फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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'''लेखक का प्राक्कथन'''
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|notes=This digital edition is based on Ludwig Wittgenstein. ''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस''. Translated by Ashok Vohra, Indian Council of Philosophical Research, 1996. The original-language text is in the public domain in its country of origin and other countries and areas where the copyright term is the author’s life plus 70 years or fewer. The translation was kindly released by Prof. Ashok Vohra under the [https://creativecommons.org/licenses/by-sa/4.0/deed.en Creative Commons Attribution-ShareAlike] licence. The web edition was created by Michele Lavazza in cooperation with Filippo Villaggi and proofread by Abhishek Manhas under the supervision of Désirée Weber from the College of Wooster.
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{{title|author=लुडविग विट्गेंस्टाइन}}
 
 
 
<blockquote><div style="width: 60%; margin-right: auto; margin-left: auto;">“प्रगति का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि वह वास्तविकता से कहीं अधिक महान् जान पड़ती है।”
 
{{p right|नेस्ट्रॉय}}</div></blockquote>
 
 
 
== लेखक का प्राक्कथन ==


इस पुस्तक में प्रकाशित विचार पिछले सोलह वर्ष के मेरे दार्शनिक अन्वेषण के परिणाम हैं। वे अनेक विषयों से संबंधित हैं: अर्थ, समझ और तर्क के प्रत्ययों से, गणित के आधारों से, चित्त की स्थितियों से और कई दूसरे विषयों से। इन सभी विचारों को मैंने ''टिप्पणियों'', छोटे-छोटे अनुच्छेदों के रूप में लिखा है। कहीं तो एक ही विषय पर इन टिप्पणियों और अनुच्छेदों की लम्बी श्रृंखला है, और कहीं मैं यकायक एक विषय से दूसरे विषय पर पहुँच जाता हूँ। — शुरु में मैं इन्हें एक ऐसी पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करना चाहता था जिसकी मैंने भिन्न&#8209;भिन्न कालों में भिन्न&#8209;भिन्न रूप में कल्पना की। किन्तु इन कल्पनाओं में अनिवार्य बात यह थी कि भावी पुस्तक में मेरे विचार बिना किसी बाधा के सहज ढंग से एक विषय से दूसरे विषय पर चलते चले जायें।
इस पुस्तक में प्रकाशित विचार पिछले सोलह वर्ष के मेरे दार्शनिक अन्वेषण के परिणाम हैं। वे अनेक विषयों से संबंधित हैं: अर्थ, समझ और तर्क के प्रत्ययों से, गणित के आधारों से, चित्त की स्थितियों से और कई दूसरे विषयों से। इन सभी विचारों को मैंने ''टिप्पणियों'', छोटे-छोटे अनुच्छेदों के रूप में लिखा है। कहीं तो एक ही विषय पर इन टिप्पणियों और अनुच्छेदों की लम्बी श्रृंखला है, और कहीं मैं यकायक एक विषय से दूसरे विषय पर पहुँच जाता हूँ। — शुरु में मैं इन्हें एक ऐसी पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करना चाहता था जिसकी मैंने भिन्न&#8209;भिन्न कालों में भिन्न&#8209;भिन्न रूप में कल्पना की। किन्तु इन कल्पनाओं में अनिवार्य बात यह थी कि भावी पुस्तक में मेरे विचार बिना किसी बाधा के सहज ढंग से एक विषय से दूसरे विषय पर चलते चले जायें।
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'''भाग I'''
== भाग I ==




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{{ParPU|693}} “जब मैं किसी को.... श्रृंखला की संरचना सिखाता हूँ, तो निश्चित रूप से मेरा आशय होता है कि वह सौवें स्थान पर.... लिखे।” — बिल्कुल ठीक; आपका यही आशय होता है। और निश्चित रूप से बिना इसके बारे में सोचे ही। इससे पता चलता है कि “अर्थ होने” क्रिया का व्याकरण, “सोचने” क्रिया के व्याकरण से कितना भिन्न है। और अर्थ होने को मानसिक क्रिया कहने से अधिक मूर्खतापूर्ण कुछ भी नहीं हो सकता! यदि कोई भ्रान्ति फैलाना न चाहे तो। (जब मक्खन के दाम बढ़ें तो उसको मक्खन उछला कहना भी संभव है, और यदि इससे कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती, तो ऐसा कहने में कोई भी हानि नहीं है।)
{{ParPU|693}} “जब मैं किसी को.... श्रृंखला की संरचना सिखाता हूँ, तो निश्चित रूप से मेरा आशय होता है कि वह सौवें स्थान पर.... लिखे।” — बिल्कुल ठीक; आपका यही आशय होता है। और निश्चित रूप से बिना इसके बारे में सोचे ही। इससे पता चलता है कि “अर्थ होने” क्रिया का व्याकरण, “सोचने” क्रिया के व्याकरण से कितना भिन्न है। और अर्थ होने को मानसिक क्रिया कहने से अधिक मूर्खतापूर्ण कुछ भी नहीं हो सकता! यदि कोई भ्रान्ति फैलाना न चाहे तो। (जब मक्खन के दाम बढ़ें तो उसको मक्खन उछला कहना भी संभव है, और यदि इससे कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती, तो ऐसा कहने में कोई भी हानि नहीं है।)
== भाग II ==
===i===
हम किसी पशु के क्रुद्ध होने, भयभीत होने, अप्रसन्न होने, प्रसन्न होने, चकित होने की कल्पना कर सकते हैं। किन्तु आशान्वित होने को नहीं? पर क्यों नहीं?
कुत्ते को विश्वास होता है कि उसका स्वामी द्वार पर है। किन्तु क्या उसे यह विश्वास भी हो सकता है कि उसका स्वामी परसों आएगा? — और वह यहाँ ''क्या'' नहीं कर पाता? — मैं ऐसा कैसे करता हूँ? — इसका उत्तर मैं क्या दूँ?
क्या केवल बोलने वाले ही प्रत्याशा कर सकते हैं? क्या केवल वही जिन्होंने किसी भाषा के प्रयोग में दक्षता प्राप्त कर रखी है। यानी, प्रत्याशा की संवृत्तियाँ इस जटिल जीवन-शैली के प्रकार हैं। (यदि कोई प्रत्यय मानव की हस्तलिपि के गुण को इंगित करता है तो उसका लिख न सकने वाले प्राणियों के लिए कोई उपयोग नहीं होता।)
“दु:ख” हमारे जीवन में नाना प्रकार से बार-बार होने वाले संरूपों का विवरण देता है। यदि मनुष्य की दुःख और सुख की दैहिक अभिव्यक्ति घड़ी की टिक-टिक के साथ बदलती रहती तो हमें दुःख के, अथवा सुख के संरूप का कोई विशिष्ट संकेत नहीं मिलता।
“क्षण भर को उसे भीषण वेदना हुई।” — ऐसा कहना अटपटा क्यों लगता है: “क्षण भर को उसे अत्यंत दुःख हुआ”? क्या केवल इसलिए कि ऐसा बहुत कम होता है?
किन्तु क्या ''अब'' आपको दुःख नहीं हो रहा? (“किन्तु क्या ''अब'' आप शतरंज नहीं खेल रहे?”) उत्तर सकारात्मक हो सकता है, किन्तु उससे दुःख का प्रत्यय संवेदना प्रत्यय के सदृश तो नहीं हो जाता। — वास्तव में प्रश्न तो सामयिक एवं वैयक्तिक था, न कि वह तार्किक प्रश्न जिसे हम उठाना चाहते थे।
“मुझे आपको बताना चाहिए: मैं भयभीत हूँ।”
“मुझे आपको बताना चाहिए: इससे मेरी कँपकँपी छूटती है।” —
और ऐसा हम ''हलके-फुलके'' ढंग से भी कह सकते हैं।
और क्या आप मुझे बताना चाहते हैं कि उसे इसकी अनुभूति नहीं होती? अन्यथा उसे इसका कैसे ''पता चलता'' है? — किन्तु जब वह इसे सूचना के रूप में भी कहता है, तो भी उसे इसके बारे में अपनी संवेदनाओं से ही पता नहीं चलता।
शरीर की कँपकँपी से उत्पन्न संवेदना के बारे में सोचें: “इससे मेरी कँपकँपी छूटती है”। ये शब्द तो अपने आप में ही ऐसी कँपकँपी की प्रतिक्रिया हैं; और यदि उनको उच्चारण करते समय मैं उन्हें सुनता और अनुभव करता हूँ, तो यह भी उन संवेदनाओं में से ही है। तो निश्शब्द कँपकँपाहट को शाब्दिक कँपकँपाहट का आधार क्यों होना चाहिए?
=== ii ===
“जब मैंने इस शब्द को सुना, तो मैंने इसको.... अर्थ में लिया” यह कहने में हम एक ''निश्चित समय'' को और ''शब्द के प्रयोग करने के ढंग'' को इंगित करते हैं। (निस्संदेह, इस संयोजन को हम समझ नहीं पाते।)
और “मैं कहने जा रहा था कि....” अभिव्यक्ति एक ''निश्चित समय'' को और एक ''क्रिया'' को इंगित करती है।
मैं उच्चारणों के अपरिहार्य ''संदर्भों'' का उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ ताकि उनका हमारे द्वारा प्रयोग की जाने वाली अभिव्यक्तियों की विशिष्टताओं से किया जा सके। किसी उच्चारण के लिए अपरिहार्य संदर्भ वही होते हैं जिनमें हम अन्यथा अपरिचित अभिव्यक्ति-आकारों को अपनी भाषा के प्रचलित आकार में अनूदित करते हैं।
यदि आप यह कहने में असमर्थ हैं कि “और” शब्द सर्वनाम एवं संयोजक दोनों हो सकता है, अथवा इससे ऐसे वाक्य न बना सकें जिनमें यह कभी तो एक हो कभी दूसरा, तो आप स्कूल की साधारण अभ्यास-पुस्तिका को भी हल नहीं कर सकेंगे। किन्तु स्कूली बच्चे को यह शब्द प्रसंग से काटकर, इनमें से किसी एक ढंग से नहीं ''सिखाया'' जाता, न ही उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह हमें बताये कि उसने इसे कैसे समझा।
“गुलाब लाल है” शब्द निरर्थक होते हैं, यदि “है” का अर्थ “से तद्रूप है” हो। — क्या इसका यह अर्थ है: जब आप इस वाक्य को बोलते हैं, और “है” को तादात्म्य संकेत के रूप में समझते हैं तो उसका अर्थ लुप्त हो जाता है?
हम एक वाक्य लेते हैं और उसके प्रत्येक शब्द का अर्थ किसी को बताते हैं; इससे उसे पता चलता है कि उनको कैसे प्रयोग करना है, और इसीलिए वाक्य को भी कैसे प्रयोग करना है। यदि हमने शब्दों का बेतरतीब अनुक्रम चुना होता तो वह ''अनुक्रम'' के प्रयोग को नहीं सीख पाता। और यदि हम “है” शब्द को तादात्म्य के संकेत के रूप में लें, तो वह “गुलाब लाल है” इस वाक्य का प्रयोग नहीं सीख पाता।
पर ‘अर्थ के इस प्रकार विच्छिन्न हो जाने’ का कोई तो औचित्य है। निम्नलिखित उदाहरण से इसका पता चलता है: कोई किसी को कह सकता है: यदि आप “राम-राम” कहकर किसी का हार्दिक अभिवादन करते हैं, तो अच्छा होगा यदि आप इसे कहते हुए ‘राम-नाम सत्य है’ के बारे में न सोचें।
अर्थानुभूति और मानसिक बिंबानुभूति को अनुभव करना। “दोनों ही स्थितियों में” हम कहना चाहेंगे, “हमें किसी विषय का ''अनुभव तो होता है'', किन्तु प्रत्येक स्थिति में भिन्न विषय का। चेतना के समक्ष भिन्न विषय-वस्तु लाई जाती है — उपस्थित होती है।” — कल्पना के अनुभव में क्या होता है? इसका उत्तर कोई चित्र अथवा विवरण है। और अर्थानुभूति में क्या होता है? इसका उत्तर मुझे नहीं मालूम। — यदि उपर्युक्त टिप्पणियों का कोई अर्थ है तो वह यही है कि दोनों प्रत्यय ‘लाल’ और ‘नीले’ प्रत्ययों के समान एक दूसरे से सम्बन्धित हैं; और यह गलत है।
क्या हम अर्थानुभूति को मानसिक बिंबानुभूति के समान पकड़े रख सकते हैं? यानी, यदि अचानक मुझे किसी शब्द का कोई अर्थ सूझ जाए, — तो क्या वह मुझे याद भी रह सकता है?
“सम्पूर्ण योजना मुझे क्षण भर में ही सूझ गई, और फिर उसी रूप में पाँच मिनट तक मेरे मन में रही।” यह अटपटा क्यों लगता है? सोचा जा सकता है: जो मुझे सूझा और जो मेरे मन में रहा वह एक ही विषय नहीं हो सकता।
मैं अकस्मात् चिल्लाया “अब मुझे सूझ गया!” — और फिर मैंने विस्तृत योजना बना ली। इस स्थिति में क्या याद रहा होगा? सम्भवतः, कोई चित्र। किन्तु, “अब मुझे सूझ गया” इसका अर्थ “मुझे चित्र सूझा है”, तो नहीं था।
यदि आपको किसी शब्द का अर्थ सूझ गया और आप उसे ''भूले'' नहीं हैं, तो अब आप उस शब्द का अमुक ढंग से प्रयोग कर सकते हैं।
यदि अर्थ आपको सूझ गया है तो अब आपको उसका ''पता'' है, और आपको उसका पता तब चला जब वह आपको सूझा तो वह किसी विषय-वस्तु की कल्पना करने जैसा कैसे है?
यदि मैं कहता हूँ “श्रीमान् स्काट, स्काट नहीं हैं”, तो प्रथम स्काट से मेरा आशय व्यक्तिवाचक नाम है, और दूसरे से जातिवाचक नाम। तो क्या पहले और दूसरे “स्काट” पर मेरे मन में भिन्न बातें होनी चाहिए? (यह मानते हुए कि मैं वाक्य का उच्चारण ‘तोते की तरह’ नहीं कर रहा।) — पहले “स्काट” को जातिवाचक और दूसरे को व्यक्तिवाचक समझने का प्रयत्न कीजिए। — यह कैसे किया जाता है? जब ''मैं'' ऐसा प्रयत्न करता हूँ तो शब्दों के ठीक अर्थ को समझने में मुझे देर लगती है। — किन्तु जब मैं उनका साधारण प्रयोग करता हूँ तो क्या मुझे उनके अर्थ को समझने का प्रयत्न करना पड़ता है?
अर्थों की इस अदला-बदली के साथ जब मैं वाक्य का उच्चारण करता हूँ तो मुझे होता है कि उसका अर्थ विच्छिन्न हो गया है। — हाँ, मुझे ऐसा प्रतीत होता है, किन्तु मुझसे वार्तालाप करनेवाले को ऐसा प्रतीत नहीं होता। — तो इसमें हानि क्या है? — “किन्तु बात तो यह है कि जब हम साधारण ढंग से वाक्य का उच्चारण करते हैं तो इससे ''भिन्न'' कुछ तो होता है।” — जो होता है वह ‘अर्थों का मन में प्रदर्शन’ तो नहीं होता।
=== iii ===
उसके बारे में मेरा चित्रण, ''उसे'' कैसे चित्रित करता है?
इस चित्रण का उस जैसा दिखना तो नहीं।
“उसे अब मैं स्पष्ट रूप से अपने समक्ष देखता हूँ” अभिव्यक्ति पर भी वही बात लागू होती है जो चित्रण पर लागू होती है। यह उक्ति ''उससे'' सम्बन्धित उक्ति कैसे बनती है? — न तो इसमें कुछ है, और न ही इसके साथ (‘इसके पीछे’) कुछ है। यदि आप जानना चाहते हैं कि उसका आशय किससे था, तो उसी से पूछें।
(किन्तु यह भी सम्भव है, कि मुझे कोई मुखाकृति सूझे, या यह भी कि मैं उस मुखाकृति को बना सकूँ, बिना यह जाने कि वह किसकी है अथवा मैंने उसे कहाँ देखा था।)
बहरहाल, मान लीजिए कि जब किसी को कोई बिंब सूझे, अथवा बिना किसी बिंब के ही वह उसका रेखांकन करे जैसा कि उंगलियों से हवा में करते हैं। (इसे “प्रेरक प्रतिमावली” कहा जा सकता है।) जो ऐसा कर रहा हो उससे पूछा जा सकता है: “यह किसका प्रतिनिधित्व करती है?” और उसका उत्तर निर्णायक होगा। — यह उसके द्वारा शब्दिक विवरण देने जैसा ही है: और ऐसा विवरण बिंब का ''स्थान'' भी सरलता से ले सकता है।
=== iv ===
“मैं मानता हूँ कि वह वेदना-ग्रस्त है।” — क्या मैं यह भी ''मानता हूँ'' कि वह यंत्र नहीं है?
दोनों सम्बन्धों में एक ही शब्द का प्रयोग तो स्वभाव-विरुद्ध होगा।
(अथवा क्या यह ऐसा है: मैं मानता हूँ कि वह वेदना-ग्रस्त है किन्तु मुझे विश्वास है कि वह यंत्र नहीं है? बकवास!)
मान लीजिए कि मैं अपने मित्र के बारे में कहता हूँ: “वह यंत्र नहीं है”। — इससे कौन सी सूचना मिलती है, और किसके लिए यह सूचना होगी? क्या उस ''मनुष्य'' के लिए जो उसे साधारण परिस्थितियों में मिलता है? यह उसे कौन सी सूचना दे ''सकती'' है? (अधिकतम यह कि यह मनुष्य सदैव ही मनुष्यों की भाँति व्यवहार करता है, और कभी भी यंत्र की भांति नहीं।)
“मैं मानता हूँ कि वह यंत्र नहीं है” का अभी तक अपने आप में कोई भी अर्थ नहीं है।
उसके प्रति मेरा दृष्टिकोण तो आत्मा के प्रति दृष्टिकोण ही है। मेरा ''मत'' यह नहीं है कि उसमें आत्मा है।
धर्म हमें सिखाता है कि देह के न रहने पर भी आत्मा रह सकती है। अब, क्या मैं इस उपदेश को समझता हूँ? — निस्संदेह, मैं इसे समझता हूँ — मैं इससे सम्बन्धि बहुत सी बातों की कल्पना कर सकता हूँ। और क्या इन बातों के चित्र नहीं बनाए गए हैं? और ऐसे चित्र को भाषा में प्रतिपादित सिद्धान्त की अपूर्ण अभिव्यक्ति ही क्यों होना चाहिए? वह शब्दों के ''समान'' ही कार्य क्यों नहीं करता? और कार्य करने की ही तो बात है।
यदि मन में विचार का चित्र हम पर हावी हो सकता है, तो आत्मा में विचार का चित्र हम पर अधिक हावी क्यों नहीं हो सकता?
मनुष्य की देह, उस की आत्मा का सर्वोत्तम चित्र है।
और ऐसी अभिव्यक्ति के बारे में क्या कहेंगे: अपने दिल को इंगित करते हुए “जब आपने यह कहा तो दिल ही दिल में मैं समझ गया”? क्या उस भंगिमा का कोई ''आशय'' नहीं होता? निस्संदेह, इसका आशय होता है। अथवा क्या हम ''मात्र'' आलंकारिक प्रयोग के लिए ही सचेष्ट हैं? बिल्कुल नहीं। — न तो हम अलंकार को चुनते हैं, न ही उपमा को, फिर भी यह आलंकारिक अभिव्यक्ति है।
=== v ===
मान लीजिए हम किसी बिन्दु की गतिविधि का निरीक्षण कर रहे हैं (उदाहरणार्थ, परदे पर किसी प्रकाश-बिन्दु की गतिविधि का)। इस बिन्दु की गतिविधि से अनेकानेक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। और यहाँ कितने प्रकार के निरीक्षण किए जा सकते हैं! — बिन्दु का मार्ग, और उसके कई विशिष्ट अनुमापों का (उदाहरणार्थ, आयाम और तरंग दैर्ध्य का), अथवा उसकी गति और उसमें परिवर्तन लाने वाले नियम का, अथवा कितनी बार और किन स्थानों पर उसके असतत रूप से परिवर्तित होने का, अथवा उन स्थानों पर उसके पथ की गोलाई का, और असंख्य अन्य बातों का। — उसकी गतिविधि के इनमें से किसी भी पक्ष में हमारी रुचि हो सकती है। उदाहरणार्थ, हम उसके व्यवहार के सभी पक्षों के प्रति उदासीन हो सकते हैं सिवाय इसके कि वह निश्चित समय में कितने लूप बनाता है। — और यदि हमारी रुचि मात्र ''एक'' पक्ष में न होकर, अनेक पक्षों में हो, तो संभव है कि उनमें से प्रत्येक पक्ष से हमें ऐसी विशेष सूचना मिले जो शेष पक्षों से गुणवत्ता में भिन्न हो। जैसा बिन्दु की गतिविधि में पाया जाता है वैसा ही मनुष्य के व्यवहार में भी पाया जाता है।
तो क्या मनोविज्ञान का सम्बन्ध मन की बजाय व्यवहार से है?
मनोवैज्ञानिक किस चीज का लेखा-जोखा रखते हैं? — वे किस चीज का निरीक्षण करते हैं? क्या वे मनुष्यों के व्यवहार, विशेषकर उनकी उक्तियों का लेखा-जोखा नहीं रखते? किन्तु ''ये'' व्यवहार के बारे में तो नहीं हैं।
“मैंने महसूस किया कि वह अप्रसन्न है।” क्या यह उसके व्यवहार के बारे में, अथवा उसकी मनोदशा के बारे में रिपोर्ट है? (“आकाश भयावह प्रतीत होता है”: क्या यह वर्तमान अथवा भविष्य के बारे में है?) दोनों के बारे में, बहरहाल साथ-साथ नहीं, अपितु एक के बारे में दूसरे के जरिए।
चिकित्सक पूछता है: “वह कैसा है?” नर्स कहती है: “वह कराह रहा है”। नर्स उसके व्यवहार की सूचना देती है। किन्तु क्या वे इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि उसकी कराहट वास्तविक है या नहीं, कि उसकी कराहट कुछ अभिव्यक्त भी करती है? उदाहरणार्थ, क्या वे हेतु को छिपाए बिना यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते “यदि वह कराहता है, तो हमें उसे अधिक मात्रा में पीड़ाहर औषधि देनी चाहिए”? क्या बात इसकी नहीं है कि वे व्यवहार के विवरण का कैसा प्रयोग करते हैं?
“किन्तु वे अव्यक्त पूर्वधारणा बनाते हैं।” तो क्या हमारे भाषा-खेल में की गई सभी क्रियाएं सदैव अव्यक्त पूर्वधारणा पर आधारित होती हैं।
मैं एक 'मनोवैज्ञानिक प्रयोग का विवरण देता हूँ: उपकरणों का प्रयोगकर्ता के प्रश्नों का, व्यक्तिविशेष की क्रियाओं और उसके द्वारा दिए गए उत्तरों का — और फिर मैं कहता हूँ कि यह तो नाटक का एक दृश्य है। — अब सब कुछ बदल जाता है। तो कहा जाएगा: यदि इस प्रयोग का इसी प्रकार से मनोविज्ञान की किसी पुस्तक में वर्णन किया जाता तो वर्णित व्यवहार को किसी मानसिक विषय की अभिव्यक्ति समझा जाता क्योंकि ''पूर्वधारणा'' की जाती कि व्यक्तिविशेष हमें धोखा नहीं दे रहा, उसने उत्तरों याद नहीं कर रखा, और ऐसी ही अन्य बातों की भी पूर्वधारणा की जाती। — यानी, हम पूर्वधारणा कर रहे हैं?
क्या वास्तव में हमें अपने आपको कभी भी इस प्रकार अभिव्यक्त करना चाहिए: “स्वभावत: मैं पूर्वधारणा करता हूँ कि....” — अथवा क्या हम ऐसा केवल इसलिए नहीं करते कि दूसरा व्यक्ति पहले से ही यह बात जानता है?
