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{{ParPU|194}} यह विचार कब आता है: यंत्र की सामान्य संभावित गतिविधियाँ किसी रहस्यपूर्ण ढंग से उसमें पहले से ही उपस्थित रहती हैं? बेशक, तब, जब हम तत्त्व-चिंतन कर रहे होते हैं। और हम ऐसा क्यों सोचते हैं? जिस ढंग से हम यंत्रों के बारे में बात करते हैं; उदाहरणार्थ, हम कहते हैं कि यंत्र में गतिविधियों की अमुक-अमुक संभावनाएं ''होती'' हैं; हम अमुक-अमुक ढंग से ही गतिमान हो सकने वाले वाले पूर्ण दुर्धर्ष यंत्र का उल्लेख करते हैं। — गतिविधि की यह संभावना क्या होती है? वह ''गतिविधि'' तो नहीं होती — जैसे पिन और सॉकेट की फिटिंग में ढील रहना, पिन का सॉकेट में पूरी तरह फिट न होना। जबकि गतिविधि की यह आनुभविक परिस्थिति है, तो भी इससे भिन्न कल्पना करना भी संभव है। गतिविधि की संभावना, तो वस्तुतः गतिविधि की परछाईं के समान ही मानी जाती है। किन्तु क्या आप ऐसी परछाई के बारे में जानते हैं? और परछाई से मेरा तात्पर्य गतिविधि का कोई चित्र नहीं है — क्योंकि ऐसे चित्र को मात्र ''इस'' गतिविधि का ही चित्र नहीं होना होगा। किन्तु इस गतिविधि की संभावना को मात्र इस गतिविधि की ही संभावना होना चाहिए। (यहाँ इस पर गौर करें कि भाषा की लहरें कितने ऊँची उठती हैं।) | {{ParPU|194}} यह विचार कब आता है: यंत्र की सामान्य संभावित गतिविधियाँ किसी रहस्यपूर्ण ढंग से उसमें पहले से ही उपस्थित रहती हैं? बेशक, तब, जब हम तत्त्व-चिंतन कर रहे होते हैं। और हम ऐसा क्यों सोचते हैं? जिस ढंग से हम यंत्रों के बारे में बात करते हैं; उदाहरणार्थ, हम कहते हैं कि यंत्र में गतिविधियों की अमुक-अमुक संभावनाएं ''होती'' हैं; हम अमुक-अमुक ढंग से ही गतिमान हो सकने वाले वाले पूर्ण दुर्धर्ष यंत्र का उल्लेख करते हैं। — गतिविधि की यह संभावना क्या होती है? वह ''गतिविधि'' तो नहीं होती — जैसे पिन और सॉकेट की फिटिंग में ढील रहना, पिन का सॉकेट में पूरी तरह फिट न होना। जबकि गतिविधि की यह आनुभविक परिस्थिति है, तो भी इससे भिन्न कल्पना करना भी संभव है। गतिविधि की संभावना, तो वस्तुतः गतिविधि की परछाईं के समान ही मानी जाती है। किन्तु क्या आप ऐसी परछाई के बारे में जानते हैं? और परछाई से मेरा तात्पर्य गतिविधि का कोई चित्र नहीं है — क्योंकि ऐसे चित्र को मात्र ''इस'' गतिविधि का ही चित्र नहीं होना होगा। किन्तु इस गतिविधि की संभावना को मात्र इस गतिविधि की ही संभावना होना चाहिए। (यहाँ इस पर गौर करें कि भाषा की लहरें कितने ऊँची उठती हैं।) | ||
ये लहरें शांत हो जाती हैं ज्यों ही हम अपने आप से यह प्रश्न पूछते हैं: जब हम किसी यंत्र के बारे में बात करते हैं “तो गतिविधि की संभावना” वाक्यांश का प्रयोग हम किस प्रकार करते हैं? — किन्तु इस स्थिति में विचित्र विचार हमें कहाँ से आए? अच्छा मैं आपको गतिविधि की संभावना प्रदर्शित करता हूँ, मान लीजिए गतिविधि के ''चित्र'' द्वारा : ‘अत: संभावना तो वास्तविकता के समान कुछ होती है’। हम कहते हैं: “यह अभी तक गतिमान नहीं है, किन्तु इसमें गतिशील होने की संभावना है” — अतः संभावना तो वास्तविकता के अत्यन्त सन्निकट होती है। क्या अमुक-अमुक भौतिक परिस्थितियाँ इस गतिविधि को संभव बनाती हैं, इसके बारे में यद्यपि हमें शंका हो सकती है परन्तु हम यह विवेचन कभी नहीं करते कि ''यह'' इस अथवा उस गतिविधि की संभावना | ये लहरें शांत हो जाती हैं ज्यों ही हम अपने आप से यह प्रश्न पूछते हैं: जब हम किसी यंत्र के बारे में बात करते हैं “तो गतिविधि की संभावना” वाक्यांश का प्रयोग हम किस प्रकार करते हैं? — किन्तु इस स्थिति में विचित्र विचार हमें कहाँ से आए? अच्छा मैं आपको गतिविधि की संभावना प्रदर्शित करता हूँ, मान लीजिए गतिविधि के ''चित्र'' द्वारा : ‘अत: संभावना तो वास्तविकता के समान कुछ होती है’। हम कहते हैं: “यह अभी तक गतिमान नहीं है, किन्तु इसमें गतिशील होने की संभावना है” — अतः संभावना तो वास्तविकता के अत्यन्त सन्निकट होती है। क्या अमुक-अमुक भौतिक परिस्थितियाँ इस गतिविधि को संभव बनाती हैं, इसके बारे में यद्यपि हमें शंका हो सकती है परन्तु हम यह विवेचन कभी नहीं करते कि ''यह'' इस अथवा उस गतिविधि की संभावना है। ???‘यानी गतिविधि की संभावना का स्वयं गतिविधि से अप्रतिम संबंध होता है; ऐसा संबंध जो किसी चित्र के अपने विषय संबंध से कहीं अधिक होता है; क्योंकि संदेह किया जा सकता है कि चित्र इस विषय का है अथवा उस विषय का। हम कहते हैं: “अनुभव ही बताएगा कि ऐसा करने पर इस पिन को गतिविधि की यही संभावना प्राप्त होगी या नहीं”, किन्तु हम ऐसा नहीं कहते कि “अनुभव ही बताएगा कि क्या इस गतिविधि की यही संभावना है”???: ‘अतः यह एक आनुभविक तथ्य नहीं है कि यह संभावना यथार्थतः इसी गतिविधि की संभावना है। | ||
इन विषयों के लिए प्रयुक्त अभिव्यक्तियों के बारे में हम सतर्क रहते हैं; बहरहाल हम उन्हें समझते नहीं हैं, अपितु उनकी गलत व्याख्या करते हैं। तत्त्व-चिन्तन करते समय हम उन असभ्य आदिम व्यक्तियों के समान होते हैं जो सभ्य मनुष्यों की अभिव्यक्तियों को सुनते हैं, उन पर मिथ्या व्याख्याएं आरोपित करते हैं, और फिर उनके विचित्र निष्कर्ष निकालते हैं। | |||
{{ParPU|195}} “किन्तु मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि (अर्थ ग्रहण करने के लिए) मेरी वर्तमान क्रिया से उसका आगामी प्रयोग, कार्य-कारण भाव से और अनुभव से, निर्धारित होता है, किन्तु मेरा तात्पर्य यह है कि प्रयोग किसी अर्थ में किसी विचित्र ढंग से स्वयं ही उपस्थित होता है।” — किन्तु बेशक यह ‘''किसी'' अर्थ में’ होता है! वास्तव में आपके कथन में अनुचित तो “विचित्र ढंग से” अभिव्यक्ति ही है। शेष तो उचित ही है और वाक्य केवल तभी विचित्र प्रतीत होता है जब हम उसके लिए ऐसे भाषा-खेल की कल्पना करते हैं जो उस भाषा-खेल से भिन्न होता है जिसमें वह वाक्य वास्तव में प्रयुक्त होता है। (एक बार किसी ने मुझे बताया कि जब वह बच्चा था तो उसे हैरानी होती थी कि दर्जी ‘पोशाक सी’ सकता है — वह समझता था कि पोशाक सीने से ही बन जाती है, यानी एक धागे को दूसरे धागे से सीने से।) | |||
{{ParPU|196}} शब्द-प्रयोग को समझने की असफलता के कारण हम उसे किसी विचित्र ''प्रक्रिया'' की अभिव्यक्ति जैसा मान लेते हैं। (जैसे हम समय को एक विचित्र माध्यम समझते हैं, मन को एक विचित्र प्रकार का जीव समझते हैं।) | |||
{{ParPU|197}} “यह तो ऐसा ही है मानो हम शब्द के संपूर्ण प्रयोग को एकाएक समझा सकते हों।” — और यही तो हम कहते हैं कि हम ऐसा करते हैं। यानी जो हम करते हैं उसका हम कभी-कभी इन शब्दों में विवरण देते हैं। किन्तु जो कुछ होता है उस के बारे में कुछ भी विस्मयकारी, कुछ भी विचित्र नहीं है। विचित्र तो यह तब बनता है जब हमें यह सोचने के लिए विवश किया जाता है कि प्रयोग को समझने की क्रिया में आगामी परिवर्धन तो किसी प्रकार पहले से ही उपस्थित होते भी हैं, और नहीं भी। — क्योंकि हम कहते हैं कि इसमें कोई संशय नहीं है कि हम शब्द को समझते हैं, और साथ ही यह भी कहते हैं कि उसका अर्थ तो उसके प्रयोग में निहित है। इसमें कोई संशय नहीं कि अब मैं शतरंज खेलना चाहता हूँ, किन्तु शतरंज अपने नियमों (इत्यादि) के कारण ही खेल होता है। मैं कौन सा खेल खेलना चाहता हूँ, क्या यह मैं तब तक नहीं जानता, जब तक मैं उसे खेल नहीं ''लेता''? अथवा क्या सभी नियम मेरे अभिप्राय में होते हैं? क्या मुझे अनुभव से पता चलता है कि साधारणतः अमुक अभिप्राय का परिणाम अमुक खेल होता है? तो अपने अभिप्रेत कार्य के बारे में क्या मेरा निश्चित होना असंभव है? और यदि यह निरर्थक है, तो अभिप्राय एवं अभिप्रेत विषय में किस प्रकार का अटूट संबंध है? — “आइए, शतरंज का खेल खेलें” इस अभिव्यक्ति के अर्थ और इस खेल के सभी नियमों के परस्पर संबंध कैसे प्रभावित होते हैं? — बेशक, खेल के नियमों की नियमावली में, उसे सिखाने में, खेलने के दैनंदिन अभ्यास में। | |||
{{ParPU|198}} “किन्तु कोई नियम कैसे बता सकता है कि मुझे इस स्थान पर क्या करना है? मैं जो कुछ भी करता हूँ वह किसी न किसी व्याख्या के अनुसार, किसी न किसी नियम के अनुरूप होता है।” — हमें ऐसा नहीं कहना चाहिए, अपितु हमें वस्तुतः यह कहना चाहिए??? कोई भी व्याख्या व्याख्येय विषय के साथ अधर में लटकती रहती है, और उस विषय को कोई आधार नहीं देती। व्याख्याएं अपने आप किसी अर्थ का निर्धारण नहीं करतीं। | |||
“तो जो कुछ भी मैं करता हूँ क्या उसको नियम के अनुरूप बनाया जा सकता है?” — मुझे यह पूछने दें??? नियम की अभिव्यक्ति का — उदाहरणार्थ, संकेत-स्तंभ का — मेरी क्रियाओं से क्या संबंध है? यहाँ किस प्रकार का संबंध है? — संभवतः यह??? मुझे इस संकेत पर इस प्रकार की प्रतिक्रिया करने का प्रशिक्षण दिया गया है, और इस समय मैं इस पर उसी प्रकार की प्रतिक्रिया कर रहा हूँ। | |||
किन्तु यह तो केवल कार्य-कारण संबंध बताना ही है; यह बताना कि संकेत-स्तंभ अनुसरण की परिपाटी प्रचलित हुई; न कि यह बताना कि संकेत का अनुसरण किसमें निहित है। इससे विपरीत, मैंने यह भी इंगित किया है कि कोई व्यक्ति संकेत-स्तंभ के अनुसार केवल तभी जा सकता है जब संकेत-स्तंभों का कोई नियमित प्रयोग हो, या फिर कोई परिपाटी हो। | |||
{{ParPU|199}} क्या जिसे हम “नियम-पालन” कहते हैं वह कुछ ऐसा होता है कि जिसे केवल एक व्यक्ति ही कर सकता है, और वह भी जीवन में केवल एक ही बार? — बेशक, यह तो “नियम-पालन” अभिव्यक्ति के व्याकरण पर एक टिप्पणी है। | |||
यह तो संभव नहीं कि केवल एक ही ऐसा अवसर आया हो जब किसी ने नियम-पालन किया हो। यह भी संभव नहीं है कि एक ही ऐसा अवसर आया हो जब विवरण दिया गया हो, जब आदेश दिया गया हो, अथवा आदेश को समझा गया हो; इत्यादि। — नियम-पालन करना, विवरण देना, आदेश देना, शतरंज के खेल को खेलना, तो ''परिपाटियां'' (प्रयोग, संस्थाए) हैं। | |||
वाक्य को समझने का अर्थ तो भाषा को समझना ही है। भाषा को समझने का अर्थ किसी तकनीक पर अधिकार प्राप्त करना है। | |||
{{ParPU|200}} बेशक कल्पना की जा सकती है कि खेलों से अनभिज्ञ जनजाति के दो व्यक्ति शतरंज की बिसात के दोनों ओर बैठ जाएं; शतरंज की चालों को चलने से पहले होने वाली मानसिक क्रियाओं के साथ, चालें चलें; और यदि हम इसे देखें तो हमें कहना पड़े कि वे शतरंज खेल रहे हैं। किन्तु अब कल्पना कीजिए कि शतरंज के खेल को विशेष नियमों के अनुसार हम ऐसी क्रियाओं की श्रृंखला में परिवर्तित कर देते हैं जिन्हें हम साधारणतः ''खेल'' से संबंधित नहीं मानते — उदाहरणार्थ, शोर मचाने और धरती पर पैर पटकने की क्रियाओं में। और अब मान लीजिए कि वे दोनों व्यक्ति हमारी तरह शतरंज खेलने के बजाय, शोर मचाते हैं और धरती पर पैर पटकते हैं; और ऐसा वे कुछ इस प्रकार करते हैं कि उनकी पद्धति उचित नियमों द्वारा शतरंज के खेल में परिवर्तित की जा सकती है। क्या अब भी हम यह कहना चाहेंगे कि वे खेल खेल रहे थे? किसी को यह कहने का क्या अधिकार है? | |||
{{ParPU|201}} हमारा विरोधाभास यह था : नियम द्वारा क्रिया के किसी भी अनुक्रम का निर्धारण नहीं किया जा सकता, क्योंकि क्रिया के सभी अनुक्रमों को नियम के अनुकूल बनाया जा सकता है। इसका उत्तर था : यदि सभी विषयों को नियम के अनुकूल बनाया जा सकता है, तो उसे उन्हीं विषयों के प्रतिकूल भी बनाया जा सकता है। अतः यहाँ न तो अनुकूलता होगी और न ही प्रतिकूलता होगी। | |||
यह समझा जा सकता है कि इस भ्रम का कारण यह है कि अपनी युक्ति के दौरान हम एक के बाद दूसरी व्याख्या देते हैं; मानो हर व्याख्या हमें उस क्षण तक संतुष्ट करती है, जब तक हम उसके पीछे छुपी किसी अन्य व्याख्या को न सोचें। इससे पता चलता है कि नियम को समझने का ऐसा ढंग भी होता है जो ''व्याख्या नहीं'' होता, किन्तु जिसका हमें तब पता चलता है जब हम वास्तविक स्थितियों में कभी “नियम पालन” करते हैं और कभी “नियम-विरुद्ध” आचरण करते हैं। | |||
इसलिए हम यह कहना चाहते हैं: नियमानुसार होने वाली प्रत्येक क्रिया व्याख्या होती है। किन्तु हमें “व्याख्या” पद को, नियम की किसी एक अभिव्यक्ति का किसी दूसरी अभिव्यक्ति से, प्रतिस्थापन तक सीमित रखना पड़ेगा। | |||
{{ParPU|202}} और इसीलिए “नियम-पालन” एक पद्धति है। और यह समझना कि कोई नियम-पालन कर रहा है, नियम पालन करना नहीं होता। अतः ‘निजी रूप’ से नियम पालन संभव नहीं होता : अन्यथा यह सोचना कि हम नियम-पालन कर रहे हैं वास्तव में नियम-पालन करने के समान होता। | |||
{{ParPU|203}} भाषा तो भूल भुलैया है। अपनी मंजिल के लिए आप एक ओर से चलें तो आपको अपनी राह मिल जाएगी; उसी मंजिल के लिए दूसरी ओर से चलें, तो आप भटक जायेंगे। | |||
{{ParPU|204}} वर्तमान स्थितियों में मैं, उदाहरणार्थ, ऐसे खेल का आविष्कार कर सकता हूँ जिसे कभी भी कोई न खेले। — किन्तु क्या यह भी संभव होगा : मानव-जाति ने कभी भी कोई खेल नहीं खेला; बहरहाल एक बार किसी ने एक ऐसे खेल का आविष्कार किया — जिसे कभी किसी ने नहीं खेला? | |||
{{ParPU|205}} “किन्तु ''अभिप्राय'' के बारे में, मानसिक प्रक्रिया के बारे में विचित्र बात तो यह है कि उसके लिए किसी परिपाटी, किसी तकनीक की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरणार्थ, यह कल्पना संभव है कि दो व्यक्ति ऐसे संसार में जहाँ कोई भी खेल न होते हों, शतरंज खेलें; और यह भी कल्पना की जा सकती है कि वे शतरंज के खेल का आरंभ करें — और फिर उनके खेल में व्यवधान पैदा हो जाये।” | |||
किन्तु क्या शतरंज को उसके नियमों से परिभाषित नहीं किया जाता? और शतरंज खेलने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति के मन में ये नियम किस प्रकार उपस्थित रहते हैं? | |||
{{ParPU|206}} नियम का अनुसरण करना तो आदेश-पालन के समान है। हमें ऐसा प्रशिक्षण दिया जाता है; हम आदेश पर एक विशिष्ट ढंग से प्रतिक्रिया करते हैं। किन्तु क्या हो यदि एक व्यक्ति आदेश और प्रशिक्षण पर एक प्रकार से, और कोई अन्य व्यक्ति अन्य प्रकार से प्रतिक्रिया करे? उनमें से कौन ठीक होगा? | |||
मान लीजिए कि आप किसी अनजाने और नितान्त अपरिचित भाषाभाषी प्रदेश में अनुसंधान के लिए पहुँचते हैं। आप किन परिस्थितियों में कहेंगें कि वहाँ के लोग आदेश देते हैं, उन्हें समझते हैं, उनका पालन करते हैं, उनका विरोध करते हैं, इत्यादि। मानव-जाति के सामान्य-व्यवहार की संदर्भ-प्रणाली के द्वारा ही हम अपरिचित भाषा की व्याख्या करते हैं। | |||
{{ParPU|207}} आइए हम कल्पना करें कि उस देश के लोग साधारण मानवीय क्रियाएँ करते हैं और उन क्रियाओं को करते समय स्पष्टतया एक व्यक्त भाषा का प्रयोग करते हैं। यदि हम उनके व्यवहार का निरीक्षण करें तो वह हमें सुबोध लगता है, ‘तार्किक’ प्रतीत होता है। किन्तु जब हम उनकी भाषा को सीखने का प्रयत्न करते हैं तो हमें उसे सीखना असंभव लगता है क्योंकि उनके कथन में, ध्वनि-उच्चारण में, और उनकी क्रियाओं में कोई नियमित संबंध नहीं होता; किन्तु फिर भी ये ध्वनियां निष्प्रयोजन नहीं होतीं क्योंकि यदि उन व्यक्तियों में से किसी एक का भी मुँह बंद कर दें तो इसका वही परिणाम होगा जो हमारे मुँह बंद करने पर होता है। ध्वनियों के बिना उनकी क्रियाएं, मैं कहना चाहूँगा, अव्यवस्थित हो जाती हैं। | |||
क्या हमें कहना चाहिए कि इन लोगों की कोई भाषा : आदेश, विवरण और तमाम अन्य बातें — हैं? | |||
