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{{ParUG|3}} उदाहरणार्थ, जब कोई कहता है कि "मैं नहीं जानता कि क्या यह हाथ है या "नहीं" तो उसे बतलाया जा सकता है, "जरा ध्यान से देखो"। — इस प्रकार की आत्मसन्तुष्टि की संभावना भाषा - खेल का एक भाग है, उसका एक विशिष्ट गुण है। | {{ParUG|3}} उदाहरणार्थ, जब कोई कहता है कि "मैं नहीं जानता कि क्या यह हाथ है या "नहीं" तो उसे बतलाया जा सकता है, "जरा ध्यान से देखो"। — इस प्रकार की आत्मसन्तुष्टि की संभावना भाषा - खेल का एक भाग है, उसका एक विशिष्ट गुण है। | ||
{{ParUG|4}} "मैं जानता हूँ कि मैं मानव हूँ"। इस प्रतिज्ञप्ति के अर्थ की अस्पष्टता को जानने के लिए इसके निषेध पर विचार करें। अधिकाधिक इसका अर्थ यही हो सकता है "मैं जानता हूँ कि मैं मानव अंगों से रचा गया हूँ।" ("उदाहरणार्थ, मेरे शरीर में मस्तिष्क है, जिसे अब तक किसी ने नहीं देखा। " ) किन्तु ऐसी प्रतिज्ञप्ति का क्या होगा : " मैं जानता हूँ कि मेरे शरीर में एक मस्तिष्क है "? क्या इस पर संशय किया जा सकता है? ''संशय'' का आधार तो कोई है नहीं ! इसके पक्ष में सभी कुछ है पर विपक्ष में कुछ भी नहीं। फिर भी यह कल्पना की जा सकती है कि मेरी खोपड़ी को खोलने पर उसमें से कुछ भी न निकले। | {{ParUG|4}} "मैं जानता हूँ कि मैं मानव हूँ"। इस प्रतिज्ञप्ति के अर्थ की अस्पष्टता को जानने के लिए इसके निषेध पर विचार करें। अधिकाधिक इसका अर्थ यही हो सकता है "मैं जानता हूँ कि मैं मानव अंगों से रचा गया हूँ।" ("उदाहरणार्थ, मेरे शरीर में मस्तिष्क है, जिसे अब तक किसी ने नहीं देखा। " ) किन्तु ऐसी प्रतिज्ञप्ति का क्या होगा: " मैं जानता हूँ कि मेरे शरीर में एक मस्तिष्क है "? क्या इस पर संशय किया जा सकता है? ''संशय'' का आधार तो कोई है नहीं! इसके पक्ष में सभी कुछ है पर विपक्ष में कुछ भी नहीं। फिर भी यह कल्पना की जा सकती है कि मेरी खोपड़ी को खोलने पर उसमें से कुछ भी न निकले। | ||
{{ParUG|5}} किसी प्रतिज्ञप्ति के सत्यासत्य का निर्धारण मेरे द्वारा स्वीकृत मानदण्ड के आधार पर ही सम्भव है। | {{ParUG|5}} किसी प्रतिज्ञप्ति के सत्यासत्य का निर्धारण मेरे द्वारा स्वीकृत मानदण्ड के आधार पर ही सम्भव है। | ||
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{{ParUG|7}} मेरे व्यवहार से यह पता चलता है कि मैं जानता हूँ या आश्वस्त हूँ कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है, या वहाँ दरवाजा इत्यादि है। उदाहरणार्थ मैं किसी मित्र से कहता हूँ " उस कुर्सी को वहाँ ले जाओ", "दरवाज़े को बंद कर दो”, इत्यादि, इत्यादि। | {{ParUG|7}} मेरे व्यवहार से यह पता चलता है कि मैं जानता हूँ या आश्वस्त हूँ कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है, या वहाँ दरवाजा इत्यादि है। उदाहरणार्थ मैं किसी मित्र से कहता हूँ " उस कुर्सी को वहाँ ले जाओ", "दरवाज़े को बंद कर दो”, इत्यादि, इत्यादि। | ||
{{ParUG|8}} " जानने" और " आश्वस्त होने" के प्रत्ययों में भेद केवल वहीं महत्त्वपूर्ण होता है जहाँ "मैं जानता हूँ" कहने का अर्थ होता है : मैं गलत नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, किसी अदालत में दी जा रही किसी गवाही में "मैं जानता हूँ" को "मैं आश्वस्त हूँ" से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। "मैं जानता हूँ" के प्रयोग पर अदालत में पाबंदी की कल्पना भी की जा सकती है। (''विल्हेल्म माइस्टर'' के एक अनुच्छेद में तथ्यों की गलत जानकारी के बावजूद " आप जानते हैं” अथवा “ आप जानते थे" का प्रयोग " आप आश्वस्त थे" के अर्थ में किया जाता है।) | {{ParUG|8}} " जानने" और " आश्वस्त होने" के प्रत्ययों में भेद केवल वहीं महत्त्वपूर्ण होता है जहाँ "मैं जानता हूँ" कहने का अर्थ होता है: मैं गलत नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, किसी अदालत में दी जा रही किसी गवाही में "मैं जानता हूँ" को "मैं आश्वस्त हूँ" से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। "मैं जानता हूँ" के प्रयोग पर अदालत में पाबंदी की कल्पना भी की जा सकती है। (''विल्हेल्म माइस्टर'' के एक अनुच्छेद में तथ्यों की गलत जानकारी के बावजूद " आप जानते हैं” अथवा “ आप जानते थे" का प्रयोग " आप आश्वस्त थे" के अर्थ में किया जाता है।) | ||
{{ParUG|9}} तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है ? | {{ParUG|9}} तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है? | ||
{{ParUG|10}} मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि 'मैं यहाँ हूँ।' तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो " कभी " और न ही 'सदा' – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है। और "मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है" यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि " मैं जानता हूँ कि ..." शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती। | {{ParUG|10}} मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि 'मैं यहाँ हूँ।' तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो " कभी " और न ही 'सदा' – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है। और "मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है" यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि " मैं जानता हूँ कि ..." शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती। | ||
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{{ParUG|12}} – क्योंकि "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति का विवरण देती प्रतीत होती है जिसमें ज्ञात विषय की किसी तथ्य के समान गारण्टी दी गई हो। “मैं सोचता था कि मैं जानता हूँ" इस अभिव्यक्ति को हम सर्वदा भूल जाते हैं। | {{ParUG|12}} – क्योंकि "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति का विवरण देती प्रतीत होती है जिसमें ज्ञात विषय की किसी तथ्य के समान गारण्टी दी गई हो। “मैं सोचता था कि मैं जानता हूँ" इस अभिव्यक्ति को हम सर्वदा भूल जाते हैं। | ||
{{ParUG|13}} क्योंकि " ऐसा है " प्रतिज्ञप्ति का अनुमान किसी अन्य व्यक्ति के " मैं जानता हूँ कि ऐसा है" कहने से नहीं किया जा सकता न ही इसका अनुमान इसे इस कथन से जोड़कर किया जा सकता है कि यह झूठ नहीं है। – किन्तु " ऐसा है " का अनुमान क्या मैं अपने ही कथन " मैं जानता हूँ" से नहीं कर सकता ? अवश्य; और "वहाँ एक हाथ है " इस प्रतिज्ञप्ति की निष्पत्ति " वह जानता है कि वहाँ एक हाथ है " इस प्रतिज्ञप्ति से की जा सकती है। किन्तु उसके "मैं जानता हूँ कि ..." कहने से यह निष्पन्न नहीं होता कि वह वास्तव में इसको जानता है। | {{ParUG|13}} क्योंकि " ऐसा है " प्रतिज्ञप्ति का अनुमान किसी अन्य व्यक्ति के " मैं जानता हूँ कि ऐसा है" कहने से नहीं किया जा सकता न ही इसका अनुमान इसे इस कथन से जोड़कर किया जा सकता है कि यह झूठ नहीं है। – किन्तु " ऐसा है " का अनुमान क्या मैं अपने ही कथन " मैं जानता हूँ" से नहीं कर सकता? अवश्य; और "वहाँ एक हाथ है " इस प्रतिज्ञप्ति की निष्पत्ति " वह जानता है कि वहाँ एक हाथ है " इस प्रतिज्ञप्ति से की जा सकती है। किन्तु उसके "मैं जानता हूँ कि ..." कहने से यह निष्पन्न नहीं होता कि वह वास्तव में इसको जानता है। | ||
{{ParUG|14}} वह वस्तुतः जानता है इस बात को तो सिद्ध करना होगा। | {{ParUG|14}} वह वस्तुतः जानता है इस बात को तो सिद्ध करना होगा। | ||
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{{ParUG|15}} यह सिद्ध करना होगा कि कोई भी भूल असंभव है। "मैं जानता हूँ" यह आश्वासन काफी नहीं है। इस आश्वासन से तो इतना ही पता चलता है कि मैं त्रुटि कर ही नहीं सकता, पर यह तो ''वस्तुनिष्ठापूर्वक'' सिद्ध करना होगा कि मैं इस बारे में त्रुटि नहीं कर रहा। | {{ParUG|15}} यह सिद्ध करना होगा कि कोई भी भूल असंभव है। "मैं जानता हूँ" यह आश्वासन काफी नहीं है। इस आश्वासन से तो इतना ही पता चलता है कि मैं त्रुटि कर ही नहीं सकता, पर यह तो ''वस्तुनिष्ठापूर्वक'' सिद्ध करना होगा कि मैं इस बारे में त्रुटि नहीं कर रहा। | ||
{{ParUG|16}} "यदि मैं किसी विषय को जानता हूँ तो मुझे यह भी पता होता है कि मैं उसे जानता हूँ, इत्यादि" ऐसा कहने का अर्थ है : "मैं उसे जानता हूँ" का अर्थ है "मैं उसके ''बारे'' में त्रुटि नहीं कर सकता"। परन्तु मेरे त्रुटि न करने की क्षमता को वस्तुनिष्ठापूर्वक सिद्ध करना होगा। | {{ParUG|16}} "यदि मैं किसी विषय को जानता हूँ तो मुझे यह भी पता होता है कि मैं उसे जानता हूँ, इत्यादि" ऐसा कहने का अर्थ है: "मैं उसे जानता हूँ" का अर्थ है "मैं उसके ''बारे'' में त्रुटि नहीं कर सकता"। परन्तु मेरे त्रुटि न करने की क्षमता को वस्तुनिष्ठापूर्वक सिद्ध करना होगा। | ||
{{ParUG|17}} मान लीजिए कि किसी वस्तु को इंगित करते हुए मैं कहता हूँ "मैं इस बारे में त्रुटि कर ही नहीं सकता (कि) : वह एक किताब है "। यहाँ पर त्रुटि किस प्रकार की होगी? क्या इसके बारे में मेरी कोई ''स्पष्ट'' धारणा है ? | {{ParUG|17}} मान लीजिए कि किसी वस्तु को इंगित करते हुए मैं कहता हूँ "मैं इस बारे में त्रुटि कर ही नहीं सकता (कि): वह एक किताब है "। यहाँ पर त्रुटि किस प्रकार की होगी? क्या इसके बारे में मेरी कोई ''स्पष्ट'' धारणा है? | ||
{{ParUG|18}} प्राय: "मैं जानता हूँ" का यह अर्थ होता है : मेरे पास अपने कथन के लिए उचित आधार हैं। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह मानेगा कि मैं जानता। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह कल्पना कर सकता है कि उस प्रकार के विषय को ''कैसे'' जाना जाता है। | {{ParUG|18}} प्राय: "मैं जानता हूँ" का यह अर्थ होता है: मेरे पास अपने कथन के लिए उचित आधार हैं। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह मानेगा कि मैं जानता। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह कल्पना कर सकता है कि उस प्रकार के विषय को ''कैसे'' जाना जाता है। | ||
{{ParUG|19}} "मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है " इस कथन के आगे तो यह कहा जा सकता है : " क्योंकि मैं ''अपने'' हाथ को ही देख रहा हूँ"। फिर कोई भी समझदार व्यक्ति इस पर संशय नहीं करेगा कि मैं जानता हूँ। – न ही कोई प्रत्ययवादी इस पर संशय करेगा; अपितु वह तो यही कहेगा कि यहाँ पर वह उस व्यावहारिक संशय की बात नहीं कर रहा है जिसे निरस्त किया जा रहा है, परन्तु वह उससे भी ''आगे'' के संशय की बात कर रहा है। – इस ''मरीचिका'' को तो किसी अन्य ढंग से सिद्ध करना होगा। | {{ParUG|19}} "मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है " इस कथन के आगे तो यह कहा जा सकता है: " क्योंकि मैं ''अपने'' हाथ को ही देख रहा हूँ"। फिर कोई भी समझदार व्यक्ति इस पर संशय नहीं करेगा कि मैं जानता हूँ। – न ही कोई प्रत्ययवादी इस पर संशय करेगा; अपितु वह तो यही कहेगा कि यहाँ पर वह उस व्यावहारिक संशय की बात नहीं कर रहा है जिसे निरस्त किया जा रहा है, परन्तु वह उससे भी ''आगे'' के संशय की बात कर रहा है। – इस ''मरीचिका'' को तो किसी अन्य ढंग से सिद्ध करना होगा। | ||
{{ParUG|20}} उदाहरणार्थ, "बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने" का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो। – या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है। | {{ParUG|20}} उदाहरणार्थ, "बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने" का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो। – या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है। | ||
