे पास कुछ होता है जो मेरे पड़ोसी के पास नहीं होता।” — मैं आपकी बात समझता हूँ। आप अपने आस-पास देख कर कहना चाहते हैं: “कुछ भी हो यह तो केवल मेरे पास ही है।” — इन शब्दों का क्या प्रयोजन है? इनका कोई प्रयोजन नहीं है। — क्या इसमें यह नहीं जोड़ा जा सकता: जिस के बारे में आप बात कर रहे हैं और कह रहे हैं कि वह केवल आपके पास है, किस अर्थ में वह आपके पास है? क्या आपका उस पर कोई अधिकार है? आप तो उसे देख भी नहीं सकते। क्या आपको वस्तुतः यह नहीं कहना चाहिए कि यह तो किसी के पास भी नहीं है? और यह भी स्पष्ट है: यदि तार्किक रूप से कहें कि कोई वस्तु किसी भी दूसरे व्यक्ति के पास नहीं है तो यह कहना कि वह आपके पास है अर्थहीन है।
किन्तु आप किस वस्तु का उल्लेख कर रहे हैं? यह सच है कि मैंने कहा था कि मन-ही-मन मैं जानता हूँ कि आपका क्या तात्पर्य है। किन्तु उसका अर्थ था कि मैं जानता हूँ कि इस विषय को धारण करने, देखने, अवलोकन और इंगित करने से इसके तात्पर्य का विचार कैसे किया जाता है। मैं जानता हूँ कि इस स्थिति में — अन्य स्थितियों में अपने सामने और अपने चारों ओर कैसे देखा जाता है। मेरे विचार में हम कह सकते हैं: आप ‘दृश्यमान कक्ष’ की बात कर रहे हैं (यदि, उदाहरणार्थ, आप कक्ष में बैठे हैं)। ‘दृश्यमान कक्ष’ का कोई स्वामी नहीं होता। उस पर मेरा कोई स्वामित्व नहीं है, न ही मैं उसके चारों ओर घूम सकता हूँ, न ही उसका अवलोकन कर सकता हूँ और न ही उसे इंगित कर सकता हूँ। चूंकि यह किसी अन्य का नहीं हो सकता इसलिए यह मेरा भी नहीं होता। दूसरे शब्दों में, यह मेरा नहीं है क्योंकि मैं इसके बारे में अभिव्यक्ति के उसी आकार का प्रयोग करना चाहता हूँ जिसका प्रयोग मैं उस भौतिक कक्ष के बारे में करता हूँ जिसमें मैं बैठा हूँ। भौतिक कक्ष के विवरण में किसी स्वामी के उल्लेख की आवश्यकता नहीं होती, वस्तुतः यह आवश्यक नहीं कि कोई उसका स्वामी हो। किन्तु दृश्यमान कक्ष का तो कोई स्वामी ही नहीं हो सकता। “क्योंकि” — कहा जा सकता है — “इसके बाहर या अन्दर कोई स्वामी नहीं है।”
किसी ऐसे भूदृश्य की कल्पना कीजिए जिसमें एक मकान हो। कोई पूछता है “यह किसका मकान है?” — इसका यह उत्तर हो सकता है “मकान के सामने के बेंच पर बैठे किसान का है।” किन्तु फिर भी वह अपने घर में प्रवेश नहीं कर सकता।
399. यह भी कहा जा सकता है: दृश्यमान कक्ष के स्वामी को निस्संदेह उसी प्रकार का होना होगा जैसा कि वह कक्ष है; किन्तु वह उसके भीतर नहीं पाया जाता, और उसके बाहर तो कुछ है ही नहीं।
400. ‘दृश्यमान कक्ष’ तो किसी खोज के समान प्रतीत होता था, किन्तु खोजकर्ता ने जो वास्तव में पाया वह था बोलने का एक नया ढंग, एक नयी उपमा; इसे नयी संवेदना भी कहा जा सकता है।
401. आपके पास एक नयी संरचना है और आप उसकी व्याख्या किसी नए विषय को देखने के समान करते हैं। अपनी वैयाकरणिक गतिविधि की आप ऐसी अर्द्ध-भौतिक संवृत्ति (जिसका आप निरीक्षण कर रहे हैं) के रूप में व्याख्या करते हैं। (उदाहरणार्थ, इस प्रश्न पर विचार करें: “क्या इन्द्रिय-संवेद्य वे पदार्थ हैं जिनसे विश्व की रचना हुई है?”)
किन्तु मेरे इस कथन पर कि आपने ‘वैयाकरणिक’ गतिविधि की है, आपत्ति उठाई जा सकती है। आपने तो मुख्यतः विषयों के अवलोकन का एक नया ढंग खोजा है, मानो कि आपने चित्रण के नए ढंग का आविष्कार किया हो; या फिर किसी नये छन्द का अथवा गायन के नए प्रकार का।
402. “यह सत्य है कि मैं कहता हूँ ‘अब मुझे अमुक प्रतिबिम्ब की अनुभूति हो रही है’ किन्तु ‘मुझे अनुभूति हो रही है’ शब्द तो केवल अन्य व्यक्ति के लिए संकेत मात्र हैं; प्रतिबिम्ब का विवरण तो काल्पनिक संसार का संपूर्ण विवरण है।” — आपका अर्थ है: “मुझे अनुभूति हो रही है” शब्द “मैं.... कहता!” के समान हैं। आप यह कहना चाहते हैं कि इसे तो भिन्न रूप से अभिव्यक्त किया जाना चाहिए। संभवत: केवल अपने हाथ का संकेत बनाकर और फिर उसका विवरण देकर। — इस स्थिति के समान, जब हम साधारण भाषा की अभिव्यक्तियों को (जो अपना कार्य ही कर रही होती हैं) अस्वीकार करते हैं, तो हमारे मन में ऐसा चित्र होता है जो हमारे बोलने के साधारण ढंग के प्रतिकूल है। जबकि हम यह कहना चाहते हैं कि हमारे बोलने का ढंग तथ्यों का वास्तविक विवरण नहीं देता। मानो “वह वेदना-ग्रस्त है” यह प्रतिज्ञप्ति उस व्यक्ति के वेदना-ग्रस्त न होने से भी किसी अन्य ढंग से असत्य हो सकती हो। अभिव्यक्ति का आकार तब भी कुछ असत्य कह रहा हो, जब कोई अपूर्ण प्रतिज्ञप्ति कोई सत्य बात प्रतिपादित कर रही हो।
ऐसा प्रतीत होता है कि यही वे विवाद हैं जो आदर्शवादियों, आत्मवादियों और यथार्थवादियों के मध्य हैं। अभिव्यक्ति के सामान्य आकार पर एक पक्ष ऐसे आक्षेप करता है मानो वे किसी कथन पर आक्षेप कर रहे हों; अन्य उसका बचाव ऐसे करते हैं मानो वे ऐसे तथ्यों का उल्लेख कर रहे हों जो प्रत्येक विवेकशील मनुष्य को मान्य हों।
403. यदि “वेदना” शब्द को मैं केवल उसके लिए सुरक्षित रखूँ जिसे अब तक मैं “मेरी वेदना” कहता आया हूँ, और जिसे अन्य व्यक्ति “लु. वि. की वेदना” कहते हैं तो अन्य लोगों के साथ मैं तब तक कोई अन्याय नहीं करता जब तक कि उन्हें ऐसा संकेतक दिया जाता है जो अन्य प्रसंगों में “वेदना” शब्द की किसी प्रकार क्षतिपूर्ति करता हो। अन्य लोग अभी भी दया के पात्र रहेंगे और उनका डॉक्टरों द्वारा उपचार इत्यादि किया जाएगा। निस्संदेह इस प्रकार की अभिव्यक्ति पर यह कहना कोई आपत्ति उठाना नहीं है: “किन्तु देखिए तो, अन्य लोगों के पास भी वही है जो आपके पास है!”
किन्तु इस नए प्रकार के विवरण से मुझे क्या लाभ होगा? कुछ भी नहीं। किन्तु, बहरहाल, अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते समय आत्मवादी भी कोई अव्यवहारिक लाभ नहीं उठाना चाहता!
404. “जब मैं कहता हूँ कि ‘मैं वेदना-ग्रस्त हूँ’ तो मैं किसी ऐसे व्यक्ति को इंगित नहीं करता जो वेदना-ग्रस्त है, क्योंकि किसी विशिष्ट अर्थ में मुझे यह पता ही नहीं होता कि कौन वेदना-ग्रस्त है।” और इसका औचित्य सिद्ध किया जा सकता है। क्योंकि मुख्य बात तो यह है: मैंने यह नहीं कहा कि अमुक व्यक्ति वेदना-ग्रस्त था अपितु यह कहा “मैं.... हूँ।” ऐसा कहते हुए मैं किसी व्यक्ति का नाम नहीं लेता। जैसे वेदना से कराहते समय मैं किसी का नाम नहीं लेता। जबकि कराहने से किसी अन्य व्यक्ति को यह पता चलता है कि कौन वेदना-ग्रस्त है।
इसे जानने का क्या अर्थ है कि कौन वेदना-ग्रस्त है? उदाहरणार्थ, इसका अर्थ यह जानना है कि इस कमरे में कौन सा व्यक्ति वेदना-ग्रस्त है: उदाहरणार्थ, वह व्यक्ति वेदना-ग्रस्त है जो वहाँ बैठा है, अथवा वह जो उस कोने में खड़ा है, अथवा वह लम्बा व्यक्ति जिसके बाल सफेद हैं, इत्यादि। — मैं क्या कहना चाहता हूँ? इस तथ्य को कि वैयक्तिक ‘तद्रूपता’ की नाना प्रकार की कसौटियां हैं।
उनमें से कौन सी मेरे इस कथन को निर्धारित करती है कि ‘मैं’ वेदना-ग्रस्त हूँ? कोई भी नहीं।
405. “किन्तु फिर भी जब आप कहते हैं मैं ‘वेदना-ग्रस्त हूँ’ तो आप अन्य लोगों का ध्यान किसी व्यक्ति विशेष की ओर आकर्षित करना चाहते हैं” — उत्तर हो सकता है: नहीं, मैं उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहता हूँ।
406. “किन्तु निस्संदेह आप ‘मैं.... हूँ’ शब्दों से अपने और अन्य व्यक्तियों में भेद करना चाहते हैं।” — क्या प्रत्येक स्थिति में ऐसा कहा जा सकता है? तब भी जब मैं मात्र कराहता हूँ? और यदि मैं अपने और अन्य लोगों के बीच ‘भेद करना चाहूं’ — तो क्या मैं लु. वि. व्यक्ति और न. न व्यक्ति में भेद करना चाहता हूँ?
407. इसकी कल्पना करना सम्भव है कि कोई जोर-जोर से कराह रहा हो और कह रहा हो: “कोई वेदना-ग्रस्त है — मैं नहीं जानता कि कौन है!” — और फिर हम उसकी सहायता को दौड़ें जो कराह रहा हो
408. “किन्तु आपको संशय नहीं होता कि कौन वेदना-ग्रस्त है — आप या कोई अन्य व्यक्ति वेदना ग्रस्त है!”, “मैं नहीं जानता कि क्या मैं अथवा कोई अन्य व्यक्ति वेदना-ग्रस्त है”, यह प्रतिज्ञप्ति तो तार्किक रचना है और इसका एक घटक है: “मैं नहीं जानता कि मैं वेदना-ग्रस्त हूँ अथवा नहीं” — और यह महत्त्वपूर्ण प्रतिज्ञप्ति नहीं है।
409. कल्पना कीजिए कि बहुत से लोग घेरा बनाकर खड़े हैं, और मैं भी उनमें से एक हूँ। हमें बिना बताये हममें से कभी एक को, कभी किसी दूसरे को बिजली तारों से जोड़ दिया जाता है। मैं अन्य लोगों के चेहरे देखता हूँ और यह जानने का प्रयत्न करता हूँ कि हममें से अभी किसे झटका लगा है। — फिर मैं कहता हूँ: “अब मैं जानता हूँ कि किसे क्योंकि इस बार स्वयं मुझे झटका लगा है”। इसी अर्थ में मैं यह भी कह सकता हूँ: “अब मुझे पता है कि किसे झटके लग रहे हैं; मुझे ही तो।” यह बातचीत का विचित्र ढंग होगा। — किन्तु यदि मैं पूर्वमान्यता बना कि किसी अन्य व्यक्ति को करंट लगने पर मुझे झटकों की अनुभूति होगी तो “अब मुझे पता है कि किसे...” अभिव्यक्ति बिल्कुल अनुपयुक्त होगी। यह इस खेल से सम्बन्धित नहीं है।
410. “मैं” किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, न ही “यहाँ” किसी स्थान का; और “यह” तो नाम ही नहीं है। किन्तु वे नामों से सम्बन्धित हैं। उनके द्वारा नामों की व्याख्या दी जाती है। यह भी सच है कि इन शब्दों का प्रयोग न करना भौतिक विज्ञान की विशेषता है।
411. विचार कीजिए कि निम्नलिखित प्रश्नों को कैसे प्रयुक्त किया जा सकता है, और कैसे सुलझाया जा सकता है:
(1) “क्या ये किताबें मेरी किताबें हैं?”
(2) “क्या यह पैर मेरा पैर है?”
(3) “क्या यह देह मेरी देह है?”
(4) “क्या यह संवेदना मेरी संवेदना है?”
इनमें से प्रत्येक प्रश्न के व्यावहारिक (गैर-दार्शनिक) उपयोग हैं।
(2) ऐसी स्थितियों के बारे में सोचिए जिनमें मेरे पैर को संज्ञाहीन कर दिया जाता है, या फिर उसे लकवा मार जाता है। किन्हीं परिस्थितियों में तो इस पैर की वेदनानुभूति ही इस प्रश्न का समाधान कर सकती है।
(3) यहाँ दर्पण-प्रतिबिम्ब का सन्दर्भ हो सकता है। बहरहाल, किन्हीं परिस्थितियों में देह को छू कर यह प्रश्न पूछा जा सकता है। अन्य परिस्थितियों में इसका अर्थ होगा: “क्या मेरी देह ऐसी लगती है?”
(4) ‘यह’ से कौन सी संवेदना का तात्पर्य है? यानी: यहाँ संकेतवाचक सर्वनाम का प्रयोग कैसे किया जा रहा है? निश्चय ही पहले उदाहरण से भिन्न रूप में! यहाँ मतिभ्रम का कारण यह कल्पना है कि संवेदना पर ध्यान केंद्रित करने से ही वह इंगित हो जाती है।
412. चेतना एवं मस्तिष्क प्रक्रिया के बीच अलंघ्य खाई की अनुभूति: यह कैसे होता है कि हमारे सामान्य जीवन की समीक्षा में यह नहीं आती? गुण-भेद का यह विचार कुछ ऐसी बेसुधी में होता है, — जो तार्किक कौशल प्रदर्शित करते समय होती है। (ऐसी ही बेसुधी का अनुभव हमें सेट थ्योरी के किसी प्रमेय का संधारण करते समय होता है।) वर्तमान स्थिति में यह अनुभूति कब होती है? उदाहरणार्थ, यह तब होती है जब, मैं एक विशिष्ट ढंग से अपने ध्यान को चेतना की ओर निर्दिष्ट करता हूँ, और स्तब्ध होकर अपने आप से कहता है: तो यह मस्तिष्क की प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न होती है! — मानो इसने मेरे माथे को जकड़ रखा हो। — किन्तु “अपने ध्यान को अपनी चेतना की ओर निर्दिष्ट करने” के उल्लेख का क्या अर्थ है? संभाव्य घटनाओं में यह निश्चित रूप से सर्वाधिक विचित्र घटना है! वह तो एक विशेष प्रकार का दृष्टिपात था जिसे मैंने ऐसा करना कहा था। मैंने अपने सामने टकटकी बाँध कर देखा — किन्तु किसी विशेष बिन्दु अथवा विषय को नहीं। मेरी आँखें पूर्णतः खुली थीं, भृकुटि तनी नहीं थी (जैसी कि वे बहुधा होती हैं जब किसी विशेष विषय में मेरी रुचि होती है)। अपलक इस दृष्टिपात से पूर्व मेरी कोई रुचि नहीं थी। मेरा दृष्टिपात रिक्त था; अथवा फिर, किसी व्यक्ति के नभालोक की प्रशंसा करने एवं उस आलोक को पीने के समान।
स्मरण रहे कि जिस प्रतिज्ञप्ति को मैंने विरोधाभास के समान उच्चारित किया था (यह मस्तिष्क की प्रक्रिया द्वारा उत्पादित है!) उसमें कुछ भी विरोधाभासात्मक नहीं है। मैं ऐसा किसी ऐसे प्रयोग के दौरान कह सकता था जिसका प्रयोजन यह सिद्ध करना हो कि मुझे दिखाई पड़ने वाले प्रकाश का प्रभाव मस्तिष्क के किसी भाग के आलोकित होने से उत्पन्न होता है। — किन्तु वाक्य को मैंने ऐसे परिवेश में उच्चारित नहीं किया था जिसमें इसका साधारण एवं गैर-विरोधाभासात्मक अर्थ हो। और मेरा ध्यान ऐसा नहीं था जो किसी प्रयोग करने के अनुकूल हो। (यदि वह ऐसा होता तो मेरे दृष्टिपात में उद्देश्य होता, न कि रिक्तता।)
413. यह आत्मालोचन की स्थिति है, ऐसी स्थिति जिसमें विलियम जेम्स को यह सूझा कि ‘आत्मा’ ‘मुख्यतः सिर और सिर एवं गले के बीच होने वाली विशिष्ट क्रियाओं से बनी है’। और जेम्स के आत्मालोचन ने न तो “आत्मा” शब्द के अर्थ को (जहाँ तक इसका अर्थ होता है “व्यक्ति”, “मनुष्य”, “वह स्वयं”, “मैं स्वयं” जैसा कुछ) प्रदर्शित किया, न ही किसी ऐसे विषय का विश्लेषण प्रस्तुत किया, बल्कि उसने दार्शनिक के ध्यान की उस अवस्था को दिखाया जब वह अपने आप को “आत्मा” शब्द कहता है और इसके अर्थ का विश्लेषण करने का प्रयत्न करता है। (और इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।)
414. आप समझते हैं कि आप कपड़ा तो बुन ही रहे हैं: क्योंकि आप खड्डी पर बैठे हैं — चाहे वह खाली ही है — और बुनने की क्रियाएं कर रहे हैं।
415. वास्तव में तो हम मनुष्यों के प्राकृतिक इतिहास पर टिप्पणियाँ कर रहे हैं; बहरहाल, हम जिज्ञासाएं नहीं कर रहे, अपितु ऐसे प्रेक्षण कर रहे हैं जिन पर किसी संशय नहीं किया, और क्योंकि ऐसे प्रेक्षण तो सदैव हमारे सामने ही रहते हैं इसीलिए वे हमारी टिप्पणियों से बचे रह गए।
416. “मनुष्य इस बात पर सहमत होते हैं कि वे देखते, सुनते और अनुभव इत्यादि करते हैं। (यद्यपि कुछ मनुष्य अन्धे होते हैं, और कुछ बहरे)। अतः वे स्वयं अपने चेतन होने के साक्षी होते हैं।” — किन्तु यह कितना विचित्र है! जब मैं कहता हूँ, “मुझ में चेतना है”, तो मैं किसे बताता हूँ? अपने आप यह कहने का क्या उद्देश्य है, और कोई अन्य व्यक्ति मुझे कैसे समझ सकता है? — पर, “मैं देखता हूँ”, “मैं सुनता हूँ”, “मैं सचेत हूँ” इन अभिव्यक्तियों जैसी अभिव्यक्तियों का प्रयोग तो होता है। मैं किसी चिकित्सक को कहता हूँ “अब मुझे फिर से इस कान से सुनाई दे रहा है”, अथवा जब कोई मुझे मूर्छित समझता है तो मैं उसे कहता हूँ “मैं फिर से सचेत हो गया हूँ”, इत्यादि।
417. तो क्या मैं अपना निरीक्षण करता हूँ और समझता हूँ कि मैं देख रहा हूँ अथवा सचेत हूँ? और प्रेक्षण के बारे में बात ही क्यों करें? क्यों न केवल यह कहें “मुझे बोध है कि मैं सचेत हूँ?” किन्तु यहाँ “मुझे बोध है” शब्द क्या यह नहीं दिखाते कि मैं अपनी चेतना पर ध्यान केन्द्रित कर रहा हूँ? — जब कि साधारणतः ऐसा नहीं होता। — यदि ऐसा है तो “मुझे बोध है कि मैं सचेत हूँ” वाक्य यह नहीं बताता कि मैं हूँ, अपितु यह बताता है कि मेरा ध्यान अमुक विषय की ओर केन्द्रित है।
किन्तु क्या कोई विशेष अनुभव होते समय मैं नहीं कहता “मैं फिर सचेत हो गया हूँ”? — कौन सा अनुभव? किन परिस्थितियों में हम ऐसा कहते हैं?
418. क्या मेरा सचेत होना आनुभविक है?
किन्तु क्या यह नहीं कहा जाता कि मनुष्य में चेतना है, किन्तु किसी भी वृत्त में अथवा शिला में नहीं? — क्या होता यदि ऐसा न होता? — क्या सभी मनुष्य अचेतन होते? — नहीं; इस शब्द के साधारण अर्थ में तो नहीं। किन्तु, उदाहरणार्थ, मुझ में ऐसी चेतना नहीं होती — जैसी चेतना अब मुझमें है।
419. किन परिस्थितियों में मैं यह कहता हूँ कि जनजाति का एक मुखिया होता है? और मुखिया में निश्चित रूप से चेतना होनी चाहिए। निःसंदेह मुखिया चेतना-रहित नहीं हो सकता!