इसे “भाषा” कहने के लिए हम इसमें पर्याप्त नियमितताएं नहीं पाते। | |||
{{ParPU|208}} तो क्या मैं “आदेश” और “नियम” को नियमितता” द्वारा परिभाषित कर रहा हूँ? — मैं “नियमित”, “एकरूप”, “एक समान” शब्दों के अर्थ की व्याख्या कैसे देता हूँ? — किसी ऐसे व्यक्ति को — उदाहरणार्थ केवल फ्रेंच-भाषी व्यक्ति को मैं इन शब्दों की व्याख्या तदनरूप फ्रेंच शब्दों द्वारा करूँगा। इन ''प्रत्ययों'' से अनभिज्ञ व्यक्ति को मैं ''उदाहरणों'' एवं ''व्यवहार'' द्वारा इन शब्दों का प्रयोग सिखाऊंगा। — और ऐसा करके मैं उसे अपने ज्ञान से कोई कम जानकारी नहीं देता। | |||
इस अध्यापन के दौरान मैं उसे वही रंग, वही लम्बाई, वही आकृति, प्रदर्शित करूँगा, मैं उससे उन्हें ढूँढ़वाऊँगा, और उन्हें बनवाऊँगा, इत्यादि। उदाहरणार्थ, आलंकारिक संरूप को आगे बढ़ाने के आदेश पर मैं उससे उसे आगे बढ़वाऊँगा। — और अनुक्रमों को भी आगे बढ़वाऊँगा — और उदाहरणार्थ जब उसे..... इस बिंदु-क्रम को आगे बढ़ाने का आदेश दिया जाये तो वह......... इस प्रकार आगे बढ़े। मैं ऐसा करता हूँ, वह मेरा अनुसरण करता है; मैं उसे स्वीकृति की, अस्वीकृति की, प्रोत्साहन की अभिव्यक्तियों द्वारा प्रभावित करता हूँ। या तो मैं उसे अपने रास्ते जाने देता हूँ अथवा फिर उसे रोक लेता हूँ; इत्यादि। | |||
ऐसे अध्यापन के साक्षी होने की कल्पना कीजिए। किसी भी शब्द की स्वयं उसी शब्द द्वारा व्याख्या नहीं की जाएगी; कोई तार्किक चक्रव्यूह नहीं होगा। | |||
इस प्रकार के अध्यापन में “एवं यथावत्”, “एवं अनंत तक यथावत्” अभिव्यक्तियों कभी व्याख्या की जाती है। अन्य बातों के साथ-साथ भंगिमा भी इस प्रयोजन में सहायक हो सकती है। “इसी प्रकार आगे बढ़ो”, अथवा “एवं यथावत्” के अर्थ वाली भंगिमा किसी वस्तु अथवा स्थान को इंगित करने के तुल्य है। | |||
संक्षिप्त संकेतन वाले “इत्यादि” के प्रयोग में, और “इत्यादि” के उस प्रयोग में जो संक्षिप्त संकेतन नहीं है, हमें भेद करना चाहिए। “अनंत इत्यादि” ऐसा संक्षेपण नहीं है। π के सभी अंकों को न लिख सकना, जैसा कि गणितज्ञ कभी-कभी समझते हैं, मानवीय कमजोरी नहीं है। | |||
ऐसा अध्यापन जो केवल प्रदत्त उदाहरणों के अतिरिक्त किसी पर लागू न हो, ऐसे अध्यापन से भिन्न होगा जो प्रदत्त उदाहरणों से ‘''परे इंगित''’ करे। | |||
{{ParPU|209}} “किन्तु फिर क्या हमारी समझ समस्त उदाहरणों से परे नहीं पहुँच जाती?” — बेहद विचित्र होने के साथ-साथ अत्यन्त सहज अभिव्यक्ति भी! — | |||
किन्तु क्या ''बस इतना ही'' है? क्या इससे अधिक गहरी व्याख्या नहीं होती; अथवा क्या कम से कम व्याख्या की ''समझ'' को तो इससे अधिक गहरा नहीं होना चाहिए? — तो क्या स्वयं मुझे इससे अधिक गहरी समझ है? क्या अपने द्वारा दी गई व्याख्या से अधिक मैं कुछ जानता हूँ? — किन्तु फिर यह विचार कि मैं अधिक जानता हूँ कहाँ से आता है? | |||
क्या यह उस स्थिति के समान है जिसमें मैं सीमित न होने की व्याख्या एक ऐसी लम्बाई के रूप में देता हूँ जो हर लम्बाई के पार पहुँच जाती है? | |||
{{ParPU|210}} “किन्तु क्या जो आप स्वयं समझते हैं उसकी व्याख्या आप किसी अन्य व्यक्ति के लिए भी करते हैं? क्या आप उसे अपरिहार्य विषय का ''अनुमान'' नहीं लगाने देते? आप उसे उदाहरण देते हैं, — किन्तु उसे आपके अभिप्राय के बारे में अनुमान लगाने के लिए उन उदाहरणों के उद्देश्यों के बारे में अनुमान लगाना पड़ता है।” — मैं उसे वे सभी व्याख्याएं देता हूँ जिन्हें मैं स्वयं समझता हूँ। — “मेरे अभिप्राय के बारे में वह अनुमान लगाता है” इसका अर्थ होगा : उसके मन में मेरी व्याख्या के विभिन्न??? विवेचन आते हैं, और वह उनमें से किसी एक को स्वीकार कर लेता है। यानी इस स्थिति में वह प्रश्न पूछ सकता है; मैं उसे उत्तर दे सकता हूँ, और मुझे उसे उत्तर देना भी चाहिए। | |||
{{ParPU|211}} उसे आप जो भी अनुदेश देते हैं उससे वह कैसे ''समझ'' सकता है कि उसे रचना को आगे बढ़ाना है? — मैं कैसे समझता हूँ? — यदि उसका अर्थ है “क्या मेरे पास कारण हैं?” तो उसका उत्तर है: शीघ्र ही मेरे कारण समाप्त हो जाएंगे। और फिर मैं कारणों के बिना ही क्रिया करूँगा। | |||
{{ParPU|212}} जब कोई ऐसा व्यक्ति, जिससे मैं डरता होऊ, मुझे श्रृंखला को आगे बढ़ाने का आदेश देता है, तो मैं शीघ्रतापूर्वक पूर्ण निश्चय से आदेश का पालन करता हूँ और कारणों की कमी मुझे नहीं खलती। | |||
{{ParPU|213}} “किन्तु श्रृंखला के आरम्भिक खंड की तो स्पष्टतः विभिन्न व्याख्याएं (उदाहरणार्थ, बीजगणितीय अभिव्यक्तियों द्वारा) दी जा सकती हैं, और इसीलिए आपने शुरू में ऐसी व्याख्याओं में से किसी ''एक'' का चुनाव किया होगा।” — बिल्कुल नहीं। विशिष्ट परिस्थितियों में संशय करना सम्भव था। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैंने संशय किया, अथवा मैं संशय कर सकता था। (इससे सम्बन्धित प्रक्रिया के मनोवैज्ञानिक ‘वातावरण’ के बारे में कुछ कहना होगा।) | |||
अतः इस संशय को अन्तःप्रज्ञा द्वारा ही हटाया गया होगा। — यदि अन्तःप्रज्ञा आन्तरिक वाणी है — तो मैं कैसे जानता हूँ कि उसका पालन कैसे करना है? और मैं कैसे समझता हूँ कि वह मुझे भुलावे में नहीं डालती? क्योंकि यदि वह मेरा उचित मार्गदर्शन कर सकती है तो वह मुझे भटका भी सकती है। | |||
(अन्तःप्रज्ञा — अनावश्यक पत्तेबाजी) | |||
{{ParPU|214}} यदि 1, 2, 3, 4 . . .!!! श्रृंखला को विकसित करने के लिए अन्तःप्रज्ञा आवश्यक है, तो 2 2 2 2 ... श्रृंखला को विकसित करने के लिए भी उसकी आवश्यकता होनी चाहिए। | |||
{{ParPU|215}} किन्तु ''समान होना'' क्या अन्ततः समान होना नहीं है? | |||
हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वस्तु की अपने आप में तद्रूपता में हमें तद्रूपता का अमोघ प्रतिमान मिलता है। मैं कहना चाहता हूँ : “यहाँ पर विविध व्याख्याएं हो ही नहीं सकतीं। यदि आप किसी वस्तु का अवलोकन करते हैं, तो आप तद्रूपता का भी अवलोकन करते हैं।” | |||
तो क्या दो वस्तुएं तब समान होती हैं, जब उनमें वही होता है जो उनमें से किसी ''एक'' वस्तु में विद्यमान हो। और जो ''एक'' वस्तु प्रदर्शित करती है उसे मैं दो वस्तुओं पर कैसे लागू करूँ? | |||
{{ParPU|216}} “वस्तु तो अपने आप में तद्रूप होती है।” — निरर्थक प्रतिज्ञप्ति का इससे बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता, फिर भी वह कल्पना-शक्ति से जुड़ी रहती है, मानो अपनी कल्पना में हम वस्तु की आकृति लायें और समझें कि वह उसमें फिट हो गई है। | |||
हम यह भी कह सकते हैं: कि उसके लिए कोई स्थान रिक्त छोड़ा गया था और अब वह उसमें बिल्कुल फिट हो गई है। | |||
क्या यह धब्बा [[File :Par. 216.png|23px|link=]] अपने शुभ्र परिवेश में ‘फिट’ होता है — किन्तु ''यह बिल्कुल ऐसे ही लगेगा'' यदि शुरू में इसके स्थान पर कोई छिद्र होता, और फिर वह उस छिद्र में फिट हो जाता। किन्तु जब हम “यह फिट हो जाता है” कहते हैं तो हम न तो इस आभास का ही विवरण देते हैं और न ही केवल इस ''परिस्थिति'' का। | |||
“प्रत्येक रंगीन धब्बा अपने परिवेश में बिल्कुल फिट हो जाता है” तो वस्तुतः तद्रूपता के सिद्धान्त का विशेष आकार है। | |||
{{ParPU|217}} “मैं नियम का पालन करने के योग्य कैसे होता हूँ?” — यदि यह कारणों के बारे में प्रश्न??? नहीं है तो मेरे नियमानुसरण-विधि के औचित्य के बारे में है। | |||
यदि मैंने औचित्य समाप्त कर दिये हों तो मैं चट्टान पर पहुँच जाता हूँ और मेरी कुदाल मुड़ जाती है। तब मैं यह कहना चाहता हूँ “मैं तो यही करता हूँ।” | |||
(स्मरण रहे कि कभी-कभी हम परिभाषाओं की मांग उन परिभाषाओं के विषय-वस्तु के लिए नहीं, अपितु उन परिभाषाओं के आकार के लिए करते हैं। हमारी आवश्यकता तो स्थापत्य सम्बन्धित है; परिभाषा एक प्रकार का ऐसा आलंकारिक मेहराब है जिस पर कुछ भी टिका नहीं होता।) | |||
{{ParPU|218}} यह विचार कहाँ से आता है कि श्रृंखला का आरम्भ तो अनन्त सीमा तक बिछाई गई अदृष्ट पटरियों का दृश्यमान खंड है? हाँ, इस नियम के बदले पटरियों की कल्पना कर सकते हैं। और अनन्त लम्बाई वाली पटरियां, नियम के असीमित प्रयोग के अनुरूप हैं। | |||
{{ParPU|219}} “सभी पदन्यास वास्तव में पहले ही किये जा चुके हैं” का अर्थ है: अब मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। किसी अर्थ - विशेष का ठप्पा लगने के बाद नियम अपने सम्पूर्ण प्रयोग को रेखांकित कर देता है। — किन्तु यदि इस प्रकार की स्थिति हो भी, तो भी वह कैसे सहायक होगी? | |||
नहीं; मेरे विवरण का अर्थ केवल तभी होता है जब उसे प्रतीकात्मक रूप से समझा जाए। — मुझे कहना चाहिए था : ''यह मुझे ऐसा प्रतीत होता है''। | |||
जब मैं किसी नियम का पालन करता हूँ तो मैं कोई चुनाव नहीं करता। मैं ''अंधवत्'' नियम-पालन करता हूँ। | |||
{{ParPU|220}} किन्तु उस प्रतीकात्मक प्रतिज्ञप्ति का क्या प्रयोजन है? अनुमानतः उसका कार्य तो कार्य-कारण रूप से निर्धारित होने, और तार्किक रूप से निर्धारित किए जाने में भेद को उजागर करना था। | |||
{{ParPU|221}} मेरी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति वास्तव में नियम-प्रयोग का पौराणिक विवरण थी। | |||
{{ParPU|222}} “रेखा मुझे सूचित करती है कि मुझे किस ओर जाना है।” — किन्तु यह तो एक चित्र ही है। और यदि मैंने दायित्वहीन ढंग से निर्णय लिया कि वह इसे अथवा उसे सूचित करती है तो मुझे यह नहीं कहना चाहिए कि मैं उसका नियम के समान पालन कर रहा था। | |||
{{ParPU|223}} ऐसा तो नहीं लगता कि हमें नियम की अनुमति की, (फुसफुसाहट की) सदैव प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इसके विपरीत हमें यह असमंजस नहीं होता कि यह आगे चलकर हमें क्या कहेगा, किन्तु वह हमें सदैव एक ही बात बताता है, और हम वही करते हैं जो वह हमें बताता है। | |||
अपने शिक्षार्थी को हम कह सकते हैं: “ध्यान दो, मैं सदैव एक ही बात करता हूँ??? मैं....”। | |||
{{ParPU|224}} “सहमति” शब्द और “नियम” शब्द एक दूसरे से ''सम्बन्धित'' हैं, वे तो भाई-भतीजे हैं। यदि मैं किसी व्यक्ति को इनमें से कोई एक शब्द सिखाता हूँ तो वह उसके साथ ही दूसरे को भी सीख जाता है। | |||
{{ParPU|225}} “नियम” शब्द का प्रयोग और “समान” शब्द के प्रयोग परस्पर गुंफित हैं। (जैसे कि “प्रतिज्ञप्ति” का प्रयोग और “सत्य” का प्रयोग परस्पर गुँथे हुए हैं।) | |||
{{ParPU|226}} मान लीजिए कि कोई 2x + 1 श्रृंखला की गणना करके 1, 3, 5, 7 अंकों की शृंखला पर पहुँचता है। और अब वह अपने आपसे पूछता है: किन्तु क्या मैं सदैव एक ही क्रिया करता हूँ, अथवा हर बार भिन्न क्रिया करता हूँ?” | |||
यदि आप दिन-प्रतिदिन प्रतिज्ञा करें : “कल मैं आऊंगा और तुम्हें मिलूंगा” — तो क्या आप हर दिन एक ही बात कहते हैं, अथवा हर दिन कुछ भिन्न बात कहते हैं? | |||
{{ParPU|227}} क्या यह कहने का कोई अर्थ होगा : “यदि वह हर दिन कुछ ''भिन्न'' क्रिया करता है तो हमें यह नहीं कहना चाहिए कि वह किसी नियम का पालन कर रहा था”? इसका कोई अर्थ ''नहीं'' होता। | |||
{{ParPU|228}} “हम श्रृंखला पर मात्र किसी ''एक'' ढंग से विचार करते हैं!” — ठीक है, किन्तु वह कौन सा ढंग है? स्पष्टतः हम उस पर बीजगणितीय पद्धति से विचार करते हैं, और उसे श्रृंखला के प्रसरण के किसी खंड के समान समझते हैं। अथवा क्या इसमें इससे अधिक कुछ है? — “किन्तु जिस ढंग से हम उसे समझते हैं वह, निश्चय ही हमें सब कुछ बता देता है!” — किन्तु वह तो श्रृंखला के खंड के बारे में; अथवा हमारे द्वारा उसमें ध्यान देने योग्य पाए गए किसी विषय के बारे में टिप्पणी नहीं है; यह तो इस तथ्य को उजागर करता है कि हम नियम की ओर ही अनुदेश प्राप्त करने के लिए देखते हैं और ''कुछ'' करते हैं, न कि किसी अन्य विषय की ओर। | |||
{{ParPU|229}} मेरा विश्वास है कि श्रृंखला के खंड में मुझे कोई बहुत सूक्ष्म अतिविशिष्ट प्रारूप दिखाई देता है, जिसे अनन्त तक पहुँचने के लिए केवल “इत्यादि” शब्द जोड़ने की आवश्यकता है। | |||
{{ParPU|230}} “रेखा मुझे सूचित करती है कि मुझे किस ओर जाना है” तो केवल इसका भावानुवाद है: मुझे जिस ओर जाना है उस दिशा की वह ''अंतिम'' निर्णायक है। | |||
{{ParPU|231}} “किन्तु निश्चय ही आप समझ सकते हैं कि...?” यह तो नियम से बाध्य व्यक्ति की तद्विशिष्ट अभिव्यक्ति ही है। | |||
{{ParPU|232}} आइए हम ऐसे नियम की कल्पना करें जो मुझे सूचित करे कि मुझे उसका किस ढंग से पालन करना है; यानी जब मेरी आँखें रेखा का अनुसरण करें तो मेरे भीतर कोई आवाज कहे : “''इस ओर''!” किसी प्रेरणा को पालन करने की इस प्रक्रिया में और नियम-पालन की प्रक्रिया में क्या भेद है? क्योंकि निश्चय ही वे समान नहीं हैं। प्रेरणा की स्थिति में मैं निर्देश की ''प्रतीक्षा'' करता हूँ। किसी अन्य व्यक्ति को मैं रेखा के अनुसरण की अपनी ‘तकनीक’ तब तक नहीं सिखा पाऊँगा जब तक मैं उसे, ध्यान लगाकर सुनने की किसी विधि को, सीखने के किसी प्रकार को, नहीं समझा सकता। किन्तु तब मैं उससे रेखा के उसी प्रकार के अनुसरण की अपेक्षा नहीं करता जिस प्रकार से मैं स्वयं उस रेखा का अनुसरण करता हूँ। | |||
ये प्रेरणा से सक्रिय होने, और नियम के अनुसार कार्य करने के मेरे अनुभव नहीं हैं; ये तो व्याकरण-सम्बन्धी टिप्पणियां हैं। | |||
{{ParPU|233}} किसी प्रकार के अंकगणित में इस तरह के प्रशिक्षण की कल्पना करना भी सम्भव है। बच्चे अपने-अपने ढंग से गणना कर सकते हैं — जब तक वे अन्तर्वाक् को सुनें और उसका पालन करें। इस ढंग से गणना करना एक प्रकार की संगीत-रचना के समान है। | |||
{{ParPU|234}} बहरहाल, क्या हमारे लिए वास्तविक गणना (जिसमें सभी सहमत होते हैं, इत्यादि) के समान गणना करना संभव नहीं होगा, और फिर भी ऐसा करते समय हमें प्रत्येक पदन्यास पर यह अनुभूति हो कि हम सम्मोहित व्यक्ति के समान, किसी नियम से संचालित हैं और इस तथ्य से भौंचक हैं कि हम सहमत हुए? (अपनी सहमति के लिए हमें ईश्वर को धन्यवाद देना होगा।) | |||
{{ParPU|235}} इससे तो केवल यह पता चलता है कि दैनिक जीवन में हम जिसे “नियम-पालन” कहते हैं उस में क्या निहित होता है। | |||
{{ParPU|236}} गणना करने में विलक्षण-प्रतिभावान व्यक्ति उचित उत्तर तो देते हैं किन्तु यह नहीं बता सकते कि वे ऐसा कैसे करते हैं। क्या हमें कहना चाहिए कि वे गणना करते ही नहीं? (स्थितियों का कोई समूह।) | |||
{{ParPU|237}} कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति किसी रेखा को नियम की तरह निम्न प्रकार से प्रयुक्त करता है: वह कम्पास को पकड़ता है, और उसके एक सिरे को उस ‘नियम’ रूपी लम्बाई में ले जाता है, जबकि दूसरे सिरे से नियम का अनुसरण करने वाली रेखा खींचता है। और जब वह नियम रूपी रेखा की लम्बाई में कम्पास के सिरे को ले जा रहा होता है तो उस कम्पास के सिरे को प्रत्यक्षतः बड़ी सूक्ष्मता से परिवर्तित करता रहता है, ऐसा करते समय वह हमेशा नियम को इस प्रकार देखता रहता है मानो उसी से उसकी क्रिया निर्धारित हो रही हो। और उसको देखने से हमें कम्पास के इस प्रकार खुलने और बन्द होने में किसी प्रकार की नियमितता का पता नहीं चलता। इससे हमें यह पता नहीं चल सकता कि वह रेखा का अनुसरण किस ढंग से करता है। संभवतः यहाँ हम यही कहना चाहें : यह ''सूचित'' करता हुआ प्रतीत होता है कि “उसे किस ओर जाना है, किन्तु वह नियम नहीं है।” | |||