क्या पूर्वधारणा में संशय अन्तर्निहित नहीं होता? और संशय तो है ही नहीं। संशय की सीमा होती है।
यह इस सम्बन्ध के समान है: भौतिक वस्तु — ऐन्द्रिय-प्रभाव। यहाँ हमारे पास दो भाषा-खेल हैं, और उनका परस्पर जटिल सम्बन्ध है। — यदि आप उनके सम्बन्धों को किसी सरल सूत्र में परिवर्तित करने का प्रयत्न करेंगे तो आप गलती करेंगे।
=== vi ===
मान लीजिए कोई कहे: प्रत्येक परिचित शब्द, उदाहरणार्थ, किसी पुस्तक में, प्रयोगों को मोटे तौर पर इंगित करने वाले ‘परिवेश’ के साथ हमारे मन में आता है। जैसे किसी चित्र में प्रत्येक आकृति मनोहारी दृश्यों के धुंधले आरेखनों से घिरी हो, जिससे वह किसी दूसरे लोक की प्रतीत होती हो, और इसी कारण उनसे हमें भिन्न आकृतियों का आभास हो। आइए हम इस ''पूर्वमान्यता'' को गम्भीरता से लें! — तब हमें पता चलता है कि वह ''आशय'' की व्याख्या देने के लिए पर्याप्त नहीं है।
क्योंकि यदि ऐसा है, यदि शब्द को बोलते अथवा सुनते समय उस के संभाव्य प्रयोग हमारे सामने धुंधले से तैरते रहते हैं — तो यह अनुभव केवल ''हमारे'' साथ होता है। किन्तु बिना यह जाने कि दूसरों को भी यही अनुभव हो रहा है हम उनसे संवाद करते हैं।
हम ऐसे व्यक्ति का प्रतिवाद कैसे करें जो हमें कहता है कि ''उसके'' लिए समझना एक आन्तरिक प्रक्रिया है? — हम उसका प्रतिवाद कैसे करें यदि वह कहता कि उसके लिए शतरंज खेलना एक आन्तरिक प्रक्रिया है? — हमें कहना चाहिए कि जब हम जानना चाहते हैं कि वह शतरंज खेल सकता है या नहीं तो हमारी रुचि उसके मन में होने वाली किसी प्रक्रिया में नहीं होती। — और यदि वह उत्तर देता है कि हमारी रुचि तो इसी में है, यानी हमारी रुचि तो यह जानने में है कि वह शतरंज खेल सकता है या नहीं — तो हमें उसका ध्यान उन कसौटियों की ओर आकृष्ट कराना होगा जिनसे उसकी खेल-क्षमता का प्रदर्शन होगा, और दूसरी स्थिति में ‘आन्तरिक अवस्थाओं’ की कसौटियों की ओर।
यदि किसी में केवल तभी कोई विशिष्ट क्षमता हो जब उसे कोई विशिष्ट अनुभूति हो, और वह क्षमता केवल अनुभूति के रहने तक बनी रहे, तो भी अनुभूति क्षमता नहीं हो सकती।
शब्द को कहने अथवा सुनने का अनुभव तो शब्द का अर्थ नहीं होता, और न ही वाक्य का अर्थ ऐसे अनुभवों का समूह होता है। — (“मैंने उसे अभी तक नहीं देखा है” वाक्य का अर्थ इसमें प्रयुक्त एकल शब्दों के अर्थों से कैसे बनता है?) वाक्य शब्दों से बना है, और इतना ही पर्याप्त है।
यद्यपि — कोई कहना चाहेगा — प्रत्येक शब्द का भिन्न प्रसंगों में भिन्न गुण होता है, किन्तु इसके साथ-साथ उसका ''एक'' गुण सदैव बना रहता है: एक ही रूप। वह हमें देखता है। — किन्तु ''चित्र'' में बनी मुखाकृति भी हमें देखती है।
क्या आपको भरोसा है कि ‘यदि’ की अनुभूति एक ही होती है, न कि अनेक अनुभूतियां होती हैं? क्या आपने शब्द को अनेकानेक संदर्भों में कहने का प्रयत्न किया है? उदाहरणार्थ, जब उस शब्द की वाक्य में मुख्य भूमिका होती है, और तब जब उससे अगले शब्द की मुख्य भूमिका होती है।
मान लीजिए कि हमें एक ऐसा व्यक्ति मिले जो हमें शब्दों के अपने अनुभव को बताते हुए कहे कि “यदि” और “परन्तु” उसे ''एक समान लगते'' हैं। — क्या हमें उस पर अविश्वास करने का अधिकार है? यह हमें अजीब लग सकता है। हम कहना चाहेंगे कि “वह हमारा खेल ही नहीं खेलता” या फिर “यह भिन्न प्रकार का व्यक्ति है।”
यदि वह “यदि” और “परन्तु” शब्दों का ''प्रयोग'' हमारी तरह करे, तो भी क्या हमें यह नहीं समझना चाहिए कि वह इन शब्दों को हमारी ही तरह समझता है।
जब कोई यदि — अनुभूति को अर्थ का संलग्नी विषय मानता है, तो वह यदि — अनुभूति की मनोवैज्ञानिक रुचि के बारे में गलत धारणा बनाता है; वस्तुतः इसे तो ऐसी परिस्थितियों के एक भिन्न संदर्भ में समझने की आवश्यकता है, जिनमें वह अनुभूति होती है।
क्या किसी व्यक्ति को उस समय जब वह “यदि” शब्द का उच्चारण नहीं कर रहा होता यदि-अनुभूति कभी भी नहीं होती? इसी कारण से ही यदि यह अनुभूति उत्पन्न होती है तो यह एक महत्त्वपूर्ण बात है। और यही बात साधारणतः शब्द के ‘परिवेश’ पर लागू होती है; — हम इसे स्वाभाविक क्यों मानते हैं कि केवल ''इस'' शब्द का यह परिवेश है?
यदि-अनुभूति “यदि” शब्द से जुड़ी अनुभूति तो नहीं होती।
यदि-अनुभूति की तुलना तो उस विशेष अनुभूति से करनी होगी जो हमें संगीत-बद्ध पद सुनने पर होती है। (कभी-कभी हम ऐसी अनुभूति का विवरण यह कहकर देते हैं: “ऐसा लगता है मानो कोई निष्कर्ष निकाला जा रहा हो”, अथवा “मैं कहना चाहता हूँ ‘''अतः''....’” अथवा “सदैव ही मैं यहाँ.... भंगिमा बनाना चाहता हूँ” और फिर हम उसे बनाते हैं।)
किन्तु क्या पद्यांश से इस अनुभूति को अलग किया जा सकता है? और फिर भी वह अनुभूति पद्यांश तो नहीं है, क्योंकि उसे अनुभूति के बिना भी सुना जा सकता है।
क्या इस माने में यह पद्यांश, गाने की ‘अभिव्यक्ति’ के समान है?
हम कहते हैं कि यह पद्यांश हमें एक विशिष्ट अनुभूति देता है। हम उसे भाव-विह्वल होकर गाते हैं, और शायद हमें कोई विशेष संवेदना भी होती है। किन्तु किसी भिन्न प्रसंग में हम इन संलग्नी बातों — विह्वलता, संवेदना — पर बिल्कुल ध्यान ही नहीं देते। गीत-अंश के गायन-काल से इतर समय में तो वे निरर्थक ही हैं।
“मैं इसे विशिष्ट अभिव्यक्ति के साथ गाता हूँ।” यह अभिव्यक्ति कोई ऐसा विषय नहीं है जिसे पद्यांश से पृथक् किया जा सके। यह तो भिन्न प्रत्यय है। (एक भिन्न खेल है।)
''इस'' प्रकार पद्यांश गाना ही अनुभव है। (यानी मेरे गाने जैसा कोई विवरण तो इस ओर ''इंगित'' ही कर सकता है)।
अतः अपने विषय से पृथक् न किया जा सकने वाला परिवेश तो परिवेश ही नहीं होता।
सहचारी वस्तुएं यानी वे वस्तुएं जिन्हें हमने सहचारी ''बनाया'' है, एक दूसरे के अनुकूल प्रतीत होती हैं। किन्तु यह अनुकूल प्रतीत होना क्या होता है? उनकी अनुकूलता की प्रतीति कैसे व्यक्त होती है? सम्भवतः इस प्रकार: हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि अमुक नाम, अमुक मुखाकृति, अमुक हस्तलिपि वाले व्यक्ति ने ''इन'' कृतियों को नहीं लिखा होगा, अपितु सम्भवतः इनसे नितान्त भिन्न (किसी अन्य महान व्यक्ति की) कृतियों को लिखा होगा।
हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते? क्या हम इसके लिए प्रयत्न करते हैं? —
यह एक सम्भावना है: मुझे पता चलता है कि कोई एक चित्र बना रहा है जिसका शीर्षक है: “बीथोवन नौवीं सिम्फॅनी लिखते हुए”। मैं सरलता से यह कल्पना कर सकता हूँ कि उस चित्र में क्या होगा? किन्तु उस चित्र में क्या होगा जिसमें कोई यह दिखाना चाहे कि गोयथे नौवीं सिम्फनी लिखते हुए कैसे लगते? यहाँ मैं किसी भी ऐसी विषय-वस्तु की कल्पना नहीं कर सकता जो उलझन में न डालने वाली, और हास्यास्पद न हो।
=== vii ===
ऐसे लोग जो नींद से जागने पर विशिष्ट घटनाओं (कि वे अमुक-अमुक स्थानों इत्यादि में जा चुके हैं) के बारे में हमें बताते हैं। फिर हम उन्हें विवरण से पहले आनेवाली “मुझे स्वप्न आया” अभिव्यक्ति सिखाते हैं। बाद में कभी मैं उनसे पूछता हूँ “क्या आपने कल रात कोई स्वप्न देखा” और मुझे हाँ या ना में उत्तर मिलता है, जो कभी तो स्वप्न के विवरण-सहित होता है, और कभी विवरण-रहित। यही तो भाषा-खेल है। (मैंने यहाँ मान लिया है कि मैं स्वयं स्वप्न नहीं देखता। न ही मुझे कभी अदृष्ट शक्ति की अनुभूति हुई है; अन्य लोगों को ऐसी अनुभूति होती है, और मैं उनसे उनके अनुभव के बारे में पूछताछ कर सकता हूँ।)
क्या मुझे कोई पूर्वधारणा बनानी चाहिए कि लोगों की स्मृति उन्हें धोखा देती है या नहीं; उन्हें नींद में इन बिंबों का अनुभव भी हुआ था या नहीं, अथवा फिर जागने पर ही उन्हें ऐसा प्रतीत होता है? और इस प्रश्न का क्या अर्थ है? — और इसका क्या ध्येय है? जब कोई हमें अपने स्वप्न के बारे में बताता है, तो क्या हम कभी इस प्रश्न को पूछते हैं? और यदि नहीं पूछते, — तो क्या इस कारण कि हम इस बात से आश्वस्त हैं कि उसकी स्मृति उसे धोखा नहीं देगी? (और इसकी भी कल्पना कीजिए कि वह अल्प-स्मृति वाला व्यक्ति हो?) —
क्या इसका यह अर्थ है कि स्वप्न निद्रावस्था में ही दिखाई देते हैं, या फिर वे जागृत लोगों की ही स्मृति-संवृत्तियां हैं इसके बारे में प्रश्न पूछना निरर्थक है? यह तो प्रश्न के प्रयोग पर निर्भर करता है।
“ऐसा प्रतीत होता है कि मन शब्द को अर्थ प्रदान करता है” — क्या यह कुछ ऐसा ही कहना नहीं है कि: “बेन्जीन में कार्बन-परमाणु षट्कोण के कोनों में रखे प्रतीत होते हैं”? किन्तु यह ऐसा प्रतीत तो नहीं होता है; यह तो एक चित्र है।
उन्नत पशुओं का, और मनुष्य का विकास, तथा विशिष्ट स्तर पर चेतना का जागृत होना। इनका चित्र कुछ ऐसा बनेगा: यद्यपि आकाश तरंगों से भरा है, तो भी संसार अंधकारमय है। किन्तु किसी दिन मनुष्य अपने नेत्र खोलता है, और वह प्रकाशमय हो जाता है।
यह भाषा मुख्यत: किसी चित्र का विवरण देती है। चित्र का क्या करना है, उसे कैसे प्रयोग में लाना है यह तो अभी तक अस्पष्ट है। बहरहाल, यह तो स्पष्ट ही है कि अपनी कही हुई बात के अर्थ को समझने के लिए हमें खोजबीन करनी होगी। किन्तु ऐसा लगता है कि चित्र हमसे यह काम नहीं कराना चाहता: वह तो पहले से ही एक विशिष्ट प्रयोग को इंगित करता है। यहीं हम धोखा खा जाते हैं।
=== viii ===
“गतिबोधक संवेदनाओं से मुझे अपने अंगों की गति एवं स्थिति का पता चलता है।”
मैं अपनी तर्जनी को लघु-आयामी लोलक की तरह हिलाता हूँ। मुझे इसकी नगण्य-सी अनुभूति होती है, या होती ही नहीं। सम्भवतः उँगली के छोर पर मामूली तनाव के समान थोड़ी सी अनुभूति ही होती है। (जोड़ में तो कतई नहीं।) और यह संवेदना मुझे गतिविधि के बारे में बताती है? — क्योंकि मैं गतिविधि का यथार्थ विवरण दे सकता हूँ।
“किन्तु अन्ततः तो आपको उसकी अनुभूति होनी चाहिए, अन्यथा आपको (देखे बिना) पता ही नहीं चलेगा कि आपकी उँगली हिल रही है।” किन्तु इसको “जानने” का अर्थ तो यही है: उसका विवरण देने योग्य होना। — ध्वनि की दिशा के बारे में बता सकने का मेरा कारण यही है कि उससे मेरे एक कान पर दूसरे कान से कहीं अधिक प्रभाव पड़ता है, किन्तु मुझे ध्वनि के उच्चावच की अनुभूति अपने कानों में तो नहीं होती; तो भी इसकी भूमिका तो है: मुझे ध्वनि की दिशा का ''पता चलता'' है; उदाहरणार्थ, मैं उस दिशा में देखता हूँ।
हमारी वेदना का कोई लक्षण ही हमें देह में वेदना के स्थान के बारे में बताता है, और स्मृति-बिंब का कोई लक्षण ही काल के बारे में हमें बताता है। इन विचारों के साथ भी ऐसा ही होता है।
किसी अंग की गतिविधि अथवा स्थिति के बारे में संवेदना हमें सूचित करवा ''सकती'' है। (उदाहरणार्थ, यदि आप किसी सामान्य व्यक्ति की तरह यह नहीं जान पाते कि आपने भुजा फैला रखी है या नहीं, तो आप कोहनी में चिकोटी काट कर इसका पता लगा सकते हैं।) — इसी प्रकार वेदना का लक्षण हमें बता सकता है कि चोट कहाँ है। (और चित्र के पीलेपन से हमें पता चलता है कि चित्र कितना पुराना है।)
इंद्रिय-संस्कार से किसी वस्तु की आकृति एवं रंग के मेरे ज्ञान की कौन सी कसौटी है?
''कौन सा'' इन्द्रिय-संस्कार? हाँ, ''यह''; मैं उसका विवरण देने के लिए शब्दों का, अथवा चित्र का प्रयोग करता हूँ।
और अब: जब आपकी उँगलियां इस स्थिति में होती हैं तो आपको कौन सी अनुभूति होती है? — “अनुभूति को कैसे परिभाषित करें? यह तो कुछ विशिष्ट एवं अनिर्वचनीय है।” किन्तु शब्दों का प्रयोग करना तो सम्भव होना ही चाहिए!
मैं तो व्याकरण-सम्बन्धी भेद को खोज रहा हूँ।
आइए, हम कुछ देर के लिए गतिबोधक अनुभूति को भूल जाएं। — मैं किसी अनुभूति का विवरण देना चाहता हूँ, और उसे कहता हूँ “''यह'' करने पर आपको यह अनुभूति होगी”, और ऐसा कहते समय मैं अपनी भुजा अथवा अपने सिर को एक विशेष स्थिति में रखता हूँ। तो क्या यह अनुभूति का विवरण है? और मैं कब कहूँगा कि वह मेरी अनुभूति के आशय को समझ गया है? — बाद में उसे अनुभूति का ''और अधिक'' विवरण देना पड़ेगा। और वह विवरण कैसा होना चाहिए?
मैं कहता हूँ “''ऐसा'' करने पर आपको यह अनुभूति होगी”। क्या यहाँ कोई संशय नहीं हो सकता? यदि हमारा आशय कोई अनुभूति हो तो क्या संशय होना ही नहीं चाहिए?
''यह'' दिखने में ''ऐसा'' है; ''यह'' स्वाद में ''ऐसा'' है; ''यह'' स्पर्श में ''ऐसा'' है। “यह” और “ऐसा” शब्दों की व्याख्याएं भिन्न रूप से करनी होंगी।
‘अनुभूति’ में हमारी रुचि तो एक ''विशेष'' प्रकार की है। उदाहरणार्थ, इसमें ‘अनुभूति की कोटि’, उसका ‘स्थान’ और उसका किसी दूसरी अनुभूति में किसी हद तक विलय होने की सम्भावना सम्मिलित है। (जब कोई गतिविधि इतनी वेदनापूर्ण होती है कि उसी स्थान पर होने वाली अन्य संवेदना बिला जाती है, तो क्या इससे यह अनिश्चित हो जाता है कि आपने यह गतिविधि की भी थी या नहीं? क्या इससे आप कुछ खोजने को प्रेरित होते हैं?)
=== ix ===
अपनी व्यथा निहारने के लिए आप किन इन्द्रियों का प्रयोग करेंगे? व्यथा को ''अनुभव'' करने वाली किसी विशिष्ट इन्द्रिय का? उसको निहारते समय, क्या आपको उसका ''भिन्न रूप में'' अनुभव होता है? और आप कौन सी व्यथा को निहार रहे होते हैं — क्या उसी व्यथा को जो केवल निहारते समय ही होती है?
“निहारने से” निहारे जाने वाली विषय-वस्तु उत्पन्न नहीं होती। (यह एक संप्रत्ययात्मक कथन है।)
पुनः — निहारे जाने पर ही उत्पन्न होने वाली विषय-वस्तु को तो मैं नहीं ‘निहारता’। निहारने का विषय तो कुछ ''और'' ही होता है।
जो स्पर्श कल तक पीड़ादायक था, वही आज पीड़ादायक नहीं है।
आज तो मुझे पीड़ा केवल तभी होती है जब मैं उसके बारे में सोचता हूँ। (यानी, किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में।)
अब मेरी व्यथा वैसी नहीं है; एक वर्ष पहले तक जो स्मृति मुझे असहनीय थी अब असहनीय नहीं है।
यह निरीक्षण का परिणाम है।
हम कब कहते हैं कि कोई निरीक्षण कर रहा है? लगभग तब: जब वह स्वयं को ऐसी अनुकूल स्थिति में ले जाता है, जहाँ उसे कोई सूचना मिले, ताकि (उदाहरणार्थ) वह उनसे प्राप्त सूचना का विवरण दे सके।
लाल वस्तु देखने पर एक तरह की ध्वनि, पीली वस्तु को देखने पर दूसरी तरह की ध्वनि, और इसी प्रकार अन्य रंगों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनियाँ निकालने का प्रशिक्षण देने पर भी कोई व्यक्ति वस्तुओं का उनके रंगों द्वारा विवरण नहीं देगा। यद्यपि, वह हमें उनका विवरण देने में सहायक हो सकता है। विवरण तो दिक् में वितरण का चित्रण है। (उदाहरणार्थ, काल में)।
कमरे में चारों ओर निगाहें फिराते हुए अचानक जब मैं किसी चटख लाल वस्तु को देख कर कहता हूँ “लाल!” — तो वह कोई विवरण नहीं होता।
“मैं भयभीत हूँ” शब्द क्या किसी मनःस्थिति का विवरण हैं?
मैं कहता हूँ “मैं भयभीत हूँ”; कोई मुझे पूछता है: “क्या कहा? भय का चीत्कार; अथवा क्या तुम मुझे अपनी अनुभूति के बारे में बताना चाहते हो, अथवा क्या यह तुम्हारी वर्तमान स्थिति पर टिप्पणी है?” — क्या मैं उसे सदैव ही स्पष्ट उत्तर दे सकता हूँ? क्या मैं कभी भी उसे कोई उत्तर नहीं दे सकता?
यहाँ हम हर प्रकार की बातों की कल्पना कर सकते हैं, उदाहरणार्थ:
“नहीं, नहीं! मैं भयभीत हूँ!”
“मैं भयभीत हूँ। मुझे खेद है कि मुझे इसे स्वीकारना पड़ रहा है।”
“मैं अभी भी भयभीत हूँ, किन्तु पहले से कम।”
“मन ही मन मैं अभी भी भयभीत हूँ, किन्तु मैं स्वयं इसे स्वीकारूंगा नहीं।”
“मैं अपने आपको अनेक प्रकार की आशंकाओं से उत्पीड़ित करता रहता हूँ।”
“अब जबकि मुझे निडर होना चाहिए, मैं भयभीत हूँ!”
इनमें से प्रत्येक वाक्य के लिए कोई विशेष स्वराघात, और कोई भिन्न प्रसंग उचित है।
ऐसे लोगों की कल्पना करना सम्भव है जो हमसे कहीं अधिक अच्छी तरह विचार करते हों, और जहाँ हम केवल एक ही शब्द का प्रयोग करते हैं, वहाँ वे भिन्न-भिन्न शब्दों को प्रयोग करते हों।
हम पूछते हैं “‘मैं भयभीत हूँ’ इस का वास्तव में अर्थ क्या है, जब मैं इसे कहता हूँ तो मैं किसे इंगित करता हूँ?” और निस्संदेह हमें कोई उत्तर नहीं मिलता, अथवा अपर्याप्त उत्तर मिलता है।
प्रश्न तो यह है: “किस प्रकार के प्रसंग में ऐसा होता है?”
“मैं किसे इंगित कर रहा हूँ?” “इसे कहते हुए मैं क्या सोचता हूँ” इन प्रश्नों का, भय की अभिव्यक्ति को दोहरा कर, और ऐसा करते समय अपने पर भी ध्यान केन्द्रित करके, मानो कनखियों से मैं अपनी आत्मा को निहार रहा होऊँ, जब मैं उत्तर देने का प्रयत्न करता हूँ तो मैं उनका कोई उत्तर नहीं दे पाता। किसी वास्तविक स्थिति मैं वस्तुतः पूछ सकता हूँ “मैंने ऐसा क्यों कहा, इससे मेरा क्या तात्पर्य था?” — और मैं प्रश्न का उत्तर भी दे सकता हूँ; किन्तु वाणी के साथ-साथ होने वाली बातों के आधार पर तो नहीं। और मेरा उत्तर पहले वाले उच्चारण का पूरक होगा, उसका भावानुवाद होगा।
भय क्या होता है? “भयभीत होना” का क्या अर्थ है? यदि मैं ''एक ही बार'' में उसकी परिभाषा देना चाहूँ — तो मुझे भयभीत होने का ''अभिनय करना'' होगा।
क्या मैं आशा का भी इसी प्रकार निरूपण कर सकता हूँ? नहीं! और विश्वास का क्या होगा?
किसी विशिष्ट प्रसंग में ही मैं अपनी मनःस्थिति का (उदाहरणार्थ, भयभीत होने का) वर्णन करता हूँ। (वैसे ही जैसे किसी विशिष्ट प्रसंग में कोई क्रिया प्रयोग बन जाती है।)
तो क्या भिन्न खेलों में एक ही अभिव्यक्ति का प्रयोग विस्मयकारी है? और कभी-कभी तो खेलों को खेलते हुए भी?
क्या मैं सदैव ही सोद्देश्य वार्तालाप करता हूँ? — और क्या जो कुछ भी मैं कहता हूँ वह अर्थहीन होता है, क्योंकि मैं सोद्देश्य वार्तालाप नहीं करता?
जब अंत्येष्टि के समय कहा जाता है “हम अपने... के देहावसान पर शोक प्रकट करते हैं” तो निश्चित रूप से यह शोक की अभिव्यक्ति है; न कि उपस्थित लोगों को दी जाने वाली कोई सूचना। किन्तु कब्र पर की जाने वाली प्रार्थना में ये शब्द किसी को कुछ कहने के लिए प्रयोग किए जा सकते हैं।
किन्तु यहाँ एक समस्या है: चीत्कार, जिसे विवरण नहीं कहा जा सकता, जो कि किसी भी विवरण से कहीं अधिक आदिम है, फिर भी वह आन्तरिक जीवन के विवरण का कार्य करती है।
चीत्कार विवरण तो नहीं होता। किन्तु अपवाद तो होते हैं। और “मैं भयभीत हूँ” कमोबेश चीत्कार जैसा ही है। वे इसके अत्यंत समीप भी हो सकते हैं और इससे ''बेहद'' दूर भी।
किसी के अपने आपको वेदनाग्रस्त करने पर हम सदैव तो यह नहीं मानते कि वह ''विलाप'' कर रहा है। अतः, “मैं वेदनाग्रस्त हूँ” ये शब्द विलाप का चीत्कार भी हो सकते हैं, और कुछ और भी हो सकते हैं।
किन्तु यदि “मैं भयभीत हूँ” शब्द सदैव ही विलाप के चीत्कार नहीं होते, और हो भी सकते हैं, तो उनको ''सदैव'' ही मनःस्थिति का विवरण क्यों होना चाहिए?
