ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

no edit summary
No edit summary
No edit summary
Line 519: Line 519:
222. संभवत: मैं स्ट्रैटोस्फीयर (समताप- मण्डल) में कभी न होने के बारे में संशय नहीं कर सकता। क्या इससे मैं यह जानता हूँ? क्या इससे यह सच हो जायेगा?
222. संभवत: मैं स्ट्रैटोस्फीयर (समताप- मण्डल) में कभी न होने के बारे में संशय नहीं कर सकता। क्या इससे मैं यह जानता हूँ? क्या इससे यह सच हो जायेगा?


223. कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं सनकी हूँ और संशय-योग्य बातों पर भी संशय नहीं कर रहा?<references />
223. कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं सनकी हूँ और संशय-योग्य बातों पर भी संशय नहीं कर रहा?
 
224. "मैं ''जानता'' हूँ कि ऐसा कभी नहीं हुआ, यदि ऐसा हुआ होता तो मैं उसे कभी भुला नहीं पाता।"
 
पर मान लीजिए कि ऐसा ''हुआ हो'', तब तो आप उसे भूल ही गए। और आप कैसे हैं आप उसे भुला ही नहीं पाते ? क्या आप ऐसा अपने पूर्व-अनुभव से नहीं जानते ?
 
225. मैं किसी ''एक'' प्रतिज्ञप्ति की बजाय प्रतिज्ञप्तियों के समुच्चय को विश्वसनीय मानता हूँ ।
 
226. मैं कभी चाँद पर गया था इस प्राक्कल्पना पर क्या मैं कभी भी गंभीरतापूर्वक विचार कर सकता हूँ?
 
227. "''क्या'' यह ऐसी बात है जिसे भुलाया जा सकता हो?!"
 
228. "ऐसी परिस्थितियों में लोग 'संभवत: हम भूल गए' जैसी बातें न कहकर यह मानते हैं कि..."।
 
229. हमारे संपूर्ण व्यवहार से ही हमारी बातों का अर्थ प्राप्त होता है।
 
230. हम अपने आप से पूछते हैं : "मैं ''जानता'' हूँ कि..." कथन का हम क्या करें ? क्योंकि यह प्रश्न मानसिक क्रिया या मानसिक दशा के बारे में नहीं है।
 
और ''इसी प्रकार'' यह निर्णय लिया जाना चाहिए कि हमें कुछ ज्ञात है या नहीं।
 
231. पृथ्वी के सौ साल पूर्व के अस्तित्व के विषय में संशय करने वाले व्यक्ति को न समझ पाने का कारण ''यह'' है : मुझे ऐसे व्यक्ति की प्रमाण-प्रणाली का ही पता नहीं होता।
 
232. "हम इन तथ्यों में किसी पर भी संशय कर सकते हैं किन्तु इन ''सभी'' पर संशय नहीं कर सकते।"
 
क्या यह कहना अधिक उचित नहीं होगा: "हम उन ''सब'' पर संशय नहीं करते"।
 
उन सब पर संशय न करना हमारे निर्णय लेने, और इसीलिए हमारे व्यवहार का ढंग है।
 
233. यदि कोई शिशु मुझसे पूछे कि क्या पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से पूर्व था, तो मुझे उसे बताना चाहिए कि पृथ्वी का उद्भव मेरे जन्म से ही नहीं अपितु उसका अस्तित्व तो मेरे जन्म से भी बहुत-बहुत पहले से है । यह कहते हुए मुझे विचित्र लगेगा। मानो शिशु ने यह पूछा हो कि क्या यह पर्वत उसके देखे हुए उच्च भवन से भी ऊँचा है। प्रश्नकर्ता को मैं जगत् का एक चित्र प्रस्तुत करते हुए उत्तर देता हूँ।
 
मेरे निश्चयात्मक ढंग से उत्तर देने पर मेरी निश्चयात्मकता का क्या आधार होता है?
 
234. मेरा विश्वास है कि मेरे और अन्य सभी व्यक्तियों के भी पूर्वज हैं। साधारणतः भूगोल और इतिहास की मुख्य बातों और अनेक शहरों के अस्तित्व पर मेरा विश्वास है । मेरा विश्वास है कि पृथ्वी एक पिण्ड है जिसकी सतह पर हम चलते हैं; और किसी भी अन्य ठोस पदार्थ जैसे कि इस मेज़, इस वृक्ष इत्यादि की भाँति यह यकायक लुप्त इत्यादि नहीं होती। यदि मैं अपने जन्म से बहुत पहले से पृथ्वी के अस्तित्व पर संशय करता हूँ तो मुझे ऐसी अनेक बातों पर भी संशय करना होगा जिन्हें मैं सुनिश्चित मानता हूँ।
 
235. मेरी सुनिश्चित बातों का आधार मेरी मूर्खता, या मेरा भोलापन नहीं है।
 
236. जब कोई कहता है "पृथ्वी का अस्तित्व बहुत पहले से नहीं है..." तो उसका संदेह किस पर है? क्या मैं जानता हूँ?
 
क्या इसे वैज्ञानिक मत कहेंगे? कहीं यह कोई रहस्यमय बात तो नहीं है? क्या उसे ऐतिहासिक, या फिर भौगोलिक तथ्यों को नकारने की जरूरत है?
 
237. जब मैं कहता हूँ कि "एक घंटे पहले यह मेज़ नहीं थी" तो मेरा यह तात्पर्य होता है कि संभवत: यह बाद में निर्मित हुई हो।
 
जब मैं कहता हूँ कि "पहले यहाँ यह पर्वत नहीं था" तो संभवतः मेरा तात्पर्य होता है कि वह बाद में – शायद किसी ज्वालामुखी के द्वारा अस्तित्व में आया है।
 
जब मैं कहता हूँ कि "आधा घंटा पहले यह पर्वत नहीं था" तो इस अटपटे कथन से पता ही नहीं चलता कि मेरा तात्पर्य क्या है। उदाहरणार्थ कहीं मैं कोई असत्य किन्तु वैज्ञानिक बात तो नहीं कर रहा। संभवतः आपको लगे कि 'यह पर्वत तब तो नहीं था' कथन सुस्पष्ट है, हालाँकि आपको इसके संदर्भ की कल्पना करनी पड़ती है । किन्तु कल्पना कीजिए कि कोई कहे "क्षण भर पहले यह पर्वत नहीं था अपितु उस समय बिल्कुल ऐसा ही पर्वत मौजूद था"। सुपरिचित संदर्भ से ही तात्पर्य का पता चलेगा।
 
238. मेरे जन्म से पूर्व पृथ्वी का अस्तित्व नहीं था ऐसा कहने वाले व्यक्ति की कौनसी धारणाएं मेरी धारणाओं से मेल नहीं खातीं यह जानने के लिए मुझे उससे पूछताछ करनी पड़ेगी। ''हो सकता'' है कि इस जानकारी के बाद मुझे पता चले कि वह मेरी आधारभूत मान्यताओं का ही विरोध कर रहा है। ऐसी स्थिति में मेरे पास उसके मत को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं होगा।
 
इसी प्रकार मुझे उसके चाँद पर जाने के कथन को भी स्वीकार करना होगा।
 
239. मेरी मान्यता है कि प्रत्येक मानव के माता-पिता मानव हैं; किन्तु कैथोलिकों की मान्यता है कि केवल यीशु की माता ही मानव थी। कुछ लोग साक्ष्यों की परवाह किए बिना यह मान सकते हैं कि ऐसे मनुष्य भी होते हैं जिनके माता-पिता का अस्तित्व ही नहीं है। कैथोलिकों की यह भी मान्यता है कि समस्त प्रतिकूल साक्ष्यों के बावजूद रोटी अपने स्वरूप को पूर्णत: बदल देती है। यानी यदि मूअर कहें: "मैं जानता हूँ कि यह रक्त न होकर शराब है" तो कैथोलिक उनका खण्डन करेंगे।
 
240. इस विश्वास का क्या आधार है कि सभी मनुष्यों के माता-पिता होते हैं ? अनुभव के आधार पर। लेकिन मैं इस पूर्ण विश्वास को अनुभव का आधार कैसे बना सकता हूँ? इसका आधार केवल यह तथ्य नहीं है कि मैं कुछ लोगों के माता-पिता को जानता हूँ, अपितु यह तो मनुष्यों के दाम्पत्य जीवन, उनकी शरीर रचना, शारीरिक वृत्ति के बारे में मेरे ज्ञान और पशुओं के बारे में मेरी देखी-सुनी बातों पर आधारित है। किन्तु क्या यह कोई प्रमाण है?
 
241. क्या यह एक ऐसी प्राक्कल्पना नहीं है जिस पर मै ''विश्वास'' करता हूँ और जिसकी बार-बार पूरी पुष्टि होती रहती है?
 
242. क्या हमें हर बार यह नहीं कहना चाहिए: "मैं इस पर निश्चित रूप से ''विश्वास'' करता हूँ"?
 
243. समुचित आधार होने पर हम कहते हैं कि "मैं जानता हूँ"। "मैं जानता हूँ" का सम्बन्ध सत्य को प्रदर्शित करने की सम्भावना से है। कायल होने पर ही किसी की जानकारी का ज्ञान होता है।
 
किन्तु, यदि उसका विश्वास ही ऐसा है जिसके लिए वह केवल अपने कथन का ही साक्ष्य दे सकता है तो वह यह नहीं कह सकता कि वह अपने विश्वास को जानता है।
 
244. जब कोई कहता है "मेरा शरीर है" तो उससे पूछा जा सकता है "यहाँ इस मुँह से कौन बोल रहा है?"
 
245. कोई किसे कहता है कि वह कुछ जानता है? अपने आप को या किसी और को। यदि हम अपने आप को यह बताते हैं तो हम वस्तुस्थिति के बारे में ''सुनिश्चित'' हैं, इस कथन से उसका भेद कैसे होगा? मैं किसी बात को जानता हूँ, इसके बारे में कोई मनोगत निश्चितता नहीं होती । आश्वासन मनोगत होता है किन्तु ज्ञान मनोगत नहीं होता । अतः जब मैं कहता हूँ "मैं जानता हूँ कि मेरे दो हाथ हैं" और ऐसा कहते समय अपनी मनोगत निश्चितता को अभिव्यक्त नहीं करता, तब अपने कथन का औचित्य सिद्ध करना होगा । किन्तु मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अपने दो हाथों के अस्तित्व के बारे में मैं उन्हें देखने से पहले, या देखने के बाद बराबर सुनिश्चित होता हूँ। किन्तु मैं कह सकता हूँ: "मेरा अटूट विश्वास है कि मेरे दो हाथ हैं।" इससे यह पता चलता है कि मैं इस प्रतिज्ञप्ति के विरुद्ध किसी भी बात को प्रमाण नहीं मानता।
 
246. "अब मैं अपने समस्त विश्वासों के मूल पर पहुँच गया हूँ।" "मैं इस स्थिति पर दृढ़ रहूँगा!" किन्तु मेरा दृढ़ रहना क्या केवल इसलिए नहीं है कि मैं इसका ''कायल'' हूँ। – 'पूरी तरह कायल होना' क्या होता है?
 
247. अभी अपने दोनों हाथों के अस्तित्व पर संशय करना कैसा होगा? मैं इसकी कल्पना भी क्यों नहीं कर सकता? यदि मैं अपने हाथों के अस्तित्व में विश्वास नहीं करूँ तो मैं किस बात पर विश्वास कर सकता हूँ? अब तक मेरे पास ऐसी कोई प्रणाली नहीं है जिसमें ऐसे संशय को अवकाश मिले।
 
248. मैं अपने सुनिश्चित विश्वासों के मूल पर पहुँच गया हूँ।
 
और यह भी कहा जा सकता है कि पूरा घर नींव की दीवारों को ढो रहा है ।
 
249. हम ''संशय'' की झूठी तस्वीर गढ़ते हैं ।
 
250. सामान्य स्थितियों में मैं इस बात के पक्ष में दिए जा सकने वाले प्रमाण जितना ही आश्वस्त रहता हूँ, कि मेरे दो हाथ हैं।
 
इसी कारण मेरा हस्त-दर्शन मेरे हाथों के अस्तित्व का साक्ष्य नहीं माना जा सकता ।
 
251. क्या इसका यह अभिप्राय नहीं है: मैं सहज रूप से अपने इस विश्वास के अनुरूप कार्य करता रहूँगा और किसी बात से अपने को भ्रमित नहीं होने दूँगा।
 
252. केवल मैं ही अपने दोनों हाथों के अस्तित्व को इस तरह नहीं मानता अपितु सभी समझदार व्यक्ति ऐसा मानते हैं ।
 
253. सुदृढ़ विश्वास के मूल में निर्मूल विश्वास होता है ।
 
254. हर 'समझदार' व्यक्ति ''इसी'' तरह व्यवहार करता है।
 
255. संशय करने की कुछ विशेषताएं होती हैं, परन्तु ये विशेषताएं केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही होती हैं । यदि कोई कहे कि उसे हाथों के अस्तित्व पर संशय है, पर उन्हें चारों ओर से निहारता रहे, और अपने-आपको भरोसा दिलाता रहे कि यह सब 'शीशे की करामात' तो नहीं है, तो भी क्या उसके संशय को निश्चित रूप से संशय कहा जा सकता है। हम तो यही कह सकते हैं कि वह संशयात्मा की तरह व्यवहार कर रहा है, किन्तु उसका खेल हमसे भिन्न है।
 
256. दूसरी ओर समय के साथ-साथ भाषा-खेल परिवर्तित होता रहता है ।
 
257. यदि कोई मुझे कहे कि उसे अपनी देह के अस्तित्व पर संशय है तो मैं उसे अर्ध-विक्षिप्त समझँगा । किन्तु मैं यह नहीं जानता कि उसे देह के अस्तित्व के बारे में कैसे आश्वस्त किया जा सकता है । और यदि मेरे कुछ कहने से उसका संशय दूर हो जाये तो भी मैं नहीं जान पाऊँगा कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ ।
 
258. मुझे नहीं पता कि "मैं जानता हूँ कि मेरी देह है" इस वाक्य का प्रयोग कैसे होगा ।
 
किन्तु यह बात सहज रूप से इस प्रतिज्ञप्ति पर लागू नहीं होती कि मैं सदैव पृथ्वी की सतह पर या उसके समीप ही रहा हूँ ।
 
259. सौ वर्ष पूर्व पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में शंका करने वाले व्यक्ति का संशय या तो वैज्ञानिक है, या फिर दार्शनिक ।
 
260. "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति को मैं साधारण बोलचाल की भाषा में प्रयोग तक ही सीमित रखना चाहूँगा।
 
261. फिलहाल, मैं पृथ्वी के सौ वर्ष पूर्व के अस्तित्व विषयक किसी तार्किक संशय की कल्पना भी नहीं कर सकता ।
 
262. मैं ऐसे व्यक्ति के अस्तित्व की कल्पना कर सकता हूँ जिसका लालन-पालन विशिष्ट परिस्थितियों में किया गया हो और जिसे यह सिखाया गया हो कि पृथ्वी पचास वर्ष पहले ही अस्तित्व में आई है और इसीलिए वह इस पर विश्वास करता हो। हम उसे बता सकते हैं: पृथ्वी तो बहुत पहले... इत्यादि। – तब हम उसे अपने संसार विषयक चित्र का वर्णन देते हैं।
 
''समझा-बुझा'' कर ऐसा किया जा सकेगा।
 
263. विद्यार्थी अपने अध्यापकों और अपनी पाठ्य-पुस्तकों पर ''विश्वास'' करता है।
 
264. मैं जंगली लोगों द्वारा मूअर के पकड़े जाने, और मूअर को धरती और चाँद के बीच के किसी देश के निवासी मानने की कल्पना कर सकता हूँ । मूअर उन्हें बताते हैं कि वे जानते हैं इत्यादि, किन्तु अपने निश्चित होने का कोई आधार नहीं दे पाते क्योंकि जंगली लोग भौतिक शास्त्र से अनभिज्ञ हैं, और उनकी अजीब मान्यता है कि मनुष्य उड़ सकते हैं। ऐसे मौके पर वह कथन कहा जा सकता है ।
 
265. किन्तु यह तो इतना ही कहना है कि "मैं कभी भी अमुक स्थान पर नहीं गया और इस पर विश्वास करने के लिए मेरे पास प्रबल आधार हैं"?
 
266. पर अभी भी हमें बताना होगा कि प्रबल आधार क्या होते हैं?
 
267. "मुझे पेड़ का चाक्षुष-प्रत्यक्ष मात्र नहीं होता: मैं ''जानता'' हूँ कि यह पेड़ है।"
 
268. "मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है।" – पर हाथ किसे कहते हैं? "उदाहरणार्थ, ''इसे''।"
 
269. क्या चाँद पर अपने कभी भी न जाने के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त हूँ जितना कि अपने बलगारिया न जाने के बारे में। मैं इतना आश्वस्त क्यों हूँ? क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी उसके आस-पास के क्षेत्र – उदाहरणार्थ, बाल्कन्स में भी कभी नहीं गया।
 
270. "अपनी निश्चितता के मेरे पास सशक्त आधार हैं।" इन्हीं आधारों के कारण निश्चितता वस्तुनिष्ठ होती है।
 
271. किसी चीज के लिए सशक्त आधार क्या है, इसका निर्णय ''मैं'' नहीं करता।
 
272. मैं जानता हूँ = इससे मैं निश्चित रूप से परिचित हूँ।
 
273. किन्तु किसी बात को सुनिश्चित कब कहते हैं?
 
किसी बात की सुनिश्चितता के बारे में विवाद हो सकते हैं; ऐसा कहने से मेरा अभिप्राय है जब वह ''वस्तुनिष्ठ'' रूप से सुनिश्चित हो ।
 
हम अनगिनत साधारण आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को सुनिश्चित मानते हैं।
 
274. ऐसी ही एक बात यह है कि कटी बाँह दुबारा नहीं पनप सकती । एक अन्य ऐसी बात यह है कि सिर कटने पर व्यक्ति मर जाता है और फिर कभी जिंदा नहीं हो सकता।
 
अनुभव से हम इन बातों को सीखते हैं। पर अनुभव हमें इन्हें एक-एक करके नहीं सिखाता अपितु वह तो हमें अन्योन्याश्रित अनेक बातों को एक साथ सिखाता है । उन्हें अलग-अलग होने पर मैं उन पर संदेह कर सकता हूँ क्योंकि मुझे उनका कोई अनुभव नहीं होता।
 
275. यदि अनुभव हमारी सुनिश्चितता का आधार है तो स्वाभाविक रूप से वह विगत अनुभव ही होगा।
 
और मैं न केवल ''अपने'' अनुभव, बल्कि दूसरों के अनुभवों से भी ज्ञान प्राप्त करता हूँ।
 
अब यह कहा जा सकता है कि अनुभव ही हमें दूसरों पर विश्वास करना सिखाता है। मेरे इस विश्वास का क्या आधार है कि शरीर रचना और शरीर-विज्ञान संबंधी पुस्तकों में अयथार्थ प्रतिपादन नहीं होता? यद्यपि यह तो सच ही है कि मेरे इस विश्वास का ''आधार'' मेरा अपना अनुभव ही है।
 
276. इस विशाल भवन के अस्तित्व पर विश्वास करने के बाद ही हम इसके इस या उस कोने को देखते हैं।
 
277. "...पर विश्वास करने के लिए मैं बाध्य हूँ।"
 
278. "वस्तुस्थिति से मैं संतुष्ट हूँ।"
 
279. यह तो निश्चित ही है कि मोटर कार जमीन से पैदा नहीं होती। हमें लगता है कि इससे उलट विश्वास रखने वाला व्यक्ति हमारी ''प्रत्येक'' असत्य बात पर विश्वास कर लेगा, और सुनिश्चित बातों पर शंका प्रकट करेगा ।
 
किन्तु किसी ''एक'' विश्वास का बाकी विश्वासों से क्या सम्बन्ध है? हम कह सकते हैं कि उस पर विश्वास करने वाला व्यक्ति हमारी संपूर्ण जाँच प्रणाली को नहीं मानता।
 
मनुष्य इस प्रणाली को प्रशिक्षण और निरीक्षण द्वारा प्राप्त करता है । " सीखना " मैं जान बूझकर नहीं कह रहा ।
 
280. इसको देखने और उसको सुनने के बाद वह... पर शंका करने की स्थिति में नहीं रह जाता।
 
281. ''मैं'', लु. वि. विश्वास करता हूँ, मुझे पक्का भरोसा है, कि मेरे मित्र के शरीर में या फिर उसके मस्तिष्क में भूसा नहीं भरा है यद्यपि इससे उलट के बारे में मेरे पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। जो कुछ भी मुझे बताया गया है, जो कुछ भी मैंने पढ़ा है उसके और अपने अनुभवों के कारण ही मैं निश्चिन्त हूँ। इस पर शंका करना मुझे पागलपन लगता है – बेशक यह दूसरों के मत से भी मेल खाता है; किन्तु ''मैं'' उनसे सहमत हूँ।
 
282. बिल्लियों के पेड़ों से पैदा न होने, या फिर अपने माता-पिता के अस्तित्व के बारे में अपने विश्वास का मेरा कोई ठोस आधार नहीं है।
 
कोई उस पर शंका कैसे कर पाता है? आरंभ से ही अपने माता-पिता के अस्तित्व पर विश्वास न करके ? तो क्या बिना सिखाये इसकी कल्पना की जा सकती है ?
 
283. जो उसे सिखाया जाता है, उस पर कोई शिशु तुरंत शंका कैसे कर सकता है ? इसका तो यही अभिप्राय है कि वह कुछ भाषा-खेलों को सीखने में असमर्थ है।
 
284. चिरकाल से मनुष्य पशुओं का शिकार करके उनकी खालों, हड्डियों आदि का अनेक प्रकार से उपयोग करते रहे हैं। समान पशुओं की समान संरचना की वे कल्पना करते हैं।
 
उन्होंने हमेशा अनुभव से सीखा है; और उनके आचरण से हम यह जान सकते हैं कि वे कुछ बातों पर निश्चित रूप से विश्वास करते हैं, चाहे वे इसे अभिव्यक्त करें, या न करें। ऐसा कहने से मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि मनुष्यों को इस प्रकार विश्वास करना ''चाहिए'' अपितु मैं तो केवल यह कह रहा हूँ कि मनुष्य ऐसे आचरण करते हैं।
 
285. जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को किसी विशिष्ट स्थान पर खोजता है तो इससे पता चलता है कि उसे उस वस्तु के विशिष्ट स्थान के आस-पास होने का भरोसा है।
 
286. हमारे विश्वास का आधार वह है जो हम सीखते हैं । हमारा विश्वास है कि चाँद पर जाना संभव नहीं है; किन्तु ऐसे लोग भी हो सकते हैं जिनका विश्वास है कि चाँद पर जाया जा सकता है और कभी-कभी ऐसा होता भी है: हम कहते हैं इन लोगों को ऐसी कई बातों का ज्ञान नहीं है जिनका ज्ञान हमें है। और उन्हें अपने विश्वास पर इतना भरोसा नहीं होना चाहिए – वे त्रुटि पर हैं और हम यह जानते हैं।
 
और उनकी ज्ञान-प्रणाली के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि उनकी ज्ञान-प्रणाली हमसे कहीं निम्न स्तर की है।
 
23.9.50
 
287. गिलहरी आगमनात्मक विधि से यह नहीं जानती कि उसे आगामी सर्दियों में भी खाने-पीने की आवश्यकता पड़ेगी। न ही हमें अपनी भविष्यवाणियों और सक्रियता के औचित्य के लिए आगमनात्मक नियमों की आवश्यकता होती है।
 
288. मैं केवल यही नहीं जानता कि पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से बहुत पहले से ही है, अपितु मैं यह भी जानता हूँ और इसे सिद्ध भी किया जा चुका है कि पृथ्वी विशाल है, और इसके साथ ही यह भी सिद्ध है कि मेरे और अन्य लोगों के पूर्वज हैं। इस सम्बन्ध में अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं और ये पुस्तकें झूठ नहीं हो सकतीं, इत्यादि, इत्यादि । मैं यह सब जानता हूँ? मैं इस पर विश्वास करता हूँ। यह ज्ञान-प्रणाली मुझे विरासत में मिली है। इस पर शंका करने का कोई आधार नहीं है, बल्कि इसकी पुष्टि के अनेक आधार हैं।
 
मैं क्यों न कहूँ कि मैं इन सब बातों को जानता हूँ? क्या हम यही नहीं कहते ?
 
किन्तु इन बातों को केवल मैं ही नहीं जानता या इन पर मैं ही विश्वास नहीं करता अपितु सभी अन्य लोग भी इन्हें जानते हैं या इन पर विश्वास करते हैं । यहाँ तक कि मेरा ''विश्वास'' है कि वे इन पर विश्वास करते हैं ।
 
289. मैं पूर्णतः आश्वस्त हूँ कि अन्य लोगों का विश्वास है, कि वे जानते हैं, कि वस्तुस्थिति ऐसी ही है।
 
290. मैंने स्वयं अपनी पुस्तक में लिखा था कि बच्चे अमुक-अमुक ढंग से किसी शब्द को समझते हैं। क्या मैं यह जानता हूँ या फिर यह मेरा विश्वास ही है? ऐसी परिस्थिति में मैं "मेरा विश्वास इत्यादि है" ऐसा लिखने के बजाय निर्देशात्मक वाक्य ही क्यों नहीं लिखता?
 
291. हम जानते हैं कि पृथ्वी गोल है । हमने भली-भांति पता लगा लिया है कि वह गोल हैं।
 
अपनी इस मान्यता पर हम तब तक टिके रहेंगे जब तक प्रकृति को समझने का हमारा दृष्टिकोण पूर्णत: बदल नहीं जाता। "आप यह कैसे जानते हैं?" – यह मेरा विश्वास है।
 
292. भावी-प्रयोग हमारे पूर्व-प्रयोगों को ''झुठला'' नहीं सकते, अधिकाधिक वे हमारी समझ के तौर-तरीकों में परिवर्तन ला सकते हैं।
 
293. "पानी 100° से. पर उबलता है" वाक्य के साथ भी यही होता है।
 
294. हमारी धारणाएँ ऐसे ही बनती हैं, इसे ही "कायल होना" कहते हैं।
 
295. तो क्या, एक अर्थ में, यही हमारी प्रतिज्ञप्ति का ''प्रमाण'' नहीं होता? पुनरावृत्ति कोई प्रमाण नहीं होती, यद्यपि पुनरावृत्ति से हमें किसी बात को मानने का प्रमाण मिल जाता है।
 
296. इसे ही हम अपनी मान्यताओं का "आनुभविक आधार" ''कहते'' हैं ।
 
297. क्योंकि हम केवल यही नहीं सीखते कि अमुक प्रयोगों के अमुक परिणाम हैं, अपितु उसके निहितार्थ को भी सीखते हैं । और इसमें कोई दोष नहीं है। क्योंकि यह निहितार्थ विशिष्ट प्रयोग का साधन होता है ।
 
298. 'हम आश्वस्त हैं' का अभिप्राय यह नहीं होता कि प्रत्येक व्यक्ति आश्वस्त है अपितु इसका अर्थ होता है कि हम विज्ञान और शिक्षा के दायरे में रहने वाले एक समुदाय के सदस्य हैं ।
 
299. हम आश्वस्त हैं कि पृथ्वी गोल है ।
----10.3.51
 
300. हमारे विचारों के सभी संशोधनों का स्तर एक जैसा नहीं होता।
 
301. मान लीजिए कि यह सत्य न होता कि पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से बहुत पहले से है – तो इस भूल का हमें पता भी कैसे चलता?<references />