{{ParPU|238}} मुझे नियम केवल तभी अपने सभी परिणामों को पहले से ही प्रस्तुत करता प्रतीत होता है जब मैं उन परिणामों पर ''स्वाभाविक'' रूप से पहुँचता हूँ। जैसे मैं स्वाभाविक रूप से अमुक रंग को “नीला” कहता हूँ। (इस तथ्य की कसौटी कि कोई विषय मेरे लिए “स्वाभाविक रूप से” है।) | |||
{{ParPU|239}} उसे यह कैसे पता चलता है कि “लाल” शब्द सुनने पर उसे कौन सा रंग चुनना है? — बिल्कुल सीधी बात : शब्द सुनने पर जिस रंग का प्रतिबिंब उसके सामने आता है उसे उसी का चयन करना होता है। — किन्तु उसे कैसे पता चलता है कि “जो प्रतिबिंब सामने आता है” उसका रंग कौन सा है? क्या उसके लिए किसी अन्य कसौटी की आवश्यकता है? (वस्तुतः ऐसी पद्धति होती है जिसमें “....” शब्द सुनने पर हम अपने सामने वाले रंग का चयन करते हैं।) | |||
“‘लाल’ रंग का अर्थ वह रंग होता है जो ‘लाल’ शब्द सुनने पर मेरे सामने आता है” — यह तो ''परिभाषा'' होगी। न कि शब्द को नाम के समान प्रयोग ''करना क्या होता'' है, इसकी व्याख्या। | |||
{{ParPU|240}} किसी नियम के पालन करने अथवा न करने के प्रश्न??? पर विवाद नहीं उठते (उदाहरणार्थ, गणितज्ञों में)। इस पर लोग कभी हाथापाई पर नहीं उतरते। यह उस ढांचे का अंग है जिस पर हमारी भाषा का क्रियान्वयन आधारित है (उदाहरणार्थ, विवरण देते समय)। | |||
{{ParPU|241}} “यानी आप कह रहे हैं कि मानवीय सहमति ही सत्य और असत्य का निर्धारण करती है?” मनुष्य जो कहते हैं वही सत्य और असत्य होता है; और वे प्रयुक्त-''भाषा'' के बारे में आपस में सहमत होते हैं। वह मतों की सहमति न होकर, जीवन-पद्धति की सहमति है। | |||
{{ParPU|242}} भाषा को संचार का माध्यम होने के लिए न केवल परिभाषाओं में सहमति आवश्यक है, अपितु इस के लिए विचारों की सहमति भी जरूरी है। (चाहे यह कितना ही विचित्र प्रतीत होता हो)। इससे तर्क उन्मूलित होता जान पड़ता है, किन्तु ऐसा नहीं है। — माप-तोल की विधियों का विवरण देना एक बात है, और उस के परिणाम प्राप्त करना और उसका उल्लेख करना दूसरी बात है। किन्तु जिसे हम “माप-तोल” कहते हैं उसका अंशत : निर्धारण माप-तोल के परिणामों में पायी जाने वाली विशिष्ट नियमितता द्वारा किया जाता है। | |||
{{ParPU|243}} कोई मनुष्य स्वयं प्रेरित हो सकता है; अपने आप को आदेश दे सकता है; अपनी आज्ञा का पालन कर सकता है, स्वयं को दोषी ठहरा सकता है, और अपने आप को दंडित कर सकता है; वह अपने से प्रश्न पूछ सकता है और उस प्रश्न का उत्तर दे सकता है। हम एकालाप करने वाले, स्वगत भाषण द्वारा ही क्रियाकलाप करने वाले, मनुष्यों की कल्पना भी कर सकते हैं। — उनको देखने और सुनने वाला शोधार्थी उनकी भाषा को हमारी भाषा में अनूदित करने में सफलता प्राप्त कर सकता है। (इससे वह उन लोगों की क्रियाओं की उचित भविष्यवाणी भी कर सकता है, क्योंकि वह उन्हें संकल्प करते और निर्णय लेते हुए भी सुनता है।) | |||
किन्तु क्या हम ऐसी भाषा की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें कोई व्यक्ति अपने आंतरिक अनुभवों — अपनी अनुभूतियों, भावदशाओं आदि — को अपने निजी प्रयोग के लिए लिखित अथवा मौखिक रूप से अभिव्यक्त कर सकता हो। — हाँ, तो क्या हम अपनी साधारण भाषा में ऐसा नहीं कर सकते? — किन्तु यह मेरा तात्पर्य नहीं है। इस भाषा का प्रत्येक शब्द, उस शब्द को उच्चारित करने वाले व्यक्ति को ही समझ आने वाले विषय को, उसकी निजी तात्कालिक संवेदनाओं को, इंगित करता है। यानी कोई अन्य व्यक्ति??? तो उस भाषा को समझ ही नहीं सकता। | |||
{{ParPU|244}} संवेदनाओं को शब्द कैसे ''इंगित'' करते हैं? — यहाँ तो कोई समस्या ही नहीं जान पड़ती; क्या हम प्रतिदिन संवेदनाओं के बारे में बातचीत और उनका नामकरण नहीं करते? किन्तु नाम और उस नाम-विषय में संबंध कैसे स्थापित होता है? यह तो इसी प्रकार का प्रश्न है: कोई व्यक्ति संवेदनाओं — उदाहरणार्थ “वेदना”, शब्द — के नामों के अर्थ कैसे सीखता है? यहाँ एक संभावना है: शब्द संवेदना की आदिम, स्वाभाविक अभिव्यक्तियों से संबंधित होते हैं और उनके स्थान पर प्रयुक्त किए जाते हैं। शिशु चोट खा कर चिल्लाता है; फिर बड़े-बूढ़े उसे समझाते हैं, विस्मयादि-बोधक शब्दों, और बाद में वाक्यों को सिखाते हैं। वे शिशु को नवीन वेदना-व्यवहार सिखाते हैं। | |||
“यानी आप कह रहे हैं कि वास्तव में ‘वेदना’ शब्द का अर्थ चिल्लाना होता है?” — इसके विपरीत : वेदना की शाब्दिक अभिव्यक्ति चिल्लाने को प्रतिस्थापित करती है और उसका विवरण नहीं देती। | |||
{{ParPU|245}} वेदना और अभिव्यक्ति के बीच भाषा का प्रयोग करने की हिमाकत भी मैं कैसे कर सकता हूँ? | |||
{{ParPU|246}} मेरी संवेदनाएं किस अर्थ में ''निजी'' हैं? — बेशक???, केवल मैं ही जान सकता हूँ कि क्या वास्तव में मैं वेदनाग्रस्त हूँ; कोई अन्य व्यक्ति तो केवल उसका अनुमान ही कर सकता है। — एक प्रकार से तो यह अनुचित है, और दूसरे प्रकार से निरर्थक। यदि हम “जानने” शब्द का प्रयोग उसी प्रकार कर रहे हैं जैसे कि उसका प्रयोग सामान्यतः किया जाता है, (और अन्यथा उसका प्रयोग हम कैसे करें?) तो जब मैं वेदनाग्रस्त होता हूँ तब दूसरे लोग बहुधा जानते हैं कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ। — हाँ किन्तु फिर भी मेरी जितनी निश्चितता से तो नहीं। — मेरे बारे में यह कतई नहीं कहा जा सकता (सिवाय हँसी-मजाक के) कि मैं ''जानता'' हूँ कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ। इसका क्या अर्थ हो सकता है — सिवाय यह कहने के कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ। | |||
अन्य व्यक्तियों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वे मेरे व्यवहार से ''ही'' मेरी संवेदनाओं को जानते हैं — क्योंकि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ''मैं'' उनको जानता हूँ। वे तो मेरी ही हैं। | |||
सच्चाई यह है: यदि दूसरे लोग यह कहें कि उन्हें मेरे वेदनाग्रस्त होने के बारे में संशय है, तो इसका कोई अर्थ होता है; किन्तु मेरे ऐसा कहने का कोई अर्थ नहीं होता। | |||
{{ParPU|247}} “केवल आप ही जान सकते हैं कि आपका अभिप्राय यही था।” हम किसी को ऐसा तब कह सकते हैं जब हम उसे “अभिप्राय” शब्द के अर्थ की व्याख्या दे रहे हों। क्योंकि तब इसका अर्थ होता है: हम इसका ''इस प्रकार'' प्रयोग करते हैं। | |||
(और यहाँ “जानने” का अर्थ है कि अनिश्चितता की अभिव्यक्ति निरर्थक है।) | |||
{{ParPU|248}} “संवेदनाएं निजी होती हैं” इस अभिव्यक्ति की तुलना : “पेशंस (ताश का एक खेल) अकेले ही खेली जाती है” इस अभिव्यक्ति से की जा सकती है। | |||
{{ParPU|249}} कहीं हमने अपनी यह धारणा कि नवजात शिशु की मुस्कराहट नाटक नहीं हो सकती, बेहद जल्दबाजी में तो नहीं बना ली? — और हमारी धारणा किस अनुभव पर आधारित है? | |||
(झूठ बोलना एक भाषा-खेल है, जिसे किसी अन्य भाषा-खेल की भाँति सीखने की आवश्यकता होती है।) | |||
{{ParPU|250}} कुत्ता वेदना का नाटक क्यों नहीं कर सकता? क्या वह बेहद ईमानदार होता है? क्या कुत्ते को वेदना का नाटक करना सिखाया जा सकता है? संभवतः उसे किसी ऐसे अवसर पर जब वह वेदनाग्रस्त न हो, इस प्रकार भौंकना सिखाना संभव हो मानो वह वेदनाग्रस्त है। परन्तु ऐसे व्यवहार को नाटकीय बनाने वाली अनिवार्य परिस्थितियां तो अनुपस्थित हैं। | |||
{{ParPU|251}} इसका अर्थ क्या होता है जब हम कहते हैं: “इससे उलट की तो मैं कल्पना ही नहीं कर सकता” अथवा “अन्यथा होने पर कैसा होता?” — उदाहरणार्थ, जब कोई कहता है कि मेरे बिम्ब निजी हैं, अथवा, केवल मैं ही जान सकता हूँ कि मुझे वेदना की अनुभूति हो रही है, इत्यादि। | |||
यहाँ, “इससे उलट की तो मैं कल्पना ही नहीं कर सकता” का बेशक, यह अर्थ नहीं है: मेरी कल्पना शक्ति ऐसा करने में असमर्थ है। ये शब्द किसी ऐसे विषय से बचाव करने वाले हैं जिसका आकार उसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति होने का आभास देता है जबकि वास्तव में वह व्याकरण-संबंधी प्रतिज्ञप्ति है। | |||
किन्तु हम क्यों कहते हैं: “इससे उलट की तो मैं कल्पना ही नहीं कर सकता”? ऐसा क्यों नहीं : “मैं तो विषय की ही कल्पना नहीं कर सकता”? | |||
उदाहरण : “प्रत्येक छड़ की लम्बाई होती है।” इसका अर्थ कुछ ऐसा होता है: हम किसी विषय को (अथवा ''इसे'') “छड़ की लम्बाई कहते हैं” — किन्तु किसी को भी “गोले की लम्बाई” नहीं कहते। तो क्या मैं ‘प्रत्येक छड़ की लम्बाई होने’ की कल्पना कर सकता हूँ? निस्संदेह मैं छड़ की ही कल्पना करता हूँ। उपर्युक्त प्रतिज्ञप्ति से संबंधित इसी चित्र का प्रयोग तो “इस मेज की लम्बाई उस मेज के बराबर है” प्रतिज्ञप्ति से संबंधित चित्र के प्रयोग से नितान्त भिन्न है। क्योंकि यहाँ मैं समझता हूँ कि इससे उलट चित्र होने का क्या अर्थ होता है (न कि इसका मानसिक चित्र होना आवश्यक है)। | |||
किन्तु व्याकरण-संबंधी प्रतिज्ञप्ति से संबंधित चित्र तो मात्र यह प्रदर्शित कर सकता है कि, उदाहरणार्थ, “छड़ की लम्बाई” किसे कहते हैं। और इसके उलट कैसा चित्र होना चाहिए? | |||
((प्रागनुभविक प्रतिज्ञप्ति के निषेध पर टिप्पणी।)) | |||
{{ParPU|252}} “इस वस्तु में विस्तार है।” इसका उत्तर हम ऐसे दे सकते हैं: “बकवास!” — किन्तु हम यह उत्तर देने को उद्यत होते हैं: “बेशक!” — ऐसा क्यों होता है? | |||
{{ParPU|253}} “किसी अन्य व्यक्ति को मुझे होने वाली वेदनाएं नहीं हो सकतीं।” — ''मेरी'' वेदनाएं कौन सी हैं? यहाँ तद्रूपता की कसौटी किसे माना जाता है? — जिसके कारण भौतिक वस्तुओं को “दोनों बिल्कुल एक जैसी” ऐसा कहना संभव होता है, उस पर विचार कीजिए, उदाहरणार्थ यह कहना “यह कुर्सी वह नहीं है जिसे आपने कल यहाँ देखा था, किन्तु यह बिल्कुल उस जैसी है”। | |||
जहाँ तक यह कहना सार्थक है कि मेरी वेदना उसकी वेदना के समान है, वहाँ तक हम दोनों का एक ही वेदना से ग्रस्त होना संभव है। (और इसकी भी कल्पना की जा सकती है कि दो व्यक्तियों को एक ही — न कि मात्र अनुरूप — स्थान पर वेदना की अनुभूति हो। उदाहरणार्थ, ऐसा स्वामी — जुड़वाँओं के साथ हो सकता है।) | |||
मैंने इस विषय पर परिचर्चा के दौरान एक व्यक्ति को अपनी छाती पीटकर यह कहते हुए देखा : “किन्तु निश्चय ही किसी अन्य व्यक्ति को ''यह'' वेदना नहीं हो सकती!” — इसका उत्तर है कि तद्रूपता की कसौटी की परिभाषा “यह” शब्द पर अत्यधिक जोर डाल कर नहीं की जाती। वस्तुतः अत्यधिक जोर डालना तो उस स्थिति का द्योतक है जिसमें हम तद्रूपता की ऐसी कसौटी से पूर्णतः परिचित होते हैं, किन्तु हमें उसकी याद दिलाने की आवश्यकता होती है। | |||
{{ParPU|254}} “एक समान” के स्थान पर “अभिन्न” का प्रतिस्थापन (उदाहरणार्थ) दर्शन का एक अन्य विशिष्ट कार्य है। मानो हम अर्थों की श्रृंखला के बारे में बातचीत कर रहे हों और प्रश्न केवल ऐसे उपयुक्त शब्दों को खोजने का हो जो सूक्ष्म अर्थ-भेद दिखला सकें। दर्शन में यह प्रश्न केवल तभी उठता है जब हमें किसी विशिष्ट अभिव्यक्ति के प्रयोग की अपनी लालसा का यथार्थ मनोवैज्ञानिक विवरण देना हो। ऐसी स्थिति में जो हम ‘कहने को लालायित होते हैं’ वह बेशक दर्शन नहीं होता; अपितु वह उसका अनगढ़ रूप है। अतः, उदाहरणार्थ, गणितीय तथ्यों की वास्तविकता एवं वस्तुनिष्ठता के बारे में जो कुछ भी गणितज्ञ कहना चाहता है, वह गणित का दर्शन नहीं होता, अपितु वह तो दार्शनिक ''विवेचन'' का विषय है। | |||
{{ParPU|255}} दार्शनिक द्वारा किसी प्रश्न का विवेचन तो किसी रोग के उपचार के समान ही होता है। | |||
{{ParPU|256}} अब मेरे आन्तरिक अनुभवों का विवरण देने वाली और केवल मुझे ही समझ आने वाली भाषा का क्या होगा? मैं अपनी संवेदनाओं के स्थान पर शब्दों का प्रयोग ''कैसे'' करता हूँ — जैसा हम साधारणतया करते हैं? तो क्या संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने वाले मेरे शब्द, संवेदनाओं की मेरी स्वाभाविक अभिव्यक्तियों के साथ बँधे हैं? | |||
उस स्थिति में मेरी भाषा ‘निजी’ नहीं है। मेरे साथ-साथ कोई अन्य भी उसे समझ सकता है — किन्तु मान लीजिए कि संवेदना का प्रतिनिधित्व करने वाली मेरी कोई स्वाभाविक अभिव्यक्ति ही न हो, अपितु मुझे मात्र संवेदन हो? और अब मैं नामों को संवेदनाओं मे ''संयुक्त'' ही समझता हूँ, और इन नामों का विवरणों में प्रयोग करता हूँ। — | |||
{{ParPU|257}} “यदि मनुष्य वेदना के बाह्य संकेतों को प्रदर्शित न करते (न तो कराहते, नही मुँह बनाते, इत्यादि) तो कैसा होता? तो शिशु को ‘दंतपीड़ा’ शब्द का प्रयोग सिखाना असंभव होता।” — हाँ तो आइए हम मान लें कि शिशु प्रतिभावान है और वह स्वयं ही इस संवेदना के नाम का आविष्कार कर लेता है! — किन्तु फिर तो जब भी वह उस शब्द का प्रयोग करेगा, वह हमें अपनी बात को समझा नहीं पाएगा। — तो क्या नाम के अर्थ की व्याख्या दे सकने में सक्षम हुए बिना वह नाम को समझ सकता है? — किन्तु ‘उसने अपनी वेदना का नामकरण कर लिया है’ ऐसा कहने का अर्थ तो होता है। — उसने वेदना का ऐसा नामकरण कैसे किया?! और उसने जो कुछ भी किया उसका प्रयोजन क्या था? जब हम कहते हैं “उसने अपनी संवेदना का नामकरण किया”, तो हम भूल जाते हैं कि नामकरण की क्रिया को सार्थक होने के लिए भी भाषा में पहले से अत्यधिक तैयारी अपेक्षित है। और जब हम वेदना के नामकरण का उल्लेख करते हैं तो “वेदना” शब्द के व्याकरण के होने की अपेक्षा रहती है; यह उस स्थान को प्रदर्शित करता है जहाँ नया शब्द स्थित है। | |||
{{ParPU|258}} आइए हम निम्नलिखित स्थिति की कल्पना करें। मैं किसी विशेष संवेदना की पुनरावृत्ति का लेखा-जोखा रखना चाहता हूँ। उसके लिए मैं उसे “स” संकेत से संबद्ध करता हूँ और इस संकेत को कैलेंडर में उस उस दिन लिखता हूँ जिस-जिस दिन ऐसे संवेदन की अनुभूति होती है। — सर्वप्रथम तो मैं यह कहना चाहूँगा कि संकेत की परिभाषा को सूत्रबद्ध नहीं किया जा सकता। — किन्तु फिर भी मैं अपने लिए कोई निदर्शनात्मक परिभाषा दे सकता हूँ। — कैसे? क्या मैं संवेदना को इंगित कर सकता हूँ? साधारण अर्थ में तो नहीं। किन्तु मैं संकेत का उच्चारण करता हूँ अथवा उसे लिपिबद्ध करता हूँ और उसी समय मैं अपना ध्यान संवेदना पर केंद्रित करता हूँ — और इसीलिए मानो मैं उसे आन्तरिक रूप से इंगित करता हूँ। — किन्तु यह अनुष्ठान किसलिए है? क्योंकि यह तो ऐसा ही प्रतीत होता है! निस्संदेह परिभाषा संकेत के अर्थको स्थापित करने में सहायक होती है। — हाँ, अपना ध्यान केंद्रित करने में यथार्थतः ऐसा ही होता है; क्योंकि इस प्रकार संकेत और संवेदना के सम्बन्ध को मैं अपने आप पर अंकित कर लेता हूँ। — किन्तु “मैं इसे अपने मन पर अंकित कर लेता हूँ” का अर्थ तो यही हो सकता है: इस प्रक्रिया द्वारा कुछ ऐसा होता है जिसमें भविष्य में मैं इस सम्बन्ध का ''उचित'' स्मरण रखूँ। किन्तु वर्तमान स्थिति में मेरे पास औचित्य की कोई कसौटी नहीं है। हम कहना चाहेंगे : जो भी मुझे उचित प्रतीत हो वही उचित है। और इसका अर्थ यही है कि यहाँ हम ‘उचित’ के बारे में बात ही नहीं कर सकते। | |||
{{ParPU|259}} क्या निजी भाषा के नियम, नियमों की प्रतिच्छाया हैं? — जिस तुला पर प्रतिच्छाया को तोला जाता है, वह तुला की प्रतिच्छाया नहीं होती। | |||
{{ParPU|260}} “हाँ, मेरी ''मान्यता'' है कि यह संवेदन स का संवेदन है।” — संभवतः आप मानते हैं कि यह आपकी मान्यता है! | |||