=== x ===
“मुझे विश्वास है कि...” जैसी अभिव्यक्तियों का प्रयोग हमने कैसे आरम्भ किया? क्या हम किसी समय पर (विश्वास की) संवृत्ति से अवगत हुए?
क्या हमने स्वयं का और अन्य लोगों का प्रेक्षण किया और इस प्रकार विश्वास को खोजा?
मूअर के विरोधाभास को इस प्रकार कहा जा सकता है: “मेरा विश्वास है कि यह स्थिति है” इस अभिव्यक्ति का “यह स्थिति है” इस कथन के समान प्रयोग किया जाता है; और फिर भी इस ''प्राक्कल्पना'' का कि ‘मुझे विश्वास है कि यह स्थिति है’, ‘यह स्थिति है’ प्राक्कल्पना के समान प्रयोग नहीं किया जाता।
अतः, ऐसा ''प्रतीत होता है'' जैसे “मुझे विश्वास है” अभिव्यक्ति, “मुझे विश्वास है” प्राक्कल्पना में निहित अभिव्यक्ति का अभिकथन नहीं है!
इसी प्रकार: “मुझे विश्वास है कि वर्षा होगी” कथन का अर्थ कुछ ऐसा है, यानी, उसका प्रयोग कुछ ऐसा है, जैसे “वर्षा होने वाली है”, किन्तु “उस समय मुझे विश्वास था कि वर्षा होने वाली है” का अर्थ “उस समय वर्षा हुई” के समान नहीं होता।
“किन्तु ‘मुझे विश्वास था’ इस अभिव्यक्ति को भूतकाल में वही सूचना देनी चाहिए जो सूचना वर्तमान काल में ‘मुझे विश्वास है’ यह अभिव्यक्ति देती है!” — निश्चित रूप से <math>\sqrt{-1}</math> का −1 के संदर्भ में वही अर्थ होना चाहिए जो <math>\sqrt{-1}</math> का 1 के संदर्भ में होता है! इसका कुछ भी अर्थ नहीं होता।
“मूलतः, जब मैं कहता हूँ ‘मुझे विश्वास है कि...’ तो मैं अपनी मनःस्थिति का विवरण देता हूँ — किन्तु यह विवरण विश्वास किये जा रहे विषय का परोक्ष कथन होता है। — जैसे कई परिस्थितियों में, मैं किसी चित्र का विवरण उसमें चित्रित विषय के विवरण के लिए देता हूँ।
किन्तु फिर मैं यह भी कह सकता हूँ कि चित्र अच्छा है। अतः यहाँ भी: “मुझे विश्वास है कि वर्षा हो रही है और मेरा विश्वास प्रामाणिक है, अतः मैं इस बारे में आश्वस्त हूँ।” — उस स्थिति में मेरा विश्वास एक प्रकार का इन्द्रिय-संस्कार ही होगा।
अपनी इन्द्रियों पर तो अविश्वास किया जा सकता है किन्तु अपने विश्वास पर नहीं।
यदि कोई ऐसी क्रिया होती जिसका अर्थ ‘झूठमूठ विश्वास करना’ होता तो उसका कोई भी महत्त्वपूर्ण वर्तमानकालिक उत्तम पुरुष कर्ता नहीं होता।
यह कोई मामूली नहीं अपितु महत्त्वपूर्ण बात है कि “विश्वास करना”, “आकांक्षा करना”, “संकल्प करना” क्रियाओं का वही रूप होता है जो “काटना”, “चबाना”, “भागना” का होता है।
सूचना देने के भाषा-खेल को ऐसा बनाया जा सकता है कि सूचना, श्रोता को विषय-वस्तु की सूचना न देकर, सूचना देने वाले व्यक्ति के बारे में सूचित करे।
उदाहरणार्थ, अध्यापक द्वारा किसी शिष्य की परीक्षा लेते हुए ऐसा होता है। (आप माप दण्ड के परीक्षण के लिए उसी का माप ले सकते हैं।)
मान लीजिए कि मैं किसी अभिव्यक्ति को — उदाहरणार्थ, ‘मुझे विश्वास है’ को इस प्रकार प्रस्तुत करना चाहूँ: जो सूचनाएं सूचना देने वाले व्यक्ति के बारे में सूचित करने वाली हों उनमें, उस अभिव्यक्ति को सूचना से पहिले प्रयुक्त किया जाए। (ताकि इस अभिव्यक्ति में कोई अनिश्चितता ही न रहे। स्मरण रहे कि किसी कथन की अनिश्चितता को भाववाच्य में अभिव्यक्त किया जा सकता है: “वह आज आ सकता है”।) —
“मुझे विश्वास है कि..., किन्तु ऐसा है नहीं” यह अभिव्यक्ति तो वदतो व्याघात होगी। “मुझे विश्वास है...” मेरी मनःस्थिति पर प्रकाश डालता है। इस अभिव्यक्ति से मेरे व्यवहार के बारे में निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। अतः, यहाँ संवेगों, मनोदशाओं इत्यादि की अभिव्यक्तियों से ''समानता'' है।
बहरहाल, यदि “मुझे विश्वास है कि ऐसा है” यह वाक्य मेरी मनःस्थिति पर प्रकाश डालता है, तो “ऐसा है” इस कथन से भी वही होता है। क्योंकि “मुझे विश्वास है” संकेत ऐसा नहीं कर सकता, वह तो अधिकाधिक उसको इंगित ही कर सकता है।
ऐसी भाषा की कल्पना कीजिए जिसमें “मुझे विश्वास है कि ऐसा है” को “ऐसा है” कथन के स्वरोच्चारण द्वारा ही अभिव्यक्त किया जा सके। इस भाषा में, वे “उसे विश्वास है” नहीं कहते, अपितु “वह... कहने को प्रवृत्त है” कहते हैं, और उसमें “मान लीजिए कि मैं प्रवृत्त हूँ इत्यादि” हेत्वाश्रित (हेतुहेतुमद्) अभिव्यक्तियां होती हैं किन्तु “मैं कहने को प्रवृत्त हूँ” अभिव्यक्ति नहीं होती।
इस भाषा में मूअर का विरोधाभास नहीं होता; अपितु इसके स्थान परं एक ऐसी क्रिया होती है जिसमें एक रूप का अभाव होता है।
किन्तु इससे हमें चकित नहीं होना चाहिए। इस तथ्य पर विचार करें कि हम अपने आशय की अभिव्यक्ति द्वारा ''अपनी'' आगामी क्रिया की भविष्यवाणी कर सकते हैं।
मैं किसी अन्य के बारे में कहता हूँ “ऐसा प्रतीत होता है कि उसका विश्वास है कि...” और दूसरे लोग मेरे बारे में ऐसा ही कहते हैं। अब ऐसा क्यों है कि मैं अपने बारे में कदापि ऐसा नहीं कहता, उस समय भी नहीं जब दूसरे लोग मेरे बारे में ऐसा कहते हैं, और वे ''ठीक'' होते हैं। — तो क्या मैं स्वयं को न तो देखता हूँ और न ही सुनता हूँ? — यह कहा जा सकता है।
“अपने निश्चय का अनुभव अपने अन्तर्मन से होता है, उसका अनुमान हम अपने शब्दों से, अथवा उनके उच्चारण से नहीं लगाते।” — यहाँ सच तो यह है: हम अपने शब्दों से न तो अपने निश्चय का अनुमान लगाते हैं; न ही उन निश्चयों से प्रेरित कर्मों का।
“यहाँ ऐसा प्रतीत होता है मानो ‘मुझे विश्वास है’ कथन प्राक्कल्पना में निहित बात का कथन नहीं है।” — अतः, मैं क्रिया के उत्तम पुरुष वर्तमान काल को इंगित करने वाले रूप को खोजना चाहता हूँ।
इसके बारे में मैं मानता हूँ: विश्वास एक मनःस्थिति है। उदाहरणार्थ, इसकी अवधि होती है; और यह अवधि वाक्य में विश्वास की अभिव्यक्ति की अवधि पर निर्भर नहीं करती। अतः यह तो विश्वास करने वाले व्यक्ति का कोई स्वभाव होता है। किसी अन्य व्यक्ति के सन्दर्भ में मुझे इसका पता उसके व्यवहार, और उसके द्वारा प्रयुक्त शब्दों से चलता है। “मुझे विश्वास है कि...” इस कथन द्वारा, और साधारण कथन द्वारा भी, मुझे इस विषय के बारे में पता चलता है। — मेरे अपने सन्दर्भ में क्या होता है: अपने स्वभाव को मैं स्वयं कैसे पहचानता हूँ? — यहाँ औरों की तरह मुझे भी अपने आप पर ध्यान देना होगा, अपनी बात को खुद सुनना होगा, और अपने कथनों का स्वयं ही निष्कर्ष निकालना होगा!
मेरे शब्दों के साथ मेरे सम्बन्ध, और उन शब्दों के साथ अन्य लोगों के सम्बन्धों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है।
क्रिया-रूप का भिन्न विकास केवल तभी सम्भव होता, जब मैं कह सकता “मुझे प्रतीत होता है कि मुझे विश्वास है”।
यदि मैं अपने मुख के शब्दों को सुनता, तो हो सकता है कि मैं कहता कि मेरे मुख से कोई और बोल रहा है।
“अपने कथन के आधार पर, मैं ''इसमें'' विश्वास करता हूँ।” अब उन परिस्थितियों के बारे में सोचना सम्भव है, जिनमें इन शब्दों का अर्थ होगा।
और तब यह कहना भी सम्भव होगा “वर्षा हो रही है किन्तु मुझे विश्वास नहीं होता” अथवा “मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा अहं तो यह मानता है, किन्तु यह सत्य नहीं है।” चित्र को हमें ऐसे व्यवहार से भरना होगा जो यह इंगित करे कि व्यक्ति मेरे मुँह से बोल रहे हैं।
यहाँ तक कि ''प्राक्कल्पना'' का संरूप भी आपकी सोच जैसा नहीं होता।
जब आप कहते हैं “मान लीजिए मुझे विश्वास है कि...” तो आप “विश्वास करने” के सम्पूर्ण व्याकरण को मानते हैं, उस व्याकरण साधारण प्रयोग में तो आप निपुण हैं। — आप किसी ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं कर रहे जिसमें कोई स्पष्ट चित्र आपके सामने आता हो, ताकि इस काल्पनिक प्रयोग पर आप साधारण प्रयोग से भिन्न कोई निश्चयात्मक प्रयोग थोप सकें। — यदि आप “विश्वास करने” से पूर्वपरिचित नहीं हैं तो आपको यह किंचित भी पता नहीं चलेगा कि आप यहाँ क्या मान रहे थे (यानी, ऐसी मान्यता का क्या परिणाम होगा)।
“मैं कहता हूँ कि आज वर्षा होगी” इस अभिव्यक्ति में, “मैं कहता हूँ.....” पर विचार करने से यह पता चलेगा कि इसका अर्थ तो “आज... होगी” कथन के समान है। “वह कहता है कि आज... होगी” का लगभग यही अर्थ है कि “उसे विश्वास है कि आज... होगी”। “मान लीजिए मैं कहता हूँ कि...” का यह अर्थ ''नहीं'' होता: मान लीजिए आज वर्षा होगी।
यहाँ भिन्न प्रत्ययों का समागम होता है और यह समागम काफी देर चलता रहता है। किन्तु आपको सभी रेखाओं को ''वृत्त'' के रूप में समझने की आवश्यकता नहीं है।
“हो सकता है कि वर्षा हो रही हो, किन्तु वर्षा नहीं हो रही” इस ऊलजलूल वाक्य पर विचार कीजिए।
और यहाँ पर हमें “हो सकता है वर्षा हो रही हो” इस वाक्य का “मुझे विश्वास है कि वर्षा हो रही होगी” यह अर्थ लगाने से बचना चाहिए। इससे उलट क्यों नहीं हो सकता, उत्तरोक्त का अर्थ पूर्वोक्त क्यों नहीं हो सकता?
किसी संकोच पूर्ण कथन को संकोच का कथन न मानिए।
=== xi ===
“देखना” शब्द के दो प्रयोग।
पहला: “आप वहाँ क्या देखते हैं?” — “मैं ''यह'' (और फिर कोई विवरण, कोई रेखांकन, कोई नकल) देखता हूँ”। दूसरा: “मैं इन दोनों चेहरों में समानता देखत हूँ” — मैं यह बात उस व्यक्ति को कहता हूँ जो मेरी तरह दोनों चेहरों को देख रहा है।
दोनों दृश्यमान ‘विषयों’ में जाति-भेद बताने के लिए यह महत्त्वपूर्ण है।
एक व्यक्ति तो दोनों चेहरों का यथार्थ चित्र बना सकता है, और दूसरा उन चित्रों में उस समानता को देख सकता है जिसे पहले वाले ने देखा ही नहीं।
मैं किसी चेहरे की कल्पना करता हूँ और फिर अचानक किसी अन्य चेहरे से उसकी तुलना करने लगता हूँ। मैं जानता हूँ कि उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है; पर फिर भी मैं उसे भिन्न रूप में देखता हूँ। मैं इस अनुभव को “किसी पक्ष की ओर ध्यान देना” कहता हूँ।
इसके ''कारणों'' में मनौविज्ञानिकों की रुचि है।
हमारी रुचि इस प्रत्यय, और अनुभव के प्रत्ययों में इसके स्थान में है।
आप कल्पना कर सकते हैं कि यह चित्र
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किसी पुस्तक में, उदाहरणार्थ, किसी पाठ्य-पुस्तक में, अनेक स्थानों पर आता है। जहाँ भी यह चित्र आता है वहाँ पाठ्य सामग्री में भिन्न विषय-वस्तु की चर्चा होती है: कहीं किसी शीशे के घन की, कहीं उल्टे खुले डिब्बे की, कहीं घनाकार तारों से बने ढाँचे की, कहीं तीन तख्तों से निर्मित घन-कोण की। हर बार पाठ्य-सामग्री चित्र की व्याख्या देती है।
किन्तु हम भी चित्र को कभी तो एक रूप में और कभी दूसरे रूप में ''देख'' सकते हैं — अतः, हम उसको व्याख्यायित करते हैं, और ''ऐसा'' करते हुए उसे ''देखते'' हैं।
सम्भवतः यहाँ हम उत्तर देना चाहें: हमें तत्काल होने वाले चाक्षुष अनुभव का, व्याख्या द्वारा विवरण—तो परोक्ष विवरण है। “मुझे आकृति डिब्बे जैसी दिखती है” इसका अर्थ है: मुझे ऐसा चाक्षुष अनुभव हो रहा है जो आकृति की व्याख्या डिब्बे के रूप में देते समय, अथवा डिब्बे को देखते समय मुझे सर्वदा होता है। किन्तु यदि इसका यह अर्थ होता, तो मुझे इसकी जानकारी अनिवार्यतः होती। मुझे न केवल अनुभव को अपरोक्ष रूप से इंगित करने के योग्य होना चाहिए बल्कि उसे परोक्ष रूप से इंगित करने में भी समर्थ होना चाहिए। (जैसे मैं लाल रंग का उल्लेख उसे खून का रंग कहे बिना भी कर सकता हूँ।)
मैं जॅस्ट्रो<ref>''फैक्ट एंड फ़ेबल इन साइकोलॉजी''।</ref> की निम्नांकित रेखाकृति को बत्तख-खरगोश कहूँगा। इसे बत्तख, अथव खरगोश के सिर के समान देखा जा सकता है।
[[File:144,24v.png|100px|center|class=img-slightly-comfy]]
और मुझे किसी पक्ष के ‘निरंतर देखने’ और उसके ‘उजागर होने’ में भेद करना होगा।
हो सकता है कि चित्र मुझे दिखाया गया हो, और मैंने उसमें खरगोश के सिवा कभी कुछ भी न देखा हो।
यहाँ चित्र-विषय के प्रत्यय को प्रयुक्त करना लाभदायक है। उदाहरणार्थ, नीचे चित्रित आकृति
[[File:144,25r.png|45px|center|class=img-slightly-comfy]]
एक ‘चित्र-मुख’ होगा।
कुछ मामलों में इसके प्रति मेरा रुख मनुष्यों के चेहरे जैसा होता है। मानव मुखाकृति के समान मैं इसके भावों को पढ़ सकता हूँ। उन पर प्रतिक्रिया कर सकता हूँ। शिशु, चित्र-व्यक्ति, अथवा चित्र-पशु से वार्तालाप कर सकता है, उनसे गुड़ियों की तरह खेल सकता है।
सम्भव है मैंने बत्तख-खरगोश को शुरू से ही चित्र-खरगोश के रूप में देखा हो। यानी, यदि मुझसे पूछा जाता “वह क्या है?” अथवा “आपको यहाँ क्या दिखाई देता है?”, तो मैं उत्तर देता : “चित्र-खरगोश”। यदि मुझे फिर पूछा जाता कि वह है क्या, तो मैं खरगोशों के भिन्न प्रकार के चित्रों को इंगित करके, सम्भवतः वास्तविक खरगोशों को इंगित करके, उनकी आदतों का उल्लेख करके, अथवा उनकी नकल करके इसकी व्याख्या देता।
“आप को यहाँ क्या दिखाई देता है?” इस प्रश्न का उत्तर मैं यह कह कर नहीं देता: “अब मैं इसे चित्र-खरगोश के समान देखता हूँ”। मैं तो अपने चाक्षुष प्रत्यक्ष का विवरण देता: मेरे इस कथन की तरह: “मुझे वहाँ एक लाल वृत्त दिखाई देता है।” —
फिर भी कोई अन्य व्यक्ति मेरे बारे में कह सकता है: “वह आकृति को चित्र-खरगोश के समान देख रहा है।”
“अब मैं इसे.... के समान देख रहा हूँ”, मेरे इस कथन का उतना ही अर्थ होता है जितना छुरी और काँटा देखने पर मेरे इस कथन का “अब मैं इसे छुरी और काँटे के समान देख रहा हूँ।” यह अभिव्यक्ति समझी नहीं जा सकती। — इससे अधिक नहीं: “अब यह काँटा है”, अथवा “यह काँटा भी हो सकता है”।
खाने की मेज पर रखे छुरी-काँटों को हम छुरी-काँटे जैसा नहीं ''समझते'', जैसे कि साधारणतया खाते समय हम अपना मुँह चलाने का प्रयत्न नहीं करते, अथवा उसे चलाना हमारा ध्येय नहीं होता।
यदि आप कहें “अब यह मुझे मुख लगता है”, हम पूछ सकते हैं: “आप किन परिस्थितियों की बात कर रहे हैं?”
मैं दो चित्र देखता हूँ, एक में तो बत्तख-खरगोश चारों ओर से खरगोशों से घिरा है, और दूसरे में बत्तखों से। मैं इस बात पर ध्यान नहीं देता कि वे एक ही हैं। क्या इससे यह ''निष्कर्ष निकाला'' जा सकता है कि दोनों स्थितियों में मैं भिन्न विषय-वस्तु ''देखता'' हूँ? — इसी कारण इस अभिव्यक्ति को हम यहाँ प्रयुक्त करते हैं।
“मैंने इसे नितान्त भिन्न रूप में देखा, मैं तो इसे कभी भी पहचान ही नहीं सकता था!” यह तो विस्मयादिबोधक है। और इसका औचित्य भी है।
मैं बत्तख और खरगोश के सिरों को एक दूसरे पर इस प्रकार अध्यारोपित करने, उनमें ''ऐसी'' समानता के बारे में सोच भी नहीं सकता था। क्योंकि, उनसे किसी और तुलनात्मक कसौटी का पता चलता है।
न ही सिर को ''इस'' प्रकार या ''उस'' प्रकार देखने में कोई समानता है — यद्यपि वे समनुरूप हैं।
मुझे चित्र-खरगोश दिखाया जाता है, और पूछा जाता है कि वह क्या है; मैं कहता हूँ “यह खरगोश है”। न कि “अब यह खरगोश है”। मैं अपने चाक्षुष प्रत्यक्ष को बता रहा हूँ — मुझे बत्तख-खरगोश दिखाया जाता है, और पूछा जाता है कि यह क्या है; मैं कह ''सकता'' हूँ “यह बत्तख-खरगोश है”। किन्तु, इस प्रश्न पर मेरी प्रतिक्रिया भिन्न भी हो सकती है। — यह उत्तर, कि वह बत्तख-खरगोश है, तो मेरी चाक्षुष प्रत्यक्ष की सूचना है; “अब यह खरगोश है” उत्तर तो सूचना नहीं होती। यदि मैंने “यह खरगोश है” उत्तर दिया होता तो मैं अस्पष्ट बात कहने से बच जाता, और ऐसा कहकर अपने प्रत्यक्ष बोध की सूचना देता।
दृष्टिकोण में परिवर्तन। “किन्तु निःसंदिग्ध रूप से आप कहेंगे कि चित्र तो अब पूर्णतः भिन्न है!”
किन्तु भिन्न क्या है: मेरा संस्कार? मेरा दृष्टिकोण? — क्या मैं कह सकता हूँ? परिवर्तन का मैं चाक्षुष प्रत्यक्ष के समान ''विवरण'' देता हूँ; मानो विषय-वस्तु मेरी आँखों के सामने ही परिवर्तित हुई हो।
(उदाहरणार्थ, किसी अन्य चित्र को इंगित करते हुए) मैं कह सकता हूँ “अब मैं इसे देख सकता हूँ”। यह नये चाक्षुष प्रत्यक्ष की सूचना जैसा है। दृष्टिकोण में परिवर्तन की अभिव्यक्ति तो ''नए'' चाक्षुष प्रत्यय की अभिव्यक्ति होती है, और साथ ही साथ चाक्षुष प्रत्यय के अपरिवर्तित होने की अभिव्यक्ति भी।
प्रहेलिका-चित्र का समाधान मुझे अचानक सूझ जाता है। पहले वहाँ टहनियाँ थीं; अब वहाँ मनुष्य का चेहरा है। मेरे चाक्षुष संस्कार परिवर्तित हो गये हैं, और अब मैं जा गया हूँ कि इसमें मात्र आकृति एवं रंग ही नहीं हैं, अपितु एक विशिष्ट ‘संरचना’ भी है। — मेरा चाक्षुष संस्कार परिवर्तित हो गया है; — पहले यह कैसा था और अब यह कैसा है? — यदि मैं इसकी हूबहू नकल करूं — तो क्या वह इसका अच्छा चित्र नहीं होगा? — कोई भी परिवर्तन दिखाया नहीं जाता।
और यह कहें ही ''नहीं'' “मेरा चाक्षुष संस्कार, ''चित्र'' तो नहीं होता; वह ''यह'' — होता है जिसे मैं किसी को भी नहीं दिखा सकता।” — निस्संदेह वह चित्र नहीं होता, किन्तु न ही यह वैसा कुछ होता है जिसे मैं अपने साथ लेकर चलता हूँ।
‘आन्तरिक चित्र’ का प्रत्यय भ्रांतिपूर्ण होता है, क्योंकि यह प्रत्यय ‘''बाह्य'' चित्र’ को अपना आदर्श मानता है; और फिर भी इन प्रत्ययों के लिए प्रयुक्त शब्दों के प्रयोग एक दूसरे से उतने ही भिन्न होते हैं जितने कि ‘संख्या’ और ‘संख्यांक’ के प्रयोग। (और यदि कोई अंकों को ‘आदर्श संख्यांक’ कहना चाहे तो उसे इसी प्रकार की भ्रान्ति होगी।)
यदि आप चाक्षुष संस्कार की ‘संरचना’ को रंगों एवं आकृतियों के बराबर रखेंगे, तो आपको चाक्षुष संस्कार के प्रत्यय को आन्तरिक विषय के समान मानना होगा। निस्संदेह, इससे यह विषय-वस्तु एक काल्पनिक धारणा; विचित्र मरु-मरीचिका बन जाती है। क्योंकि चित्र के साथ समानता अब क्षीण हो जाती है।
यदि मैं जानता हूँ कि घन की रूपरेखा के अनेक पक्ष हैं, और मैं यह भी जानना चाहता हूँ कि किसी अन्य व्यक्ति को वह कैसी दिखाई देती है, तो मैं उसे उसके चाक्षुष प्रत्यक्ष का नमूना बनाने के साथ-साथ उसकी एक नकल बनाने को कह सकता हूँ, अथवा ऐसे नमूने को इंगित करने को कह सकता हूँ; यद्यपि उसे दोनों विवरण पूछने के मेरे उद्देश्य के बारे में कुछ भी पता नहीं होता।
किन्तु जब हम परिवर्तनशील दृष्टिकोण की बात करते हैं, तो स्थिति बदल जाती है। अब हमारे अनुभव की सम्भावित अभिव्यक्ति तो वही है जो पहले हमें एक नकल, एक निरर्थक निर्देश, प्रतीत होती थी, और थी भी।
इससे ‘संरचना’ और चाक्षुष संस्कार के रंग और आकृति की तुलना समाप्त हो जाती है।
बत्तख-खरगोश को खरगोश के समान देखने पर मुझे दिखा: ये आकृतियाँ और रंग (मैं उनका विस्तृत विवरण देता हूँ) — और इसके साथ-साथ मैंने यह भी देखा: और यहाँ मैं खरगोशों के विभिन्न चित्रों को इंगित करता हूँ। — इससे प्रत्ययों में भेद का पता चलता है।
‘..... के समान देखना’ तो चाक्षुष प्रत्यक्ष का अंग नहीं होता। और इसी कारण यह देखने के समान होता भी है, और नहीं भी।
किसी पशु को देखने पर मुझसे पूछा जाता है: “आप क्या देख रहे हैं?” मैं उत्तर देता हूँ: “खरगोश”। — मैं किसी भूदृश्य को देखता हूँ; अचानक एक खरगोश मैदान दौड़ता है। मैं चिल्लाता हूँ “खरगोश!”
