ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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हम तो यही पूछ सकते हैं कि क्या उस पर शंका करना सार्थक हो सकता है।
हम तो यही पूछ सकते हैं कि क्या उस पर शंका करना सार्थक हो सकता है।


{{ParUG|3}} उदाहरणार्थ, जब कोई कहता है कि “मैं नहीं जानता कि क्या यह हाथ है या “नहीं” तो उसे बतलाया जा सकता है, “जरा ध्यान से देखो”। इस प्रकार की आत्मसन्तुष्टि की संभावना भाषा-खेल का एक भाग है, उसका एक विशिष्ट गुण है।
{{ParUG|3}} उदाहरणार्थ, जब कोई कहता है कि “मैं नहीं जानता कि क्या यह हाथ है या “नहीं” तो उसे बतलाया जा सकता है, “जरा ध्यान से देखो”। इस प्रकार की आत्मसन्तुष्टि की संभावना भाषा-खेल का एक भाग है, उसका एक विशिष्ट गुण है।


{{ParUG|4}} “मैं जानता हूँ कि मैं मानव हूँ”। इस प्रतिज्ञप्ति के अर्थ की अस्पष्टता को जानने के लिए इसके निषेध पर विचार करें। अधिकाधिक इसका अर्थ यही हो सकता है “मैं जानता हूँ कि मैं मानव अंगों से रचा गया हूँ।” (“उदाहरणार्थ, मेरे शरीर में मस्तिष्क है, जिसे अब तक किसी ने नहीं देखा।”) किन्तु ऐसी प्रतिज्ञप्ति का क्या होगा: “मैं जानता हूँ कि मेरे शरीर में एक मस्तिष्क है”? क्या इस पर संशय किया जा सकता है? ''संशय'' का आधार तो कोई है नहीं! इसके पक्ष में सभी कुछ है पर विपक्ष में कुछ भी नहीं। फिर भी यह कल्पना की जा सकती है कि मेरी खोपड़ी को खोलने पर उसमें से कुछ भी न निकले।
{{ParUG|4}} “मैं जानता हूँ कि मैं मानव हूँ”। इस प्रतिज्ञप्ति के अर्थ की अस्पष्टता को जानने के लिए इसके निषेध पर विचार करें। अधिकाधिक इसका अर्थ यही हो सकता है “मैं जानता हूँ कि मैं मानव अंगों से रचा गया हूँ।” (“उदाहरणार्थ, मेरे शरीर में मस्तिष्क है, जिसे अब तक किसी ने नहीं देखा।”) किन्तु ऐसी प्रतिज्ञप्ति का क्या होगा: “मैं जानता हूँ कि मेरे शरीर में एक मस्तिष्क है”? क्या इस पर संशय किया जा सकता है? ''संशय'' का आधार तो कोई है नहीं! इसके पक्ष में सभी कुछ है पर विपक्ष में कुछ भी नहीं। फिर भी यह कल्पना की जा सकती है कि मेरी खोपड़ी को खोलने पर उसमें से कुछ भी न निकले।
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{{ParUG|5}} किसी प्रतिज्ञप्ति के सत्यासत्य का निर्धारण मेरे द्वारा स्वीकृत मानदण्ड के आधार पर ही सम्भव है।
{{ParUG|5}} किसी प्रतिज्ञप्ति के सत्यासत्य का निर्धारण मेरे द्वारा स्वीकृत मानदण्ड के आधार पर ही सम्भव है।


{{ParUG|6}} तो, क्या (मूअर के समान) हम समस्त ज्ञात-विषयों की सूची बना सकते हैं? मेरी राय में यह सम्भव नहीं ऐसी स्थिति में “मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति का दुरुपयोग होता है। और ऐसे दुरुपयोग से एक विचित्र पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानसिक अवस्था का पता चलता है।
{{ParUG|6}} तो, क्या (मूअर के समान) हम समस्त ज्ञात-विषयों की सूची बना सकते हैं? मेरी राय में यह सम्भव नहीं ऐसी स्थिति में “मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति का दुरुपयोग होता है। और ऐसे दुरुपयोग से एक विचित्र पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानसिक अवस्था का पता चलता है।


{{ParUG|7}} मेरे व्यवहार से यह पता चलता है कि मैं जानता हूँ या आश्वस्त हूँ कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है, या वहाँ दरवाजा इत्यादि है। उदाहरणार्थ मैं किसी मित्र से कहता हूँ “उस कुर्सी को वहाँ ले जाओ”, “दरवाज़े को बंद कर दो”, इत्यादि, इत्यादि।
{{ParUG|7}} मेरे व्यवहार से यह पता चलता है कि मैं जानता हूँ या आश्वस्त हूँ कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है, या वहाँ दरवाजा इत्यादि है। उदाहरणार्थ मैं किसी मित्र से कहता हूँ “उस कुर्सी को वहाँ ले जाओ”, “दरवाज़े को बंद कर दो”, इत्यादि, इत्यादि।
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{{ParUG|8}} “जानने” और” आश्वस्त होने” के प्रत्ययों में भेद केवल वहीं महत्त्वपूर्ण होता है जहाँ “मैं जानता हूँ” कहने का अर्थ होता है: मैं गलत नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, किसी अदालत में दी जा रही किसी गवाही में “मैं जानता हूँ” को “मैं आश्वस्त हूँ” से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। “मैं जानता हूँ” के प्रयोग पर अदालत में पाबंदी की कल्पना भी की जा सकती है। (''विल्हेल्म माइस्टर'' के एक अनुच्छेद में तथ्यों की गलत जानकारी के बावजूद “आप जानते हैं” अथवा “आप जानते थे” का प्रयोग “आप आश्वस्त थे” के अर्थ में किया जाता है।)
{{ParUG|8}} “जानने” और” आश्वस्त होने” के प्रत्ययों में भेद केवल वहीं महत्त्वपूर्ण होता है जहाँ “मैं जानता हूँ” कहने का अर्थ होता है: मैं गलत नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, किसी अदालत में दी जा रही किसी गवाही में “मैं जानता हूँ” को “मैं आश्वस्त हूँ” से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। “मैं जानता हूँ” के प्रयोग पर अदालत में पाबंदी की कल्पना भी की जा सकती है। (''विल्हेल्म माइस्टर'' के एक अनुच्छेद में तथ्यों की गलत जानकारी के बावजूद “आप जानते हैं” अथवा “आप जानते थे” का प्रयोग “आप आश्वस्त थे” के अर्थ में किया जाता है।)


{{ParUG|9}} तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ यानी, मेरा हाथ है?
{{ParUG|9}} तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ यानी, मेरा हाथ है?