{{ParUG|21}} वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है : 'जानने' के प्रत्यय में और 'विश्वास होने', 'अनुमान करने', 'संशय करने', 'कायल होने' जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि "मैं जानता हूँ कि..." कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ " मैं समझता था कि मैं जानता हूँ" इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है।–किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए – किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता। | {{ParUG|21}} वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है: 'जानने' के प्रत्यय में और 'विश्वास होने', 'अनुमान करने', 'संशय करने', 'कायल होने' जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि "मैं जानता हूँ कि..." कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ " मैं समझता था कि मैं जानता हूँ" इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है।–किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए – किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता। | ||
{{ParUG|22}} यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है "मैं भूल नहीं कर सकता"; या फिर जो कहता है "मैं गलत नहीं हूँ", तो यह बात विचित्र ही होगी। | {{ParUG|22}} यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है "मैं भूल नहीं कर सकता"; या फिर जो कहता है "मैं गलत नहीं हूँ", तो यह बात विचित्र ही होगी। | ||
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{{ParUG|23}} यदि मैं यह नहीं जानता कि किसी के दो हाथ हैं (उदाहरण के रूप में, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके हाथ काट दिए गए हों ); तो किसी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन पर कि उसके दो हाथ हैं, मैं विश्वास कर लूँगा। और यदि वह यह कहे कि वह इस बारे में ''जानता'' है तो इससे मुझे यही पता चलता है कि वह इसको सुनिश्चित कर रहा है और इसीलिए उसकी बाँहे अब पट्टियों, या किन्हीं अन्य आवरणों से ढंकी नहीं हैं। विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करने का आधार मेरी इस मान्यता में है कि वह इस बात का निश्चय कर सकता है। किन्तु, संभवतः कोई भौतिक वस्तु है ही नहीं, ऐसा कहने वाला व्यक्ति यह नहीं मानता। | {{ParUG|23}} यदि मैं यह नहीं जानता कि किसी के दो हाथ हैं (उदाहरण के रूप में, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके हाथ काट दिए गए हों ); तो किसी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन पर कि उसके दो हाथ हैं, मैं विश्वास कर लूँगा। और यदि वह यह कहे कि वह इस बारे में ''जानता'' है तो इससे मुझे यही पता चलता है कि वह इसको सुनिश्चित कर रहा है और इसीलिए उसकी बाँहे अब पट्टियों, या किन्हीं अन्य आवरणों से ढंकी नहीं हैं। विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करने का आधार मेरी इस मान्यता में है कि वह इस बात का निश्चय कर सकता है। किन्तु, संभवतः कोई भौतिक वस्तु है ही नहीं, ऐसा कहने वाला व्यक्ति यह नहीं मानता। | ||
{{ParUG|24}} प्रत्ययवादी कुछ इस प्रकार का प्रश्न करेगा: "मुझे अपने हाथों के अस्तित्व पर संशय न करने का क्या अधिकार है?" (और उस पर यह उत्तर तो नहीं हो सकता : मैं ''जानता'' हूँ कि उनका अस्तित्व है) किन्तु ऐसा प्रश्नकर्ता इस तथ्य को भूल जाता है कि सत्ता विषयक संशय किसी भाषा-खेल में ही कारगर होता है। यानी हमें पहले यह पूछना पड़ेगा: इस प्रकार का संशय कैसा होगा?, पर, हम इसे आसानी से समझ नहीं पाते। | {{ParUG|24}} प्रत्ययवादी कुछ इस प्रकार का प्रश्न करेगा: "मुझे अपने हाथों के अस्तित्व पर संशय न करने का क्या अधिकार है?" (और उस पर यह उत्तर तो नहीं हो सकता: मैं ''जानता'' हूँ कि उनका अस्तित्व है) किन्तु ऐसा प्रश्नकर्ता इस तथ्य को भूल जाता है कि सत्ता विषयक संशय किसी भाषा-खेल में ही कारगर होता है। यानी हमें पहले यह पूछना पड़ेगा: इस प्रकार का संशय कैसा होगा?, पर, हम इसे आसानी से समझ नहीं पाते। | ||
{{ParUG|25}} "यह हाथ है" इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में भी त्रुटि हो सकती है। केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही यह असंभव है। – "परिकलन में भी भूल हो सकती है – केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही त्रुटि संभव नहीं होती।" | {{ParUG|25}} "यह हाथ है" इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में भी त्रुटि हो सकती है। केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही यह असंभव है। – "परिकलन में भी भूल हो सकती है – केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही त्रुटि संभव नहीं होती।" | ||
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फिर भी हमारा सामना ऐसे असफल प्रयासों से हमेशा होता रहता है। | फिर भी हमारा सामना ऐसे असफल प्रयासों से हमेशा होता रहता है। | ||
{{ParUG|37}} "भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है" इस अभिव्यक्ति को निरर्थक कहने से क्या किसी प्रत्ययवादी के सन्देह अथवा किसी यथार्थवादी के विश्वास का समुचित उत्तर दिया जा सकता है। उनके लिए तो यह निरर्थक नहीं है। बेशक ऐसा कहना एक हल . हो सकता है : यह कथन या इस कथन का विलोम किसी ऐसी अनिर्वचनीय बात को कहने का असफल प्रयास है। सिद्ध किया जा सकता है कि यह एक असफल प्रयास है; किन्तु बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। हमें यह समझना चाहिए कि, यह संभव है कि, किसी समस्या या उसके समाधान की हमारी पहली सूझ ठीक से अभिव्यक्त ही न हुई हो। जैसे फिल्म की सम्यक् समीक्षा के लिए समीक्षक सर्वप्रथम सर्वाङ्गीण आलोचना करता है पर बाद में अपनी सर्वाङ्गीण-आलोचना की ''पड़ताल'' के बाद ही सही समीक्षा कर पाता है। | {{ParUG|37}} "भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है" इस अभिव्यक्ति को निरर्थक कहने से क्या किसी प्रत्ययवादी के सन्देह अथवा किसी यथार्थवादी के विश्वास का समुचित उत्तर दिया जा सकता है। उनके लिए तो यह निरर्थक नहीं है। बेशक ऐसा कहना एक हल . हो सकता है: यह कथन या इस कथन का विलोम किसी ऐसी अनिर्वचनीय बात को कहने का असफल प्रयास है। सिद्ध किया जा सकता है कि यह एक असफल प्रयास है; किन्तु बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। हमें यह समझना चाहिए कि, यह संभव है कि, किसी समस्या या उसके समाधान की हमारी पहली सूझ ठीक से अभिव्यक्त ही न हुई हो। जैसे फिल्म की सम्यक् समीक्षा के लिए समीक्षक सर्वप्रथम सर्वाङ्गीण आलोचना करता है पर बाद में अपनी सर्वाङ्गीण-आलोचना की ''पड़ताल'' के बाद ही सही समीक्षा कर पाता है। | ||
{{ParUG|38}} गणित में ज्ञान: इसमें हमें 'भीतरी प्रक्रिया' अथवा 'स्थिति' की महत्त्वहीनता का निरंतर स्मरण रखना पड़ता है, और निरन्तर यह याद रखना पड़ता है "इसे महत्त्वपूर्ण क्यों होना चाहिए? मुझे इससे क्या लेना-देना?" गणितीय प्रतिज्ञप्तियों का प्रयोग ही महत्त्वपूर्ण होता है। | {{ParUG|38}} गणित में ज्ञान: इसमें हमें 'भीतरी प्रक्रिया' अथवा 'स्थिति' की महत्त्वहीनता का निरंतर स्मरण रखना पड़ता है, और निरन्तर यह याद रखना पड़ता है "इसे महत्त्वपूर्ण क्यों होना चाहिए? मुझे इससे क्या लेना-देना?" गणितीय प्रतिज्ञप्तियों का प्रयोग ही महत्त्वपूर्ण होता है। | ||
Line 121: | Line 121: | ||
{{ParUG|53}} यानी, कहा जा सकता है कि मूअर ठीक कह रहे हैं, यदि उनके कथन का यह अर्थ लगाया जाए: 'यहाँ एक हाथ है' आशय वाले वाक्य का वही तार्किक स्थान है जो 'यहाँ एक लाल धब्बा है' आशय वाले वाक्य का होता है। | {{ParUG|53}} यानी, कहा जा सकता है कि मूअर ठीक कह रहे हैं, यदि उनके कथन का यह अर्थ लगाया जाए: 'यहाँ एक हाथ है' आशय वाले वाक्य का वही तार्किक स्थान है जो 'यहाँ एक लाल धब्बा है' आशय वाले वाक्य का होता है। | ||
{{ParUG|54}} क्योंकि यह कहना तो ठीक नहीं है कि जैसे-जैसे हम किसी ग्रह की जानकारी से अपने हाथ की जानकारी की ओर चलते हैं गलती करने की संभावना कम होती जाती है। नहीं : एक बिंदु पर आकर उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। | {{ParUG|54}} क्योंकि यह कहना तो ठीक नहीं है कि जैसे-जैसे हम किसी ग्रह की जानकारी से अपने हाथ की जानकारी की ओर चलते हैं गलती करने की संभावना कम होती जाती है। नहीं: एक बिंदु पर आकर उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। | ||
निम्नलिखित से इसका पता चलता है: यदि ऐसा नहीं होता तो भौतिक वस्तुओं संबंधी ''प्रत्येक'' कथन के बारे में भूल करने की कल्पना की जा सकती थी; और यह भी कल्पना की जा सकती थी कि भौतिक वस्तुओं के बारे में कहे गए सभी कथन गलत हैं। | निम्नलिखित से इसका पता चलता है: यदि ऐसा नहीं होता तो भौतिक वस्तुओं संबंधी ''प्रत्येक'' कथन के बारे में भूल करने की कल्पना की जा सकती थी; और यह भी कल्पना की जा सकती थी कि भौतिक वस्तुओं के बारे में कहे गए सभी कथन गलत हैं। | ||
Line 181: | Line 181: | ||
{{ParUG|73}} किन्तु भ्रान्ति तथा मानसिक असन्तुलन में क्या भेद है? या फिर मेरे द्वारा इसे भ्रान्ति के रूप में स्वीकार करने तथा इसे मानसिक असन्तुलन के रूप में स्वीकार करने में क्या अन्तर है? | {{ParUG|73}} किन्तु भ्रान्ति तथा मानसिक असन्तुलन में क्या भेद है? या फिर मेरे द्वारा इसे भ्रान्ति के रूप में स्वीकार करने तथा इसे मानसिक असन्तुलन के रूप में स्वीकार करने में क्या अन्तर है? | ||
{{ParUG|74}} क्या हम कह सकते हैं: ''भूल'' का कारण ही नहीं होता, उसका आधार भी होता है ? यानी, हम कह सकते हैं : जब कोई भूल करता है तो हम उसकी भूल की व्याख्या उसके ज्ञात विषयों के संदर्भ में कर सकते हैं। | {{ParUG|74}} क्या हम कह सकते हैं: ''भूल'' का कारण ही नहीं होता, उसका आधार भी होता है? यानी, हम कह सकते हैं: जब कोई भूल करता है तो हम उसकी भूल की व्याख्या उसके ज्ञात विषयों के संदर्भ में कर सकते हैं। | ||
{{ParUG|75}} क्या यह मानना उचित होगा: यदि मैं गलती से यह समझँ कि मेरे सामने कोई मेज़ पड़ी है, तो इसे भ्रान्ति कहा जा सकता है; किन्तु जब मैं गलती से यह समझू कि मैंने इस या उस जैसी मेज़ को पिछले कई महीनों से हर रोज़ देखा है, और नियमित रूप से उसका प्रयोग भी किया है तो यह भ्रान्ति नहीं होती? | {{ParUG|75}} क्या यह मानना उचित होगा: यदि मैं गलती से यह समझँ कि मेरे सामने कोई मेज़ पड़ी है, तो इसे भ्रान्ति कहा जा सकता है; किन्तु जब मैं गलती से यह समझू कि मैंने इस या उस जैसी मेज़ को पिछले कई महीनों से हर रोज़ देखा है, और नियमित रूप से उसका प्रयोग भी किया है तो यह भ्रान्ति नहीं होती? | ||
Line 195: | Line 195: | ||
{{ParUG|80}} मेरे द्वारा अपने कथनों के ''समझे जाने'' की कसौटी उन कथनों का ''सत्य'' होना है। | {{ParUG|80}} मेरे द्वारा अपने कथनों के ''समझे जाने'' की कसौटी उन कथनों का ''सत्य'' होना है। | ||
{{ParUG|81}} यानी : जब मैं असत्य बोलता हूँ, तो यह निश्चित नहीं होता कि मैं अपने कहे को समझता हूँ। | {{ParUG|81}} यानी: जब मैं असत्य बोलता हूँ, तो यह निश्चित नहीं होता कि मैं अपने कहे को समझता हूँ। | ||
{{ParUG|82}} किसी कथन की पर्याप्त जाँच तो तर्कशास्त्र का विषय है। यह भाषा-खेल के विवरण से संबंधित है। | {{ParUG|82}} किसी कथन की पर्याप्त जाँच तो तर्कशास्त्र का विषय है। यह भाषा-खेल के विवरण से संबंधित है। | ||
Line 207: | Line 207: | ||
{{ParUG|86}} मूअर के "मैं जानता हूँ" को "मेरी यह अविचल अवधारणा है" से प्रतिस्थापित करने पर क्या होगा? | {{ParUG|86}} मूअर के "मैं जानता हूँ" को "मेरी यह अविचल अवधारणा है" से प्रतिस्थापित करने पर क्या होगा? | ||
{{ParUG|87}} किसी प्राक्कल्पना के रूप में प्रयुक्त हो सकने की सामर्थ्य वाले प्रकृत वाक्य का क्या हम शोध और व्यवहार के आधार के रूप में प्रयोग नहीं कर सकते? यानी, क्या हम उसे, किसी स्पष्ट नियम के बिना, संशय-रहित नहीं कर सकते ? इसे स्वयंसिद्ध मान लिया जाता है, इस पर कभी कोई प्रश्न नहीं उठाया जाता, संभवतः किसी प्रश्न की कभी कल्पना भी नहीं की जाती। | {{ParUG|87}} किसी प्राक्कल्पना के रूप में प्रयुक्त हो सकने की सामर्थ्य वाले प्रकृत वाक्य का क्या हम शोध और व्यवहार के आधार के रूप में प्रयोग नहीं कर सकते? यानी, क्या हम उसे, किसी स्पष्ट नियम के बिना, संशय-रहित नहीं कर सकते? इसे स्वयंसिद्ध मान लिया जाता है, इस पर कभी कोई प्रश्न नहीं उठाया जाता, संभवतः किसी प्रश्न की कभी कल्पना भी नहीं की जाती। | ||