दोनों बातें, सूचना और विस्मयादिबोधक दोनों ही चाक्षुष प्रत्यक्ष और चाक्षुष की अभिव्यक्तियाँ हैं। किन्तु, विस्मयादिबोधक, सूचना से भिन्न अर्थ में ऐसी अभिव्यक्ति है: उसके लिए हम विवश हैं। — उसका अनुभव से वही संबंध है, जो चीत्कार का वेदना से।
किन्तु क्योंकि वह चाक्षुष प्रत्यक्ष का विवरण है, उसे चिंतन की अभिव्यक्ति भी कहा जा सकता है। — यदि आप विषय-वस्तु को देख रहे हैं, तो आपको उसके बारे में सोचने की आवश्यकता नहीं होती; किन्तु यदि आपको विस्मयादिबोधक द्वारा अभिव्यक्त चाक्षुष अनुभव हो रहा है, तो आप दृश्य-पदार्थ के बारे में ''सोच'' भी रहे होते हैं।
अतः ऐसा प्रतीत होता है कि किसी पक्ष के यकायक सूझ जाने में चाक्षुष अनुभव और चिंतन का मिश्रण होता है।
किसी को यकायक कुछ ऐसा दृष्टिगोचर होता है जिसे वह नहीं पहचानता (यह कोई असाधारण स्थिति, अथवा प्रकाश में पड़ी हुई, कोई परिचित वस्तु हो सकती है); उसे न पहचानने की स्थिति सम्भवतः कुछ ही क्षणों के लिए रहती है। क्या यह कहना उचित है कि उसे उस वस्तु के एकदम पता चल जाने वाले लोगों से भिन्न चाक्षुष अनुभव होता है?
क्योंकि, क्या यह सम्भव नहीं कि कोई दृश्यमान अपरिचित आकृति का उतना ही ''यथार्थ'' विवरण दे सके जितना उस आकृति से परिचित मैं दे सकता हूँ? और क्या यही उत्तर नहीं है? — निस्संदेह साधारणतः ऐसा नहीं होता। और उसका विवरण बिल्कुल भिन्न होता है। (उदाहरणार्थ, मैं कहता हूँ “उस पशु के लम्बे कान थे” — वह कहता है “उसके दो लम्बे उपांग थे,” और फिर वह उनका चित्र बनाता है।)
मैं वर्षों बाद किसी व्यक्ति से मिलता हूँ; मैं उसे भरपूर देखता हूँ, किन्तु उसे पहचान नहीं पाता। अचानक मैं उसे पहचान जाता हूँ, बदली हुई मुखाकृति में मुझे उसका पुराना चेहरा दिखाई देता है, मुझे लगता है कि यदि मैं चित्र बना सकूँ तो अब मुझे उसका भिन्न रूपचित्र (पोर्टेट) बनाना होगा।
और जब मैं अपने परिचित व्यक्ति को भीड़ में सम्भवतः कुछ देर उसकी ओर देखकर पहचानता हूँ — तो क्या यह विशेष प्रकार का देखना होता है? क्या यह देखने और सोचने दोनों की स्थिति है? अथवा, क्या यह कहना होगा कि यह दोनों के मिश्रण की स्थिति है?
प्रश्न यह है: हम ऐसा ''क्यों'' कहना चाहते हैं?
यह अभिव्यक्ति, जो दृश्य-पदार्थ की सूचना भी देती है, तो पहचान की हर्षाभिव्यक्ति है।
चाक्षुष अनुभव की क्या कसौटी है? — कसौटी? आपका आशय?
‘दृश्य-पदार्थ’ का चित्रण
नकल के समान, दृश्य-पदार्थ के चित्रण का प्रत्यय अत्यधिक लचीला होता है, और इसीलिए ''इसके साथ-साथ'' दृश्य-पदार्थ का प्रत्यय भी। दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। (इसका अर्थ यह ''नहीं'' है कि वे एक जैसे हैं।)
हम कैसे कहते हैं कि मनुष्य त्रिआयामों में ''देखते'' हैं? — मैं किसी से उसे दिखाई देने वाले क्षेत्र का विवरण पूछता हूँ। “क्या वह इस प्रकार का है?” (मैं उसे अपने हाथ के इशारे से दिखाता हूँ) — “हाँ” — “तुम कैसे जानते हो?” — “धुंध नहीं है, मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है।” — वह अटकल लगाने के कारण नहीं बताता। हमारे लिए यह स्वाभाविक ही है कि दृश्य-पदार्थ का हम त्रि-आयामी चित्र बनाते हैं; द्वि-आयामी शब्दचित्र, या रेखाचित्र बनाने के लिए विशेष प्रशिक्षण एवं अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। (बच्चों के रेखांकन का अटपटापन)
जब कोई किसी स्मित-हास को देखता है, किन्तु उसे स्मित हास नहीं मानता, उसे स्मित-हास जैसा नहीं समझता, तो क्या वह स्मित-हास को उसे स्मित-हास समझने वाले व्यक्ति से भिन्न रूप में समझता है? — उदाहरणार्थ, वह उसकी अलग तरह से नकल करेगा।
किसी मुखाकृति के चित्र को उल्टा पकड़ें, तो आप चेहरे के भावों को पहचान नहीं सकेंगे। सम्भवतः, आप यह देख सकें कि वह मुस्कुरा रहा है, किन्तु आप यह न देख पायें कि वह मुस्कुराहट ''कैसी'' है। आप मुस्कुराहट की नकल नहीं कर सकते। अथवा उसका यथार्थ विवरण नहीं दे सकते।
और फिर भी सम्भव है कि जिस चित्र को आपने उल्टा किया है, वह किसी व्यक्ति के चेहरे का यथार्थ चित्रण हो।
आकृति (क) [[File:144,28v-1.png|30px|class=img-slightly-comfy]] आकृति (ख) [[File:144,28v-2.png|30px|class=img-slightly-comfy]] से उल्टी है।
जैसे कि (ग) प्रसन्नता (घ) तानन्सप्र का उलट है। किन्तु — मैं कहना चाहता हूँ — (ग) और (घ) के मेरे संस्कार का भेद (क) और (ख) के संस्कार-भेद से भिन्न है। उदाहरणार्थ, (घ), (ग) से अधिक व्यवस्थित लगता है। (लुइस कैरोल की टिप्पणी से तुलना कीजिए।) (ग) की नकल करना आसान है, जबकि (घ) की मुश्किल।
बत्तख-खरगोश चित्र का आड़े-तिरछे रेखांकन में छुपे होने की कल्पना कीजिए। और अचानक मैं इस चित्र को देखता हूँ किन्तु मैं उसको खरगोश के सिर के रूप में ही पहचानता हूँ। कुछ समय पश्चात् मैं उसी चित्र को देखता हूँ, और उसी आकृति को देखता हूँ, बिना यह जाने कि दोनों बार एक ही आकृति थी, अब उसे मैं बत्तख के रूप में देखता हूँ, — यदि बाद में मुझे ''पक्ष-परिवर्तन का पता चल जाता है'' — तो क्या मैं कह सकता हूँ कि आड़े-तिरछे रेखांकन में पृथक-पृथक देखने की अपेक्षा बत्तख-पक्ष और खरगोश-पक्ष को अब मैं नितान्त भिन्न ढंग से देखता हूँ? नहीं।
किन्तु परिवर्तन, पहचान से भिन्न विस्मय को उत्पन्न करता है।
जब आप आकृति (1) में किसी अन्य आकृति (2) को खोजते हैं, और उसे पा लेते हैं तो आप (1) को नए ढंग से देखते हैं। आप केवल नवीन विवरण ही नहीं देते, अपितु आपको दूसरी आकृति को देखने का नवीन चाक्षुष अनुभव होता है।
किन्तु जरूरी नहीं कि आप यह कहें “आकृति (1) अब नितान्त भिन्न प्रतीत होती है; समनुरूप होने के बावजूद भी यह बिल्कुल ही उस आकृति से नहीं मिलती जिसे मैंने पहले देखा था।”
यहाँ पर अनेकानेक परस्पर सम्बन्धित संवृत्तियां और सम्भावित प्रत्यय हैं।
तो क्या आकृति की नकल मेरे चाक्षुष अनुभव का ''अधूरा'' विवरण है? — नहीं। — किन्तु अनिवार्य विस्तृत विनिर्देशों का तो परिस्थितियों से ही पता चलता है। यह अधूरा विवरण हो ''सकता'' है; यदि अभी भी कोई जिज्ञासा बची हो तो।
निस्संदेह, हम कह सकते हैं: कुछ ऐसी बातें हैं जो ‘चित्र-खरगोश’ और ‘चित्र-बत्तख’ दोनों के अन्तर्गत आती हैं। कोई चित्र, कोई रेखांकन ऐसी ही बात है। — किन्तु चित्र-बत्तख और चित्र-खरगोश का ''संस्कार'' तो हमें एक साथ नहीं होता।
“''दृश्य-पदार्थ'' तो निश्चित रूप से मेरे भीतर वाले पदार्थ के प्रभाव से ही उत्पन्न होता है” — मेरे भीतर तो एक प्रकार की नकल पैदा होती है, जो द्रष्टव्य है, प्रत्यक्ष है, किसी ''मूर्तीकरण'' के समान।
और यह मूर्तीकरण स्थानिक होता है और इसका विवरण विशुद्ध स्थान-सम्बन्धी शब्दों में देना सम्भव होना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि मुखाकृति है तो वह मुस्कुरा सकती है; बहरहाल मित्रता के प्रत्यय का इस विवरण में कोई स्थान नहीं है, अपितु वह तो इसके लिए ''अनजान'' है (चाहे वह उसका साधन हो)।
यदि आप मुझसे पूछें कि मैंने क्या देखा तो सम्भव है कि मैं ऐसा चित्र बनाऊँ जिससे आप समझ जाएं; किन्तु मुझे यह याद नहीं रहता कि मैंने उसे किस तरह देखा था।
‘देखने’ का प्रत्यय जटिल संस्कार डालता है। हाँ, यह जटिल तो है। — मैं भूदृश्य को देखता हूँ, मेरी दृष्टि उस पर पड़ती है, मुझे कई तरह की स्पष्ट एवं अस्पष्ट गतिविधियाँ दिखाई देती हैं; ''यह'' गतिविधि तीव्रता से मुझे प्रभावित करती है, ''वह'' गतिविधि अस्पष्ट है। अन्ततः, दृश्य-पदार्थ कितने भोंडे प्रतीत हो सकते हैं! “दृश्य-पदार्थ का विवरण” इस अभिव्यक्ति के कितने अर्थ हो सकते हैं, इस पर अब ध्यान दें। — किन्तु इसी को तो दृश्य-पदार्थ का विवरण कहते हैं। ऐसे विवरण का ''एक भी मौलिक'' उचित उदाहरण नहीं है — हमें उपलब्ध उदाहरण तो अस्पष्ट हैं, उनके स्पष्टीकरण की आवश्यकता है, अथवा उन्हें कूड़ा समझकर फेंक ही देना चाहिए।
यहाँ सूक्ष्म भेद के पचड़े में हमारे उलझने का खतरा है। भौतिक विषय के प्रत्यय को ‘दृश्य-पदार्थ’ के रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न करने पर यही स्थिति होती है। — वस्तुतः हमें आम भाषा-खेल को ''स्वीकार'' करना चाहिए और विवरण की असत्य बातों को असत्य ''ही'' समझना चाहिए। शिशुओं को सिखाए जाने वाले आदिम भाषा-खेल के औचित्य की आवश्कता नहीं होती; उनके औचित्य के प्रयासों को छोड़ देना चाहिए।
उदाहरणार्थ, त्रिकोण के पक्षों को लें। इस त्रिकोण —
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को त्रिकोणात्मक छिद्र के समान, ठोस वस्तु के समान, ज्यामितीय चित्र के समान; अपने आधार पर स्थित होने के समान, चोटी से लटकी हुई वस्तु के समान; पर्वत के समान, फॉन के समान, तीर अथवा संकेतक के समान, उस गिरी हुई वस्तु के समान जिसे समकोण की छोटी भुजा पर खड़ा होना चाहिए था, अर्ध-समांतर चतुर्भुज के समान, और अन्य अनेक वस्तुओं के समान देखा जा सकता है।
“जब आप उसे देखते हैं, तो आप कभी ''इस'' के बारे में, कभी ''उस'' के बारे में सोच सकते हैं, और इसे कभी ''यह'', कभी ''वह'' समझ सकते हैं, और तब आप इसे कभी तो ''इस'' ढंग से, कभी ''उस'' ढंग से देखेंगे।” — ''कौन'' से ढंग से? कोई और परिसीमन नहीं है।
किन्तु किसी वस्तु को किसी ''व्याख्या'' के अनुसार ''समझना'' कैसे सम्भव है? — यह प्रश्न इसे अटपटे तथ्य के रूप में प्रस्तुत करता है; मानो किसी वस्तु को ऐसे आकार में डाला जा रहा हो जो उसके अनुरूप नहीं हो। किन्तु यहाँ तो कोई ठेल-ठाल, कोई जोर-जबरदस्ती ही नहीं।
जब ऐसे आकार के लिए दूसरों के मध्य कोई स्थान दिखाई देता नहीं प्रतीत होता, तो आपको उसके लिए किसी अन्य आयाम को खोजना पड़ता है। यदि यहाँ स्थान नहीं है, तो अन्य आयाम में तो स्थान ''है''।
(इसी अर्थ में वास्तविक अंकों की श्रृंखला में काल्पनिक अंकों के लिए कोई स्थान नहीं है। किन्तु इसका अर्थ है: काल्पनिक अंकों के प्रत्यय के प्रयोग, संगणना से पता चलने वाले वास्तविक अंकों के प्रयोगों से कहीं कम सदृश हैं। प्रयोग पर आना अनिवार्य है, और फिर प्रत्यय को भिन्न स्थान मिल जाता है, उदाहरणार्थ, कोई ऐसा स्थान जिसकी हमने कभी कल्पना ही नहीं की होती।)
निम्नलिखित विवरण कैसा रहेगा: “वस्तु को मैं ''जिस रूप'' में देखता हूँ, वह उसी का चित्र होता है!”
इसका अर्थ है: पक्षों में परिवर्तन के पक्ष तो वही होते हैं जो चित्र की आकृतियों में ''स्थायी'' रूप से कभी-कभी पाए जा सकते हैं।
वस्तुतः त्रिकोण किसी एक चित्र में ''खड़ा'' हो सकता है, अन्य चित्र में लटका हुआ हो सकता है, और किसी अन्य चित्र में ऐसी वस्तु हो सकता है जो गिरी हुई हो। — यानी, मैं इसे देखकर यह नहीं कहता “यह कोई ऐसी वस्तु हो सकती है जो गिर गई है”, अपितु कहता हूँ “शीशा गिर गया है, और उसके टुकड़े वहाँ पड़े हैं”। चित्र पर हमारी प्रतिक्रिया ऐसी होती है।
क्या मैं कह सकता हूँ कि ऐसा प्रभाव डालने के लिए चित्र को कैसा होना चाहिए? नहीं। उदाहरणार्थ, चित्रण की ऐसी शैलियां होती हैं जिनसे मुझे इससे तात्कालिक ढंग से कोई सूचना नहीं मिलती, किन्तु अन्य लोगों को कोई सूचना तत्काल मिलती है। मेरे विचार में रीति-रिवाज एवं पालन-पोषण से ऐसा होता है।
यह कहने का क्या अर्थ है कि चित्र में मैं ''‘गोले को हवा में तैरता हुआ’ देखता हूँ''?
क्या यह कहना पर्याप्त है कि यह विवरण तत्काल सूझता है, और यह सीधा-सादा भी है? नहीं क्योंकि ऐसा विभिन्न कारणों से हो सकता है। उदाहरणार्थ, यह मात्र परंपरागत विवरण हो सकता है।
उदाहरणार्थ, मेरे द्वारा चित्र को मात्र इस प्रकार न समझने की, बल्कि इस प्रकार ''देखने की'' अभिव्यक्ति कौन सी होगी (यह जानते हुए कि इसे कैसा होना ''चाहिए'')? — इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया जाता है: “गोला तैरता हुआ प्रतीत होता है”, “आप को यह तैरता हुआ दिखता है”; अथवा पुनः विशिष्ट स्वराघात के साथ: “यह तैर रहा है!”
तो, यह किसी विषय-वस्तु को उस विषय-वस्तु के समान समझने की अभिव्यक्ति है। किन्तु इस प्रकार प्रयुक्त होने की नहीं।
यहाँ हम स्वयं से यह नहीं पूछ रहे कि किसी विशिष्ट स्थिति में यह संस्कार कैसे उत्पन्न होता है; इसके कौन से कारण हैं।
और क्या यह विशेष संस्कार ''है''? — “जब मैं इस गोले को तैरते हुए देखता हूँ और जब मैं इसे कहीं पड़े हुए देखता हूँ, तो दोनों स्थितियों में मैं ''कुछ भिन्न'' देखता हूँ।” — वास्तव में इसका अर्थ है: इस अभिव्यक्ति का औचित्य है! — (क्योंकि, अक्षरशः इसमें दुहराने से अधिक कुछ भी नहीं।)
(पर फिर भी मेरा संस्कार वास्तविक तैरते हुए गोले का तो नहीं है। त्रि-आयामी अवलोकन के विभिन्न आकार होते हैं। चित्र के त्रि-आयामी गुण, और स्टीरीयोस्कोप (घन-चित्र-दर्शक यंत्र) से दिखाई देने वाले त्रि-आयामी गुण।)
“और क्या वास्तव में यह भिन्न संस्कार है?” — इसका उत्तर देने के लिए मुझे अपने आप पूछना चाहिए कि क्या वास्तव में मेरे अन्तर्मन में कुछ भिन्न होता है। किन्तु यह मैं कैसे पता कर सकता हूँ? — दृश्य-पदार्थ का मैं भिन्न प्रकार का ''विवरण'' देता हूँ।
कुछ आकृतियाँ हमें सदैव चपटी दिखाई देती हैं, और दूसरी आकृतियाँ यदा-कदा, अथवा सदैव, त्रि-आयामी दिखाई देती हैं।
यहाँ, अब हम कहना चाहेंगे: त्रि-आयामी रूप में दिखाई देने वाले पदार्थों का चाक्षुष संस्कार त्रि-आयामी होता है; उदाहरणार्थ, समाकृतिक घन का चाक्षुष संस्कार घन होता है। (क्योंकि संस्कार का विवरण तो घन का विवरण ही होता है।)
और यह विचित्र ही है, कि कुछ आरेखनों का हमारा संस्कार चपटा होता है और कुछ अन्य आरेखनों का त्रि-आयामी। हम अपने आप से पूछते हैं “इसका अन्त कहाँ होगा?”
जब मैं किसी सरपट दौड़ते हुए घोड़े का चित्र देखता हूँ — तो क्या मैं ''जान जाता हूँ'' कि इस प्रकार की क्रिया दिखाई जा रही थी? चित्र में मैं सरपट भागते हुए घोड़े को ''देखता'' हूँ, यह सोचना क्या अन्धविश्वास है? — और क्या मेरा चाक्षुष संस्कार भी सरपट भागता है?
“अब मैं इसे... के समान देखता हूँ”, ऐसा कह कर कोई मुझे क्या बताता है? इस सूचना के क्या परिणाम हैं? मैं इसका क्या कर सकता हूँ?
लोग स्वर-वर्णों के साथ बहुधा रंगों को सम्बद्ध करते हैं। सम्भव है कि बार-बार दोहराने से किसी स्वर-वर्ण का रंग बदल जाये। उदाहरणार्थ, अ ‘कभी नीला लगे — कभी लाल’।
“अब मैं इसे... के समान देखता हूँ” अभिव्यक्ति का हमारे लिए “अब अ मुझे लाल लगता है” इससे अधिक कोई महत्त्व नहीं है।
(भौतिक निरीक्षण के साथ जुड़ने पर हमारे लिए यह परिवर्तन भी महत्त्वपूर्ण हो जाएगा।)
यहाँ मुझे ऐसा लगता है कि सौन्दर्य-शास्त्र सम्बन्धी विषयों पर वार्तालाप करते हुए हम इन शब्दों का प्रयोग करते हैं: “आप को इसे ''इस'' प्रकार देखना होगा, इसे ऐसे देखना होता है”; “जब आप इसे ''इस'' प्रकार देखते हैं, तो आपको पता चलता है कि यह कहाँ गलत है”; “इस ताल को आप प्रस्तावना के समान सुनें”; “इसे आप इसी स्वर में सुनें”; “इसे आप ''इसी'' प्रकार (जो कि सुनने के साथ-साथ बजाने को भी इंगित कर सकता है) कहें”।
यह आकृति
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सीढ़ी का एक पाद दर्शाती है, और इसका प्रयोग किसी स्थान के नक्शे में किया जाता है। इस के लिए हम दोनों सतहों के ज्यामितिक केन्द्रों से सरल रेखा '''क''' खींचते हैं। — अब यदि किसी व्यक्ति की आकृति का त्रि-आयामी संस्कार हमेशा क्षणिक होने के साथ-साथ उच्चावच भी हो, तो उसे हमारे नक्शे को समझने में कठिनाई होगी। और यदि उसे लगे कि, समतल पक्ष और त्रि-आयामी पक्ष बदलते रहते हैं, तो वह तो मेरे प्रदर्शन से उसे कोई भिन्न वस्तु दर्शाने के समान ही होगा।
विवरणात्मक ज्यामिति में किसी रेखांकन को देख कर मेरे यह कहने का क्या अर्थ होता है: “मैं यह जानता हूँ कि यह रेखा यहाँ पुनः दिखाई देती है, किन्तु मैं इसे इस प्रकार नहीं ''समझ'' पाता”? क्या इसका अर्थ है कि रेखांकन की क्रिया-संचालन-विधि से मैं अपरिचित हूँ; और यह भी कि मुझे अच्छी तरह से ‘अपना रास्ता ज्ञात’ नहीं है? — निस्संदेह यह परिचय तो हमारी कसौटियों में से एक है। विशेष प्रकार से ‘अपना रास्ता ज्ञात’ होने से ही हमें यह पता चलता है कि कोई व्यक्ति रेखांकन को त्रि-आयामी रूप में देख रहा है। उदाहरणार्थ, कुछ विशिष्ट भंगिमायें त्रि-आयामी सम्बन्धों को, उत्तम व्यवहार, को इंगित करती हैं।
मैं चित्र में किसी पशु को बाण से बिंधा हुआ देखता हूँ। बाण पशु के गले में बिंधा है, और गर्दन के पीछे से बाहर निकला हुआ है। मान लीजिए कि यह चित्र एक छायाचित्र है। — क्या आप बाण को ''देखते'' हैं — अथवा क्या आप केवल यह ''जानते'' हैं कि ये दोनों टुकड़े बाण को दर्शाते हैं?