{{ParUG|10}} मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि ‘मैं यहाँ हूँ।’ तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो “कभी” और न ही ‘सदा’ सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है। और “मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है” यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि “मैं जानता हूँ कि....” शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
{{ParUG|10}} मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि ‘मैं यहाँ हूँ।’ तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो “कभी” और न ही ‘सदा’ सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है। और “मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है” यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि “मैं जानता हूँ कि....” शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती।


{{ParUG|11}} “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते।
{{ParUG|11}} “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते।


{{ParUG|12}} क्योंकि “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति का विवरण देती प्रतीत होती है जिसमें ज्ञात विषय की किसी तथ्य के समान गारण्टी दी गई हो। “मैं सोचता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को हम सर्वदा भूल जाते हैं।
{{ParUG|12}} क्योंकि “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति का विवरण देती प्रतीत होती है जिसमें ज्ञात विषय की किसी तथ्य के समान गारण्टी दी गई हो। “मैं सोचता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को हम सर्वदा भूल जाते हैं।


{{ParUG|13}} क्योंकि “ऐसा है” प्रतिज्ञप्ति का अनुमान किसी अन्य व्यक्ति के “मैं जानता हूँ कि ऐसा है” कहने से नहीं किया जा सकता न ही इसका अनुमान इसे इस कथन से जोड़कर किया जा सकता है कि यह झूठ नहीं है। किन्तु “ऐसा है” का अनुमान क्या मैं अपने ही कथन “मैं जानता हूँ” से नहीं कर सकता? अवश्य; और “वहाँ एक हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति की निष्पत्ति “वह जानता है कि वहाँ एक हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति से की जा सकती है। किन्तु उसके “मैं जानता हूँ कि....” कहने से यह निष्पन्न नहीं होता कि वह वास्तव में इसको जानता है।
{{ParUG|13}} क्योंकि “ऐसा है” प्रतिज्ञप्ति का अनुमान किसी अन्य व्यक्ति के “मैं जानता हूँ कि ऐसा है” कहने से नहीं किया जा सकता न ही इसका अनुमान इसे इस कथन से जोड़कर किया जा सकता है कि यह झूठ नहीं है। किन्तु “ऐसा है” का अनुमान क्या मैं अपने ही कथन “मैं जानता हूँ” से नहीं कर सकता? अवश्य; और “वहाँ एक हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति की निष्पत्ति “वह जानता है कि वहाँ एक हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति से की जा सकती है। किन्तु उसके “मैं जानता हूँ कि....” कहने से यह निष्पन्न नहीं होता कि वह वास्तव में इसको जानता है।


{{ParUG|14}} वह वस्तुतः जानता है इस बात को तो सिद्ध करना होगा।
{{ParUG|14}} वह वस्तुतः जानता है इस बात को तो सिद्ध करना होगा।
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{{ParUG|18}} प्राय: “मैं जानता हूँ” का यह अर्थ होता है: मेरे पास अपने कथन के लिए उचित आधार हैं। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह मानेगा कि मैं जानता। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह कल्पना कर सकता है कि उस प्रकार के विषय को ''कैसे'' जाना जाता है।
{{ParUG|18}} प्राय: “मैं जानता हूँ” का यह अर्थ होता है: मेरे पास अपने कथन के लिए उचित आधार हैं। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह मानेगा कि मैं जानता। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह कल्पना कर सकता है कि उस प्रकार के विषय को ''कैसे'' जाना जाता है।


{{ParUG|19}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” इस कथन के आगे तो यह कहा जा सकता है: “क्योंकि मैं ''अपने'' हाथ को ही देख रहा हूँ”। फिर कोई भी समझदार व्यक्ति इस पर संशय नहीं करेगा कि मैं जानता हूँ। न ही कोई प्रत्ययवादी इस पर संशय करेगा; अपितु वह तो यही कहेगा कि यहाँ पर वह उस व्यावहारिक संशय की बात नहीं कर रहा है जिसे निरस्त किया जा रहा है, परन्तु वह उससे भी ''आगे'' के संशय की बात कर रहा है। इस ''मरीचिका'' को तो किसी अन्य ढंग से सिद्ध करना होगा।
{{ParUG|19}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” इस कथन के आगे तो यह कहा जा सकता है: “क्योंकि मैं ''अपने'' हाथ को ही देख रहा हूँ”। फिर कोई भी समझदार व्यक्ति इस पर संशय नहीं करेगा कि मैं जानता हूँ। न ही कोई प्रत्ययवादी इस पर संशय करेगा; अपितु वह तो यही कहेगा कि यहाँ पर वह उस व्यावहारिक संशय की बात नहीं कर रहा है जिसे निरस्त किया जा रहा है, परन्तु वह उससे भी ''आगे'' के संशय की बात कर रहा है। इस ''मरीचिका'' को तो किसी अन्य ढंग से सिद्ध करना होगा।


{{ParUG|20}} उदाहरणार्थ, “बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने” का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो। या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।
{{ParUG|20}} उदाहरणार्थ, “बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने” का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो। या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।


{{ParUG|21}} वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है: ‘जानने’ के प्रत्यय में और ‘विश्वास होने’, ‘अनुमान करने’, ‘संशय करने’, ‘कायल होने’ जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि “मैं जानता हूँ कि.....” कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ “मैं समझता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है।–किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता।
{{ParUG|21}} वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है: ‘जानने’ के प्रत्यय में और ‘विश्वास होने’, ‘अनुमान करने’, ‘संशय करने’, ‘कायल होने’ जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि “मैं जानता हूँ कि.....” कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ “मैं समझता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है। — किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता।


