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'''61.''' "किन्तु फिर भी आप इस बात से इन्कार नहीं करेंगे कि (क) में किसी विशेष आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में होता है; और यदि आप दूसरे को पहले का विश्लेषित रूप न कहें तो आप उसे क्या कहेंगे?" — निश्चित रूप से मुझे भी यह कहना चाहिए कि (क) में आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में; अथवा जैसे मैंने पहले कहा था: उनसे एक ही बात का पता चलता है। और इसका अर्थ है कि यदि मुझे (क) में कोई आदेश दिखाया जाए और पूछा जाए: "(ख) में कौन से आदेश का इस के जैसा अर्थ है? अथवा फिर "यह (ख) के किस आदेश का व्याघाती | '''61.''' "किन्तु फिर भी आप इस बात से इन्कार नहीं करेंगे कि (क) में किसी विशेष आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में होता है; और यदि आप दूसरे को पहले का विश्लेषित रूप न कहें तो आप उसे क्या कहेंगे?" — निश्चित रूप से मुझे भी यह कहना चाहिए कि (क) में आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में; अथवा जैसे मैंने पहले कहा था: उनसे एक ही बात का पता चलता है। और इसका अर्थ है कि यदि मुझे (क) में कोई आदेश दिखाया जाए और पूछा जाए: "(ख) में कौन से आदेश का इस के जैसा अर्थ है? अथवा फिर "यह (ख) के किस आदेश का व्याघाती | ||
है?" तो मुझे अमुक उत्तर देना चाहिए। किन्तु वह यह कहना तो नहीं है कि "वही अर्थ होना", अथवा “एक ही बात का पता चलना" अभिव्यक्तियों के प्रयोग के बारे में हम किसी ''सामान्य'' सहमति पर पहुँच गए हैं। क्योंकि यह पूछा जा सकता है कि किन स्थितियों में हम कहते हैं: "यह तो एक खेल के ही दो रूप हैं।" | |||
'''62.''' उदाहरणार्थ, मान लीजिए कि (क) और (ख) में आदेश दिए जाने वाले व्यक्ति को अभीप्सित वस्तु को लाने से पूर्व नामों और चित्रों का सामंजस्य दिखाने वाली सारिणी का सहारा लेना पड़ता है। क्या वह ''वही'' क्रिया करता है जब वह (ख) उसके अनुरूप आदेश का पालन करता है? — हाँ और नहीं। आप यह भी कह सकते हैं: "दोनों आदेशों का ''विषय'' तो एक ही है"। मुझे भी यही कहना चाहिए। — किन्तु सभी स्थलों पर यह स्पष्ट नहीं है कि आदेश का 'विषय' किसे कहना चाहिए। (इसी प्रकार कुछ वस्तुओं के बारे में भी कहा जा सकता है कि उनका यह, अथवा वह प्रयोजन है। मूल बात तो यह है कि यह एक ''लैम्प'' है, और प्रकाश देने के काम आता है; — यह कमरे का ऐसा अलंकार है जो रिक्त स्थान को भरता है इत्यादि, तो मूलभूत नहीं है । किन्तु मूल और अ-मूल में सदैव सुस्पष्ट भेद नहीं होता।) | |||
'''63.''' बहरहाल यह कहना कि (ख) में (क) के वाक्य का 'विश्लेषित' रूप है हमें यह समझने को लालायित करता है कि पूर्वोक्त अधिक मौलिक रूप है; और उसी से पता चलता है कि दूसरे वाक्य का क्या अर्थ इत्यादि है । उदाहरणार्थ, हम समझते हैं: यदि आप केवल अविश्लेषित रूप को जानते हैं तो आप विश्लेषण से चूक जाते हैं; किन्तु यदि आप विश्लेषित रूप को जानते हैं तो उससे आपको सब कुछ मिल जाता है। — किन्तु क्या मैं नहीं कह सकता कि उत्तरोक्त स्थिति में भी पूर्वोक्त स्थिति के समान बात का कोई पक्ष आप से छूट जाता है? | |||