(कॉहलेर के अन्तर्व्याप्त षट्कोणों की आकृति से तुलना कीजिए।)
“किन्तु यह ''देखना'' तो नहीं है!” — “किन्तु यह तो देखना होता है!” — दोनों टिप्पणियों का संप्रत्ययात्मक औचित्य देना सम्भव होना चाहिए।
किन्तु यह तो देखना होता है! ''किस अर्थ में'' यह देखना होता है?
“आरम्भ में तो यह संवृत्ति आश्चर्यजनक होती है, किन्तु निश्चय ही इसकी भौतिक व्याख्या खोज ली जाएगी।” —
हमारी समस्या कारणात्मक न होकर प्रत्ययात्मक है।
बाण से बिंधे हुए पशु अथवा अन्तर्व्याप्त षट्कोणों का चित्र यदि मुझे क्षण भर के लिए दिखाया जाए, और फिर मुझे उसका विवरण देने के लिए कहा जाए तो मेरा विवरण ''वह'' होगा; यदि मुझे उसका चित्रण करने के लिए कहा जाए तो मैं निश्चित रूप से उसका ऐसा त्रुटिपूर्ण चित्र बना सकूँगा, जिसमें किसी प्रकार पशु को बाण से बिंधा हुआ दिखाया जाएगा अथवा दो षट्कोणों को अन्तर्व्याप्त दिखाया जाएगा। यानी: कुछ विशिष्ट त्रुटियाँ हैं जो मैं ''नहीं'' करूँगा।
इस चित्र में जिस पर मेरी दृष्टि सर्वप्रथम पड़ती है, वह है: यहाँ दो षटकोण हैं।
अब मैं उनका अवलोकन करता हूँ और अपने आप से पूछता हूँ: “क्या मैं वास्तव में उन्हें षट्कोणों के ''समान'' देखता हूँ?” और इस दौरान वे मेरे सामने ही रहते हैं? (यह मानते हुए कि इस दौरान उनके आकार में परिवर्तन नहीं होता।) — और मैं उत्तर देना चाहूँगा: “मैं इस दौरान उनको षट्कोणों जैसा ही नहीं समझता।”
कोई मुझे कहता है: “मैंने उसे एक ही साथ दो षट्कोणों के समान देखा। और मैंने ''केवल यही'' देखा।” किन्तु मैं इसे कैसे समझें? मेरे मतानुसार “आप क्या देखते हैं?” इस प्रश्न के उत्तर में वह यकायक यह विवरण देता है, न कि वह। वह अनेक सम्भावनाओं में से इसे एक सम्भावना समझता है। इसी प्रकार उसका विवरण यह चित्र
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दिखाए जाने पर “एक मुखाकृति” यह उत्तर देने के समान है।
मुझे क्षण भर के लिए दिखाये गये दृश्य-पदार्थ का सर्वश्रेष्ठ विवरण तो ''यही'' है: ......।
“उसे किसी खड़े हुए पशु का आभास था”। अतः एक निश्चयात्मक वर्णन मिला। — क्या यह ''समझना'' था, अथवा क्या यह कोई विचार था?
स्वयं अपने आंतरिक अनुभव का विश्लेषण करने का प्रयत्न न करें।
वस्तुतः यह सम्भव है कि स्वयं मैंने भी चित्र को पहली बार किसी भिन्न वस्तु चित्र के समान देखा हो, और फिर अपने आप से कहा हो “ओह, ये तो दो षट्कोण हैं!” अतः, दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया। और क्या इससे यह सिद्ध होता है कि मैंने वस्तुतः उसे किसी विषय के समान ''समझा''?
“क्या यह ''मौलिक'' चाक्षुष अनुभव है?” प्रश्न तो यह है: किस अर्थ में यह कोई चाक्षुष अनुभव है?
यहाँ यह समझना ''कठिन'' है कि प्रश्न तो प्रत्ययों को निर्धारित करने का है।
''प्रत्यय'' हम पर हावी हो जाता है। (इसे आप नहीं भूलें)
क्योंकि, मुझे इसे समझने की बजाय ज्ञान होने की स्थिति कब कहना चाहिए? — सम्भवतः तब जब कोई चित्र को कार्यकारी आरेखन के समान समझे, उसे नक्शे के समान ''पढ़े''। (व्यवहार के उत्तम अंदाज। — वे ''महत्त्वपूर्ण'' क्यों होते हैं? उनके महत्त्वपूर्ण परिणाम होते हैं।)
“मेरे लिए तो यह बाण से बिंधा पशु है।” इसे मैं इसी प्रकार समझता हूँ; आकृति के प्रति मेरा यही ''रवैया'' है। इसे ‘समझने’ की स्थिति कहने का यह भी एक अर्थ है।
किन्तु क्या मैं उसी अर्थ में कह सकता हूँ: “मेरे लिए ये दो षट्कोण हैं”? उसी अर्थ में तो नहीं, अपितु उससे मिलते-जुलते अर्थ में।
हमारे जीवन में चित्रों की, जैसे कि कलाकृतियों की (कार्यकारी आरेखनों के मुकाबले में), भूमिका पर विचार करने की आवश्यकता है। यह भूमिका किसी भी प्रकार एक समान नहीं होती।
एक तुलना: ग्रंथों के उद्धरणों को कभी-कभी दीवार पर टाँग दिया जाता है। किन्तु यांत्रिकी के प्रमेयों को नहीं। (इन दो विषय-वस्तुओं के साथ हमारा सम्बन्ध।)
जब आप रेखांकन को अमुक-अमुक पशु के रूप में देखते हैं तो आपसे मेरी अपेक्षा उस अपेक्षा से नितान्त भिन्न होती है जब आप यह जानते हैं कि उसका क्या प्रयोजन है।
सम्भवतः निम्नलिखित अभिव्यक्ति अधिक उचित हो: हम अपनी दीवार पर लगे चित्र को विषय (मनुष्य, भूदृश्य, इत्यादि) का ही वर्णन ''समझते'' हैं।
ऐसा होना आवश्यक नहीं था। हम ऐसे लोगों की सरलता से कल्पना कर सकते हैं जिनका ऐसे चित्रों से इस प्रकार का सम्बन्ध न हो। उदाहरणार्थ, जिन्हें चित्र अरुचिकर लगते हों, क्योंकि रंगहीन मुखाकृति, और सम्भवतः लघुकृत मुखाकृति, उन्हें अमानवीय प्रतीत होती हो।
मैं कहता हूँ: “हम रूपचित्र को मनुष्य के समान समझते हैं,” — किन्तु ऐसा हम कब और कितनी अवधि के लिए करते हैं? ''सदैव''; यदि हम इसे किसी व्यक्ति का रूपचित्र समझते हैं तो (और यदि हम इसे किसी अन्य विषय के समान नहीं समझते हो)?
इस पर मैं हाँ कह सकता हूँ और इससे इस-जैसी-समझ के प्रत्यय का निर्धारण होगा। — प्रश्न तो यह है कि क्या इससे सम्बन्धित कोई अन्य प्रत्यय भी है जो हमारे लिए महत्त्वपूर्ण होता है: उदाहरणार्थ, इसके जैसा देखना, जो केवल तभी होता है जब चित्र में दर्शाये गए विषय के साथ मैं वास्तव में अपना सम्बन्ध स्थापित करता हूँ।
मैं कह सकता हूँ: चित्र को देखते समय उसका मेरे लिए सदैव ''अस्तित्त्व'' नहीं रहता।
“दीवार पर टँगा उस लड़की का चित्र मुझे देखकर मुस्कराता रहता है।” यह जरूरी नहीं कि जब भी मैं उसे देखूं वह मुस्कराता ही रहे।
बत्तख-खरगोश। हम पूछते हैं: इसकी आँख — यह ''बिन्दु'' — इस दिशा में देख सकता है? — “''देखो, यह देख रहा है!''” (और यह कहते हुए हम स्वयं ‘देखते’ हैं।) किन्तु चित्र को देखते समय हम न तो हर समय ऐसा कहते हैं, और न ही ऐसा करते हैं। और अब “''देखो, यह देख रहा है''!” इस का क्या अर्थ है — क्या यह किसी संवेदना को अभिव्यक्त करता है?
(इन उदाहरणों से मैं न तो कोई पूर्णता दिखलाना चाहता हूँ और न ही इनसे मनोवैज्ञानिक प्रत्ययों का कोई वर्गीकरण करना चाहता हूँ। इनका प्रयोजन तो पाठक की प्रत्ययात्मक कठिनाइयों को दूर करने के उपाय सूझाना है।)
“अब मुझे यह... के समान दिखाई देता है” यह अभिव्यक्ति “मैं इसे... के समान देखने का प्रयत्न कर रहा हूँ” अथवा “मुझे अभी भी यह... के समान नहीं दिखाई देता” इन अभिव्यक्तियों के अनुरूप है। किन्तु मैं किसी परम्परागत शेर के चित्र को शेर के समान देखने का प्रयत्न नहीं कर सकता, वैसे ही जैसे '''फ''' अक्षर को मैं '''फ''' के समान देखने का प्रयत्न नहीं कर सकता। (यद्यपि मैं उसे, उदाहरणार्थ, फाँसी के फन्दे के समान देखने का प्रयत्न कर सकता हूँ।)
यह मत पूछें “''मेरे'' साथ ऐसा कैसे होता है?” — पूछिए, “मैं किसी अन्य व्यक्ति के बारे में क्या जानता हूँ?”
हम इस खेल को कैसे खेलते हैं: “''यह'' भी तो हो सकता था”? (कोई आकृति कैसी हो सकती थी — वह कैसी दिखाई दे सकती थी — इसकी कोई अन्य आकृति तो नहीं बनाई जा सकती। यदि कोई कहे “मैं [[File:144,34v-2.png|50px|class=img-slightly-comfy]] को [[File:144,34v-1.png|40px|class=img-slightly-comfy]] के समान देखता हूँ”, तो भी उसका अभिप्राय इससे बिल्कुल अलग हो सकता है।)
बच्चों द्वारा खेले जाने वाला एक खेल यह है: उदाहरणार्थ, वे किसी संदूक को घर कहते हैं; और फिर एक घर के रूप में उसकी विस्तृत व्याख्या दी जाती है। उसमें काल्पनिक बातें जोड़ दी जाती हैं।
और अब संदूक को बच्चा क्या एक घर के रूप में ''समझता'' है?
“वह बिल्कुल भूल जाता है कि यह एक संदूक है; उसके लिए तो यह एक वास्तविक घर है।” (इसके निश्चित संकेत होते हैं।) तो क्या यह कहना भी उचित नहीं होगा कि वह उसे घर के रूप में ''देखता'' है?
और, यदि आपको पता हो कि इस खेल को कैसे खेला जाता है, तो किसी विशिष्ट स्थिति में आप हर्ष की अभिव्यक्ति के साथ कहेंगे “तो यह घर है।” — ऐसा कहते हुए आप किसी पक्ष के उजागर होने को अभिव्यक्त करेंगे।
यदि मैं किसी को बत्तख-खरगोश का उल्लेख करते हुए सुनूँ और ''अब'' उसे खरगोश की मुखाकृति पर किसी विशिष्ट अभिव्यक्ति होने की बात करते हुए पाऊँ, तो मैं कह सकता हूँ कि अब वह उस चित्र को खरगोश के समान देख रहा है।
किन्तु, उसकी आवाज और भंगिमाओं की अभिव्यक्ति तो वैसी ही होती है मानो वस्तु परिवर्तित हुई हो और वह यह अथवा वह ''बन कर'' रुक गई हो।
मैं किसी धुन को अनेक बार बजवाता हूँ और हर बार वह पहले से धीमे स्वर में बजाई जाती है। अंत में मैं कहता हूँ “''अब'' यह ठीक है”, अथवा “''अब'' तो यह अभियान धुन है”, “''अब'' तो नृत्य धुन है”। — एक ही स्वराघात से पक्ष का उजागर होना अभिव्यक्त हो जाता है।
‘व्यवहार के उत्तम अन्दाज’ — जब मैं किसी धुन के साथ-साथ सीटी बजा कर उस पर अपनी पकड़ प्रदर्शित करता हूँ तो यह ऐसे उत्तम अंदाज का एक उदाहरण होता है।
त्रिकोण के पक्ष: यह तो ऐसा ही है मानो ''छवि'' चाक्षुष प्रभाव को छू गई हो, और कुछ अवधि के लिए उसे छूती रही हो।
(उदाहरणार्थ) सीढ़ी के उच्चावच पदों के पक्षों से ये पक्ष तो भिन्न है। और इस आकृति [[File:144,35r.png|50px|class=img-slightly-comfy]] के पक्षों से भी भिन्न है (जिसे मैं “डबल क्रॉस” कहूँगा) श्याम पृष्ठभूमि पर सफेद क्रॉस के रूप में, और सफेद पृष्ठभूमि पर काले क्रॉस के रूप में।
स्मरण रहे कि प्रत्येक स्थिति में परिवर्तनीय पक्षों के विवरण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं।
(“इसे” और “ऐसे” के लिए किसी वस्तु को इंगित करते हुए “मैं इसे ''ऐसे'' देखता हूँ” कहने की लालसा।) निजी विषय के संधारण से सदैव इस प्रकार छुटकारा पाइए: ऐसा मानिए कि वह निरंतर परिवर्तित होता है, किन्तु आप उस परिवर्तन पर ध्यान नहीं देते, क्योंकि आपकी स्मृति आपको निरंतर धोखा देती रहती है।
डबल क्रॉस के इन दोनों पक्षों (मैं उन्हें '''अ''' पक्ष कहूँगा) को केवल सफेद एवं केवल काले क्रॉस को इंगित करके बताया जा सकता है।
बोली सीखने से पूर्व शिशु में होने वाली आदिम प्रतिक्रिया के रूप में इसकी कल्पना सरलता से की जा सकती है।
(अतः '''अ''' पक्षों को बताने के लिए हम डबल क्रॉस के एक भाग को इंगित करते हैं। — बत्तख और खरगोश पक्षों का इस प्रकार से वर्णन नहीं किया जा सकता।)
आप को ‘बत्तख और खरगोश पक्षों का पता’ केवल तभी चलता है जब आप इन दोनों प्राणियों के आकारों से पूर्व-परिचित हों। '''अ''' पक्षों को देखने के लिए ऐसी कोई पूर्व-शर्त नहीं है।
बत्तख-खरगोश को केवल खरगोश के चित्र के समान, डबल क्रॉस को केवल काले क्रॉस के चित्र के समान देखना सम्भव है, किन्तु केवल त्रिभुजाकार आकृति को गिरी हुई वस्तु के समान देखना सम्भव नहीं होता। त्रिभुज के इस पक्ष को जानने के लिए ''कल्पनाशक्ति'' की आवश्यकता होती है।
'''अ''' पक्ष अनिवार्यतः त्रि-आयामी नहीं है; सफेद पृष्ठभूमि पर काला क्रॉस अनिवार्यतः ऐसा क्रॉस नहीं होता जिसकी पृष्ठभूमि सफेद हो। केवल कागजों पर बने क्रॉस को दिखाकर ही किसीको आप भिन्न रंग की पृष्ठभूमि पर काले क्रॉस के बारे में सिखा सकते हैं। यहाँ पर ‘पृष्ठभूमि’ तो क्रॉस को चारों ओर से घेरे हु है।
घन अथवा सीढ़ी के रेखांकन के त्रि-आयामी पक्ष की तरह '''अ''' पक्ष भ्रम की सम्भावनाओं से सम्बन्धित नहीं है।
रेखांकित घन के चित्र को मैं संदूक के समान देख सकता हूँ; — किन्तु क्या मैं उसे कभी तो कागज के संदूक और कभी लोहे के संदूक के समान भी देख सकता हूँ? — यदि कोई मुझे कहे कि ''वह'' ऐसा कर सकता है तो मैं उसे क्या कहूँ? — यहाँ पर मैं प्रत्यय को सीमाबद्ध कर सकता हूँ।
फिर भी किसी चित्र को देखने के सन्दर्भ में “''अनुभव किया''” अभिव्यक्ति पर विचार कीजिए। (“हम वस्तु की कोमलता को अनुभव करते हैं।”) (स्वप्नों में ''जानना''। “और मैं जानता था कि... कमरे में हैं।”)
(उदाहरणार्थ, गणित में) शिशु को कैसे सिखाते हैं: “अब ''इनको'' एक साथ लो!” अथवा “अब ''ये'' एक साथ जाते हैं”? स्पष्टतः “एक साथ लेने” और “एक साथ जाने” का मूल अर्थ तो उसके लिए इन्हें इस, अथवा उस प्रकार से ''समझने'' से भिन्न होगा। — और यह शिक्षण-विधियों की बजाय, प्रत्ययों पर टिप्पणी है।
एक ''प्रकार'' के पक्ष को ‘व्यवस्था-पक्ष’ भी कहा जा सकता है। पक्ष में परिवर्तन होते ही पहले अनदेखे कुछ भागों को अब इकट्ठा कर लिया जाता है।
त्रिभुज में मैं कभी तो ''इसे'' शिखर, ''उसे'' आधार के रूप में देख सकता हूँ — कभी ''उसे'' शिखर, ''इसे'' आधार के रूप में देख सकता हूँ। — “अब मैं इसे शिखर के रूप में देख रहा हूँ” शब्दों का स्पष्टतः ऐसे व्यक्ति के लिए कोई अर्थ नहीं होगा जिसने हाल ही में शिखर, आधार, इत्यादि प्रत्ययों के बारे में सीखा हो। — किन्तु इससे मेरा आशय आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं है।
“अब वह इसे ''इस प्रकार'' देख रहा है”, “अब ''उस प्रकार''” इन कथनों को केवल उसी के बारे में कहा जा सकता है जो स्वेच्छा से आकृति के विशिष्ट प्रयोग करने में ''सक्षम'' हो।
इस अनुभव का आधार तो तकनीक में दक्षता है।
किन्तु इसके अमुक-अमुक ''अनुभव'' होने की तार्किक शर्त होना तो अत्यंत विचित्र होगा! आप यह तो नहीं कहते कि किसी के ‘दाँत में दर्द’ केवल तभी होता है, जब वह अमुक-अमुक क्रिया करने में सक्षम हो। — इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ हम अनुभव के एक ही प्रत्यय को प्रयुक्त नहीं कर रहे। यद्यपि यह इससे सम्बन्धित तो है, किन्तु फिर भी यह एक भिन्न प्रत्यय है।
उसे ''यह'' अनुभव हो चुका है ऐसा कहने का अर्थ केवल तभी होता है जब वह अमुक-अमुक क्रिया ''कर सकता है'', उसने उसे सीखा है, वह उसमें दक्ष है।
और यदि यह अटपटा लगता है तो हमारा ध्यान इस ओर जाना चाहिए कि यहाँ देखने के ''प्रत्यय'' को संशोधित किया गया है। (गणित में भ्रांति की अनुभूति से उबरने के लिए बहुधा इसी प्रकार के आकलन की आवश्यकता होती है।)
हम बातचीत करते हैं, शब्दों का उच्चारण करते हैं, केवल ''तभी'' हमें उनके जीवन-वृत्त का पता चलता है।
क्योंकि बिना यह जाने कि वह पशु की शरीर-रचना न होकर उसकी भंगिमा थी, मैं कैसे समझ सकता हूँ कि वह हिचकिचाहट की भंगिमा थी?
किन्तु निश्चय ही इसका अर्थ है कि मैं इस प्रत्यय का प्रयोग दृश्य-पदार्थ के विवरण के लिए नहीं कर सकता, क्योंकि इसमें केवल चाक्षुष प्रसंग से ''अतिरिक्त'' भी कुछ है? — इसलिए क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मेरे पास हिचकिचाहटपूर्ण भंगिमा, अथवा भीरुतापूर्ण मुखाकृति का विशुद्ध चाक्षुष प्रत्यय हो?
ऐसे प्रत्यय की तुलना भावात्मक विशेषता वाले ‘मुख्य’ और ‘गौण’ प्रत्ययों से की जा सकती है, किन्तु फिर भी उन्हें दृश्य-पदार्थों का विवरण देने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।
उदाहरणार्थ, “खिन्न” विशेषण जब मुखाकृति की बाह्य रेखाओं के लिए प्रयुक्त होता है तो वह वृत्त के भीतरी रेखा-समूह का वर्गीकरण करता है। वही विशेषण मनुष्यों के लिए प्रयुक्त किये जाने पर भिन्न (यद्यपि सम्बद्ध) अर्थ को द्योतित करता है। (किन्तु इसका यह अर्थ ''नहीं'' है कि खिन्नता की अभिव्यक्ति खिन्नता की संवेदना के समान है!)
इस पर भी विचार करें: लाल अथवा हरे को मैं केवल देख ही सकता हूँ, उन्हें सुन नहीं सकता जबकि खिन्नता को मैं देखने के साथ-साथ सुन भी सकता हूँ।
“मैंने विलाप की धुन सुनी” इस अभिव्यक्ति पर विचार कीजिए। और अब प्रश्न यह है, “क्या वह विलाप को ''सुनता'' है?”
और यदि मैं उत्तर दूँ: “नहीं, वह उसे सुनता नहीं, केवल अनुभव करता है” — इससे हमें क्या पता चलता है? इस अनुभूति के लिए किसी इन्द्रिय का, इस ‘संवेदना’ की ज्ञानेन्द्रिय का उल्लेख नहीं किया जा सकता।
यहाँ कोई कहेगा: “निस्संदेह मैं इसे सुनता हूँ!” — कोई अन्य कहेगा: “वास्तव में मैं इसे ''सुनता'' नहीं हूँ।”
बहरहाल, यहाँ हम प्रत्यय के भेदों को स्थापित कर सकते हैं।
कायरता की भंगिमा पर हमारी प्रतिक्रिया, कायरता (इस शब्द के ''संपूर्ण'' अर्थ में) की भंगिमा को न समझने वाले व्यक्ति से भिन्न होती है। — किन्तु यहाँ मैं यह नहीं कहना चाहता कि हम अपने पुट्ठों और जोड़ों में इस प्रतिक्रिया को अनुभव करते हैं, और इसी को ‘अनुभव करना’ कहते हैं! — नहीं, यहाँ तो ''संवेदना'' के प्रत्यय का संशोधित रूप है।
किसी के बारे में कहा जा सकता है कि उसने चेहरे की ''अभिव्यक्ति'' को देखा ही नहीं था। क्या इस कारण उसकी आँखें खराब कही जाएंगी?
निस्संदेह यह शरीर-शास्त्र सम्बन्धी प्रश्न नहीं है। यहाँ शरीर-शास्त्र सम्बन्धी बात तार्किक बात का प्रतीक है।
जब आप किसी धुन की गम्भीरता को समझते हैं, तो आप क्या समझते हैं? उस धुन को दुबारा बजा कर समझ सकने वाली बात तो बिल्कुल नहीं।
मैं कल्पना कर सकता हूँ कि कोई यादृच्छिक लिपि — उदाहरणार्थ यह [[File:144,36r.png|35px|link=]] — मानो किसी विदेशी वर्णमाला का यह हूबहू कोई अक्षर है।
या फिर, मैं उसे गलत रूप में लिखे किसी अक्षर होने की कल्पना कर सकता हूँ: उदाहरणार्थ, हो सकता है कि वह अक्षर हड़बड़ी में लिखा हुआ हो, अथवा बच्चों की लिखाई के समान कुछ लिखा हुआ सकता है, अथवा किसी कानूनी दस्तावेज की सजावटी लिखाई के समान हो सकता है। वह सही-सही लिखे अक्षर से कई तरह से भिन्न हो सकता है। — और अपनी कल्पना के अनुसार ही मैं उसके भिन्न-भिन्न पक्षों को देखता हूँ। और इसका ‘शब्दार्थानुभूति’ से अंतरंग सम्बन्ध है।
मैं कहना चाहता हूँ: मेरी सूझ वस्तु में मेरे विशिष्ट ढंग से खोये रहने तक ही बनी रहती है। (“देखो, यह देख रहा है!”) — ‘मैं कहना चाहता हूँ’ — और क्या ऐसा है? — पूछें: “किसी वस्तु में कब तक मेरा आकर्षण बना रहता है?” वह कब तक मुझे ''नवीन'' लगती है?
यह पक्ष आकृतिविद्या को प्रस्तुत करता है जो बाद में समाप्त हो जाती है। जैसे पहले-पहल तो मैं किसी मुखाकृति को देखकर उसकी ''नकल'' करता हूँ, किन्तु बाद बिना नकल किये ही उसे बना सकता हूँ। — और क्या वस्तुतः यह एक पर्याप्त व्याख्या नहीं है? — किन्तु क्या यह पर्याप्त से अधिक नहीं है?