{{ParUG|88}} उदाहरणार्थ, ऐसा हो सकता है कि ''हमारी सारी परीक्षा'' कुछ अभिव्यक्ति- समर्थ प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित करने के लिए ही हो। वे परीक्षण-विधि के दायरे में नहीं आतीं। | {{ParUG|88}} उदाहरणार्थ, ऐसा हो सकता है कि ''हमारी सारी परीक्षा'' कुछ अभिव्यक्ति- समर्थ प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित करने के लिए ही हो। वे परीक्षण-विधि के दायरे में नहीं आतीं। | ||
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{{ParUG|101}} उदाहरणार्थ, "मेरा शरीर लुप्त होने के पश्चात् फिर कभी भी प्रकट नहीं हुआ" एक ऐसी ही प्रतिज्ञप्ति है। | {{ParUG|101}} उदाहरणार्थ, "मेरा शरीर लुप्त होने के पश्चात् फिर कभी भी प्रकट नहीं हुआ" एक ऐसी ही प्रतिज्ञप्ति है। | ||
{{ParUG|102}} क्या मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि कभी, अनजाने में, शायद बेहोशी की हालत में, मुझे पृथ्वी से बहुत दूर ले जाया गया – यद्यपि दूसरे लोग इस बारे में जानते हैं फिर भी मुझे इस बारे में नहीं बताते ? किन्तु यह बात मेरे अन्य विश्वासों से मेल नहीं खाती। हालांकि मैं अपनी विश्वास-पद्धति का विवरण नहीं दे सकता। फिर भी मेरे विश्वासों की एक व्यवस्था है, एक संरचना है। | {{ParUG|102}} क्या मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि कभी, अनजाने में, शायद बेहोशी की हालत में, मुझे पृथ्वी से बहुत दूर ले जाया गया – यद्यपि दूसरे लोग इस बारे में जानते हैं फिर भी मुझे इस बारे में नहीं बताते? किन्तु यह बात मेरे अन्य विश्वासों से मेल नहीं खाती। हालांकि मैं अपनी विश्वास-पद्धति का विवरण नहीं दे सकता। फिर भी मेरे विश्वासों की एक व्यवस्था है, एक संरचना है। | ||
{{ParUG|103}} और अब यदि मैं कहूँ "यह मेरी अविचल धारणा है कि...", तो इसका अर्थ होगा कि इस परिस्थिति में भी मेरा विश्वास किसी विशिष्ट विचारधारा का परिणाम न होकर, मेरे सभी ''प्रश्नों एवं उत्तरों'' से कुछ ऐसे जुड़ा है कि मुझे उसका पता नहीं चलता। | {{ParUG|103}} और अब यदि मैं कहूँ "यह मेरी अविचल धारणा है कि...", तो इसका अर्थ होगा कि इस परिस्थिति में भी मेरा विश्वास किसी विशिष्ट विचारधारा का परिणाम न होकर, मेरे सभी ''प्रश्नों एवं उत्तरों'' से कुछ ऐसे जुड़ा है कि मुझे उसका पता नहीं चलता। | ||
Line 247: | Line 247: | ||
{{ParUG|104}} उदाहरणार्थ, मेरा यह भी दृढ़ विश्वास है कि आकाश में सूर्य कोई ऐसा छिद्र नहीं है जो स्वर्ग का मार्ग हो। | {{ParUG|104}} उदाहरणार्थ, मेरा यह भी दृढ़ विश्वास है कि आकाश में सूर्य कोई ऐसा छिद्र नहीं है जो स्वर्ग का मार्ग हो। | ||
{{ParUG|105}} किसी प्राक्कल्पना की जाँच, उसकी पुष्टि अथवा उसका निराकरण किसी प्रणाली में ही किया जाता है। और वह प्रणाली हमारी तर्क-पद्धति से कमोबेश भिन्न नहीं है। नहीं : अपितु वह तो हमारी युक्तियों का सार है। प्रणाली के कारण भिन्नता नहीं होती बल्कि उसी के कारण युक्तियां जीवन्त होती हैं। | {{ParUG|105}} किसी प्राक्कल्पना की जाँच, उसकी पुष्टि अथवा उसका निराकरण किसी प्रणाली में ही किया जाता है। और वह प्रणाली हमारी तर्क-पद्धति से कमोबेश भिन्न नहीं है। नहीं: अपितु वह तो हमारी युक्तियों का सार है। प्रणाली के कारण भिन्नता नहीं होती बल्कि उसी के कारण युक्तियां जीवन्त होती हैं। | ||
{{ParUG|106}} मान लीजिए कि कोई बुजुर्ग किसी शिशु से कहे कि वह चाँद पर जा चुका है। शिशु के मुझे यह बताने पर मैं उसे कहता हूँ कि वह तो एक मज़ाक था, वह व्यक्ति चाँद पर नहीं गया; चाँद बहुत दूर है और वहाँ पर चढ़ पाना, या उड़ जाना असंभव है। – पर यदि अब शिशु जिद करे कि वहाँ जाने का रास्ता तो है किन्तु उस रास्ते का मुझे पता ही नहीं है तो मैं उसे क्या जवाब दूँ? किसी जनजाति के ऐसे बुजुर्गों को जिनकी मान्यता हो कि कभी-कभी लोग चाँद पर चले जाते हैं (संभवत: वे अपने स्वप्नों की व्याख्या ऐसे करते हैं), और जो यह भी मानते हों कि चाँद पर चढ़ जाने, या उस तक उड़ कर जाने का कोई साधारण साधन नहीं है, उनको मैं क्या उत्तर दूँ? – किन्तु, साधारणतः शिशु ऐसी मान्यता से चिपकेगा नहीं और हमारी सीख को मान लेगा। | {{ParUG|106}} मान लीजिए कि कोई बुजुर्ग किसी शिशु से कहे कि वह चाँद पर जा चुका है। शिशु के मुझे यह बताने पर मैं उसे कहता हूँ कि वह तो एक मज़ाक था, वह व्यक्ति चाँद पर नहीं गया; चाँद बहुत दूर है और वहाँ पर चढ़ पाना, या उड़ जाना असंभव है। – पर यदि अब शिशु जिद करे कि वहाँ जाने का रास्ता तो है किन्तु उस रास्ते का मुझे पता ही नहीं है तो मैं उसे क्या जवाब दूँ? किसी जनजाति के ऐसे बुजुर्गों को जिनकी मान्यता हो कि कभी-कभी लोग चाँद पर चले जाते हैं (संभवत: वे अपने स्वप्नों की व्याख्या ऐसे करते हैं), और जो यह भी मानते हों कि चाँद पर चढ़ जाने, या उस तक उड़ कर जाने का कोई साधारण साधन नहीं है, उनको मैं क्या उत्तर दूँ? – किन्तु, साधारणतः शिशु ऐसी मान्यता से चिपकेगा नहीं और हमारी सीख को मान लेगा। | ||
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{{ParUG|109}} (हम कहते हैं कि) "आनुभविक प्रतिज्ञप्ति की ''जाँच'' की जा सकती है।" पर कैसे? और किस विधि से? | {{ParUG|109}} (हम कहते हैं कि) "आनुभविक प्रतिज्ञप्ति की ''जाँच'' की जा सकती है।" पर कैसे? और किस विधि से? | ||
{{ParUG|110}} जाँच से क्या ''अभिप्राय'' है? – "किन्तु क्या यह जाँच पर्याप्त है? और यदि यह पर्याप्त है तो क्या इसे तर्कशास्त्र से मान्यता नहीं मिलनी चाहिए?" – मानो आधारों का कोई अन्त ही नहीं होता। किन्तु अन्त आधारहीन प्राक्कल्पना तो नहीं होता : वह तो व्यवहार का आधारहीन ढंग होता है। | {{ParUG|110}} जाँच से क्या ''अभिप्राय'' है? – "किन्तु क्या यह जाँच पर्याप्त है? और यदि यह पर्याप्त है तो क्या इसे तर्कशास्त्र से मान्यता नहीं मिलनी चाहिए?" – मानो आधारों का कोई अन्त ही नहीं होता। किन्तु अन्त आधारहीन प्राक्कल्पना तो नहीं होता: वह तो व्यवहार का आधारहीन ढंग होता है। | ||
{{ParUG|111}} "मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया।" सामयिक परिस्थितियों में यह कहना एक बात है और यदि बहुत से लोग, जिन में से कई बिना यह जाने कि वे चाँद पर गए हैं, चाँद पर गए होते तो यह कहना दूसरी बात होती। ''इस'' परिस्थिति में अपने इस ज्ञान के आधार दिए जा सकते थे। क्या इन दोनों बातों का संबंध परिकलन के साधारण नियमों और वास्तविक परिकलन जैसा नहीं है? | {{ParUG|111}} "मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया।" सामयिक परिस्थितियों में यह कहना एक बात है और यदि बहुत से लोग, जिन में से कई बिना यह जाने कि वे चाँद पर गए हैं, चाँद पर गए होते तो यह कहना दूसरी बात होती। ''इस'' परिस्थिति में अपने इस ज्ञान के आधार दिए जा सकते थे। क्या इन दोनों बातों का संबंध परिकलन के साधारण नियमों और वास्तविक परिकलन जैसा नहीं है? | ||
Line 271: | Line 271: | ||
{{ParUG|115}} यदि आप हर बात पर संदेह करें तो आप किसी भी बात पर संदेह नहीं कर पाऐंगे। आश्वासन संदेह के खेल की पूर्वमान्यता है। | {{ParUG|115}} यदि आप हर बात पर संदेह करें तो आप किसी भी बात पर संदेह नहीं कर पाऐंगे। आश्वासन संदेह के खेल की पूर्वमान्यता है। | ||
{{ParUG|116}} "मैं जानता हूँ कि..." कहने के बदले क्या मूअर यह नहीं कह सकते थे: "मैं इस बारे में आश्वस्त हूँ कि..."? और फिर यह कहते : "मैं और अनेक अन्य लोग इस बारे में आश्वस्त हैं कि...।" | {{ParUG|116}} "मैं जानता हूँ कि..." कहने के बदले क्या मूअर यह नहीं कह सकते थे: "मैं इस बारे में आश्वस्त हूँ कि..."? और फिर यह कहते: "मैं और अनेक अन्य लोग इस बारे में आश्वस्त हैं कि...।" | ||
{{ParUG|117}} इस बात के बारे में मैं शंकित क्यों नहीं हो सकता कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ? और इस पर मैं संदेह कैसे करूँ? | {{ParUG|117}} इस बात के बारे में मैं शंकित क्यों नहीं हो सकता कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ? और इस पर मैं संदेह कैसे करूँ? | ||
Line 313: | Line 313: | ||
{{ParUG|132}} मनुष्यों की यह अवधारणा रही है कि राजा वर्षा करा सकते हैं; ''हम'' कहते हैं कि यह हमारे समस्त अनुभवों के विरुद्ध है। आज उनकी यह अवधारणा है कि वायुयान और रेडियो इत्यादि लोगों से निकट सम्पर्क स्थापित करने में और संस्कृति के प्रसार में सहायक हैं। | {{ParUG|132}} मनुष्यों की यह अवधारणा रही है कि राजा वर्षा करा सकते हैं; ''हम'' कहते हैं कि यह हमारे समस्त अनुभवों के विरुद्ध है। आज उनकी यह अवधारणा है कि वायुयान और रेडियो इत्यादि लोगों से निकट सम्पर्क स्थापित करने में और संस्कृति के प्रसार में सहायक हैं। | ||
{{ParUG|133}} साधारणतया मैं अपने दोनों हाथों को देखकर उनके अस्तित्व के बारे में आश्वस्त नहीं होता। क्यों नहीं? क्या मुझे अनुभव से पता चला है कि यह व्यर्थ है ? या (फिर): क्या हमने पहले किसी सार्वभौमिक आगमनात्मक नियम को सीखकर यहाँ भी उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया? – किन्तु हमें ''विशिष्ट'' नियम की बजाय ''सार्वभौमिक'' नियम का पता पहले क्यों चलता है? | {{ParUG|133}} साधारणतया मैं अपने दोनों हाथों को देखकर उनके अस्तित्व के बारे में आश्वस्त नहीं होता। क्यों नहीं? क्या मुझे अनुभव से पता चला है कि यह व्यर्थ है? या (फिर): क्या हमने पहले किसी सार्वभौमिक आगमनात्मक नियम को सीखकर यहाँ भी उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया? – किन्तु हमें ''विशिष्ट'' नियम की बजाय ''सार्वभौमिक'' नियम का पता पहले क्यों चलता है? | ||
{{ParUG|134}} किसी पुस्तक को मेज़ की दराज़ में रखकर मैं उसके वहीं रखे रहने की कल्पना करता हूँ जब तक कि...। "अनुभव सदा मुझे ठीक सिद्ध करता है। पुस्तक के (यकायक) लुप्त होने का कोई प्रामाणिक अनुभव नहीं है।" किसी विशेष स्थान पर पुस्तक के होने का पक्का अनुमान होने पर भी ''कभी-कभी'' पुस्तक वहाँ उपलब्ध नहीं होती। – किन्तु अनुभव से ही हमें वास्तव में यह पता चलता है कि कोई पुस्तक लुप्त नहीं हो जाती। (उदाहरणार्थ, वह भाप बन कर शनै: शनै: उड़ नहीं जाती।) किन्तु क्या पुस्तकों इत्यादि के इस अनुभव के कारण हम यह मान लेते हैं कि पुस्तक लुप्त नहीं हुई है ? – क्या हमें अपनी प्राक्कल्पना को बदल नहीं देना चाहिए? क्या हम प्राक्कल्पना-प्रणाली पर पड़े अपने अनुभव के प्रभाव को झुठला सकते हैं? | {{ParUG|134}} किसी पुस्तक को मेज़ की दराज़ में रखकर मैं उसके वहीं रखे रहने की कल्पना करता हूँ जब तक कि...। "अनुभव सदा मुझे ठीक सिद्ध करता है। पुस्तक के (यकायक) लुप्त होने का कोई प्रामाणिक अनुभव नहीं है।" किसी विशेष स्थान पर पुस्तक के होने का पक्का अनुमान होने पर भी ''कभी-कभी'' पुस्तक वहाँ उपलब्ध नहीं होती। – किन्तु अनुभव से ही हमें वास्तव में यह पता चलता है कि कोई पुस्तक लुप्त नहीं हो जाती। (उदाहरणार्थ, वह भाप बन कर शनै: शनै: उड़ नहीं जाती।) किन्तु क्या पुस्तकों इत्यादि के इस अनुभव के कारण हम यह मान लेते हैं कि पुस्तक लुप्त नहीं हुई है? – क्या हमें अपनी प्राक्कल्पना को बदल नहीं देना चाहिए? क्या हम प्राक्कल्पना-प्रणाली पर पड़े अपने अनुभव के प्रभाव को झुठला सकते हैं? | ||
{{ParUG|135}} क्या हम सदैव इस (या ऐसे) सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करते कि जो हमेशा से होता चला आया है वह पुनः घटित होगा? इस सिद्धान्त के अनुसरण का क्या अभिप्राय है? क्या हम इसे अपनी युक्तियों में शामिल करते हैं? या फिर, क्या यह कोई ऐसा ''प्राकृतिक नियम'' है जिसका अनुमान-प्रक्रिया सहज ही पालन करती है? यह तो सम्भव है। यह हमारे विचार का विषय नहीं है। | {{ParUG|135}} क्या हम सदैव इस (या ऐसे) सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करते कि जो हमेशा से होता चला आया है वह पुनः घटित होगा? इस सिद्धान्त के अनुसरण का क्या अभिप्राय है? क्या हम इसे अपनी युक्तियों में शामिल करते हैं? या फिर, क्या यह कोई ऐसा ''प्राकृतिक नियम'' है जिसका अनुमान-प्रक्रिया सहज ही पालन करती है? यह तो सम्भव है। यह हमारे विचार का विषय नहीं है। | ||
Line 369: | Line 369: | ||
{{ParUG|156}} भूल सामाजिक नियमों के दायरे में ही सम्भव है। | {{ParUG|156}} भूल सामाजिक नियमों के दायरे में ही सम्भव है। | ||
