ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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20. उदाहरणार्थ, "बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने" का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो । – या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।
20. उदाहरणार्थ, "बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने" का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो । – या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।


21. वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है : 'जानने' के प्रत्यय में और 'विश्वास होने', 'अनुमान करने', 'संशय करने', 'कायल होने' जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि "मैं जानता हूँ कि..." कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ " मैं समझता था कि मैं जानता हूँ" इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है।–किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप<references />
21. वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है : 'जानने' के प्रत्यय में और 'विश्वास होने', 'अनुमान करने', 'संशय करने', 'कायल होने' जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि "मैं जानता हूँ कि..." कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ " मैं समझता था कि मैं जानता हूँ" इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है।–किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए – किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता ।
 
22. यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है "मैं भूल नहीं कर सकता"; या फिर जो कहता है "मैं गलत नहीं हूँ", तो यह बात विचित्र ही होगी।
 
23. यदि मैं यह नहीं जानता कि किसी के दो हाथ हैं (उदाहरण के रूप में, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके हाथ काट दिए गए हों ); तो किसी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन पर कि उसके दो हाथ हैं, मैं विश्वास कर लूँगा । और यदि वह यह कहे कि वह इस बारे में ''जानता'' है तो इससे मुझे यही पता चलता है कि वह इसको सुनिश्चित कर रहा है और इसीलिए उसकी बाँहे अब पट्टियों, या किन्हीं अन्य आवरणों से ढंकी नहीं हैं । विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करने का आधार मेरी इस मान्यता में है कि वह इस बात का निश्चय कर सकता है। किन्तु, संभवतः कोई भौतिक वस्तु है ही नहीं, ऐसा कहने वाला व्यक्ति यह नहीं मानता।
 
24. प्रत्ययवादी कुछ इस प्रकार का प्रश्न करेगा: "मुझे अपने हाथों के अस्तित्व पर संशय न करने का क्या अधिकार है?" (और उस पर यह उत्तर तो नहीं हो सकता : मैं ''जानता'' हूँ कि उनका अस्तित्व है) किन्तु ऐसा प्रश्नकर्ता इस तथ्य को भूल जाता है कि सत्ता विषयक संशय किसी भाषा-खेल में ही कारगर होता है। यानी हमें पहले यह पूछना पड़ेगा: इस प्रकार का संशय कैसा होगा?, पर, हम इसे आसानी से समझ नहीं पाते।
 
25. "यह हाथ है" इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में भी त्रुटि हो सकती है। केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही यह असंभव है । – "परिकलन में भी भूल हो सकती है – केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही त्रुटि संभव नहीं होती।"
 
26. किन्तु क्या किसी ''नियम'' से ही यह जानना संभव है कि परिकलन-नियम का प्रयोग किन परिस्थितियों में दोषपूर्ण नहीं होगा?
 
यहाँ नियम का हमारे लिए क्या उपयोग है? क्या हम इसके प्रयोग में त्रुटि नहीं कर सकते?
 
27. फिर भी, यदि हम यहाँ नियम जैसी कोई चीज बनाना चाहें तो उसमें हमें यह कहना होगा कि वह "सामान्य परिस्थितियों में" ही लागू होता है। सामान्य परिस्थितियों को हम पहचानते तो हैं किन्तु उनका हूबहू विवरण नहीं दे सकते अधिकाधिक हम कुछ असामान्य परिस्थितियों का वर्णन कर सकते हैं।
 
28. 'नियम सीखने' का क्या अभिप्राय है? ''यह''।
 
'उस नियम-प्रयोग में भूल' का क्या अभिप्राय है? – ''यह''। और ऐसा कहते समय किसी अनिश्चित विषय को इंगित किया जाता है।
 
29. नियम प्रयोग के अभ्यास से भी प्रायोगिक-दोष का पता चलता है।
 
30. किसी विषय के बारे में निश्चित राय बना लेने पर हम कहते हैं: "हाँ, परिकलन बिल्कुल ठीक है", किन्तु इसका अनुमान वह अपनी निश्चित राय से नहीं करता । हम अपनी निश्चित राय से परिस्थितियों का अनुमान नहीं लगाते।
 