420. किन्तु क्या मैं यह कल्पना नहीं कर सकता कि मेरे आस-पास के लोग तो कठपुतले हैं, उनमें चेतना नहीं है, यद्यपि वे सामान्य व्यवहार करते हैं? — यदि मैं इसकी कल्पना अब — अपने कमरे में अकेले बैठे हुए — करूँ तो मैं पथराई दृष्टि (अचेतन अवस्था के समान) वाले लोगों को अपना कार्य करते हुए देखता हूँ — सम्भवतः यह विचार कुछ अजीब है। पर इस विचार को अपने दैनंदिन व्यवहार में लागू करने का प्रयत्न करें। अपने सामान्य संसर्ग में इस विचार को हाथ से न जाने दें! उदाहरणार्थ, अपने से कहें: “वहाँ बैठे बच्चे तो कठपुतले मात्र हैं; उनकी समग्र जीवन्तता तो मशीनी ही है।” और यह कहते हुए आप या तो इन शब्दों को नितान्त अर्थहीन होते पाएंगे; अथवा आपके भीतर कोई अजीब अनुभूति अथवा कुछ वैसा ही उत्पन्न होगा।
जीवित मनुष्य को कठपुतले की भाँति देखना तो एक आकृति को सीमान्त स्थिति अथवा किसी अन्य आकृति के परिवर्त के समान देखने जैसा है; उदाहरणार्थ, खिड़की की आड़ी-तिरछी ग्रिल को स्वस्तिक के समान देखना।
421. हमें यह विरोधाभासी प्रतीत होता है कि एक ही रपट में हम दैहिक अवस्थाओं के विवरण और चेतना के विवरण की खिचड़ी बना देते हैं। “उसे घोर यंत्रणा हुई और वह बेचैनी से करवटें बदलता रहा।” यह बिल्कुल स्वाभाविक है; तो यह हमें विरोधाभासी क्यों प्रतीत होता है? क्योंकि हम कहना चाहते हैं कि यह वाक्य अनुभव एवं अनुभवातीत दोनों से एकसाथ सम्बन्धित है। — किन्तु क्या आप चिन्तित होंगे यदि मैं कहूँ: “इन तीनों स्तम्भों से भवन को स्थिरता मिलती है”? क्या ‘तीन’ और ‘स्थिरता’ अनुभवगम्य हैं? — वाक्य को उपकरण के समान और वाक्यार्थ को उसके उपयोग के समान समझें।
422. जब मैं यह सोचता हूँ कि मनुष्यों में आत्माएं होती हैं तो मैं किसमें विश्वास करता हूँ? मैं किसमें विश्वास करता हूँ जब मैं सोचता हूँ कि इस पदार्थ में दो कार्बन-वलय हैं? दोनों ही स्थितियों में हमारे समक्ष एक चित्र है किन्तु उसका अर्थ तो कहीं दूर पृष्ठभूमि में छिपा है; यानी चित्र के प्रयोग का सर्वेक्षण सरल नहीं है।
423. निस्संदेह ये सब बातें आपके अन्दर घटित होती हैं। — और मैं तो केवल अपनी प्रयुक्त अभिव्यक्तियों को समझने का ही आग्रह कर रहा हूँ। — चित्र तो है। और मैं कहीं भी उसकी वैधता पर शंका नहीं कर रहा। — मैं भी तो चित्र के प्रयोग को समझना चाहता हूँ।
424. चित्र तो है; और मैं उसकी उपयुक्तता पर शंका नहीं करता। किन्तु इसका प्रयोग क्या है? आत्मा में, अथवा दृष्टिहीन मनुष्य की बुद्धि में, अन्धकार के समान दृष्टिहीनता के चित्र पर विचार कीजिए।
425. असंख्य स्थितियों में हम चित्र को खोजने का यत्न करते हैं और जब वह हमें मिल जाता है तो उसका प्रयोग, मानो, स्वयं ही अकस्मात् हमें मिल जाता है। इस स्थिति में हमारे पास पहले से ही एक ऐसा चित्र है जो हर समय हम पर हावी होता है, — किन्तु वह चित्र हमें यहीं से आरम्भ होने वाली कठिनाई से बाहर निकालने में सहायक नहीं होता।
उदाहरणार्थ, यदि मैं पूछूं: “इस यंत्र के इस डिब्बे में जाने की कल्पना मैं कैसे कर सकता हूँ?” — सम्भवतः न्यूनीकृत आरेखन मुझे इसका उत्तर दे सके। तब मुझे बताया जा सकता है: “देखो, यह इस तरह जाता है”; अथवा सम्भवतः यह कह कर भी: “आप चकित क्यों होते हैं? अब देखो, यह ऐसे जाता है; ऐसे ही वहाँ भी जाता है”। निस्संदेह, बाद का कथन इससे अधिक कोई व्याख्या नहीं देता; यह तो मुझे प्रदत्त चित्र के प्रयोग का आमंत्रण ही देता है।
426. ऐसा जादुई चित्र बनाया गया है जो असंदिग्ध रूप से अपने अर्थ को निर्धारित करता प्रतीत होता है। चित्र द्वारा सुझाये गये प्रयोग की तुलना में वास्तविक प्रयोग कुछ अस्पष्ट सा प्रतीत होता है। यहाँ पुनः हमें वही प्राप्त होता है जो सेट-थ्योरी में मिलता है: ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे द्वारा प्रयुक्त अभिव्यक्ति का आकार ऐसे देवता के लिए बनाया गया है जिसे वह सब ज्ञात है जो हमें ज्ञात नहीं हो सकता; वह उन अनन्त श्रृंखलाओं में से प्रत्येक का सम्पूर्ण अवलोकन करता है और मानव चेतना का भी अवलोकन करता है। अभिव्यक्ति के ये आकार हमारे लिए, निस्संदेह, दैवी अस्त्रों के समान हैं जिन्हें हम धारण तो कर सकते हैं किन्तु उनसे कुछ कर नहीं सकते, क्योंकि हमारे पास वह प्रभावी शक्ति नहीं है जो इन अस्त्रों को अर्थ और उद्देश्य प्रदान करती है।
अभिव्यक्तियों के वास्तविक प्रयोग में हम घुमावदार रास्ते ले लेते हैं, हम पगडंडियों पर चले जाते हैं। हमें अपने समक्ष सीधा सपाट राजमार्ग दिखाई देता है किन्तु वस्तुतः हम उसका प्रयोग नहीं कर सकते क्योंकि वह स्थायी रूप से बंद है।
427. “जब मैं उससे बातचीत कर रहा था तो मुझे यह ज्ञात नहीं था कि उसके मन में क्या चल रहा था।” ऐसा कहते समय हम मस्तिष्क-प्रक्रियाओं के बारे में नहीं सोचते, अपितु विचार-प्रक्रियाओं के बारे में सोचते हैं। चित्र को गम्भीरता से लेना चाहिए। हम वास्तव में उस व्यक्ति के मन में झाँकना चाहेंगे। और फिर भी हमारा तात्पर्य वही होता है जो किसी अन्य स्थान पर यह कहते हुए होता है: हम जानना चाहेंगे कि वह क्या सोच रहा है। मैं कहना चाहता हूँ: हमारे पास यह स्पष्ट चित्र है — और उसका ऐसा प्रयोग है, जो किसी मानसिक स्थिति को अभिव्यक्त करने वाले चित्र का व्याघाती है।
428. “विचार विचित्र विषय है”, किन्तु विचार करते समय वह हमें विचित्र नहीं लगता। सोचते समय विचार हमें रहस्यपूर्ण नहीं लगता, अपितु यह तभी ऐसा लगता है जब सिंहावलोकन करते समय हम कहते हैं: “यह कैसे सम्भव था?” विचार स्वयं अपने विषय से कैसे सम्बन्धित हो सकता है? हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो इसके द्वारा हमने वास्तविकता को पकड़ लिया है।
429. विचार और वास्तविकता का ऐक्य और सामंजस्य इस में निहित है: यदि मैं झूठमूठ यह कहता हूँ कि कोई वस्तु लाल है, तो इसी कारण वह लाल नहीं होती। और जब मैं “यह लाल नहीं है” इस वाक्य में किसी व्यक्ति को “लाल” शब्द की व्याख्या देना चाहता हूँ, तो मैं ऐसा किसी लाल वस्तु को इंगित करके करता हूँ।
430. “इस वस्तु के पास मापनी रखो इससे यह नहीं पता चलता कि वह वस्तु अमुक लम्बाई वाली है। वस्तुतः मापनी को वस्तु के समीप रखने की क्रिया तो — मैं कहना चाहूँगा अपने आप में बेजान है, और इससे कुछ भी ऐसा पता नहीं चलता जिसका पता विचार से चलता है।” — यह तो ऐसा ही है मानो हमने यह कल्पना की हो कि जीवित मनुष्य में महत्त्वपूर्ण बात तो उसका बाह्य आकार है। फिर हमने लकड़ी के खंड को वैसा आकार दिया और उस निष्क्रिय टुकड़े में जीवित प्राणी जैसा कोई भी साम्य न देख कर झेंप गए।
431. “आदेश देने में और उसके पालन करने में एक खाई होती है। उसे समझने की क्रिया से पाटना होता है।”
“समझने की क्रिया में ही यह निहित होता है कि हमें यह करना है। ‘क्यों’ का आदेश तो ध्वनियों, स्याही के धब्बों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। —”
432. हर संकेत अपने आप में मृत प्रतीत होता है। उसे जीवन कैसे मिलता है? — वह प्रयोग में जीवंत होता है। क्या वहाँ उसमें जीवन फूँका जाता है? — अथवा क्या प्रयोग ही उसका जीवन है?
433. जब हम कोई आदेश देते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि उस आदेश के मूलभूत लक्ष्य को तो अव्यक्त ही रहना चाहिए था क्योंकि आदेश देने और उसके पालन करने में सदैव एक खाई होती है। मान लीजिए कि मैं किसी व्यक्ति से किसी विशेष क्रिया की अपेक्षा करता हूँ, उदाहरणार्थ यह कि वह अपना हाथ उठाए। क्रिया को ठीक से समझने के लिए मैं वही क्रिया करके दिखाता हूँ। यह चित्र हमारे यह पूछने तक सुस्पष्ट प्रतीत होता है: वह कैसे जानता है कि उसे वही क्रिया करनी है? — उसे कैसे पता चलता है कि उसे मेरे द्वारा दिये गये संकेतों का, चाहे वे जो भी हों, कैसे प्रयोग करना है? — सम्भवतः अब मैं आदेश को अपने से उसकी ओर इंगित करने वाले संकेतों और उत्साहित करने वाली भंगिमाओं जैसे अतिरिक्त संकेतों द्वारा पुष्ट करने का प्रयत्न करूँगा। अब आदेश लड़खड़ाता प्रतीत होता है।
मानो संकेत हममें बोध उत्पन्न करने का निष्फल प्रयत्न कर रहे हों। — किन्तु यदि अब हमें उनका बोध हो जाता है तो ऐसे कौन से लक्षण हैं जिनसे हमें उनका बोध होता है?
434. भंगिमा — हम कहना चाहेंगे कि — निरूपण करने का प्रयत्न करती है, किन्तु ऐसा नहीं कर सकती।
435. यदि यह पूछा जाए: “वाक्य निरूपण कैसे कर पाते हैं?” — तो इसका उत्तर हो सकता है: “क्या आप नहीं जानते? निस्संदेह, आप इसे वाक्यों को प्रयोग करते समय देखते हैं” क्योंकि कुछ भी तो छिपा नहीं है।
वाक्य ऐसा कैसे करते हैं? — क्या आप नहीं जानते? क्योंकि कुछ भी तो छिपा नहीं है।
किन्तु इस उत्तर: “किन्तु आप जानते हैं कि वाक्य ऐसा कैसे करते हैं, क्योंकि कुछ भी तो छिपा नहीं है” के बाद कोई प्रत्युत्तर दे सकता है “हाँ, किन्तु यह अत्यन्त शीघ्रता से हो जाता और मैं इसे इस प्रकार देखना चाहता हूँ मानो यह दृष्टि के सामने पूर्णत: खुला पड़ा हो।”
436. यहाँ हम दर्शन के उस छोर पर आसानी से पहुँच जाते हैं जहाँ हमें यह प्रतीत होता है कि इस कार्य की कठिनाई तो दुर्बोध संवृत्तियों तथा अपने क्षणिक अनुभवों अथवा इससे मिलते-जुलते विषयों के विवरण देने की हमारी बाध्यता में निहित है। वहाँ हम अपनी साधारण भाषा को अत्यन्त स्थूल पाते हैं, और हमें ऐसा लगता है मानो हम अपनी दैनंदिन संवृत्तियों के बजाय उन संवृत्तियों से निपटते हों जो “सरलता से हमसे बच निकलती हैं, और, अपने आवागमन के फलस्वरूप सहज ही उन अन्य संवृत्तियों को जन्म देती हैं।” (ऑगस्टीन: वे अत्यधिक उजागर और स्पष्ट होने पर भी पूरी तरह छिपी रहती हैं और इसीलिए उनको खोजने पर वे नई प्रतीत होती हैं।)
437. ऐसा लगता है कि अभिलाषा को पहले से ही यह विदित होता है कि उसे क्या पूर्ण करेगा अथवा वह कैसे पूरी होगी? कोई प्रतिज्ञप्ति, कोई विचार उसे तब भी सत्य बनाती है — जब वह वस्तु होती ही नहीं! अविद्यमान वस्तु का यह निर्धारण कब और कैसे हुआ? यह मनमानी मांग? (“तार्किक आवश्यकता की कठोरता।”)
438. “मात्र योजना तो अपूर्ण होती है।” (अभिलाषा के, प्रत्याशा के, संदेह इत्यादि के, समान।)
इससे मेरा तात्पर्य है: प्रत्याशा अपूर्ण होती है, क्योंकि वह किसी विषय की प्रत्याशा होती है; कोई विश्वास या मत अपूर्ण होता है, क्योंकि यह इस बात का मत है कि कोई विषय है, कुछ वास्तविक है, विश्वास करने की प्रक्रिया से बाह्य कुछ है।
439. अभिलाषाओं को प्रत्याशाओं को, विश्वासों इत्यादि को किस अर्थ में “अपूर्ण” कहा जा सकता है। अपूर्णता का हमारा आदि प्रारूप कौन सा है? क्या वह रिक्त स्थान है? और क्या उसे अपूर्ण कहा जाएगा? क्या यह भी अलंकार नहीं होगा? — क्या जिसे हम अपूर्णता कहते हैं वह संवेदना नहीं होती — उदाहरणार्थ, भूख?
अभिव्यक्तियों की विशिष्ट प्रणाली में हम किसी विषय का विवरण “पूर्ण” और “अपूर्ण” शब्दों द्वारा दे सकते हैं। उदाहरणार्थ, यदि हम यह नियम बना दें कि हम खाली सिलिंडर को “अपूर्ण सिलिंडर” कहेंगे तो उसे भरने वाले ठोस सिलिंडर को “उसकी पूर्णता” कहा जाएगा।
440. “मैं सेब खाना चाहूँगा” कहने का यह अर्थ नहीं होता: मैं समझता हूँ कि सेब मेरे अपूर्णता-बोध को मिटा देगा। यह प्रतिज्ञप्ति अभिलाषा की अभिव्यक्ति न होकर अपूर्णता की अभिव्यक्ति है।
441. स्वभाव और अपनी शिक्षा-दीक्षा के कारण हम विशेष परिस्थितियों में अभिलाषाओं की सहज अभिव्यक्ति के आदी होते हैं। (निस्संदेह अभिलाषा ऐसी ‘परिस्थिति’ नहीं होती।) क्या मैं अपनी अभिलाषा पूर्ण होने से पूर्व यह जानता हूँ कि मैं किस की अभिलाषा कर रहा हूँ यह प्रश्न इस खेल में उठ ही नहीं सकता। और इस तथ्य का, कि कोई घटना मुझे अभिलाषा करने से रोकती है, अर्थ यह नहीं है कि वह उसे पूर्ण करती है। यदि मेरी अभिलाषा पूर्ण भी हो जाये, तो भी सम्भवतः मैं संतुष्ट नहीं होता।
दूसरी ओर “अभिलाषा” शब्द का इस प्रकार भी प्रयोग किया जाता है: “मैं स्वयं नहीं जानता कि मुझे किसकी अभिलाषा है।” (“क्योंकि स्वयं अभिलाषाएं ही हमारे और हमारी अभीप्सित वस्तुओं के बीच परदा होती हैं।”)
मान लीजिए यह पूछा जाए “क्या प्राप्ति से पूर्व ही मैं जानता हूँ कि मुझे किस की अभिलाषा है?” हाँ यदि मैंने बोलना सीखा है, तो मैं अवश्य ही जानता हूँ।
442. कोई मुझे बन्दूक से धमकाते हुए कहता है: “मुझे जानकारी दो”। गोली चला दी जाती है। — अच्छा तो यही आपकी अपेक्षा थी; तो क्या वह जानकारी किसी प्रकार आपको अपेक्षित थी। अथवा, क्या आपकी अपेक्षा और घटित घटना के बीच किसी अन्य प्रकार का सम्बन्ध है; और यह कि वह शोर आपको अपेक्षित न था, परन्तु अपेक्षापूर्ति के समय वह अकस्मात् आ टपका? — किन्तु नहीं, यदि शोर न होता तो मेरी अपेक्षा की पूर्ति भी न होती; शोर ने उसकी पूर्ति की; यह शोर मेरे अपेक्षित अतिथि के साथ बिन बुलाए आने वाले व्यक्ति के समान मेरी अपेक्षा-पूर्ति का साथी नहीं है। क्या अनपेक्षित घटना आकस्मिक दुर्घटना ही थी? किन्तु आकस्मिक क्या था? क्या गोली चलने की मुझे पहले ही अपेक्षा थी? तो, आकस्मिक क्या था? क्योंकि क्या मुझे गोली चलने की पूरी अपेक्षा नहीं थी?
“धमाका मेरी अपेक्षा जितना तीव्र नहीं था।” — “तो क्या आपकी अपेक्षा में कोई अधिक तीव्र धमाका था?”
443. “आपके सामने पड़ी वस्तु का लाल रंग तो आपकी कल्पना के लाल रंग जैसा (वही वस्तु) नहीं है; तो आप कैसे कह सकते हैं कि यह वही है जिसकी आपने कल्पना की थी?” — किन्तु “यहाँ लाल धब्बा है”, और “यहाँ लाल धब्बा नहीं है” प्रतिज्ञप्तियां भी क्या ऐसी ही नहीं हैं? दोनों में ही “लाल” शब्द आता है; अतः यह शब्द किसी लाल वस्तु की उपस्थिति नहीं दिखाता।
444. “मुझे अपेक्षा है कि वह आ रहा है” इस वाक्य में किसी को ऐसा आभास हो सकता है कि “वह आ रहा है” इन शब्दों का प्रयोग, मात्र “वह आ रहा है” इस कथन में इन शब्दों के प्रयोग से भिन्न है। तब मैं कैसे कह सकता था कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो गई? उदाहरणार्थ, यदि मैं “वह” और “आ रहा है” शब्दों की व्याख्या, निदर्शनात्मक परिभाषाओं द्वारा देना चाहूँ तो दोनों वाक्यों में इन शब्दों के लिए एक समान परिभाषाएं होंगी।
किन्तु अब पूछा जा सकता है: उसका आना कैसे होता है? — द्वार खुलता है, कोई भीतर आता है, इत्यादि। — उसके आने की मेरी अपेक्षा कैसी होती है? — मैं कमरे में इधर-उधर चहलकदमी करता हूँ, कभी-कभी घड़ी देखता हूँ, इत्यादि। — किन्तु एक घटना-समूह और दूसरे घटना-समूह में कोई भी समानता नहीं है! तो उनका विवरण देने के लिए एक समान शब्दों का प्रयोग कैसे किया जा सकता है? — किन्तु सम्भवतः चहलकदमी करते हुए मैं कहता हूँ: “मुझे आशा है कि वह आएगा” — अब कहीं पर समानता है। किन्तु किस प्रकार की?!
445. अपेक्षा और उसकी पूर्ति भाषा में ही होती है।
446. यह कहना अटपटा होगा: “किसी प्रक्रिया के होने अथवा न होने में भेद होता है” अथवा “लाल धब्बे के होने और न होने में भेद होता है। किन्तु भाषा इस भेद से सारग्रहण करती है क्योंकि वह लाल धब्बे का उल्लेख करती है, चाहे वह हो अथवा न हो।”
447. ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी प्रतिज्ञप्ति का निषेध करने के लिए उस प्रतिज्ञप्ति को एक विशेष अर्थ में सत्य बनाना होगा, ताकि उसका निषेध किया जा सके।
(निषेधात्मक प्रतिज्ञप्ति के अभिकथन में वह प्रतिज्ञप्ति निहित होती है जिसका निषेध किया गया है, किन्तु उस प्रतिज्ञप्ति का अभिकथन निहित नहीं होता।)
448. “यदि मैं कहता हूँ कि पिछली रात मुझे स्वप्न नहीं आया, तो भी मुझे यह ज्ञात होना चाहिए कि स्वप्न आना क्या होता है; यानी ‘मुझे स्वप्न आया’ प्रतिज्ञप्ति इस वास्तविक स्थिति में कही जाने पर असत्य हो सकती है, किन्तु उसे अर्थहीन नहीं होनी चाहिए।” — तो क्या इसका अर्थ है कि आप को कुछ तो अनुभूति हुई, मानो वह स्वप्न का संकेत हो जिसने आपको उस स्थान के बारे में सचेत किया हो जहाँ स्वप्न हो सकता था?
पुनः — यदि मैं कहूँ “अपनी बाँह में मुझे कोई वेदना नहीं है” तो क्या इसका अर्थ है कि मुझमें वेदना के संवेदन की प्रतिच्छाया होती है, जिससे यह पता चलता है कि वेदना कहाँ हो सकती है।
मेरी वर्तमान वेदनारहित स्थिति में वेदना की सम्भावना किस अर्थ में निहित होती है?
यदि कोई कहता है: “‘वेदना’ शब्द को सार्थक होने के लिए यह अनिवार्य है कि जब वेदना हो रही हो, तो उसे उसी रूप में पहचाना जाए” — तो हमारा उत्तर हो सकता है: “वेदना होने पर वेदना को पहचानना इससे अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है कि वेदना के अभाव में वेदना को पहचाना जाए।”
449. “किन्तु क्या मुझे यह विदित नहीं होना चाहिए कि मेरा वेदना-ग्रस्त होना कैसा होगा?” — हम इस विचार से बच निकलने में असफल हैं कि वाक्य को प्रयोग करने में, प्रत्येक शब्द के स्थान पर कुछ कल्पना करनी होती है।
हम यह नहीं समझते कि हम शब्दों को नाप-तोल कर प्रयोग करते हैं, उनसे काम लेते हैं, और कालांतर में उनको कभी तो एक चित्र में और कभी किसी अन्य चित्र में अनूदित करते हैं। — यह तो ऐसा ही है मानो कोई समझे कि मुझे दी जाने वाली गाय से संबन्धित लिखित आदेश को अर्थपूर्ण होने के लिए ऐसे आदेश के साथ सदैव गाय की प्रतिकृति को संलग्न किया जाना चाहिए।
450. ‘कोई कैसा लगता है’ को जानना: प्रतिकृति का स्मरण कर सकना — अपितु यह भी: उसकी भावाभिव्यंजना की नकल उतार सकना। नकल उतार सकने के लिए क्या उसकी कल्पना करना अनिवार्य है? और क्या उसकी नकल उतारना उसकी कल्पना करने जैसा ही नहीं है?
451. मान लीजिए कि मैं किसी को आदेश देता हूँ “यहाँ लाल वृत्त की कल्पना करो” — और फिर यह कहता हूँ: आदेश को समझने का अर्थ है यह जानना कि उसका पालन कैसे किया जाता है — अथवा यह भी: यह कल्पना कर सकने की योग्यता होना कि ऐसा कैसे होता है कि...?
452. मैं कहना चाहता हूँ: “यदि कोई अपेक्षा की मानसिक प्रक्रिया को देख पाता तो यह अनिवार्यतः यह देख पाता कि किस की अपेक्षा की जा रही है।” — किन्तु स्थिति ऐसी ही है: यदि आप अपेक्षा की भावाभिव्यंजना का अवलोकन करें तो आप जिस की अपेक्षा है उसको समझ जाते हैं। और किस अन्य ढंग से, किस अन्य अर्थ में, उसे समझना सम्भव है?
453. जिसे भी मेरी अपेक्षा का प्रत्यक्ष बोध होता है उसे अनिवार्यतः जिसकी अपेक्षा की जा रही है उसका भी स्पष्ट प्रत्यक्ष बोध होता है। यानी, उसे प्रत्यक्ष प्रक्रिया से उसका अनुमान नहीं लगाना पड़ता। — किन्तु किसी को अपेक्षा का प्रत्यक्ष बोध होता है ऐसा कहने का कोई अर्थ नहीं होता। यदि वास्तव में इसका अर्थ यह न होता कि उसे अपेक्षा की भावाभिव्यंजना का प्रत्यक्ष बोध होता है। अपेक्षा करने वाले किसी व्यक्ति के बारे में यह कहने के बदले कि वह अपेक्षा कर रहा है यह कहना कि वह अपनी अपेक्षा का प्रत्यक्ष बोध कर रहा है, अभिव्यक्ति का मूर्खतापूर्ण विरूपण करना होगा।
454. ‘... में पहले से ही सब कुछ है’। यह तीर कैसे इंगित कर पाता है? क्या इसमें स्वयं अपने अतिरिक्त कुछ और नहीं होता? — “नहीं, कागज पर कोरी रेखा नहीं; केवल कोई मानसिक विषय, कोई अर्थ ही ऐसा कर सकता है?” — यह सत्य एवं असत्य दोनों है। जीवित प्राणी के प्रयोग में ही तीर इंगित कर सकता है।
यह इंगित करना आत्मा द्वारा अनुष्ठित तंत्र-मंत्र नहीं है।
455. हम कहना चाहते हैं: “जब हमारा कोई तात्पर्य होता है तो वह किसी के समीप जाने जैसा होता है, न कि वह (किसी प्रकार का) कोई जड़ चित्र होता है।” हम अपने अभिप्रेत विषय तक जाते हैं।
456. “जब हमारा तात्पर्य कोई विषय होता है तो उसका अर्थ स्वयं विषय ही है”, अतः हम स्वयं ही गतिशील होते हैं। हम आगे दौड़ रहे हैं, और इसीलिए अपने आपको आगे दौड़ते हुए नहीं देख सकते। निश्चय ही नहीं।
457. हाँ: अर्थ लगाना किसी के समीप जाने के समान है।
458. “आदेश अपने आपको पालन करने का आदेश देता है।” अतः इसे अपने पालन किए जाने से पहले ही इसका ज्ञान होता है? — किन्तु वह तो वैयाकरणिक प्रतिज्ञप्ति है और इसका अर्थ है: यदि कोई आदेश देता है “अमुक-अमुक करो” तो “अमुक-अमुक करना” आदेश का पालन कहलाता है।
459. हम कहते हैं “आदेश इसका — आदेश देता है”, और हम उसे करते हैं, अपितु यह भी “आदेश इसका आदेश देता है: मुझे... करना है।” इसका हम कभी तो प्रतिज्ञप्ति में, कभी प्रदर्शन में, और कभी कर्म में रूपान्तरित करते हैं।
460. किसी आदेश-पूर्ति के कर्म का औचित्य क्या इस प्रकार का हो सकता है: “आपने कहा ‘मुझे पीला फूल दो’, इससे मुझे संतोष की अनुभूति हुई और इसीलिए मैं इसे लाया हूँ”? क्या हमें यह उत्तर नहीं देना होगा: “किन्तु, मैंने तुम्हें ऐसा फूल लाने के लिए तो नहीं कहा था जिससे तुम्हें मेरे कथन के बाद उस प्रकार की अनुभूति हो!”?