{{ParUG|22}} यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है “मैं भूल नहीं कर सकता”; या फिर जो कहता है “मैं गलत नहीं हूँ”, तो यह बात विचित्र ही होगी।
{{ParUG|22}} यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है “मैं भूल नहीं कर सकता”; या फिर जो कहता है “मैं गलत नहीं हूँ”, तो यह बात विचित्र ही होगी।
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{{ParUG|24}} प्रत्ययवादी कुछ इस प्रकार का प्रश्न करेगा: “मुझे अपने हाथों के अस्तित्व पर संशय न करने का क्या अधिकार है?” (और उस पर यह उत्तर तो नहीं हो सकता: मैं ''जानता'' हूँ कि उनका अस्तित्व है) किन्तु ऐसा प्रश्नकर्ता इस तथ्य को भूल जाता है कि सत्ता विषयक संशय किसी भाषा-खेल में ही कारगर होता है। यानी हमें पहले यह पूछना पड़ेगा: इस प्रकार का संशय कैसा होगा?, पर, हम इसे आसानी से समझ नहीं पाते।
{{ParUG|24}} प्रत्ययवादी कुछ इस प्रकार का प्रश्न करेगा: “मुझे अपने हाथों के अस्तित्व पर संशय न करने का क्या अधिकार है?” (और उस पर यह उत्तर तो नहीं हो सकता: मैं ''जानता'' हूँ कि उनका अस्तित्व है) किन्तु ऐसा प्रश्नकर्ता इस तथ्य को भूल जाता है कि सत्ता विषयक संशय किसी भाषा-खेल में ही कारगर होता है। यानी हमें पहले यह पूछना पड़ेगा: इस प्रकार का संशय कैसा होगा?, पर, हम इसे आसानी से समझ नहीं पाते।


{{ParUG|25}} “यह हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में भी त्रुटि हो सकती है। केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही यह असंभव है। “परिकलन में भी भूल हो सकती है केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही त्रुटि संभव नहीं होती।”
{{ParUG|25}} “यह हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में भी त्रुटि हो सकती है। केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही यह असंभव है। “परिकलन में भी भूल हो सकती है केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही त्रुटि संभव नहीं होती।”


{{ParUG|26}} किन्तु क्या किसी ''नियम'' से ही यह जानना संभव है कि परिकलन-नियम का प्रयोग किन परिस्थितियों में दोषपूर्ण नहीं होगा?
{{ParUG|26}} किन्तु क्या किसी ''नियम'' से ही यह जानना संभव है कि परिकलन-नियम का प्रयोग किन परिस्थितियों में दोषपूर्ण नहीं होगा?
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{{ParUG|27}} फिर भी, यदि हम यहाँ नियम जैसी कोई चीज बनाना चाहें तो उसमें हमें यह कहना होगा कि वह “सामान्य परिस्थितियों में” ही लागू होता है। सामान्य परिस्थितियों को हम पहचानते तो हैं किन्तु उनका हूबहू विवरण नहीं दे सकते। अधिकाधिक हम कुछ असामान्य परिस्थितियों का वर्णन कर सकते हैं।
{{ParUG|27}} फिर भी, यदि हम यहाँ नियम जैसी कोई चीज बनाना चाहें तो उसमें हमें यह कहना होगा कि वह “सामान्य परिस्थितियों में” ही लागू होता है। सामान्य परिस्थितियों को हम पहचानते तो हैं किन्तु उनका हूबहू विवरण नहीं दे सकते। अधिकाधिक हम कुछ असामान्य परिस्थितियों का वर्णन कर सकते हैं।


{{ParUG|28}} ‘नियम सीखने’ का क्या अभिप्राय है? –– ''यह'' ।
{{ParUG|28}} ‘नियम सीखने’ का क्या अभिप्राय है? ''यह'' ।


‘उस नियम-प्रयोग में भूल’ का क्या अभिप्राय है? –– ''यह'' । और ऐसा कहते समय किसी अनिश्चित विषय को इंगित किया जाता है।
‘उस नियम-प्रयोग में भूल’ का क्या अभिप्राय है? ''यह'' । और ऐसा कहते समय किसी अनिश्चित विषय को इंगित किया जाता है।


{{ParUG|29}} नियम प्रयोग के अभ्यास से भी प्रायोगिक-दोष का पता चलता है।
{{ParUG|29}} नियम प्रयोग के अभ्यास से भी प्रायोगिक-दोष का पता चलता है।
Line 71: Line 71:
{{ParUG|31}} उन्मत्त व्यक्ति की भाँति बारम्बार दोहराए जाने वाले वाक्यों को मैं दार्शनिक-भाषा से बहिष्कृत कर देना चाहता हूँ।
{{ParUG|31}} उन्मत्त व्यक्ति की भाँति बारम्बार दोहराए जाने वाले वाक्यों को मैं दार्शनिक-भाषा से बहिष्कृत कर देना चाहता हूँ।


{{ParUG|32}} यह ''मूअर'' के जानने की बात नहीं है कि यह एक हाथ है, अपितु स्थिति तो यह है कि यदि वे कहते “निस्संदेह मैं इस विषय में भूल कर सकता हूँ” तो हम उनकी बात को समझ नहीं पाते। हमें पूछना चाहिए “ऐसी त्रुटि कैसे होगी?"उदाहरणार्थ, ऐसी त्रुटि का पता कैसे चलेगा?
{{ParUG|32}} यह ''मूअर'' के जानने की बात नहीं है कि यह एक हाथ है, अपितु स्थिति तो यह है कि यदि वे कहते “निस्संदेह मैं इस विषय में भूल कर सकता हूँ” तो हम उनकी बात को समझ नहीं पाते। हमें पूछना चाहिए “ऐसी त्रुटि कैसे होगी?"उदाहरणार्थ, ऐसी त्रुटि का पता कैसे चलेगा?


{{ParUG|33}} अतः, हम ऐसी प्रतिज्ञप्तियों को बहिष्कृत कर देते हैं जिनसे हमें कोई लाभ नहीं होता।
{{ParUG|33}} अतः, हम ऐसी प्रतिज्ञप्तियों को बहिष्कृत कर देते हैं जिनसे हमें कोई लाभ नहीं होता।


{{ParUG|34}} जब हम किसी को परिकलन सिखाते हैं तो क्या हम उसे अपने अध्यापक के परिकलन पर भरोसा करना भी सिखाते हैं? किन्तु इन सभी व्याख्याओं का कहीं तो अन्त होना ही चाहिए। क्या हमें उसे यह भी बतलाना होगा कि वह अपनी इन्द्रियों पर भरोसा कर सकता है क्योंकि उससे कई बार वस्तुत: यह भी कहा जाता है कि अमुक-अमुक परिस्थिति में वह उन पर भरोसा ''नहीं कर सकता''?
{{ParUG|34}} जब हम किसी को परिकलन सिखाते हैं तो क्या हम उसे अपने अध्यापक के परिकलन पर भरोसा करना भी सिखाते हैं? किन्तु इन सभी व्याख्याओं का कहीं तो अन्त होना ही चाहिए। क्या हमें उसे यह भी बतलाना होगा कि वह अपनी इन्द्रियों पर भरोसा कर सकता है क्योंकि उससे कई बार वस्तुत: यह भी कहा जाता है कि अमुक-अमुक परिस्थिति में वह उन पर भरोसा ''नहीं कर सकता''?