{{ParUG|157}} किसी व्यक्ति के अपने दोनों हाथों और हर हाथ में पाँच अंगुलियों के अस्तित्व को भूल जाने पर क्या होगा ? क्या हम उसे समझ पाऐंगे? क्या हम उसकी समझ के विषय में संतुष्ट होंगे? | {{ParUG|157}} किसी व्यक्ति के अपने दोनों हाथों और हर हाथ में पाँच अंगुलियों के अस्तित्व को भूल जाने पर क्या होगा? क्या हम उसे समझ पाऐंगे? क्या हम उसकी समझ के विषय में संतुष्ट होंगे? | ||
{{ParUG|158}} उदाहरणार्थ, क्या मैं हिन्दी भाषा के इस वाक्य में प्रयुक्त शब्दों के अपने अर्थ-ज्ञान के बारे में भूल कर सकता हूँ? | {{ParUG|158}} उदाहरणार्थ, क्या मैं हिन्दी भाषा के इस वाक्य में प्रयुक्त शब्दों के अपने अर्थ-ज्ञान के बारे में भूल कर सकता हूँ? | ||
Line 379: | Line 379: | ||
{{ParUG|161}} बहुत सी बातों को मैंने श्रुति-प्रमाण से ही सीखा और अपनाया और फिर अपने अनुभव से मैंने पाया कि कुछ बातों की पुष्टि हो सकती है और कुछ की नहीं। | {{ParUG|161}} बहुत सी बातों को मैंने श्रुति-प्रमाण से ही सीखा और अपनाया और फिर अपने अनुभव से मैंने पाया कि कुछ बातों की पुष्टि हो सकती है और कुछ की नहीं। | ||
{{ParUG|162}} पाठ्य-पुस्तकों, उदाहरणार्थ, भूगोल की पाठ्य-पुस्तकों, में पायी जाने वाली बातों को मैं सामान्यतः सच मानता हूँ। क्यों? मैं कहता हूँ: इन तथ्यों की अनेक बार पुष्टि की जा चुकी है। किन्तु मैं इसे कैसे जानता हूँ? मेरे पास इसका क्या प्रमाण है? मेरे पास संसार का एक चित्र है। क्या वह प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? फिर भी वह मेरे सभी कथनों और मेरी समस्त जिज्ञासाओं का आधार है। इसका वर्णन करने वाली सभी प्रतिज्ञप्तियों की जाँच तो नहीं की जा सकती। | {{ParUG|162}} पाठ्य-पुस्तकों, उदाहरणार्थ, भूगोल की पाठ्य-पुस्तकों, में पायी जाने वाली बातों को मैं सामान्यतः सच मानता हूँ। क्यों? मैं कहता हूँ: इन तथ्यों की अनेक बार पुष्टि की जा चुकी है। किन्तु मैं इसे कैसे जानता हूँ? मेरे पास इसका क्या प्रमाण है? मेरे पास संसार का एक चित्र है। क्या वह प्रामाणिक है या अप्रामाणिक? फिर भी वह मेरे सभी कथनों और मेरी समस्त जिज्ञासाओं का आधार है। इसका वर्णन करने वाली सभी प्रतिज्ञप्तियों की जाँच तो नहीं की जा सकती। | ||
{{ParUG|163}} मेज़ की ओर किसी का ध्यान न होने पर भी क्या कभी किसी ने उसके अस्तित्व की जाँच की है ? | {{ParUG|163}} मेज़ की ओर किसी का ध्यान न होने पर भी क्या कभी किसी ने उसके अस्तित्व की जाँच की है? | ||
हम नेपोलियन की कथाओं की जाँच तो करते हैं किन्तु उनके बारे में दी गई सूचनाओं की भ्रान्त धारणा, जालसाजी इत्यादि की जाँच नहीं करते। क्योंकि जाँच करते समय हम किसी न किसी ऐसी बात की पूर्वकल्पना कर लेते हैं जिसको हम जाँचते नहीं। तो क्या मैं कहूँ कि किसी प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को जाँचने के लिए मैं जो प्रयोग करता हूँ वह प्रयोग इस प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को मान कर चलता है कि जिन उपकरणों के बारे में मेरा विश्वास है कि मैं उनको देख रहा हूँ, उनका वास्तव में अस्तित्व है (इत्यादि)? | हम नेपोलियन की कथाओं की जाँच तो करते हैं किन्तु उनके बारे में दी गई सूचनाओं की भ्रान्त धारणा, जालसाजी इत्यादि की जाँच नहीं करते। क्योंकि जाँच करते समय हम किसी न किसी ऐसी बात की पूर्वकल्पना कर लेते हैं जिसको हम जाँचते नहीं। तो क्या मैं कहूँ कि किसी प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को जाँचने के लिए मैं जो प्रयोग करता हूँ वह प्रयोग इस प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को मान कर चलता है कि जिन उपकरणों के बारे में मेरा विश्वास है कि मैं उनको देख रहा हूँ, उनका वास्तव में अस्तित्व है (इत्यादि)? | ||
{{ParUG|164}} क्या जाँच-प्रक्रिया का कोई अन्त नहीं होता ? | {{ParUG|164}} क्या जाँच-प्रक्रिया का कोई अन्त नहीं होता? | ||
{{ParUG|165}} एक शिशु दूसरे से कह सकता है : "मैं जानता हूँ कि पृथ्वी सैंकड़ों वर्ष पुरानी है" उसका अभिप्राय होगा: मैंने ऐसा सीखा है। | {{ParUG|165}} एक शिशु दूसरे से कह सकता है: "मैं जानता हूँ कि पृथ्वी सैंकड़ों वर्ष पुरानी है" उसका अभिप्राय होगा: मैंने ऐसा सीखा है। | ||
{{ParUG|166}} अपने विश्वास की आधारहीनता का अहसास करना कठिन है। | {{ParUG|166}} अपने विश्वास की आधारहीनता का अहसास करना कठिन है। | ||
Line 393: | Line 393: | ||
{{ParUG|167}} यह तो स्पष्ट है कि सभी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियां एक जैसी नहीं होतीं क्योंकि कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति हो सकती है जिसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति से विवरण देने के प्रतिमान में बदला जा सके। | {{ParUG|167}} यह तो स्पष्ट है कि सभी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियां एक जैसी नहीं होतीं क्योंकि कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति हो सकती है जिसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति से विवरण देने के प्रतिमान में बदला जा सके। | ||
रासायनिक अनुसंधान पर विचार करें। लेवोइसियर अपनी अनुसंधानशाला में पदार्थ-प्रयोग द्वारा इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि जलने पर अमुक प्रतिक्रिया होती है। वे यह नहीं कहते कि किसी अन्य समय पर इससे उलट भी हो सकता है। उनके मन में संसार का एक विशिष्ट चित्र है – यह चित्र उनकी खोज का परिणाम नहीं है : उन्होंने उस चित्र को शैशवावस्था से सीखा है। मैं यहाँ संसार के चित्र का उल्लेख कर रहा हूँ न कि प्राक्कल्पना का, क्योंकि यह उनके अनुसंधान का ''सहज'' आधार है और इसीलिए इसका उल्लेख भी नहीं होता। | रासायनिक अनुसंधान पर विचार करें। लेवोइसियर अपनी अनुसंधानशाला में पदार्थ-प्रयोग द्वारा इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि जलने पर अमुक प्रतिक्रिया होती है। वे यह नहीं कहते कि किसी अन्य समय पर इससे उलट भी हो सकता है। उनके मन में संसार का एक विशिष्ट चित्र है – यह चित्र उनकी खोज का परिणाम नहीं है: उन्होंने उस चित्र को शैशवावस्था से सीखा है। मैं यहाँ संसार के चित्र का उल्लेख कर रहा हूँ न कि प्राक्कल्पना का, क्योंकि यह उनके अनुसंधान का ''सहज'' आधार है और इसीलिए इसका उल्लेख भी नहीं होता। | ||
{{ParUG|168}} किन्तु समान परिस्थितियों में पदार्थ क, पदार्थ ख से सदैव एक सी प्रतिक्रिया करता है, इस प्राक्कल्पना की अब क्या भूमिका है? या फिर, क्या यह पदार्थ की परिभाषा का ही अंग है ? | {{ParUG|168}} किन्तु समान परिस्थितियों में पदार्थ क, पदार्थ ख से सदैव एक सी प्रतिक्रिया करता है, इस प्राक्कल्पना की अब क्या भूमिका है? या फिर, क्या यह पदार्थ की परिभाषा का ही अंग है? | ||
{{ParUG|169}} रसायन शास्त्र की ''संभावना'' को अभिव्यक्त करने वाली प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना की जा सकती है। और वे प्राकृतिक-विज्ञान की प्रतिज्ञप्तियां ही होंगी। क्योंकि अनुभव के सिवाय उनका क्या आधार होगा ? | {{ParUG|169}} रसायन शास्त्र की ''संभावना'' को अभिव्यक्त करने वाली प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना की जा सकती है। और वे प्राकृतिक-विज्ञान की प्रतिज्ञप्तियां ही होंगी। क्योंकि अनुभव के सिवाय उनका क्या आधार होगा? | ||
{{ParUG|170}} लोगों के विशेष लहजे में बात करने पर मुझे उन पर भरोसा होता है। इसी प्रकार मैं भौगोलिक, रासायनिक, ऐतिहासिक इत्यादि तथ्यों पर विश्वास करता हूँ। विज्ञान के विषय को भी मैं इसी प्रकार ''सीखता'' हूँ। सीखने का आधार तो विश्वास ही है। | {{ParUG|170}} लोगों के विशेष लहजे में बात करने पर मुझे उन पर भरोसा होता है। इसी प्रकार मैं भौगोलिक, रासायनिक, ऐतिहासिक इत्यादि तथ्यों पर विश्वास करता हूँ। विज्ञान के विषय को भी मैं इसी प्रकार ''सीखता'' हूँ। सीखने का आधार तो विश्वास ही है। | ||
Line 403: | Line 403: | ||
यदि आपने यह सीखा है कि माँट पर्वत की ऊँचाई 4000 मीटर है, यदि आपने मानचित्र में इसे देखा है, तो आप कहते हैं कि आप इस बारे में ''जानते'' हैं। | यदि आपने यह सीखा है कि माँट पर्वत की ऊँचाई 4000 मीटर है, यदि आपने मानचित्र में इसे देखा है, तो आप कहते हैं कि आप इस बारे में ''जानते'' हैं। | ||
तो क्या यह कहा जा सकता है : हम इसे विश्वसनीय मानते हैं क्योंकि इससे हमें लाभ हुआ है? | तो क्या यह कहा जा सकता है: हम इसे विश्वसनीय मानते हैं क्योंकि इससे हमें लाभ हुआ है? | ||
{{ParUG|171}} मूअर के कभी चाँद पर न जाने के विश्वास का मुख्य कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति कभी चाँद पर नहीं गया, या कभी भी वहाँ नहीं ''पहुँचा''। यह विश्वास हमारी शिक्षा पर आधारित है। | {{ParUG|171}} मूअर के कभी चाँद पर न जाने के विश्वास का मुख्य कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति कभी चाँद पर नहीं गया, या कभी भी वहाँ नहीं ''पहुँचा''। यह विश्वास हमारी शिक्षा पर आधारित है। | ||
{{ParUG|172}} संभवत: कोई कहे कि "किसी बात को विश्वसनीय मानने का हमारा कोई मुख्य आधार तो होगा", किन्तु ऐसे आधार से क्या उपलब्धि होगी? क्या यह 'सत्य मानने' के प्राकृतिक नियम से बेहतर है ? | {{ParUG|172}} संभवत: कोई कहे कि "किसी बात को विश्वसनीय मानने का हमारा कोई मुख्य आधार तो होगा", किन्तु ऐसे आधार से क्या उपलब्धि होगी? क्या यह 'सत्य मानने' के प्राकृतिक नियम से बेहतर है? | ||
{{ParUG|173}} किसी बात पर विश्वास या अटूट विश्वास क्या मेरे बस में है ? | {{ParUG|173}} किसी बात पर विश्वास या अटूट विश्वास क्या मेरे बस में है? | ||
मेरा विश्वास है कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है? क्या मैं भूल नहीं कर सकता ? किन्तु क्या मैं अपनी भूल स्वीकार कर सकता हूँ? या फिर क्या मैं अपने द्वारा भूल किये जाने के बारे में सोच भी सकता हूँ? – और क्या बाद का शिक्षण मेरे विश्वास को डिगा सकता है?! तो क्या मेरे विश्वास का कोई ''आधार'' है? | मेरा विश्वास है कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है? क्या मैं भूल नहीं कर सकता? किन्तु क्या मैं अपनी भूल स्वीकार कर सकता हूँ? या फिर क्या मैं अपने द्वारा भूल किये जाने के बारे में सोच भी सकता हूँ? – और क्या बाद का शिक्षण मेरे विश्वास को डिगा सकता है?! तो क्या मेरे विश्वास का कोई ''आधार'' है? | ||
{{ParUG|174}} मैं ''पूरी'' निश्चितता के साथ कार्य करता हूँ। किन्तु यह मेरी अपनी निश्चितता है। | {{ParUG|174}} मैं ''पूरी'' निश्चितता के साथ कार्य करता हूँ। किन्तु यह मेरी अपनी निश्चितता है। | ||
Line 447: | Line 447: | ||
{{ParUG|190}} जिसे हम ऐतिहासिक साक्ष्य कहते हैं वह बतलाता है कि मेरे जन्म के बहुत पहले से ही पृथ्वी का अस्तित्व है; – विपरीत-कल्पना के समर्थन में ''कुछ भी नहीं'' है। | {{ParUG|190}} जिसे हम ऐतिहासिक साक्ष्य कहते हैं वह बतलाता है कि मेरे जन्म के बहुत पहले से ही पृथ्वी का अस्तित्व है; – विपरीत-कल्पना के समर्थन में ''कुछ भी नहीं'' है। | ||
{{ParUG|191}} यदि सभी कुछ किसी प्राक्कल्पना के पक्ष में हो और विपक्ष में कुछ भी न कहा जाए – तो क्या वह निश्चित रूप से सत्य होती है? उसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है। – किन्तु क्या वह निश्चित रूप से यथार्थ के, तथ्यों के अनुरूप होती है ? – इस प्रश्न को पूछते ही आप एक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं। | {{ParUG|191}} यदि सभी कुछ किसी प्राक्कल्पना के पक्ष में हो और विपक्ष में कुछ भी न कहा जाए – तो क्या वह निश्चित रूप से सत्य होती है? उसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है। – किन्तु क्या वह निश्चित रूप से यथार्थ के, तथ्यों के अनुरूप होती है? – इस प्रश्न को पूछते ही आप एक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं। | ||
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Line 453: | Line 453: | ||
{{ParUG|192}} औचित्य सिद्ध किया जा सकता है, किन्तु औचित्य की भी सीमा होती है। | {{ParUG|192}} औचित्य सिद्ध किया जा सकता है, किन्तु औचित्य की भी सीमा होती है। | ||
{{ParUG|193}} इसका क्या अर्थ है : किसी प्रतिज्ञप्ति का सत्य होना तो ''सुनिश्चित'' है ? | {{ParUG|193}} इसका क्या अर्थ है: किसी प्रतिज्ञप्ति का सत्य होना तो ''सुनिश्चित'' है? | ||
{{ParUG|194}} "सुनिश्चित" शब्द को कहने से हम पूर्ण विश्वास को, संशय के संपूर्ण अभाव को, अभिव्यक्त करते हैं और ऐसा करके हम अन्य व्यक्तियों को आश्वस्त करते हैं। यह ''मनोगत'' निश्चितता है। | {{ParUG|194}} "सुनिश्चित" शब्द को कहने से हम पूर्ण विश्वास को, संशय के संपूर्ण अभाव को, अभिव्यक्त करते हैं और ऐसा करके हम अन्य व्यक्तियों को आश्वस्त करते हैं। यह ''मनोगत'' निश्चितता है। | ||
Line 459: | Line 459: | ||
किन्तु कोई भी बात वस्तुनिष्ठ रूप से कब सुनिश्चित होती है? जब कोई गलती करना संभव नहीं हो। पर यह किस प्रकार की संभावना है? क्या ''तर्कतः'' गलती की संभावना को ही समाप्त नहीं कर देना चाहिए? | किन्तु कोई भी बात वस्तुनिष्ठ रूप से कब सुनिश्चित होती है? जब कोई गलती करना संभव नहीं हो। पर यह किस प्रकार की संभावना है? क्या ''तर्कतः'' गलती की संभावना को ही समाप्त नहीं कर देना चाहिए? | ||
{{ParUG|195}} अपने कमरे में न होने पर भी मेरा यह विश्वास करना कि मैं अपने कमरे में बैठा हूँ कोई ''भूल'' नहीं होती। किन्तु इसमें और गलती करने की स्थिति में क्या कोई तात्त्विक भेद है ? | {{ParUG|195}} अपने कमरे में न होने पर भी मेरा यह विश्वास करना कि मैं अपने कमरे में बैठा हूँ कोई ''भूल'' नहीं होती। किन्तु इसमें और गलती करने की स्थिति में क्या कोई तात्त्विक भेद है? | ||
{{ParUG|196}} जिसे हम ''स्वीकार'' करते हैं वही निश्चित प्रमाण होता है, तथा उसी के कारण हम बिना किसी संशय के, सुनिश्चित रूप से, ''कार्य'' करते हैं। | {{ParUG|196}} जिसे हम ''स्वीकार'' करते हैं वही निश्चित प्रमाण होता है, तथा उसी के कारण हम बिना किसी संशय के, सुनिश्चित रूप से, ''कार्य'' करते हैं। | ||
Line 493: | Line 493: | ||
{{ParUG|207}} "विचित्र संयोग है कि जिस किसी की भी खोपड़ी खोली गई उसमें मस्तिष्क पाया गया!" | {{ParUG|207}} "विचित्र संयोग है कि जिस किसी की भी खोपड़ी खोली गई उसमें मस्तिष्क पाया गया!" | ||
{{ParUG|208}} मैं न्यूयॉर्क में किसी से टेलीफोन पर बात करता हूँ। मेरा मित्र मुझे बताता है कि उसके घर में लगे पौधों पर अमुक प्रकार की कलियाँ खिली हैं। मैं विवरण सुन-कर आश्वस्त हो जाता हूँ कि उन पौधों का... नाम है। क्या मैं पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में भी आश्वस्त हो जाता हूँ ? | {{ParUG|208}} मैं न्यूयॉर्क में किसी से टेलीफोन पर बात करता हूँ। मेरा मित्र मुझे बताता है कि उसके घर में लगे पौधों पर अमुक प्रकार की कलियाँ खिली हैं। मैं विवरण सुन-कर आश्वस्त हो जाता हूँ कि उन पौधों का... नाम है। क्या मैं पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में भी आश्वस्त हो जाता हूँ? | ||
{{ParUG|209}} पृथ्वी का अस्तित्व है, यह उस पूरे ''चित्र'' का एक अंश है, जो मेरे विश्वास के आरम्भिक बिन्दु का निर्माण करता है। | {{ParUG|209}} पृथ्वी का अस्तित्व है, यह उस पूरे ''चित्र'' का एक अंश है, जो मेरे विश्वास के आरम्भिक बिन्दु का निर्माण करता है। | ||
{{ParUG|210}} क्या न्यूयॉर्क की मेरी टेलीफोन वार्ता से, पृथ्वी के अस्तित्व से सम्बन्धित मेरा विश्वास और दृढ़ होता है ? | {{ParUG|210}} क्या न्यूयॉर्क की मेरी टेलीफोन वार्ता से, पृथ्वी के अस्तित्व से सम्बन्धित मेरा विश्वास और दृढ़ होता है? | ||
काफी कुछ तो स्थिर है और उसमें कोई बदलाव नहीं आता। मानो उसे चालू पटरी से उतारकर बेकार पटरी पर ढकेल दिया गया हो। | काफी कुछ तो स्थिर है और उसमें कोई बदलाव नहीं आता। मानो उसे चालू पटरी से उतारकर बेकार पटरी पर ढकेल दिया गया हो। | ||
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{{ParUG|211}} तो, इससे हमारे परिप्रेक्ष्य को, और हमारी खोज को एक रूप मिलता हैं। संभवत: कभी वे विवादास्पद रहे हों। किन्तु सम्भवतः अचिन्त्य समय से वे हमारे विचारों के ''आधार'' से सम्बन्धित रहे हैं। (हर मनुष्य के माता-पिता होते हैं।) | {{ParUG|211}} तो, इससे हमारे परिप्रेक्ष्य को, और हमारी खोज को एक रूप मिलता हैं। संभवत: कभी वे विवादास्पद रहे हों। किन्तु सम्भवतः अचिन्त्य समय से वे हमारे विचारों के ''आधार'' से सम्बन्धित रहे हैं। (हर मनुष्य के माता-पिता होते हैं।) | ||
{{ParUG|212}} उदाहरणार्थ, किन्हीं परिस्थितियों में हम किसी परिकलन को यथेष्ट रूप में जाँचा-परखा मान लेते हैं। यह अधिकार कहाँ से मिलता है ? अनुभव से? क्या वह हमें कभी धोखा नहीं दे सकता? औचित्य की कोई सीमा तो होती है, और उस स्थिति में यही बात बची रहती है कि हम ''ऐसे'' ही परिकलन करते हैं। | {{ParUG|212}} उदाहरणार्थ, किन्हीं परिस्थितियों में हम किसी परिकलन को यथेष्ट रूप में जाँचा-परखा मान लेते हैं। यह अधिकार कहाँ से मिलता है? अनुभव से? क्या वह हमें कभी धोखा नहीं दे सकता? औचित्य की कोई सीमा तो होती है, और उस स्थिति में यही बात बची रहती है कि हम ''ऐसे'' ही परिकलन करते हैं। | ||
{{ParUG|213}} हमारी "आनुभविक प्रतिज्ञप्तियाँ" समरूप नहीं होतीं। | {{ParUG|213}} हमारी "आनुभविक प्रतिज्ञप्तियाँ" समरूप नहीं होतीं। | ||
Line 529: | Line 529: | ||
{{ParUG|224}} "मैं ''जानता'' हूँ कि ऐसा कभी नहीं हुआ, यदि ऐसा हुआ होता तो मैं उसे कभी भुला नहीं पाता।" | {{ParUG|224}} "मैं ''जानता'' हूँ कि ऐसा कभी नहीं हुआ, यदि ऐसा हुआ होता तो मैं उसे कभी भुला नहीं पाता।" | ||
पर मान लीजिए कि ऐसा ''हुआ हो'', तब तो आप उसे भूल ही गए। और आप कैसे हैं आप उसे भुला ही नहीं पाते ? क्या आप ऐसा अपने पूर्व-अनुभव से नहीं जानते ? | पर मान लीजिए कि ऐसा ''हुआ हो'', तब तो आप उसे भूल ही गए। और आप कैसे हैं आप उसे भुला ही नहीं पाते? क्या आप ऐसा अपने पूर्व-अनुभव से नहीं जानते? | ||
{{ParUG|225}} मैं किसी ''एक'' प्रतिज्ञप्ति की बजाय प्रतिज्ञप्तियों के समुच्चय को विश्वसनीय मानता हूँ। | {{ParUG|225}} मैं किसी ''एक'' प्रतिज्ञप्ति की बजाय प्रतिज्ञप्तियों के समुच्चय को विश्वसनीय मानता हूँ। | ||
Line 541: | Line 541: | ||
{{ParUG|229}} हमारे संपूर्ण व्यवहार से ही हमारी बातों का अर्थ प्राप्त होता है। | {{ParUG|229}} हमारे संपूर्ण व्यवहार से ही हमारी बातों का अर्थ प्राप्त होता है। | ||
{{ParUG|230}} हम अपने आप से पूछते हैं : "मैं ''जानता'' हूँ कि..." कथन का हम क्या करें ? क्योंकि यह प्रश्न मानसिक क्रिया या मानसिक दशा के बारे में नहीं है। | {{ParUG|230}} हम अपने आप से पूछते हैं: "मैं ''जानता'' हूँ कि..." कथन का हम क्या करें? क्योंकि यह प्रश्न मानसिक क्रिया या मानसिक दशा के बारे में नहीं है। | ||
और ''इसी प्रकार'' यह निर्णय लिया जाना चाहिए कि हमें कुछ ज्ञात है या नहीं। | और ''इसी प्रकार'' यह निर्णय लिया जाना चाहिए कि हमें कुछ ज्ञात है या नहीं। | ||
{{ParUG|231}} पृथ्वी के सौ साल पूर्व के अस्तित्व के विषय में संशय करने वाले व्यक्ति को न समझ पाने का कारण ''यह'' है : मुझे ऐसे व्यक्ति की प्रमाण-प्रणाली का ही पता नहीं होता। | {{ParUG|231}} पृथ्वी के सौ साल पूर्व के अस्तित्व के विषय में संशय करने वाले व्यक्ति को न समझ पाने का कारण ''यह'' है: मुझे ऐसे व्यक्ति की प्रमाण-प्रणाली का ही पता नहीं होता। | ||
{{ParUG|232}} "हम इन तथ्यों में किसी पर भी संशय कर सकते हैं किन्तु इन ''सभी'' पर संशय नहीं कर सकते।" | {{ParUG|232}} "हम इन तथ्यों में किसी पर भी संशय कर सकते हैं किन्तु इन ''सभी'' पर संशय नहीं कर सकते।" | ||
Line 577: | Line 577: | ||
{{ParUG|239}} मेरी मान्यता है कि प्रत्येक मानव के माता-पिता मानव हैं; किन्तु कैथोलिकों की मान्यता है कि केवल यीशु की माता ही मानव थी। कुछ लोग साक्ष्यों की परवाह किए बिना यह मान सकते हैं कि ऐसे मनुष्य भी होते हैं जिनके माता-पिता का अस्तित्व ही नहीं है। कैथोलिकों की यह भी मान्यता है कि समस्त प्रतिकूल साक्ष्यों के बावजूद रोटी अपने स्वरूप को पूर्णत: बदल देती है। यानी यदि मूअर कहें: "मैं जानता हूँ कि यह रक्त न होकर शराब है" तो कैथोलिक उनका खण्डन करेंगे। | {{ParUG|239}} मेरी मान्यता है कि प्रत्येक मानव के माता-पिता मानव हैं; किन्तु कैथोलिकों की मान्यता है कि केवल यीशु की माता ही मानव थी। कुछ लोग साक्ष्यों की परवाह किए बिना यह मान सकते हैं कि ऐसे मनुष्य भी होते हैं जिनके माता-पिता का अस्तित्व ही नहीं है। कैथोलिकों की यह भी मान्यता है कि समस्त प्रतिकूल साक्ष्यों के बावजूद रोटी अपने स्वरूप को पूर्णत: बदल देती है। यानी यदि मूअर कहें: "मैं जानता हूँ कि यह रक्त न होकर शराब है" तो कैथोलिक उनका खण्डन करेंगे। | ||
{{ParUG|240}} इस विश्वास का क्या आधार है कि सभी मनुष्यों के माता-पिता होते हैं ? अनुभव के आधार पर। लेकिन मैं इस पूर्ण विश्वास को अनुभव का आधार कैसे बना सकता हूँ? इसका आधार केवल यह तथ्य नहीं है कि मैं कुछ लोगों के माता-पिता को जानता हूँ, अपितु यह तो मनुष्यों के दाम्पत्य जीवन, उनकी शरीर रचना, शारीरिक वृत्ति के बारे में मेरे ज्ञान और पशुओं के बारे में मेरी देखी-सुनी बातों पर आधारित है। किन्तु क्या यह कोई प्रमाण है? | {{ParUG|240}} इस विश्वास का क्या आधार है कि सभी मनुष्यों के माता-पिता होते हैं? अनुभव के आधार पर। लेकिन मैं इस पूर्ण विश्वास को अनुभव का आधार कैसे बना सकता हूँ? इसका आधार केवल यह तथ्य नहीं है कि मैं कुछ लोगों के माता-पिता को जानता हूँ, अपितु यह तो मनुष्यों के दाम्पत्य जीवन, उनकी शरीर रचना, शारीरिक वृत्ति के बारे में मेरे ज्ञान और पशुओं के बारे में मेरी देखी-सुनी बातों पर आधारित है। किन्तु क्या यह कोई प्रमाण है? | ||
{{ParUG|241}} क्या यह एक ऐसी प्राक्कल्पना नहीं है जिस पर मै ''विश्वास'' करता हूँ और जिसकी बार-बार पूरी पुष्टि होती रहती है? | {{ParUG|241}} क्या यह एक ऐसी प्राक्कल्पना नहीं है जिस पर मै ''विश्वास'' करता हूँ और जिसकी बार-बार पूरी पुष्टि होती रहती है? | ||
Line 687: | Line 687: | ||
{{ParUG|282}} बिल्लियों के पेड़ों से पैदा न होने, या फिर अपने माता-पिता के अस्तित्व के बारे में अपने विश्वास का मेरा कोई ठोस आधार नहीं है। | {{ParUG|282}} बिल्लियों के पेड़ों से पैदा न होने, या फिर अपने माता-पिता के अस्तित्व के बारे में अपने विश्वास का मेरा कोई ठोस आधार नहीं है। | ||
कोई उस पर शंका कैसे कर पाता है? आरंभ से ही अपने माता-पिता के अस्तित्व पर विश्वास न करके ? तो क्या बिना सिखाये इसकी कल्पना की जा सकती है ? | कोई उस पर शंका कैसे कर पाता है? आरंभ से ही अपने माता-पिता के अस्तित्व पर विश्वास न करके? तो क्या बिना सिखाये इसकी कल्पना की जा सकती है? | ||
{{ParUG|283}} जो उसे सिखाया जाता है, उस पर कोई शिशु तुरंत शंका कैसे कर सकता है ? इसका तो यही अभिप्राय है कि वह कुछ भाषा-खेलों को सीखने में असमर्थ है। | {{ParUG|283}} जो उसे सिखाया जाता है, उस पर कोई शिशु तुरंत शंका कैसे कर सकता है? इसका तो यही अभिप्राय है कि वह कुछ भाषा-खेलों को सीखने में असमर्थ है। | ||
{{ParUG|284}} चिरकाल से मनुष्य पशुओं का शिकार करके उनकी खालों, हड्डियों आदि का अनेक प्रकार से उपयोग करते रहे हैं। समान पशुओं की समान संरचना की वे कल्पना करते हैं। | {{ParUG|284}} चिरकाल से मनुष्य पशुओं का शिकार करके उनकी खालों, हड्डियों आदि का अनेक प्रकार से उपयोग करते रहे हैं। समान पशुओं की समान संरचना की वे कल्पना करते हैं। | ||
Line 707: | Line 707: | ||
{{ParUG|288}} मैं केवल यही नहीं जानता कि पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से बहुत पहले से ही है, अपितु मैं यह भी जानता हूँ और इसे सिद्ध भी किया जा चुका है कि पृथ्वी विशाल है, और इसके साथ ही यह भी सिद्ध है कि मेरे और अन्य लोगों के पूर्वज हैं। इस सम्बन्ध में अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं और ये पुस्तकें झूठ नहीं हो सकतीं, इत्यादि, इत्यादि। मैं यह सब जानता हूँ? मैं इस पर विश्वास करता हूँ। यह ज्ञान-प्रणाली मुझे विरासत में मिली है। इस पर शंका करने का कोई आधार नहीं है, बल्कि इसकी पुष्टि के अनेक आधार हैं। | {{ParUG|288}} मैं केवल यही नहीं जानता कि पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से बहुत पहले से ही है, अपितु मैं यह भी जानता हूँ और इसे सिद्ध भी किया जा चुका है कि पृथ्वी विशाल है, और इसके साथ ही यह भी सिद्ध है कि मेरे और अन्य लोगों के पूर्वज हैं। इस सम्बन्ध में अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं और ये पुस्तकें झूठ नहीं हो सकतीं, इत्यादि, इत्यादि। मैं यह सब जानता हूँ? मैं इस पर विश्वास करता हूँ। यह ज्ञान-प्रणाली मुझे विरासत में मिली है। इस पर शंका करने का कोई आधार नहीं है, बल्कि इसकी पुष्टि के अनेक आधार हैं। | ||
मैं क्यों न कहूँ कि मैं इन सब बातों को जानता हूँ? क्या हम यही नहीं कहते ? | मैं क्यों न कहूँ कि मैं इन सब बातों को जानता हूँ? क्या हम यही नहीं कहते? | ||
किन्तु इन बातों को केवल मैं ही नहीं जानता या इन पर मैं ही विश्वास नहीं करता अपितु सभी अन्य लोग भी इन्हें जानते हैं या इन पर विश्वास करते हैं। यहाँ तक कि मेरा ''विश्वास'' है कि वे इन पर विश्वास करते हैं। | किन्तु इन बातों को केवल मैं ही नहीं जानता या इन पर मैं ही विश्वास नहीं करता अपितु सभी अन्य लोग भी इन्हें जानते हैं या इन पर विश्वास करते हैं। यहाँ तक कि मेरा ''विश्वास'' है कि वे इन पर विश्वास करते हैं। | ||
Line 748: | Line 748: | ||
{{ParUG|305}} यहाँ ''भी'' एक ऐसे चरण की आवश्यकता है जैसा कि सापेक्षता सिद्धान्त में लेना पड़ता है। | {{ParUG|305}} यहाँ ''भी'' एक ऐसे चरण की आवश्यकता है जैसा कि सापेक्षता सिद्धान्त में लेना पड़ता है। | ||
{{ParUG|306}} "मैं नहीं जानता कि यह हाथ है।" किन्तु क्या आप "हाथ" शब्द का अर्थ जानते हैं? यह न कहें "मैं जानता हूँ कि अब मेरे लिए इसका क्या अर्थ है।" और क्या यह आनुभविक तथ्य नहीं है कि – ''यह'' शब्द ''इस'' प्रकार प्रयुक्त होता है ? | {{ParUG|306}} "मैं नहीं जानता कि यह हाथ है।" किन्तु क्या आप "हाथ" शब्द का अर्थ जानते हैं? यह न कहें "मैं जानता हूँ कि अब मेरे लिए इसका क्या अर्थ है।" और क्या यह आनुभविक तथ्य नहीं है कि – ''यह'' शब्द ''इस'' प्रकार प्रयुक्त होता है? | ||
{{ParUG|307}} विचित्र बात यह है कि जब मैं शब्द-प्रयोग के बारे में पूर्णतः आश्वस्त रहता हूँ, कोई शंका नहीं रखता, तो भी मैं अपने शब्द-प्रयोग का कोई आधार नहीं दे पाता। प्रयास करने पर मैं हजारों ''आधार'' दे सकता हूँ किन्तु उनमें से कोई भी उस विषयवस्तु जितने सुनिश्चित नहीं होंगे जिसके वे आधार हैं। | {{ParUG|307}} विचित्र बात यह है कि जब मैं शब्द-प्रयोग के बारे में पूर्णतः आश्वस्त रहता हूँ, कोई शंका नहीं रखता, तो भी मैं अपने शब्द-प्रयोग का कोई आधार नहीं दे पाता। प्रयास करने पर मैं हजारों ''आधार'' दे सकता हूँ किन्तु उनमें से कोई भी उस विषयवस्तु जितने सुनिश्चित नहीं होंगे जिसके वे आधार हैं। | ||
Line 754: | Line 754: | ||
{{ParUG|308}} 'ज्ञान' और 'निश्चितता' भिन्न ''कोटियों'' के विषय हैं। वे 'अनुमान' और 'आश्वासन' जैसी दो भिन्न 'मानसिक अवस्थाएँ' नहीं होतीं। (यहाँ मेरी मान्यता है कि "मैं जानता हूँ कि 'संशय' शब्द का (उदाहरणार्थ) क्या अर्थ है" और इस वाक्य से पता चलता है कि ' संशय' शब्द की कोई तार्किक भूमिका होती है।) अभी तो हमारी रुचि निश्चितता में न होकर ज्ञान में है। यानी, हमारी रुचि इस तथ्य में है कि निर्णय को संभव बनाने के लिए कुछ आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित मानना ही पड़ेगा। या फिर: मेरी यह मान्यता है कि आनुभविक प्रतिज्ञप्ति के आकार वाली प्रत्येक प्रतिज्ञप्ति आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं होती| | {{ParUG|308}} 'ज्ञान' और 'निश्चितता' भिन्न ''कोटियों'' के विषय हैं। वे 'अनुमान' और 'आश्वासन' जैसी दो भिन्न 'मानसिक अवस्थाएँ' नहीं होतीं। (यहाँ मेरी मान्यता है कि "मैं जानता हूँ कि 'संशय' शब्द का (उदाहरणार्थ) क्या अर्थ है" और इस वाक्य से पता चलता है कि ' संशय' शब्द की कोई तार्किक भूमिका होती है।) अभी तो हमारी रुचि निश्चितता में न होकर ज्ञान में है। यानी, हमारी रुचि इस तथ्य में है कि निर्णय को संभव बनाने के लिए कुछ आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित मानना ही पड़ेगा। या फिर: मेरी यह मान्यता है कि आनुभविक प्रतिज्ञप्ति के आकार वाली प्रत्येक प्रतिज्ञप्ति आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं होती| | ||
{{ParUG|309}} कहीं ऐसा तो नहीं कि नियम और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति मिल कर एक हो गये हों ? | {{ParUG|309}} कहीं ऐसा तो नहीं कि नियम और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति मिल कर एक हो गये हों? | ||
{{ParUG|310}} एक विद्यार्थी और एक अध्यापक। शिष्य किसी भी बात की व्याख्या नहीं करने देता क्योंकि वह निरंतर शब्दों के अर्थ, वस्तुओं के अस्तित्व के बारे में संशय करता है और टोकता जाता है। अध्यापक कहता है "टोको मत और मेरे कहे अनुसार कार्य करो। इस समय तुम्हारे संशयों का कोई अर्थ ही नहीं है।" | {{ParUG|310}} एक विद्यार्थी और एक अध्यापक। शिष्य किसी भी बात की व्याख्या नहीं करने देता क्योंकि वह निरंतर शब्दों के अर्थ, वस्तुओं के अस्तित्व के बारे में संशय करता है और टोकता जाता है। अध्यापक कहता है "टोको मत और मेरे कहे अनुसार कार्य करो। इस समय तुम्हारे संशयों का कोई अर्थ ही नहीं है।" | ||
Line 772: | Line 772: | ||
और विद्यार्थी के द्वारा प्रकृति की नियमवत्ता यानी आगमनात्मक तर्कों के औचित्य पर संदेह करने पर भी यही होगा – अध्यापक को भान होगा कि ऐसे प्रश्नों से तो गाड़ी अटक जाएगी और बात आगे नहीं बढ़ेगी। – और अध्यापक सही होगा। यह तो किसी कमरे में किसी वस्तु को खोजने जैसा ही होगा; मानो कोई व्यक्ति मेज़ की दराज खोलता है और वहाँ उस वस्तु को नहीं पाता; उस दराज को बंद करने के बाद वह फिर उसे दुबारा खोलता है कि कहीं अब वह वस्तु वहीं तो नहीं है, और बारम्बार यही करता रहता है। उसने वस्तुओं को खोजना सीखा ही नहीं है। इसी प्रकार इस विद्यार्थी ने भी प्रश्नों को पूछना नहीं सीखा है। उसने ''उस'' खेल को, जिसे हम उसे सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं, नहीं सीखा है। | और विद्यार्थी के द्वारा प्रकृति की नियमवत्ता यानी आगमनात्मक तर्कों के औचित्य पर संदेह करने पर भी यही होगा – अध्यापक को भान होगा कि ऐसे प्रश्नों से तो गाड़ी अटक जाएगी और बात आगे नहीं बढ़ेगी। – और अध्यापक सही होगा। यह तो किसी कमरे में किसी वस्तु को खोजने जैसा ही होगा; मानो कोई व्यक्ति मेज़ की दराज खोलता है और वहाँ उस वस्तु को नहीं पाता; उस दराज को बंद करने के बाद वह फिर उसे दुबारा खोलता है कि कहीं अब वह वस्तु वहीं तो नहीं है, और बारम्बार यही करता रहता है। उसने वस्तुओं को खोजना सीखा ही नहीं है। इसी प्रकार इस विद्यार्थी ने भी प्रश्नों को पूछना नहीं सीखा है। उसने ''उस'' खेल को, जिसे हम उसे सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं, नहीं सीखा है। | ||
{{ParUG|316}} पर इतिहास के अपने पाठ को रोककर पृथ्वी के अस्तित्व... पर संशय जताने वाले शिष्य की भी क्या यही स्थिति नहीं होती ? | {{ParUG|316}} पर इतिहास के अपने पाठ को रोककर पृथ्वी के अस्तित्व... पर संशय जताने वाले शिष्य की भी क्या यही स्थिति नहीं होती? | ||
{{ParUG|317}} इस संशय का हमारे खेल से सम्बन्धित संशयों से कोई सरोकार नहीं है। (किन्तु हमने इस खेल को भी तो नहीं ''चुना'' है!) | {{ParUG|317}} इस संशय का हमारे खेल से सम्बन्धित संशयों से कोई सरोकार नहीं है। (किन्तु हमने इस खेल को भी तो नहीं ''चुना'' है!) | ||
Line 792: | Line 792: | ||
{{ParUG|323}} यानी उचित संशय का आधार होना चाहिए? | {{ParUG|323}} यानी उचित संशय का आधार होना चाहिए? | ||
हम यह भी कहेंगे : "समझदार मनुष्य इस पर विश्वास करते हैं।" | हम यह भी कहेंगे: "समझदार मनुष्य इस पर विश्वास करते हैं।" | ||
{{ParUG|324}} अतः, वैज्ञानिक आधार होने पर भी जो लोग बातों को नहीं मानते उन्हें हम समझदार नहीं कहते। | {{ParUG|324}} अतः, वैज्ञानिक आधार होने पर भी जो लोग बातों को नहीं मानते उन्हें हम समझदार नहीं कहते। | ||
Line 810: | Line 810: | ||
13.3. | 13.3. | ||
{{ParUG|331}} अपने दृढ़ विश्वास के आधार पर जब भी हम निश्चितता से आचरण करते हैं, तो क्या कभी हम यह सोचते हैं कि अनेक ऐसी बातें हैं जिन पर संशय किया ही नहीं जा सकता ? | {{ParUG|331}} अपने दृढ़ विश्वास के आधार पर जब भी हम निश्चितता से आचरण करते हैं, तो क्या कभी हम यह सोचते हैं कि अनेक ऐसी बातें हैं जिन पर संशय किया ही नहीं जा सकता? | ||
{{ParUG|332}} ''दार्शनिक-चिन्तन'' से परे किसी के ऐसे कथन की कल्पना कीजिए, "मैं नहीं जानता कि मैं कभी चाँद पर गया था; मुझे ''याद'' नहीं है कि मैं कभी वहाँ गया होऊँ। (ऐसा व्यक्ति हमसे बिल्कुल भिन्न क्योंकर होगा?) | {{ParUG|332}} ''दार्शनिक-चिन्तन'' से परे किसी के ऐसे कथन की कल्पना कीजिए, "मैं नहीं जानता कि मैं कभी चाँद पर गया था; मुझे ''याद'' नहीं है कि मैं कभी वहाँ गया होऊँ। (ऐसा व्यक्ति हमसे बिल्कुल भिन्न क्योंकर होगा?) | ||
Line 816: | Line 816: | ||
पहले तो – उसे पता ही कैसे चलेगा कि वह चाँद पर है? वह इसकी कल्पना भी कैसे कर पाएगा? तुलना कीजिए: "मुझे ज्ञात नहीं है कि मैं कभी क के गाँव गया था।" किन्तु मैं यह भी नहीं कह सकता कि क तुर्किस्तान में है क्योंकि मैं कभी तुर्किस्तान गया ही नहीं। | पहले तो – उसे पता ही कैसे चलेगा कि वह चाँद पर है? वह इसकी कल्पना भी कैसे कर पाएगा? तुलना कीजिए: "मुझे ज्ञात नहीं है कि मैं कभी क के गाँव गया था।" किन्तु मैं यह भी नहीं कह सकता कि क तुर्किस्तान में है क्योंकि मैं कभी तुर्किस्तान गया ही नहीं। | ||
{{ParUG|333}} मैं किसी से पूछता हूँ "क्या आप कभी चीन गए हैं?" वह उत्तर देता है कि "मुझे पता नहीं"। तब यह कहा जाएगा "तुम्हें नहीं ''पता''? वहाँ कभी जाने के तुम्हारे विश्वास का कोई कारण है ? उदाहरणार्थ, तुम कभी चीनी सीमा के पास गए हो? या फिर तुम्हारे जन्म के समय तुम्हारे माता-पिता वहाँ गए थे?" – साधारणत: यूरोप-वासी यह जानते हैं कि वे कभी चीन गए थे या नहीं। | {{ParUG|333}} मैं किसी से पूछता हूँ "क्या आप कभी चीन गए हैं?" वह उत्तर देता है कि "मुझे पता नहीं"। तब यह कहा जाएगा "तुम्हें नहीं ''पता''? वहाँ कभी जाने के तुम्हारे विश्वास का कोई कारण है? उदाहरणार्थ, तुम कभी चीनी सीमा के पास गए हो? या फिर तुम्हारे जन्म के समय तुम्हारे माता-पिता वहाँ गए थे?" – साधारणत: यूरोप-वासी यह जानते हैं कि वे कभी चीन गए थे या नहीं। | ||
{{ParUG|334}} यानी: अमुक परिस्थितियों में ही कोई समझदार व्यक्ति ''इस बारे'' में सन्देह करता है। | {{ParUG|334}} यानी: अमुक परिस्थितियों में ही कोई समझदार व्यक्ति ''इस बारे'' में सन्देह करता है। | ||
Line 832: | Line 832: | ||
जब मैं कोई प्रयोग करता हूँ तो अपने सामने पड़े उपकरणों के अस्तित्व में सन्देह नहीं करता। मुझे अनेक संदेह हो सकते हैं पर ''ऐसा'' नहीं। जब मैं कोई परिकलन करता हूँ तो निस्संदेह मैं यह मानता हूँ कि कागज पर लिखी हुई संख्याएँ स्वतः परिवर्तित नहीं हो रहीं। साथ-साथ मैं अपनी याददाश्त पर भी पूरा भरोसा करता हूँ। यह भी चाँद पर मेरे कभी भी न जाने जैसा सुनिश्चित है। | जब मैं कोई प्रयोग करता हूँ तो अपने सामने पड़े उपकरणों के अस्तित्व में सन्देह नहीं करता। मुझे अनेक संदेह हो सकते हैं पर ''ऐसा'' नहीं। जब मैं कोई परिकलन करता हूँ तो निस्संदेह मैं यह मानता हूँ कि कागज पर लिखी हुई संख्याएँ स्वतः परिवर्तित नहीं हो रहीं। साथ-साथ मैं अपनी याददाश्त पर भी पूरा भरोसा करता हूँ। यह भी चाँद पर मेरे कभी भी न जाने जैसा सुनिश्चित है। | ||
{{ParUG|338}} किन्तु ऐसे लोगों की कल्पना कीजिए जो इन बातों के बारे में कभी भी निश्चिन्त नहीं थे पर यह कहते थे कि वे ''करीब-करीब'' निश्चिन्त थे और यह भी कहते थे कि इन बातों पर संशय करने से कोई लाभ नहीं होता। मेरी परिस्थिति में ऐसा व्यक्ति कहेगा: "मेरा चाँद पर जाना लगभग असंभव है", इत्यादि, इत्यादि। ऐसे लोगों का जीवन हमारे जीवन से ''किस प्रकार'' भिन्न है? क्योंकि ऐसे लोग होते हैं जो यह कहते हैं कि आग पर रखे पानी के उबलने के बजाय जमने की ज्यादह संभावना है और इसीलिए जिन बातों को हम असंभव मानते हैं वे बातें मात्र असंभाव्य ही होती हैं। इससे उनके जीवन में क्या अन्तर पड़ता है? क्या इतनी ही बात नहीं है कि वे कुछ विषयों के बारे में हमसे ज्यादा बातें करते हैं ? | {{ParUG|338}} किन्तु ऐसे लोगों की कल्पना कीजिए जो इन बातों के बारे में कभी भी निश्चिन्त नहीं थे पर यह कहते थे कि वे ''करीब-करीब'' निश्चिन्त थे और यह भी कहते थे कि इन बातों पर संशय करने से कोई लाभ नहीं होता। मेरी परिस्थिति में ऐसा व्यक्ति कहेगा: "मेरा चाँद पर जाना लगभग असंभव है", इत्यादि, इत्यादि। ऐसे लोगों का जीवन हमारे जीवन से ''किस प्रकार'' भिन्न है? क्योंकि ऐसे लोग होते हैं जो यह कहते हैं कि आग पर रखे पानी के उबलने के बजाय जमने की ज्यादह संभावना है और इसीलिए जिन बातों को हम असंभव मानते हैं वे बातें मात्र असंभाव्य ही होती हैं। इससे उनके जीवन में क्या अन्तर पड़ता है? क्या इतनी ही बात नहीं है कि वे कुछ विषयों के बारे में हमसे ज्यादा बातें करते हैं? | ||
{{ParUG|339}} ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जिसे रेलवे स्टेशन से अपने मित्र को घर लाना हो पर वह समय-सारिणी में गाड़ी के आने के समय को देखकर ठीक समय पर स्टेशन जाने के बजाय यह कहे: "मुझे विश्वास तो ''नहीं'' है कि गाड़ी आएगी पर फिर भी मैं स्टेशन पर जाऊँगा।" वह सामान्य व्यक्ति की तरह आचरण करता है किन्तु ऐसा करते समय वह शंका करता रहता है या फिर झुंझलाता रहता है। | {{ParUG|339}} ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जिसे रेलवे स्टेशन से अपने मित्र को घर लाना हो पर वह समय-सारिणी में गाड़ी के आने के समय को देखकर ठीक समय पर स्टेशन जाने के बजाय यह कहे: "मुझे विश्वास तो ''नहीं'' है कि गाड़ी आएगी पर फिर भी मैं स्टेशन पर जाऊँगा।" वह सामान्य व्यक्ति की तरह आचरण करता है किन्तु ऐसा करते समय वह शंका करता रहता है या फिर झुंझलाता रहता है। | ||
Line 842: | Line 842: | ||
{{ParUG|342}} यानी, हमारे वैज्ञानिक अनुसंधान का तर्क ही यह है कि कुछ बातों पर ''वस्तुतः'' संशय नहीं किया जाता। | {{ParUG|342}} यानी, हमारे वैज्ञानिक अनुसंधान का तर्क ही यह है कि कुछ बातों पर ''वस्तुतः'' संशय नहीं किया जाता। | ||
{{ParUG|343}} किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है : हम हर विषय पर अनुसंधान ''नहीं कर सकते'' और इसी कारण हमें अपनी कल्पना से सन्तोष करना पड़ता है। यदि मैं दरवाजे को घुमाना चाहता हूँ तो धुरी को अपनी जगह पर स्थिर रहना पड़ेगा। | {{ParUG|343}} किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है: हम हर विषय पर अनुसंधान ''नहीं कर सकते'' और इसी कारण हमें अपनी कल्पना से सन्तोष करना पड़ता है। यदि मैं दरवाजे को घुमाना चाहता हूँ तो धुरी को अपनी जगह पर स्थिर रहना पड़ेगा। | ||
{{ParUG|344}} मेरा ''जीवन'' बहुत सी बातों को स्वीकार कर सन्तुष्ट रहने में है। | {{ParUG|344}} मेरा ''जीवन'' बहुत सी बातों को स्वीकार कर सन्तुष्ट रहने में है। | ||
Line 858: | Line 858: | ||
{{ParUG|349}} "मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है" – इसके अनेक अर्थ हो सकते हैं: मैं सामने के पौधे को बेरी समझता हूँ जबकि कोई अन्य व्यक्ति उसे किशमिश का पौधा समझता है। वह कहता है: "यह एक झाड़ी है", मैं कहता हूँ कि यह एक पेड़ है। – धुंधलके में हम किसी आकृति को आदमी समझते हैं जबकि कोई अन्य कहता है "मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है"। कोई मेरी नज़र को जाँचना चाहता है, इत्यादि, इत्यादि – इत्यादि, इत्यादि। हर बार जिसे मैं पेड़ कहता हूँ वह कोई और ही वस्तु होती है। | {{ParUG|349}} "मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है" – इसके अनेक अर्थ हो सकते हैं: मैं सामने के पौधे को बेरी समझता हूँ जबकि कोई अन्य व्यक्ति उसे किशमिश का पौधा समझता है। वह कहता है: "यह एक झाड़ी है", मैं कहता हूँ कि यह एक पेड़ है। – धुंधलके में हम किसी आकृति को आदमी समझते हैं जबकि कोई अन्य कहता है "मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है"। कोई मेरी नज़र को जाँचना चाहता है, इत्यादि, इत्यादि – इत्यादि, इत्यादि। हर बार जिसे मैं पेड़ कहता हूँ वह कोई और ही वस्तु होती है। | ||
अत्यधिक सूक्ष्मता से अभिव्यक्त करने की दशा में क्या होगा? उदाहरणार्थ : "मैं जानता हूँ कि वह वस्तु एक वृक्ष है, मैं उसे स्पष्ट देख सकता हूँ।" – हम यह भी मान सकते हैं कि मैंने यह टिप्पणी किसी वार्तालाप के संदर्भ में की थी (यह तभी प्रासंगिक थी); और अब मैं पेड़ को देखते हुए इसी बात को बिना किसी संदर्भ में यह कहते हुए दोहराता हूँ कि "इन शब्दों से मेरा वही आशय है जो पाँच मिनट पहले था"। यदि, उदाहरणार्थ, मैं यह कहता कि मैं अपनी कमजोर दृष्टि के बारे में सोच रहा था और ये शब्द तो एक प्रकार की दुःखाभिव्यक्ति ही थे तो यह टिप्पणी हमें अचरज में नहीं डालती। | अत्यधिक सूक्ष्मता से अभिव्यक्त करने की दशा में क्या होगा? उदाहरणार्थ: "मैं जानता हूँ कि वह वस्तु एक वृक्ष है, मैं उसे स्पष्ट देख सकता हूँ।" – हम यह भी मान सकते हैं कि मैंने यह टिप्पणी किसी वार्तालाप के संदर्भ में की थी (यह तभी प्रासंगिक थी); और अब मैं पेड़ को देखते हुए इसी बात को बिना किसी संदर्भ में यह कहते हुए दोहराता हूँ कि "इन शब्दों से मेरा वही आशय है जो पाँच मिनट पहले था"। यदि, उदाहरणार्थ, मैं यह कहता कि मैं अपनी कमजोर दृष्टि के बारे में सोच रहा था और ये शब्द तो एक प्रकार की दुःखाभिव्यक्ति ही थे तो यह टिप्पणी हमें अचरज में नहीं डालती। | ||
''वाक्यार्थ'' को वाक्यार्थ-विस्तार से व्यक्त किया जा सकता है और इसलिए उसे वाक्यार्थ का अंग बनाया जा सकता है। | ''वाक्यार्थ'' को वाक्यार्थ-विस्तार से व्यक्त किया जा सकता है और इसलिए उसे वाक्यार्थ का अंग बनाया जा सकता है। | ||
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{{ParUG|361}} मैं यह भी कह सकता हूँ: मुझे ऐसा इलहाम हुआ है। ईश्वर ने मुझे सिखाया है कि यह मेरा पैर है। अत: एतत्-ज्ञान-विरोधी ''किसी भी बात'' को मैं भ्रान्ति ही समझता हूँ। | {{ParUG|361}} मैं यह भी कह सकता हूँ: मुझे ऐसा इलहाम हुआ है। ईश्वर ने मुझे सिखाया है कि यह मेरा पैर है। अत: एतत्-ज्ञान-विरोधी ''किसी भी बात'' को मैं भ्रान्ति ही समझता हूँ। | ||
{{ParUG|362}} किन्तु क्या इससे यह पता नहीं चलता कि ज्ञान किसी निर्णय से सम्बन्धित है ? | {{ParUG|362}} किन्तु क्या इससे यह पता नहीं चलता कि ज्ञान किसी निर्णय से सम्बन्धित है? | ||
{{ParUG|363}} और यहाँ विस्मयबोधक अभिव्यक्ति और तदनुकूल व्यवहार के बीच संक्रमण को जानना कठिन होगा | {{ParUG|363}} और यहाँ विस्मयबोधक अभिव्यक्ति और तदनुकूल व्यवहार के बीच संक्रमण को जानना कठिन होगा | ||
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{{ParUG|423}} तो मूअर की भाँति मैं यह ही क्यों नहीं कहता कि "मैं ''जानता'' हूँ कि मैं इंगलैण्ड में हूँ"? ऐसा कहना ''विशिष्ट परिस्थितियों में'' सार्थक होता है और मैं उनकी कल्पना कर सकता हूँ। किन्तु, जब मैं इन परिस्थितियों के बिना इस वाक्य को इसलिए उदाहृत करने को कहता हूँ कि मैं इस प्रकार के सत्यों को निश्चितता के साथ जान सकता हूँ, तो यकायक यह मुझे संदिग्ध लगने लगता है। – क्या ऐसा होना चाहिए? | {{ParUG|423}} तो मूअर की भाँति मैं यह ही क्यों नहीं कहता कि "मैं ''जानता'' हूँ कि मैं इंगलैण्ड में हूँ"? ऐसा कहना ''विशिष्ट परिस्थितियों में'' सार्थक होता है और मैं उनकी कल्पना कर सकता हूँ। किन्तु, जब मैं इन परिस्थितियों के बिना इस वाक्य को इसलिए उदाहृत करने को कहता हूँ कि मैं इस प्रकार के सत्यों को निश्चितता के साथ जान सकता हूँ, तो यकायक यह मुझे संदिग्ध लगने लगता है। – क्या ऐसा होना चाहिए? | ||
{{ParUG|424}} "मैं जानता हूँ कि प" ऐसा मैं या तो लोगों को यह बताने के लिए कहता हूँ कि मुझे भी प के सत्य होने के बारे में पता है, या फिर ऐसा मैं। – प सिद्ध है पर बल देने के लिए ही कहता हूँ। हम यह भी कहते हैं "यह मेरा विश्वास नहीं है, मैं इसे जानता हूँ"। और इसे (उदाहरणार्थ) ऐसे भी कहा जा सकता है : "वह एक पेड़ है। कोई कपोल-कल्पना नहीं है।" | {{ParUG|424}} "मैं जानता हूँ कि प" ऐसा मैं या तो लोगों को यह बताने के लिए कहता हूँ कि मुझे भी प के सत्य होने के बारे में पता है, या फिर ऐसा मैं। – प सिद्ध है पर बल देने के लिए ही कहता हूँ। हम यह भी कहते हैं "यह मेरा विश्वास नहीं है, मैं इसे जानता हूँ"। और इसे (उदाहरणार्थ) ऐसे भी कहा जा सकता है: "वह एक पेड़ है। कोई कपोल-कल्पना नहीं है।" | ||
किन्तु इसके बारे में क्या कहेंगे: "यदि मैं किसी को कहता कि वह एक पेड़ है तो यह कोई कपोल-कल्पना नहीं होती।" क्या मूअर यही नहीं कहना चाहते? | किन्तु इसके बारे में क्या कहेंगे: "यदि मैं किसी को कहता कि वह एक पेड़ है तो यह कोई कपोल-कल्पना नहीं होती।" क्या मूअर यही नहीं कहना चाहते? | ||
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{{ParUG|429}} अब जब मैं अपनी पैर की अंगुलियों को नहीं देख रहा, तब मेरी इस धारणा का क्या आधार है कि मेरे दोनों पैरों में पाँच-पाँच अंगुलियां हैं? | {{ParUG|429}} अब जब मैं अपनी पैर की अंगुलियों को नहीं देख रहा, तब मेरी इस धारणा का क्या आधार है कि मेरे दोनों पैरों में पाँच-पाँच अंगुलियां हैं? | ||
क्या यह कहना उचित है कि मेरे अभी तक के अनुभव ने मुझे सदा यही सिखाया है ? क्या मैं अपने पूर्वानुभव पर अपनी दस पादांगुलियां होने से भी कहीं अधिक आश्वस्त हूँ? | क्या यह कहना उचित है कि मेरे अभी तक के अनुभव ने मुझे सदा यही सिखाया है? क्या मैं अपने पूर्वानुभव पर अपनी दस पादांगुलियां होने से भी कहीं अधिक आश्वस्त हूँ? | ||
मेरा पूर्वानुभव मेरी वर्तमान निश्चयात्मकता का ''कारण'' तो हो सकता है; किन्तु क्या यह इसका आधार है? | मेरा पूर्वानुभव मेरी वर्तमान निश्चयात्मकता का ''कारण'' तो हो सकता है; किन्तु क्या यह इसका आधार है? | ||
Line 1,120: | Line 1,120: | ||
मैं कहना चाहता हूँ: भौतिक खेल गणितीय खेल की तरह ही सुनिश्चित है। किन्तु इसे समझने में भूल हो सकती है। मेरी टिप्पणी मनोवैज्ञानिक न होकर तार्किक है। | मैं कहना चाहता हूँ: भौतिक खेल गणितीय खेल की तरह ही सुनिश्चित है। किन्तु इसे समझने में भूल हो सकती है। मेरी टिप्पणी मनोवैज्ञानिक न होकर तार्किक है। | ||
{{ParUG|448}} मैं कहना चाहता हूँ : जब हम गणित की प्रतिज्ञप्तियों (उदाहरणार्थ, पहाड़ों) के 'पूर्णत: सुनिश्चित' होने पर चकित नहीं होते तो हम "यह मेरा हाथ है" इस प्रतिज्ञप्ति के उतना ही सुनिश्चित होने पर आश्चर्य क्यों करें? | {{ParUG|448}} मैं कहना चाहता हूँ: जब हम गणित की प्रतिज्ञप्तियों (उदाहरणार्थ, पहाड़ों) के 'पूर्णत: सुनिश्चित' होने पर चकित नहीं होते तो हम "यह मेरा हाथ है" इस प्रतिज्ञप्ति के उतना ही सुनिश्चित होने पर आश्चर्य क्यों करें? | ||
{{ParUG|449}} कोई बात तो हमें आधार के रूप में सिखाई जानी चाहिए। | {{ParUG|449}} कोई बात तो हमें आधार के रूप में सिखाई जानी चाहिए। | ||
Line 1,150: | Line 1,150: | ||
{{ParUG|459}} यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय 'धार्मिक विश्वास' जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है। | {{ParUG|459}} यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय 'धार्मिक विश्वास' जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है। | ||
{{ParUG|460}} मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ "यह एक हाथ है न कि...; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।" क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि "यह एक हाथ है" ये शब्द कोई जानकारी देते तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते ? वस्तुत:, 'इसके हाथ होने' पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? – किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं – चाहे वे विरल ही क्यों न हों – जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता। | {{ParUG|460}} मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ "यह एक हाथ है न कि...; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।" क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि "यह एक हाथ है" ये शब्द कोई जानकारी देते तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते? वस्तुत:, 'इसके हाथ होने' पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? – किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं – चाहे वे विरल ही क्यों न हों – जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता। | ||