461. आदेश अपने पालन का किस अर्थ में पूर्वानुमान करता है? केवल उसका आदेश देकर जिसका बाद में पालन किया जाता है? — किन्तु हमें कहना पड़ेगा “जिसका बाद में पालन किया जाता है, या फिर नहीं किया जाता।” और यह तो कुछ भी कहना नहीं हुआ।
“किन्तु यदि मेरी अभिलाषा भवितव्य का निर्धारण न भी करे, तो भी कहा जा सकता है कि वह तथ्य के विषय का निर्धारण करती है, चाहे वह तथ्य अभिलाषा की पूर्ति करता हो अथवा नहीं।” हम — मानो — स्तंभित होते हैं और किसी के भविष्य को जानने से नहीं, अपितु उसके द्वारा (उचित, अथवा अनुचित) भविष्यवाणी कर सकने से।
मानो मात्र भविष्यवाणी चाहे वह सत्य हो अथवा असत्य, भविष्य का पूर्वाभास कराती हो; जबकि वह भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं जानती और कुछ जान भी नहीं सकती।
462. जब वह मौजूद नहीं होता तो मैं उसे खोज तो सकता हूँ किन्तु उसे फाँसी नहीं दे सकता।
कोई कह सकता है: “यदि मैं उसे खोज रहा हूँ तो उसे वहीं कहीं होना चाहिए।” — फिर तो उसे वहीं कहीं तब भी होना चाहिए जब मैं उसे खोज नहीं पाता, और तब भी जब उसका अस्तित्व ही नहीं होता।
463. “आप उसे खोज रहे थे? आप को यह पता भी नहीं चल सकता कि वह वहाँ है भी या नहीं।” — किन्तु यह समस्या तभी उत्पन्न होती है जब हम गणित सम्बन्धी खोज कर रहे हों। उदाहरणार्थ, पूछा जा सकता है कि किसी कोण के त्रिभाजन की प्रत्याशा करना कैसे सम्भव था?
464. मेरा उद्देश्य है: आपको छद्म निरर्थकता से वास्तविक निरर्थकता की ओर जाना सिखाना।
465. “अपेक्षा की बनावट ऐसी होती है कि घटना को या तो उसके अनुकूल होना होता है अथवा उसके अनुकूल नहीं होना होता।”
मान लीजिए कि अब आप पूछते हैं: तो क्या अपेक्षा तथ्यों की इस या उस प्रकार की परिभाषा देती है — यानी, क्या वह अपेक्षा की पूर्ति करने वाली अथवा न करने वाली घटना को भी परिभाषित करेगी? उत्तर होगा: “हाँ, यदि अपेक्षा की अभिव्यक्ति अनिश्चित न हो; उदाहरणार्थ, उसमें विभिन्न संभावनाओं के वियोजन हों।”
466. मनुष्य किसलिए विचार करता है? इसका क्या लाभ है? बॉयलर को वह गणना के अनुसार क्यों बनाता है, और उसकी चादरों की मोटाई को भाग्य के सहारे क्यों नहीं छोड़ देता? यह तो आनुभविक तथ्य ही है कि यदि बॉयलरों को गणना के अनुसार बनाया जाए तो प्रायः वे नहीं फटते। किन्तु जैसे दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है, उसी तरह बॉयलर बनाने के लिए हमेशा गणना की ही जायेगी। — किन्तु क्योंकि कारणों में हमारी रुचि नहीं है, — हम कहेंगे: वास्तव में मनुष्य विचार करते हैं: उदाहरणार्थ, जब वे बॉयलर बनाते हैं तो ऐसा ही करते हैं। — तो, क्या इस प्रकार निर्मित बॉयलर फट नहीं सकता? हाँ, क्यों नहीं।
467. तो क्या मनुष्य के विचार करने का कारण यह है कि उसने अनुभव किया है कि विचार करने से लाभ होता है? — क्योंकि वह मानता है कि विचार करना लाभदायक है?
(क्या उसका अपने बच्चों को पालने का कारण यह है कि उसने अनुभव किया है कि इससे उसे लाभ होता है?)
468. कैसे पता चलेगा कि वह विचार क्यों करता है?
469. और फिर भी यह कहा जा सकता है कि विचार करना लाभकारी पाया गया है। जबसे हम बॉयलरों की चादरों की मोटाई तुक्के से निर्धारित करने की बजाय गणना द्वारा निर्धारित करने लगे हैं तबसे बॉयलरों के फटने की संख्या में कमी आई है, अथवा उस समय से जबसे एक इंजीनियर की गणना की जाँच दूसरे इंजीनियर द्वारा की जानी शुरू की गई है।
470. अतः हम कभी-कभी इसलिए भी विचार करते हैं क्योंकि ऐसा करना लाभप्रद पाया गया है।
471. बहुधा हम “क्यों?” से आरम्भ होने वाले प्रश्नों को दरकिनार करने पर ही महत्त्वपूर्ण तथ्यों से अवगत होते हैं; और फिर हमारी खोज के बीच यही तथ्य हमें उन प्रश्नों के उत्तर की ओर ले जाते हैं।
472. प्रकृति की एकरूपता में अपने विश्वास के स्वरूप को सम्भवतः हम उन स्थितियों में अत्यधिक स्पष्ट रूप में देख सकते हैं जिनमें हम अपनी अपेक्षा से भयभीत हों। किसी भी कारण मैं अपने हाथ को आग में नहीं डालता भले ही — केवल भूतकाल में ही मैं इससे जला हूँ।
473. मेरा यह विश्वास कि आग मुझे जला देगी वैसा ही है जैसा यह भय कि वह मुझे जला देगी।
474. यदि मैं अपने हाथ आग पर रखें तो मैं जल जाऊँगा: यह निश्चित है। यानी: यहाँ हम निश्चितता के अर्थ को समझते हैं। (इसके महत्त्व को, न कि “निश्चितता” शब्द के अर्थ मात्र को।)
475. परिकल्पना के आधारों के बारे में पूछे जाने पर हम उन पर गौर करते हैं। क्या यहाँ वैसा ही होता है जैसा किसी घटना के कारणों पर विचार करते समय होता है?
476. भय के विषय और उसके कारण के बीच हमें भेद करना चाहिए।
अतः जो मुखाकृति भयभीत करती है अथवा आह्लादित करती है (भय का अथवा आह्लाद का विषय) वह उस वजह से इसका कारण नहीं होती, अपितु — कहा जा सकता है — वह इसका लक्ष्य होती है।
477. “आपको यह विश्वास क्यों है कि गर्म तवे से आप जल जाएंगे?” — क्या आपके पास इस विश्वास के कारण हैं; और क्या आपको इनकी आवश्यकता है?
478. मेज को छूने पर मेरी अंगुलियों में स्पर्शानुभूति होगी ऐसी कल्पना का क्या कारण है? यह विश्वास करने का क्या कारण है कि मेरे हाथ में पेंसिल चुभाने पर मुझे पीड़ा होगी? मेरे यह पूछने पर एक से बढ़ कर एक सैंकड़ों कारण सूझते हैं। “किन्तु मैंने स्वयं इसका असंख्य बार अनुभव किया है, और अक्सर ऐसे अनुभवों के बारे में सुना है; यदि ऐसा नहीं होता तो......; इत्यादि।”
479. “इस पर विश्वास करने का आपका क्या आधार है?” इस प्रश्न का यह अर्थ हो सकता है: “इस समय आप इसका निगमन किससे कर रहे हैं। (अभी आपने इसका निगमन किससे किया)?” किन्तु इसका अर्थ यह भी हो सकता है: इस पूर्व-कल्पना पर सोच विचार कर आप इसके कौन से आधार दे सकते हैं?”
480. अतः, वस्तुतः किसी मत के “आधारों” का वह अर्थ भी हो सकता है जो किसी व्यक्ति ने उस मत पर पहुँचने से पहले अपने आपसे कहा है। इसका अर्थ वे गणन भी हो सकते हैं जो उसने वास्तविकता में किए हों। यदि अब पूछा जाए: किन्तु भविष्य में अमुक-अमुक होगा इस पूर्वकल्पना के आधारों का हमारे पास कौन सा सामान्य प्रत्यय है? भूतकाल के बारे में इस प्रकार के कथन को तो हम साधारणतः भविष्यवाणी करने वाली पूर्वकल्पना का आधार कहते हैं। — और यदि आप हमारे इस प्रकार के खेल खेलने से विस्मित हैं तो मैं आपका ध्यान भूतकालीन अनुभव के प्रभाव (इस तथ्य की ओर कि दूध का जला छाछ भी फूँक-फूंक कर पीता है) की ओर आकर्षित करूँगा।
481. यदि कोई कहे कि भूतकाल की जानकारी भविष्य की घटनाओं के बारे में उसे आश्वस्त नहीं कर पाती, तो मैं यह बात समझ नहीं पाऊँगा। उससे पूछा जा सकता है: तो आप क्या जानना चाहते हैं? कैसी जानकारी को आप ऐसे विश्वास का आधार कहते हैं? आप “आश्वस्त होना” किसे कहते हैं? आप किस प्रकार की बात से आश्वस्त होंगे? — यदि ये आधार नहीं हैं तो फिर कौन से आधार हैं? — यदि आप कहते हैं कि ये आधार नहीं हैं तो निस्संदेह आपको उस स्थिति का उल्लेख करना चाहिए जिसमें हम यह कहने के अधिकारी हों कि हमारी पूर्वकल्पना के आधार हैं।
ध्यान दीजिए: यहाँ आधार ऐसी प्रतिज्ञप्तियां नहीं हैं जिनमें कही गई बात तार्किक रूप से अन्तर्निहित होती है।
ऐसा नहीं है कि कोई कह सकता हो: विश्वास के लिए तो ज्ञान से कम आश्वस्ति की आवश्यकता होती है। — क्योंकि यहाँ प्रश्न तार्किक अनुमति से सन्निधि नहीं है।
482. इस बात को कहने का यह ढंग हमें भ्रमित करता है: “यह ठीक आधार है, क्योंकि यह इस घटना को संभाव्य बनाता है।” मानो हम आधार के बारे में कोई ऐसी नई बात कह रहे हों जिससे उसका आधार के रूप में औचित्य सिद्ध किया जा रहा है; जबकि आधार घटना को संभाव्य बनाते हैं यह कहना इसके अलावा और कुछ कहना नहीं है कि यह आधार अच्छे आधारों के विशिष्ट मानदण्ड के समीप हैं — किन्तु मानदण्ड का तो कोई भी आधार नहीं होता!
483. अच्छा आधार तो इस प्रकार का होता है।
484. हम कहना चाहेंगे: “वास्तव में घटना को संभाव्य बनाने के कारण ही यह एक अच्छा आधार है”। क्योंकि, कहा जा सकता है कि, इससे घटना प्रभावित होती है; मानो वह आनुभविक हो।
485. अनुभव द्वारा औचित्य सिद्ध करने का तो कोई अन्त होता है। यदि ऐसा न होता तो वह औचित्य ही नहीं होता।
486. मुझे होने वाले ऐन्द्रिय बोध से क्या यह परिणाम निकलता है कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है? — कोई प्रतिज्ञप्ति ऐन्द्रिय बोध का परिणाम कैसे हो सकती है? क्या वह ऐन्द्रिय बोध का विवरण देने वाली प्रतिज्ञप्तियों का परिणाम है? नहीं। — किन्तु क्या मैं अपने ऊपर पड़े प्रभावों से, इन्द्रिय-प्रदत्त सामग्री से कुर्सी के वहाँ पड़े रहने का अनुमान नहीं लगाता? मैं कोई अनुमान नहीं लगाता! — पर फिर भी कभी-कभी लगाता हूँ। उदाहरणार्थ, मैं चित्र देखता हूँ और कहता हूँ “वहाँ अवश्य ही कोई कुर्सी होनी चाहिए”, या फिर, “जो मुझे यहाँ दिखाई देता है उससे मैं अनुमान लगाता हूँ कि वहाँ कोई कुर्सी होनी चाहिए। वह अनुमान तो है; किन्तु तर्कशास्त्र से सम्बन्धित नहीं। अनुमान तो परिवर्तन है अभिकथन में; और इसीलिए उस व्यवहार में भी जो अभिकथन से सम्बद्ध है। न केवल शब्दों में, अपितु कर्म में भी ‘मैं निष्कर्ष निकालता हूँ’।
क्या मेरा यह निष्कर्ष निकालना उचित था? यहाँ औचित्य किसे कहा जाता है? — “औचित्य” शब्द का प्रयोग कैसे किया गया है? भाषा-खेलों का विवरण दें। इनसे आप औचित्यपूर्ण होने का महत्त्व भी समझ पाएंगे।
487. “मैं कमरे से बाहर जा रहा हूँ, क्योंकि आप मुझे ऐसा करने को कह रहे हैं।”
“मैं कमरे से बाहर जा रहा हूँ, किन्तु इसलिए नहीं कि आप मुझे ऐसा करने को कह रहे हैं।”
क्या यह प्रतिज्ञप्ति मेरी क्रिया और उसके द्वारा दिये गये आदेश के सम्बन्ध का विवरण देती है; अथवा क्या यह उनमें कोई सम्बन्ध बनाती है?
क्या हम पूछ सकते हैं: “आप कैसे जानते हैं कि इस कारण आप इसे करते हैं, अथवा इस कारण आप इसे नहीं करते? और क्या सम्भवतः उत्तर यह होगा: “मुझे इसका अनुभव होता है”?
488. मैं कैसे निर्णय करता हूँ कि ऐसा है? परिस्थितिजन्य साक्ष्य द्वारा?
489. अपने आप से पूछें: कहाँ और क्यों हम ऐसा कहते हैं?
इन शब्दों की सहगामी क्रियाएं कौन सी हैं? (किसी अभिवादन के बारे में विचार करें।) किन परिस्थितियों में उनका उपयोग किया जाएगा, और किसलिए?
490. मैं कैसे जानता हूँ कि अमुक विचार-शृंखला ने मुझे अमुक क्रिया की ओर प्रेरित किया? — निस्संदेह यह एक विशिष्ट चित्र है: उदाहरणार्थ, ऐसे गणन का जो प्रायोगिक अन्वीक्षण में और आगे प्रयोग करने को प्रेरित करता है। यह ऐसा प्रतीत होता है, और अब मैं किसी उदाहरण का विवरण दे सकता हूँ।
491. ऐसा नहीं: “भाषा के बिना हम आपस में वार्तालाप नहीं कर सकते थे” — किन्तु निश्चित ही: भाषा के बिना हम अन्य लोगों को अमुक-अमुक ढंग से प्रभावित नहीं कर सकते; सड़कें और यंत्र, इत्यादि नहीं बना सकते। और यह भी: वाणी और लिपि का प्रयोग किए बिना लोग वार्तालाप नहीं कर सकते।
492. किसी भाषा के आविष्कार का अर्थ प्रकृति के नियमों के आधार पर (अथवा उनके अनुरूप) किसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए किसी उपकरण का आविष्कार करना हो सकता है; किन्तु इसका वह अन्य अर्थ भी है जो खेल के आविष्कार का उल्लेख करने के सदृश है।
यहाँ मैं “भाषा” शब्द के व्याकरण को, “आविष्कार” शब्द के व्याकरण से जोड़कर बतला रहा हूँ।
493. हम कहते हैं: “मुर्गा वाँग देकर मुर्गियों को बुलाता है” — किन्तु क्या यह कहना हमारी भाषा की तुलना पर आधारित नहीं है? यदि हम यह कल्पना करें कि मुर्गे की बाँग किसी प्रकार के भौतिक कारणों द्वारा मुर्गियों में हलचल पैदा कर देती है — तो क्या दृष्टिकोण पूर्णतः परिवर्तित नहीं हो जाता?
किन्तु यदि यह प्रदर्शित किया जा सकता कि “मेरे पास आओ” इन शब्दों का प्रभाव किन्हीं विशिष्ट स्थितियों में सम्बोधित व्यक्ति की टांगों में स्फुरण पैदा करता है — तो क्या हमें समझना चाहिए कि वाक्य ने, वाक्य के गुण को खो दिया है?
494. मैं कहना चाहता हूँ: हम मुख्यतः अपनी साधारण भाषा के अपनी शाब्दिक भाषा के उपकरण को ही भाषा कहते हैं; और बाकी अन्य विषयों को इसकी उपमा के आधार पर, अथवा इसकी समानता के आधार पर ही भाषा कहते हैं।
495. स्पष्टत: मैं अनुभव द्वारा यह स्थापित कर सकता हूँ कि कोई मनुष्य (अथवा पशु) एक प्रकार के संकेत पर मेरी मनचाही प्रतिक्रिया करता है और दूसरे प्रकार के संकेत पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करता। उदाहरणार्थ, मनुष्य “” संकेत पर दाँई ओर जाता है और “” संकेत पर बाँई ओर जाता है; किन्तु “” संकेत पर वह वैसी कोई प्रतिक्रिया नहीं करता, जैसी “” संकेत पर।
मुझे तो किसी स्थिति की कल्पना करने की आवश्यकता ही नहीं है, मुझे तो जो वास्तविक स्थिति है उस पर ही विचार करना है; उदाहरणार्थ, जर्मन भाषा जानने वाले व्यक्ति को मैं जर्मन भाषा का प्रयोग करके ही निर्देश दे सकता हूँ। (चूँकि जर्मन भाषा को सीखने से यहाँ मेरा तात्पर्य किसी क्रिया द्वारा यंत्र में हुई प्रतिक्रिया के समान है; और हमारे लिए इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता कि किसी ने इस भाषा को सीखा है, अथवा सम्भवतः शैशव काल से ही जर्मन भाषा के वाक्यों पर उसी प्रकार प्रतिक्रिया करता आया है जिस प्रकार कोई ऐसा साधारण व्यक्ति जिसने जर्मन भाषा सीखी हो।)
496. व्याकरण हमें यह नहीं बताता कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए, मनुष्यों: पर अमुक-अमुक प्रभाव डालने के लिए भाषा की संरचना कैसे की जानी चाहिए। वह तो विवरण ही देता है और संकेतों के प्रयोग की कोई व्याख्या नहीं करता।
497. व्याकरण के नियमों को “यादृच्छिक” कहा जा सकता है, यदि इसका अर्थ हो कि व्याकरण का उद्देश्य तो भाषा का उद्देश्य ही है।
यदि कोई कहे “यदि हमारी भाषा का यह व्याकरण न होता तो वह इन तथ्यों को अभिव्यक्त न कर पाती” — तो पूछना चाहिए कि “कर पाती” का यहाँ क्या अर्थ है।
498. जब मैं कहता हूँ कि “मुझे शक्कर दो” और “मुझे दूध दो” तो इन आदेशों का अर्थ होता है, किन्तु “दूध मुझे शक्कर” इस शब्द-संयोजन का कोई अर्थ नहीं होता फिर भी इसका अर्थ यह नहीं होता कि शब्दों के इस संयोजन के उच्चारण से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। और यदि इसका यह प्रभाव हो कि दूसरा व्यक्ति मुझे घूरे और अवाक् हो जाए तो इस कारण मैं इसे घूरने और अवाक् होने का आदेश नहीं कहता, भले ही मैं वही प्रभाव उत्पन्न करना चाहता था।
499. “शब्दों के इस संयोजन का कोई अर्थ नहीं होता” ऐसा कहने से वह संयोजन भाषा के क्षेत्र से बहिष्कृत हो जाता है, और परिणामस्वरूप भाषा के क्षेत्र को सीमित कर देता है। किन्तु जब कोई सीमारेखा खींचता है तो उसके अनेक कारण हो सकते हैं। यदि मैं किसी क्षेत्र के चारों ओर तार बिछाता हूँ, अथवा रेखा खींचता हूँ, अथवा कुछ और करता हूँ, तो मेरा उद्देश्य किसी को अन्दर आने से अथवा बाहर जाने से रोकना हो सकता है; किन्तु यह किसी खेल का भाग भी हो सकता है; अथवा वह रेखा यह प्रदर्शित कर सकती हैं कि किसी मनुष्य की संपत्ति कहाँ से आरम्भ होती है; इत्यादि। अतः मेरी बनाई हुई सीमा-रेखा से यह पता नहीं चलता कि मैं इसे किस उद्देश्य से बना रहा हूँ।
500. जब कोई दाक्य निरर्थक कहलाता है तो ऐसा नहीं है कि उसका अर्थ ‘निरर्थक’ हो। अपितु शब्दों के एक संयोजन को भाषा से बहिष्कृत किया जाता है, उसे प्रचलन से हटाया जाता है।
501. “भाषा का उद्देश्य विचारों को अभिव्यक्त करना है।” — इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रत्येक वाक्य का उद्देश्य किसी विचार को अभिव्यक्त करना होता है। फिर, “वर्षा हो रही है” जैसे वाक्य द्वारा कौन सा विचार अभिव्यक्त होता है? —
502. अर्थ क्या है, यह पूछना। तुलना कीजिए:
“इस वाक्य का अर्थ होता है।” — “कौन सा अर्थ?”
“शब्दों का यह समूह वाक्य है।” — “कौन सा वाक्य?”
503. यदि मैं किसी को आदेश दूँ तो मैं उसे संकेत देना ही पर्याप्त समझता हूँ। और मुझे कदापि नहीं कहना चाहिए: ये तो मात्र शब्द हैं, किन्तु मुझे तो शब्दों के मूल में जाना होगा। इसी प्रकार जब मैं किसी से पूछता हूँ और वह मुझे उसका उत्तर (अतः, एक संकेत) देता है तो मैं संतुष्ट हो जाता हूँ — इसी की तो मुझे अपेक्षा थी — और तब मैं यह आपत्ति नहीं उठाता: किन्तु यह तो उत्तर मात्र है।
504. किन्तु यदि आप कहें: “मुझे कैसे विदित हो कि उसका क्या अर्थ है, जब मुझे उसके द्वारा दिए गए संकेतों के अतिरिक्त कुछ भी पता नहीं?” तो मैं कहूँगा: “उसे कैसे विदित हो कि उसका अपना क्या अर्थ है, जब उसके पास भी संकेतों के अतिरिक्त कुछ नहीं है!”
505. आदेश का पालन करने से पूर्व क्या मुझे उसे समझना आवश्यक है? — निस्संदेह, अन्यथा आपको यह पता ही नहीं चलेगा कि आपको क्या करना है! — किन्तु यहाँ क्या जानने और करने के बीच खाई नहीं है?
506. ऐसा भुलक्कड़ व्यक्ति जो “दाहिने मुड़ो!” आदेश पर बाँएँ मुड़ जाता है और फिर अपना माथा पीटते हुए कहता है “ओ! दाहिने मुड़ो” और दाएँ मुड़ जाता है। — उसे क्या सूझता है? कोई व्याख्या?
507. “मैं इसे केवल कह नहीं रहा, इससे मेरा कुछ अभिप्राय भी है।” — शब्दों से जब हमारा अभिप्राय होता है (और हम उन्हें कहते मात्र नहीं हैं) तब जो हममें घटित होता है जब हम विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि उन शब्दों से मानो कुछ जुड़ा हुआ है, जो अन्यथा निष्प्रयोजन रहता। — मानो वे हमारे भीतर किसी विषय से जुड़े हों।
508. मैं यह वाक्य कहता हूँ: “आज अच्छा मौसम है”; किन्तु अंतत: शब्द तो यादृच्छिक संकेत हैं — तो आइए उनके स्थान पर हम “क ख ग घ” को रखें। किन्तु अब जब मैं इसे पढ़ता हूँ तो मैं इसे तत्काल उपर्युक्त अर्थ से जोड़ नहीं पाता। — मैं कह सकता हूँ कि मुझे “आज” के स्थान पर “क”, “मौसम” के स्थान पर “ख” इत्यादि कहने का अभ्यास नहीं है। किन्तु इससे मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि मुझे “आज” और “क” में तत्कालिक सम्बन्ध बैठाने का अभ्यास नहीं है, अपितु यह है कि मुझे “आज” के स्थान पर “क” का प्रयोग करने का — और इसीलिए “आज” के अर्थ का अभ्यास नहीं है। (मैंने इस भाषा में निपुणता प्राप्त नहीं की है।)
(मुझे फार्नहीट माप पर तापमान का अभ्यास नहीं है। अतः इस प्रकार के तापमान से मुझे कुछ भी ‘पता’ नहीं चलता।)
509. मान लीजिए कि हम किसी से पूछें “ये शब्द आपके दृष्टिगोचर विषय का विवरण किस अर्थ में देते हैं?” — और वह उत्तर देता है: “इन शब्दों से मेरा यह अर्थ है।” (उदाहरणार्थ, वह किसी लैंडस्केप को देख रहा था।) “मेरा यह अर्थ है...” उत्तर क्यों कोई उत्तर ही नहीं है?