“मैं कुछ क्षण तो पिता-पुत्र में समानता देखता रहा किन्तु फिर समानता देखना बंद कर दिया।” — ऐसा तभी कहा जा सकता है जब पुत्र का चेहरा परिवर्तित हो रहा हो, और कुछ देर के लिए ही, अपने पिता के समान दिखता हो। किन्तु इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि कुछ क्षणों के बाद पिता-पुत्र के साम्य में मेरी रुचि समाप्त हो गई।
“समानता देखने के बाद आप कब तक उसके प्रति सचेत रहे?” इस प्रश्न का कोई क्या उत्तर दे? — “शीघ्र ही मैंने उसके बारे में सोचना बन्द कर दिया”, अथवा “समय-समय पर मैं उसके प्रति सचेत रहा,” अथवा “मैंने अनेक बार सोचा कि उनमें कितनी समानता है!” अथवा “क्षण भर को तो मैं उनकी समानता से विस्मित हो गया।” — आपको कोई ऐसा उत्तर मिलेगा।
मैं पूछना चाहूँगा “क्या मैं किसी वस्तु (उदाहरणार्थ, इस अलमारी) को देखते समय उसके विस्तार, उसकी गहराई के बारे में ''सदैव सचेत'' रहता हूँ?” या, यूँ कहिये कि क्या मैं उसे सर्वदा ''अनुभव'' करता रहता हूँ? — किन्तु प्रश्न को अन्य पुरुष के संदर्भ में पूछें। — आप कब कहेंगे कि वह सर्वदा सचेत था, और कब इससे उलट कहेंगे? — निस्संदेह, हम उससे पूछ सकते थे, — किन्तु उसने ऐसे प्रश्नों का उत्तर देना कैसे सीखा? — वह जानता है कि “निरंतर वेदनानुभूति” का क्या अर्थ होता है। किन्तु इससे तो वह (मेरी तरह) भ्रम में पड़ जायेगा।
यदि अब वह कहे कि वह गहराई के बारे में निरंतर सचेत था — तो क्या मैं उसका विश्वास कर लूँ? और, यदि वह कहे कि वह कभी-कभार ही (सम्भवतः उसके बारे में बात करते समय) उसके प्रति सचेत होता है — तो क्या मैं इसे मान लूँ? मुझे उत्तर निराधार प्रतीत होते हैं। उसका यह कहना तो अलग बात होती कि वस्तु उसे कभी चपटी और कभी त्रि-आयामी प्रतीत होती है।
कोई मुझे कहता है: “मैंने फूल देखा, किन्तु मैं किसी अन्य विषय पर सोच रहा था और इसीलिए फूल के रंग पर ध्यान ही नहीं दिया।” क्या मैं इसे समझता हूँ? — मैं किसी महत्त्वपूर्ण प्रसंग की कल्पना कर सकता हूँ, उदाहरणार्थ, उसके द्वारा आगे यह कहने की: “तभी अचानक मुझे वह ''दिखाई दिया'', और मैंने जान लिया कि यही था जो...”।
अथवा फिर: “यदि उस समय मैं वहाँ से चला जाता, तो यह नहीं बता पाता कि उस फूल का क्या रंग था?”
“वह उसे अन्यमनस्क देख रहा था।” — ऐसा तो होता है। किन्तु इसकी कसौटी क्या है? — ऐसे अनेक मामले हैं।
“अभी मैंने रंग की बजाय उसकी आकृति को देखा।” ऐसे वाक्यांशों से भ्रमित न हों। और न ही इस पर चकित हों: “नेत्र अथवा मस्तिष्क में क्या चल रहा है?”
समानता से मैं बहुत प्रभावित हुआ; फिर वह प्रभाव धूमिल हो गया।
क्षण भर को तो मैं ठगा सा रह गया, परन्तु थोड़ी देर बाद उसका प्रभाव समाप्त हो गया।
यहाँ क्या हुआ? — मुझे क्या याद है? मुझे स्वयं अपनी मुखाभिव्यक्ति याद आती है; मैं उसे फिर से बना सकता हूँ। यदि कोई परिचित व्यक्ति मेरे मुख को देखे, तो वह कहेगा “आप उसकी मुखाकृति को देखकर चकित हैं”। — ऐसे मौकों पर उच्च स्वर में, अथवा मन-ही-मन कही जाने वाली बातों की याद भी मुझे आती है। और बस यही तो होता है। — तो क्या यही चकित होना होता है? नहीं। ये तो चकित होने की संवृत्तियां हैं; किन्तु यही हैं ‘जो होता है’।
क्या चकित रह जाना देखने और सोचने का संमिश्रण है? यहाँ हमारे बहुत से प्रत्ययों का ''संगम'' होता है।
(‘सोचना’ और ‘मन-ही-मन बोलना’ — मेरा आशय ‘अपने आप से बोलना’ नहीं है — ये तो दो भिन्न प्रत्यय हैं।)
चाक्षुष संस्कार का रंग तो विषय-वस्तु के रंग के अनुरूप होता है (यह स्याहीसोख्ता मुझे गुलाबी रंग का लगता है, और यह गुलाबी रंग का ही है) — चाक्षुष संस्कार का आकार विषय-वस्तु के आकार के अनुरूप होता है (यह मुझे आयताकार लगती है, और यह आयताकार ही है) — किन्तु किसी पक्ष के उजागर होने पर दिखाई देने वाला वस्तु का गुण नहीं, अपितु उस वस्तु और अन्य और वस्तुओं के बीच का आंतरिक सम्बन्ध होता है।
‘इस प्रसंग में संकेत को समझना’ मानो विचार की गूँज ही हो।
कहा जा सकता है: “विचार की गूँज का दृष्टिगोचर होना”।
किसी अनुभव की शरीर-शास्त्रीय व्याख्या की कल्पना कीजिए। मान लीजिए कि वह यह है: जब हम किसी आकृति को देखते हैं तो हमारी आँखें सदैव एक विशिष्ट दिशा का अनुगमन करते हुए बारम्बार उसका अवलोकन करती हैं। अवलोकन की प्रक्रिया में वह दिशा पुतलियों के विशेष प्रकार से हिलने-डुलने के अनुरूप होती है। ऐसे किसी प्रकार का, किसी अन्य प्रकार पर पहुँचना और दोनों का परस्परानुवर्ती होना सम्भव है। ('''अ''' पक्ष।) शारीरिक-क्रियाओं के कारण कई अंग-विक्षेप असम्भव होते हैं; अतः, उदाहरणार्थ, समाकृतिक घन को मैं दो अन्तर्भेदी त्रिपार्श्व के रूप में नहीं देख सकता, इत्यादि। आइए हम इसकी व्याख्या ऐसे करें। — “हाँ, इससे यह पता चलता है कि यह एक प्रकार का ''अवलोकन'' है।” — अब आपने अवलोकन की एक नए प्रकार की शारीरिक कसौटी प्रस्तुत की है। और इससे पुरानी समस्या छुप तो सकती है, किन्तु उसका समाधान नहीं होता। — बहरहाल, इस अनुच्छेद का उद्देश्य तो यह दर्शाना था कि दैहिक व्याख्या देने पर क्या होता है। मनोवैज्ञानिक प्रत्यय तो इस व्याख्या की पहुँच से परे हैं। और इससे समस्या का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है।
वास्तव में, क्या हर बार मैं कुछ भिन्न देखता हूँ, अथवा क्या मैं दृश्य-पदार्थ की भिन्न व्याख्या ही देता हूँ? मैं पहली बात कहना चाहूँगा। किन्तु क्यों? — व्याख्या देना विचार करना होता है, कुछ करना होता है; समझना तो एक स्थिति है।
जिन स्थितियों में हम ''व्याख्या'' कर रहे होते हैं, उन्हें पहचानना अब सरल हो गया है। व्याख्या करते समय हम पूर्वकल्पनाएं बनाते हैं, जो कालांतर में मिथ्या सिद्ध हो सकती हैं। — “मैं इस आकृति को... के समान देख रहा हूँ” का सत्यापन “मुझे सुर्ख लाल दिखाई दे रहा है” के समान (अथवा उसी अर्थ में) नहीं हो सकता। अतः इन दोनों संदर्भों में “देखने” शब्द के प्रयोग में समानता है। ऐसा न सोचें कि आप पहले से ही जानते थे कि “देखने की अवस्था” अभिव्यक्ति का क्या अर्थ था। प्रयोग अर्थ ''सीखें''।
अवलोकन की समूची क्रिया के उलझनपूर्ण न लगने के कारण हम उसकी कुछ बातों को उलझनपूर्ण मानते हैं।
जब आप लोगों, घरों और वृक्षों के चित्र को देखते हैं, तो उनका त्रि-आयामी न होना आपको नहीं खटकता। किसी सपाट सतह पर रंगीन-धब्बों के संग्रह के रूप में किसी चित्र का विवरण देना हमारे लिए सरल नहीं होगा; किन्तु स्टीरियोस्कोप में दिखाई देने वाला चित्र तो हमे एक अन्य प्रकार से त्रि-आयामी दिखाई देता है।
(यह साधारण बात नहीं है कि हम दो आँखों से त्रि-आयामी रूप देख सकते हैं। यदि दोनों चाक्षुष प्रतिबिम्बों का एकीकरण कर दिया जाए, तो सम्भवतः हमें धुँधला प्रतिबिम्ब ही मिले।)
पक्ष का प्रत्यय तो प्रतिबिम्ब के प्रत्यय के सदृश है। दूसरे शब्दों में: ‘अब मैं इसे... के समान देख रहा हूँ’ प्रत्यय तो ‘अब मुझे ''यह'' प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है’ के सदृश है।
किसी बात को किसी अन्य रूप में सुनने के लिए क्या कल्पनाशीलता की आवश्यकता नहीं होती? उसे इस प्रकार सुनते हुए भी हम किसी विषय को समझते हैं।
“आप इसके इस प्रकार परिवर्तित होने की कल्पना कीजिए, और फिर आपको यह विषय-वस्तु प्राप्त होगी।” किसी विषय को सिद्ध करते समय कल्पना का प्रयोग किया जा सकता है।
किसी पक्ष को देखना और कल्पना करना इच्छाशक्ति के अधीन है। इस जैसा आदेश होता है “''इसकी'' कल्पना कीजिए”, और ऐसा भी: “अब इस आकृति को ''इस प्रकार'' देखिए”; किन्तु ऐसा आदेश नहीं होता: “अब इस पत्ते को हरा देखिए”।
अब यह प्रश्न उठता है : क्या ऐसे मनुष्य हो सकते हैं जिनमें किसी वस्तु को ''किसी वस्तु के समान'' देखने की क्षमता न हो — और यह कैसे होगा? इसके परिणाम कैसे होंगे? — क्या इस दोष की तुलना वर्णांधता से अथवा स्वर-बाध से की जा सकती है? — हम इसे “पक्षांधता” कहेंगे — और फिर विचार करेंगे कि इसका क्या अर्थ हो सकता है? (संप्रत्ययात्मक अन्वेषण।) माना जा सकता है कि पक्षांध व्यक्ति पक्षों के परिवर्तन को नहीं देख पाता। किन्तु क्या यह भी माना जा सकता है कि वह यह नहीं पहचानता कि डबल क्रॉस में काले और सफेद दोनों क्रॉस होते हैं? अतः, यदि उसे कहा जाए “इन उदाहरणों में मुझे ऐसी आकृतियाँ दिखाओ जिनमें काला क्रॉस है” तो वह उन्हें दिखाने में असमर्थ होगा? नहीं, वह उन्हें दिखा सकेगा; किन्तु वह यह नहीं कहेगा: “अब यह सफेद पृष्ठभूमि पर एक काला क्रॉस है!”
क्या यह माना जा सकता है कि वह दो मुखाकृतियों की समानता से अनभिज्ञ है? — और इसीलिए उनकी समरूपता अथवा उनके मिलते जुलते रूप से भी? मैं इसका निर्धारण नहीं करना चाहता। (“मेरे पास कोई ऐसी वस्तु लाइए जो ''इस'' जैसी लगती हो” उसे इस आदेश को पालन करने के योग्य होना चाहिए।)
क्या उसे समाकृतिक घन को, घन के रूप में देखने के अयोग्य होना चाहिए? — इससे यह पता नहीं चलता कि वह उसे घन के निरूपण (उदाहरणार्थ, कार्यकारी आरेखन) के समान नहीं समझता। किन्तु, उसके लिए पक्षों में परिवर्तन नहीं होता। — प्रश्न: विशिष्ट परिस्थितियों में क्या वह हमारे समान उसे घन जैसा ''समझ'' सकता है? — यदि नहीं तो इसे किसी प्रकार की अंधता कहा ही नहीं जा सकता।
चित्रों से हमारा और ‘पक्षांध’ का सम्बन्ध नितान्त भिन्न होगा।
(हमारे लिए इस प्रकार की विसंगतियों की कल्पना करना आसान है।)
‘पक्षांधता’ तो ‘संगीत-प्रेम’ के अभाव जैसी होगी।
इस प्रत्यय का महत्त्व ‘किसी पक्ष को देखने’ और ‘किसी शब्द के अर्थ को अनुभव करने’ के बीच रहने वाले संबंध में निहित है। क्योंकि, हम पूछना चाहते हैं “शब्दार्थ के ''अनुभव'' के बिना आप किससे वंचित रह जाते?”
उदाहरणार्थ, आप किससे वंचित रह जाते हैं “और” शब्द का उच्चारण करने और उससे सर्वनाम अर्थ समझने के आग्रह को समझ नहीं पाते — अथवा जब आप यह भूल जाते हैं कि शब्दों को बार-बार दोहराने पर उनका अर्थ लुप्त हो जाता है, वे मात्र ध्वनि बन कर रह जाते हैं?
उदाहरणार्थ, किसी अदालत में यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि किसी का किसी शब्द से क्या आशय था। और इस आशय का अनुमान कुछ बातों से लगाया जा सकता है। — यह प्रश्न तो प्रयोगकर्ता के ''अभिप्राय'' के बारे में है। किन्तु, उसने किसी शब्द का — उदाहरणार्थ, “बैंक” शब्द का — अनुभव कैसे किया, क्या यह प्रश्न भी आशय के प्रश्न की भाँति महत्त्वपूर्ण हो सकता है?
मान लीजिए कि मैं किसी के साथ किसी कूट संकेत को तय करता हूँ; उस संकेत के अनुसार “मीनार” का अर्थ है, बैंक। मैं उसे कहता हूँ “अब मीनार पर जाओ” — वह मेरी बात समझता है, और उसी के अनुरूप व्यवहार करता है, किन्तु उसे इस प्रयोग में “मीनार” शब्द अटपटा लगता है, क्योंकि उसने अभी तक इस अर्थ को ‘आत्मसात्’ नहीं किया है।
“किसी गद्य अथवा पद्य रचना को भाव-विभोर होकर पढ़ते समय मेरे अन्दर जो भाव उठते हैं, वही भाव उन रचनाओं को मात्र सूचना के लिए पढ़ते समय नहीं उठते।” मैं किन प्रक्रियाओं की ओर संकेत कर रहा हूँ? — वाक्यों की गूँज ही भिन्न है। मैं अपनी स्वर-शैली पर ध्यान देता हूँ। कभी-कभी किसी शब्द का उच्चारण गलत होता है, मैं उस पर जरूरत से ज्यादा, या कम बल देता हूँ। मैं अपने उच्चारण पर ध्यान देता हूँ और इसे मेरे चेहरे से पढ़ा जा सकता है। सम्भव है, बाद में मैं अपने पढ़ने के, उदाहरणार्थ, अपने स्वरारोह की त्रुटियों के बारे में विस्तृत चर्चा करूँ। कभी-कभी कोई चित्र किसी दृष्टांत के समान मुझे सूझता है। इससे मुझे सही अभिव्यक्ति सहित पढ़ने में सहायता मिलती है। इसी प्रकार की बहुत सी बातों का मैं उल्लेख कर सकता हूँ। — मैं किसी शब्द को ऐसी स्वर शैली भी दे सकता हूँ जिससे बाकी शब्दों का अर्थ स्पष्ट हो जाए, मानो यह शब्द सम्पूर्ण विषय का चित्र ही हो। (और निस्संदेह, यह वाक्य-विन्यास से ही सम्भव है।)
जब मैं भावाभिव्यक्ति सहित इस शब्द का उच्चारण करता हूँ तो वह अपने अर्थ से परिपूर्ण हो जाता है। — “यदि शब्द का प्रयोग उसका अर्थ है तो यह कैसे हो सकता है?” यह मेरा आलंकारिक कथन था। ऐसा नहीं है कि मैंने स्वेच्छा से अलंकार का प्रयोग किया हो: उसका प्रयोग मेरी मजबूरी थी। — किन्तु शब्द का आलंकारिक प्रयोग उसके मूल प्रयोग से भिन्न तो नहीं हो सकता।
मुझे ''यही'' चित्र सूझने की व्याख्या दी जा सकती है। (इस अभिव्यक्ति और इसके अर्थ के बारे में सोचें: “वह शब्द जो इस तक पहुँचता है”।)
किन्तु यदि वाक्य मुझे शब्द-चित्रों के समान लगते हों और उनका प्रत्येक शब्द चित्र के समान लगे, तो आश्चर्य नहीं कि किसी शब्द का अप्रासंगिक और निरुद्देश्य उच्चारण ऐसा आभास दे कि उसका अपना ही कोई विशेष अर्थ होता है।
यहाँ किसी ऐसी मरीचिका पर विचार करें जिससे इनका पता चलता है। मैं अपने मित्र के साथ किसी शहर के आसपास सैर करने जाता हूँ। बातचीत में पता चलता है कि मैं शहर को अपनी दाईं ओर समझता हूँ। इस धारणा के लिए मेरे पास ''कोई'' जाना-पहचाना कारण तो नहीं है, अपितु किसी छोटी सी बात से ही मैं जान जाता हूँ कि आगे जाकर शहर मेरे बाईं ओर है। मैंने ऐसा ''क्यों'' समझा कि शहर ''इस'' दिशा में है, इस प्रश्न का पहले-पहल तो मैं कोई उत्तर ही नहीं दे पाता। ऐसा समझने का मेरे पास ''कोई कारण ही नहीं'' था। किन्तु चाहे मुझे कोई कारण नहीं सूझता, फिर भी मुझे इसका कोई मनोवैज्ञानिक कारण लगता है। विशेषतः कुछ संयोग एवं स्मृतियाँ। उदाहरणार्थ, हम किसी नहर के किनारे चल रहे हैं और कभी पहले ऐसी ही परिस्थितियों मैं मैं किसी नहर के साथ-साथ चल रहा था, और उस समय शहर हमारी दाईं ओर था। — मैं मनोविश्लेषण से अपने निराधार विश्वास के कारणों को खोजने का प्रयत्न कर सकता हूँ।
“किन्तु यह अटपटा अनुभव क्या है?” — निस्संदेह, यह किसी अन्य अनुभव से अटपटा तो नहीं है; यह तो हमारे उन आधारभूत अनुभवों से — उदाहरणार्थ, इन्द्रिय-संस्कारों से — भिन्न है।
“मुझे ऐसा प्रतीत होता है मानो मैं जानता हूँ कि शहर वहाँ है।” — “मुझे प्रतीत होता है मानो ‘श्यूबर्ट’ नाम, श्यूबर्ट की कृतियों और उस के मुख के अनुकूल है।”
आप “मार्च” शब्द कहते हैं और कभी उसे आदेश के अर्थ में लेते हैं और कभी महीने के नाम के अर्थ में। और अब कहते है। “मार्च!” — और फिर “''आगे'' मार्च न करो!” — क्या दोनों बार शब्द कहते समय ''एक ही'' अनुभव होता है — क्या आपको भरोसा है?
यह खेल खेलते हुए, यदि ध्यान देने पर पता चलता है कि मुझे शब्द का अब ''यह'', अब ''वह'' अनुभव हो रहा है — तो क्या इससे यह भी पता नहीं चलता कि वार्तालाप करते समय बहुधा मुझे इसका ''कोई भी'' अनुभव नहीं होता? क्योंकि, यह तो प्रश्न ही नहीं है कि उस समय भी मेरा इससे कभी ''यह'', कभी ''वह'' तात्पर्य होता है और बाद में भी यही तात्पर्य हो सकता है।
किन्तु अब यह प्रश्न रह जाता है कि शब्द को अनुभव करने के इस ''खेल'' में, ‘अर्थ’ का और ‘उसके अर्थ’ का उल्लेख हम क्यों करते हैं। — यह तो एक अलग प्रकार का प्रश्न है। — इस भाषा-खेल की विशेषता यह संवृत्ति है कि ''इस'' स्थिति में हम यह अभिव्यक्ति प्रयोग में लाते हैं: हम कहते हैं कि इस शब्द का उच्चारण हमने इस आशय से किया और किसी अन्य भाषा-खेल से हम इस अभिव्यक्ति को ले लेते हैं।
आप इसे स्वप्न कह सकते हैं।
इससे कुछ भी नहीं बदलता। ‘भारी’ और ‘हल्का’ दोनों विचारों के लिए क्या आप कहना चाहेंगे कि बुधवार भारी था, और मंगलवार हल्का था, अथवा इसके विपरीत कहना चाहेंगे? (मैं तो पूर्वोक्त बात को चुनूँगा।) तो क्या “भारी” और “हल्का” का यहाँ उनके प्रचलित अर्थ से भिन्न अर्थ है? — उनका प्रयोग तो भिन्न है। — तो क्या मुझे भिन्न शब्दों को प्रयुक्त करना चाहिए। नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए। ''इन'' शब्दों का प्रयोग ''यहाँ'' मैं (उनके परिचित अर्थों में) करना चाहता हूँ। — अब मैं इस संवृत्ति के कारणों के बारे में कुछ भी नहीं कह रहा। ''हो सकता है'' कि ये बचपन से ही मेरे साथ रहे हों। किन्तु यह तो एक प्राक्कल्पना है। व्याख्या चाहे जो भी हो, — प्रवृत्ति तो है ही।
यह पूछे जाने पर कि “‘भारी’ और ‘हल्के’ से वास्तव में आपका क्या अर्थ है?” — अर्थों की व्याख्या मैं सामान्य ढंग से ही दे सकता था। मंगलवार और बुधवार के उदाहरणों को तो मैं इंगित ही ''नहीं'' कर सकता था।
यहाँ हम शब्द के ‘मुख्य’ एवं ‘गौण’ अर्थ का भी उल्लेख कर सकते हैं। यदि आप शब्द के मुख्यार्थ को जानते हैं, केवल तभी आप उसे उसके गौण अर्थ में प्रयुक्त कर सकते हैं।
यदि आपने — लिख अथवा बोल कर — गणना करना सीखा है, केवल तभी आपको मन-ही-मन में गणना करने के प्रत्यय को समझाया जा सकता है।
गौण अर्थ ‘लाक्षणिक’ अर्थ नहीं होता। यदि मैं कहता हूँ, “मैं '''''इ''''' स्वर को पीला समझता हूँ; तो मेरा अर्थ लाक्षणिक अर्थ में ‘पीला’ नहीं है, क्योंकि मैं अपने कथन को ‘पीला’ के विचार के अलावा किसी अन्य ढंग से अभिव्यक्त ही नहीं कर सकता।
कोई मुझे कहता है: “बैंक के समीप मेरी प्रतीक्षा करो।” प्रश्न: ''यह शब्द कहते समय'' क्या आपका आशय इस बैंक से था? — यह प्रश्न कुछ ऐसा ही है जैसे “उससे मिलने जाते समय क्या आप उसे अमुक बात कहना चाहते थे?” इसमें किसी विशेष समय का जाने के समय का, उल्लेख है (जैसे कि पहले प्रश्न में बोलने के समय का उल्लेख था) — किन्तु इसमें उस समय होने वाले किसी ''अनुभव'' का उल्लेख तो नहीं है। अर्थ में आशय जैसा कोई अनुभव नहीं होता।
किन्तु किस कारण वे अनुभव से भिन्न होते हैं? — उनमें अनुभव-विषयक कुछ भी नहीं होता। क्योंकि संलग्नी और उन पर प्रकाश डालने वाले विषय (उदाहरणार्थ, बिम्ब) तो उनके अर्थ अथवा आशय नहीं होते।
हमारी क्रिया का आशय उसका ‘संलग्नी’ नहीं होता। जैसे उच्चारण का ‘संलग्नी’ विचार नहीं होता। विचार और आशय न तो ‘अभिव्यक्त’ होते हैं, और न ही ‘अनभिव्यक्त’; न ही उनकी तुलना बोलते या काम करते लोगों के किसी हुंकारे के साथ की जा सकती है, और न ही किसी धुन के साथ।
‘बोलना’ (जोर से अथवा धीरे-धीरे) और ‘सोचना’ तो एक जैसे प्रत्यय नहीं हैं; यद्यपि उनमें गहरा संबंध है।
बोलने और आशय होने के अनुभव के ''उद्देश्य'' एक से नहीं होते। (सम्भव है कि अनुभवों से मनोवैज्ञानिक को ‘''अवचेतन''’ के बारे में पता चल सकता हो।)
“इस शब्द को बोलने पर हम दोनों ने उसके बारे में सोचा।” मानो हम दोनों ने अपने-आप से वही शब्द कहे — और इससे ''अधिक'' इसका क्या अर्थ हो सकता है? — किन्तु क्या वे शब्द ही ''बीजाणु'' नहीं होंगे? उस मनुष्य ''के'' विचार की अभिव्यक्ति होने के लिए उन शब्दों को निश्चित रूप से किसी भाषा एवं किसी संदर्भ से जुड़ा होना होगा।
यदि भगवान हमारे मन में झाँक सकता तो वह भी यह न जान पाता कि हम किसके बारे में बात कर रहे हैं।
“उस शब्द पर आपने मेरी ओर क्यों देखा, क्या आप..... के बारे में सोच रहे थे?” — तो इसका अर्थ है कि किसी क्षण कोई प्रतिक्रिया होती है और उसकी व्याख्या यह कह कर दी जाती है कि “मैंने..... के बारे में सोचा” अथवा “मुझे अकस्मात याद आया कि.....।”
यह कहते हुए आप बोलने के उस क्षण को इंगित करते हैं। आपके द्वारा इंगित क्षण से अन्तर पड़ता है।
किसी शब्द की व्याख्या करने से ही बोलते समय होने वाली कोई घटना इंगित नहीं हो जाती।
“मेरा तात्पर्य ''यह'' है (अथवा था )” (तत्पश्चात् उस शब्द की व्याख्या) यह भाषा-खेल “इसे कहते समय मैंने.... के बारे में सोचा” इस भाषा-खेल से नितान्त भिन्न है। बाद वाला कथन तो “इससे मुझे.... की याद आई” के समान है।
“आज पहले ही मैं तीन बार याद कर चुका हूँ कि मुझे उसे पत्र लिखना चाहिए।” उस समय मेरे भीतर क्या हो रहा था, इसका क्या महत्त्व है? — दूसरी ओर इस वक्तव्य का ही क्या महत्त्व है, क्या उद्देश्य है? — इससे कुछ परिणाम निकाले जा सकते हैं।
“इन शब्दों पर मुझे ''उसकी'' याद आई।” — वह कौन सी आदिम प्रतिक्रिया है जिससे यह भाषा-खेल प्रारंभ होता है — जिसे इन शब्दों द्वारा कहा जा सकता है? लोग इन शब्दों का प्रयोग कैसे सीख जाते हैं?