तो क्या जिस व्यक्ति ने कैलैंडर में प्रविष्टि की थी उसने कुछ भी दर्ज नहीं किया था। — इसे आम बात न समझें कि जब कोई व्यक्ति कोई चिह्न बनाता है — मान लीजिए कि किसी कैलेंडर में, तो वह किसी विषय को दर्ज करता है। क्योंकि किसी भी प्रविष्टि का कोई प्रयोजन होता है किन्तु अभी तक इस “स” का कोई प्रयोजन नहीं है। | |||
(हम आत्मालाप कर सकते हैं। — जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के उपस्थित न रहने पर भी बोलता रहता है तो क्या आप इसे उसका आत्मालाप कहना चाहेंगे?) | |||
{{ParPU|261}} हम “स” को किसी ''संवेदन'' का संकेत क्यों कहते हैं? क्योंकि ‘संवेदन’ हमारी सामान्य भाषा का शब्द है, किसी ऐसी भाषा का नहीं जिसे केवल मैं ही समझता हूँ। अतः इस शब्द-प्रयोग के ऐसे औचित्य की आवश्यकता है जिसे सब लोग समझते हों। — और यह कहने से भी कोई मतलब नहीं है कि इसका ''संवेदन'' होना आवश्यक नहीं; कि जब वह “स” लिखता है तो उसे ''कुछ'' होता है — और बस यही कहा जा सकता है। “होता” है और “कुछ” हमारी सामान्य भाषा से सम्बन्धित हैं। — यानी तत्त्व-चिन्तन करते समय अन्ततः हम ऐसी स्थिति में पहुँच जाते हैं जहाँ हम केवल अर्थहीन ध्वनियाँ ही उच्चारित करना चाहते हैं। — किन्तु ऐसी ध्वनि — अभिव्यक्ति तभी बनती है जब वह किसी विशेष भाषा-खेल, जिसका अब विवरण दिया जाना चाहिए, में उच्चारित की जाती हो। | |||
{{ParPU|262}} कहा जा सकता है: यदि आपने शब्द की कोई निजी परिभाषा की है तो आपको अमुक-अमुक प्रकार से शब्द-प्रयोग की अपने मन में प्रतिज्ञा करनी होगी। और आप ऐसा और कैसे कर सकते हैं? क्या यह कल्पना करनी होगी कि आप शब्द के प्रयोग की तकनीक का आविष्कार करते हैं; अथवा क्या आपको वह तैयार मिली? | |||
{{ParPU|263}} “किन्तु (अपने मन में) मैं भविष्य में ''इसे'' ‘वेदना’ कहने की प्रतिज्ञा कर सकता हूँ।” — “किन्तु क्या यह निश्चित है कि आपने ऐसी प्रतिज्ञा की है? क्या आपको विश्वास है कि इस उद्देश्य हेतु अपनी अनुभूतियों पर अपना ध्यान केंद्रित करना ही पर्याप्त है?” — विचित्र प्रश्न है। | |||
{{ParPU|264}} “यदि एक बार आप जान जाते हैं कि शब्द ''किस'' का प्रतीक है, तो आप उसको समझ जाते हैं, आप उसके संपूर्ण प्रयोग को जान जाते हैं।” | |||
{{ParPU|265}} आइए हम ऐसी सारिणी (किसी शब्दकोश के समान) की कल्पना करें जो केवल हमारी कल्पना में ही रहती हो। X शब्द का Y अनुवाद शब्दकोष के प्रयोग द्वारा ही उचित ठहराया जा सकता है। किन्तु ऐसी सारिणी यदि केवल कल्पना में ही देखी जा सके तो भी क्या हम उसे औचित्य का साधन मान सकते हैं? — “बेशक; हाँ, तब यह व्यक्तिनिष्ठ औचित्य होगा।” — किन्तु औचित्य तो किसी निरपेक्ष विषय से तुलना करने में निहित है। — “किन्तु निस्संदेह मैं एक स्मृति की दूसरी स्मृति से तुलना कर सकता हूँ। उदाहरणार्थ, मैं नहीं जानता कि मुझे गाड़ी छूटने का समय ठीक-ठीक याद है कि नहीं, और उसकी पड़ताल के लिए मैं अपने मन में समय-सारिणी में पृष्ठ कैसा दिखता था उसका स्मरण करता हूँ। क्या यहाँ भी वैसा ही नहीं है?” — नहीं, क्योंकि इस प्रक्रिया को ऐसी स्मृति का निर्माण करना है जो कि वास्तव में उपयुक्त हो। यदि समय-सारिणी के मानसिक प्रतिबिंब की उपयुक्तता के लिए ही ''परीक्षण'' नहीं किया जा सकता, तो वह पूर्व स्मृति की उपयुक्तता की पुष्टि कैसे कर सकता है? (अखबार की खबर की सच्चाई के बारे में आश्वस्त होने के लिए मानो कोई उसी अखबार की बहुत सारी प्रतियां खरीदे।) | |||
कल्पना में सारिणी का अवलोकन करना उसी प्रकार वास्तविक सारिणी का अवलोकन नहीं है, जैसे काल्पनिक प्रयोग के परिणाम का बिंब, वास्तविक प्रयोग का परिणाम नहीं होता। | |||
{{ParPU|266}} समय जानने के लिए मैं घड़ी देख सकता हूँ : किन्तु समय का ''अनुमान'' करने के लिए भी मैं घड़ी का डायल देख सकता हूँ; अथवा मैं घड़ी की सुइयों को तब तक घुमाता रहता हूँ जब तक मुझे उनकी स्थिति ठीक समय दर्शाती प्रतीत नहीं होती। यानी घड़ी की सुइयों की स्थिति समय जानने में अनेक प्रकार से सहायक हो सकती है। (कल्पना में घड़ी को देखना।) | |||
{{ParPU|267}} अपनी कल्पना में निर्माणाधीन सेतु की लम्बाई-चौड़ाई-ऊँचाई (आयाम) के चुनाव का औचित्य, मान लीजिए मैं सेतु की निर्माण-सामग्री पर अपनी कल्पना में किए गए लोडिंग-परीक्षण द्वारा देना चाहता हूँ। निस्संदेह, यह तो के आयाम के चयन का औचित्य कहलाने वाले विषय की कल्पना करना होगा। किन्तु, क्या हमें इसे सेतु के आयाम के काल्पनिक चयन का औचित्य भी कहना होगा? | |||
{{ParPU|268}} मेरा दाहिना हाथ ही बाँये हाथ को पैसे क्यों नहीं दे सकता? — दाँये हाथ से बाँये हाथ पर पैसे रखे जा सकते हैं। दाँये हाथ से उपहार का दस्तावेज लिखा जा सकता है और बाँये हाथ से उसकी पावती लिखी जा सकती है। — किन्तु उसके आगामी व्यवहारिक परिणाम उपहार देने के समान नहीं होंगे। जब बाँया हाथ, दाँये हाथ से पैसे इत्यादि ले चुकेगा, तो हम पूछेंगे : “तो अब क्या होगा?” और जब कोई व्यक्ति अपने ही प्रयोग के लिए शब्द की निजी परिभाषा देता है तो कुछ ऐसा ही पूछा जा सकता है; यहाँ मेरा मन्तव्य है कि संभवतः ऐसा करते समय उसने अपने प्रयोग के लिए किसी शब्द का उल्लेख किया हो, और साथ ही अपना ध्यान किसी संवेदना की ओर निर्दिष्ट किया हो। | |||
{{ParPU|269}} स्मरण रहे कि मनुष्य के आचरण में इस तथ्य की कुछ ऐसी विशिष्ट कसौटियां होती हैं जिनसे यह कहा जा सकता है कि उस व्यक्ति को किसी शब्द के अर्थ की समझ नहीं है: उस शब्द का उसके लिए कोई अर्थ नहीं होता, वह उसके साथ कुछ भी नहीं कर सकता। और साथ ही साथ ऐसी कसौटियां भी होती हैं जिनसे यह पता चलता है कि कोई व्यक्ति ‘सोचता है कि उसे शब्द के अर्थ का बोध है’, वह शब्द के साथ कोई अनुपयुक्त अर्थ जोड़ता है। और अन्ततः ऐसी कसौटियां भी होती है जिनसे यह पता चलता है कि किसी व्यक्ति को शब्द का अनुपयुक्त बोध है। दूसरी स्थिति में व्यक्तिनिष्ठ बोध का उल्लेख किया जा सकता है। और ऐसी ध्वनियों को ‘निजी भाषा’ कहा जा सकता है जिन्हें कोई अन्य व्यक्ति नहीं समझता, किन्तु जो केवल मुझे ''समझ आती प्रतीत होती हैं''। | |||
{{ParPU|270}} आइए अब मेरी दैनंदिनी में “स” संकेत की प्रविष्टि के प्रयोग की कल्पना करें। मैं पाता हूँ कि जब-जब मुझे किसी विशिष्ट संवेदन की प्रतीति होती है तब-तब मेनोमीटर से पता चलता है कि मेरा रक्त-चाप बढ़ गया है। अतः संवेदना की अनुभूति के समय मैं किसी उपकरण के प्रयोग के बिना भी यह कह सकता हूँ कि मेरा रक्त-चाप बढ़ रहा है। यह उपयोगी परिणाम है। और अब मेरा संवेदना को ''उपयुक्त'' रूप से पहचानना अथवा न पहचानना नितान्त महत्त्वहीन प्रतीत होता है। मान लीजिए कि मैं उसकी सदैव अनुचित पहचान करता हूँ, उससे मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ता। और इससे ही यह पता चल जाता है कि गलती करने की मेरी प्राक्कल्पना मात्र दिखावा ही है। (मानो हमने किसी ऐसे हत्थे को घुमाया जो ऐसा दिखाई देता था कि वह यंत्र के किसी भाग को चलाने में प्रयुक्त किया जाता हो; किन्तु वास्तव में वह तो अलंकार मात्र था; जिसका यंत्र से कोई संबंध ही नहीं था।) | |||
और यहाँ हम “स” को संवेदना का नाम क्यों कहते हैं? संभवतः भाषा-खेल में इस संकेत के प्रयोग के तरीके के कारण — पर हमेशा उसी “विशिष्ट संवेदना” को ही क्यों? हाँ तो, क्या हम यह नहीं मान रहे कि हम हमेशा “स” ही लिखते हैं? | |||
{{ParPU|271}} “ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जिसे यह स्मरण नहीं रहता कि ‘वेदना’ शब्द का क्या अर्थ है — इसलिए वह विभिन्न विषयों को प्रायः उसी नाम से पुकारता रहता है — किन्तु फिर भी वह उस शब्द का प्रयोग इस प्रकार करता है कि वह प्रयोग वेदना के सामान्य लक्षणों एवं पूर्व धारणाओं के अनुकूल होता है” — संक्षेप में, वह हमारी तरह ही उस शब्द का प्रयोग करता है। यहाँ मैं कहना चाहूँगा : ऐसा पहिया जिसे घुमाया जा सकता हो, जिसके साथ कोई भी अन्य पुर्जा न घूमता हो, यंत्र का भाग नहीं होता। | |||
{{ParPU|272}} निजी अनुभव की अनिवार्य बात यह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग प्रतिमान हो, परन्तु यह है कि कोई भी व्यक्ति यह नहीं जानता कि दूसरे लोगों के पास भी ''यही'' अथवा कोई दूसरा प्रतिमान है। कुछ मनुष्यों को लाल रंग की एक प्रकार की संवेदना होती है और दूसरों को अन्य प्रकार की — ऐसी धारणा सम्भव है — यद्यपि यह धारणा सत्यापित नहीं हो सकती। | |||
{{ParPU|273}} “लाल” शब्द के बारे में मुझे क्या कहना चाहिए? इसका अर्थ यह है कि “हम सबको दिखाई देने वाला विषय” और यह कि हर व्यक्ति के पास ''उसकी'' ''अपनी'' लाल रंग की संवेदना के तात्पर्य वाला कोई अन्य शब्द होना चाहिए। अथवा यूँ कहें : “लाल” शब्द के अर्थ को सभी जानते हैं; इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति के लिए इसका अर्थ एक ऐसा विषय है जो केवल उसी को ज्ञात है? (अथवा सम्भवतः यह किसी ऐसे विषय को ''इंगित'' करता है जिसे केवल वही समझता है।) | |||
{{ParPU|274}} निस्संदेह “लाल” शब्द का “अर्थ” कोई निजी विषय है कहने के बजाय यह कहने से कि “लाल” शब्द किसी निजी विषय को “इंगित करता है”, लाल शब्द के क्रियाकलापों को समझने में हमें कोई मदद नहीं मिलती; किन्तु तत्त्व-चिन्तन में किसी विशिष्ट अनुभव के लिए यह मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावशाली अभिव्यक्ति है। यह तो ऐसा ही है मानो शब्द का उच्चारण करते समय मैंने निजी संवेदना की ओर इस तरह झाँका कि अपने आप से यह कह सकूँ : मैं सही तौर पर जानता हूँ कि इससे मेरा क्या तात्पर्य है। | |||
{{ParPU|275}} आकाश की नीलिमा को देखें और विचार करें : “आकाश कितना नीला है!” — जब आप बिना किसी दार्शनिक अभिप्राय के सहज भाव से ऐसा करते हैं तो आपके मन में यह विचार कभी नहीं आता कि रंग की इस छाप पर केवल ''आपका'' अधिकार है। और इसे किसी अन्य के समक्ष अभिव्यक्त करने में आपको कोई झिझक नहीं होती। और इन शब्दों को कहते हुए यदि आप किसी वस्तु को इंगित करते भी, तो वह इशारा आकाश की ओर ही होता। मेरा कहना है: आपको अपने भीतर इंगित करने की वैसी अनुभूति नहीं होती जैसी ‘निजी-भाषा’ में ‘संवेदना का नामकरण’ करते??? बहुधा होती है। न ही आप यह सोचते हैं कि रंग की ओर आपको हाथ की बजाय अपने ध्यान से इंगित करना चाहिए। (“ध्यान से किसी की ओर इंगित करने” का क्या अर्थ होता है इस पर विचार कीजिए।) | |||
{{ParPU|276}} किन्तु जब हम रंग को देखते हैं और उसके बारे में अपनी छाप का नामकरण करते हैं तो क्या अन्ततः हमारा ''अर्थ'' पूर्णतः निर्धारित नहीं होता? यह तो कुछ ऐसा ही है जैसे हमने झिल्ली समान रंग की ''छाप'' को विषय से पृथक् कर दिया हो। (इससे हमें सावधान रहना चाहिए।) | |||
{{ParPU|277}} किन्तु यह कैसे सम्भव है कि कभी तो हम प्रत्येक व्यक्ति द्वारा ज्ञ??? में रंग शब्द का प्रयोग करना चाहते हैं — और कभी हम रंग शब्द का प्रयोग ''मुझे इस समय'' होने वाले ''दृश्य-अनुभव'' के अर्थ में करते हैं। यहाँ ऐसी इच्छा ही कैसे हो सकती है? — इन दोनों स्थितियों में रंग पर मैं एक सा ध्यान नहीं देता। जब मेरा अभिप्राय उस रंग-अनुभव से होता है जिस पर (जैसा कि मैं कहना चाहूँगा) मात्र मेरा अधिकार है, तो मैं अपने आपको उस रंग में डुबो लेता हूँ ‘मानो रंग से मेरी तृप्ति नहीं हो सकती’। यानी किसी चटकीले रंग अथवा किसी प्रभावी रंग-योजना का अवलोकन करते समय ऐसा अनुभव सुगमता से होता है। | |||
{{ParPU|278}} “मैं जानता हूँ कि ''मुझे'' हरा रंग कैसा दिखाई देता है” — निश्चय ही इसका कोई अर्थ है! — बेशक : प्रतिज्ञप्ति के किस प्रयोग के बारे में आप विचार कर रहे हैं? | |||
{{ParPU|279}} मान लीजिए कोई कहता है: “निस्संदेह मैं जानता हूँ कि मेरी लम्बाई क्या है!” और इसे सिद्ध करने के लिए वह अपना हाथ अपने सिर पर रख लेता है। | |||
{{ParPU|280}} कोई अपने नाटक की दृश्य-कल्पना को प्रदर्शित करने के लिए एक चित्र बनाता है। और अब मैं कहता??? : “इस चित्र का दोहरा कार्य है: यह चित्रों अथवा शब्दों के समान दूसरों को सूचना प्रदान करता है — परन्तु सूचना देने वाले के लिए यह एक अन्य प्रकार का चित्रण (अथवा सूचना?) है: उसके लिए तो यह उसकी कल्पना का एक ऐसा चित्र है, जो किसी अन्य व्यक्ति के लिए नहीं हो सकता। उसके लिए उस चित्र के निजी अनुभव का अर्थ वही है जिसकी उसने कल्पना की थी परन्तु दूसरों के लिए चित्र का वही अर्थ नहीं हो सकता।” — और — यदि ''प्रथम'' स्थिति में ये शब्द उचित रूप से प्रयुक्त किए गए थे, तो द्वितीय स्थिति में चित्रण अथवा सूचना के उल्लेख का मुझे क्या अधिकार है? | |||
{{ParPU|281}} “किन्तु आपके कहने का यह तात्पर्य तो नहीं है: ''वेदना -व्यवहार'' के बिना तो वेदना होती ही नहीं?” यानी केवल जिन्दा मानवों और उनसे मिलते-जुलते (समान व्यवहार करने वाले) प्राणियों के बारे में ही हम कह सकते हैं: उसमें संवेदनाएं हैं; वह देख सकता है, वह अन्धा है; वह सुन सकता है; बहरा है, बेहोश है, अथवा??? | |||
{{ParPU|282}} “किन्तु परीकथा में बर्तन-भाँडे भी देख सुन सकते है!” (बेशक; और वह बोल भी तो ''सकते'' हैं।) | |||
“किन्तु परीकथा अधार्थ स्थितियों का आविष्कार मात्र करती है; वह ''बकबक'' नहीं करती।” — यह इतनी आसान बात नहीं है। बर्तन-भाँडे बोलते हैं ऐसा कहना क्या असत्य है अथवा अपलाप? क्या हमारे पास बर्तन-भाँडे के बोलने वाली स्थितियों का स्पष्ट चित्र है? (निरर्थक - कविता भी शिशु के ''बड़बड़ाने'' के समान निरर्थक नहीं होती।) | |||
वास्तव में किसी निर्जीव वस्तु के बारे में, उदाहरणार्थ गुड़ियों से खेलते हुए, हम कहते हैं कि उसे वेदना हो रही है। किन्तु वेदना के प्रत्यय का यह प्रयोग तो गौण है। ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिए जिसमें लोग केवल निर्जीव वस्तुओं को ही वेदनाग्रस्त कहैं; ''केवल'' गुड़ियों पर ही दया-भाव रखें! (जब बच्चे गाड़ी-गाड़ी खेल खेलते हैं तो उनका खेल गाड़ियों के बारे में उनके ज्ञान तक सीमित होता है। फिर भी गाड़ियों से अनभिज्ञ किसी जनजाति के बच्चों के लिए इस खेल को अन्य बच्चों से सीखना एवं खेलना सम्भव है भले ही वे यह न जानें कि यह खेल किसी वस्तु की अनुकृति है। यह कहा जा सकता है कि खेल का ''अर्थ'' उनके लिए वही नहीं है जो हमारे लिए है।) | |||
{{ParPU|283}} जिन्दा प्राणी, या फिर जीवित वस्तुएं ही अनुभव कर सकती हैं ''ऐसा विचार'' हमें कैसे मिला? क्या मेरे प्रशिक्षण ने मेरी संवेदनाओं की ओर मेरा ध्यान खींचकर मुझे इस ओर उन्मुख किया और अब मैं इसे अपने से बाहर होने वाले विषयों पर आरोपित करता हूँ? मैं यह मानता हूँ कि (मुझमें) कुछ ऐसा है जिसे मैं “वेदना” कह सकता हूँ और ऐसा करते हुए अन्य लोगों के इस शब्द-प्रयोग से मेरा कोई विरोध नहीं होता। — अपने वेदना-संबंधी विचार को मैं पत्थरों, पौधों आदि पर आरोपित नहीं करता। | |||
क्या मैं भीषण वेदनाग्रस्त होने की, और उस दौरान पत्थर बन जाने की कल्पना नहीं कर सकता? यदि मैं अपनी आँखें बन्द कर लूं तो मुझे कैसे पता चलेगा कि मैं पत्थर बन गया हूँ? और यदि ऐसा हुआ तो किस अर्थ में ''पत्थर'' को वेदना होगी? उन्हें किस अर्थ में पत्थर पर आरोपित किया जा सकता है? और यहाँ वेदना के वाहक होने की आवश्यकता ही क्यों होती है?! | |||