अपने दृष्टिगोचर विषय का अर्थ होने के लिए शब्दों का प्रयोग कैसे किया जाता है?
मान लीजिए कि मैंने ‘क ख ग घ’ कहा और मेरा अर्थ था: आज मौसम अच्छा है। क्योंकि जब मैंने इन संकेतों का उच्चारण किया तो वही अनुभव हुआ जो सामान्यतः केवल उसी व्यक्ति को होता है जो सालों-साल लगातार “आज” के अर्थ में “क” को, “मौसम” के अर्थ में “ख”, इत्यादि को, प्रयुक्त करता रहा हो। — क्या अब “क ख ग घ” का अर्थ है: आज मौसम अच्छा है?
मुझे ऐसे अनुभव हो चुकने की कौन सी कसौटी हो सकती है?
510. निम्नलिखित प्रयोग कीजिए: “यहाँ ठंड है” ऐसा कहिए और अर्थ कीजिए “यहाँ गर्मी है”। क्या आप ऐसा कर सकते हैं? — और ऐसा करते समय आप क्या करते हैं? और ऐसा करने का क्या केवल एक ही ढंग है?
511. “किसी अभिव्यक्ति के अर्थ न होने का पता चलना” इसका क्या अर्थ है? और यह कहने का क्या अर्थ है: “यदि इससे मेरा कोई अर्थ है तो निस्संदेह इसका अर्थ होना चाहिए”? — यदि मेरा इससे कोई अर्थ है? — यदि मेरा इससे क्या अर्थ है?! — हम कहना चाहते हैं: सार्थक वाक्य वह होता है जिसे न केवल कहा जा सके, अपितु सोचा भी जा सके।
512. ऐसा प्रतीत होता है मानो हम कह सकते हों: “शाब्दिक भाषा शब्दों अर्थहीन संयोजनों की छूट देती है, किन्तु सृजनात्मक भाषा हमें किसी भी अर्थहीन विषय की कल्पना करने की छूट नहीं देती।” — अतः रेखांकन की भाषा भी अर्थहीन आखों की छूट नहीं देती। मान लीजिए कि वे ऐसे आरेख हों जिनसे प्रतिकृतियां बनाई जानी हों। ऐसी स्थिति में कुछ आरेख तो सार्थक होंगे और कुछ सार्थक नहीं होंगे। — क्या हो, यदि मैं शब्दों के अर्थहीन संयोजनों की कल्पना करूँ?
513. अभिव्यक्ति के निम्नलिखित आकार पर विचार कीजिए: “मेरी पुस्तक के पृष्ठों की संख्या क2 + 2क − 3 = 0 समीकरण के मूल के बराबर है” अथवा: “मेरे च मित्र हैं और च2 + 2च + 2 = 0 होते हैं।” क्या इस वाक्य का अर्थ है? यह तत्काल तो नहीं सूझता। यह उदाहरण प्रदर्शित करता है कि कैसे कोई विषय ऐसे वाक्य के समान प्रतीत होता है जिसे हम समझते तो हैं, किन्तु जिससे कोई अर्थ नहीं निकलता।
(इससे ‘समझने’ और ‘अर्थ होने’ के प्रत्ययों पर प्रकाश पड़ता है।)
514. दार्शनिक कहता है कि “मैं यहाँ हूँ” इस वाक्य को वह तब भी समझता है, इससे उसका कुछ अभिप्राय होता है, इसके बारे में वह कुछ सोचता है — जब वह बिल्कुल भी यह नहीं जानता कि कैसे और कहाँ, यह वाक्य प्रयुक्त होता है। और यदि मैं कहूँ: “अँधेरे में भी गुलाब लाल होता है” तो आप निश्चित रूप से अँधेरे में इस लाल रंग को अपने समक्ष देखते हैं।
515. अंधेरे में गुलाब के दो चित्र। एक तो बिल्कुल काला है; क्योंकि गुलाब अदृश्य है। दूसरे में काले रंग की पृष्ठभूमि पर उसका सजीव चित्र बनाया गया है। क्या उनमें से एक ठीक है और दूसरा गलत? और तिस पर भी क्या हम नहीं कहते कि अंधेरे में उनमें भेद नहीं किया जा सकता?
516. हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम इस प्रश्न का अर्थ समझते हैं: “क्या π के विस्तार में 7777 श्रृंखला आती है?” यह हिन्दी का वाक्य है; यह प्रदर्शित किया जा सकता है कि के विस्तार में 415 आने का क्या अर्थ है; इत्यादि। हाँ, कहा जा सकता है कि इस प्रश्न की हमारी समझ ऐसी व्याख्याओं की पहुँच तक ही सीमित होती है।
517. सवाल पैदा होता है: क्या हम यह सोचने की भूल नहीं कर सकते कि हम प्रश्न को समझते हैं?
क्योंकि अनेक गणितीय प्रमाण हमें यह कहने को बाध्य करते हैं कि हम कई ऐसे विषयों की कल्पना नहीं कर सकते जिनकी कल्पना कर सकने का हमें विश्वास था।(उदाहरणार्थ, सप्तभुज का निर्माण।) वे हमें कल्पना-क्षेत्र में फेर-बदल करने को बाध्य करते हैं।
518. सुकरात थिएटेटस को कहते हैं: “और यदि कोई ऐसा सोचता है तो क्या उसे कुछ सोचना नहीं चाहिए?” — थि. : “हाँ, अवश्य” — सु. : “और यदि वह कुछ सोचता है, तो क्या उस विषय का कोई अस्तित्व नहीं होना चाहिए?” — थि. : “स्पष्टतया।”
और क्या चित्रकार को किसी विषय का चित्र नहीं बनाना चाहिए — और किसी विषय का चित्र बनाने वाला तो किसी वास्तविक विषय का चित्र ही बना रहा होगा! — अच्छा, मुझे बताओ कि चित्र का विषय क्या है: मनुष्य का चित्र (उदाहरणार्थ), अथवा वह व्यक्ति जिसे चित्र चित्रित करता है
519. हम कहना चाहते हैं कि आदेश, आदेश-पालन-क्रिया का चित्र है; अपितु यह उस क्रिया का चित्र भी है जो आदेश के पालन हेतु की जाएगी।
520. “यदि प्रतिज्ञप्ति की भी संभाव्य परिस्थितियों के चित्र के रूप में अवधारणा की जाए और कहा जाए कि वह परिस्थितियों की संभावना को प्रदर्शित करती है तो भी प्रतिज्ञप्ति अधिकाधिक वही कर सकती है जो एक चित्र, अथवा मूर्ति, अथवा चलचित्र करता है और इसीलिए कोई प्रतिज्ञप्ति किसी भी प्रकार अयथार्थ स्थिति की व्याख्या नहीं कर सकती। तो क्या यह पूर्णतः हमारे व्याकरण पर निर्भर करता है कि किसे (तार्किक रूप से) संभाव्य कहा जाए और किसे नहीं — यानी जिसकी वह व्याकरण छूट देता है?” किन्तु निस्संदेह वह तो यादृच्छिक है! — क्या यह यादृच्छिक है? — हम नहीं जानते कि प्रत्येक वाक्य के समान संरचना को कैसे प्रयोग करना है; न ही प्रत्येक तकनीक का हमारे जीवन में उपयोग होता है; और दर्शन में जब हम नितान्त अनुपयोगी विषय को प्रतिज्ञप्ति के समान मानने को लालायित होते हैं तो ऐसा बहुधा इस कारण होता है कि हमने उसकी उपयोगिता पर पूरी तरह विचार नहीं किया होता।
521. ‘तार्किक रूप से संभाव्य’ की ‘रासायनिक रूप से संभाव्य’ से तुलना कीजिए। किसी संयोजन को रासायनिक रूप से संभाव्य कहा जा सकता है यदि उसका उचित संयोजन-सूत्र होता हो (उदाहरणार्थ, H-O-O-O-H)। निस्संदेह ऐसे संयोजन का होना आवश्यक नही; किन्तु HO2 सूत्र भी वास्तव में अपने अनुरूप किसी भी संयोजन से कम नहीं हो सकता।
522. यदि हम प्रतिज्ञप्ति की तैल चित्र (पोर्टेट) से तुलना करें तो हमें इस पर अवश्य विचार करना चाहिए कि क्या हम उसकी तुलना रूपचित्र (ऐतिहासिक चित्र) से अथवा सामान्य चित्र से कर रहे हैं। और दोनों तुलनाओं का कोई-न-कोई उद्देश्य होता है।
जब मैं सामान्य चित्र को देखता हूँ तो वह मुझे कुछ ‘जतलाता’ है, यद्यपि मैं एक क्षण को भी यह विश्वास नहीं करता कि जिन लोगों को मैं उसमें देखता हूँ उनका
वास्तव में अस्तित्व है, अथवा यह कि वस्तुतः उस स्थिति में लोग रहे हैं। किन्तु मान लीजिए कि मैं पूछता हूँ: “तो वह मुझे क्या जतलाता है?”
523. मैं कहना चाहूँगा “चित्र स्वयं अपने को मुझे जतलाता है।” अर्थात् इसका मुझे कुछ जतलाना स्वयं इसकी संरचना, इसकी रेखाओं एवं रंगों में निहित है। (यह कहने का क्या अर्थ होगा “यह संगीत धुन स्वयं को मुझे जतलाती है?”)
524. चित्रों एवं गल्प-वर्णनों से हम खुश होते हैं और वे हमारे मन में बस जाते हैं, इस बात को साधारण नहीं अपितु महत्त्वपूर्ण तथ्य समझें।
(“इसे साधारण न समझें” का अर्थ है: इसे आश्चर्यजनक समझें, वैसे ही जैसे आप उन विषयों को समझते हैं जो आपको आन्दोलित करते हैं। अन्य तथ्यों के समान इस तथ्य को स्वीकार करने से बाद वाले कथन का समस्यामूलक पक्ष लुप्त हो जायेगा।)
(विशुद्ध निरर्थकता से कपटपूर्ण निरर्थकता की ओर संक्रमण।)
525. “ऐसा कहने के पश्चात् उसने पिछले दिन की भांति उस लड़की को छोड़ दिया।” — क्या मैं इस वाक्य को समझता हूँ? क्या मैं इसे किसी वृत्तान्त में सुनने के समान समझता हूँ? यदि यह वाक्य अलग-थलग हो तो कहना चाहिए कि मुझे नहीं पता कि किसके बारे में है। फिर भी मुझे पता होना चाहिए कि इस वाक्य का प्रयोग कैसे किया जा सकता है; मैं स्वयं इसके प्रसंग बना सकता हूँ।
(इन शब्दों से प्रत्येक दिशा में जानी पहचानी अनगिनत राहों पर जाया जा सकता है।)
526. किसी चित्र को, किसी आरेखन को समझने का क्या अर्थ होता है? यहाँ भी समझना और समझने से चूक जाना होता है। और यहाँ भी इन अभिव्यक्तियों के अनेक अर्थ हो सकते हैं। चित्र में संभवतः समय ठहर जाता है; किन्तु मैं इसके एक पक्ष को नहीं समझताः मैं उसमें ठोस वस्तुएं न देखकर केवल कैनवस पर रंगों के धब्बे देखता हूँ। — अथवा, मैं प्रत्येक वस्तु को ठोस के रूप में देखता हूँ किन्तु उसमें ऐसी वस्तुएं होती हैं जिनसे मैं परिचित नहीं होता (वे उपकरणों के समान प्रतीत होते हैं, किन्तु मैं उनके प्रयोग को नहीं जानता।) — बहरहाल, शायद मैं वस्तुओं से परिचित तो हूँ, किन्तु एक अन्य अर्थ में मैं उनके विन्यास को नहीं समझता।
527. वाक्य को समझना, संगीत की किसी धुन को समझने के समान ही है। मेरा तात्पर्य है कि वाक्य को समझना, साधारणतः संगीत की धुन को समझने के समीप है। स्वर-प्रबलता एवं लय में विषयान्तर का यही विन्यास क्यों? हम कहना चाहेंगे, “क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह किसके बारे में है।” किन्तु यह है किसके बारे में? मैं यह नहीं कह सकता। ‘व्याख्या’ देने के लिए मैं इसकी तुलना किसी अन्य विषय से कर सकता हूँ जिसकी ऐसी ही लय (मेरा तात्पर्य है, ऐसा ही विन्यास) हो। (हम कहते हैं: “क्या आप नहीं समझते कि यह तो निष्कर्ष निकालने जैसा है” अथवा “मानो कोई कोष्ठक हो”, इत्यादि। ऐसी तुलना का औचित्य कैसे दिया जाता है? — यहाँ, अनेक प्रकार के औचित्य हैं।)
528. ऐसे लोगों की कल्पना करना संभव है जिनमें किसी भाषा से नितान्त भिन्न कुछ हो: बिना शब्दावली अथवा व्याकरण के ध्वनि-समूह। (‘जिह्वा से बोलना’)
529. “किन्तु ऐसी स्थिति में ध्वनियों का क्या अर्थ होगा?” — संगीत में उनका क्या अर्थ होता है? यद्यपि मैं कदापि यह कहना नहीं चाहूँगा कि ऐसे ध्वनि-समूह की भाषा की तुलना संगीत से की जानी चाहिए।
530. ऐसी भाषा भी हो सकती है जिसके प्रयोग में शब्दों की ‘आत्मा’ की कोई भूमिका ही न हो। जिसमें किसी शब्द को स्वयं अपने द्वारा आविष्कृत किसी यादृच्छिक शब्द से प्रतिस्थापित करने में कोई आपत्ति न हो।
531. हम वाक्य को समझने का उल्लेख उस अर्थ में करते हैं जिसमें उसे वही बात कहने वाले किसी अन्य वाक्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता हो; किन्तु उस अर्थ में भी जिसमें वह किसी अन्य वाक्य से प्रतिस्थापित न किया जा सकता हो। (वैसे ही जैसे संगीत की किसी धुन को किसी अन्य धुन द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता हो।)
एक स्थिति में तो वाक्य में निहित विचार विभिन्न वाक्यों में साझा है; अन्य स्थिति में कुछ ऐसा है जो कि केवल इन्हीं शब्दों द्वारा इन्हीं स्थितियों में अभिव्यक्त किया जाता है। (कविता को समझना।)
532. तो क्या “समझने” के यहाँ दो भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं? — मैं तो वस्तुतः कहना चाहूँगा कि “समझने” के प्रयोग के इन प्रकारों से उसका अर्थ बनता है, उन से समझने का मेरा प्रत्यय बनता है।
क्योंकि मैं इन सब पर “समझने” शब्द को लागू करना चाहता हूँ।
533. किन्तु दूसरी स्थिति में हम अभिव्यक्ति की व्याख्या कैसे कर सकते हैं, हम अपने बोध का संप्रेक्षण कैसे कर सकते हैं? अपने आप से पूछें: हम किसी को कविता का, अथवा संगीत की धुन का बोध कैसे कराते हैं? इसके उत्तर से हमें पता चलता है कि यहाँ अर्थ की व्याख्या कैसे की जाती है।
534. शब्द को एक विशिष्ट अर्थ में सुनना। ऐसे विषय का होना कितनी विचित्र बात है!
इस प्रकार की अभिव्यक्ति से इस प्रकार के आग्रह से, इस प्रकार सुनने से, यह वाक्य उस श्रृंखला में प्रथम होता है जिनमें इन वाक्यों, चित्रों, क्रियाओं में संप्रेक्षण किया जाता है।
((इन शब्दों में से प्रत्येक दिशा में अनगिनत राहों पर जाया जा सकता है।))
535. जब हम चर्च संगीत के अन्त को अन्त समझना सीखते हैं, तब क्या होता है?
536. मैं कहता हूँ: “इस मुखाकृति (जो भीरुता का आभास देती है) को मैं निर्भीक भी समझ सकता हूँ।” इससे हमारा अर्थ यह नहीं है कि मैं इस मुखाकृति वाले व्यक्ति द्वारा संभवत: किसी के जीवन को बचाने की कल्पना कर सकता हूँ (निस्संदेह यह तो किसी भी मुखाकृति के संबंध में कल्पनीय है)। मैं तो वस्तुतः इस मुखाकृति के ही एक पक्ष का उल्लेख कर रहा हूँ। न ही मेरा यह तात्पर्य है कि मैं यह कल्पना कर रहा हूँ कि इस व्यक्ति की मुखाकृति में परिवर्तन हो जाए जिससे साधारण अर्थ में यह निर्भीक प्रतीत होने लगे; यद्यपि मेरा तात्पर्य यह हो सकता है इस मुखाकृति को निर्भीक मुखाकृति में परिवर्तित करने का एक सुनिश्चित ढंग है। मुखाकृति की अभिव्यक्ति की पुनर्व्याख्या की तुलना संगीत में स्वरों के तारतम्य की ऐसी पुनर्व्याख्या से की जा सकती है, जब हम उनको पहले तो स्वर के किसी एक आरोह-अवरोह के रूप में, और फिर किसी दूसरे स्वर-क्रम में सुनते हैं।
537. यह कहना संभव है: “इस मुखाकृति से मुझे भीरुता का आभास होता है” किन्तु सभी स्थितियों में भीरुता इस मुखाकृति से केवल संबंधित, बाह्यरूप से संबंधित नहीं प्रतीत होती; अपितु भय उसके नाक-नक्श में बसा है। यदि नाक-नक्श में थोड़ा भी परिवर्तन आ जाए तो हम उसके अनुरूप भय में भी परिवर्तन का उल्लेख कर सकते हैं। यदि हमसे पूछा जाए: “क्या आप इस मुखाकृति को निर्भीकता की अभिव्यक्ति भी समझ सकते हैं” — हम यह नहीं जान पाएंगे कि इस नाक-नक्श में निर्भीकता को कैसे स्थान दें। फिर संभवत: मैं कहूँ: “मैं नहीं जानता कि इस मुखाकृति से निर्भीक मुखाकृति का अर्थ कैसे होगा।” किन्तु ऐसे प्रश्न का उत्तर कैसा होगा? संभवत: हम कहते हैं: “हाँ, अब मैं समझता हूँ: यह मुखाकृति मानो बाह्य जगत के प्रति उदासीनता प्रदर्शित करती है”; अतः किसी प्रकार हमने इस मुखाकृति में निर्भीकता देख ली। अब एक बार फिर हम कह सकते हैं कि निर्भीकता इस मुखाकृति के अनुकूल है। किन्तु यहाँ क्या किसके अनुकूल है?
538. इससे संबंधित स्थिति में (यद्यपि संभवतः ऐसा प्रतीत नहीं होता) जब, उदाहरणार्थ हमें (जर्मनों को) आश्चर्य होता है कि फ्रेंच भाषा में विधेय के विशेषण का रूप उद्देश्य के लिंग के अनुरूप होता है, और जब हम अपने आप को इसकी व्याख्या यह कह कर देते हैं: उनका अर्थ है: “वह व्यक्ति एक अच्छा व्यक्ति है।”
539. मैं एक हँसती हुई मुखाकृति का चित्र देखता हूँ। जब मुस्कुराहट को मैं उदार समझता हूँ और जब उसे मैं द्वेषपूर्ण समझता हूँ तो मेरे भीतर क्या प्रतिक्रिया होती है। क्या बहुधा मैं उसकी कल्पना उदारता अथवा विद्वेष के दिक् एवं काल के सन्दर्भ में नहीं करता? अतः मैं चित्र के साथ ऐसी कल्पना जोड़ सकता हूँ जिसमें मुस्कुराने वाला व्यक्ति किसी क्रीड़ारत शिशु पर मुस्कुरा रहा हो, अथवा फिर शत्रु को दुखी देख कर मुस्कुरा रहा हो।
इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता कि पहले तो मैं उदारतापूर्ण परिस्थिति को देखता हूँ और उसकी व्याख्या व्यापक संदर्भ में रखकर भिन्न ढंग से करता हूँ। — यदि किसी भी विशिष्ट परिस्थिति में मेरी व्याख्या नहीं बदलती, तो मैं उस मुस्कुराहट को उदार समझँगा, उसे “उदार” कहूँगा, और तदनुसार व्यवहार करूँगा।
((संभाव्यता, आवृत्ति))
540. “क्या यह विचित्र नहीं है कि — भाषा की संस्था और उसके समस्त परिवेश के बिना भी मैं यह सोचने में असमर्थ हूँ कि शीघ्र ही वर्षा होनी बन्द हो जाएगी?” — क्या आप कहना चाहते हैं कि यह विचित्र बात है कि बिना उस परिवेश के आप इन शब्दों को कहने में और उनको अर्थपूर्ण करने में असमर्थ हैं?
मान लीजिए कि कोई आकाश की ओर इंगित करे और कुछ अस्पष्ट शब्दों का उच्चारण करे। जब हम उसे पूछें कि उसका क्या अर्थ है तो वह व्याख्या दे कि उन शब्दों का अर्थ है, “भगवान का शुक्र है, शीघ्र ही वर्षा बन्द हो जाएगी।” वह हमें हर एक शब्द के अर्थ की व्याख्या भी देता है — मैं कल्पना करता हूँ कि वह व्यक्ति अचानक होश में आ जाएगा और कहेगा कि वाक्य पूर्णतः अर्थहीन है, किन्तु जब उसने उस वाक्य का उच्चारण किया था, तो उसे वह वाक्य किसी ऐसी भाषा का वाक्य प्रतीत हुआ था जिसे वह जानता था। (निस्संदेह किसी परिचित उद्धरण की भाँति।) — अब मैं क्या कहूँ। क्या वाक्य को कहते हुए वह उसे समझ नहीं रहा था? क्या वाक्य में संपूर्ण अर्थ नहीं था?
541. किन्तु उसका समझना, और अर्थ होना किसमें निहित था? जब वर्षा हो रही थी, किन्तु बादल छँटने लगे थे, तब सम्भवतः उसने आकाश की ओर इंगित करते हुए पुलकित स्वर में इन ध्वनियों का उच्चारण किया था, बाद में उसने अपने शब्दों में और हिन्दी भाषा के शब्दों में संबंध स्थापित किये।
542. “किन्तु बात तो यह है कि वे शब्द उसे किसी सुपरिचित भाषा के शब्दों के समान प्रतीत हुए।” — हाँ उसकी कसौटी यह है कि बाद में उसने यही कहा और अब यह न कहिए: “परिचित भाषा के शब्दों का हमारा अनुभव नितान्त विशिष्ट प्रकार का होता है।” (इस अनुभव की अभिव्यक्ति कौन सी है?)
543. क्या मैं नहीं कह सकता: चीत्कार, अट्टहास, अर्थ से परिपूर्ण होते हैं? और इसका मोटे तौर पर अर्थ होता है: उनसे बहुत कुछ जाना जा सकता है।
544. जब चाहत मुझे रुला देती है और मैं कहता हूँ “काश! वह यहाँ होता!” तो संवेदना शब्दों को ‘अर्थ’ प्रदान करती है। किन्तु क्या वह प्रत्येक शब्द को उसका अर्थ प्रदान करती है?
किन्तु यहाँ यह भी कहा जा सकता था कि संवेदना ने शब्दों को सार्थकता प्रदान की और इससे पता चलता है कि यहाँ प्रत्ययों का विलय कैसे हो जाता है। (इससे यह प्रश्न याद आता है: गणितीय प्रतिज्ञप्ति का अर्थ क्या है?)
545. किन्तु जब हम कहते हैं “मुझे आशा है कि वह आएगा” — तो क्या संवेदना “आशा” शब्द को अर्थ प्रदान नहीं करती? (और इस वाक्य के बारे में क्या कहें: “अब मुझे उसके आने की आशा नहीं है”?) संभवत: संवेदना “आशा” शब्द को उसकी विशिष्टता प्रदान करती है; यानी वह उस विशिष्टता में अभिव्यक्त हो जाती है। — यदि संवेदना शब्दों को उनका अर्थ प्रदान करती है, तो “अर्थ” का अर्थ है विषय। किन्तु संवेदना ही विषय क्यों है?