आदिम प्रतिक्रिया तो कोई क्षणिक दृष्टिपात अथवा कोई भंगिमा हो सकती है, किन्तु वह कोई शब्द भी तो हो सकती है।
“आपने मेरी ओर देखकर सिर क्यों हिलाया?” — “मैं तुम्हें बताना चाहता था कि....।” इससे किसी प्रतीकात्मक परम्परा की बजाय, मेरी क्रिया के उद्देश्य का पता चलता है।
अर्थ शब्द से संलग्नी कोई प्रक्रिया नहीं होती। क्योंकि किसी भी ''प्रक्रिया'' का परिणाम अर्थ नहीं हो सकता।
(इसी प्रकार मेरे विचार में यह कहा जा सकता है: गणना कोई प्रयोग नहीं हो सकती, क्योंकि किसी प्रयोग का परिणाम कोई गुणन हो ही नहीं सकता।)
बातचीत करते समय कई ऐसी महत्त्वपूर्ण संवृत्तियाँ होती हैं, जो बिना सोचे-समझे बोलते समय नहीं होती; और यही संवृत्तियाँ बिना सोचे-समझे बोलने की अभिव्यञ्जक होती हैं। किन्तु वे चिन्तन तो नहीं होतीं।
“अब मैं समझ गया!” यहाँ क्या हुआ? — तो जब मैंने कहा कि अब मैं समझ गया, क्या उस समय मैं ''नहीं'' समझता था?
आप इसे गलत समझ रहे हैं।
(संकेत किसलिए है?)
और क्या ‘समझने’ को ''अभिव्यक्ति'' का संलग्नी कहा जा सकता है?
किसी शब्द की परिचित आकृति, यह अनुभूति कि इस शब्दाकृति में उसका अर्थ समाविष्ट है, वह अपने अर्थ के अनुरूप है — सम्भव है, कुछ मनुष्य इनसे अपरिचित हों (उन्हें अपने शब्दों से कोई लगाव नहीं होगा।) — और हमें इन अनुभूतियों का कैसे पता चलता है? — सच तो यह है कि हम अपने शब्दों को चुनते हैं, और उनको मान्यता देते हैं।
‘उचित’ शब्द को मैं कैसे पाता हूँ? मैं शब्दों का चुनाव कैसे करता हूँ? निस्संदेह कभी-कभी ऐसा लगता है, मानो मैं सूक्ष्म गंध-भेद से उनकी तुलना करता हूँ: ''यह'' तो अत्यधिक.... है, ''वह'' अत्यधिक.... है, — ''यही'' बिल्कुल ठीक है। — किन्तु मुझे सदैव निर्णय नहीं लेने पड़ते, व्याख्याएं नहीं देनी पड़ती; बहुधा मैं केवल यह कहता हूँ: “अभी तक यह उचित नहीं है।” मैं असंतुष्ट रहता हूँ, और खोजता रहता हूँ। अन्ततः कोई शब्द मुझे सूझता है: “''यही'' है!” ''कभी-कभी'' मैं बता सकता हूँ कि क्यों। यहाँ खोजने और पाने का तो बस यही अर्थ है।
किन्तु आपको सूझने वाला शब्द क्या किसी विशेष ढंग से नहीं ‘सूझता’? ध्यान देने पर आप समझ जाऐंगे! — ध्यान देना तो मेरे किसी काम का नहीं। इससे तो बस यही पता चलता है कि ''मेरे'' भीतर अब क्या हो रहा है।
और ठीक इस समय मैं इसे सुन ही कैसे सकता हूँ? मुझे नये शब्द सूझने तक प्रतीक्षा करनी होगी। बहरहाल, यही विचित्र बात है: ऐसा प्रतीत होता है मानो मुझे ऐसे मौके पर प्रतीक्षा करने की आवश्यकता ही नहीं होती, अपितु मैं तो इसे उस समय भी देख सकता हूँ जब वह हो ही नहीं रही होती। कैसे? — मैं इसका ''नाटक'' करता हूँ। — किन्तु इस प्रकार मैं ''क्या'' सीख सकता हूँ? मैं किसकी नकल उतारता हूँ? — संलग्न अभिव्यंजनाओं की। मुख्यतः मुद्राओं की, मुखाकृतियों की, उच्चारण-शैलियों की।
सूक्ष्म सौन्दर्य-भेद के बारे में ''बहुत कुछ'' कहना संभव है — और यह महत्त्वपूर्ण भी है। — सम्भव है कि पहले-पहल आप यही कहें: “''यह'' शब्द अनुकूल है, ''वह'' शब्द अनुकूल नहीं है” — अथवा कुछ ऐसा ही। किन्तु फिर उन शब्दों से जुड़ी सभी पेचिदगियों के विस्तृत विवरण की व्याख्या दे सकते हैं। पहले-पहले लिए गये निर्णय से बात खत्म ''नहीं'' होती, क्योंकि अन्ततोगत्वा शब्द-शक्ति क्षेत्र ही निर्णायक होता है।
“शब्द तो मेरे जिह्वाग्र पर हैं।” मेरी चेतना में क्या हो रहा है? उसकी तो बात नहीं है। उस अभिव्यक्ति का तात्पर्य वहाँ होने वाली कोई भी क्रिया नहीं थी। व्यवहार में ही हमारी रुचि थी। — “शब्द तो मेरे जिह्वाग्र पर है” इससे पता चलता है: यहाँ मुझे उचित शब्द नहीं सूझ रहा, किन्तु मुझे आशा है कि शीघ्र ही वह मुझे याद आ जाएगा। इसके अलावा इस शाब्दिक अभिव्यक्ति का कोई उद्देश्य नहीं होता।
इस विषय पर लिखते समय जेम्स वास्तव में यह कहने का प्रयत्न करते हैं: “कितना महत्त्वपूर्ण अनुभव है! अभी तक शब्द तो नहीं हैं, किन्तु फिर भी किसी अर्थ में वह वहाँ है, — अथवा कुछ तो है जो शब्द के अतिरिक्त कुछ ''नहीं'' बन ''सकता''।” — किन्तु यह तो अनुभव ही नहीं है। अनुभव के समान इसकी ''व्याख्या'' करने पर तो यह विचित्र ही प्रतीत होता है। उसी प्रकार जब हम आशय की व्याख्या, कर्म की संलग्नी क्रिया होने के समान करते हैं; अथवा फिर ऋण एक (−1) की व्याख्या हम गणन-संख्या के समान करें।
“यह तो मेरे जिह्वाग्र पर है” यह वाक्य “अब तो मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है!” इस वाक्य द्वारा अभिव्यक्त अनुभव से अधिक कुछ भी अभिव्यक्त नहीं करता। — हम ''विशिष्ट परिस्थितियों'' में उन शब्दों का प्रयोग करते हैं, और वे शब्द विशेष प्रकार के व्यवहार, एवं विशिष्ट अनुभवों द्वारा घिरे होते हैं। बहुधा ऐसे प्रयोग के बाद शब्द ''मिल'' जाता है। (पूछें: “क्या होता यदि मनुष्य ''कभी भी'' अपने जिह्वाग्र पर स्थित शब्द कोन ढूँढ पाते?”)
मौन, ‘आंतरिक’ बोल, ऐसे अर्धावगुंठित संवृत्ति नहीं होते जिन्हें किसी घूँघट से देखा जा सके। वह तो छिपे ''ही'' नहीं होते, किन्तु यह प्रत्यय हमें आसानी से भ्रमित कर सकता है क्योंकि यह दूर तक ‘बाह्य’ प्रक्रिया के प्रत्यय से गुंथा होता है, किन्तु फिर भी उसके अनुरूप नहीं होता।
(यह प्रश्न कि ‘क्या स्वर-यंत्र (लेरिन्क्स) की ग्रंथियां आन्तरिक बोल से संबंधित होती है अथवा नहीं’, और ऐसी ही अन्य बातें अत्यन्त रुचिकर हो सकती हैं, किन्तु वे हमारे अन्वेषण का विषय नहीं हैं।)
‘मन-ही-मन कहने’ और ‘कहने’ के बीच गहन संबंध को तो मन-ही-मन कही जाने वाली बात को उच्च स्वर में कहने की संभावना और उसके ''साथ'' होने वाली बाह्य क्रिया द्वारा व्यक्त किया जाता है। (मैं मन-ही-मन गा सकता हूँ, अथवा खामोशी के साथ पढ़ सकता हूँ, अथवा मन-ही-मन में गणन कर सकता हूँ, और ऐसा करते समय चुटकियाँ बजा सकता हूँ।)
“किन्तु निस्संदेह मन-ही-मन बोलना ऐसी क्रिया है जिसे मुझे सीखना पड़ता है!” बिल्कुल ठीक; किन्तु यहाँ ‘करना’ और ‘सीखना’ क्या होता है?
शब्द-प्रयोग से उनका अर्थ सीखें। (गणित में बहुधा इसी प्रकार हम कह सकते हैं: ''उपपत्ति'' से सीखें कि साध्य ''क्या'' है।)
“अतः, मैं अपने मन में गणन करते समय ''वास्तव'' में गणन नहीं करता?” — बहरहाल, आप भी तो मन में गणन और कागज पर गणन में भेद करते हैं! किन्तु आप ‘मन में गणन’ करने को ‘गणन’ करने द्वारा ही सीख सकते हैं; गणन करने द्वारा ही आप अपने मन में गणन करना सीख सकते हैं।
जब हम अपने वाक्यों की स्वरशैली को (होठों में ही) गुनगुनाकर दोहराते हैं तो हम मन-ही-मन अत्यंत ‘स्पष्टतापूर्वक’ बातें करते हैं। स्वर-यन्त्र की गति भी सहायक होती है। किन्तु महत्त्वपूर्ण बात तो यही है कि ऐसा करने पर हमें अपनी कल्पना में वे बातें ''सुनाई'' देती हैं और हमें उनकी रूपरेखा मानो अपने स्वर-यंत्र में, मात्र ''अनुभव'' नहीं होती। (क्योंकि यह कल्पना भी की जा सकती है कि मनुष्य अपनी उँगलियों पर गणन करने के समान स्वर-यन्त्र की गति से भी चुपचाप गणन कर सकते हैं।)
जब हमने मन में गणन किया तो हमारे शरीर में अमुक-अमुक हुआ, इस प्राक्कल्पना में हमारी रुचि का कारण केवल यह है कि इससे “मैंने स्वयं से कहा कि...” अभिव्यक्ति का संभावित प्रयोग इंगित होता है; उदाहरणार्थ, इस अभिव्यक्ति से दैहिक प्रक्रिया का अनुमान लगाया जाता है।
किसी अन्य व्यक्ति द्वारा स्वयं को कही गई बात का मुझसे छुपा रहना ‘मन ही मन में कहने’ ''प्रत्यय'' का भाग होता है। यहाँ “छुपा होना” ही अनुचित शब्द है; क्योंकि यदि वह मुझसे छिपा हुआ है तो उसे यह स्पष्ट होना चाहिए, उसे तो इसे ''जानना'' ही चाहिए। किन्तु वह तो इसे ‘जानता’ नहीं; अन्तर केवल इतना है कि जो संशय मुझे होता है वह उसे नहीं होता।
“जो कुछ भी कोई अपने आप मन-ही-मन कहता है वह तो मुझसे छिपा होता है।” इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि बहुधा न तो मैं उसका ''अनुमान'' लगा सकता हूँ, और न ही मैं उसे, उदाहरणार्थ, उसके गले की गतिविधि से (जो कि एक संभावना है) समझ सकता हूँ।
“मैं जानता हूँ कि मैं क्या कहना चाहता हूँ, किसकी कामना करता हूँ, किसमें विश्वास रखता हूँ, क्या अनुभव करता हूँ....” (और ऐसी ही क्रियाओं जैसे मनोवैज्ञानिक क्रियाओं के माध्यम का प्रयोग) तो दार्शनिकों की बकबक है, और यह किसी भी प्रकार की ''प्रागनुभाविक'' धारणा तो ''नहीं'' ही है।
“मैं जानता हूँ कि....” इसका अर्थ “मुझे संशय नहीं है कि....” यह हो सकता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि “मुझे संशय है कि....” शब्द ''अर्थहीन'' हैं, कि संशय को तार्किक रूप से बहिष्कृत कर दिया गया है।
जहाँ हमें पता चल सकता है, जहाँ हम “मुझे विश्वास है” अथवा “मुझे संदेह है” भी कह सकते हैं वहाँ हम “मैं जानता हूँ” कहते हैं; (यदि आप मेरे विरुद्ध वे मामले लाते हैं जिनमें लोग कहते हैं “मुझे तो पता होना ही चाहिए कि मुझे वेदना हो रही है!”, “आप ही जान सकते हैं कि आपको कैसा लग रहा है” इत्यादि; तो आपको इन वाक्यांशों को कहने के समय और उनको उद्देश्य पर विचार करना चाहिए। “युद्ध तो युद्ध है” यह तादात्म्य सिद्धान्त का उदाहरण नहीं होता।)
ऐसे मामले की कल्पना करना संभव है जिसमें मुझे पता चल सके कि मेरे दो हाथ हैं। साधारणतः, मैं ऐसा ''नहीं कर सकता''। “किन्तु आपको तो उन्हें अपनी आँखों के सामने लाना भर है!” — यदि तब भी मुझे अपने दो हाथ होने पर संदेह हो तो मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। (किसी मित्र से पूछना भी काफी होगा।)
इसी सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि “पृथ्वी लाखों वर्षों से है” प्रतिज्ञप्ति का अर्थ “पृथ्वी पिछले पाँच मिनटों से है” इस प्रतिज्ञप्ति से अधिक स्पष्ट है। क्योंकि बाद वाली उक्ति को कहने वाले व्यक्ति से मैं पूछ सकता हूँ: “यह प्रतिज्ञप्ति किस प्रेक्षण को इंगित करती है; और कौन से प्रेक्षण इसके विरुद्ध होंगे?” — जबकि पहले कही गई उक्ति से संबद्ध विचारों एवं प्रेक्षणों को मैं जानता हूँ।
“नवजात शिशु के दाँत नहीं होते।” — “बत्तख के दाँत नहीं होते।” — “गुलाब के दाँत नहीं होते।” — आखिरी बात के बारे में हम सहज रूप से कह सकते हैं — कि वह सत्य ही है। यह तो बत्तख के दाँत न होने से भी कहीं अधिक निश्चयात्मक है। — किन्तु फिर भी यह इतनी स्पष्ट नहीं है। क्योंकि गुलाब के दाँत कहाँ होते? बत्तख के जबड़े में कोई दाँत नहीं होते। और न ही उसके पँखों में होते हैं; किन्तु, ‘बत्तख के दाँत नहीं होते’ कहने वाले व्यक्ति का यह आशय नहीं होता। — क्यों, मान लीजिए कि कोई कहे: गाय अपना खाना खाती है और फिर गुलाब पर गोबर कर देती है, अतः गुलाब के दाँत पशु के मुँह में होते हैं। यह बेतुका नहीं होगा, क्योंकि पहले से यह पता ही नहीं है कि गुलाब के दाँतों को देखने के लिए हमें कहाँ देखना होगा। ((‘किसी अन्य व्यक्ति की देह में वेदना’ से संबंध।))
मैं यह जान सकता हूँ कि कोई अन्य व्यक्ति क्या सोच रहा है, किन्तु मैं यह नहीं जान सकता कि मैं क्या सोच रहा हूँ।
“मैं जानता हूँ कि आप क्या सोच रहे हैं” कहना उचित है और “मैं जानता हूँ कि मैं क्या सोच रहा हूँ” कहना अनुचित है।
(दर्शन का संपूर्ण सागर व्याकरण की एक बूँद में समाहित है।)
“किसी व्यक्ति का सोचना उसकी चेतना के ऐसे कोने में होता रहता है जिसकी तुलना में भौतिक एकान्त तो सार्वजनिक प्रदर्शन ही है।”
यदि ऐसे लोग होते जो दूसरों के मूक आन्तरिक वार्तालाप को — उदाहरणार्थ, अपने स्वर-यन्त्र के प्रेक्षण से सदैव समझ पाते, तो क्या वे भी पूर्ण एकांत के चित्र का प्रयोग करना चाहते?
जब मैं अपने-आप उच्चस्वर में अपने चारों ओर उपस्थित लोगों को न समझ आने वाली भाषा में बात करता हूँ तो मेरे विचार उनसे छिपे रहते हैं।
मान लीजिए, कोई व्यक्ति मेरी मन-ही-मन कही बातों का सदैव ठीक से अनुमान लगा लेता है। (इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह ऐसा कैसे कर पाता है।) किन्तु उसके अनुमान के ''ठीक'' होने की कौन सी कसौटी है? हाँ, मैं एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति हूँ और यह मान लेता हूँ कि उसका अनुमान सही है। — किन्तु क्या मैं गलती नहीं कर सकता, क्या मेरी स्मृति मुझे धोखा नहीं दे सकती? और जब मैं — झूठ बोले बिना — अपने मन में कही हुई बात को अभिव्यक्त करता हूँ, तो क्या सदैव ऐसा नहीं हो सकता? — किन्तु अब ऐसा प्रतीत होता है कि बात यह नहीं है कि ‘मेरे अन्तर क्या हुआ’। (यहाँ पर मैं एक निर्माण-रेखा बना रहा हूँ।)
मैंने अमुक बात सोची, इस ''स्वीकारोक्ति'' के सत्यापन की कसौटी किसी प्रक्रिया के ठीक-ठीक ''विवरण'' की कसौटी नहीं होती। और सच्ची स्वीकारोक्ति का महत्त्व किसी प्रक्रिया के ठीक और निश्चित विवरण में निहित नहीं होता। वास्तव में उसका महत्त्व तो विशिष्ट ''सत्यापन'' की कसौटी द्वारा प्रत्याभूत स्वीकारोक्ति से निकाले जाने वाले विशेष परिणामों में निहित होता है।
(यह अवधारणा कि स्वप्नों से स्वप्नद्रष्टा के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं: हम कह सकते हैं कि इसकी सूचना हमें स्वप्नों के सत्यनिष्ठ विवरणों से प्राप्त हुईं। जागने पर स्वप्न का विवरण देने में द्रष्टा को स्मृतिभ्रम हो सकता है, यह प्रश्न तो तब तक उत्पन्न ही नहीं होता जब तक कि हम विवरण के स्वप्नों के साथ ‘मेल खाने’ की बिल्कुल नयी कसौटी, कोई ऐसी कसौटी जो हमें ‘सत्यापन’ से भिन्न ‘सत्य’ का प्रत्यय प्रदान करती हो, नहीं देते।)
‘विचारों का अनुमान लगाना’ एक खेल का नाम है। उसका एक वर्तित रूप यह होगा: मैं '''अ''' को ऐसी भाषा में जिसे '''ब''' नहीं समझता, कुछ कहता हूँ। '''ब''' को अनुमान लगाना है कि मेरे कथन का क्या अर्थ है। — इसका एक और परिवर्तित रूप: मैं कोई वाक्य लिखता हूँ, जिसे दूसरा व्यक्ति नहीं देख सकता। उसे शब्दों अथवा उनके अर्थों का अनुमान लगाना है। — एक और परिवर्तित रूप: मैं किसी ‘जिग-सॉ’ प्रहेलिका को जोड़ रहा हूँ; दूसरा व्यक्ति देख नहीं सकता किन्तु समय-समय पर वह मेरे विचारों के बारे में अनुमान लगाता है, और उन्हें कहता है। उदाहरणार्थ, वह कहता है, “अब यह टुकड़ा कहाँ है?” — “अब मुझे पता है कि यह कहाँ फिट बैठेगा!” — “मुझे कुछ भी पता नहीं कि यहाँ क्या आएगा” — “सबसे कठिन तो आसमान होता है”, इत्यादि — किन्तु यह आवश्यक नहीं कि उस समय मैं उच्च स्वर में अथवा मन-ही-मन बात कर रहा होऊँ।
इन सब बातों को विचारों का अनुमान लगाना कहा जायेगा; किन्तु वास्तव में इन बातों के न होने के कारण, अनदेखी भौतिक क्रियाओं की भाँति विचार छिप नहीं जाते।
“जो भी ''आन्तरिक'' है वह हमसे छुपा हुआ है।” — भविष्य हमसे छुपा हुआ है। किन्तु सूर्यग्रहण के बारे में गणना करते समय क्या खगोलशास्त्री इस प्रकार सोचता है?