क्या पत्थर के बारे में कहा जा सकता है कि उसमें आत्मा होती है और ''उसी'' को वेदना होती है? आत्मा अथवा वेदना का पत्थर से क्या लेना-देना? | |||
केवल मनुष्य के समान आचरण करने वाले के लिए ही कहा जा सकता है कि उसे वेदना होती है। | |||
क्योंकि ऐसा तो किसी देह के बारे में ही कहा जा सकता है, अथवा, यदि आप चाहें तो ऐसी आत्मा के बारे में भी ऐसा कहा जा सकता है जो किसी देह में रहती हो। और देह में ''आत्मा'' कैसे हो सकती है? | |||
{{ParPU|284}} किसी पत्थर को देखिए और उसमें संवेदनाओं के होने की कल्पना कीजिए। — हम अपने आप से कहते हैं: किसी ''वस्तु'' पर ''संवेदना'' का आरोपण करने का विचार हमें कैसे आ सकता है? इसे किसी संख्या पर भी आरोपित किया जा सकता है! — और किसी फड़फड़ाती मक्खी को देखते ही ये सब समस्याएं गायब हो जाती हैं, और यहाँ वेदना को सहारा मिल जाता है, जबकि इससे पहले उसका कोई सहारा न था। | |||
और इसीलिए हमें लगता है कि शव में भी कोई वेदना नहीं हो सकती। — जीवित एवं मृत के प्रति हमारा रुख एक सा नहीं होता। हमारी सभी प्रतिक्रियाएं भिन्न होती हैं। — यदि कोई कहता है: “इसका सम्बन्ध इस बात से नहीं है कि जीवित प्राणी अमुक-अमुक प्रकार से हिलता-डुलता है, और मृत प्राणी ऐसा नहीं करता”, तो मैं उसे बताना चाहूँगा कि यह ‘संख्या से गुणवत्ता की ओर’ संक्रमण का मामला है। | |||
{{ParPU|285}} मुखाकृतियों की पहचान के बारे में विचार कीजिए। अथवा मुखाकृतियों के ऐसे विवरण के बारे में सोचिए, जिसमें मुख का परिमाप निहित न हो! इस पर भी विचार कीजिए कि अपने मुख को दर्पण में निहारे बिना कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की मुखाकृति की नकल कैसे कर सकता है। | |||
{{ParPU|286}} किन्तु क्या यह कहना कि किसी देह में वेदना होती है निरर्थक नहीं है? — और उसमें निरर्थकता-बोध क्यों होता है? यह किस अर्थ में सत्य है कि मेरा हाथ वेदना का अनुभव नहीं करता, अपितु मैं अपने हाथ में वेदना का अनुभव करता हूँ? | |||
यह किस प्रकार का विवाद है: क्या देह को वेदना की अनुभूति होती है? — इसका निर्णय कैसे किया जाएगा? यह कैसे कहा जा सकता है कि देह को तो वेदना ''नहीं'' होती? यदि किसी के हाथ में वेदना होती है तो हाथ यह नहीं कहता कि वह वेदना-ग्रस्त है (जब तक कि हाथ लिखकर यह न बताए), और सान्त्वना हाथ को नहीं, अपितु वेदना-ग्रस्त व्यक्ति को दी जाती है, हम वेदना-ग्रस्त व्यक्ति के मुख का अवलोकन करते हैं। | |||
{{ParPU|287}} मैं ''इस मनुष्य के प्रति'' दयार्द्र कैसे होता हूँ? मेरे दया-भाव के विषय का पता कैसे चलता है? (कहा जा सकता है कि दया-भाव एक ऐसा दृढ़ विश्वास है कि कोई अन्य व्यक्ति वेदना-ग्रस्त है।) | |||
{{ParPU|288}} मैं पत्थर में परिवर्तित हो जाता हूँ, किन्तु मुझे वेदना रहती है। — मान लीजिए कि मैं उद्भ्रान्त था और वह ''वेदना'' थी ही नहीं? — किन्तु यहाँ मैं उद्भ्रान्त नहीं हो सकता; अपने वेदना-ग्रस्त होने के बारे में संशय होने का कोई अर्थ नहीं होता! — यानी यदि कोई कहे, “मैं नहीं जानता कि मुझे जो हो रहा है वह वेदना है या कुछ और”, तो हम इस प्रकार सोचेंगे कि वह नहीं जानता कि हिन्दी शब्द “वेदना” का अर्थ क्या होता है; और हमें उसे इस शब्द की व्याख्या देनी होगी। — कैसे? सम्भवतः भंगिमाओं द्वारा अथवा सुई चुभोते हुए हम उसे कहें : “देखा यह वेदना होती है!” हो सकता है कि किसी अन्य व्याख्या के समान इस व्याख्या को भी वह ठीक, गलत, या बिल्कुल ही नहीं समझे। अन्य स्थितियों के समान वह यहाँ भी इस शब्द-प्रयोग द्वारा यह प्रदर्शित करेगा कि उसने इसे ठीक, गलत, अथवा बिल्कुल ही नहीं समझा है। | |||
यदि अब वह कहे : “ओह, मैं जानता हूँ कि ‘वेदना’ का क्या अर्थ होता है; मैं तो यह नहीं जानता कि क्या यह जो अब मुझे हो रही है वही वेदना कहलाती है” — इस पर हम केवल अपना सर पीट कर ही रह जाते हैं, क्योंकि हमें उसका उत्तर विचित्र लगेगा। हम नहीं जानते कि ऐसे उत्तर का हम क्या करें? (वस्तुतः, यह उत्तर कुछ ऐसा होगा मानो हमने किसी को गम्भीरतापूर्वक यह कहते सुना हो : “मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि अपने जन्म से कुछ पहले मेरा विश्वास था कि....”।) | |||
भाषा-खेल में मेरे संशय की अभिव्यक्ति का कोई स्थान नहीं है; किन्तु यदि हम संवेदना को अभिव्यक्त करने वाले मानवीय आचरण को ही बहिष्कृत कर दें तो मेरा नये सिरे से संशय करना आरम्भ करना उचित प्रतीत होगा। मेरा यह कहने का प्रलोभन कि हम संवेदना को उससे इतर कुछ अन्य समझ सकते हैं, इससे उत्पन्न होता है: यदि मैं संवेदना की अभिव्यक्ति के साथ साधारण भाषा-खेल की समाप्ति की कल्पना करता हूँ तो मुझे संवेदना की तद्रूपता की कसौटी की आवश्यकता होगी; और फिर त्रुटि की सम्भावना भी रहेगी। | |||
{{ParPU|289}} “जब मैं कहता हूँ कि ‘मैं वेदना-ग्रस्त हूँ’ उस समय मैं ''अपने-आपको'' पूरी तरह प्रमाणिक मानता हूँ।” — इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ है: “यदि जिसे मैं वेदना कहता हूँ वह किसी दूसरे व्यक्ति को विदित हो सकती तो वह व्यक्ति स्वीकार करता कि मैं उस शब्द का उचित प्रयोग कर रहा था।” | |||
शब्द को बिना किसी औचित्य के प्रयोग करने का यह अर्थ नहीं होता कि हमें उसके प्रयोग का अधिकार नहीं है। | |||
{{ParPU|290}} निस्संदेह, मैं अपनी संवेदना को किसी कसौटी से नहीं पहचानता अपितु मैं अभिव्यक्ति को दोहराता हूँ। किन्तु यह भाषा-खेल की ''समाप्ति'' नहीं है: यह तो उसकी शुरुआत है। | |||
किन्तु शुरूआत क्या वही संवेदना नहीं है — जिसका विवरण मैं देता हूँ? — सम्भवतः यहाँ “विवरण” शब्द हमें उलझाता है। मैं कहता हूँ “मैं अपनी मनःस्थिति का विवरण देता हूँ” और “मैं अपने कमरे का विवरण देता हूँ”। आपको भाषा-खेलों में भिन्नता का ध्यान रखना पड़ेगा। | |||
{{ParPU|291}} जिन्हें हम “''विवरण''” कहते हैं, वे विशेष उपयोग के साधन ही होते हैं। अभियंता के सामने पड़े यंत्र-आरेखन, अनुप्रस्थ-काट, नाप-तौल सहित यन्त्र के उन्नयन के बारे में, विचार कीजिए। विवरण को तथ्यों के शब्द-चित्र जैसा समझना भ्रामक है; हम वैसे ही चित्रों के बारे में सोचने को प्रवृत्त होते हैं जैसे चित्र हमारी दीवारों पर टंगे रहते हैं। ये चित्र तो केवल यही बताते हैं कि अमुक वस्तु अमुक तरह की है और अमुक तरह दिखाई देती है। (मानो इन चित्रों का कोई प्रयोजन न हो।) | |||
{{ParPU|292}} यह न सोचें कि आप जो कहते हैं वह सदैव किसी न किसी तथ्य पर आधारित होता है; और यह भी कि आप इन्हें नियमानुसार शब्दों में ढालते हैं। क्योंकि तब भी विशेष स्थिति में आपको बिना किसी सहायता के नियम का प्रयोग करना पड़ेगा। | |||
{{ParPU|293}} यदि अपने बारे में मैं कहता हूँ कि मैं “वेदना” शब्द का अर्थ केवल अपनी ही स्थिति से जानता हूँ — तो क्या अन्य लोगों के बारे में भी मुझे ऐसा ही नहीं कहना चाहिए? और मैं एक स्थिति का इतने अनुत्तरदायी ढंग से सामान्यीकरण कैसे कर सकता हूँ? | |||
अब कोई मुझे बताता है कि उसे वेदना का ज्ञान केवल अपनी स्थिति से होता है! — मान लीजिए कि हर व्यक्ति के पास एक-एक डिब्बा है जिनमें कोई चीज रखी है: हम उस चीज को “भ्रमर” कहते हैं। कोई भी एक-दूसरे के डिब्बे में नहीं देख सकता और प्रत्येक व्यक्ति कहता है कि उसे भ्रमर का ज्ञान केवल ''अपने'' भ्रमर को देखकर होता है। ऐसा कतई सम्भव है कि हर व्यक्ति के डिब्बे में अलग-अलग वस्तु हो। और ऐसी वस्तु के निरन्तर परिवर्तित होने की भी कल्पना की जा सकती है। — किन्तु मान लीजिए कि इन लोगों की भाषा में “भ्रमर” शब्द का प्रयोग हो? — यदि ऐसा हो तो भी उसका प्रयोग वस्तु के नाम के समान नहीं होगा। डिब्बे में पड़ी वस्तु का भाषा-खेल में कोई भी स्थान नहीं है: ''किसी वस्तु'' के समान भी नहीं : क्योंकि डिब्बा खाली भी हो सकता है। — नहीं, डिब्बे में पड़ी वस्तु द्वारा ‘आद्योपांत विभाजन’ किया जा सकता है; चाहे वह जो कुछ भी हो, वह स्वयं को समाप्त कर देता है। | |||
यानी : यदि हम संवेदना की अभिव्यक्ति का विश्लेषण ‘विषय एवं निर्देश’ के नमूने के समान करें तो विषय विवेचन से अप्रासंगिक हो कर अलग हो जाता है। | |||
{{ParPU|294}} यदि आप कहते हैं कि वह एक निजी चित्र देखता है, और उसका विवरण देता है, तो भी आप उसके सामने जो कुछ भी है उसकी कल्पना करते हैं। और इसका तात्पर्य है कि आप उसका विवरण दे सकते हैं, अथवा वास्तव में उसका विवरण अधिक सूक्ष्मता से देते हैं। यदि आप स्वीकार करते हैं कि उसके सामने कैसा विषय है इसके बारे में आपको कुछ पता नहीं — तो ऐसा होने पर भी आप क्यों कहते हैं कि उसके सामने कुछ है? क्या यह किसी के बारे में ऐसा कहने जैसा नहीं : “उसके ''पास'' कुछ है? किन्तु मुझे नहीं पता कि वह धन है, अथवा उधारी है, अथवा खाली खजाना है”। | |||
{{ParPU|295}} “... का बोध मुझे केवल ''अपनी'' स्थिति से ही होता है” — यह कैसी प्रतिज्ञप्ति है? आनुभविक? नहीं। — वैयाकरणिक? | |||
मान लीजिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने बारे में कहता है कि वेदना का बोध उसे केवल अपनी वेदना से ही होता है। — ऐसा नहीं है कि लोग वास्तव में ऐसा कहते हैं, अथवा ऐसा कहने को तैयार रहते हैं। किन्तु ''यदि'' प्रत्येक व्यक्ति ऐसा कहता हो — तो यह एक प्रकार का विस्मयादिबोधक होगा। और यदि यह कोई जानकारी न भी देता हो तो भी यह चित्र तो है ही और हमें ऐसे चित्र को स्मरण क्यों नहीं करना चाहिए? रूपक चित्र द्वारा इन शब्दों का स्थान लेने की कल्पना कीजिए। | |||
तत्त्व-चिंतन करते समय जब हम अपने अन्तर्मन में झांकते हैं तो बहुधा हमें ऐसे ही चित्र देखने को मिलते हैं। हमारे व्याकरण का समग्र चित्र-निरूपण हमें दिखाई देता है। तथ्य नहीं; अपितु मानो वाक् के अनुकूल चित्रण। | |||
{{ParPU|296}} “हाँ, किन्तु फिर भी वेदना की मेरी चीत्कार से कुछ तो जुड़ा होता है। और उसी कारण मैं चीत्कार करता हूँ। और यही वह है जो महत्त्वपूर्ण है — भयावह है।” — बात तो यह है कि इसके बारे में हम किसे सूचित कर रहे हैं? और किस अवसर पर। | |||
{{ParPU|297}} निस्संदेह जब बर्तन में पानी खौलता है तो उससे भाप निकलती है और चित्रित बर्तन से चित्रित भाप निकलती है। किन्तु क्या हो जब कोई यह कहने का हठ करे कि चित्रित बर्तन में भी कुछ खौल रहा होना चाहिए? | |||
{{ParPU|298}} संवेदना को निजी रूप से इंगित करते समय — हमें ऐसा कहने की बेहद इच्छा होती है: “''यह'' महत्त्वपूर्ण बात है” — इससे पूरी तरह पता चलता है कि हम ऐसी बात, जिससे हमें कोई जानकारी नहीं मिलती, कहने को कितने लालायित होते हैं। | |||
{{ParPU|299}} जब हम अपने आप को दार्शनिक विचार के सामने समर्पित कर देते हैं तो अमुक-अमुक न कहने में असमर्थ होते हैं; उसे कहने की अप्रतिहत प्रवृत्ति रखते हैं — तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि हम किसी ''पूर्वधारणा'' से, अथवा किसी तात्कालिक प्रत्यक्ष बोध से, अथवा किन्हीं स्थितियों के ज्ञान से बाध्य होते हों। | |||
{{ParPU|300}} हम कहना चाहेंगे कि “उसे वेदना है” इन शब्दों के भाषा-खेल में मात्र व्यवहार के चित्र की भूमिका नहीं होती, अपितु उसमें वेदना के चित्र की भूमिका भी होती है। यानी न केवल व्यवहार के प्रतिमान की, अपितु वेदना के प्रतिमान की भी। | |||
“‘वेदना’ शब्द के साथ ही वेदना का चित्र भाषा-खेल में प्रविष्ट हो जाता है” यह कहना भ्रान्तिपूर्ण है। वेदना की प्रतिकृति चित्र नहीं होती, और भाषा-खेल में ''यह'' प्रतिकृति किसी भी चित्र कहलाने वाले विषय द्वारा प्रतिस्थापनीय नहीं है। — एक अर्थ में वेदना की प्रतिकृति भाषा-खेल में निःसंदेह प्रविष्ट होती है; किन्तु किसी चित्र के समान नहीं। | |||
{{ParPU|301}} प्रतिकृति चित्र नहीं होती, किन्तु चित्र उसके अनुरूप हो सकता है। | |||
{{ParPU|302}} यदि हमें किसी अन्य व्यक्ति की वेदना की, अपनी वेदना के नमूने पर कल्पना करनी पड़े तो यह कोई आसान काम नहीं होगा : क्योंकि मुझे अपनी ''न होने वाली'' वेदना की कल्पना, अपनी ''होने वाली'' वेदना के नमूने पर करनी पड़ेगी। यानी, मुझे अपनी कल्पना में वेदना को अपने शरीर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिवर्तन ही नहीं करना होगा। जैसे कि हाथ की वेदना से बाँह की वेदना पर। क्योंकि मुझे यह कल्पना नहीं करनी कि मुझे उसके शरीर के किसी भाग में वेदना होती है। (यद्यपि ऐसा करना भी सम्भव है।) | |||
वेदना-व्यवहार किसी वेदनादायी स्थान को इंगित कर सकता है — किन्तु वेदना का विषय तो उसे अभिव्यक्त करने वाला व्यक्ति ही होता है। | |||
{{ParPU|303}} “किसी अन्य व्यक्ति के वेदना-ग्रस्त होने का मुझे केवल ''अनुमान'' ही हो सकता है किन्तु यदि मैं वेदना-ग्रस्त होता हूँ तो मुझे उसका ''बोध'' होता है।” — हाँ : “वह वेदना-ग्रस्त है”। किन्तु बस इतना ही। — यहाँ व्याख्या अथवा मानसिक प्रक्रिया के बारे में प्रतिज्ञप्ति प्रतीत होने वाला विषय तो वस्तुतः तत्त्व-चिन्तन करते समय किसी अभिव्यक्ति का उससे अधिक उचित प्रतीत होने वाली किसी अन्य अभिव्यक्ति से विनिमय करना है। | |||
किसी वास्तविक स्थिति में — किसी अन्य व्यक्ति की चिन्ता अथवा उसकी वेदना के बारे में संशय करने — का प्रयत्न तो कीजिए। | |||
{{ParPU|304}} “किन्तु निश्चित रूप से आप स्वीकार करेंगे कि वेदना के सहगामी वेदना-व्यवहार में, और वेदना के बिना वेदना-व्यवहार में अन्तर होता है?” — स्वीकार करते हैं? इससे बड़ा कौन सा अन्तर हो सकता है? — “और फिर भी आप बारम्बार इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संवेदना अपने आप में ''कुछ नहीं होती''।” — बिल्कुल नहीं। वह न तो ''कुछ है'' और न ही कुछ नहीं! निष्कर्ष तो यही था कि कुछ ऐसा जिसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता उतना ही उपयोगी होता है, जितना उपयोगी कुछ भी नहीं होता। यहाँ हमने उस व्याकरण को ठुकरा दिया है जो हम पर हावी रहता है। | |||
यह विरोधाभास केवल तभी समाप्त होगा जब हम इस विचार को बिल्कुल त्याग दें कि भाषा सदैव एक ही ढंग से क्रियान्वित होती है, इसका सदैव यही प्रयोजन है: विचारों की जानकारी देना। ये विचार मकानों के बारे में, वेदनाओं के बारे में, शुभ एवं अशुभ के बारे में, अथवा जो आप चाहें उसके बारे में हो सकते हैं। | |||
{{ParPU|305}} “किन्तु निश्चित रूप से आप यह तो अस्वीकार नहीं कर सकते कि, स्मरण करने में कोई आन्तरिक प्रक्रिया होती है।” — यह धारणा कि हम कुछ भी अस्वीकार करना चाहते हैं कहाँ से आती है? जब कोई कहता है “तो भी, यहाँ आन्तरिक प्रक्रिया तो होती ही है” — तो वह आगे कहता है “बहरहाल आप इसे ''समझते'' हैं।” और “स्मरण करना” शब्द से हमारा तात्पर्य यही आन्तरिक प्रक्रिया होती है। — हम कुछ अस्वीकार करना चाहते हैं ऐसी धारणा की उत्पत्ति का कारण हमारे द्वारा इस ‘आन्तरिक प्रक्रिया’ के चित्र का विरोध है। हम तो यह अस्वीकार करते हैं कि आन्तरिक प्रक्रिया का चित्र हमें ‘स्मरण करने’ शब्द के प्रयोग का ठीक तरीका बताता है। हमारा कहना है कि अपनी सभी दुरूहताओं के साथ यह चित्र शब्द के प्रयोग की हमारी समझ में आड़े आता है। | |||