निश्चित राय, ''तो मानो'', परिस्थितियों की अभिव्यक्ति की हमारी शैली होती है, किन्तु उस शैली से ही हमारी बात के ठीक होने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
 
31. उन्मत्त व्यक्ति की भाँति बारम्बार दोहराए जाने वाले वाक्यों को मैं दार्शनिक-भाषा से बहिष्कृत कर देना चाहता हूँ।
 
32. यह ''मूअर'' के जानने की बात नहीं है कि यह एक हाथ है, अपितु स्थिति तो यह है कि यदि वे कहते "निस्संदेह मैं इस विषय में भूल कर सकता हूँ" तो हम उनकी बात को समझ नहीं पाते। हमें पूछना चाहिए "ऐसी त्रुटि कैसे होगी?"–उदाहरणार्थ, ऐसी त्रुटि का पता कैसे चलेगा?
 
33. अतः, हम ऐसी प्रतिज्ञप्तियों को बहिष्कृत कर देते हैं जिनसे हमें कोई लाभ नहीं होता।
 
34. जब हम किसी को परिकलन सिखाते हैं तो क्या हम उसे अपने अध्यापक के परिकलन पर भरोसा करना भी सिखाते हैं? किन्तु इन सभी व्याख्याओं का कहीं तो अन्त होना ही चाहिए। क्या हमें उसे यह भी बतलाना होगा कि वह अपनी इन्द्रियों पर भरोसा कर सकता है – क्योंकि उससे कई बार वस्तुत: यह भी कहा जाता है कि अमुक-अमुक परिस्थिति में वह उन पर भरोसा ''नहीं कर सकता''? –
 
नियम और अपवाद।
 
35. किन्तु क्या किसी भी भौतिक पदार्थ के अभाव की कल्पना नहीं की जा सकती? मैं नहीं जानता । पर फिर भी " भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है " ऐसा कहना निरर्थक है । क्या इसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति कहा जा सकता है? –
 
और क्या ''यह'' आनुभविक प्रतिज्ञप्ति है: "ऐसा लगता है कि भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है"?
 
36. "अ एक भौतिक पदार्थ है" यह एक ऐसे व्यक्ति को दी जाने वाली सीख है जिसे अभी तक या तो यह नहीं पता कि "अ" क्या है, या फिर जो "भौतिक पदार्थ" के अर्थ से अनभिज्ञ है। यानी यह वाक्य तो शब्द प्रयोग को सीखना है, पर "भौतिक पदार्थ" एक तार्किक प्रत्यय है । (जैसे कि रंग, परिमाण, ...) यही कारण है कि "भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है" जैसी कोई प्रतिज्ञप्ति प्रतिपादित नहीं की जा सकती।
 
फिर भी हमारा सामना ऐसे असफल प्रयासों से हमेशा होता रहता है।
 
37. "भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है" इस अभिव्यक्ति को निरर्थक कहने से क्या किसी प्रत्ययवादी के सन्देह अथवा किसी यथार्थवादी के विश्वास का समुचित उत्तर दिया जा सकता है । उनके लिए तो यह निरर्थक नहीं है। बेशक ऐसा कहना एक हल . हो सकता है : यह कथन या इस कथन का विलोम किसी ऐसी अनिर्वचनीय बात को कहने का असफल प्रयास है। सिद्ध किया जा सकता है कि यह एक असफल प्रयास है; किन्तु बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। हमें यह समझना चाहिए कि, यह संभव है कि, किसी समस्या या उसके समाधान की हमारी पहली सूझ ठीक से अभिव्यक्त ही न हुई हो। जैसे फिल्म की सम्यक् समीक्षा के लिए समीक्षक सर्वप्रथम सर्वाङ्गीण आलोचना करता है पर बाद में अपनी सर्वाङ्गीण-आलोचना की ''पड़ताल'' के बाद ही सही समीक्षा कर पाता है।
 
38. गणित में ज्ञान: इसमें हमें 'भीतरी प्रक्रिया' अथवा 'स्थिति' की महत्त्वहीनता का निरंतर स्मरण रखना पड़ता है, और निरन्तर यह याद रखना पड़ता है "इसे<references />