जब मैं किसी को दर्द से तड़पते हुए देखता हूँ, तो मैं यह नहीं सोचता: कोई बात नहीं, इसकी अनुभूतियाँ तो मुझसे छिपी हुई हैं।
कुछ लोगों के बारे में हम यह भी कहते हैं कि हम उनके बारे में सब कुछ जानते हैं। बहरहाल, यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि कोई मनुष्य किसी अन्य व्यक्ति के लिए अत्यन्त रहस्यपूर्ण हो सकता है। इसके बारे में हमें तब पता चलता है जब हम किसी अपरिचित रीति-रिवाज वाले अनजाने देश में आते हैं; उस देश की भाषा को भली-भाँति जानने पर भी हमें वह अपरिचित और अनजाना लगता है। हम लोगों को ''समझ'' ही नहीं पाते। (और इसका कारण यह नहीं है कि हम यह नहीं जानते कि वे मन-ही-मन क्या कह रहे हैं।) हम उनमें अपनी जड़ें नहीं जमा पाते।
“मैं नहीं जानता कि उसके मन में क्या हो रहा है” यह तो एक ''चित्र'' है। यह धारणा की विश्वसनीय व्याख्या है। इससे धारणा के कारणों का पता नहीं चलता। ''वे'' सुलभ नहीं हैं।
यदि सिंह बोल सकता तो हम उसे समझ नहीं पाते।
विचारों के समान न केवल आशयों का अनुमान लगाने की कल्पना करना संभव है, अपितु इस अनुमान की कल्पना भी संभव है कि कोई व्यक्ति वास्तव में क्या ''करने जा रहा है''।
“केवल वही जान सकता है कि उसका आशय क्या है” यह कहना तो बकवास है: “केवल वही जान सकता है कि वह क्या करेगा” यह कहना गलत है। क्योंकि यह आवश्यक तो नहीं कि आशय की मेरी अभिव्यक्ति में निहित भविष्यवाणी (उदाहरणार्थ “पाँच बजे मैं घर चला जाऊँगा”) सत्य हो, और किसी अन्य व्यक्ति को पता हो कि वास्तव में क्या होने वाला है।
बहरहाल दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं: एक तो यह कि अधिकतर मामलों में कोई अन्य व्यक्ति मेरी क्रियाओं के बारे में भविष्यवाणी नहीं कर सकता, जबकि मुझे उसका पूर्वज्ञान हो जाता है; दूसरी यह कि मेरी करनी के बारे में (अपने आशयों की अभिव्यक्ति के बारे में) मेरी और उसकी भविष्यवाणी का आधार एक सा नहीं होता, और उन भविष्यवाणियों से निकलने वाले निष्कर्ष भी नितान्त भिन्न होते हैं।
किसी तथ्य और किसी अन्य व्यक्ति की संवेदनाओं के बारे में, मैं समान रूप से ''विश्वस्त'' होता हूँ। किन्तु इससे “वह अत्यधिक खिन्न है”, “25 × 25 = 625” और “मैं साठ साल का हूँ” आदि प्रतिज्ञप्तियां एक जैसी तो नहीं हो जातीं। व्याख्या से ही पता चल जाता है कि निश्चयात्मकता भिन्न ''प्रकार'' की होती है। — यह मनोवैज्ञानिक भेद को इंगित करता प्रतीत होता है। किन्तु भेद तो तार्किक है।
“किन्तु यदि आप ''विश्वस्त'' हैं तो कहीं आप संशय से आँखें तो नहीं मूँद रहे?” — वे तो मुँदी ही हैं।
‘यह व्यक्ति वेदनाग्रस्त है’, अभिव्यक्ति में क्या मेरा निश्चय ‘दो दूनी चार होते हैं’ से कम है? — क्या इससे यह पता चलता है कि बाद वाली बात में गणितीय निश्चयात्मकता है? — ‘गणितीय निश्चयात्मकता’ मनोवैज्ञानिक प्रत्यय नहीं होती।
निश्चयात्मकता का रूप तो भाषा-खेल का रूप होता है।
“अपने अभिप्रायों को केवल वही जानता है” — यह तो इस तथ्य की अभिव्यक्ति है कि हम ''उससे'' पूछते हैं कि उसके अभिप्राय क्या हैं। — यदि वह गम्भीर है तो उनके बारे में वह हमें बता देगा; किन्तु उसके अभिप्रायों को भाँपने के लिए मुझे गम्भीरता के अलावा कुछ और भी चाहिए। यहाँ पर इसका ''जानने'' से संबंध है।
अपनी क्रियाओं के अभिप्राय की मेरी स्वीकारोक्ति, जैसा भाषा-खेल होता है इस पर ''चकित'' होइये।
दैनन्दिन भाषा-खेलों की आश्चर्यजनक विविधता से हम बेखबर रहते हैं, क्योंकि हमारी भाषा का रूप सभी वस्तुओं को एक समान बना देता है।
नवीन (स्वाभाविक, ‘निश्चित’) तो सदैव भाषा-खेल ही होता है।
कारण और अभिप्राय में क्या भेद है? — अभिप्राय की ''खोज'' कैसे की जाती है, और कारण कैसे ''खोजा'' जाता है?
ऐसा प्रश्न भी होता है: “लोगों के अभिप्रायों को जाँचने का क्या यह विश्वसनीय तरीका है?” किन्तु इस प्रश्न को पूछने से पूर्व हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि “अभिप्राय को जाँचने” का क्या अर्थ होता है; ‘''अभिप्राय''’ और ‘''जाँचने''’ के बारे में बताए जाने से हम इनके बारे में कुछ नहीं सीखते।
छड़ी की लम्बाई का हम अनुमान लगाते हैं, और उससे अधिक यथार्थ अथवा अधिक भरोसेमंद ढंग से अनुमान लगाने के उपाय खोजते हैं, और उन्हें पाते हैं। अतः — आप कहते हैं — ''जिसका'' अनुमान लगाया जा रहा है वह तो उसके अनुमान लगाने के उपायों से भिन्न है। लम्बाई क्या होती ''है'', इसको लम्बाई मापने के उपायों द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता। — इस प्रकार सोचना तो गलती करना है। कैसी गलती? “माउंट ब्लैंक की ऊँचाई तो उस पर चढ़ने के तरीके पर निर्भर करती है” यह कहना तो अटपटा लगेगा। और ‘लम्बाई को अधिकाधिक यथार्थतः मापने’ की तुलना हम विषय से अधिकाधिक समीप होने की प्रणाली से करना चाहते हैं। किन्तु यह कहीं तो स्पष्ट होता है और कहीं स्पष्ट ''नहीं'' होता कि: “विषय की लम्बाई के समीप होने” का क्या अर्थ है। “लम्बाई मापने” का अर्थ हम ''लम्बाई'' और मापने के अर्थ को जानकर नहीं सीखते; “लम्बाई” शब्द का अर्थ हम, अन्य बातों के साथ-साथ, लम्बाई मापना क्या होता है, यह जान कर सीखते हैं।
(इसी कारण “पद्धति” शब्द के दो अर्थ होते हैं। दैहिक अन्वेषण को ही नहीं, अपितु प्रत्ययात्मक अन्वेषण को भी “पद्धति-विषयक अन्वेषण” कहा जा सकता है।)
कभी-कभी हम निश्चितता और विश्वास की स्वरशैली को विचार के रंग कहना चाहेंगे; और यह सच ही है कि वे स्वरशैली में अभिव्यक्ति पाते हैं। किन्तु उन्हें बोलने अथवा सोचने के समय होने वाली ‘अनुभूतियों’ जैसा न समझें।
मत पूछें: “हमारे मन में क्या होता है जब हम विश्वस्त होते हैं कि....?” — अपितु पूछें: मानवीय क्रियाओं में “निश्चयात्मकता” कैसे अभिव्यक्त होती है?
“किसी अन्य व्यक्ति की मनोदशा के बारे में यद्यपि आपको पूर्ण निश्चितता हो सकती है, फिर भी वह सदैव वस्तुपरक निश्चितता न होकर व्यक्तिपरक निश्चितता होती है।” — इन दो शब्दों से भाषा-खेलों के भेद का पता चलता है।
किसी गणन (उदाहरणार्थ, कई संख्याओं के जोड़) के ठीक परिणाम के बारे में विवाद हो सकता है। किन्तु ऐसे विवाद यदा-कदा, और थोड़ी देर के लिए ही होते हैं। उनका निर्णय तो, कहा जा सकता है, ‘निश्चयपूर्वक’ किया जा सकता है।
गणन के परिणामों के बारे में गणितज्ञों में प्रायः मतभेद नहीं होता। (यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है।) — यदि ऐसा न होता, उदाहरणार्थ, यदि कोई गणितज्ञ आश्वस्त हो जाता कि कोई संख्या अनजाने ही बदल गई है, अथवा उसको अथवा किसी अन्य को मतिभ्रम हो गया है, इत्यादि — तो ‘गणितीय निश्चितता’ का हमारा प्रत्यय होता ही नहीं।
फिर भी यह कहा जा सकता है: “यह सच है कि हम कभी भी यह नहीं ''जान'' सकते कि गणन का क्या परिणाम होगा, किन्तु फिर भी उसका एक सुनिश्चित परिणाम होता है। (उसे ईश्वर जानता है।) गणित में तो पूर्ण निश्चितता होती ही है — यद्यपि हम उसकी धुँधली छाया तक ही पहुँच पाते हैं।”
किन्तु क्या मैं कुछ ऐसा कहने का प्रयास कर रहा हूँ कि गणित की निश्चितता तो स्याही और कागज की विश्वसनीयता पर आधारित है? ''नहीं''! (वह तो एक दुश्चक्र होगा।) — मैंने यह तो नहीं कहा कि गणितज्ञों में मतभेद ''क्यों'' नहीं होता, मैंने तो केवल यह कहा है कि उनमें मतभेद नहीं ''होता''।
निस्संदेह यह सत्य है कि आप कुछ विशेष प्रकार के कागज-कलम से गणन नहीं कर सकते, उदाहरणार्थ, ऐसे कागज-कलम से जिनमें कुछ विचित्र से परिवर्तन आ जाते हों — किन्तु फिर भी उनमें आये परिवर्तनों का पता स्मृति एवं गणन के अन्य तरीकों द्वारा ही चल सकता है। और इनका परीक्षण कैसे किया जाए?
जिसे हमें स्वीकारना है, जो हमें प्रदत्त है — कहा जा सकता है, कि वे तो ''जीवन-शैलियाँ ही'' हैं।
क्या यह कहने का कोई अर्थ है कि लोग रंगों के बारे में एक राय रखते हैं? यदि वे एक राय न हों तो क्या हो? — उसी फूल को कोई लाल कहेगा और कोई नीला, इत्यादि। — किन्तु इन लोगों के “लाल” एवं “नीले” शब्दों को हमें ''अपने'' ‘रंग-शब्द’ कहने का क्या अधिकार है?
वे इन शब्दों का प्रयोग कैसे सीखेंगे? और उनके द्वारा सीखे गये भाषा-खेल को क्या हम ‘रंगों के नाम’ का प्रयोग करना कह सकेंगे? स्पष्टतः, यहाँ पर श्रेणी-भेद है।
बहरहाल, गणित पर भी यह समीक्षा लागू होती है। यदि संपूर्ण सहमति न होती तो जिन तकनीकों को हम सीखते हैं, उन्हें मनुष्य कभी नहीं सीख पाते। वे तकनीकें तो अपरिचय की सीमा तक हमारी तकनीकों से न्यूनाधिक भिन्न होतीं।
“गणितीय-सत्य मनुष्यों की जानकारी पर निर्भर नहीं रहता।” — निस्संदेह, “मनुष्यों का विश्वास है कि दो दूनी चार होते हैं”, और “दो दूनी चार होते हैं” प्रतिज्ञप्तियों का एक समान अर्थ नहीं होता। बाद वाली प्रतिज्ञप्ति तो गणितीय प्रतिज्ञप्ति है; पहले वाली अभिव्यक्ति का, यदि कोई अर्थ है तो वह यह हो सकता है: मनुष्य गणितीय प्रतिज्ञप्ति को ''जान'' चुके हैं। दोनों प्रतिज्ञप्तियों के नितान्त भिन्न ''प्रयोग'' हैं। — किन्तु ''इसका'' क्या अर्थ है: “चाहे सभी लोग विश्वास करें कि दो दूनी पाँच होते हैं तो भी वे चार ही रहेंगे?” — क्योंकि सभी लोगों का ऐसा विश्वास होना कैसा होगा? — हाँ, उदाहरणार्थ, मैं कल्पना कर सकता हूँ, कि लोगों की गणन-पद्धति अथवा तकनीक इतनी भिन्न हो कि हम उसे “गणन-पद्धति” कहें ही नहीं। किन्तु क्या यह ''गलत'' होगा? (क्या राज्याभिषेक ''गलत'' है? हमसे भिन्न प्राणियों को यह बहुत विचित्र लगेगा।)
निस्संदेह, एक अर्थ में गणित ज्ञान की एक शाखा है, — किन्तु यह एक ''क्रिया-कलाप'' भी तो है। और ‘गलत गणना’ अपवाद ही हो सकती है। जिसे अभी हमने ‘गलत गणना’ नाम दिया यदि वह नियम बन जाए तो वह खेल जिसमें वह गलत गणना थी उसे रद्द होना पड़ेगा।
“हम सभी एक ही पहाड़ा सीखते हैं।” निस्संदेह, यह हमारी पाठशालाओं में गणित पढ़ाने पर टिप्पणी हो सकती है — किन्तु यह पहाड़े के प्रत्यय पर प्रेक्षण भी हो सकता है। (साधारणतः घुड़ दौड़ में घोड़े जितनी तेजी से भाग सकते हैं, भागते हैं।)
रंग-अंधता तो होती है, और उसे जानने के ढंग भी होते हैं। सामान्य पाये जाने वाले लोगों में रंगों के निर्धारण में साधारणतः, पूर्ण सहमति होती है। रंग-निर्धारण के प्रत्यय की यही विशेषता है।
साधारणतः, किसी अनुभूति की अभिव्यक्ति की मौलिकता पर ऐसी कोई सहमति नहीं होती।
मुझे ''पूर्ण'' विश्वास है कि वह दिखावा नहीं कर रहा; किन्तु किसी अन्य व्यक्ति को ऐसा नहीं लगता। क्या मैं सदैव उसे विश्वास दिला सकता हूँ? और यदि नहीं तो क्या उसके तर्क, अथवा प्रेक्षण में कोई त्रुटि है?
“जब कोई किसी ऐसी बात पर शक करता है जिसे हम पूर्णतः मौलिक मानते हैं — किन्तु हम उसे सिद्ध नहीं कर पाते, तब हम “आप सभी भ्रमित है”, ऐसा कहते हैं।
अनुभूति की अभिव्यक्तियों की मौलिकता के बारे में, क्या ‘विशेषज्ञ-निर्णय’ जैसा कुछ होता है? — यहाँ भी ऐसे लोग होते हैं जिनके निर्णय ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ होते हैं।
मनुष्यों का अच्छा ज्ञान रखने वाले लोगों के निर्णयों पर आधारित पूर्वानुमान साधारणतः अधिक उचित होंगे।
क्या कोई इस ज्ञान को सीख सकता है? हाँ, कुछ लोग सीख सकते हैं। बहरहाल, किसी पाठयक्रम से तो नहीं, अपितु ‘''अनुभव''’ से। — क्या कोई अन्य व्यक्ति इसे किसी को सिखा सकता है? निस्संदेह। समय-समय पर वह उसे उचित ''संकेत'' देता रहता है। — यहाँ पर ‘सीखना’ और ‘सिखाना’ इसी प्रकार होता है। — यहाँ हम तकनीक नहीं सीखते; यहाँ तो हम उचित निर्णय लेना सीखते हैं। नियम भी होते हैं, किन्तु उनसे कोई पद्धति नहीं बनती, और केवल अनुभवी व्यक्ति ही उनका उचित प्रयोग कर सकते हैं। गणन-नियमों जैसे नहीं।
यहाँ सबसे बड़ी कठिनाई तो इस अनिश्चितता के सही और यथार्थ रूप को शब्दों प्रस्तुत करना है।
“अभिव्यक्ति की मौलिकता सिद्ध नहीं की जा सकती; उसे तो अनुभव करना पड़ता है।” — बिल्कुल ठीक, — किन्तु मौलिकता की इस पहचान का हम क्या करें? यदि कोई कहता है “ऐसा तो कोई प्रेम विह्वल हृदय ही कह सकता है” — और यदि वह किसी और का मन भी वैसा ही बना देता है, — तो इसके परिणाम आगे क्या होंगे? अथवा क्या इसके कोई परिणाम ही नहीं होंगे, और किसी बात से एक व्यक्ति के आनन्दित होने, और दूसरे के न होने से खेल ''समाप्त'' हो जायेगा?
इसके ''परिणाम'' तो होते हैं, किन्तु वे बिखरे हुए होते हैं। अनुभव, यानी, नाना प्रकार के प्रेक्षण हमें उनके बारे में बताते हैं, और उन्हें भी साधारण नियमों में नहीं बाँधा जा सकता; किसी विरले मामले में ही हम उचित एवं सार्थक निर्णय पर पहुँचते हैं, और सार्थक संबंध स्थापित कर पाते हैं। और साधारण टिप्पणियों से तो किसी पद्धति के अंश ही निकल पाते हैं।
प्रमाणों से किसी की मनःस्थिति, उदाहरणार्थ, वह दिखावा नहीं कर रहा, के बारे में सुनिश्चित होना सम्भव है। किन्तु यहाँ ‘प्रमाण’ में ‘अननुमेय’ प्रमाण भी सम्मिलित है।
प्रश्न तो यह है: अननुमेय प्रमाण क्या ''निष्पादित'' करता है?
मान लीजिए कि द्रव्य की रासायनिक (आन्तरिक) संरचना का कोई अननुमेय प्रमाण हो, ''तो भी'' उसे अपने आपको परीक्षा-''योग्य'' परिणामों द्वारा सिद्ध करना होगा।
(अननुमेय प्रमाण किसी को यह विश्वास दिला सकता है कि यह चित्र.... की मौलिक रचना है, किन्तु इसे लिखित प्रमाणों द्वारा भी सिद्ध किया जा सकता है।)
अननुमेय प्रमाण में दृष्टिपात के, भंगिमा के, स्वरशैली के सूक्ष्म भेद शामिल हैं।
मैं मौलिक प्रेम-दृष्टि को पहचान सकता हूँ और उसे कृत्रिम प्रेम दृष्टि से अलग कर सकता हूँ (और निस्संदेह, यहाँ मेरे निर्णय की ‘अननुमेय’ पुष्टि भी की जा सकती है)। किन्तु सम्भव है कि मैं उस दृष्टि-भेद का विवरण न दे सकूँ। और इसका कारण यह नहीं है कि मेरी भाषा में इसके लिए कोई शब्द नहीं हैं। नये शब्दों का आविष्कार क्यों नहीं किया जा सकता? यदि मैं प्रतिभाशाली चित्रकार होता, तो संभवत: मैं मौलिक और कृत्रिम प्रेम-दृष्टि को चित्रों में ढाल सकता।
पूछें: हम किसी विषय का ‘सहज ज्ञान’ कैसे प्राप्त करते हैं? और इस सहज ज्ञान का प्रयोग कैसे किया जा सकता है?
निस्संदेह, दिखावा करना वह विशिष्ट स्थिति होती है जिसमें (उदाहरणार्थ) वेदनाग्रस्त न होने पर भी वेदनाभिव्यक्ति का नाटक किया जाता है। यदि यह कदाचित् संभव होता, तो सदैव दिखावा ही — हमारी जीवन-पद्धति का बिल्कुल यही संरूप, क्यों होता?
शिशु को दिखावा करने से पहले बहुत कुछ सीखना होता है। (कुत्ता पाखंडी नहीं हो सकता, और न ही वह निष्कपट हो सकता है।)
वस्तुतः ऐसी स्थिति हो सकती है जिसमें हम कहें: “इस व्यक्ति को ''विश्वास'' है कि वह दिखावा कर रहा है।”
=== xii ===
यदि प्रत्ययों के निर्माण की व्याख्या प्राकृतिक तथ्यों द्वारा दी जा सके, तो क्या हमारी रुचि व्याकरण की बजाय उसकी आधाररूपी प्रकृति में नहीं होनी चाहिए? प्रत्ययों, और अति साधारण प्राकृतिक तथ्यों की अनुरूपता में तो हमारी रुचि निश्चित ही है। (ऐसे तथ्यों में जिनकी सरलता के कारण हम अधिकतर उनकी ओर ध्यान ही नहीं देते।) किन्तु प्रत्ययों की संरचना के इन संभावित कारणों में हमारी रुचि नहीं होती; हम प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में चिंतन नहीं कर रहे; न ही प्राकृतिक इतिहास के क्षेत्र में — क्योंकि हम अपनी कार्य-सिद्धि के लिए काल्पनिक प्राकृतिक इतिहास का निर्माण भी कर सकते हैं।
मैं यह नहीं कह रहा: यदि प्रकृति के अमुक तथ्य भिन्न होते तो लोगों के प्रत्यय भी (प्राक्कल्पना के अर्थ में) भिन्न होते। अपितु मैं कह रहा हूँ: यदि कोई किन्हीं प्रत्ययों को बिल्कुल ठीक मानता है, और यह भी मानता है कि भिन्न प्रत्यय होने का अर्थ किसी वर्तमान अनुभव से वंचित रह जाना होगा, — तो उसे ऐसे सामान्य प्राकृतिक तथ्यों की कल्पना करने दें जिनसे हम अपरिचित हैं, और फिर उसे साधारण प्रत्ययों से भिन्न प्रत्ययों की संरचना समझ में आ जाएगी।
प्रत्यय की तुलना चित्र-शैली से करें। क्योंकि क्या हमारी चित्र-शैली यादृच्छिक है? क्या हम अपनी मर्जी से उसे चुन सकते हैं? (उदाहरणार्थ, मिस्त्री-शैली को)। क्या यह मात्र आकर्षक और भद्दे होने का प्रश्न है?
=== xiii ===
जब मैं कहता हूँ: “आधे घंटे पहले वह यहाँ था” — यानी इसे याद करते हुए — तो यह वर्तमान अनुभव का वर्णन नहीं होता।
स्मृति-''अनुभव'' तो स्मरण करने से जुड़े होते हैं।
स्मरण में अनुभव का कोई अंश नहीं होता। — निस्संदेह इसे आत्मालोचन द्वारा जाना जा सकता है? जब मैं किसी विषय को खोजता हूँ तो क्या ''इससे'' यह पता नहीं चलता कि वहाँ कुछ भी नहीं है? — किन्तु इसका पता तो इस अथवा उस स्थिति में ही चल सकता है। पर फिर भी इससे यह पता नहीं चलता कि ‘स्मरण’ शब्द का क्या अर्थ है, और इसीलिए यह भी पता नहीं चलता कि मुझे उस विषय को ''कहाँ'' खोजना चाहिए!
मनोवैज्ञानिक प्रत्ययों को आत्मसात् करने से ही हममें स्मृति-''विचार'' उत्पन्न होते हैं। यह दो ''खेलों'' को आत्मसात् करने के समान है। (फुटबाल में ''गोल'' होते हैं, टैनिस में नहीं होते।)
क्या इस स्थिति की कल्पना की जा सकती है: अपने जीवन में कोई पहली बार स्मरण करता है और कहता है, “हाँ, अब मुझे पता है कि ‘स्मरण करना’ क्या होता है, स्मरण करने में ''कैसा अनुभव'' होता है।” — “उसे कैसे मालूम होता है कि इस अनुभूति को ‘स्मरण करना’ कहते हैं?” तुलना कीजिए: “हाँ अब मैं जानता हूँ कि ‘झनझनाना’ क्या होता है।” (संभवतः, उसे पहली बार बिजली का झटका लगा हो।) — क्या उसे मालूम है कि यह स्मृति है क्योंकि वह किसी बीती बात के कारण हुई है? और वह कैसे जानता है कि भूतकाल क्या होता है? भूतकाल के प्रत्यय को मनुष्य स्मरण-क्रिया द्वारा जानता है।
और भविष्य में भी वह कैसे जानेगा कि स्मरण करना कैसी अनुभूति होती है?
(दूसरी ओर, संभवतः, हम “बहुत दिन पहले” की अनुभूति का उल्लेख कर सकते हैं, क्योंकि बीते समय के विवरणों को विशेष स्वरशैली, भंगिमा के साथ कहा जाता है।)
=== xiv ===
‘बालविज्ञान’ कहकर मनोविज्ञान की अव्यवस्था और व्यर्थता की व्याख्या नहीं दी जा सकती; उदाहरणार्थ, इसकी तुलना भौतिक विज्ञान की आरंभिक स्थिति से नहीं की जा सकती। (बल्कि गणित की कुछ शाखाओं से सेट-थ्योरी से) क्योंकि मनोविज्ञान में प्रायोगिक पद्धति और ''प्रत्ययात्मक अव्यवस्था'' होती है। (जैसे दूसरे स्थानों में ''प्रत्ययात्मक अव्यवस्था'' और प्रमाण-पद्धति होती है।)
प्रायोगिक पद्धति के कारण हमें प्रतीत होता है कि हमारे पास अपनी जटिल समस्याओं के समाधान का साधन है; यद्यपि समस्या और पद्धति का कभी एक दूसरे से मेल नहीं होता।
गणित में ऐसा अन्वेषण संभव है जो मनोविज्ञान के अन्वेषण से पूरी तरह मिलता-जुलता हो। पहला अन्वेषण वैसा ही ''अ-गणितीय होगा जैसा दूसरा अ- मनोवैज्ञानिक''। उदाहरणार्थ, उसमें गणन होगा ही नहीं, इसलिए वह गणित से संबंधित नहीं होगा। शायद उसका नाम ‘गणित के आधार’ का अन्वेषण होना चाहिए।