{{ParPU|306}} मैं यह क्यों न मानूँ कि मानसिक प्रक्रिया तो होती है? किन्तु “अभी-अभी मुझमें... स्मरण करने की मानसिक प्रक्रिया हुई” इसका अर्थ इससे अधिक कुछ नहीं होता : “मुझे अभी-अभी स्मरण आया कि.....”। मानसिक प्रक्रिया को अस्वीकार करने का अर्थ स्मरण करने को अस्वीकार करना होगा; इस बात का अस्वीकरण कि कोई भी, किसी को स्मरण करता है। | |||
{{ParPU|307}} “वास्तव में क्या आप छद्म व्यवहारवादी नहीं हैं? अंतत : क्या आप यह नहीं कहते कि मनुष्य के व्यवहार के अतिरिक्त सब कुछ कपोल-कल्पना है?” यदि मैं कपोल-कल्पना का उल्लेख करता हूँ तो यह वैयाकरणीय कपोल-कल्पना ही है। | |||
{{ParPU|308}} मानसिक प्रक्रियाओं, अवस्थाओं और व्यवहारवाद के बारे में दार्शनिक समस्याएं कैसे उत्पन्न होती हैं? — प्रारंभिक कदम की ओर तो हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हम प्रक्रियाओं एवं अवस्थाओं की तो बात करते हैं परन्तु उनकी प्रकृति के बारे??? कुछ नहीं कहते। सम्भवतः, कभी हमें उनके बारे में अधिक ज्ञान होगा — ऐसा हम समझते हैं। किन्तु इसी कारण हम विषय-वस्तु का एक विशेष-ढंग से निरीक्षण करने को प्रतिबद्ध हो जाते हैं। क्योंकि प्रक्रिया के ज्ञान को ज्यादा अच्छी तरह सीखने के बारे में हमारा निश्चित मत होता है। (षड्यंत्र में निर्णायक चाल चल दी गई है, और यह वही चाल थी जिसे हम नितान्त निर्दोष समझते थे।) — और अब हमें हमारे विचारों को समझाने वाली उपमा छिन्न-भिन्न हो जाती है। अतः हमें अब तक अज्ञात माध्यम??? अब तक की अनभिज्ञ प्रक्रिया की सत्ता को अस्वीकार करना होगा। और अब ऐसा प्रतीत होता है मानो हमने मानसिक प्रक्रियाओं को अस्वीकार किया हो। और स्वाभाविकतः, हम उनको अस्वीकार नहीं करना चाहते। | |||
{{ParPU|309}} दर्शन में आपका उद्देश्य क्या है? — बोतल में फँसी मक्खी को उससे बाहर निकलने का मार्ग बताना। | |||
{{ParPU|310}} मैं किसी को बताता हूँ कि मैं वेदना-ग्रस्त हूँ। तब मेरे प्रति उसकी वृत्ति विश्वास, अविश्वास, संदेह, इत्यादि की होगी। | |||
मान लीजिए कि वह कहता है “इतनी बुरी हालत तो नहीं है।” — क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह मानता है कि वेदना की बाह्य अभिव्यक्ति की आड़ में कुछ छिपा है? — उसकी वृत्ति का प्रमाण है। केवल “मैं वेदना-ग्रस्त हूँ” शब्दों की ही नहीं अपितु “इतनी बुरी हालत तो नहीं” इस उत्तर की भी नैसर्गिक कोलाहल एवं भंगिमाओं द्वारा प्रतिस्थापन की कल्पना कीजिए। | |||
{{ParPU|311}} “कौन सा भेद बड़ा हो सकता है? — वेदना के बारे में मेरी मान्यता है कि मैं अपने लिए भेद का निजी प्रदर्शन कर सकता हूँ। किन्तु टूटे और साबुत दाँत??? भेद को मैं किसी को भी दिखा सकता हूँ। — किन्तु निजी प्रदर्शन के लिए अपने आपको वास्तविक पीड़ा नहीं देनी पड़ती; उसकी ''कल्पना'' ही पर्याप्त है — उदाहरणार्थ, आप अपने मुख को थोड़ा सा टेढ़ा कर लें। और क्या आप जानते हैं; कि जिसका आप अपने लिए प्रदर्शन कर रहे हैं वह वेदना ही है न कि, कोई मुख-भंगिमा? और आप ऐसा करने से पूर्व यह कैसे जानते हैं कि आपको अपने लिए किसका प्रदर्शन करना है? यह ''निजी'' प्रदर्शन तो भ्रम है। | |||
{{ParPU|312}} किन्तु फिर क्या दाँत की, और वेदना की स्थितियां एक जैसी ''नहीं'' हैं? क्योंकि एक स्थिति में चाक्षुष संवेदन दूसरी स्थिति में वेदना-संवेदन के अनुरूप है। मैं अपने लिए चाक्षुष संवेदन का उतना ही कम या ज्यादा प्रदर्शन कर सकता हूँ जितना कि वेदना-संवेदन का। | |||
आइए हम कल्पना करें कि हमारे चारों ओर फैली वस्तुओं (पत्थर, पौधे, इत्यादि) की सतहों पर ऐसे क्षेत्र एवं हिस्से होते हैं जिन्हें छूने पर हममें वेदना उत्पन्न होती है (संभवत : ऐसा उन सतहों के रासायनिक गुणों से होता है)। इस स्थिति में हमें किसी विशेष पौधे की पत्ती पर वेदना-क्षेत्र का उसी प्रकार उल्लेख करना चाहिए जैसे हम उस पर लाल रंग वाले क्षेत्र का उल्लेख करते हैं। मैं मान रहा हूँ कि इन क्षेत्रों एवं उनके आकारों पर ध्यान देना हमारे लिए लाभप्रद है; और यह भी कि इससे हम उनके महत्त्वपूर्ण गुणों का अनुमान लगा सकते हैं। | |||
{{ParPU|313}} मैं वेदना को उसी प्रकार प्रदर्शित कर सकता हूँ जैसे मैं लाल रंग को, या सीधे-एवं टेढ़े-मेढ़े आकार को, या वृक्षों एवं शिलाओं को प्रदर्शित करता हूँ। — ''इसे'' हम ‘प्रदर्शित करना’ ''कहते'' हैं। | |||
{{ParPU|314}} संवेदना की दार्शनिक समस्या के समाधान के लिए यदि मैं अपने हाल ही के सिरदर्द का अध्ययन करने को प्रवृत्त होता हूँ तो इससे आधारभूत भ्रान्ति का प्रदर्शन होता है। | |||
{{ParPU|315}} जिसे ''कभी भी'' वेदना की अनुभूति ''न'' हुई हो क्या वह “वेदना” शब्द को समझ सकेगा?” क्या अनुभव से मुझे पता चलता है कि ऐसा है या नहीं? — और यदि हम कहें : “कोई भी व्यक्ति कभी न कभी वेदना की अनुभूति हुए बिना उसकी कल्पना नहीं कर सकता — इसे हम कैसे जानते हैं?”। इसकी सत्यता का निर्णय कैसे किया जा सकता है? | |||
{{ParPU|316}} “सोचना” शब्द के अर्थ को भली-भाँति जानने के लिए, हम किसी विषय पर सोचते हुए आत्मालोचन करते हैं; शब्द का वही अर्थ होगा जिसका हमें इस प्रकार के आत्मालोचन से पता चलता है! — किन्तु इस प्रत्यय का ऐसा प्रयोग तो नहीं किया जाता। (यह शतरंज के खेल को जाने बिना उसकी बाजी की अन्तिम चाल को ध्यान में देख कर “शह” शब्द के अर्थ को जानने का प्रयास करने जैसा ही होगा।) | |||
{{ParPU|317}} भ्रान्तिपूर्ण सादृश्य : चीत्कार, वेदना की अभिव्यक्ति है — विचार की अभिव्यक्ति है, प्रतिज्ञप्ति। | |||
मानो प्रतिज्ञप्ति का प्रयोजन किसी व्यक्ति को यह सूचित करना हो कि कोई अन्य व्यक्ति कैसी स्थिति में है: यूँ कहिए कि केवल उसके विचार की स्थिति के बारे में, न कि उसके पेट की स्थिति के बारे में। | |||
{{ParPU|318}} मान लीजिए कि बोलते अथवा लिखते समय हम विचार करते हैं: कहने का अर्थ है कि जैसा हम साधारणत : करते हैं — सामान्यतः हम नहीं कहेंगे कि हम बोलने से अधिक शीघ्रता से सोचते हैं; विचार अभिव्यक्ति ''से पृथक् तो नहीं'' प्रतीत होता। बहरहाल, दूसरी ओर हम ''विचार की गति का'' उल्लेख करते हैं; इसका, कि विचार बिजली की तरह मन में कौंध जाते हैं; समस्या किस तरह एकाएक सुलझ जाती है, इत्यादि। अतः यह पूछना स्वाभाविक ही है कि क्या बिजली के समान आने वाले विचार में भी वही होता है — बल्कि उससे भी अत्यंत त्वरित गति से — जैसा कि जब हम बोलते हैं और ‘बोलते समय सोचते हैं’। पहली स्थिति में समय तुरन्त निकल जाता है किन्तु दूसरी स्थिति में धीरे-धीरे शब्द-नियंत्रित। | |||
{{ParPU|319}} पूरे विचार को मैं यकायक ठीक उसी अर्थ में देख-समझ सकता हूँ जैसे मैं कुछ शब्दों अथवा पेन्सिल से बने चिह्नों से उसका लेखा रख सकता हूँ। | |||
ऐसा क्या है जो इस लेखे को उस विचार का प्रतीक बनाता है? | |||
{{ParPU|320}} तड़ित-विचार का उच्चरित विचार से वैसा ही संबंध हो सकता है जैसा बीजगणितीय सूत्र का उन संख्या-श्रृंखलाओं से संबंध होता है जिनका निगमन हम सूत्र-प्रयोग से करते हैं। | |||
उदाहरणार्थ, जब मुझे कोई बीजगणितीय सूत्र दिया जाता है तो मैं निश्चित होता हूँ कि मैं 1, 2, 3, 4 ..... 10 संख्याओं तक हल कर सकता हूँ। यह निश्चिन्तता ‘उचित’ आधार वाली कही जायेगी क्योंकि मैंने ऐसे सूत्रों को हल करना सीखा है। अन्य स्थितियों में इसका कोई कारण नहीं दिया जाएगा — अपितु सफलता से ही इसका औचित्य सिद्ध होगा। | |||
{{ParPU|321}} “जब कोई व्यक्ति यकायक समझता है तो क्या घटित होता है?” — यह प्रश्न ठीक से नहीं बनाया गया है। यदि यह प्रश्न “यकायक समझने” की अभिव्यक्ति के अर्थ के बारे में है तो जिस प्रक्रिया को हम यह नाम देते हैं उसको इंगित करना इसका उत्तर नहीं होगा। — प्रश्न का यह अर्थ भी हो सकता है: यकायक समझने के लक्षण कौन से होते हैं; इससे जुड़ी विशिष्ट मानसिक प्रक्रियाएं कौन सी होती हैं? | |||
(अपनी अभिव्यक्ति से जुड़ी मुख-भंगिमा का, अथवा किसी संवेग के कारण हुए श्वास-परिवर्तन की अनुभूति का किसी व्यक्ति को अनुभव होता है, इस धारणा का कोई आधार नहीं है। भले ही इस ओर उसका ध्यान दिलाये जाने पर उसे इसका अनुभव हो।) | |||
{{ParPU|322}} अभिव्यक्ति का अर्थ क्या है, इस प्रश्न का उत्तर ऐसे विवरण से नहीं दिया जाता; और इससे भ्रान्त होकर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि समझना कोई विशिष्ट परिभाषातीत अनुभव होता है। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि हमारे लिए यह प्रश्न रुचिकर होना चाहिए : हम इन अनुभवों की ''तुलना'' कैसे करते हैं; इन अनुभवों के होने के लिए तद्रूपता की कौन सी कसौटियां ''हमने निर्धारित की है''? | |||
{{ParPU|323}} “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है!” यह तो विस्मयादिबोधक है; यह एक स्वाभाविक ध्वनि, एक शुभारंभ के अनुरूप होता है। निस्संदेह मेरी इस सोच से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि आगे बढ़ने का प्रयास करने पर मैं अटक भी सकता हूँ। — यहाँ ऐसी स्थितियां होती हैं जिनमें मैं कहना चाहूँगा : “जब मैंने कहा था कि मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है तो मुझे यह ''पता था'' कि आगे ''कैसे'' बढ़ना है। उदाहरणार्थ, किसी अनहोनी बाधा के आने पर, हम ऐसा ही कहेंगे। किन्तु अनहोनी यह तो नहीं होनी चाहिए कि मैं अटक कर रह जाऊँ???। | |||
हम ऐसी स्थिति की भी कल्पना कर सकते हैं जिसमें ऐसा प्रतीत होता हो कि किसी व्यक्ति को यकायक कुछ सूझ जाता है — वह खुशी से कहेगा “अब तो मैं इसे समझ गया!” किन्तु फिर व्यवहार में वह कभी भी इसका औचित्य नहीं दे पाता। — उसे ऐसा प्रतीत हो सकता है कि पलक झपकते ही वह फिर से उस चित्र का अर्थ भूल गया जो उसे सूझा था। | |||
{{ParPU|324}} क्या यह कहना उचित होगा कि यह आगमनात्मक वस्तु है और यह भी कि श्रृंखला को आगे बढ़ाने की अपनी योग्यता के बारे में मैं उतना ही निश्चिन्त हूँ जितना मैं इस पुस्तक को हाथ से छोड़ने पर इसके फर्श पर गिर जाने के बारे में होता हूँ; और यह कहना भी कि यदि मैं यकायक और बिना कारण श्रृंखला को हल करने में अटक जाऊँ??? तो मुझे उतना ही आश्चर्य होगा जितना कि गिरने के बजाय इस पुस्तक के अधर में लटक जाने से होगा। इसके उत्तर में मैं कहूँगा कि इस निश्चिन्तता के लिए भी किसी आधार की आवश्यकता नहीं है। निश्चिन्तता का सफलता से ''अधिक अच्छा'' औचित्य क्या हो सकता है? | |||
{{ParPU|325}} “यह निश्चिन्तता कि ऐसा अनुभव होने — उदाहरणार्थ, सूत्र को समझने के अनुभव — के पश्चात् मैं श्रृंखला को आगे बढ़ाने के योग्य हो जाऊँगा यह तो आगमन पर ही आधारित है।” इसका क्या अर्थ है? — “यह निश्चितता कि अग्नि मुझे जला देगी, आगमन पर आधारित है।” क्या इसका अर्थ यह है कि मैं अपने आप से तर्क करता हूँ : “अग्नि ने हमेशा मुझे जलाया है, अतः अब भी ऐसा ही होगा?” अथवा क्या पूर्वानुभव मेरी निश्चितता का ''कारण'' है, न कि उसका आधार? पूर्वानुभव का इस निश्चितता का कारण होना तो प्राक्कल्पनाओं, प्राकृतिक नियमों की उस प्रणाली पर निर्भर करता है, जिसमें हम निश्चितता की संवृत्ति पर विचार कर रहे हैं। | |||
क्या हमारे विश्वास का कोई औचित्य है? — जिसे लोग औचित्य मानते हैं — उसका तो उनके विचार और व्यवहार से पता चलता है। | |||
{{ParPU|326}} हम ''इसकी'' अपेक्षा करते हैं, और उस पर विस्मित होते हैं। किन्तु कारण-श्रृंखला का कहीं तो अन्त होता है। | |||
{{ParPU|327}} “क्या कोई बोले बिना सोच सकता है?” — और ''सोचना'' क्या होता है? अच्छा, क्या आप कभी भी नहीं सोचते? क्या आप आत्मालोचन करके यह नहीं समझ सकते कि क्या हो रहा है? यह तो बिल्कुल आसान होना चाहिए। इसके लिए आपको किसी खगोलीय घटना की तरह न तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है और न ही कोई तुरंत टिप्पणी देनी पड़ती है। | |||
{{ParPU|328}} अच्छा, ‘विचार किया’ इस अभिव्यक्ति में हम क्या शामिल करते हैं? इस शब्द का प्रयोग हमने किस विषय के लिए करना सीखा है? — जब मैं कहता हूँ कि मैंने विचार किया — तो क्या मेरा सदैव ठीक होना आवश्यक होता है? यहाँ किस ''प्रकार'' की गलतियों की संभावना है? क्या ऐसी परिस्थितियां होती हैं जिनमें पूछा जा सकता है: क्या जो मैं उस समय कर रहा था वह वास्तव में विचार-क्रिया थी; कहीं मैं भूल तो नहीं कर रहा? मान लीजिए कि विचार-श्रृंखला के बीच में कोई व्यक्ति माप-तोल करता है: माप-तोल करते समय यदि वह अपने से कुछ भी न बोले तो क्या उसकी विचार-श्रृंखला टूटती है। | |||
{{ParPU|329}} जब मैं भाषा के माध्यम से विचार करता हूँ तो मौखिक अभिव्यक्तियों के अतिरिक्त मेरे मन में कोई दूसरे ‘अर्थ’ नहीं होते : भाषा तो स्वयं ही विचार की वाहक होती है। | |||
{{ParPU|330}} क्या सोचना किसी प्रकार को बोलना होता है? हम कहना चाहेंगे कि इससे तो सोचने के साथ बोलने, और बिना सोचे बोलने में भेद किया जाता है — और इसलिए यह भाषा का सहगामी प्रतीत होता है। ऐसी प्रक्रिया जो किसी अन्य की सहवर्ती हो सकती है, या फिर स्वतः चलती रह सकती है। | |||
बोलें कि : “हाँ, यह कलम कुंद है। चलो ठीक है, काम चलेगा।” पहले इस पर विचार करके; फिर बिना विचारे; फिर इस विचार को बिना शब्दों के ही सोचिए। — निस्संदेह, कुछ लिखते समय हो सकता है कि मैं अपनी कलम की नोक को देखूँ, मुँह बनाऊँ??? — और फिर उदासीन भाव से आगे बढ़ता जाऊँ???। — नाप-तोल करते समय मैं ऐसा व्यवहार भी कर सकता हूँ कि कोई कहे कि मैंने — बिना शब्दों के विचार किया : यदि दो परिमाण किसी तीसरे परिमाण के बराबर होते हों तो वे एक-दूसरे के बराबर होंगे। — किन्तु यहाँ जिससे विचार गठित होता है वह कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं होती जो ऐसे शब्दों से जुड़ी हो जिन्हें बिना विचारे बोला न जा सके। | |||
{{ParPU|331}} ऐसे लोगों की कल्पना कीजिए जो केवल उच्च स्वर में ही सोच सकते हों। (जैसे ऐसे लोग होते हैं जो केवल उच्च स्वर में ही पढ़ सकते हैं।) | |||
{{ParPU|332}} हालाँकि कभी-कभी हम कहते हैं कि “विचार कना” वाक्य की सहगामी मानसिक प्रक्रिया होती है, फिर भी “विचार” से हमारा तात्पर्य वह सहगामी विषय नहीं होता। — वाक्य को बोलो और उस पर विचार करो; फिर उसे समझ कर बोलो। — और अब इसे बोलो मत, केवल वही करो जो उस समय किया था जब आपने इसे कहा था! — (इस धुन को भावाभिव्यक्ति सहित गाओ। और अब इसे गाओ नहीं, अपितु इसकी भावाभिव्यक्ति को दोहराओ! — और वास्तव में यहाँ कुछ दोहराया जा सकता है। उदाहरणार्थ, विभिन्न भावभंगिमाएं बनाना, श्वासों को तेजी से अथवा धीरे-धीरे लेना, इत्यादि।) | |||
{{ParPU|333}} “ऐसा केवल वही कह सकता है जो ''आश्वस्त'' हो।” — जब वह उसे कहता है तो उसका विश्वास किस प्रकार सहायक होता है? — क्या यह उच्चारित अभिव्यक्ति के आस-पास ही कहीं होता है? (अथवा, मध्यम स्वरों के उच्च स्वरों से दब जाने के समान क्या वह उससे छुप जाता है, ताकि जब इसे उच्च स्वर में अभिव्यक्त किया जाता है तब मानो इसे सुना ही न जा सकता हो?) क्या हो यदि कोई कहे : “स्मृति से किसी धुन को गाने के सामर्थ्य के लिए हमें उसे अपने मन में सुनना पड़ता है, और उसे मन में सुनकर गाना पड़ता है”? | |||