क्या आशा संवेदना है? (विशिष्ट चिह्न।)
546. इस प्रकार मैं कहना चाहूँगा कि “काश वह आये!” ये शब्द मेरी चाहत
से ओत-प्रोत हैं। और चीत्कार के समान हमसे इन शब्दों को जबरन बुलवाया जा सकता है। शब्दों को कहना कठिन हो सकता उदाहरणार्थ, ऐसे शब्दों को कहना जिनसे त्याग का व्रत लिया जाता है अथवा जिनसे किसी दुर्बलता को स्वीकारा जाता है। (शब्द कर्म भी होते हैं।)
547. अभाव: एक ‘मानसिक क्रिया’। किसी विषय का निषेध कीजिए और ऐसा करते समय आत्मालोचन कीजिए। — क्या आप आन्तरिक रूप से अपना सिर हिलाते हैं? और यदि आप ऐसा करते हैं — तो उदाहरणार्थ, क्या यह प्रक्रिया किसी वाक्य में निषेध का चिह्न लगाने में हमारी अभिरुचि से अधिक बलशाली है? क्या अब आपको अभाव का सार पता चल गया है?
548. इन दोनों प्रक्रियाओं में क्या भेद है: यह कामना करना कि कुछ हो — और यह भी कि वही बात न हो?
यदि हम इसका चित्र बनाना चाहें, तो हम घटना-चित्र को विभिन्न ढंगों से बनायेंगे: उसे काट देंगे, उसके चारों ओर रेखा खींच देंगे, इत्यादि। किन्तु अभिव्यक्ति का यह ढंग हमें भोंडा प्रतीत होता है। शाब्दिक भाषा में, वास्तव में हम “नहीं” संकेत का प्रयोग करते हैं। किन्तु यह भोंडी युक्ति के समान है। हम समझते हैं कि विचार में उसका विन्यास भिन्न रूप से होता है।
549. “‘नहीं’ शब्द कैसे निषेध कर सकता है?” — “‘नहीं’ संकेत इंगित करता है कि आपको इसके साथ जुड़ी अभिव्यक्ति को निषेधपूर्वक समझना है।” हम कहना चाहेंगे: निषेध का संकेत तो हमारे द्वारा कुछ करने — संभवत: कुछ बेहद जटिल करने का अवसर होता है। मानो निषेध-चिह्न हमारे कुछ करने का कारण हो। किन्तु क्या करने का? वह तो बताया ही नहीं गया। मानो उसका तो मात्र संकेत ही देना था; मानो वह तो पहले से ही हमें ज्ञात हो। मानो किसी भी व्याख्या की आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि बहरहाल हम तो पहले से ही विषय से परिचित थे।
550. कहा जा सकता है कि निषेध तो वर्जन की, अस्वीकार की भंगिमा है। किन्तु ऐसी भंगिमा तो अनेक स्थितियों में प्रयुक्त होती है!
551. क्या इनमें एक जैसा निषेध होता है: “‘लोहा एक सौ डिग्री सेंटीग्रेड पर नहीं पिघलता’ और ‘दो गुणा दो पाँच नहीं होते’?” क्या इसका निर्णय आत्मालोचन द्वारा किया जाएगा; इन दोनों वाक्यों को बोलते समय यह समझने के प्रयास द्वारा कि हम क्या सोच रहे हैं।
552. मान लीजिए कि मैं पूछँ “यह छड़ एक गज लम्बी है” और “यहाँ एक सैनिक है” इन वाक्यों को उच्चारित करते समय क्या हमें यह स्पष्ट होता है कि “एक” से हमारा अर्थ भिन्न विषय है, और यह भी कि “एक” के भिन्न अर्थ होते हैं? — बिल्कुल नहीं। — उदाहरणार्थ, ऐसे वाक्य बोलिए जैसे “एक सैनिक एक गज जगह घेरता है, और इसीलिए दो गज जगह दो सैनिकों द्वारा घेरी जाती है।” यह पूछे जाने पर कि “दोनों ‘एक’ से क्या आपका अर्थ समान विषय है”? संभवतः हम उत्तर देना चाहेंगे: “निस्संदेह मेरा अर्थ समान विषय है: एक!
(संभवतः कोई उंगली उठाकर।)
553. तो क्या माप और संख्या के लिए प्रयुक्त “1” का अलग-अलग अर्थ होता है? यदि प्रश्न को इस ढंग से पूछा जाये तो हमारा उत्तर सकारात्मक होगा।
554. हम आसानी से ऐसे मनुष्यों की कल्पना कर सकते हैं जिनका तर्क ‘अधिक अविकसित’ हो, और जिसमें हमारे निषेध के अनुरूप विषय को विशिष्ट प्रकार के वाक्यों में ही प्रयुक्त किया जाता हो, संभवतः ऐसे वाक्यों में जिनमें कोई निषेध न हो। “वह घर में जा रहा है” प्रतिज्ञप्ति का निषेध करना संभव होगा, किन्तु निषेधात्मक प्रतिज्ञप्ति का निषेध करना निरर्थक होगा, अथवा वह निषेध की पुनरावृत्ति ही मानी जाएगी। निषेध की अभिव्यक्ति के हमारे साधनों से भिन्न साधनों पर विचार कीजिए: उदाहरणार्थ, स्वर की उदात्तता द्वारा। ऐसे में दोहरा निषेध कैसे होगा?
555. निषेध का इन लोगों के लिए क्या वही अर्थ होगा जो हमारे लिए है, यह प्रश्न उस प्रश्न के समान है जिसमें पूछा जाता है कि क्या “5” अंक का उन लोगों के लिए जिनकी गिनती 5 पर समाप्त हो जाती है वही अर्थ होता है जो हमारे लिए होता है।
556. ऐसी भाषा की कल्पना कीजिए जिसमें निषेध के लिए दो भिन्न शब्द “क” और “ख” हों। “क” को दोहराने का सकारात्मक परिणाम होता है, “ख” को दोहराने का घोर नकारात्मक परिणाम होता है। बाकी स्थानों पर दोनों शब्दों को एक समान प्रयोग किया जाता है। — तो क्या “क” और “ख” को दोहराए बिना प्रयोग किए जाने वाले वाक्यों में उनका अर्थ एक समान होता है — हम इसके अनेक उत्तर दे सकते हैं।
(अ) दोनों शब्दों के भिन्न प्रयोग हैं। अतः उनके भिन्न अर्थ हैं। किन्तु उन वाक्यों में जिनमें वे दोहराए बिना प्रयोग किए जाते हैं, और जिनमें अन्य सब बातें समान होती हैं, उनमें उनका समान अर्थ होता है।
(आ) मात्र इस तुच्छ परिपाटी-रूपी भिन्नता के अलावा दोनों शब्दों का भाषा-खेलों में एक सा कार्य है। दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही तरह, एक जैसी क्रियाओं, भंगिमाओं, चित्रों इत्यादि द्वारा सिखाया जाता है; और इन शब्दों की व्याख्याओं में, उनके प्रयोग करने के ढंगों में भेद को, आनुषंगिक संयोजन के समान, भाषा के किसी नियमित लक्षण के साथ जोड़ दिया जाता है। इसीलिए हम कहेंगे कि “क” और “ख” का एक ही अर्थ है।
(इ) विभिन्न प्रतिबिम्बों को हम इन दो निषेधों से जोड़ते हैं। मानो “क” अर्थ को उल्टा देता है। और इसीलिए, ऐसे दो निषेध अर्थों को उनकी मूल स्थिति में पहुँचा देते हैं। “ख” सिर हिलाने के समान है। और जिस प्रकार एक बार सिर हिलाने को दूसरी बार सिर हिलाने द्वारा रद्द नहीं किया जाता। और इसीलिए यद्यपि, व्यवहारिक तौर पर, दोनों संकेतों वाले वाक्यों का एक ही अर्थ होता है, तो भी “क” और “ख” विभिन्न विचारों को अभिव्यक्त करते हैं।
(क) “यह तथ्य, कि तीन निषेधों का परिणाम निषेध ही होता है, तो मेरे द्वारा प्रयुक्त एकल निषेध में पहले से ही निहित होता है।” ('अर्थ' के मिथक का आविष्कार करने की लालसा।)
ऐसा प्रतीत होता है मानो निषेध के स्वभाव से ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता हैं कि दोहरा निषेध अस्तिवाचक होता है। (और इसमें कुछ सच्चाई भी है। क्या? हमारा स्वभाव इन दोनों से संबंधित है।)
(ख) “नहीं” के प्रयोग के ये नियम ठीक भी हैं अथवा नहीं, का तो प्रश्न ही नहीं उठ सकता। (मेरा तात्पर्य नियमों का अर्थ के अनुरूप होने का प्रश्न है।) क्योंकि इन नियमों के बिना तो शब्द का कोई अर्थ ही नहीं होता; और अब यदि हम नियमों को बदल दें तो इसका कोई अन्य अर्थ हो जाता है (या कोई अर्थ नहीं होता), और उस स्थिति में तो हम शब्द को ही बदल सकते हैं।
557. तो, जब मैंने दोहरे निषेध का उच्चारण किया तो उससे सकारात्मक के
बजाय घोर नकारात्मक अर्थ होना किस में निहित था? यह कोई उत्तर नहीं है: “यह इस तथ्य में निहित है कि....।” विशिष्ट परिस्थितियों में “इस दोहराने का अर्थ ही प्रबलता है,” यह कहने के बजाय मैं इसे ही प्रबल स्वर में घोषित कर सकता हूँ। “निषेध को दोहराने का अर्थ उसे रद्द करना होता है” यह कहने के बजाय मैं, उदाहरणार्थ, कोष्ठक लगा सकता हूँ। — “हाँ किन्तु अन्ततः इन कोष्ठकों की भी विभिन्न भूमिकाएं हो सकती हैं; क्योंकि यह कौन निर्धारित करता है कि उन्हें कोष्ठकों के समान समझना है?” कोई नहीं। और अपनी संधारणा की व्याख्या भी क्या आप शब्दों द्वारा नहीं करते? कोष्ठकों का अर्थ उन्हें प्रयोग करने की विधि में निहित होता है। प्रश्न है: कौन सी परिस्थितियों में मेरे “मेरा..... अर्थ था” यह कहने का अर्थ होता है, और कौन सी परिस्थितियों में मेरे “उसका.... अर्थ था” कहने का औचित्य होता है?
558. यह कहने का क्या अर्थ होता है: “गुलाब लाल है” इस वाक्य में “है” शब्द का अर्थ “दो दूनी चार है” इस वाक्य के “है” शब्द के अर्थ से भिन्न होता है? यदि यह उत्तर दिया जाए कि इसका अर्थ है कि इन दो शब्दों के लिए भिन्न नियम लागू होते हैं, तो हम कह सकते हैं कि यहाँ तो केवल एक ही शब्द है। — और यदि मैं केवल व्याकरण-संबंधी नियमों पर ही ध्यान दे रहा हूँ तो वे दोनों प्रसंगों में “है” शब्द के प्रयोग की अनुमति देते हैं। किन्तु यह प्रदर्शित करने वाला नियम, कि इन वाक्यों में “है” शब्द के भिन्न अर्थ होते हैं, तो वही नियम है जो दूसरे वाक्य में “है” शब्द को समतुल्यता के संकेत द्वारा प्रतिस्थापित करने की अनुमति देता है, किन्तु पहले वाक्य में इस प्रकार के प्रतिस्थापन का निषेध करता है।
559. इस वाक्य में किसी शब्द के कार्य-व्यापार का हम उल्लेख करना चाहेंगे। मानो वाक्य कोई ऐसा यंत्र हो जिसमें शब्दों का कोई विशिष्ट कार्य-व्यापार हो। किन्तु यह कार्य - व्यापार किसमें निहित है? इसका पता कैसे चलता है? क्योंकि कुछ भी तो छिपा हुआ नहीं है — क्या हम संपूर्ण वाक्य को नहीं समझते? शब्द-प्रयोग से ही कार्य-व्यापार स्पष्ट हो जाना चाहिए। ((अर्थ-देह।))
560. “शब्द का अर्थ तो वही है जिसका अर्थ की व्याख्या करने पर विवेचन हो जाता है।” यानी: यदि आप “अर्थ” शब्द के प्रयोग को समझना चाहते हैं तो जो “अर्थ की व्याख्याएं” कहलाती हैं, उन्हें खोजें।
561. तो क्या यह विचित्र नहीं है कि मैं कहता हूँ कि “है” शब्द का प्रयोग दो भिन्न अर्थों में होता है (योजक के रूप में, और समतुल्यता के संकेत के रूप में), और मैं यह कहने को तैयार नहीं हूँ कि उसका अर्थ तो उसका प्रयोग है; उसका प्रयोग, यानी, योजक के रूप में, और समतुल्यता के संकेत के रूप में?
हम कहना चाहेंगे कि इन दो प्रकार के प्रयोगों से एक ही अर्थ निष्पादित नहीं होता; एक प्रयोग में तो यह एकीकरण मात्र अनावश्यक संयोग है।
562. किन्तु मैं इसका निर्णय कैसे कर सकता हूँ कि संकेत-पद्धति में क्या आवश्यक है और क्या अनावश्यक संयोग मात्र है? क्या संकेत-पद्धति की पृष्ठभूमि में कोई ऐसी यथार्थता होती है जो व्याकरण को आकार प्रदान करती है?
आइये हम खेल में इससे मिलती-जुलती स्थिति पर विचार करें: ‘ड्राफ्ट’ खेल में एक गोटी पर दूसरी गोटी रखकर राजा को इंगित किया जाता है। तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि खेल में राजा को दो गोटियों से बना होना आवश्यक है?
563. मान लीजिए कि गोटी का अर्थ खेल में उसकी भूमिका होती है? — अब शतरंज की बाजी आरंभ होने से पूर्व लाटरी द्वारा इस बात का निर्णय होने दें कि कौन से खिलाड़ी को श्वेत गोटियों से खेलना है। इस के लिए एक खिलाड़ी, एक रंग के राजा को अपनी एक मुट्ठी में भींच लेता है और दूसरे रंग के राजा को दूसरी मुट्ठी में, और दूसरा खिलाड़ी दोनों हाथों में से किसी एक को मनमाने ढंग से चुन लेता है। क्या इसे शतरंज में राजा की भूमिका माना जाएगा कि उसे इस प्रकार से लाटरी निकालने में प्रयुक्त किया जाता है?
564. तो खेल में भी मुझे आवश्यक और अनावश्यक में भेद करना पड़ता है। हम कहना चाहेंगे कि खेल में मात्र नियम ही नहीं होता अपितु उसका एक उद्देश्य भी होता है।
565. वही शब्द क्यों? गणन में हम इस अनन्यता का कोई उपयोग नहीं करते! — दोनों उद्देश्यों के लिए एक ही गोटी क्यों? — किन्तु यहाँ “अनन्यता का उपयोग करने” का उल्लेख करने का क्या अर्थ है? क्योंकि जब हम वस्तुतः एक ही शब्द का प्रयोग करते हैं तो क्या यह कोई प्रयोग नहीं होता?
566. और अब ऐसा प्रतीत होता है मानो एक ही शब्द अथवा एक ही गोटी का प्रयोग करने का कोई उद्देश्य था — यदि अनन्यता सांयोगिक, अनावश्यक न हो तो। और मानो गोटी को पहचानने की योग्यता होना और खेल को खेलना जानना उद्देश्य हों। — क्या यहाँ हम भौतिक अथवा तार्किक संभावना के बारे में कह रहे हैं? यदि बाद वाली बात के बारे में कह रहे हैं तो गोटी की अनन्यता का संबंध खेल से है।
567. किन्तु, बहरहाल, खेल तो नियमों द्वारा ही परिभाषित होता है। अतः यदि खेल का कोई नियम यह निर्धारित करता है कि शतरंज की बाजी आरंभ करने से पूर्व राजाओं को लाटरी निकालने में प्रयुक्त किया जाना चाहिए तो वह खेल का अनिवार्य अंग बन जाता है। इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? यही कि इस नियम का प्रयोजन उसे समझ नहीं आता। संभवतः वैसे ही जैसे किसी को उस नियम का प्रयोजन समझ नहीं आता जिसके अनुसार चाल चलने से पूर्व गोटी को तीन बार घुमाना होता है। यदि यह नियम हमें किसी पट्ट-खेल में मिलता तो हमें आश्चर्य होता और हम इस नियम के प्रयोजन के बारे में अनुमान लगाते। (“क्या इस नियम का प्रयोजन किसी को बिना सोचे-समझे चाल चलने से रोकना है?”)
568. खेल को यदि मैं ठीक ढंग से समझता हूँ — तो मैं कह सकता हूँ — यह उसका अनिवार्य अंग नहीं हो सकता।
((अर्थ तो मुखाकृति-विज्ञान है।))
569. भाषा तो एक उपकरण है। उसके प्रत्यय ही उसके उपकरण होते हैं। अब संभवतः कोई समझ सकता है कि हम जिन प्रत्ययों का उपयोग करते हैं उनसे कोई महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि, बहरहाल, भौतिक विज्ञान से फुटों एवं इंचों का, और मीटरों एवं सेंटीमीटरों का भी प्रयोग किया जा सकता है; अन्तर तो प्रयोग-सरलता का है। किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, यदि मापने की किसी प्रणाली के गणन हमारा आवश्यकता से अधिक समय लगता हो, और हमें जरूरत से ज्यादा कठिनाई होती हो।
570. भ्रामक सादृश्य: मनोविज्ञान मानसिक क्षेत्र की प्रक्रियाओं पर उसी प्रकार विचार-विनिमय करता है जैसे कि भौतिकी भौतिक क्षेत्र की प्रतिक्रियाओं पर।
उसी अर्थ में जिस अर्थ में पिंडों की गतिविधियाँ, विद्युत की संवृत्ति भौतिकी के विषय में नहीं है, देखना, सुनना, सोचना, अनुभव करना, कामना करना मनोविज्ञान के विषय नहीं हैं। इसे आप इस तथ्य से समझ सकते हैं कि भौतिक-विज्ञानी इन संवृत्तियों को देखता है, सुनता है, उनके बारे में सोचता है, और उनके बारे में हमें सूचना देता है, और मनोवैज्ञानिक विषय की बाह्य प्रतिक्रियाओं (व्यवहार) का निरीक्षण करता है।
572. अपेक्षा तो एक व्याकरण-सम्मत स्थिति है: जैसे कोई मान्यता होना, किसी की आशा करना, कुछ जानना, कुछ करने के योग्य होना। किन्तु इन परिस्थितियों के व्याकरण को समझने के लिए यह पूछना आवश्यक है: “किसी के ऐसी स्थिति में होने की कसौटी क्या होती है?” (कठोरता की, भार की, अनुकूलता की स्थितियाँ।)
573. किसी मत का होना एक स्थिति है — किसकी स्थिति? आत्मा की? मन की? तो, किस के बारे में कहा जाता है कि उसका भी कोई मत है? उदाहरणार्थ श्री न. न. का? और यही ठीक उत्तर है।
उस प्रश्न के इस उत्तर से किसी को ज्ञान-वृद्धि की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अन्य व्यक्ति इससे अधिक गहराई से सोचते हैं: विशिष्ट स्थितियों में किसी के अमुक मत रखने की कसौटी हम किसे मानते हैं? हम कब कहते हैं: उस समय वह इस मत पर पहुँचा? जब: उसने अपना मत बदल दिया? इत्यादि। इन उत्तरों से बनने वाले चित्र हमें बताते हैं कि व्याकरण के नियमों के अनुसार यहाँ स्थिति किसे कहते हैं।
574. कोई प्रतिज्ञप्ति, और इसीलिए एक अन्य अर्थ में कोई विचार, विश्वास, आशा, अपेक्षा, इत्यादि की ‘अभिव्यक्ति’ हो सकती है। किन्तु विश्वास करना तो विचार करना नहीं है। (एक व्याकरणपरक टिप्पणी।) विश्वास करने, अपेक्षा होने, आशा करने के प्रत्यय, विचार करने के प्रत्यय की अपेक्षा एक दूसरे से कहीं अधिक निकट हैं।
575. जब मैं इस कुर्सी पर बैठा, तो निश्चय ही, मुझे यह विश्वास था कि वह मेरा भार वहन कर लेगी। मैंने इसके टूट जाने के बारे में तो सोचा ही नहीं था।
किन्तु: “उसकी तमाम कोशिशों के बावजूद, मैंने अपने इस विश्वास को बनाए रखा कि....।” यहाँ एक विचार, और संभवतः दृष्टिकोण के नवीनीकरण के लिए सतत संघर्ष है।
576. धीरे-धीरे सुलगते हुए पलीते की आग को विस्फोटक की ओर बढ़ते हुए देखकर मैं उत्तेजित हो जाता हूँ। संभवतः मैं कुछ भी नहीं सोचता, अथवा असंबद्ध बातों के बारे में सोचता हूँ। यह तो किसी घटना की अपेक्षा की स्थिति है।
577. जब हमें यह विश्वास होता है कि वह आएगा तो हम कहते हैं, “मुझे उसके आने की अपेक्षा है”, यद्यपि उसका आना हमारे विचारों में नहीं होता। (यहाँ “मुझे उसके आने की अपेक्षा है” इसका अर्थ है “यदि वह नहीं आएगा तो मुझे आश्चर्य होगा”, और इसे किसी मनःस्थिति का विवरण नहीं कहा जाएगा।) किन्तु हम यह भी कहते हैं “मुझे उसके आने की अपेक्षा है” जबकि इसका अर्थ होता है मैं उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। हम ऐसी भाषा की कल्पना कर सकते हैं जिसमें इन स्थितियों में लगातार भिन्न क्रियाएं प्रयुक्त होती हों। और इसी प्रकार जहाँ भी हम ‘विश्वास करने’, ‘आशा करने’ इत्यादि का उल्लेख करें वहाँ एक से अधिक क्रियाएं प्रयुक्त हों। ऐसी भाषा के प्रत्यय, संभवत: मनोविज्ञान को समझने के लिए, हमारी भाषा के प्रत्ययों से कहीं अधिक उपयुक्त होंगे।
578. अपने आप से पूछें: गोल्डबाख के सिद्धान्त में विश्वास का क्या अर्थ है? यह विश्वास किसमें निहित है? इस सिद्धान्त का वर्णन करते समय, श्रवण करते समय, अथवा उस पर विचार करते समय होने वाली निश्चय की अनुभूति में? (इसमें हमारी कोई रुचि नहीं होगी।) और इस अनुभूति के गुण कौन से हैं? मैं तो यह भी नहीं जानता कि स्वयं प्रतिज्ञप्ति द्वारा ही अनुभूति कैसे हो सकती है।
क्या मुझे कहना चाहिए कि विश्वास तो हमारे विचार की कोई विशिष्ट निर्मिति होती है? यह विचार कहाँ से आता है? हाँ, संशय की तरह विश्वास का भी भाव होता है।
मैं पूछना चाहूँगा: विश्वास इस प्रतिज्ञप्ति के साथ कैसे जुड़ता है? आइए हम विचार करें कि इस विश्वास के परिणाम क्या हैं, और यह हमें कहाँ ले जाता है। “यह मुझसे प्रतिज्ञप्ति के प्रमाण की खोज करवाता है।” — बिल्कुल ठीक; और आइए अब हम विचार करें कि वास्तव में आपकी खोज किस में निहित है। तब हमें पता चलेगा कि प्रतिज्ञप्ति में विश्वास क्या होता है।
579. विश्वास की अनुभूति। यह व्यवहार में कैसे व्यक्त होती है?