नियम और अपवाद।
नियम और अपवाद।


{{ParUG|35}} किन्तु क्या किसी भी भौतिक पदार्थ के अभाव की कल्पना नहीं की जा सकती? मैं नहीं जानता। पर फिर भी “भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है” ऐसा कहना निरर्थक है। क्या इसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति कहा जा सकता है?
{{ParUG|35}} किन्तु क्या किसी भी भौतिक पदार्थ के अभाव की कल्पना नहीं की जा सकती? मैं नहीं जानता। पर फिर भी “भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है” ऐसा कहना निरर्थक है। क्या इसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति कहा जा सकता है?


और क्या ''यह'' आनुभविक प्रतिज्ञप्ति है: “ऐसा लगता है कि भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है”?
और क्या ''यह'' आनुभविक प्रतिज्ञप्ति है: “ऐसा लगता है कि भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है”?
Line 97: Line 97:
{{ParUG|41}} “मैं जानता हूँ कि मुझे पीड़ा कहाँ हो रही है”, “मैं जानता हूँ कि मुझे ''यहाँ'' पीड़ा हो रही है” यह कहना उतना ही गलत है जितना “मैं जानता हूँ कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ”। किन्तु “मैं जानता हूँ कि आपने मेरी बाँह को कहाँ छुआ” यह कहना उचित है।
{{ParUG|41}} “मैं जानता हूँ कि मुझे पीड़ा कहाँ हो रही है”, “मैं जानता हूँ कि मुझे ''यहाँ'' पीड़ा हो रही है” यह कहना उतना ही गलत है जितना “मैं जानता हूँ कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ”। किन्तु “मैं जानता हूँ कि आपने मेरी बाँह को कहाँ छुआ” यह कहना उचित है।


{{ParUG|42}} यह तो कहा जा सकता है कि “वह ऐसा मानता है, पर ऐसा है नहीं”। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि” वह इसे जानता तो है किन्तु, यह ऐसा है नहीं”। क्या इसका कारण मानने और जानने की मानसिक स्थिति के भेद में निहित है? नहीं। –– उदाहरणार्थ, उच्चारण-शैली, भाव-भंगिमा इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त विषय को “मानसिक स्थिति” ''कहा जा सकता'' है। यानी, दृढ़ धारणा की मानसिक स्थिति का उल्लेख करना संभव होना चाहिए। वह स्थिति ज्ञान और भ्रान्त धारणा के मामले में एक सी ही होगी। प्रत्ययों की भिन्नता के कारण “जानने” और “मानने” शब्दों के अनुरूप विभिन्न स्थितियां मानना “मैं” और “लुडविग” शब्दों के अनुरूप विभिन्न व्यक्तियों को मानने जैसा होगा।
{{ParUG|42}} यह तो कहा जा सकता है कि “वह ऐसा मानता है, पर ऐसा है नहीं”। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि” वह इसे जानता तो है किन्तु, यह ऐसा है नहीं”। क्या इसका कारण मानने और जानने की मानसिक स्थिति के भेद में निहित है? नहीं। उदाहरणार्थ, उच्चारण-शैली, भाव-भंगिमा इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त विषय को “मानसिक स्थिति” ''कहा जा सकता'' है। यानी, दृढ़ धारणा की मानसिक स्थिति का उल्लेख करना संभव होना चाहिए। वह स्थिति ज्ञान और भ्रान्त धारणा के मामले में एक सी ही होगी। प्रत्ययों की भिन्नता के कारण “जानने” और “मानने” शब्दों के अनुरूप विभिन्न स्थितियां मानना “मैं” और “लुडविग” शब्दों के अनुरूप विभिन्न व्यक्तियों को मानने जैसा होगा।


{{ParUG|43}} यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: “12 × 12 = 144 परिकलन में हम भूल कर ही नहीं सकते”? यह तार्किक प्रतिज्ञप्ति होनी चाहिए। किन्तु क्या यह प्रतिज्ञप्ति 12 × 12 = 144 कथन जैसी ही नहीं है?
{{ParUG|43}} यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: “12 × 12 = 144 परिकलन में हम भूल कर ही नहीं सकते”? यह तार्किक प्रतिज्ञप्ति होनी चाहिए। किन्तु क्या यह प्रतिज्ञप्ति 12 × 12 = 144 कथन जैसी ही नहीं है?


{{ParUG|44}} किन्तु यह पूछे जाने पर कि किस नियम से यह पता चलता है कि हम इस बारे में गलती कर ही नहीं सकते, यह उत्तर दिया जा सकता है कि हमें इसका पता किसी नियम से न चलकर परिकलन की विधि से चलता है।
{{ParUG|44}} किन्तु यह पूछे जाने पर कि किस नियम से यह पता चलता है कि हम इस बारे में गलती कर ही नहीं सकते, यह उत्तर दिया जा सकता है कि हमें इसका पता किसी नियम से न चलकर परिकलन की विधि से चलता है।
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{{ParUG|45}} परिकलन की विधि सीखने से ही हमें परिकलन के स्वरूप का पता चलता है।
{{ParUG|45}} परिकलन की विधि सीखने से ही हमें परिकलन के स्वरूप का पता चलता है।


{{ParUG|46}} तो क्या यह नहीं बतलाया जा सकता कि परिकलन की विश्वसनीयता के बारे में हम स्वयं को कैसे सन्तुष्ट करते हैं? हम कुछ कह तो सकते हैं! किन्तु इससे कोई नियम नहीं बनता। किन्तु महत्त्वपूर्ण बात तो यह है: नियम की आवश्यकता ही नहीं होती। कोई कमी है भी नहीं। हम नियमानुसार परिकलन करते हैं और यही काफी है।
{{ParUG|46}} तो क्या यह नहीं बतलाया जा सकता कि परिकलन की विश्वसनीयता के बारे में हम स्वयं को कैसे सन्तुष्ट करते हैं? हम कुछ कह तो सकते हैं! किन्तु इससे कोई नियम नहीं बनता। किन्तु महत्त्वपूर्ण बात तो यह है: नियम की आवश्यकता ही नहीं होती। कोई कमी है भी नहीं। हम नियमानुसार परिकलन करते हैं और यही काफी है।