{{ParPU|334}} “अतः आप वास्तव में कहना चाहते थे कि....।” — किसी व्यक्ति को किसी एक अभिव्यक्ति से किसी अन्य अभिव्यक्ति पर लाने के लिए हम इस शैली का प्रयोग करते हैं। हम निम्नलिखित चित्र का प्रयोग करने के लिए भी प्रवृत्त होते हैं: जो वह वास्तव में ‘कहना चाहता था’, जो उसका ‘अर्थ’ था वह तो हमारे उसे अभिव्यक्त करने से पहले ही उसके मन में ''कहीं'' उपस्थित था। एक अभिव्यक्ति को छोड़ कर उसके स्थान पर किसी अन्य अभिव्यक्ति को अपनाने के लिए प्रेरित करने वाली अनेक बातें हो सकती हैं। गणितीय समस्याओं के समाधानों एवं उनके सूत्रीकरण के संदर्भ एवं आधार पर विचार करना इसे समझने में सहायक होता है। ‘रेखनी एवं कम्पास की सहायता से कोण का समत्रिभाजन करना’ प्रत्यय, उस समय जब लोग ऐसा करने का प्रयत्न कर रहे हों, और दूसरी ओर तब जब यह सिद्ध किया जा चुका हो कि ऐसा कुछ नहीं होता। | |||
{{ParPU|335}} क्या होता है जब हम, मान लीजिए कि, पत्र लिखते समय अपने विचारों की उचित अभिव्यक्ति खोजने का प्रयत्न करते हैं? — यह शब्दावली इस प्रक्रिया की तुलना अनुवाद, अथवा विवरण की प्रक्रिया से करती है: विचार तो पहले से ही हैं (संभवत : पहले से ही थे) और हम उनकी अभिव्यक्ति को ही खोजते हैं। विभिन्न परिस्थितियों में यह चित्रण न्यूनाधिक उचित है। — किन्तु क्या यहाँ सभी प्रकार की बातें नहीं हो सकतीं। — किसी भावदशा को मैं स्वीकार करता हूँ और अभिव्यक्ति ''आ जाती है''। अथवा कोई चित्र मुझे सूझता है और मैं उसका विवरण देने का प्रयत्न करता हूँ। अथवा, कोई अंग्रेजी भाषा की अभिव्यक्ति मुझे सूझती है और मैं उसके अनुरूप जर्मन भाषा की अभिव्यक्ति को पाने का प्रयास करता हूँ। अथवा मैं कोई भावभंगिमा बनाता हूँ और अपने आप से पूछता हूँ : इस भावभंगिमा के अनुरूप कौन से शब्द होते हैं? आदि। | |||
यदि अब पूछा जाए : “क्या अभिव्यक्ति को खोजने से पहले आप के पास विचार होता है?” तो क्या कोई उत्तर देगा? और इस प्रश्न का : “अपनी अभिव्यक्ति से विचार में क्या निहित था?” कोई क्या उत्तर दे सकता है? | |||
{{ParPU|336}} यह स्थिति उस स्थिति के सदृश है जिसमें कोई कल्पना करता है कि वह कोई ऐसा वाक्य नहीं सोच सकता जिसमें जर्मन अथवा लैटिन भाषा का दिया हुआ कोई विशिष्ट शब्द-क्रम हो। पहले हमें यह सोचना पड़ता है तत्पश्चात् हम शब्दों को उस विलक्षण क्रम में व्यवस्थित करते हैं। (किसी फ्रांसिसी राजनीतिज्ञ ने लिखा था कि फ्रेंच भाषा की यह विशिष्टता है कि उसमें शब्द उसी क्रम में आते हैं जिसमें कि हम उन्हें सोचते हैं।) | |||
{{ParPU|337}} किन्तु वाक्य के, उदाहरणार्थ, आरंभ में ही क्या पहले से ही मेरा अभिप्राय उसकी संपूर्ण संरचना नहीं था? अतः निस्संदेह मेरे मन में इसका अस्तित्व मेरे इसे उच्चारित करने से पूर्व ही था! — यदि यह मेरे मन में हो भी, तो भी यह किसी भिन्न शब्द-क्रम में सामान्यतः नहीं होगा। किन्तु यहाँ हम ‘अभिप्राय होने’ के भ्रामक चित्र की संरचना कर रहे हैं, यानि इस शब्द के प्रयोग की अभिप्राय अपनी स्थितियों में, मानवीय प्रथाओं एवं संस्थाओं में निहित होते हैं। यदि शतरंज के खेल की तकनीक ही न होती तो मेरा अभिप्राय शतरंज के खेल को खेलना हो ही नहीं सकता था। जहाँ तक पहले से ही वाक्य की संरचना के मेरे अभिप्राय की बात है तो उसे यह तथ्य संभव बनाता है कि मैं प्रसंगगत भाषा को बोल सकता हूँ। | |||
{{ParPU|338}} बहरहाल, कुछ भी हो, हम केवल तभी कुछ कह सकते हैं जब हमने बोलना सीखा हो। अतः कुछ कहना ''चाहने'' के लिए हमें भाषा में निपुण भी होना चाहिए; और फिर भी यह स्पष्ट ही है कि हम बिना बोले ही बोलना चाहें। उसी प्रकार जैसे कि हम बिना नाचे ही नाचना चाहें। | |||
और जब हम इस बारे में विचार करते हैं तो हमें नाचने, बोलने, इत्यादि के ''प्रतिबिंब'' का बोध होता है। | |||
{{ParPU|339}} सोचना ऐसी निराकार प्रक्रिया नहीं होती जिससे बोलने को जीवन एवं अर्थ मिलता है, और जिसे बोलने से उसी प्रकार पृथक् करना संभव हो, जैसे कि डैविल (शैतान) ने शमिहल की परछाई को धरती पर से उठा लिया था। — किन्तु “निराकार प्रक्रिया कैसे नहीं”? क्या मैं निराकार प्रक्रियाओं से परिचित हूँ, और क्या मात्र सोचना ही उनमें से एक नहीं है? नहीं; “निराकार प्रक्रिया” इस अभिव्यक्ति को मैं अपनी व्याकुलता को छुपाने के लिए उस समय लाया जब मैं “सोचने” शब्द के अर्थ को आदिम ढंग से व्याख्यायित करने का प्रयत्न कर रहा था। | |||
बहरहाल, हम कह सकते हैं, “सोचना एक निराकार प्रक्रिया होती है”, जिसका प्रयोग हम “सोचने” शब्द के व्याकरण का, मान लीजिए कि “खाने” शब्द के व्याकरण से भेद करने के लिए करते हैं। इससे अर्थों में भेद ''अत्यन्त महत्त्वहीन'' ही प्रतीत होता है। (यह ऐसा कहने के समान है: संख्येय वास्तविक, और संख्याएं अवास्तविक विषय होते हैं।) अनुचित प्रकार की अभिव्यक्ति मतिभ्रम की स्थिति में रहने का असंदिग्ध साधन है। वह मानो निकास मार्ग को अवरुद्ध कर देती है। | |||
{{ParPU|340}} शब्द कैसे कार्य करते हैं, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हमें उनके प्रयोग का ''निरीक्षण'' करना, और उससे सीखना पड़ता है। | |||
किन्तु कठिनाई तो इसके मार्ग में आने वाले पूर्वग्रह को हटाना है। यह ''मूर्खतापूर्ण'' पूर्वग्रह नहीं है। | |||
{{ParPU|341}} विचार के साथ और विचार के बिना बोलने की तुलना संगीत को विचार के साथ, और विचार के बिना बजाने से ही करनी चाहिए। | |||
{{ParPU|342}} विलियम जेम्स यह सिद्ध करने के लिए कि बोलने के बिना विचार करना संभव है किसी मूक-बधि श्री बॅलार्ड के संस्मरण को उद्धृत करते हैं जिनमें यह कहा गया कि युवावस्था में बोल सकने से पूर्व भी उन्हें ईश्वर एवं संसार के बारे में विचार आते थे। — इससे उनका क्या अभिप्राय हो सकता था? — बॅलार्ड लिखते हैं: “आह्लादकारी घुड़सवारी के दौरान प्रारंभिक लिखित भाषा में मेरी दीक्षा से लगभग दो-तीन वर्ष पूर्व मैंने अपने से यह प्रश्न पूछना आरंभ कर दिया : संसार सत्ता में कैसे आया?” क्या आप विश्वस्त हैं — हम पूछना चाहेंगे — कि यह आपके शब्दहीन विचार का शब्दों में उचित अनुवाद है? और यह प्रश्न — जिसके अस्तित्व के बारे में अन्यथा पता नहीं चलता — यहाँ क्यों उत्पन्न हो रहा है? क्या मैं यह कहना चाहता हूँ कि लेखक की स्मृति उसे धोखा दे रही है? — मैं यह नहीं जानता कि क्या मुझे ''ऐसा'' कहना चाहिए? ये संस्मरण तो विचित्र स्मृति-संवृत्तियां हैं, — और मुझे स्वयं पता नहीं कि इन संस्मरणों को सुनाने वाले व्यक्ति के विगत जीवन के बारे में इनसे कौन से निष्कर्ष निकालने चाहिए। | |||
{{ParPU|343}} जिन शब्दों से मैं अपनी स्मृति को अभिव्यक्त करता हूँ वे मेरी स्मृति-प्रतिक्रियाएं हैं। | |||
{{ParPU|344}} क्या यह कल्पना की जा सकती है कि लोग कभी भी श्रव्य भाषा न बोलें, किन्तु फिर भी कल्पना में अपने आप से बातें करें? | |||
“यदि लोग सदैव केवल अपने आप से बातें करें तो जो अब वे ''कभी-कभी'' करते हैं उसे ही सदैव कर रहे होंगे।” — अतः यह कल्पना करना नितान्त सरल है: करना तो केवल यह है कि हमें कभी-कभी से हमेशा की ओर छलांग लगानी होगी। (जैसे : “पेड़ों की अनन्त कतार वह होती है जो कभी समाप्त नहीं होती।”) किसी के आत्मकथन की हमारी कसौटी उसका संपूर्ण व्यवहार, और जो वह हमें बताता है, होती है। और हम केवल तभी कहते हैं कि कोई आत्मकथन प्रस्तुत करता है जब, शब्दों के साधारण अर्थ में, वह ''बोल सकता'' है। और न तो हम तोते के बारे में ऐसा कहते हैं और न ही ग्रामोफोन के बारे में। | |||
{{ParPU|345}} “जो कभी-कभी घटता है, सदैव घटित हो सकता है।” यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है? यह इस प्रकार की है: यदि “F(a)” का कोई अर्थ होता है तो “(x) . F(x)”??? का भी अर्थ होता है। | |||
“यदि किसी का किसी खेल में कूट चाल चलना संभव है तो प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक खेल में कूट चाल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चलना संभव हो सकता है।” — अतः यहाँ हम अपनी अभिव्यक्तियों के तर्क का गलत अर्थ समझने, अपने शब्द-प्रयोग का अनुचित विवरण देने को, लालायित हैं। | |||
कभी-कभी आदेश का पालन नहीं होता। किन्तु किसी भी आदेश का ''कभी भी'' पालन न होना कैसा होगा? ‘आदेश’ प्रत्यय का उद्देश्य ही लुप्त हो जाएगा। | |||
{{ParPU|346}} “किन्तु क्या हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि ईश्वर ने किसी तोते को यकायक समझ दे दी हो और वह अपने आप से बातें करने लगा हो?” किन्तु यहाँ यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि ऐसी कल्पना करने के लिए मुझे ईश्वर की कल्पना करनी पड़ी। | |||
{{ParPU|347}} “किन्तु कम से कम मुझे स्वयं अपनी स्थिति से पता चलता है कि : ‘अपने आप से बातें करना’ क्या होता है। और यदि मुझे वाणी से वंचित कर दिया जाए तो भी मैं अपने आप से बातें कर सकता हूँ।” | |||
यदि मुझे इसका ज्ञान केवल अपनी स्थिति से ही होता है तो मुझे केवल यह ज्ञात होता है कि ''मैं'' उसे क्या कहता हूँ, न कि अन्य लोग उसे क्या कहते हैं। | |||
{{ParPU|348}} “इन मूक-बधिरों ने केवल संकेत-भाषा ही सीखी है, किन्तु इनमें से प्रत्येक अपने आप से मन-ही-मन शाब्दिक भाषा में बातें करता है।” — क्या आप इसे नहीं समझते? — किन्तु मैं कैसे जानता हूँ कि मैं इसे समझता हूँ?! — मैं इस जानकारी (यदि यह जानकारी हो) का क्या कर सकता हूँ? यहाँ तो समझने का संपूर्ण विचार ही संदिग्ध लगता है। मैं नहीं जानता कि मैं कहूँ कि मैं इसे समझता हूँ अथवा नहीं समझता। मैं उत्तर दे सकता हूँ “यह हिन्दी भाषा का वाक्य है; ''देखने'' में तो यह बिल्कुल ठीक है — यानी जब तक कि हम इससे कुछ करना न चाहें; इसके अन्य वाक्यों से ऐसे संबंध हैं जिनसे हमारे लिए यह कहना कठिन हो जाता है कि वास्तव में कोई भी नहीं जानता कि इससे हमें क्या पता चलता है; अपितु ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जो दार्शनिक चिन्तन करने से रूखा न हो गया हो, उसे पता चल जाता है कि यहाँ कुछ गड़बड़ है। | |||
{{ParPU|349}} “किन्तु मान्यता निश्चय ही सार्थक होती है!” — हाँ; साधारण परिस्थितियों में इन शब्दों का और इस चित्र का ऐसा प्रयोग होता है जिससे हम परिचित हैं। — किन्तु यदि हम ऐसी स्थिति की कल्पना करें जिसमें यह प्रयोग नष्ट हो जाता है तो मानो पहली बार हम शब्दों एवं चित्र की निरर्थकता के प्रति सचेत होते हैं। | |||
{{ParPU|350}} “किन्तु यदि मैं यह मानता हूँ कि कोई वेदनाग्रस्त है तो मैं यही मानता हूँ कि उसे वही हो रहा है जो मुझे बहुधा होता है।” — इससे हम कहीं नहीं पहुँचते। यह तो मेरे ऐसा कहने के समान ही है: “निस्संदेह आप जानते हैं कि ‘यहाँ पाँच बजे हैं’ का क्या अर्थ होता है; अतः आप यह भी जानते हैं कि ‘सूर्य पर पाँच बजे हैं’ का क्या अर्थ होता है। इसका अर्थ केवल यह है कि जब पाँच बजते हैं तो वहाँ पर भी वही समय होता है जो यहाँ होता है।” — ''तद्रूपता'' द्वारा व्याख्या यहाँ नहीं चलती। क्योंकि मैं भली-भाँति जानता हूँ कि यहाँ पाँच बजने को और वहाँ पाँच बजने को हम “एक ही बात” कह सकते हैं, किन्तु मैं नहीं जानता कि हमें किन स्थितियों में यह कहना है कि यहाँ और वहाँ एक ही समय है। | |||
बिल्कुल उसी प्रकार यह कहना कोई व्याख्या नहीं होता : उसके वेदनाग्रस्त होने की मान्यता तो बस यही मान्यता है कि उसे वही अनुभव हो रहा है जो मुझे। क्योंकि व्याकरण का ''वह'' अंश तो मेरे लिए नितान्त स्पष्ट है; यानी हम कहेंगे कि स्टोव को वही अनुभव हो रहा है जो मुझे, ''यदि'' कोई कहे : वह स्टोव वेदनाग्रस्त है, और मैं वेदनाग्रस्त हूँ। | |||
{{ParPU|351}} फिर भी हम यही कहना चाहते हैं: “वेदना तो वेदना है — चाहे ''उसे'' हो अथवा ''मुझे'', और बहरहाल मैं जान ही जाता हूँ कि वह वेदनाग्रस्त है अथवा नहीं।” — मैं सहमत हो सकता हूँ। — और जब आप मुझसे पूछते हैं “तो क्या तुम नहीं जानते कि जब मैं कहता हूँ कि स्टोव वेदनाग्रस्त है तो मेरा क्या अर्थ होता है?” — मैं उत्तर दे सकता हूँ : इन शब्दों द्वारा विभिन्न प्रकारों के प्रतिबिम्ब तो मेरे समक्ष प्रस्तुत होते हैं; किन्तु उनकी कोई और उपयोगिता नहीं होती। और इन शब्दों : “सूर्य पर शाम के ठीक पाँच बजे थे” के संबंध में भी मैं कोई कल्पना कर सकता हूँ — जैसे कि पुरानी दीवार-घड़ी पाँच बजा रही है। — किन्तु इससे भी अधिक उचित उदाहरण पृथ्वी के सन्दर्भ में “ऊपर” एवं “नीचे” शब्दों का प्रयोग होगा। “ऊपर” एवं “नीचे” के अर्थ को हम भली-भांति जानते हैं। मैं भली-भांति जानता हूँ कि मैं ऊपर हूँ; पृथ्वी निस्संदेह मेरे नीचे है! (और इस उदाहरण पर आप मुस्कुराएं नहीं। हम सभी को पाठशाला में ही सिखाया गया था कि ऐसी बातें करना मूर्खतापूर्ण है। किन्तु समस्या को दफनाना उसे सुलझाने से कहीं अधिक सरल होता है।) और इस पर पुनर्विचार करने पर ही यह पता चलता है कि इस स्थिति में “ऊपर” एवं “नीचे” का साधारण ढंग से प्रयोग नहीं किया जा सकता। (उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं कि प्रतिध्रुव पर रहने वाले लोग हमारे “नीचे” रहते हैं, किन्तु उन्हें भी हमारे बारे में ऐसा कहने का अधिकार हमें देना होगा।) | |||
{{ParPU|352}} यहाँ हमारी समझ हमसे एक विलक्षण खेल खेलती है। अतः हम नियम को उद्धृत करना चाहते हैं और कहना चाहते हैं: “या तो ऐसा प्रतिबिम्ब उसके मन में है अथवा नहीं है; कोई तीसरी संभावना नहीं है।” — दर्शन के अन्य क्षेत्रों में भी हम इसी विचित्र तर्क का सामना करते हैं। “π के दशमलव प्रसरण में या तो ‘7777’ का समूह होता है अथवा नहीं होता — कोई तीसरी संभावना नहीं है। यानी ईश्वर देखता है — किन्तु हमें पता नहीं चलता।” किन्तु इसका क्या अर्थ है? — हम चित्र का प्रयोग करते हैं; एक ऐसी प्रत्यक्ष श्रृंखला का चित्र जिसे एक व्यक्ति तो संपूर्ण रूप से देखता है किन्तु दूसरा व्यक्ति नहीं देखता। मध्याभाव नियम यहाँ कहता है: इसे या तो ऐसा दिखना चाहिए अथवा वैसा। अतः वास्तव में — और यह स्वयंसिद्ध सत्य भी है — यह कुछ भी नहीं कहता, अपितु एक चित्र प्रदान करता है। और अब समस्या होनी चाहिए : क्या वास्तविकता चित्र के अनुकूल है या नहीं? और ऐसा ''प्रतीत'' होता है कि यही चित्र निर्धारित करता है कि हमें क्या करना है, किसे खोजना है और कैसे — किन्तु यह ऐसा करता नहीं है, क्योंकि हम यह ही नहीं जानते कि इसका प्रयोग कैसे करना है। यहाँ “कोई तीसरी संभावना नहीं है” अथवा “किन्तु तीसरी संभावना हो ही नहीं सकती!” यह कहना — इस चित्र से अपनी आँखें फेर सकने में हमारी अयोग्यता को अभिव्यक्त करता है: ऐसे चित्र से जिसमें ऐसा प्रतीत होता है मानो उसमें पहले से ही समस्या और उसका समाधान निहित हो, जबकि हर समय हमें यह ''लगता'' रहता है कि ऐसा नहीं है। | |||
इसी प्रकार जब कहा जाता है “या तो उसे यह अनुभव है अथवा नहीं है” — तो मुख्यतः हमें ऐसे चित्र का अनुभव होता है जो स्वतः ही अभिव्यक्तियों के अर्थ को ''सुस्पष्ट'' कर देता है: “अब आप जानते हैं कि मुद्दा क्या है” — हम कहना चाहेंगे। और बिल्कुल यही बात उसे बता नहीं पाते। | |||
{{ParPU|353}} यह पूछना कि प्रतिज्ञप्ति को क्या और कैसे सत्यापित किया जा सकता है, तो “आपका क्या अर्थ है?” पूछने का ही एक विशेष ढंग है। इसका उत्तर प्रतिज्ञप्ति के व्याकरण में वृद्धि करता है। | |||