'''64.''' आइए हम §48 के भाषा-खेल के इस प्रकार परिवर्तित होने की कल्पना करें कि नाम एकरंगी वर्गों के द्योतक न हों अपितु ऐसी आयतों के द्योतक हों जो दो एकरंगी वर्गों से बनी हों। आधे लाल एवं आधे हरे रंग वाले आयत को "'''य'''" कहें; आधे हरे आधे श्वेत को "'''व'''" कहे; एवं तथावत् । क्या हम ऐसे लोगों की कल्पना नहीं कर सकते जिन्हें रंगों के संयोजनों के नाम तो पता हों किन्तु एकल रंगों के नाम पता न हों? ऐसी स्थितियों के बारे में सोचिए जिनमें हम कहते हैं: "रंगों के इस विन्यास का (मान लीजिए फ्रांसिसी तिरंगे का) नितान्त विशिष्ट रूप है।" | |||
इस भाषा-खेल के प्रतीकों के विश्लेषण की आवश्यकता किस अर्थ में है? इस भाषा-खेल को §48 के भाषा-खेल द्वारा प्रतिस्थापित करना भी कहाँ तक सम्भव है? — यह तो कोई ''अन्य'' भाषा-खेल है; यद्यपि यह §48 से सम्बन्धित है। | |||
'''65.''' यहाँ हमारे समक्ष वह महत्त्वपूर्ण प्रश्न आ जाता है जो इन सभी विवेचनाओं की पृष्ठभूमि में होता है । — क्योंकि कोई मेरे विरुद्ध आपत्ति उठा सकता है: “आप तो सुगम मार्ग अपनाते हैं! आप अनेक प्रकार के भाषा-खेलों के बारे में बात तो करते हैं किन्तु कहीं भी यह नहीं कहते कि भाषा-खेल का, और इसीलिए भाषा का, सार क्या है इन सभी क्रियाकलापों में साझा क्या है और भाषा अथवा भाषा के अंग किससे बनते हैं। अतः आपने स्वयं को अन्वीक्षा के उसी भाग से — ''प्रतिज्ञप्तियों के सामान्य आकार'' और भाषा से संबंधित भाग से — हटा लिया है जो स्वयं कभी आपके लिए सिरदर्द था।" | |||
और यह सच भी है। — जिसे भी हम भाषा कहते हैं उसमें कुछ साझा प्रस्तुत करने के बजाए मैं कह रहा हूँ कि इन संवृत्तियों में कोई भी एक ऐसा साझा विषय नहीं है जिसके कारण हम सब उन सब के लिए एक ही शब्द प्रयोग करते हैं — अपितु कह रहा हूँ कि विविध ढंगों से एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। और इसी सम्बन्ध अथवा इन्हीं सम्बन्धों के कारण इन सभी को "भाषा" कहते हैं। मैं इसकी व्याख्या देने का प्रयत्न करूँगा। | |||
'''66.''' उदाहरणार्थ, "खेल" कही जाने वाली गतिविधियों पर विचार कीजिए। मेरा आशय पटल-खेलों, ताश-खेलों, गेंद खेलों, ऑलम्पिक खेलों आदि से है। उन सब में साझा क्या है? ऐसा न कहें: "कुछ तो साझा ''अवश्य'' होना चाहिए, नहीं तो उन्हें 'खेल' नहीं कहा जाता" — किन्तु ''सोचें'' कि क्या उन सब में कुछ भी साझा है। — क्योंकि यदि आप उन पर दृष्टिपात करें तो आप कुछ भी ऐसा नहीं पाएंगे जो ''सब'' में साझा हो, अपितु उनमें आप पायेंगे समानताएँ, कई सम्बन्ध और ऐसी समानताओं और संबन्धों की एक श्रृंखला । अथवा: सोचिये नहीं, बल्कि खोजिए! — उदाहरणार्थ, पटल-खेलों पर उनके विविध सम्बन्धों सहित विचार करें। अब ताश-खेलों की ओर बढ़ें; यहाँ आपको पहले वाले समूह के साथ अनेक समानताएं मिलेंगी, किन्तु अनेक साझे लक्षण छूट जाएंगे, और कई अन्य लक्षण दृष्टिगोचर होंगे। अब जब हम गेंद-खेलों की ओर बढ़ते हैं तो बहुत कुछ जो साझा है वह तो बच जाता है किन्तु बहुत कुछ छूट जाता है। — क्या वे सभी 'मनोरंजक' हैं? शतरंज के खेल की नॉटस एंड क्रॉसिस खेल से तुलना कीजिए । अथवा क्या खेलों में सदैव ही जीत और हार होती है, अथवा खिलाड़ियों में प्रतिस्पर्धा होती है? 'पेशंस' नामक खेल के बारे में सोचिए। गेंद-खेलों |