{{ParUG|461}} मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: "हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर – वास्तव में एक हाथ है" और फिर अपनी चोट के बारे में बताए – तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है। | {{ParUG|461}} मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: "हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर – वास्तव में एक हाथ है" और फिर अपनी चोट के बारे में बताए – तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है। | ||
Line 1,164: | Line 1,164: | ||
3.4.51 | 3.4.51 | ||
{{ParUG|464}} मेरी कठिनाई को इस प्रकार भी प्रदर्शित किया जा सकता है : मैं किसी मित्र से वार्तालाप में संलग्न हूँ। अचानक वार्तालाप के मध्य मैं कहता हूँ : "मैं जानता था कि तुम अमुक हो"। क्या यह टिप्पणी सच होते हुए भी अनावश्यक नहीं है? | {{ParUG|464}} मेरी कठिनाई को इस प्रकार भी प्रदर्शित किया जा सकता है: मैं किसी मित्र से वार्तालाप में संलग्न हूँ। अचानक वार्तालाप के मध्य मैं कहता हूँ: "मैं जानता था कि तुम अमुक हो"। क्या यह टिप्पणी सच होते हुए भी अनावश्यक नहीं है? | ||
मुझे ये शब्द वार्तालाप के मध्य "नमस्ते" कहने जैसे लगते हैं। | मुझे ये शब्द वार्तालाप के मध्य "नमस्ते" कहने जैसे लगते हैं। | ||
Line 1,224: | Line 1,224: | ||
{{ParUG|482}} मानो "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति का तत्त्वमीमासीय सरोकार न हो। | {{ParUG|482}} मानो "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति का तत्त्वमीमासीय सरोकार न हो। | ||
{{ParUG|483}} "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति का समुचित प्रयोग। कमज़ोर नज़र वाला कोई व्यक्ति मुझसे पूछता है: "क्या आपको विश्वास है कि हमें दिखाई पड़ने वाली वह वस्तु एक पेड़ है?" मैं उसे उत्तर देता हूँ: "मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है; मैं उसे अच्छी तरह देख सकता हूँ और उससे परिचित भी हूँ"। – अः "क्या न. न. घर पर हैं?" – मैं : "मुझे विश्वास है कि वे घर पर हैं।" – अः क्या वे कल घर पर थे?" – मैं: "मैं जानता हूँ कि वे घर पर थे; मैंने उनसे बातचीत की थी।" अः "क्या आप जानते हैं या केवल ऐसा मानते हैं कि घर का यह भाग बाकी घर से बाद में बनाया गया था?" – मैं : मैं ''जानता'' हूँ कि ऐसा ही है; मैंने यह बात अमुक व्यक्ति से जानी थी।" | {{ParUG|483}} "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति का समुचित प्रयोग। कमज़ोर नज़र वाला कोई व्यक्ति मुझसे पूछता है: "क्या आपको विश्वास है कि हमें दिखाई पड़ने वाली वह वस्तु एक पेड़ है?" मैं उसे उत्तर देता हूँ: "मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है; मैं उसे अच्छी तरह देख सकता हूँ और उससे परिचित भी हूँ"। – अः "क्या न. न. घर पर हैं?" – मैं: "मुझे विश्वास है कि वे घर पर हैं।" – अः क्या वे कल घर पर थे?" – मैं: "मैं जानता हूँ कि वे घर पर थे; मैंने उनसे बातचीत की थी।" अः "क्या आप जानते हैं या केवल ऐसा मानते हैं कि घर का यह भाग बाकी घर से बाद में बनाया गया था?" – मैं: मैं ''जानता'' हूँ कि ऐसा ही है; मैंने यह बात अमुक व्यक्ति से जानी थी।" | ||
{{ParUG|484}} तो, इन परिस्थितियों में हम "मैं जानता हूँ" कहते हैं और यह उल्लेख भी करते हैं, या कर सकते हैं कि हम कैसे जानते हैं। | {{ParUG|484}} तो, इन परिस्थितियों में हम "मैं जानता हूँ" कहते हैं और यह उल्लेख भी करते हैं, या कर सकते हैं कि हम कैसे जानते हैं। | ||
Line 1,266: | Line 1,266: | ||
{{ParUG|496}} यह तो किसी को किसी खेल के सदैव गलत खेले जाने जैसी निरर्थक जानकारी देने जैसा ही होगा। | {{ParUG|496}} यह तो किसी को किसी खेल के सदैव गलत खेले जाने जैसी निरर्थक जानकारी देने जैसा ही होगा। | ||
{{ParUG|497}} यदि कोई मेरे मन में संदेह उत्पन्न कराना चाहे और यह कहे : यहाँ आपकी स्मृति आपको धोखा दे रही है, उस बार आप धोखा खा गए, और उससे पूर्व भी आपने अपने आपको पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं किया, इत्यादि पर फिर भी यदि मैं अविचलित बना रहूँ और अपने निश्चय पर अड़ा रहूँ – तो मेरा यह व्यवहार गलत नहीं होगा, भले ही इसी से खेल का निर्धारण क्यों न हो। | {{ParUG|497}} यदि कोई मेरे मन में संदेह उत्पन्न कराना चाहे और यह कहे: यहाँ आपकी स्मृति आपको धोखा दे रही है, उस बार आप धोखा खा गए, और उससे पूर्व भी आपने अपने आपको पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं किया, इत्यादि पर फिर भी यदि मैं अविचलित बना रहूँ और अपने निश्चय पर अड़ा रहूँ – तो मेरा यह व्यवहार गलत नहीं होगा, भले ही इसी से खेल का निर्धारण क्यों न हो। | ||
11.4. | 11.4. | ||
Line 1,588: | Line 1,588: | ||
{{ParUG|603}} मुझे सिखाया गया है कि ''अमुक'' परिस्थितियों में ''ऐसा'' घटता है। अनेक प्रयोगों से यह ज्ञात हुआ है। यदि यह अनुभव दूसरे अनुभवों से इस प्रकार जुड़ा न हो जिससे एक तन्त्र बनता हो, तो उस अवस्था में कुछ सिद्ध नहीं होगा। इस प्रकार वैज्ञानिकों ने केवल नीचे गिरती हुई वस्तुओं के बारे में ही प्रयोग नहीं किए अपितु वायु-प्रतिरोध संबंधी, और अनेक अन्य बातों से सम्बन्धित प्रयोग भी किए। | {{ParUG|603}} मुझे सिखाया गया है कि ''अमुक'' परिस्थितियों में ''ऐसा'' घटता है। अनेक प्रयोगों से यह ज्ञात हुआ है। यदि यह अनुभव दूसरे अनुभवों से इस प्रकार जुड़ा न हो जिससे एक तन्त्र बनता हो, तो उस अवस्था में कुछ सिद्ध नहीं होगा। इस प्रकार वैज्ञानिकों ने केवल नीचे गिरती हुई वस्तुओं के बारे में ही प्रयोग नहीं किए अपितु वायु-प्रतिरोध संबंधी, और अनेक अन्य बातों से सम्बन्धित प्रयोग भी किए। | ||
पर अन्ततोगत्वा मैं इन अनुभवों पर या उनकी रिपोर्ट पर भरोसा करता हूँ, और अपनी गतिविधियों को उनके अनुरूप ढालने में मुझे कोई संकोच नहीं होता। – किन्तु क्या मेरा ऐसा विश्वास स्वयंसिद्ध नहीं है ? जहाँ तक मैं सोचता हूँ – हाँ। | पर अन्ततोगत्वा मैं इन अनुभवों पर या उनकी रिपोर्ट पर भरोसा करता हूँ, और अपनी गतिविधियों को उनके अनुरूप ढालने में मुझे कोई संकोच नहीं होता। – किन्तु क्या मेरा ऐसा विश्वास स्वयंसिद्ध नहीं है? जहाँ तक मैं सोचता हूँ – हाँ। | ||
{{ParUG|604}} भौतिक-शास्त्री के इस कथन को कि पानी लगभग 100° से. पर खौलता है न्यायालय निरुपाधिक सत्य मानेगा। | {{ParUG|604}} भौतिक-शास्त्री के इस कथन को कि पानी लगभग 100° से. पर खौलता है न्यायालय निरुपाधिक सत्य मानेगा। | ||
Line 1,644: | Line 1,644: | ||
क्या कोई इस संशोधन से अनभिज्ञ है? और मुझे इसका कैसे पता चलता है? | क्या कोई इस संशोधन से अनभिज्ञ है? और मुझे इसका कैसे पता चलता है? | ||
{{ParUG|625}} किन्तु, क्या यह अकल्पनीय है कि यहाँ पर "हरा" शब्द जुबान फिसलने अथवा क्षणिक भ्रांति के कारण कहा गया है ? क्या हम ऐसी स्थितियों से अनभिज्ञ हैं? – हम किसी को कह सकते हैं कि "कहीं आप भूल तो नहीं कर रहे?" इसका अर्थ है: "इस पर पुनर्विचार कीजिए"। – | {{ParUG|625}} किन्तु, क्या यह अकल्पनीय है कि यहाँ पर "हरा" शब्द जुबान फिसलने अथवा क्षणिक भ्रांति के कारण कहा गया है? क्या हम ऐसी स्थितियों से अनभिज्ञ हैं? – हम किसी को कह सकते हैं कि "कहीं आप भूल तो नहीं कर रहे?" इसका अर्थ है: "इस पर पुनर्विचार कीजिए"। – | ||
किन्तु सावधानी बरतने के ये नियम अपनी सीमा में ही सार्थक होते हैं। | किन्तु सावधानी बरतने के ये नियम अपनी सीमा में ही सार्थक होते हैं। | ||
Line 1,700: | Line 1,700: | ||
{{ParUG|648}} किसी अन्य व्यक्ति को मैं भरोसा दिला सकता हूँ कि मैं 'भूल कर ही नहीं सकता'। | {{ParUG|648}} किसी अन्य व्यक्ति को मैं भरोसा दिला सकता हूँ कि मैं 'भूल कर ही नहीं सकता'। | ||
मैं किसी को कहता हूँ कि "अमुक व्यक्ति सुबह मेरे साथ था और उसने मुझे अमुक बात बताई"। यदि यह चकित करने वाली बात हो तो वह मुझसे पूछ सकता है: "आप इस बारे में भूल कर ही नही सकते?" उसका आशय हो सकता है: "क्या यह वास्तव में ''आज सुबह'' ही घटित हुआ?" या फिर : " क्या आपको उसे ठीक-ठीक समझने का भरोसा है?" समय और कथन सम्बन्धी अपनी निर्दोषता को प्रदर्शित करने के लिए मुझे जिन बातों का विवरण देना होगा वे तो सर्वविदित है। उन सब विवरणों से यह तो पता ''नहीं'' चलता कि मैंने पूरे प्रकरण को सपने में देखा हैं, या फिर उसकी केवल कल्पना की है। न ही उनसे यह पता चलता है कि आद्योपांत मेरी ''ज़बान फिसलती'' रही है। (ऐसा भी होता है।) | मैं किसी को कहता हूँ कि "अमुक व्यक्ति सुबह मेरे साथ था और उसने मुझे अमुक बात बताई"। यदि यह चकित करने वाली बात हो तो वह मुझसे पूछ सकता है: "आप इस बारे में भूल कर ही नही सकते?" उसका आशय हो सकता है: "क्या यह वास्तव में ''आज सुबह'' ही घटित हुआ?" या फिर: " क्या आपको उसे ठीक-ठीक समझने का भरोसा है?" समय और कथन सम्बन्धी अपनी निर्दोषता को प्रदर्शित करने के लिए मुझे जिन बातों का विवरण देना होगा वे तो सर्वविदित है। उन सब विवरणों से यह तो पता ''नहीं'' चलता कि मैंने पूरे प्रकरण को सपने में देखा हैं, या फिर उसकी केवल कल्पना की है। न ही उनसे यह पता चलता है कि आद्योपांत मेरी ''ज़बान फिसलती'' रही है। (ऐसा भी होता है।) | ||
{{ParUG|649}} (एक बार मैंने किसी को – अंग्रेजी भाषा में – कहा कि यह टहनी एल्म (चिराबेल का अंग्रेजी नाम) की टहनी की आकृति जैसी है, पर मेरे साथी ने मेरी बात से असहमति जताई। थोड़ी देर बाद ऐसे स्थान पर पहुँचने पर जहाँ ऐश (अंगू का अंग्रेजी नाम) के पेड़ थे मैंने कहा "देखो, ये वैसी टहनियाँ हैं जिनके बारे में मैं बात कर रहा था<nowiki>''</nowiki>। यह सुनकर उसने कहा "किन्तु ये तो ऐश के पेड़ हैं" – फिर मैंने कहा "एल्म शब्द से मेरा तात्पर्य ऐश से था"।) | {{ParUG|649}} (एक बार मैंने किसी को – अंग्रेजी भाषा में – कहा कि यह टहनी एल्म (चिराबेल का अंग्रेजी नाम) की टहनी की आकृति जैसी है, पर मेरे साथी ने मेरी बात से असहमति जताई। थोड़ी देर बाद ऐसे स्थान पर पहुँचने पर जहाँ ऐश (अंगू का अंग्रेजी नाम) के पेड़ थे मैंने कहा "देखो, ये वैसी टहनियाँ हैं जिनके बारे में मैं बात कर रहा था<nowiki>''</nowiki>। यह सुनकर उसने कहा "किन्तु ये तो ऐश के पेड़ हैं" – फिर मैंने कहा "एल्म शब्द से मेरा तात्पर्य ऐश से था"।) | ||
Line 1,750: | Line 1,750: | ||
{{ParUG|666}} किन्तु शरीर - रचना (या उसके बड़े भाग) के बारे में क्या कहें? क्या उसके वर्णन को भी संशय से मुक्ति मिली हुई है? | {{ParUG|666}} किन्तु शरीर - रचना (या उसके बड़े भाग) के बारे में क्या कहें? क्या उसके वर्णन को भी संशय से मुक्ति मिली हुई है? | ||
{{ParUG|667}} स्वप्न में चाँद पर ले जाए जाने का विश्वास रखने वाले लोगों के देश में पहुँचने पर भी, मैं उन्हें यह नहीं कह सकता: "मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ। – बेशक मैं भूल कर सकता हूँ।" और उनके यह प्रश्न पूछने पर कि "कहीं आप भूल तो नहीं कर रहे?" मुझे उत्तर देना होगा : नहीं। | {{ParUG|667}} स्वप्न में चाँद पर ले जाए जाने का विश्वास रखने वाले लोगों के देश में पहुँचने पर भी, मैं उन्हें यह नहीं कह सकता: "मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ। – बेशक मैं भूल कर सकता हूँ।" और उनके यह प्रश्न पूछने पर कि "कहीं आप भूल तो नहीं कर रहे?" मुझे उत्तर देना होगा: नहीं। | ||
{{ParUG|668}} किसी को कोई सूचना देने के साथ-साथ मेरे इस कथन कि मैं उसके बारे में कोई भूल कर ही नहीं सकता के क्या व्यावहारिक परिणाम होंगे ? | {{ParUG|668}} किसी को कोई सूचना देने के साथ-साथ मेरे इस कथन कि मैं उसके बारे में कोई भूल कर ही नहीं सकता के क्या व्यावहारिक परिणाम होंगे? | ||
(बल्कि मैं यह भी जोड़ सकता हूँ: "जैसे मैं अपना नाम लु. वि. होने के बारे में भूल नहीं कर सकता, वैसे ही इसके बारे में भी भूल नहीं कर सकता।") | (बल्कि मैं यह भी जोड़ सकता हूँ: "जैसे मैं अपना नाम लु. वि. होने के बारे में भूल नहीं कर सकता, वैसे ही इसके बारे में भी भूल नहीं कर सकता।") |