{{ParPU|354}} कसौटियों एवं लक्षणों के व्याकरण में परिवर्तन से ऐसा प्रतीत होता है मानो लक्षणों के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। उदाहरणार्थ, हम कहते हैं: “अनुभव सिखाता है कि जब बैरोमीटर में गिरावट आती है तो वर्षा होती है, किन्तु वह यह भी सिखाता है कि जब हमें नमी एवं शीतलता की संवेदनाएं होती हैं अथवा अमुक-अमुक दृश्य दिखाई देता है, तो वर्षा होती है।” प्रत्युत्तर में हम कहते हैं कि ये इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष हमें धोखा दे सकता है। किन्तु यहाँ हम इस तथ्य पर विचार करने से चूक जाते हैं कि वर्षा की मिथ्या प्रतीति भी किसी परिभाषा पर आधारित होती है। | |||
{{ParPU|355}} यहाँ बात यह नहीं है कि इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष से हमें मिथ्याज्ञान होता है, अपितु बात यह है कि हम उनकी भाषा को समझते हैं। (और अन्य भाषाओं के समान यह भाषा भी परिपाटियों पर आधारित है।) | |||
{{ParPU|356}} हम कहना चाहेंगे : “या तो वर्षा हो रही है अथवा नहीं — यह मैं कैसे जानता हूँ, यह जानकारी मुझ तक कैसे पहुँची है, इसकी तो अलग बात है।” किन्तु तब हमें इस प्रश्न को इस प्रकार पूछना होगा : “वर्षा होने की जानकारी” मैं किसे कहता हूँ? (अथवा क्या इस जानकारी की भी केवल जानकारी ही मेरे पास है?) और इस ‘जानकारी’ को किसी के बारे में जानकारी होने का गुण कौन प्रदान करता है? क्या अभिव्यक्ति का आकार यहाँ हमें भ्रान्त नहीं करता? क्योंकि भला यह कहना भ्रान्ति-रूप अलंकार नहीं है: “मेरी आँखें मुझे बताती हैं कि वहाँ एक कुर्सी है?” | |||
{{ParPU|357}} हम नहीं कहते कि ''संभवतः'' कुत्ता अपने आप से बातें करता है। क्या इसका कारण यह है कि हम उसकी आत्मा से पूर्णतः परिचित हैं? हाँ तो, कोई यह कह सकता है: जब हम किसी जीवित प्राणी के आचरण का अवलोकन करते हैं तो हम उसकी आत्मा का अवलोकन करते हैं। किन्तु क्या मैं अपने बारे में भी यही कहता हूँ कि मैं अपने आप से कुछ कहता हूँ क्योंकि मैं अमुक-अमुक ढंग से आचरण करता हूँ? — मैं अपने आचरण के निरीक्षण से ऐसा ''नहीं'' कहता। किन्तु ये मेरे इसी ढंग से आचरण करने के कारण ही सार्थक होता है।― तो यह मेरे ''तात्पर्य'' से ही सार्थक नहीं हो जाता? | |||
{{ParPU|358}} किन्तु क्या हमारा वाक्य को ''समझना'' ही उसे अर्थ प्रदान नहीं करता? (और निस्संदेह इससे इस तथ्य का पता चलता है कि हम निरर्थक शब्दों की श्रृंखला को नहीं समझ सकते।) और ‘इसे समझना’ तो मन का विषय है। किन्तु यह तो निजी ‘विषय’ भी है! ''यह'' तो अमूर्त ''विषय'' है; जिसकी तुलना केवल चेतना से ही की जा सकती है। | |||
यह हास्यास्पद कैसे प्रतीत हो सकता है? यह तो, मानो हमारी भाषा का स्वप्न है। | |||
{{ParPU|359}} क्या यंत्र विचार कर सकता है? — क्या वह वेदना-ग्रस्त हो सकता है? — अच्छा, क्या मानव देह को ऐसा यंत्र कहा जा सकता है? निश्चित रूप से देह यन्त्र जैसी ही है। | |||
{{ParPU|360}} किन्तु निश्चय ही यंत्र विचार नहीं कर सकता! — क्या यह आनुभविक कथन है? नहीं। हम केवल मनुष्यों के और उसके सदृश जीवों के बारे में ही कहते हैं कि वे विचार करते हैं। पुत्तलिकाओं के और निस्संदेह आत्माओं के बारे में भी हम ऐसा ही कहते हैं। “विचार करना” शब्द को उपकरण के समान ही समझिये। | |||
{{ParPU|361}} कुर्सी सोच रही है कि......... | |||
कहाँ? अपने किसी भाग में, अथवा अपनी देह से बाहर; अपने चारों ओर के वायुमण्डल में? अथवा ''कहीं भी नहीं''? किन्तु तब उस कुर्सी के अपने आप कुछ कहने में, और इसके साथ पड़ी कुर्सी के ऐसा ही करने में क्या भेद है? — तब मनुष्य के साथ ऐसा कैसे होता है: वह अपने आप से कहाँ बातें करता है? यह प्रश्न अर्थहीन क्यों प्रतीत होता है; और सिवा यह कहने के कि यह मनुष्य अपने आप से कुछ कह रहा है, देह अथवा देह से बाहर उस स्थान के बारे में जहाँ वह अपने से कुछ कहता है, कुछ भी कहना आवश्यक नहीं है? जबकि ऐसा लगता है कि कुर्सी ''किस स्थान पर'' स्वयं से वार्तालाप करती हैं, इस प्रश्न का उत्तर होना चाहिए। — कारण यह है: हम जानना चाहते हैं कि कुर्सी मनुष्य के समान ''कैसे'' हो सकती है; उदाहरणार्थ, क्या कुर्सी का सिर उसकी टेक के ऊपर है, इत्यादि। | |||
अपने आप से बात करना कैसा होता है; यहाँ क्या होता है? — मैं इसकी व्याख्या कैसे करूँ? अच्छा, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार आप किसी को “अपने आप से कुछ कहना” इस अभिव्यक्ति का अर्थ सिखाते हैं। और निश्चित रूप से बाल्यकाल में हम उसका अर्थ सीखते हैं। — कोई भी यह नहीं कहेगा कि जिस व्यक्ति ने हमें यह सिखाया है उसने ‘क्या घटित होता है’ यह भी बताया है। | |||
{{ParPU|362}} वस्तुत : हमें ऐसा प्रतीत होता है, मानो इस स्थिति में शिक्षक ने शिक्षार्थी को — उसे प्रत्यक्ष रूप में बताये बिना इसका अर्थ समझाया; किन्तु अन्त में शिक्षार्थी को प्रशिक्षण द्वारा उस अवस्था में पहुँचाया गया जिसमें वह स्वयं को उचित निदर्शनात्मक परिभाषा प्रदान न कर सका। और हमारा भ्रम यहीं पर है। | |||
{{ParPU|363}} “किन्तु जब मैं किसी विषय की कल्पना करता हूँ, तो कुछ अवश्य ''घटित'' होता है!” हाँ, कुछ होता तो है — और फिर मैं शोर मचाता हूँ। किसलिए? संभवतः, यह बताने के लिए कि क्या घटित हुआ है। — किन्तु ''बताया'' कैसे जाता है? कब कहा जाता है हमने कुछ ''बताया'' है? — बताने का भाषा-खेल कौन सा होता है? | |||
मैं कहना चाहूँगा : आप इसे अत्यधिक मामूली बात मानते हैं कि कोई किसी को कुछ भी बता सकता है। यानी : वार्तालाप में हम भाषा के माध्यम से संप्रेषण के इतने आदी हो जाते हैं कि हमें प्रतीत होता है मानो संप्रेषण का सारा उद्देश्य यही है: कोई अन्य व्यक्ति मेरे शब्दों के अर्थ — जो कि मानसिक होता है, को ग्रहण करता है: मानो वह उसे अपने मन में ले जाता है। यदि फिर वह उस के साथ कुछ और भी करता है तो वह भाषा के तात्कालिक उद्देश्य का कोई भी भाग नहीं होता। | |||
हम कहना चाहेंगे “बताने से वह ''जान'' जाता है कि मैं वेदना-ग्रस्त हूँ, यह उस मानसिक संवृत्ति को उत्पन्न करता है; बताने के लिए दूसरी सभी चीजें गौण हैं।” जहाँ तक ज्ञान की विचित्र संवृत्ति का प्रश्न है — उसके लिए पर्याप्त समय है। मानसिक प्रक्रियाएं तो विचित्र ही होती हैं। (मानो कोई कहे : “घड़ी हमें समय बताती है। समय क्या है, इसका अभी तक निर्धारण नहीं हुआ है। और जहाँ तक यह प्रश्न है कि कोई समय बताता ही ''क्यों'' है, यह प्रश्न तो यहाँ उठता ही नहीं है।”) | |||
{{ParPU|364}} कोई मन-ही-मन में अंकगणित के किसी प्रश्न को हल करता है। मान लीजिए कि वह उसके परिणाम को पुल अथवा यन्त्र बनाने के लिए प्रयोग करता है। — क्या आप यह कहना चाहेंगे कि वह ''वास्तव में'' गणन द्वारा इस संख्या पर नहीं पहुँचा? या यह कि यह संख्या तो उसे किसी स्वप्न में ‘सूझी’ है। निस्संदेह, कोई गणन तो हुआ होगा, और ऐसा था भी। क्योंकि वह ''जानता'' है कि उसने गणन किया और कैसे; और यह भी कि जो सही उत्तर उसने पाया उसकी ऐसे गणन के बिना व्याख्या नहीं की जा सकती। — किन्तु क्या हो, यदि मैं कहूँ : “''उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो'' उसने गणन किया। और उचित परिणाम की व्याख्या क्यों होनी चाहिए? क्या यह समझ से परे नहीं है कि कोई बिना कोई शब्द बोले, बिना कुछ लिखे '''गणन''' कर सका। | |||
कल्पना में गणन करना, कागज पर गणन करने से क्या किसी अर्थ में कम होता है? मन-में-गणन तो होता है। — क्या यह कागज पर गणन के समान है? — मुझे नहीं पता कि इन्हें एक समान कहना चाहिए या नहीं। क्या काली रेखाओं वाला सफेद कागज मानव-शरीर के समान है? | |||
{{ParPU|365}} क्या अडेलहीड और बिशॅप शतरंज का ''वास्तविक'' खेल खेलते हैं? — निस्संदेह। वे खेलने का स्वांग तो नहीं कर रहे — ऐसा करना भी खेल का भाग हो सकता है। — किन्तु उदाहरणार्थ, खेल का कोई आरंभ ही नहीं है! — निस्संदेह आरंभ है; अन्यथा यह शतरंज का खेल ही नहीं होगा। — | |||
{{ParPU|366}} क्या मन-ही-मन संख्याओं को जोड़ना कागज पर जोड़ लगाने से कम वास्तविक होता है? — संभवतः हम कुछ ऐसा कहना चाहेंगे; किन्तु हम मन-ही-मन यह कह कर इससे उलट भी सोच सकते हैं: कागज, स्याही, इत्यादि तो हमारी इन्द्रिय-प्रदत्त सामग्री की तार्किक संरचनाएं हैं। | |||
“मैंने.... गुणन अपने मन में किया है” — क्या यह संभव है कि मैं ऐसे कथन पर ''विश्वास'' न करूँ? — किन्तु क्या वस्तुतः वह कोई गुणन था? यह ‘कोई’ भी गुणन नहीं था, अपितु ''यह'' मन में गुणन था। यहीं पर मैं गलती करता हूँ। क्योंकि अब मैं कहना चाहता हूँ : यह कागज पर गुणन के ''अनुरूप'' कोई मानसिक प्रक्रिया थी। अत : यह कहना सार्थक होगा : “मन की ''यह'' प्रक्रिया, कागज की ''इस'' प्रक्रिया के अनुरूप है।” और फिर प्रक्षेपण की ऐसी पद्धति के बारे में बात करना सार्थक होगा जिसके अनुसार संकेत का प्रतिबिम्ब स्वयं संकेत का निरूपण करे। | |||
{{ParPU|367}} अपनी कल्पना का विवरण देते समय जिस चित्र का विवरण दिया जाता है वही चित्र मानसिक चित्र होता है। | |||
{{ParPU|368}} मैं किसी को कमरे का विवरण देता हूँ और फिर यह जानने के लिए कि वह उसे समझ गया है, मैं उससे इस विवरण का ''प्रभाववादी'' चित्र बनवाता हूँ। — अब जिनको मैंने हरा बताया था उन कुर्सियों को वह, गहरे लाल रंग की बनाता है; जहाँ मैंने “पीला रंग” कहा था, वह नीला रंग रंगता है। उसने कमरे की यही धारणा बनाई। और अब मैं कहता हूँ : “बिल्कुल ठीक! वह कमरा ऐसा ही है।” | |||
{{ParPU|369}} हम पूछना चाहते हैं: “मन ही मन संख्याओं का जोड़ करना कैसा लगता है — ऐसा करते समय क्या होता है?” — और किसी स्थिति विशेष में यह उत्तर हो सकता है “पहले मैं 17 एवं 18 का योग करता हूँ, फिर उस योगफल में से 39 को घटता हूँ....”। किन्तु यह तो हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं है। जिसे हम संख्याओं का जोड़ना कहते हैं उसकी व्याख्या ऐसे उत्तर से नहीं दी जाती। | |||
{{ParPU|370}} यह नहीं पूछना चाहिए कि प्रतिबिम्ब क्या है अथवा किसी विषय की कल्पना करते समय क्या घटित होता है, अपितु यह पूछना चाहिए कि “कल्पना” शब्द का प्रयोग कैसे किया जाता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं शब्दों के बारे में ही बात करना चाहता हूँ। क्योंकि कल्पना के स्वभाव के बारे में कोई भी प्रश्न उसी तरह “कल्पना” शब्द के बारे में है जिस तरह कल्पना संबंधी मेरा प्रश्न है। और मैं केवल इतना ही कह रहा हूँ कि इस प्रश्न का निर्णय — न तो कल्पना करने वाले व्यक्ति के लिए, न ही किसी अन्य व्यक्ति के लिए — इंगित करके नहीं लिया जा सकता, और न ही यह निर्णय किसी भी प्रक्रिया के विवरण द्वारा लिया जा सकता है। पहला प्रश्न शब्द की व्याख्या भी पूछता है; किन्तु इससे अनुचित उत्तर की अपेक्षा भी पैदा होती है। | |||
{{ParPU|371}} सार, व्याकरण द्वारा अभिव्यक्त होता है। | |||
{{ParPU|372}} विचार कीजिए : “भाषा की मूलभूत आवश्यकता यादृच्छिक नियम ही हैं। इसी को मूलभूत आवश्यकता के जरिये प्रतिज्ञप्ति में परिणित किया जा सकता है।” | |||
{{ParPU|373}} व्याकरण बताता है कि कोई वस्तु कैसी है। (धर्मशास्त्र के समान व्याकरण) | |||
{{ParPU|374}} यहाँ सबसे बड़ी कठिनाई तो विषय को किसी ऐसे रूप में निरूपित नहीं करने की है जिसमें हम, मानो कि कुछ कर ही ''न सकते'' हों। मानो वास्तव में कोई ऐसा विषय तो है जिससे मैं उसके विवरण की व्युत्पत्ति करता हूँ, किन्तु मैं उसे किसी के समक्ष प्रस्तुत करने में असमर्थ होता हूँ। — और अधिकाधिक मैं यही कह सकता हूँ कि हमें इस चित्र के प्रयोग का प्रलोभन स्वीकार कर लेना चाहिए, किन्तु फिर इस बात की खोज करनी चाहिए कि इस चित्र का ''उपयोग'' कैसे होता है। | |||
{{ParPU|375}} किसी को मन ही मन पढ़ने का प्रशिक्षण कैसे दिया जाता है? कैसे पता चलता है कि वह ऐसा कर सकता है? वह स्वयं ही कैसे जान पाता है कि वह वही कर रहा है जिसकी उससे अपेक्षा है? | |||
{{ParPU|376}} जब मैं अपने आप क, ख, ग बोलता हूँ और कोई अन्य व्यक्ति भी मन ही मन चुपचाप उन्हें दोहराता है तो मेरी और उस व्यक्ति की क्रियाओं में समानता निर्धारित करने की कसौटी क्या है? यह पता चल सकता है कि मेरे और उसके कंठ में एक समान हलचल हो रही है। (और ऐसा ही होता है जब हम दोनों एक ही विषय के बारे में सोचते हैं, एक ही कामना करते हैं, इत्यादि-इत्यादि।) किन्तु फिर क्या हमने इन शब्दों : “अपने आप को अमुक बात कहना” का प्रयोग किसी व्यक्ति द्वारा कंठ अथवा मस्तिष्क की किसी प्रक्रिया को इंगित करने से सीखा था? क्या यह भी पूर्णत : संभव नहीं है कि क की ध्वनि का मेरा और उसका प्रतिबिम्ब अलग-अलग शारीरिक-क्रियाओं से संबद्ध हो? प्रश्न तो यह है: प्रतिबिम्बों ''की तुलना हम कैसे करते हैं''? | |||
{{ParPU|377}} संभवत : तर्कशास्त्री सोचेगा : सादृश्य तो सादृश्य ही है — तादात्म्य कैसे स्थापित किया जाता है यह तो मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। (ऊँचा तो ऊँचा ही है — यह मनोवैज्ञानिक विषय है कि हम कभी तो ऊँचा ''देखते'' हैं, और कभी ऊँचा ''सुनते'' हैं।) | |||
??? प्रतिबिम्ब के सादृश्य की कौन सी कसौटी है? — किसी प्रतिबिम्ब के रक्ताभ होने की कौन सी कसौटी है? जब वह किसी अन्य व्यक्ति का प्रतिबिम्ब होता है तो मेरे लिए कसौटी यह है: जो वह कहता है और करता है। जब वह मेरा प्रतिबिम्ब होता तो मेरे लिए कोई भी कसौटी नहीं होती। और जो “लाल” के साथ होता है वही “सदृश” के साथ भी होता है। | |||
{{ParPU|378}} “इससे पूर्व कि मैं यह निर्णय करूँ कि मेरे दो प्रतिबिम्ब एक दूसरे के सदृश हैं, मुझे उन्हें सदृश रूप में पहचानना होगा।” और जब ऐसा हो चुका होता है तो मुझे कैसे पता चलेगा कि जिसे मैंने पहचाना है, “समान” शब्द वही बतलाता है? ऐसा तभी होगा जब मैं अपने अभिज्ञान को किसी अन्य ढंग से अभिव्यक्त कर सकता होऊँ???,और यदि किसी अन्य व्यक्ति के लिए मुझे यह सिखाना संभव हो कि यहाँ पर “सदृश” शब्द उचित है। | |||
क्योंकि यदि शब्द-प्रयोग के औचित्य की मुझे आवश्यकता है तो यह आवश्यकता किसी अन्य व्यक्ति को भी होगी। | |||
{{ParPU|379}} पहले मैं उसे ''यह'' के रूप में पहचानता हूँ : और मुझे स्मरण होता है कि इसे क्या कहते हैं। — विचार कीजिए : किन स्थितियों में ऐसा कहना उचित है? | |||
{{ParPU|380}} मैं कैसे पहचानता हूँ कि यह लाल है? — “मैं देखता हूँ कि यह ''यह'' है; और फिर मैं जानता हूँ कि इसे यह कहा जाता है।” यह? — क्या?! इस प्रश्न का कैसा उत्तर सार्थक होगा? | |||
(आप निजी निदर्शनात्मक परिभाषा की ओर अग्रसर होते जाते हैं।) दिखाई देने वाले विषयों से शब्दों की ओर ''निजी'' संक्रमण के लिए मैं किसी भी नियम का प्रयोग नहीं कर सकता। वास्तव में नियम तो यहाँ अधर में लटके रहेंगे; क्योंकि उनकी प्रयोग-विधि का अभाव है। | |||
{{ParPU|381}} मैं कैसे जानता हूँ कि यह रंग लाल है? — कोई ऐसा उत्तर देना होगा : “मैंने हिन्दी सीखी है”। | |||
{{ParPU|382}} इन शब्दों को सुनकर मैं यह प्रतिबिम्ब बनाता हूँ। मैं इसका ''औचित्य'' कैसे सिद्ध कर सकता हूँ। | |||
क्या किसी ने मुझे नीले रंग का प्रतिबिम्ब दिखाया है और मुझे बताया है कि ''यह'' नीले रंग का प्रतिबिम्ब है? | |||
“''यह'' प्रतिबिम्ब” इन शब्दों का क्या अर्थ है? — किसी प्रतिबिम्ब को इंगित कैसे किया जाता है? उसी प्रतिबिम्ब को दो बार कैसे इंगित किया जाता है? | |||
{{ParPU|383}} हम किसी संवृत्ति (उदाहरणार्थ किसी विचार) का विश्लेषण नहीं कर |