580. ‘आन्तरिक प्रक्रिया’ को बाह्य कसौटी की आवश्यकता होती है।
581. अपेक्षा तो परिस्थिति में निहित होती है, और वहीं से उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ, विस्फोट की अपेक्षा ऐसी परिस्थिति से उत्पन्न हो सकती है जिसमें विस्फोट की अपेक्षा की ही जानी चाहिए।
582. यदि कोई “मुझे किसी भी क्षण विस्फोट की अपेक्षा है” यह कहने के स्थान पर फुसफुसाता “अब विस्फोट होगा”, तो भी उसके शब्द किसी संवेदना का विवरण नहीं देते; यद्यपि वे शब्द और उनके उच्चारण का ढंग उसकी अनुभूति की अभिव्यक्ति होते हैं।
583. “किन्तु आप इस प्रकार बात कर रहे हैं मानो वास्तव में अब मैं वैसी अपेक्षा, आशा नहीं कर रहा — जैसी मैं पहले करता था। मानो जो अब हो रहा है उसका कोई महत्त्व ही न हो।” — यह कहने का क्या अर्थ है “जो अब हो रहा है वह महत्त्वपूर्ण है” अथवा “बहुत महत्त्वपूर्ण है”? गहन अनुभूति क्या होती है? क्या क्षण भर के लिए किसी को उत्कट प्रेम, अथवा आशा की अनुभूति हो सकती है — इस क्षण से पूर्व, अथवा पश्चात क्या होता है इस से कोई अन्तर नहीं पड़ता? इन परिस्थितियों में — जो अब हो रहा है सार्थक है। परिस्थितियाँ ही इसे महत्त्वपूर्ण बनाती हैं। और “आशा” शब्द मानव जीवन की संवृत्ति को इंगित करता है। (मानव-मुखाकृति में ही स्मित-मुख मुस्कुराता है।)
584. अब मान लीजिए कि मैं अपने कमरे में बैठा हूँ, और आशा करता हूँ कि श्री न. न. आएंगे और मुझे कुछ पैसा देंगे, और मान लीजिए कि इस स्थिति को एक क्षण के लिए अपने प्रसंग से काटकर पृथक किया जा सकता; तो क्या जो भी उस क्षण में हुआ उसे आशा नहीं कहेंगे। — उदाहरणार्थ, उस क्षण आप अपने द्वारा उच्चारित शब्दों पर विचार कीजिए। अब वे इस भाषा के भाग नहीं हैं, और न ही किन्हीं भिन्न परिस्थितियों में पैसे का मतलब होता है।
राज्याभिषेक वैभव एवं गरिमा का चित्र होता है। इस कार्यवाही के किसी क्षण को उसके परिवेश से अलग कर लें: राज्याभिषेक के समय के परिधान पहने राजा के सिर पर मुकुट रखा जा रहा है। — किन्तु किन्हीं भिन्न परिस्थितियों में सोना सर्वाधिक सस्ती धातु है, उसकी चमक-दमक बेहूदा समझी जाती है। उन परिस्थितियों में परिधान वस्त्र सस्ते में बनाया जा सकता है। मुकुट किसी अच्छे खासे टोप की पेरोडी है; इत्यादि।
585. जब कोई कहता है “मुझे आशा है कि वह आएगा” — तो क्या यह उसकी मनःस्थिति के बारे में सूचना है, अथवा यह उसकी आशा की अभिव्यक्ति है? उदाहरणार्थ, यह मैं अपने आप से कह सकता हूँ। और निस्संदेह मैं स्वयं को सूचित नहीं कर रहा। यह आह हो सकती है; किन्तु ऐसा होना अनिवार्य नहीं। यदि मैं किसी को कहूँ “आज मैं अपने काम में मन नहीं लगा पा रहा; मैं निरंतर उसके आने के बारे में सोच रहा हूँ” — तो यह मेरी मनःस्थिति का विवरण कहलाएगा।
586. “मैंने सुना है कि वह आ रहा है; मैं सुबह से उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।” यह बात तो मेरी दिनचर्या की सूचना है। — वार्तालाप के दौरान मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कोई विशेष घटना अपेक्षित है, और इस निष्कर्ष पर इन शब्दों से पहुँचता हूँ: “तो अब मुझे उसके आने की अपेक्षा होनी चाहिए।” उसे इस अपेक्षा का प्रथम विचार, प्रथम चरण कहा जा सकता है। — “उसे देखने को मैं तरस रहा हूँ!” इस चीत्कार को अपेक्षा होने का चरण कहा जा सकता है। किन्तु आत्मालोचन के परिणामस्वरूप भी मैं इन्हीं शब्दों का उच्चारण कर सकता हूँ, किन्तु तब इनका अर्थ होगा: “तो अन्ततः यह हो ही गया, मैं अभी भी उसे देखने को तरस रहा हूँ।” बात तो यह है: इन शब्दों तक हम कैसे पहुँचे?
587. क्या यह पूछने का अर्थ होता है: “आप कैसे जानते हैं कि आपको विश्वास है?” — और क्या यह उत्तर है: “मैं इसे आत्मालोचन द्वारा जानता हूँ”?
कुछ परिस्थितियों में ऐसा कहना संभव होगा, किन्तु अधिकतर स्थितियों में ऐसा नहीं कहा जा सकता।
यह पूछने का अर्थ होता है: “क्या मैं वास्तव में उस लड़की से प्रेम करता हूँ, अथवा मैं अपने आप से छलावा कर रहा हूँ?” और आत्मालोचन की प्रक्रिया में तो संभावित काल्पनिक परिस्थितियों की, और उन अनुभूतियों की, जो होतीं यदि.... होता, स्मृतियों में जीना होता है।
588. “कल चले जाने के अपने निर्णय पर मैं विचार कर रहा हूँ।” (इसे मनःस्थिति का विवरण कहा जा सकता है।) — “आपके तर्क मुझे आश्वस्त नहीं करते; पहले के समान, अब भी, मेरी इच्छा कल चले जाने की है।” यहाँ इच्छा को अनुभूति कहने की लालसा होती है। विशिष्ट हठीलेपन की अनुभूति; अपरिवर्तनीय संकल्प की अनुभूति। (किन्तु यहाँ अनेक भिन्न विशिष्ट अनुभूतियाँ और दृष्टिकोण होते हैं।) — मुझे पूछा जाता है: “आप यहाँ कब तक ठहरेंगे?” मैं उत्तर देता हूँ: “मैं कल जा रहा हूँ; मेरी छुट्टी खत्म हो रही है।” — किन्तु इसके उलट: विवाद के अन्त में मैं कहता हूँ, “ठीक है! तो कल मैं जा रहा हूँ।” मैं तय कर लेता हूँ।
589. “अपने मन में मैंने यह तय कर लिया है।” और ऐसा कहते समय हम अपनी छाती की ओर इशारा करते हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से इस ढंग से बोलने को गम्भीरता-पूर्वक लेना चाहिए। विश्वास एक मनःस्थिति है इस अभिकथन से इस कथन hat गम्भीरतापूर्वक क्यों लेना चाहिए? (लूथर: “आस्था हमारे दिल में होती है।”)
590. “किसी का अपने कथन का गम्भीर अर्थ लगाना।” इस अभिव्यक्ति के अर्थ को कोई अपने दिल की ओर इंगित करने की भंगिमा द्वारा समझना सीख सकता है। किन्तु अब हमें पूछना चाहिए: “यह सब कैसे पता चलता है कि उसने इसे सीख लिया है?”
591. क्या मुझे कहना होगा कि इच्छुक व्यक्ति को किसी विषय की ओर प्रवृत्त
होने का अनुभव होता है? और यह कि ‘प्रवृत्त होने’ के विशिष्ट अनुभव होते हैं? — इस स्थिति पर विचार कीजिए: बातचीत के दौरान यदि अचानक कोई कुछ कहना चाहे, कोई आपत्ति करना चाहे, तो बहुधा वह लंबा साँस खींचते हुए मुँह खोलता है, फिर यदि वह आपत्ति न उठाने का निर्णय लेता है तो वह साँस छोड़ते हुए मुँह बंद कर लेता है। स्पष्टतः इस प्रक्रिया का अनुभव कुछ कहने को उद्यत होने का अनुभव है। मुझ पर निगाह रखने वाले को पता चल जाएगा कि मैं कुछ कहना चाहता था किन्तु फिर मैंने अपना इरादा छोड़ दिया। यानी, इस परिस्थिति में। — भले ही वर्तमान स्थिति में मेरी बोलने की इच्छा के संकेत कितने भी विशिष्ट क्यों न हों, किसी भिन्न परिस्थिति में, वह मेरे आचरण की इस प्रकार व्याख्या नहीं करेगा। और यह मानने का क्या कोई कारण है कि किसी नितान्त भिन्न परिस्थिति में जो ‘प्रवृत्त होने’ से संबंधित ही न हो, ऐसा ही अनुभव नहीं हो सकता?
592. “किन्तु जब आप कहते हैं ‘मेरी चले जाने की इच्छा है’, तो निस्संदेह आपका यही अर्थ होता है! यहाँ भी अर्थपूर्ण होने की मनःस्थिति ही वाक्य को जीवन प्रदान करती है। यदि आप किसी अन्य व्यक्ति के कथन को मात्र दोहराते हैं, मानो उसके बोलने के ढंग का उपहास करने के लिए, तो आप अर्थपूर्ण हुए बिना इसे कहते हैं।” — दार्शनिक चिंतन करते समय ऐसा प्रतीत हो सकता है। किन्तु आइए हम अनेक भिन्न स्थितियों और वार्तालापों की कल्पना करें, और विचार करें कि उनमें उस वाक्य के कौन से ढंग होंगे। — “उनमें मुझे सदैव कोई मानसिक आभास होता है; यद्यपि एक सा नहीं।” और जब आपने वाक्य को किसी का अनुसरण करते हुए दोहराया तो क्या आपमें कोई भी अनुभूति नहीं थी? और ‘अनुभूति’ को बोलने के शेष अनुभव से अलग कैसे किया जाता है?
593. दार्शनिक रुग्णता का मुख्य कारण — एक ही तरह का आहार: अपने विचारों का एक ही प्रकार के उदाहरण द्वारा पोषण।
594. “किन्तु अर्थपूर्ण ढंग से उच्चरित शब्द मात्र सतही ही नहीं होते, अपितु उनमें गहराई भी होती है!” बहरहाल, स्थिति तो यह है कि शब्दों को मात्र उच्चरित करने के बजाय जब उन्हें अर्थपूर्ण ढंग से उच्चरित किया जाता है तब कुछ भिन्न घटित होता है। — यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मैं इसे कैसे अभिव्यक्त करता हूँ। चाहे मैं कहूँ कि प्रथम स्थिति में उनमें गहराई होती है; अथवा उन्हें उच्चरित करते समय मेरे भीतर, मेरे मन में कुछ होता है; अथवा यह कहूँ कि उनका एक परिवेश होता है — ये सब एक जैसी ही बातें होती हैं।
“यदि यह हम सब को स्वीकार्य हो तो क्या यह सत्य नहीं होगी?”
(मुझे किसी अन्य का साक्ष्य स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि वह साक्ष्य है ही नहीं। उससे मुझे केवल यह सूचना मिलती है कि वह क्या कहना चाहता है।)
595. किसी वाक्य को किसी सन्दर्भ में कहना हमारे लिए स्वाभाविक होता है, और उसे सन्दर्भ से काट कर कहना अस्वाभाविक होता है। क्या हमें कहना चाहिए कि प्रत्येक वाक्य को स्वाभाविक रूप से उच्चरित करते समय हमें एक विशिष्ट अनुभूति होती है?
596. ‘परिचय’ और ‘स्वाभाविकता’ की अनुभूति। ‘अपरिचय’ की और ‘अस्वाभाविकता’ की अनुभूति अथवा अनुभूतियों को समझना सरल है क्योंकि प्रत्येक अपरिचित विषय से हम पर अपरिचय का प्रभाव नहीं पड़ता। यहाँ हमें “अपरिचित” कहे जाने वाले विषय पर विचार करना होगा। जब सड़क पर कोई चट्टान पड़ी हो तो हम उसे चट्टान के रूप में जानते हैं, किंतु संभवतः उस चट्टान के रूप में नहीं जो सदैव ही वहाँ थी। उदाहरणार्थ, हम किसी व्यक्ति को, व्यक्ति के रूप में पहचानते हैं, न कि किसी परिचित के रूप में। पुराने परिचय की अनुभूतियाँ होती हैं: वे कभी-कभी अवलोकन के विशिष्ट ढंग से, अथवा शब्दों द्वारा अभिव्यक्त की जाती हैं: “वही पुराना कमरा!” (जिसमें मैं वर्षों पहले रहा था और अब वापिस आने पर उसे वैसा ही पाता हूँ)। इसी प्रकार अजनबीपन की अनुभूतियाँ होती हैं। सहसा मैं रुकता हूँ, वस्तु को अथवा व्यक्ति को संशय अथवा अविश्वास से देखता हूँ और कहता हूँ, “यह सब तो मुझे अजनबी लगता है।” — किन्तु अजनबीपन की इस अनुभूति के कारण हम यह नहीं कहते कि हमारे द्वारा भली भांति जाने गये, और हमें अजनबी न लगने वाले विषयों से, हमें परिचय की अनुभूति होती है। — मानो हम सोचते हों कि अजनबीपन की रिक्तता की अनुभूति को निश्चय ही किसी प्रकार भी भरना होगा! इस प्रकार की स्थिति के लिए स्थान तो है, और जब इनमें से कोई एक स्थिति नहीं रहती तो वहाँ दूसरी स्थिति जगह बना लेती है।
597. जैसे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले जर्मन व्यक्ति की जुबान पर जर्मन भाषा का असर दिखाई देता है, यद्यपि ऐसा नहीं होगा कि उसे पहले जर्मन भाषा के वाक्य सूझते हों और फिर वह उन्हें अंग्रेजी में अनूदित करता हो; जैसे वह अंग्रेजी ऐसे बोलता है, मानो वह ‘अचेतन रूप से’ जर्मन भाषा से अनुवाद कर रहा हो — वैसे ही हम बहुधा समझते हैं मानो हमारी सोच किसी विचार-योजना पर आधारित हो; मानो हम विचार की किसी आदिम विचार-प्रणाली से, अपनी विचार-प्रणाली में अनुवाद कर रहे हों।
598. दार्शनिक चिन्तन करते समय हमें अननभूत अनुभूतियों की कल्पना करनी पड़ती है। वे हमारे ही विचारों की व्याख्या करने में सहायक होती हैं।
“यहाँ हमारी सोच की व्याख्या को अनुभूति की आवश्यकता है!” यह तो ऐसा ही है मानो हमारी धारणा इस आवश्याकता का परिणाम हो।
599. दर्शन में हम निष्कर्ष नहीं निकालते। “किन्तु ऐसा होना भी चाहिए!” यह तो दार्शनिक प्रतिज्ञप्ति नहीं है। दर्शन तो केवल वही कहता है जिसे सभी स्वीकार करते हैं।
600. क्या हर ऐसा विषय जिसे हम सुस्पष्ट नहीं समझते, हम पर अस्पष्टता की छाप छोड़ता है? क्या साधारण विषय सदैव हम पर साधारणता की छाप छोड़ते हैं?
601. जब मैं इस मेज के बारे में बात करता हूँ, — तो क्या मैं स्मरण करता हूँ कि इस वस्तु को मेज कहते हैं?
602. “प्रातः अपने कमरे में प्रवेश करने पर क्या आपने अपनी मेज को पहचान लिया था?” यह पूछे जाने पर — मुझे निस्संदेह कहना चाहिए “हाँ, निश्चय ही!” किन्तु फिर भी यह कहना भ्रामक ही होगा कि पहचानने की क्रिया संपन्न हुई। निस्संदेह, मेज मेरे लिए अपरिचित नहीं थी; मुझे उसे देख कर अचंभा नहीं हुआ, जैसा कि मुझे किसी अन्य मेज अथवा किसी अपरिचित वस्तु के वहाँ पड़े होने पर होता।
603. कोई भी नहीं कहेगा कि हर बार जब मैं अपने कमरे में, अपने चिर-परिचित परिवेश में जाता हूँ, तो जो कुछ भी मैं देखता हूँ और जिसे मैं सैकड़ों बार पहले भी देख चुका हूँ, उसकी मैं फिर से पहचान करता हूँ।
604. ‘पहचानना’ कही जाने वाली प्रक्रियाओं का अयथार्थ चित्र बनाना सरल है; मानो पहचानना तो सदैव ही दो प्रभावों की एक दूसरे से तुलना करना हो। यह तो ऐसा ही है मानो मेरे पास किसी वस्तु का चित्र हो, और मैं उसका प्रयोग उस विषय को पहचानने के लिए करूँ, जिसका वह चित्र है। हमारी स्मृति में ऐसी तुलना करने की शक्ति होती है, क्योंकि उसमें पूर्व-अवलोकित विषय के चित्र को सँजोने की क्षमता होती है, अथवा वह हमें अपने बीते हुए दिनों में झाँकने देती है। (मानो कि वह दूरबीन हो)।
605. और ऐसा नहीं होता कि मैं विषय की उसके पास ही रखे चित्र के साथ तुलना करता रहता हूँ, अपितु मैं तो विषय को ऐसे देखता हूँ मानो वह चित्र से आच्छादित हो। अतः मैं एक ही वस्तु को देखता हूँ, दो को नहीं।
606. हम कहते हैं, “उसकी वाणी में मौलिक अभिव्यक्ति थी”, यदि वह कृत्रिम होती तो हम ऐसा मानते कि उसकी पृष्ठभूमि में कोई अन्य अभिव्यक्ति है। — वह संसार को यह रूप दिखाता है, किन्तु आन्तरिक रूप से उसका कोई अन्य रूप है। — किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि जब उसकी अभिव्यक्ति मौलिक होती है तो दोनों अभिव्यक्तियाँ एक सी होती हैं।
((“एक नितान्त विशिष्ट अभिव्यक्ति।”))
607. कोई समय का कैसे पता लगाता है? बहरहाल, मेरा आशय बाह्य प्रमाणों, जैसे कि सूर्य की स्थिति, कमरे में प्रकाश आदि की स्थिति से नहीं है। — उदाहरणार्थ, कोई अपने आप से पूछता है, “इस समय क्या बजा होगा?” वह क्षण भर को रुकता है, संभवत: घड़ी की सुइयों की कल्पना करता है और फिर कोई समय बताता है। — अथवा, वह विभिन्न संभावनाओं पर विचार करता है, पहले एक समय के बारे में सोचता है, फिर दूसरे के बारे में, और अन्त में किसी एक समय पर रुक जाता है। इसी प्रकार समय बताया जाता है। — किन्तु समय के अनुमान के इस विचार की संगति पूर्ण विश्वास की अनुभूति द्वारा नहीं होती; और क्या इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसका आन्तरिक घड़ी से मेल है? — नहीं, मैं किसी भी घड़ी से समय नहीं देखता; पूर्ण विश्वास की अनुभूति का कारण तो बिना किसी संदेह की अनुभूति के, सुनिश्चित ढंग से मेरे द्वारा कोई समय बताना है। — किन्तु इस समय को बताते समय क्या बहुत कुछ घटित नहीं होता? — मैं नहीं जानता; यदि आप उसे किसी एक बिन्दु पर पहुँचकर मेरी विचार-प्रक्रिया का थम जाना न कहें। न ही मुझे यहाँ ‘विश्वास की अनुभूति’ का उल्लेख करना चाहिए था, अपितु मुझे कहना चाहिए था: मैंने कुछ क्षणों तक विचार किया, और फिर स्पष्टतया कहा कि सवा पाँच बजे हैं। — किन्तु यह निर्णय मैंने किस आधार पर किया? संभवतः मुझे कहना चाहिए: “मात्र अनुभूति द्वारा”, जिसका अर्थ तो यही है कि मैंने उसे जो कुछ भी मुझे सूझा उस पर छोड़ दिया। — किन्तु समय का अनुमान लगाने के लिए आपने अपनी मनःस्थिति को एक विशिष्ट प्रकार से ढाला होगा; और दिन का कोई भी समय बताने को आप ठीक समय होना तो नहीं मानते! — दोहराते
हुए: मैंने अपने आप से पूछा “क्या समय हुआ होगा?” यानी, मैंने इस प्रश्न को किसी वृत्तांत में नहीं पढ़ा, अथवा किसी अन्य व्यक्ति को उद्धृत नहीं किया; न ही मैं इन शब्दों के उच्चारण का अभ्यास कर रहा था; इत्यादि। मेरे द्वारा इन शब्दों को कहने के ये सन्दर्भ नहीं थे। — किन्तु फिर, कौन से सन्दर्भ थे? — मैं नाश्ते के बारे में सोच रहा था और डर रहा था कि कहीं आज नाश्ते में देर न हो जाए। ऐसे सन्दर्भ थे। — किन्तु क्या आप यह नहीं समझते कि आप ऐसी मनःस्थिति में थे जो यद्यपि अनिर्वचनीय होती है, तो भी विशिष्ट परिवेश से घिरे होने की अनुभूति के समान, समय का अनुमान लगाने की द्योतक होती है? — हाँ, विशेषता तो यह है कि मैंने अपने आप से कहा “क्या समय हुआ होगा?” — और यदि इस वाक्य का विशिष्ट परिवेश होता है तो मैं उस परिवेश को वाक्य से अलग कैसे करूँ? यदि मैंने इस पर विचार न किया होता कि वाक्य को उद्धरण के समान, परिहास के समान, वक्तृत्वकला के अभ्यास इत्यादि के समान, भिन्न रूपों में प्रयुक्त किया जा सकता है तो मैं कभी भी ऐसा न समझता कि वाक्य का परिवेश होता है। और तब अचानक मैं कहना चाहता था, तब अचानक मुझे प्रतीत हुआ, कि शब्दों से मेरा कुछ विशेष तात्पर्य होगा; यानी, इन अन्य स्थितियों से भिन्न तात्पर्य। विशेष परिवेश का चित्र मुझ पर हावी हो गया; इसे अब मैं सुस्पष्ट रूप से समझ सकता हूँ — यानी तब तक जब तक कि मैं उसे न देखूं, जिसे मेरी स्मृति मुझे बताती है, कि वह वास्तव में घटित हुआ।
और जहाँ तक निस्संदिग्धता की अनुभूति की बात है: कभी-कभी न्यूनाधिक विश्वासपूर्वक मैं अपने आप को कहता हूँ, “मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि.... बजे हैं”। यदि आप मुझसे इस निश्चयात्मकता का कारण पूछें, तो मेरे पास इसका कोई भी कारण नहीं होता।
यदि मैं कहूँ कि मैं आन्तरिक घड़ी से समय जानता हूँ — तो वह भी एक चित्र ही है, और उसके होने का प्रमाण मेरा यह कहना ही है कि मैं उसे देख कर बताता हूँ कि अमुक समय हुआ है। और इस चित्र का उद्देश्य इस स्थिति की, किसी अन्य स्थिति से तुलना करना है। मैं यहाँ पर दो भिन्न स्थितियों की संभावना को ही नकारता हूँ।
608. समय का अनुमान लगाने में मनःस्थिति की अमूर्तता अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। वह अमूर्त क्यों है? क्या इसका कारण यह नहीं है कि हम अपनी मूर्त स्थिति को विशिष्ट कल्पित स्थिति का भाग मानने से इन्कार करते हैं?
609. परिवेश का विवरण तो उद्देश्य-विशेष के लिए भाषा का विशेष प्रयोग है।
((परिवेश के रूप में ‘समझने’ की व्याख्या मानसिक क्रिया के समान करना। किसी भी विषय के साथ संलग्न करने के लिए कोई परिवेश निर्मित किया जा सकता है। ‘अवर्णनीय चरित्र’।))
610. कॉफ़ी की महक का विवरण दीजिए। — ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? क्या हमारे पास शब्दों की कमी है? और किस बात के लिए शब्दों की कमी है? — किन्तु हमें यह विचार ही कैसे आया कि ऐसा विवरण तो संभव होना ही चाहिए? क्या आपको कभी ऐसे विवरण का अभाव खटका है? क्या आपने कभी इस महक का विवरण देने का प्रयत्न किया, और विवरण नहीं दे पाये?
(मैं कहना चाहूँगा: “ये सुर कुछ कहते हैं किन्तु मुझे नहीं पता कि क्या? ये सुर भव्य संकेत हैं किन्तु मेरे पास इनकी व्याख्या के लिए कुछ भी नहीं है। गंभीर स्वीकृति के रूप में सिर हिलाना। जेम्स: “हमारी शब्दावली अपर्याप्त है।” तो हम नई शब्दावली क्यों नहीं बनाते? नई शब्दावली बना सकने की स्थिति कैसी होगी?)
611. कोई कहना चाहेगा, “इच्छा करना भी अनुभव ही है” (‘इच्छा’ भी ‘विचार’ ही है)। इसे जब होना होता है तभी होती है, और मैं इसे जब चाहे नहीं कर सकता।
कर नहीं सकता? — किस प्रकार? तो मैं कर सकता हूँ? जब मैं ऐसा कहता हूँ तो मैं इच्छा करने की तुलना किससे करता हूँ?
612. उदाहरणार्थ, अपनी भुजा को हिलाने-डुलाने के बारे में, मुझे यह नहीं कहना चाहिए: जब वह हिलती है तो हिलती है, इत्यादि। और यह वह प्रसंग है जिसमें हम सार्थक रूप से कहते हैं कि हमारे साथ अपने आप कुछ भी नहीं होता, अपितु हम कहते हैं कि हम ऐसा करते हैं। “मुझे अपनी भुजा के उठने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती — मैं उसे उठा सकता हूँ।” और यहाँ, उदाहरणार्थ, मैं अपनी भुजा के हिलने-डुलने में और अपने दिल की तेज धड़कन के कम होने में तुलना कर रहा हूँ।
613. उसी अर्थ में जिसमें मैं कुछ भी कर सकता हूँ (जैसे ज्यादा खाकर पेट में दर्द), उसी अर्थ में इच्छा करने की क्रिया भी कर सकता हूँ। इस अर्थ में मैं अपनी तैरने की इच्छा को जल में कूद कर संपन्न कर सकता हूँ। निस्संदेह मैं कहना चाहता था: मैं इच्छा करने की इच्छा नहीं कर सकता; यानी, इच्छा करने की इच्छा करने का कोई अर्थ ही नहीं होता। “इच्छा करना” किसी क्रिया का नाम नहीं है; और इसीलिए, किसी स्वैच्छिक क्रिया का नाम भी नहीं। और मेरी अनुचित अभिव्यक्ति के प्रयोग की उत्पत्ति तो इच्छा को तात्कालिक कारणरहित विषय के समान समझने की, हमारी प्रवृत्ति
में है। इस विचार के मूल में भ्रामक उपमा है; कारणात्मक संबंध तो मशीन के दो भागों को जोड़ने वाली यन्त्र-प्रणाली से बनता है। गड़बड़ी से संबंध टूट सकता है। (यहाँ हम उन गड़बड़ियों के बारे में ही सोचते हैं जो साधारणत: यंत्र-प्रणाली में आते हैं, न कि, उदाहरणार्थ, पहियों के यकायक नरम पड़ जाने, अथवा एक दूसरे में फँस जाने इत्यादि के बारे में)
614. जब मैं अपनी भुजा को स्वेच्छा से ऊपर उठाता हूँ, तो मैं उसे हिलाने के लिए किसी उपकरण का प्रयोग नहीं करता। मेरी इच्छा भी इस प्रकार का उपकरण नहीं है।
615. “यदि मेरी इच्छा करना किसी प्रकार की कामना करना न हो, तो उसे क्रिया ही होना चाहिए। उसे किसी भी रूप में क्रिया से कम तो कहा ही नहीं जा सकता।” यदि वह क्रिया है तो वह उस शब्द के साधारण अर्थ में ही हो सकती है; अतः वह बोलना, लिखना, चलना, किसी वस्तु को उठाना, किसी विषय की कल्पना करना होती है। किन्तु यह बोलने का, लिखने का, किसी वस्तु को उठाने का, किसी विषय की कल्पना करने इत्यादि का — प्रयत्न करना, चेष्टा करना, उद्यम करना भी होती है।
616. जब मैं अपनी भुजा उठाता हूँ, तो मैं यही कामना नहीं करता कि वह उठ जाए। स्वैच्छिक क्रिया में इस कामना का कोई स्थान नहीं है। वास्तव में यह कहना संभव है: “मुझे आशा है कि मैं त्रुटिरहित वृत्त बनाऊँगा।” और यह इस कामना की अभिव्यक्ति है कि उसका हाथ अमुक-अमुक ढंग से घूमे।
617. जब हम एक विशेष प्रकार से अपनी उँगलियों को एक दूसरे में फँसा लेते हैं तो यदि हमें कोई किसी विशिष्ट उँगली को इंगित करके अथवा दिखाकर हिलाने को कहता है तो हम उसे हिला नहीं पाते। दूसरी ओर यदि वह उसे छू लेता है तो हम उसे हिला पाते हैं। इस अनुभव का वर्णन इस तरह किया जा सकता है: हम उँगली को हिलाने की इच्छा करने में असमर्थ हैं। यह उस स्थिति से नितान्त भिन्न है जिसमें हम उँगली को हिलाने में असमर्थ होते हैं; क्योंकि किसी ने उसे पकड़ रखा है। अब पूर्व स्थिति का विवरण यह कहकर दिया जा सकता है: जब तक उँगली का स्पर्श न किया जाए तब तक उसे हिलाने की इच्छा करने के प्रयोग का कोई अर्थ नहीं है। उँगली को स्पर्श करने पर ही यह जाना जा सकता है कि अब हमें क्या करना है। — किन्तु ऐसी अभिव्यक्ति भ्रामक है। कहा जा सकता है: “स्पर्श-ज्ञान के बिना मुझे कैसे पता चलता है कि मेरी इच्छा को कहाँ प्रवृत्त होना है?” किन्तु स्पर्श-ज्ञान होने पर भी यह कैसे पता चलता है कि मुझे इच्छा को कहाँ प्रवृत्त करना है?
यह तो ऐसा ही कहना हुआ कि हमने मान लिया हो कि हमारी उँगली को लकवा मार गया हो किन्तु अनुभव से यह पता चले कि उसमें स्पर्श की अनुभूति तो है; इसे प्रागनुभविक रूप से नहीं समझा जा सकता।
618. यहाँ हम इच्छा करने वाले व्यक्ति की कल्पना किसी द्रव्यहीन (जड़ता-रहित) वस्तु के समान करते हैं; उस मोटर के समान जिसे अपनी जड़ता को काबू करना है। और इसीलिए वह मात्र संचालक ही है, चलायमान नहीं। यानी: कहा जा सकता है “मैं चाहता तो हूँ किन्तु मेरी देह मेरा साथ नहीं देती। — किन्तु यह नहीं “मेरी इच्छा मेरे आधीन नहीं है।” (ऑगस्टीन)
किन्तु जैसे मैं इच्छा करने में असमर्थ नहीं होता वैसे ही, मैं इच्छा करने का प्रयत्न करने में भी असमर्थ नहीं होता।
619. कहा जा सकता है: “चूँकि मैं कभी भी इच्छा करने का प्रयत्न नहीं कर सकता इसीलिए मैं सदैव इच्छा ही कर सकता हूँ।”
620. ऐसा प्रतीत होता है कि क्रिया में तो कोई अनुभव होता ही नहीं। वह सुई की नोक की तरह विस्तारहीन बिन्दु जैसी प्रतीत होती है। यह बिन्दु ही वास्तविक कर्ता है। और दृश्यमान घटनाएं तो इसकी क्रिया का परिणाम ही होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि “मैं.... करता हूँ” इसका समस्त अनुभव से भिन्न एक निश्चित अर्थ होता है।
621. हमें यह नहीं भूलना चाहिए: जब ‘मैं अपनी भुजा उठाता हूँ’, तो वह ऊपर उठती है। और यह समस्या उत्पन्न होती है: मैं अपनी भुजा उठाता हूँ इसमें से यदि मैं इस तथ्य को निकाल दूँ कि मेरी भुजा ऊपर उठती है तो फिर क्या बचा रहेगा? ((क्या गतिबोधक संवेदनाएं मेरी इच्छा-शक्ति होती हैं?))
622. जब मैं अपनी भुजा उठाता हूँ, तो साधारणतः मैं उसे उठाने का प्रयत्न नहीं करता।
623. “किसी भी प्रकार मैं उस घर तक पहुँच जाऊँगा”। — किन्तु यदि वहाँ तक पहुँचने में कोई कठिनाई ही न हो — तो भी क्या मैं घर तक किसी भी प्रकार पहुँचने का प्रयत्न कर सकता हूँ?
624. उदाहरणार्थ, किसी प्रयोगशाला में, बिजली के झटके दिए जाने पर आँखें हुए कोई कह सकता है “मैं अपनी भुजा को ऊपर-नीचे हिला रहा हूँ” — यद्यपि उसकी भुजा हिल ही नहीं रही होती। “अतः” हम कहते हैं, “उसे भुजा उठाने की विशेष अनुभूति हो रही है।” आँखें मूँद कर अपनी भुजा को इधर-उधर हिलाइये। और ऐसा करते हुए अपने आपसे यह कहने का प्रयत्न करें कि मेरी भुजा तो स्थिर है और मुझे अपनी माँसपेशियों एवं जोड़ों में कतिपय विचित्र अनुभूतियाँ ही हो रही हैं!
625. “आप को कैसे पता चलता है कि आपने अपनी भुजा उठाई हुई है?” — “मुझे इसकी अनुभूति होती है” तो जिसे आप पहचानते हैं वह अनुभूति होती है? और क्या आपको उसे ठीक-ठीक पहचानने का भरोसा है? आपको भरोसा है कि आपने अपनी भुजा को उठाया है; क्या यह पहचान की कसौटी, उस का मापदण्ड नहीं है?
626. “जब मैं इस वस्तु को छड़ी से छूता हूँ, तो मुझे छूने की संवेदना छड़ी के सिरे में होती है, न कि छड़ी वाले हाथ में”। जब कोई कहता है, “वेदना मेरे हाथ में नहीं अपितु मेरी कलाई में है”, तो इसके परिणामस्वरूप चिकित्सक मेरी कलाई का निरीक्षण करता है। किन्तु इससे क्या अंतर पड़ता है जब मैं कहूँ कि मुझे वस्तु की कठोरता की अनुभूति छड़ी के सिरे में होती है, अथवा यह कहूँ कि मुझे उसकी अनुभूति अपने हाथ में होती है। क्या मेरे कहने का यह अर्थ होता है: “मानो मेरे स्नायुओं के छोर छड़ी के सिरे में हों?” ऐसा किस अर्थ में होता है? “हाँ, मैं किसी प्रकार भी यह कहने को प्रवृत्त होता हूँ “मुझे कठोरता इत्यादि की संवेदना छड़ी के छोर में होती है।” इसका अर्थ यह होता है कि जब मैं किसी वस्तु को छूता हूँ तो मैं अपने हाथों को नहीं देखता अपितु छड़ी के छोर को देखता हूँ: और यह भी कि मैं अपने संवेदना का विवरण यह कहकर देता हूँ: “वहाँ मुझे किसी कठोर एवं गोल वस्तु की अनुभूति हो रही है” — न कि यह कहकर: “मुझे अपने अँगूठे, तर्जनी और अनामिका... के छोरों पर दबाव का अनुभव हो रहा है।” उदाहरणार्थ, यदि कोई मुझे पूछे “छड़ी को पकड़ने वाली उँगलियों में आपको अब कैसी अनुभूति हो रही है?” तो मेरा यह उत्तर हो सकता है: “मैं नहीं जानता — मुझे तो वहाँ किसी कठोर एवं खुरदुरे पदार्थ की अनुभूति हो रही है।”
627. स्वैच्छिक क्रिया के निम्नलिखित विवरण पर विचार कीजिए: “मैं पाँच बजे घंटी बजाने का निश्चय करता हूँ, और जब पाँच बजते हैं तो मेरी भुजा घंटी बजाने लगती है।” — क्या यह तो उचित विवरण है, और यह उचित विवरण नहीं
है: “...... और जब पाँच बजते हैं तो मैं अपनी भुजा उठाता हूँ” — कोई प्रथम विवरण को यह कहकर पूर्ण करना चाहेंगा: “और देखो! पाँच बजने पर मेरी भुजा ऊपर उठती है।” पर इस “और देखो!” का निश्चित रूप से यहाँ कोई संबंध नहीं है। जब मैं अपनी भुजा उठाता हूँ तो यह नहीं कहता “देखो, मेरी भुजा ऊपर उठ रही है!”
628. अतः कहा जा सकता है: विस्मय का अभाव स्वैच्छिक गतिविधि का लक्षण होता है। और अब मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि आप पूछें, “किन्तु यहाँ कोई विस्मित क्यों नहीं होता?”
629. जब लोग भविष्य के पूर्वज्ञान की संभावनाओं का उल्लेख करते हैं तो वे स्वयं अपनी स्वैच्छिक गतिविधियों के बारे में भविष्यवाणी के तथ्य को सदैव भूल जाते हैं।
630. इन दो भाषा-खेलों पर विचार कीजिए:
(क) कोई किसी को भुजा की विशिष्ट गतिविधि करने का, अथवा देह को विशिष्ट स्थिति में रखने का आदेश देता है (व्यायामशाला का गुरु एवं शिष्य)। और इस भाषा-खेल का यह एक रूपान्तर है: शिष्य स्वयं को आदेश देता है और फिर उनका पालन करता है।
(ख) किन्हीं विशिष्ट नियमित प्रक्रियाओं का कोई निरीक्षण करता है — उदाहरणार्थ, विभिन्न धातुओं पर अम्लों की प्रतिक्रियाओं का — और तत्पश्चात् वह किन्हीं विशिष्ट स्थितियों में होने वाली प्रतिक्रियाओं के बारे में भविष्यवाणी करता है।
इन दोनों भाषा-खेलों में एक स्पष्ट सादृश्य है और एक मौलिक भेद भी। दोनों में उच्चारित शब्दों को ‘भविष्यवाणी’ कहा जा सकता है। किन्तु प्रथम तकनीक को जानने के प्रशिक्षण की, द्वितीय तकनीक को जानने के प्रशिक्षण से तुलना कीजिए।
631. “अब मैं दो प्रकार की दवाइयाँ खाने जा रहा हूँ, और आधे घंटे में मैं बीमार हो जाऊँगा।” प्रथम स्थिति में तो मैं कर्ता हूँ, और द्वितीय स्थिति में मैं मात्र द्रष्टा हूँ ऐसा कहने से कुछ भी सिद्ध नहीं होता; न ही यह कहने से कि प्रथम स्थिति में मैं आंतरिक रूप से कार्य-कारण संबंध को समझता हूँ, जब कि दूसरी स्थिति में बाह्य रूप से। न ही इसी तरह की अन्य बातें कहने से।
न ही यह कहना उचित है कि प्रथम प्रकार की भविष्यवाणी, द्वितीय प्रकार की भविष्यवाणी से, कहीं अधिक निर्दोष है।
अपने आचरण के निरीक्षण के आधार पर मैंने नहीं कहा था कि मैं दो दवाइयों
को खाने जा रहा हूँ। इस प्रतिज्ञप्ति के पूर्ववृत्त भिन्न थे। मेरा आशय उन विचारों, क्रियाओं इत्यादि से था जो हमें यहाँ तक ले आए। और यह कहना तो भ्रामक ही होगा: “आपके उच्चारण की आवश्यक पूर्वकल्पना तो आपका निर्णय ही था।”632. मैं यह नहीं कहना चाहता कि “मैं दो दवाइयाँ खाने जा रहा हूँ” इस अभिप्राय की अभिव्यक्ति में भविष्यवाणी कारण है — और अभिप्राय की पूर्ति उस अभिव्यक्ति का परिणाम। (संभवतः, शारीरिक निरीक्षण इसका निर्धारण कर पाए।) फिर भी, इतना तो सत्य ही है: किसी मनुष्य की क्रियाओं की भविष्यवाणी बहुधा हम उसके निर्णय की अभिव्यक्ति से कर सकते हैं। एक महत्त्वपूर्ण भाषा-खेल।
633. “कुछ क्षण पूर्व आपको टोक दिया गया था; क्या अभी भी आपको पता है कि आप क्या कहने जा रहे थे?”- - यदि अब भी मुझे उस बात का पता है और मैं उसे कहता हूँ - तो क्या इसका अर्थ है कि मैंने पहले से ही उसे सोच रखा था, किन्तु उसे कहा नहीं था? नहीं; यदि आप उस निश्चय को ही, विचार से पहले पूर्ण हो जाने की कसौटी नहीं मान लेते, जिस निश्चय से टोके गये वाक्य को मैं आगे बढ़ाता हूँ। — किन्तु, निस्संदेह, मेरी परिस्थिति और विचारों में वे सभी विषय निहित थे जिनसे वाक्य को आगे बढ़ाने में सहायता मिलती है।
634. जब मैं टोके गये वाक्य को आगे बढ़ाता हूँ और कहता हूँ कि मैं उसे इस प्रकार बढ़ाता, तो ऐसा करना संक्षिप्त टिप्पणियों से विचार-श्रृंखला को निष्पादित करने के समान है।
तो क्या मैं टिप्पणियों की व्याख्या नहीं करता? क्या इन परिस्थितियों में वाक्य को केवल एक प्रकार से ही आगे बढ़ाना संभव था? निस्संदेह, नहीं। किन्तु मैंने विभिन्न व्याख्याओं में से तो चुनाव नहीं किया। मुझे स्मरण था कि मैं यह कहने जा रहा था।
635. “मैं कहने वाला था कि....।” — आपको विभिन्न विवरणों की स्मृति है किन्तु वे समस्त विवरण भी आपके अभिप्राय को प्रकट नहीं करते। यह तो ऐसा ही है मानो किसी दृश्य का एक चित्र लिया गया हो किन्तु उसमें केवल कुछ ही छिट-पुट विवरणों का पता चलता हो: कहीं एक हाथ, कहीं चेहरे अथवा टोप का कोई भाग, — और बाकी सब अन्धकारमय हो। और अब ऐसा है मानो हमें सुनिश्चित रूप से विदित हो कि संपूर्ण चित्र किसका है। मानो मैं अँधेरे को पढ़ सकता हूँ।
636. ये ‘विवरण’ मेरे लिए उन अन्य परिस्थितियों के समान अप्रसांगिक नहीं
हैं। किन्तु यदि मैं किसी को कहूँ “क्षण भर को तो मैं यह कहने वाला था कि....” तो इससे उसे उन विवरणों का पता नहीं चलता, न ही उसे उनके बारे में अनुमान लगाने की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ, उसे यह जानने की आवश्यकता नहीं है कि मैंने बोलने के लिए पहले ही मुँह खोल रखा था। किन्तु वह इस प्रकार ‘चित्र को पूर्ण’ कर सकता है। (और यह मेरे द्वारा उसे बताई जाने वाली बात को समझने की क्षमता का भाग है।)
637. “मुझे ठीक से पता है कि मैं क्या कहने वाला था!” किन्तु फिर भी मैंने उसे नहीं कहाँ — और फिर भी, तत्कालीन घटित और याद रहने वाली प्रक्रिया से मुझे उसका पता नहीं चलता।
न ही मैं उस परिस्थिति एवं उसकी पूर्ववर्ती घटनाओं का विवेचन करता हूँ। क्योंकि न तो मैं उन पर विचार करता हूँ, और न ही उनकी समीक्षा करता हूँ।
638. इसके बावजूद यह क्यों होता है कि “एक बार तो मैं उसे धोखा देने वाला था” ऐसा कहने में मुझे व्याख्या छुपी सूझती है?
“आप कैसे आश्वस्त हो सकते हैं कि एक बार तो आप उसे धोखा देने वाले थे? कहीं आपके विचार एवं कर्म बचकाने तो नहीं थे?”
क्योंकि क्या प्रमाण बिल्कुल अपर्याप्त नहीं हो सकते? हाँ, जब हम इसका विवेचन करते हैं तो साधारण रूप से अपर्याप्त प्रतीत होते हैं; किन्तु क्या इसका कारण यह नहीं है कि इस प्रमाण के इतिहास पर तो हम विचार ही नहीं कर रहे? किसी के सामने बीमारी का क्षणिक नाटक करने के अभिप्राय के लिए कुछ विशिष्ट पूर्ववर्ती स्थितियाँ आवश्यक हैं।
यदि कोई कहता है “क्षण भर को.....” तो क्या वह वास्तव में किसी क्षणिक प्रक्रिया का विवरण देता है?
किन्तु समस्त कहानी भी मेरे “क्षण भर को....” कहने का प्रमाण नहीं थी।
639. कहा जा सकता है कि मत का विकास होता है। किन्तु इसमें भी भूल है।
640. “यह विचार मेरे पहले विचारों से संबद्ध है।” — वह कैसे संबद्ध होता है? ऐसे संबंध की अनुभूति से? किन्तु वास्तव में अनुभूति विचारों को एक साथ कैसे बाँध सकती है? — यहाँ “अनुभूति” शब्द अत्यंत भ्रामक है। किन्तु कभी-कभी सुनिश्चित रूप से यह कहना संभव होता है: “यह विचार उन पूर्ववर्ती विचारों से संबंधित है” और फिर भी हम उनका संबंध नहीं दिखा पाते। संभवतः, वह बाद में होता है।
641. “मेरा अभिप्राय कोई कम सुनिश्चित नहीं होता, यदि मैंने कहा होता 'अब मैं उसे धोखा दूँगा।” — किन्तु यदि आपने ये शब्द कहे होते, तो क्या आप अनिवार्यतः उसके अर्थ के प्रति गम्भीर होते? (इसीलिए, अभिप्राय की अत्यधिक स्पष्ट अभिव्यक्ति भी अभिप्राय का अपर्याप्त प्रमाण होती है।)
642. “उस क्षण मुझे उससे घृणा थी।” — यहाँ क्या हुआ? क्या इसमें विचार, अनुभूतियाँ और क्रियाएं निहित नहीं थीं? और यदि उस क्षण को दोहराना हो तो मैं विशिष्ट मुखाकृति बनाऊँगा, कतिपय घटनाओं के बारे में सोचूँगा, विशिष्ट ढंग से श्वास-प्रश्वास करूँगा, अपने में विशिष्ट अनुभूतियों को जागृत करूँगा। सम्भव है कि घृणा भड़क उठने से संबन्धित बातचीत या परिदृश्य की कल्पना भी करूँ। और संभवतः मैं वास्तविक स्थिति में होने वाली मानसिक अनुभूतियों सहित उस परिदृश्य का मंचन करूँ। यह तथ्य कि मैंने वैसा अनुभव किया है स्वाभाविकतः मुझे उनका मंचन करने में सहायक होगा।
643. यदि अब मैं इस घटना से लज्जित हूँ, तो मैं संपूर्ण बात: शब्दों से, तीक्ष्ण आवाज, इत्यादि से लज्जित हूँ।
644. “जो मैंने उस समय किया उससे मैं लज्जित नहीं हूँ, अपितु मैं अपने अभिप्राय से लज्जित हूँ।” — और क्या मेरी क्रिया में मेरा अभिप्राय भी निहित नहीं था? लज्जा का क्या औचित्य है? घटना का संपूर्ण इतिहास।
645. “क्षण भर को तो मेरा आशय था....।” यानी, मुझे एक विशिष्ट अनुभूति, एक आंतरिक अनुभव हुआ; और मुझे उसका स्मरण है। और अब मुझे उसका बिल्कुल वैसा ही स्मरण है! तो ऐसा प्रतीत होता है कि अभिप्राय का ‘आन्तरिक अनुभव’ पुनः विलुप्त हो गया है। उसके स्थान पर विचारों की, अनुभूतियों की, गतिविधियों की, और पूर्वस्थितियों से संबंध की भी स्मृति है।
यह तो माइक्रोस्कोप के समायोजन को बदलने जैसा ही है। जो अब फोकस में है वह हमें पहले दिखाई नहीं दिया।
646. “खैर, इससे तो यही पता चलता है कि आपने अपने माइक्रोस्कोप का समायोजन ठीक नहीं किया है। आपको जीवाणु-संजनन के एक विशिष्ट भाग को देखना था, किन्तु आप देख किसी और भाग को रहे हैं।”
यह तो ठीक ही है। किन्तु मान लीजिए कि (लेन्स के विशिष्ट समायोजन से) मुझे किसी एक संवेदना का स्मरण हुआ; उसे “अभिप्राय” कहने का अधिकार मुझे कैसे है? यह हो सकता है कि (उदाहरणार्थ) मेरे प्रत्येक अभिप्राय से संलग्न कोई विशिष्ट अनुभूति हो।
647. अभिप्राय की स्वाभाविक अभिव्यक्ति कौन सी है? — पक्षी पर झपटती हुई बिल्ली को अथवा किसी बंधक जंगली पशु को छूट जाने का प्रयास करते हुए देखिए।
((संवेदनाओं से संबंधित प्रतिज्ञप्तियों के साथ संबंध।))
648. “मुझे अब उन शब्दों का स्मरण नहीं है जिनका मैंने प्रयोग किया था, किन्तु मुझे अपने अभिप्राय का ठीक-ठीक स्मरण है; मैं अपने शब्दों द्वारा उसे चुप कराना चाहता था।” मेरी स्मृति मुझे क्या बताती है; उससे मेरे मन के समक्ष क्या आता है? मानो वह केवल उन शब्दों को मुझे सुझाती ही हो! — और संभवतः ऐसे अन्य शब्दों को भी जिनसे चित्र ठीक-ठीक बनता हो। — (“अब अपने शब्द तो मुझे स्मरण नहीं हैं, किन्तु उनके अर्थ का ठीक-ठीक स्मरण है।”)
649. “अतः, यदि किसी व्यक्ति ने कोई भाषा ही न सीखी हो तो क्या उसे विशिष्ट स्मृतियाँ हो ही नहीं सकतीं?” निस्संदेह — उसे शाब्दिक स्मृतियां, शाब्दिक कामनाएं अथवा भय, इत्यादि नहीं हो सकते। और भाषा में, स्मृतियाँ, इत्यादि, वास्तविक अनुभवों के घिसे-पिटे निरूपण मात्र ही नहीं होतीं; क्योंकि, क्या भाषा-तत्त्व कोई अनुभव नहीं होते?
650. हम कहते हैं कि कुत्ते को अपने स्वामी द्वारा पीटे जाने का डर है; किन्तु यह नहीं कहते कि उसे यह डर है कि उसका स्वामी उसे कल पीटेगा। ऐसा क्यों नहीं कहते?
651. “मुझे स्मरण है कि मुझे वहाँ और अधिक दिन निवास करने से प्रसन्नता होती।” — इस कामना का कौन सा चित्र मेरे मन के समक्ष आया? कोई भी नहीं। अपनी स्मृति में होने वाली बातों से मेरी अनुभूतियों के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। और फिर भी मुझे ठीक-ठीक स्मरण है कि मुझे वे अनुभूतियाँ हुईं थीं।
652. “उसने उसे गुस्से से देखा और कहा....।” इस वृत्तान्त को पढ़ने वाला इसे समझता है; उसके मन में कोई भी संदेह नहीं है। आप कहते हैं: “ठीक है, वह उसे अर्थ प्रदान करता है, उसके अर्थ का अनुमान लगाता है।” सामान्य तौर
पर: नहीं। सामान्यतः वह कुछ भी प्रदान नहीं करता, कोई भी अनुमान नहीं लगाता। — किन्तु यह भी संभव है कि कुपित दृष्टि और उक्ति बाद में नाटक सिद्ध हों, अथवा पाठक को संशय में ही रखा जाए कि वे नाटक के भाग हैं अथवा नहीं, ताकि वह संभाव्य व्याख्या का अनुमान ही लगा सके। — किन्तु फिर तो वह प्रसंग का ही मुख्य विषय के रूप में अनुमान लगाता है। उदाहरणार्थ, वह अपने आप से कहता है: यहाँ मौजूद दो विरोधी व्यक्ति वास्तव में मित्र हैं, इत्यादि, इत्यादि।
((“यदि आप किसी वाक्य को समझना चाहते हैं तो आपको उसमें निहित मनोवैज्ञानिक महत्त्व की, मानसिक स्थितियों की, कल्पना करनी पड़ती है।”))
653. इस स्थिति की कल्पना कीजिए: मैं किसी से कहता हूँ कि मैं अपने मानचित्र के अनुसार एक विशेष मार्ग पर गया। उसके बाद मैं कागज पर रेखांकित मानचित्र दिखाता हूँ; किन्तु वे रेखाएं मेरी गतिविधियों को कैसे चित्रित करती हैं, मैं यह व्याख्या नहीं दे पाता, न ही मानचित्र को समझने का कोई भी नियम उसे बता पाता हूँ। फिर भी मैंने रेखांकन का ठीक उसी प्रकार अनुसरण किया जैसे किसी मानचित्र का अनुसरण किया जाता है। मैं ऐसे रेखांकन को ‘निजी’ कह सकता हूँ: (किन्तु, निस्संदेह इस अभिव्यक्ति का अत्यंत सरलता से अनुचित अर्थ लगाया जा सकता है।)
क्या, अब, मैं कह सकता हूँ: “उस समय मैंने यह समझा कि मैं किसी मानचित्र का अनुसरण कर रहा हूँ जबकि उस समय मेरे सामने कोई मानचित्र था ही नहीं!” किन्तु इसका अर्थ तो केवल यह होता है: अब मैं यह कहना चाहता हूँ “ऐसा करने की प्रवृत्ति का ज्ञान मुझे उन विशिष्ट मनःस्थितियों से होता है जिनका मुझे स्मरण है।”
654. हमारी भूल तो यह है कि जहाँ हमें किसी घटना को ‘आद्य संवृत्ति’ के समान समझना चाहिए था, वहाँ हम किसी व्याख्या को ढूँढने लगते हैं।” यानी, जहाँ हमें कहना चाहिए था: यह भाषा-खेल खेला जाता है।
655. प्रश्न, अपने अनुभव द्वारा भाषा-खेल की व्याख्या करने का नहीं है, अपितु भाषा-खेल पर ध्यान देने का है।
656. किसी को यह कहने का क्या उद्देश्य है कि कुछ समय पूर्व मेरी अमुक-अमुक इच्छा थी। — भाषा-खेल को मूल विषय के रूप में समझें और संवेदना आदि को भाषा-खेल को समझने के ढंग की किसी व्याख्या के समान समझें।
पूछा जा सकता है: भूतकालीन आकांक्षाओं अथवा अभिप्रायों की रिपोर्ट कहलायी जाने वाली बातों का मनुष्यों ने शाब्दिक उच्चारण ही कैसे आरंभ किया?
657. आइए हम कल्पना करें कि इन उच्चारणों का सदैव यही रूप रहा है: “मैंने अपने आप से कहा ‘काश मैं कुछ और समय रुक पाता’!” ऐसे कथन का उद्देश्य किसी को मेरी प्रतिक्रियाओं से अवगत कराना हो सकता है। (“अर्थ होना” और “मतलब” के व्याकरण की तुलना कीजिए।)
658. मान लीजिए कि हम किसी मनुष्य का यह आशय है, इस तथ्य को यह कहकर अभिव्यक्त करें: “मानो उसने अपने आप से कहा ‘मैं कामना करता हूँ.....’।” — यही चित्र है। और अब मैं जानना चाहता हूँ: कोई इस अभिव्यक्ति को कैसे प्रयोग करता है “मानो उसने अपने आप कुछ कहा?” क्योंकि इसका यह अर्थ नहीं है: अपने आप कुछ कहना।
659. मैं उसे अपनी क्रिया के साथ-साथ अपने अभिप्राय के बारे में भी क्यों बताना चाहता हूँ? इसलिए तो नहीं कि उस समय क्रिया के साथ-साथ अभिप्राय भी मेरे मन में था। अपितु, इसलिए कि मैं उसे अपने बारे में कुछ ऐसा बताना चाहता हूँ जो, उस समय की मेरी क्रिया से परे है।
जब मैं उसे बताता हूँ कि मैं क्या करने जा रहा था तो मैं उसे अपने बारे में कुछ बताता हूँ। — आत्म-निरीक्षण पर आधारित तो नहीं, अपितु प्रतिक्रिया के रूप में (इसे सहजबोध भी कहा जा सकता है)।
660. “उस समय मैं कहने जा रहा था कि....” का व्याकरण “उस समय मैं कहता रहता” इस अभिव्यक्ति के व्याकरण से संबंधित है।
एक स्थिति में तो मुझे अभिप्राय की स्मृति है और दूसरी में मुझे समझ आ जाने की।
661. मुझे स्मरण है कि मेरा इशारा उस व्यक्ति की ओर था। क्या मैं किसी प्रक्रिया का स्मरण कर रहा हूँ अथवा किसी स्थिति का? — वह कब आरंभ हुई, उसकी कौन सी दिशा थी; इत्यादि?
662. थोड़ी सी भिन्न स्थिति में, गुपचुप इशारा करने के बजाय वह किसी से कहता “न से कहो कि वह मुझे मिले।” अब कोई कह सकता है कि “मैं चाहता था कि न मुझे मिले” शब्द मेरी तत्कालीन मनःस्थिति का विवरण देते हैं; और यह भी हो सकता है कि कोई ऐसा कहे ही नहीं।
663. यदि मैं कहता हूँ “मेरा इशारा उस व्यक्ति की ओर था” तो संभवत: मेरे सामने उसे देखने इत्यादि का एक चित्र आता है, किन्तु चित्र तो कथा में कथा-चित्र के समान है। अकेले उससे कोई भी निरूपण करना लगभग असंभव होता है; कथा-चित्र का महत्त्व तभी पता चलता है जब कहानी का ज्ञान हो।
664. शब्दों के प्रयोग में ‘सतही व्याकरण’ और ‘गहन व्याकरण’ में भेद किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि संरचना में शब्द के प्रयोग का वह ढंग, उसके प्रयोग का वह भाग हमें तत्काल प्रभावित करता है जिसे हम आसानी से समझ सकें। — और अब गहन व्याकरण की, उदाहरणार्थ, “अर्थ होना” शब्द की तुलना सतही व्याकरण द्वारा निरूपित अर्थ से कीजिए। अचरज की बात है कि इसमें हमें अत्यधिक कठिनाई होती है।
665. कल्पना कीजिए कि वेदना की अभिव्यक्ति के साथ कोई अपने गाल को इंगित करते हुए कहता है “अब्राकाडाब्रा!” — हम पूछते हैं “आपका क्या आशय है?” और वह उत्तर देता है “मेरा आशय दाँत का दर्द था।” — यकायक आप विचार करते हैं: उस शब्द से किसी का ‘आशय दाँत का दर्द’ कैसे हो सकता है?, अथवा उस शब्द का अर्थ दर्द होने का आशय कैसे हो सकता है? और फिर भी, किसी अन्य प्रसंग में, आप कहते हैं कि अमुक अर्थ होने की मानसिक क्रिया ही भाषा के प्रयोग में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
किन्तु — क्या मैं यह नहीं कह सकता कि “‘अब्राकाडाब्रा’ से मेरा आशय दाँत का दर्द है”? निस्संदेह मैं कह सकता हूँ; किन्तु यह एक परिभाषा है; न कि शब्दोच्चारण के समय मुझमें होने वाली प्रक्रिया का विवरण।
666. कल्पना कीजिए कि आप वेदनाग्रस्त हैं और अपने समीप किसी पिआनो को समंजित किए जाते हुए सुनते हैं। आप कहते हैं कि “शीघ्र ही यह बन्द हो जाएगा।” निश्चय ही, इस बात से अन्तर पड़ता है कि आप का तात्पर्य वेदना से था अथवा पिआनो के समंजित करने से। — निस्संदेह; किन्तु यह अन्तर किस में निहित है? मैं मानता हूँ कि अनेक स्थितियों में आपके ध्यान की दिशा, आपके इस अथवा उस आशय होने के अनुरूप होगी, वैसे ही जैसे किसी दृष्टिपात, भंगिमा अथवा अपनी आँखों को बन्द करने के ढंग को “अपने भीतर झाँकना” कहा जा सकता है।
667. कल्पना कीजिए कि कोई वेदनाग्रस्त होने का स्वांग भरता है और कहता है “शीघ्र ही यह ठीक हो जाएगी।” क्या हम यह नहीं कह सकते कि उसका आशय वेदना है? यद्यपि वह किसी की वेदना पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं करता। — और आखिर जब मैं यह कहूँ कि ‘अब वह समाप्त हो गई’ तब आप क्या कहेंगे?
668. किन्तु क्या कोई इस प्रकार झूठ नहीं बोल सकता: कोई कहे, “यह शीघ्र ही समाप्त हो जाएगी”, और उसका आशय वेदना से हो — किन्तु जब उससे पूछा जाए “आपका आशय क्या है?” तो वह उत्तर दे “साथ वाले कमरे का शोर।” ऐसी स्थिति में कहा जा सकता है: “मैं... उत्तर दे रहा था, किन्तु मैं रुक गया और...... उत्तर दिया।”
669. बोलते समय हम इंगित करके किसी विषय का उल्लेख कर सकते हैं। यहाँ इंगित करना भाषा-खेल का अंग है। और अब हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो हमने संवेदना पर अपना ध्यान केन्द्रित करके उसका उल्लेख किया। किन्तु साम्य कहाँ है? स्पष्टतः, किसी वस्तु को देख अथवा सुन कर इंगित करने में।
किन्तु किन्हीं परिस्थितियों में वर्ण्य विषय को इंगित करना भी उस भाषा-खेल में विचार के लिए नितान्त अनावश्यक हो सकता है।
670. कल्पना कीजिए कि आप किसी को टेलीफोन पर कह रहे हैं: “यह मेज बहुत ऊँचा है”, और ऐसा कहते समय मेज की ओर इंगित कर रहे हैं। इंगित करने की यहाँ क्या भूमिका है? क्या मैं कह सकता हूँ: मेरा आशय उस मेज से है जिसे मैं इंगित करता हूँ। यहाँ इंगित करना किसलिए है, और उन शब्दों का और उनसे संलग्न विषयों का उद्देश्य क्या है?
671. और सुनने की आन्तरिक क्रिया द्वारा मैं क्या इंगित करता हूँ? उस ध्वनि को जो मेरे कानों में पड़ती है, और उस निस्तब्धता को, जब मुझे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता?
मानो सुनना श्रवण आवृत्ति को खोजता है और इसीलिए उसे इंगित नहीं कर पाता, अपितु केवल उसी स्थान को इंगित कर पाता है जहाँ वह उसको खोज रहा हो।
672. यदि ग्रहणशील अभिवृत्ति को किसी प्रकार, किसी वस्तु को ‘इंगित करना’ कहा जा सकता है — तो इंगित-वस्तु वह संवेदना नहीं होती जो हमें उस वस्तु से मिलती है।
673. भंगिमा की तरह मानसिक अभिवृत्ति किसी कथन की संलग्नी नहीं होती। (जैसे कोई व्यक्ति अकेले यात्रा कर सकता है, पर फिर भी मेरी शुभकामनाएं उसके साथ होती हैं; अथवा जैसे कोई कमरा खाली हो सकता है, और फिर भी प्रकाश से भरा हो सकता है।)
674. उदाहरणार्थ, क्या यह कहा जा सकता है: “फिलहाल मेरा आशय अपनी वेदना से नहीं था; मेरा ध्यान उस पर केन्द्रित नहीं था?” उदाहरणार्थ, क्या मैं अपने आप से पूछता हूँ: “इस शब्द से फिलहाल मेरा आशय क्या था? अपने दर्द और शोर में मेरा ध्यान बँटा हुआ था —”।
675. “मुझे बताएं कि आपके अन्दर क्या हो रहा था जब आपने.... शब्दों का उच्चारण कि या?” — इसका उत्तर यह नहीं है: “मेरा आशय था कि.......!”
676. “उस शब्द से मेरा यह आशय था” यह तो ऐसा कथन है जो मनोभाव व्यक्त करने वाले कथन से भिन्न रूप में प्रयुक्त होता है।
677. दूसरी ओर: “अभी-अभी जब आप बद्दुआ दे रहे थे, तो क्या वास्तव में आपका यही आशय था?” संभवतः यह तो इतना ही कहना है: “क्या आप वास्तव में क्रुद्ध थे?” — और आत्मालोचन के परिणामस्वरूप इसका उत्तर कुछ इससे मिलता-जुलता है, “मैं तो मजाक कर रहा था”, इत्यादि। यहाँ मात्रा-भेद है।
और वस्तुतः यह भी कहा जाता है “ऐसा कहते समय कमोबेश मैं उसी के बारे में सोच रहा था।”
678. (दर्द अथवा पिआनो-समंजन का) आशय होने की क्रिया किसमें निहित है? कोई भी उत्तर नहीं सूझता — क्योंकि तुरन्त सूझने वाले उत्तरों का कोई प्रयोग ही नहीं होता। — “पर फिर भी उस समय मेरा आशय एक विषय से था, न कि दूसरे से।” हाँ, — अब आपने जोर देकर ऐसी बात दोहराई है जिसका किसी ने कोई खण्डन नहीं किया है।
679. “किन्तु क्या आपको अपने उस आशय पर शंका हो सकती है?” नहीं; किन्तु मुझे इसका निश्चय, इसका ज्ञान भी नहीं हो सकता।
680. जब आप मुझे बताते हैं कि आपने धिक्कारा और ऐसा करते समय आपका आशय न से था, तो चाहे आपने उसके चित्र को देखा, अथवा उसकी कल्पना की,
अथवा उसके नाम का उच्चारण किया, अथवा कुछ और किया इससे मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ता। इस तथ्य के जिन निष्कर्षों में मेरी रुचि है उन्हें इन बातों से कोई लेना-देना ही नहीं है। दूसरी ओर, कोई मुझे समझा सकता है कि धिक्कारना तो केवल तभी प्रभावी होता है जब हमारे पास धिक्कारे जाने वाले व्यक्ति का स्पष्ट चित्र हो, अथवा उसका नाम जोर से उच्चारित किया जाए। किन्तु यह नहीं कहना चाहिए “बात तो यह है कि धिक्कारने वाले व्यक्ति का आशय वह व्यक्ति कैसे होता है, जिसे वह धिक्कार रहा है।”
681. न ही यह पूछा जाता है: “क्या यह तय है कि आपने उसे धिक्कारा” और यह भी नहीं पूछा जाता कि “क्या उसे इसके बारे में पता चल गया था?”
यह पता चलना तो बिल्कुल आसान है, यदि इसके बारे में इतना तय हो तो?! यह पता हो कि धिक्कारना अपने लक्ष्य से नहीं चूकता! — हाँ तो, क्या यह सम्भव है कि मैं किसी को पत्र लिखना चाहूँ और लिख किसी और को दूँ? और ऐसा कैसे हो सकता है?
682. “आपने कहा, ‘यह शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा’। — क्या आप शोर के बारे में अथवा अपनी वेदना के बारे में सोच रहे थे?” यदि वह उत्तर देता है “मैं पिआनो के समंजन के बारे में सोच रहा था” — तो क्या वह संबंध को देख रहा था, अथवा वह इन शब्दों द्वारा इस संबंध को बना रहा था? — क्या मैं दोनों बातें नहीं कह सकता? यदि जो कुछ भी उसने कहा सत्य था तो क्या संबंध नहीं था — और क्या वह इसीलिए ऐसा संबंध नहीं बना रहा था, जो था ही नहीं?
683. मैं एक मुखाकृति बनाता हूँ। आप पूछते हैं “यह किसका प्रतिनिधित्व करती है?” — मैं (कहता हूँ): यह न है”. आप: “किन्तु यह उसके सदृश तो प्रतीत नहीं होती; बल्कि यह तो म के सदृश है।” — जब मैंने कहा कि यह न का प्रतिनिधित्व करता है — तो क्या मैं संबंध बना रहा था, अथवा उनकी रिपोर्ट दे रहा था? और वह कौन सा संबंध था?
684. मेरे शब्द वर्तमान संबंध का विवरण देते हैं इसके समर्थन में क्या हो सकता है? वे उन विभिन्न बातों से संबंधित हैं जो शब्दों के साथ ही दृष्टिगोचर नहीं हुईं। उदाहरणार्थ, वे कहते हैं कि यदि मुझसे पूछा जाए तो मुझे विशिष्ट उत्तर देना चाहिए था। और चाहे यह सोपाधिक ही है तो भी यह भूतकाल के बारे में कुछ कहती है।
685. “अ को खोजो” का अर्थ “ब को खोजो” नहीं होता; किन्तु दोनों आदेशों का पालन करने में मैं एक जैसी ही क्रिया कर सकता हूँ।
यह कहना कि दोनों स्थितियों में कुछ भिन्न होना चाहिए तो यह कहने के समान है कि “आज मेरा जन्मदिन है” और “26 अप्रैल को मेरा जन्मदिन होता है” प्रतिज्ञप्तियां भिन्न दिनों को इंगित करती हैं, क्योंकि उनका एक समान अर्थ नहीं होता।
686. “निस्संदेह, मेरा आशय ब से था; अ के बारे में तो मैंने सोचा ही नहीं!”
“मैं चाहता था कि ब मेरे पाए आए ताकि.....” — इससे विस्तृत सन्दर्भ इंगित होता है।
687. “मेरा आशय उससे था” कहने के बजाय कभी-कभी हम कह सकते “मैंने उसके बारे में सोचा”; कभी-कभी तो यह भी कह सकते हैं “हाँ, हम उसका उल्लेख कर रहे थे।” अपने आप से पूछें कि ‘उसका उल्लेख करना’ किस में निहित है।
688. विशिष्ट परिस्थितियों में हम कह सकते हैं, “जब मैं बोल रहा था तो मुझे ऐसा लगा कि मैं आपको कुछ कह रहा हूँ।” किन्तु यदि मैं आपसे ही वार्तालाप कर रहा हूँ तो मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए।
689. “मैं न के बारे में सोच रहा हूँ।”
मैं उसका उल्लेख कैसे करता हूँ? उदाहरणार्थ, मैं कहता हूँ, “मुझे आज न से मिलने जाना चाहिए।” किन्तु इतना तो पर्याप्त नहीं है! आखिरकार जब मैं “न” कहता हूँ तो मेरा आशय इस नाम वाले अनेक लोगों से हो सकता है। — “तो निश्चय ही मेरी बातचीत और न के मध्य कोई और संबंध होना चाहिए, अन्यथा अभी भी वह व्यक्ति मेरा आशय नहीं हो सकता।
निश्चय ही ऐसा संबंध तो होता है। उस रूप में तो नहीं जिसमें आप उसकी कल्पना करते हैं: यानी किसी मानसिक प्रक्रिया के द्वारा।
(“वह व्यक्ति अर्थ होना” की तुलना हम “वह व्यक्ति लक्ष्य होना” से करते हैं।)
“मैं न का उल्लेख कर रहा हूँ।”
690. उस स्थिति के बारे में क्या कहेंगे जिसमें मैं किसी पर किसी समय स्पष्टतः मजाकिया टिप्पणी करता हूँ और ऐसा करते समय आँख बचाकर उसे कनखियों से देखता हूँ; और किसी समय बिना कनखियों से देखे किसी उपस्थित व्यक्ति का नाम लेकर खुल्लमखुल्ला उसका उल्लेख करता हूँ — तो क्या उसका नाम लेते समय मैं उसके बारे में विशेष रूप से सोचता हूँ?
691. जब मैं अपनी स्मृति से न की मुखाकृति बनाता हूँ, तो मेरे रेखांकन से निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मेरा आशय न ही है। किन्तु रेखांकन करते समय (अथवा उससे पहले या बाद में) होने वाली कौन सी प्रक्रियाओं को मैं उसका आशय होने वाली प्रक्रिया कह सकता हूँ?
क्योंकि सहज रूप से कहा जा सकता है: जब उसका आशय वह व्यक्ति था, तो वही उसका लक्ष्य था। किन्तु किसी अन्य व्यक्ति की मुखाकृति की कल्पना करते समय हम ऐसा कैसे कर सकते हैं?
मेरा आशय है, वह उसकी कल्पना कैसे करता है?
वह उसे कैसे याद करता है?
692. क्या किसी का यह कहना उचित है: “जब मैंने आपको यह नियम बताया, तो इस स्थिति में मेरा आशय था कि आप.... करें”? नियम बताते समय चाहे उसने इस स्थिति के बारे में बिल्कुल ही न सोचा हो? निस्संदेह यह उचित है। क्योंकि “यह आशय होने” का अर्थ उसके बारे में सोचना नहीं है। किन्तु अब समस्या यह है कि: हम इसका निर्णय कैसे करें कि किसी का अमुक आशय था? — उदाहरणार्थ, उसका अंकगणित एवं बीजगणित की विशिष्ट तकनीक में दक्ष होना और किसी को साधारण ढंग से श्रृंखला के विस्तार को सिखाना, एक ऐसी कसौटी है।
693. “जब मैं किसी को.... श्रृंखला की संरचना सिखाता हूँ, तो निश्चित रूप से मेरा आशय होता है कि वह सौवें स्थान पर.... लिखे।” — बिल्कुल ठीक; आपका यही आशय होता है। और निश्चित रूप से बिना इसके बारे में सोचे ही। इससे पता चलता है कि “अर्थ होने” क्रिया का व्याकरण, “सोचने” क्रिया के व्याकरण से कितना भिन्न है। और अर्थ होने को मानसिक क्रिया कहने से अधिक मूर्खतापूर्ण कुछ भी नहीं हो सकता! यदि कोई भ्रान्ति फैलाना न चाहे तो। (जब मक्खन के दाम बढ़ें तो उसको मक्खन उछला कहना भी संभव है, और यदि इससे कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती, तो ऐसा कहने में कोई भी हानि नहीं है।)