{{ParUG|47}} हम परिकलन ''ऐसे'' करते हैं। परिकलन ''ऐसे'' होता है। जैसा कि, उदाहरणार्थ, हम पाठशाला में सीखते हैं। आत्मा के प्रत्यय से जुड़ी लोकोत्तर असंदिग्धता को भूल जायें।
{{ParUG|47}} हम परिकलन ''ऐसे'' करते हैं। परिकलन ''ऐसे'' होता है। जैसा कि, उदाहरणार्थ, हम पाठशाला में सीखते हैं। आत्मा के प्रत्यय से जुड़ी लोकोत्तर असंदिग्धता को भूल जायें।
Line 115: Line 115:
{{ParUG|50}} हम कब यह कहते हैं कि ...×...=...?  जब हमने परिकलन को जाँच लिया होता है।
{{ParUG|50}} हम कब यह कहते हैं कि ...×...=...?  जब हमने परिकलन को जाँच लिया होता है।


{{ParUG|51}} यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: “यहाँ भूल कैसे हो सकती है!”? इसे तो तार्किक प्रतिज्ञप्ति होना चाहिए। किन्तु क्या यह ऐसा तर्क है जिसको प्रतिज्ञप्तियों द्वारा सिखाया न जा सकने के कारण हम प्रयोग में नहीं लाते। यह एक तार्किक प्रतिज्ञप्ति है; क्योंकि यह प्रत्ययात्मक (भाषिक) परिस्थिति का विवरण देती है।
{{ParUG|51}} यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: “यहाँ भूल कैसे हो सकती है!”? इसे तो तार्किक प्रतिज्ञप्ति होना चाहिए। किन्तु क्या यह ऐसा तर्क है जिसको प्रतिज्ञप्तियों द्वारा सिखाया न जा सकने के कारण हम प्रयोग में नहीं लाते। यह एक तार्किक प्रतिज्ञप्ति है; क्योंकि यह प्रत्ययात्मक (भाषिक) परिस्थिति का विवरण देती है।


{{ParUG|52}} अतः, यह स्थिति “सूर्य से इतनी दूरी पर एक ग्रह है” या फिर “यह एक हाथ है” (उदाहरणार्थ, मेरा हाथ) प्रतिज्ञप्ति जैसी नहीं है। बाद वाले वाक्य को प्राक्कल्पना नहीं कहा जा सकता। फिर भी इन दोनों प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुनिश्चित भेद नहीं है।
{{ParUG|52}} अतः, यह स्थिति “सूर्य से इतनी दूरी पर एक ग्रह है” या फिर “यह एक हाथ है” (उदाहरणार्थ, मेरा हाथ) प्रतिज्ञप्ति जैसी नहीं है। बाद वाले वाक्य को प्राक्कल्पना नहीं कहा जा सकता। फिर भी इन दोनों प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुनिश्चित भेद नहीं है।
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{{ParUG|55}} तो क्या यह ''प्राक्कल्पना'' संभव है कि हमारे चारों ओर फैली वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है? क्या यह अपने सभी परिकलनों में गलती कर जाने की प्राक्कल्पना जैसी नहीं होगी?
{{ParUG|55}} तो क्या यह ''प्राक्कल्पना'' संभव है कि हमारे चारों ओर फैली वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है? क्या यह अपने सभी परिकलनों में गलती कर जाने की प्राक्कल्पना जैसी नहीं होगी?


{{ParUG|56}} जब हम कहते हैं: “शायद इस ग्रह का अस्तित्व नहीं है, और इस प्रकाश-संवृति का कोई अन्य कारण है”, तो हमें किसी अस्तित्वयुक्त वस्तु के उदाहरण की आवश्यकता पड़ती है। इसका अस्तित्व नहीं है, ''जैसे कि, उदाहरणार्थ,''..... का अस्तित्व है।
{{ParUG|56}} जब हम कहते हैं: “शायद इस ग्रह का अस्तित्व नहीं है, और इस प्रकाश-संवृति का कोई अन्य कारण है”, तो हमें किसी अस्तित्वयुक्त वस्तु के उदाहरण की आवश्यकता पड़ती है। इसका अस्तित्व नहीं है, ''जैसे कि, उदाहरणार्थ,''..... का अस्तित्व है।


या फिर हमें कहना होगा कि ''निश्चितता'' एक ऐसी कसौटी है जिस पर कुछ चीजें अधिक और कुछ कम खरी उतरती हैं। नहीं। संशय शनै: शनै: अपने अर्थ को खोता है। यह भाषा-खेल ऐसा ही है।
या फिर हमें कहना होगा कि ''निश्चितता'' एक ऐसी कसौटी है जिस पर कुछ चीजें अधिक और कुछ कम खरी उतरती हैं। नहीं। संशय शनै: शनै: अपने अर्थ को खोता है। यह भाषा-खेल ऐसा ही है।
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और भाषा-खेल का वर्णन करने वाली हर एक बात तर्क का अंग होती है।
और भाषा-खेल का वर्णन करने वाली हर एक बात तर्क का अंग होती है।


{{ParUG|57}} तो क्या “मैं ''जानता'' हूँ, न कि इस बात का अनुमान लगाता हूँ, कि यह मेरा हाथ है” इस वाक्य को व्याकरण की प्रतिज्ञप्ति नहीं समझा जा सकता? यानी कि इसे लौकिक ''नहीं'' समझा जा सकता।
{{ParUG|57}} तो क्या “मैं ''जानता'' हूँ, न कि इस बात का अनुमान लगाता हूँ, कि यह मेरा हाथ है” इस वाक्य को व्याकरण की प्रतिज्ञप्ति नहीं समझा जा सकता? यानी कि इसे लौकिक ''नहीं'' समझा जा सकता।


किन्तु फिर क्या यह ''ऐसी'' नहीं होगी: “मैं जानता हूँ, न कि इस बात का अनुमान लगाता हूँ कि मैं लाल रंग देख रहा हूँ”?
किन्तु फिर क्या यह ''ऐसी'' नहीं होगी: “मैं जानता हूँ, न कि इस बात का अनुमान लगाता हूँ कि मैं लाल रंग देख रहा हूँ”?
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{{ParUG|84}} मूअर का कहना है कि उन्हें ''पता'' है कि पृथ्वी का अस्तित्व उनके जन्म के बहुत पहले से है। और इस प्रकार कहे जाने पर ऐसा लगता है कि यह कथन भौतिक जगत् के बारे में होने के साथ-साथ वैयक्तिक भी है। मूअर इसके, या उसके बारे में कुछ जानते हैं, या नहीं, यह तो दार्शनिक रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं है किन्तु इसे या उसे जानने की विधि को जानना दार्शनिक के लिए महत्त्वपूर्ण है। यदि मूअर हमें बताते कि उन्हें दो सितारों के बीच की दूरी का ज्ञान है तो इससे हम यह निष्कर्ष निकालते कि उन्होंने कोई विशिष्ट अनुसंधान किया है और हम उस अनुसंधान के बारे में जानना भी चाहते। किन्तु मूअर तो वही बात कहते हैं जिसे हम सभी जानते हैं किन्तु यह नहीं बतला सकते कि हम उसे कैसे जानते हैं। उदाहरणार्थ, मेरी यह मान्यता है कि (पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में) मैं भी मूअर जितना ही जानता हूँ, और यदि वे कहते हैं कि वे जानते हैं कि पृथ्वी है तो ''मुझे'' भी यह ज्ञात है। क्योंकि ऐसा नहीं है कि वे किसी पूर्व-निर्धारित चिन्तन-विधि का अवलम्बन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हों। जबकि मैं उस विधि को जानते हुए भी बिना उसके प्रयोग के ही इस निष्कर्ष पर पहुँच गया हूँ।
{{ParUG|84}} मूअर का कहना है कि उन्हें ''पता'' है कि पृथ्वी का अस्तित्व उनके जन्म के बहुत पहले से है। और इस प्रकार कहे जाने पर ऐसा लगता है कि यह कथन भौतिक जगत् के बारे में होने के साथ-साथ वैयक्तिक भी है। मूअर इसके, या उसके बारे में कुछ जानते हैं, या नहीं, यह तो दार्शनिक रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं है किन्तु इसे या उसे जानने की विधि को जानना दार्शनिक के लिए महत्त्वपूर्ण है। यदि मूअर हमें बताते कि उन्हें दो सितारों के बीच की दूरी का ज्ञान है तो इससे हम यह निष्कर्ष निकालते कि उन्होंने कोई विशिष्ट अनुसंधान किया है और हम उस अनुसंधान के बारे में जानना भी चाहते। किन्तु मूअर तो वही बात कहते हैं जिसे हम सभी जानते हैं किन्तु यह नहीं बतला सकते कि हम उसे कैसे जानते हैं। उदाहरणार्थ, मेरी यह मान्यता है कि (पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में) मैं भी मूअर जितना ही जानता हूँ, और यदि वे कहते हैं कि वे जानते हैं कि पृथ्वी है तो ''मुझे'' भी यह ज्ञात है। क्योंकि ऐसा नहीं है कि वे किसी पूर्व-निर्धारित चिन्तन-विधि का अवलम्बन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हों। जबकि मैं उस विधि को जानते हुए भी बिना उसके प्रयोग के ही इस निष्कर्ष पर पहुँच गया हूँ।


{{ParUG|85}} और इसे कैसे जाना जाता है? क्या इतिहास-ज्ञान से? उसे इसका अर्थ जानना होगा: अमुक काल से पृथ्वी का अस्तित्व है। क्योंकि ''किसी भी'' बुद्धिमान् व्यक्ति को इस बात का पता होना चाहिए। लोगों को मकान बनाते और तोड़ते देखकर हम पूछते हैं: “इस मकान का अस्तित्व यहाँ कब से है?” किन्तु किसी पर्वत के बारे में हम यही प्रश्न कैसे कर सकते हैं? और क्या सभी व्यक्ति पृथ्वी को एक ऐसी ''वस्तु''  समझते हैं जो बनती बिगड़ती रहती है? मैं पृथ्वी को (गहराई समेत) अन्तहीन, दिग्दिगन्त विस्तार वाली चपटी वस्तु क्यों नहीं मानता? किन्तु ऐसी स्थिति में भी कहा जा सकता है कि “मैं जानता हूँ कि इस पर्वत का अस्तित्व मेरे जन्म के बहुत पहले से है।” पर मान लीजिए कि कोई व्यक्ति ऐसा न मानता हो, तब क्या होगा?
{{ParUG|85}} और इसे कैसे जाना जाता है? क्या इतिहास-ज्ञान से? उसे इसका अर्थ जानना होगा: अमुक काल से पृथ्वी का अस्तित्व है। क्योंकि ''किसी भी'' बुद्धिमान् व्यक्ति को इस बात का पता होना चाहिए। लोगों को मकान बनाते और तोड़ते देखकर हम पूछते हैं: “इस मकान का अस्तित्व यहाँ कब से है?” किन्तु किसी पर्वत के बारे में हम यही प्रश्न कैसे कर सकते हैं? और क्या सभी व्यक्ति पृथ्वी को एक ऐसी ''वस्तु''  समझते हैं जो बनती बिगड़ती रहती है? मैं पृथ्वी को (गहराई समेत) अन्तहीन, दिग्दिगन्त विस्तार वाली चपटी वस्तु क्यों नहीं मानता? किन्तु ऐसी स्थिति में भी कहा जा सकता है कि “मैं जानता हूँ कि इस पर्वत का अस्तित्व मेरे जन्म के बहुत पहले से है।” पर मान लीजिए कि कोई व्यक्ति ऐसा न मानता हो, तब क्या होगा?


{{ParUG|86}} मूअर के “मैं जानता हूँ” को “मेरी यह अविचल अवधारणा है” से प्रतिस्थापित करने पर क्या होगा?
{{ParUG|86}} मूअर के “मैं जानता हूँ” को “मेरी यह अविचल अवधारणा है” से प्रतिस्थापित करने पर क्या होगा?
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{{ParUG|89}} कहा जा सकता है: “.... से भी बहुत पहले से पृथ्वी के अस्तित्व के पक्ष में सभी बातें हैं और उसके विपक्ष में कोई भी बात नहीं है।”
{{ParUG|89}} कहा जा सकता है: “.... से भी बहुत पहले से पृथ्वी के अस्तित्व के पक्ष में सभी बातें हैं और उसके विपक्ष में कोई भी बात नहीं है।”


फिर भी क्या मैं इससे विपरीत-कल्पना नहीं कर सकता? किन्तु प्रश्न तो यह है: ऐसी मान्यता का व्यवहार पर क्या असर पड़ेगा? संभवत: कोई कहे: “बात यह नहीं है। मान्यता तो मान्यता है, वह व्यावहारिक हो या नहीं।” कोई सोच सकता है: यह तो मानव-मन को समझाना ही है।
फिर भी क्या मैं इससे विपरीत-कल्पना नहीं कर सकता? किन्तु प्रश्न तो यह है: ऐसी मान्यता का व्यवहार पर क्या असर पड़ेगा? संभवत: कोई कहे: “बात यह नहीं है। मान्यता तो मान्यता है, वह व्यावहारिक हो या नहीं।” कोई सोच सकता है: यह तो मानव-मन को समझाना ही है।


{{ParUG|90}} “मैं जानता हूँ” का आदिम अर्थ “मैं देखता हूँ” से मिलता-जुलता है। और “मैं जानता था कि वह कमरे में है किन्तु वह कमरे में था नहीं” यह कथन “मैंने उसे कमरे में देखा किन्तु वह वहाँ नहीं था” इस कथन के समान है। “मैं जानता हूँ” यह कथन मेरे और किसी प्रतिज्ञप्ति (जैसे कि “मेरी मान्यता है”) के अर्थ-संबंध को अभिव्यक्त न करके, मेरे और तथ्य के बीच संबंध को अभिव्यक्त करता है। ताकि तथ्य मेरी चेतना में समाहित हो जाये। (इसी कारण हम यह कहना चाहते हैं कि बाह्य जगत् में घटित घटनाओं के बारे में हम कुछ भी नहीं जान सकते, किन्तु इन्द्रियगोचर विषय के क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं को ही हम वस्तुत: जान सकते हैं।) इससे हमें प्रत्यक्ष-ज्ञान की प्रतीति होगी, और वह ज्ञान, मन और इन्द्रिय-सन्निकर्ष से प्राप्त होगा। तभी इस प्रतीति की ''निश्चितता'' के बारे में सन्देह उत्पन्न हो जाता है। इस प्रतीति से यह तो पता चल ही जाता है कि हमारी ''कल्पना'' ज्ञान को कैसे प्रस्तुत करती है, पर यह पता नहीं चलता कि इस प्रस्तुति का आधार क्या है।
{{ParUG|90}} “मैं जानता हूँ” का आदिम अर्थ “मैं देखता हूँ” से मिलता-जुलता है। और “मैं जानता था कि वह कमरे में है किन्तु वह कमरे में था नहीं” यह कथन “मैंने उसे कमरे में देखा किन्तु वह वहाँ नहीं था” इस कथन के समान है। “मैं जानता हूँ” यह कथन मेरे और किसी प्रतिज्ञप्ति (जैसे कि “मेरी मान्यता है”) के अर्थ-संबंध को अभिव्यक्त न करके, मेरे और तथ्य के बीच संबंध को अभिव्यक्त करता है। ताकि तथ्य मेरी चेतना में समाहित हो जाये। (इसी कारण हम यह कहना चाहते हैं कि बाह्य जगत् में घटित घटनाओं के बारे में हम कुछ भी नहीं जान सकते, किन्तु इन्द्रियगोचर विषय के क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं को ही हम वस्तुत: जान सकते हैं।) इससे हमें प्रत्यक्ष-ज्ञान की प्रतीति होगी, और वह ज्ञान, मन और इन्द्रिय-सन्निकर्ष से प्राप्त होगा। तभी इस प्रतीति की ''निश्चितता'' के बारे में सन्देह उत्पन्न हो जाता है। इस प्रतीति से यह तो पता चल ही जाता है कि हमारी ''कल्पना'' ज्ञान को कैसे प्रस्तुत करती है, पर यह पता नहीं चलता कि इस प्रस्तुति का आधार क्या है।
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{{ParUG|91}} यदि मूअर यह कहें कि पृथ्वी के अस्तित्व इत्यादि के बारे में उन्हें पता है तो उनके इस कथन पर लगभग सभी लोग विश्वास कर लेंगे, और इसके बारे में उनकी दृढ़ मान्यता को भी स्वीकार कर लेंगे। किन्तु क्या अपनी दृढ़ मान्यता का उनके पास कोई ठोस ''आधार'' है? क्योंकि यदि उनके पास इसका कोई ठोस आधार नहीं है तो उन्हें इसका ''ज्ञान'' भी नहीं है (रसेल)।
{{ParUG|91}} यदि मूअर यह कहें कि पृथ्वी के अस्तित्व इत्यादि के बारे में उन्हें पता है तो उनके इस कथन पर लगभग सभी लोग विश्वास कर लेंगे, और इसके बारे में उनकी दृढ़ मान्यता को भी स्वीकार कर लेंगे। किन्तु क्या अपनी दृढ़ मान्यता का उनके पास कोई ठोस ''आधार'' है? क्योंकि यदि उनके पास इसका कोई ठोस आधार नहीं है तो उन्हें इसका ''ज्ञान'' भी नहीं है (रसेल)।


{{ParUG|92}} फिर भी हम पूछ सकते हैं: थोड़े दिन पहले से ही, उदाहरणार्थ किसी के जन्म के समय से ही, पृथ्वी का अस्तित्व है। इस कथन का क्या कोई उचित आधार हो सकता है? मान लीजिए कि किसी को केवल यही बताया गया है, तो क्या इस पर शंका की जा सकती है? मनुष्य यह मानता रहा है कि वह वर्षा कराने में समर्थ है: किसी राजा में यह संस्कार क्यों नहीं डाला जा सकता कि वह यह सोचने लगे कि इस संसार का प्रादुर्भाव उसके जन्मकाल से ही हुआ है? और यदि मूअर और यह राजा कभी मिलते और वार्तालाप करते तो क्या मूअर उस राजा के समक्ष अपनी मान्यता के औचित्य को सिद्ध कर पाते? मैं यह तो नहीं कहता कि मूअर उस राजा के विचारों में परिवर्तन नहीं ला पाते, अपितु मेरा तो यह कहना है कि यह एक विशेष प्रकार का परिवर्तन होगा; राजा का संसार के बारे में दृष्टिकोण ही बदल जाएगा।
{{ParUG|92}} फिर भी हम पूछ सकते हैं: थोड़े दिन पहले से ही, उदाहरणार्थ किसी के जन्म के समय से ही, पृथ्वी का अस्तित्व है। इस कथन का क्या कोई उचित आधार हो सकता है? मान लीजिए कि किसी को केवल यही बताया गया है, तो क्या इस पर शंका की जा सकती है? मनुष्य यह मानता रहा है कि वह वर्षा कराने में समर्थ है: किसी राजा में यह संस्कार क्यों नहीं डाला जा सकता कि वह यह सोचने लगे कि इस संसार का प्रादुर्भाव उसके जन्मकाल से ही हुआ है? और यदि मूअर और यह राजा कभी मिलते और वार्तालाप करते तो क्या मूअर उस राजा के समक्ष अपनी मान्यता के औचित्य को सिद्ध कर पाते? मैं यह तो नहीं कहता कि मूअर उस राजा के विचारों में परिवर्तन नहीं ला पाते, अपितु मेरा तो यह कहना है कि यह एक विशेष प्रकार का परिवर्तन होगा; राजा का संसार के बारे में दृष्टिकोण ही बदल जाएगा।


याद रखें कि कभी-कभी हम किसी दृष्टिकोण की ''सरलता'' अथवा ''सहजता'' के कारण ही उसके ''औचित्य'' को मान लेते हैं, यानी, इनके कारण ही हम उस दृष्टि-कोण को अपनाते हैं। उसे अपनाकर हम कुछ ऐसा कहते हैं: “''ऐसा'' ही इसे होना चाहिए।”
याद रखें कि कभी-कभी हम किसी दृष्टिकोण की ''सरलता'' अथवा ''सहजता'' के कारण ही उसके ''औचित्य'' को मान लेते हैं, यानी, इनके कारण ही हम उस दृष्टि-कोण को अपनाते हैं। उसे अपनाकर हम कुछ ऐसा कहते हैं: “''ऐसा'' ही इसे होना चाहिए।”


{{ParUG|93}} मूअर द्वारा अपने ''ज्ञान'' के बारे में प्रस्तुत सभी प्रतिज्ञप्तियां ऐसी ही हैं कि उन प्रतिज्ञप्तियों से विपरीत की कोई कल्पना भी ''कैसे'' कर सकता है। उदाहरणार्थ, इस प्रतिज्ञप्ति पर कि मूअर ने अपना संपूर्ण जीवन पृथ्वी के समीप ही बिताया है। एक बार फिर मैं यहाँ मूअर के स्थान पर अपने बारे में बात कर सकता हूँ। इससे विपरीत विश्वास करने के मेरे कौनसे कारण हो सकते हैं? या तो स्मृति या फिर सुनी-सुनाई बात। जो कुछ भी मैंने देखा अथवा सुना है उससे मैं आश्वस्त हुआ हूँ कि कोई भी व्यक्ति पृथ्वी से बहुत दूर नहीं गया है। संसार के मेरे चित्र में ऐसी कोई भी बात नहीं है जो इसके विपरीत है।
{{ParUG|93}} मूअर द्वारा अपने ''ज्ञान'' के बारे में प्रस्तुत सभी प्रतिज्ञप्तियां ऐसी ही हैं कि उन प्रतिज्ञप्तियों से विपरीत की कोई कल्पना भी ''कैसे'' कर सकता है। उदाहरणार्थ, इस प्रतिज्ञप्ति पर कि मूअर ने अपना संपूर्ण जीवन पृथ्वी के समीप ही बिताया है। एक बार फिर मैं यहाँ मूअर के स्थान पर अपने बारे में बात कर सकता हूँ। इससे विपरीत विश्वास करने के मेरे कौनसे कारण हो सकते हैं? या तो स्मृति या फिर सुनी-सुनाई बात। जो कुछ भी मैंने देखा अथवा सुना है उससे मैं आश्वस्त हुआ हूँ कि कोई भी व्यक्ति पृथ्वी से बहुत दूर नहीं गया है। संसार के मेरे चित्र में ऐसी कोई भी बात नहीं है जो इसके विपरीत है।


{{ParUG|94}} किन्तु संसार के अपने चित्र को न तो मैंने उसके औचित्य को मान कर बनाया है, न ही मैं इस चित्र को इसके उचित होने के कारण मानता हूँ। नहीं: संस्कारों से ही मैं सत्य और असत्य में भेद करता हूँ।
{{ParUG|94}} किन्तु संसार के अपने चित्र को न तो मैंने उसके औचित्य को मान कर बनाया है, न ही मैं इस चित्र को इसके उचित होने के कारण मानता हूँ। नहीं: संस्कारों से ही मैं सत्य और असत्य में भेद करता हूँ।
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{{ParUG|101}} उदाहरणार्थ, “मेरा शरीर लुप्त होने के पश्चात् फिर कभी भी प्रकट नहीं हुआ” एक ऐसी ही प्रतिज्ञप्ति है।
{{ParUG|101}} उदाहरणार्थ, “मेरा शरीर लुप्त होने के पश्चात् फिर कभी भी प्रकट नहीं हुआ” एक ऐसी ही प्रतिज्ञप्ति है।


{{ParUG|102}} क्या मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि कभी, अनजाने में, शायद बेहोशी की हालत में, मुझे पृथ्वी से बहुत दूर ले जाया गया यद्यपि दूसरे लोग इस बारे में जानते हैं फिर भी मुझे इस बारे में नहीं बताते? किन्तु यह बात मेरे अन्य विश्वासों से मेल नहीं खाती। हालांकि मैं अपनी विश्वास-पद्धति का विवरण नहीं दे सकता। फिर भी मेरे विश्वासों की एक व्यवस्था है, एक संरचना है।
{{ParUG|102}} क्या मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि कभी, अनजाने में, शायद बेहोशी की हालत में, मुझे पृथ्वी से बहुत दूर ले जाया गया यद्यपि दूसरे लोग इस बारे में जानते हैं फिर भी मुझे इस बारे में नहीं बताते? किन्तु यह बात मेरे अन्य विश्वासों से मेल नहीं खाती। हालांकि मैं अपनी विश्वास-पद्धति का विवरण नहीं दे सकता। फिर भी मेरे विश्वासों की एक व्यवस्था है, एक संरचना है।


{{ParUG|103}} और अब यदि मैं कहूँ “यह मेरी अविचल धारणा है कि....”, तो इसका अर्थ होगा कि इस परिस्थिति में भी मेरा विश्वास किसी विशिष्ट विचारधारा का परिणाम न होकर, मेरे सभी ''प्रश्नों एवं उत्तरों'' से कुछ ऐसे जुड़ा है कि मुझे उसका पता नहीं चलता।
{{ParUG|103}} और अब यदि मैं कहूँ “यह मेरी अविचल धारणा है कि....”, तो इसका अर्थ होगा कि इस परिस्थिति में भी मेरा विश्वास किसी विशिष्ट विचारधारा का परिणाम न होकर, मेरे सभी ''प्रश्नों एवं उत्तरों'' से कुछ ