ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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459. यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय 'धार्मिक विश्वास' जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है।
459. यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय 'धार्मिक विश्वास' जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है।


460. मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ "यह एक हाथ है न कि...; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।" क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते:<references />
460. मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ "यह एक हाथ है न कि...; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।" क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि "यह एक हाथ है" ये शब्द कोई जानकारी देते तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते ? वस्तुत:, 'इसके हाथ होने' पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? – किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं – चाहे वे विरल ही क्यों न हों – जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता।
 
461. मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: "हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर – वास्तव में एक हाथ है" और फिर अपनी चोट के बारे में बताए – तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है।
 
30.3.
 
462. मूअर कोई ऐसी बात क्यों नहीं कहते जिसे वे जानते हों – उदाहरणार्थ – इंग्लैंड के अमुक भाग में अमुक गाँव है? दूसरे शब्दों में: वह किसी ऐसे तथ्य का उल्लेख क्यों नहीं करते जिसे वे तो जानते हों किन्तु जिससे ''हम सब'' अपरिचित हों?
 
31.3.
 
463. यह तो सच ही है कि "वह एक पेड़ है" जब तक इस बात पर कोई भी संशय न कर सके तो यह बात कोई मज़ाक हो सकती है और इसीलिए यह सार्थक भी हो सकती है। रेनान ने एक बार ऐसा मजाक किया था।
 
3.4.51
 
464. मेरी कठिनाई को इस प्रकार भी प्रदर्शित किया जा सकता है : मैं किसी मित्र से वार्तालाप में संलग्न हूँ । अचानक वार्तालाप के मध्य मैं कहता हूँ : "मैं जानता था कि तुम अमुक हो" । क्या यह टिप्पणी सच होते हुए भी अनावश्यक नहीं है?
 
मुझे ये शब्द वार्तालाप के मध्य "नमस्ते" कहने जैसे लगते हैं।
 
465. "मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है" यह कहने के बजाय यदि मैं कहूँ "आजकल वे जानते हैं कि कीड़ों की... प्रजातियां हैं" तो क्या होगा? यदि कोई व्यक्ति बगैर संदर्भ के अचानक उस वाक्य का उच्चारण कर बैठे तो हम सोचेंगे: वह इस दौरान कुछ सोच रहा था और अब अपनी विचार-श्रृंखला में से किसी एक वाक्य को बोल रहा है। या फिर: वह लोकातीत स्थिति में है और बिना यह जाने कि वह क्या बोल रहा है, कुछ बोल रहा है।
 
466. अत: मुझे प्रतीत होता है कि मैं किसी बात को सदा से जानता हूँ किन्तु फिर भी इस सच्चाई को कहने का कोई मतलब नहीं है ।
 
467. मैं बाग में किसी दार्शनिक के साथ बैठा हूँ; वह हमारे समीप किसी पेड़ को इंगित करते हुए बारम्बार कहता है, "मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है"। कोई अन्य व्यक्ति वहाँ आता है और उसे यह कहते हुए सुनता है तो मैं आगन्तुक को कहता हूँ: "यह व्यक्ति पागल नहीं है। हम तो बस दार्शनिक चिन्तन कर रहे हैं"।
 
4.4.
 
468. बिना किसी संदर्भ के कोई कहता है, "वह एक पेड़ है"। वह इस वाक्य को बोल सकता है क्योंकि उसने ऐसी ही स्थिति में ऐसा सुना है; या फिर वह पेड़ की सुंदरता को देखकर स्तब्ध हो गया और यह वाक्य उसकी स्तब्धता की अभिव्यक्ति थी; या फिर वह इस वाक्य को किसी व्याकरण के उदाहरण के रूप में उच्चरित करता है; इत्यादि, इत्यादि । जब मैं उससे पूछता हूँ, "आपका क्या आशय था?" तो वह । उत्तर देता है, "यह आपको जानकारी देने के लिए था"। तो क्या मैं यह मानने के लिए स्वतन्त्र नहीं हूँ कि यदि वह मुझे यह जानकारी देना चाहता है तो वह पागल है क्योंकि वह अपने कथन का अर्थ नहीं जानता?
 
469. वार्तालाप के मध्य में कोई अचानक मुझे कहता है कि "आपको मेरी शुभकामनाएं"। मैं स्तब्ध रह जाता हूँ; किन्तु बाद में मुझे इन शब्दों से अपने प्रति उसकी भावनाओं का पता चलता है। और तब वे मुझे निरर्थक नहीं लगते।
 
470. मेरे लु.वि. सम्बोधन के बारे में कोई संशय क्यों नहीं है? यह कोई निर्भ्रान्त प्राक्कल्पना तो नहीं है । यह अकाट्य सत्य भी नहीं लगता।
 
5.4.
 
[यहाँ मेरी सोच में अभी भी एक बड़ी दरार है। और मुझे शक है कि इसे अब कभी भरा भी जा सकेगा।]
 
471. ''आदि'' की खोज अत्यन्त दुरूह है । अथवा, बेहतर ढंग से: आदि से आरम्भ करना कठिन होता है। और उससे भी पीछे जाने की कोशिश न करना।
 
472. शिशु भाषा सीखने के साथ-साथ अन्वीक्ष्य तथा अनन्वीक्ष्य विषय को भी सीख जाता है। जैसे कमरे में रखी अलमारी की जानकारी देते समय शिशु को यह नहीं सिखाया जाता कि किसी अन्य अवसर पर उसी अलमारी को देखकर वह यह न सोचे कि कहीं यह किसी नाटक का दृश्य तो नहीं है।
 
473 . लिखना सीखते समय जैसे हम वर्णों के मूलाकारों को सीखते हैं और फिर उनमें बदलाव लाना सीखते हैं, उसी प्रकार पहले तो हम वस्तुओं की स्थिरता के प्रतिमान के रूप को सीखते हैं और फिर उसमें बदलाव लाना ।
 
474. यह खेल स्वयं अपना महत्त्व सिद्ध कर देता है। यह बात खेल खेलने का निमित्त तो हो सकती है किन्तु उसका आधार नहीं ।
 
475. अब मैं मनुष्य को किसी पशु जैसा समझना चाहता हूँ; एक ऐसे आदिम प्राणी जैसा जिसमें नैसर्गिक प्रवृत्ति तो है, किन्तु चिन्तन नहीं है। आदिमावस्था के प्राणी जैसा। सम्प्रेषण के आदिम साधनों के तर्क के लिए हमें सफाई देना आवश्यक नहीं है । भाषा की उत्पत्ति चिन्तन से नहीं हुई है।
 
6.4.
 
476. बच्चे यह नहीं सीखते कि पुस्तकों का अस्तित्व है, कुर्सियों का अस्तित्व है, इत्यादि, इत्यादि – वे पुस्तकें लाना, कुर्सियों पर बैठना, इत्यादि, इत्यादि सीखते हैं।
 
बाद में, बेशक, वस्तुओं के अस्तित्व विषयक प्रश्न उठाए जाते हैं। "क्या एकशृंगी जैसा कुछ होता है?" इत्यादि । अनुरूप प्रश्न के अभाव के कारण ही ऐसे प्रश्न की सम्भावना रहती है । अन्यथा हमें एकशृंगी के अस्तित्व-विषयक जानकारी प्राप्त करने के उपायों का कैसे पता चलेगा? अस्तित्व को जानने की पद्धति हमने कैसे सीखी?
 
477. "अत:, जिन वस्तुओं के नाम को हम शिशुओं को निदर्शनात्मक पद्धति से सिखाते हैं, उनके अस्तित्व के बारे में हमें जानकारी होनी ही चाहिए।" – उनके अस्तित्व के बारे में हमें जानकारी क्यों होनी चाहिए? क्या यही पर्याप्त नहीं है कि हमारा अनुभव बाद में इससे उलट बात नहीं बताता?
 
भाषा-खेल को क्यों किसी प्रकार के ज्ञान पर आधारित होना चाहिए?
 
7.4.
 
478. क्या शिशु को दूध के अस्तित्व पर विश्वास होता है, अथवा क्या उसे दूध के अस्तित्व की जानकारी है? क्या बिल्ली को चूहे के अस्तित्व की जानकारी होती है?
 
479. क्या हमें यह कहना होगा कि भौतिक वस्तुओं के अस्तित्व की जानकारी या तो बहुत पहले आती है या फिर बहुत बाद में?
 
8.4.
 
480. "पेड़” शब्द के प्रयोग को सीखने वाला शिशु। उसके साथ पेड़ के समक्ष खड़े होकर हम कहते हैं "''प्यारा'' पेड़!" स्पष्टतः, इस भाषा-खेल में पेड़ के अस्तित्व में कोई संशय उपस्थित ही नहीं होता। किन्तु क्या यह कहा जा सकता है कि शिशु ''जानता'' है: 'कि पेड़ का अस्तित्व है'? यह तो ठीक है कि 'किसी वस्तु को जानने के लिए उसके बारे में ''चिन्तन'' करने की आवश्यकता नहीं होती – किन्तु, क्या ज्ञाता में संशय करने की क्षमता नहीं होनी चाहिए? और संशय करने का अभिप्राय है चिन्तन करना।
 
481. जब हम मूअर को यह कहते हुए सुनते हैं कि "मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है" तो हमें यकायक उन लोगों की बात समझ आ जाती है जो सोचते हैं कि यह बात अभी तय नहीं हुई है।
 
यकायक ऐसा लगने लगता है कि यह स्थिति अस्पष्ट और धुँधली है। मानो मूअर ने इसे ठीक सन्दर्भ में न रखा हो ।
 
मानो मैंने किसी (उदाहरणार्थ किसी मंच के) चित्र को दूर से ही देखकर निस्सन्देह पहचान लिया हो कि वह किस का चित्र है। पर अब मैं उसके समीप आता हूँ: मुझे विभिन्न रंगों के अनेक धुंधले धब्बे दिखाई देते हैं जिनसे कुछ भी पता नहीं चलता।
 
482. मानो "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति का तत्त्वमीमासीय सरोकार न हो।
 
483. "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति का समुचित प्रयोग। कमज़ोर नज़र वाला कोई व्यक्ति मुझसे पूछता है: "क्या आपको विश्वास है कि हमें दिखाई पड़ने वाली वह वस्तु एक पेड़ है?" मैं उसे उत्तर देता हूँ: "मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है; मैं उसे अच्छी तरह देख सकता हूँ और उससे परिचित भी हूँ" । – अः "क्या न. न. घर पर हैं?" – मैं : "मुझे विश्वास है कि वे घर पर हैं।" – अः क्या वे कल घर पर थे?" – मैं: "मैं जानता हूँ कि वे घर पर थे; मैंने उनसे बातचीत की थी।" अः "क्या आप जानते हैं या केवल ऐसा मानते हैं कि घर का यह भाग बाकी घर से बाद में बनाया गया था?" – मैं : मैं ''जानता'' हूँ कि ऐसा ही है; मैंने यह बात अमुक व्यक्ति से जानी थी।"
 
484. तो, इन परिस्थितियों में हम "मैं जानता हूँ" कहते हैं और यह उल्लेख भी करते हैं, या कर सकते हैं कि हम कैसे जानते हैं।
 
485. हम ऐसी स्थिति की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें कोई व्यक्ति प्रतिज्ञप्तियों की सूची पढ़ते हुए यह भी पूछता रहता है "क्या मैं इसे जानता हूँ, या फिर इस पर
 
 
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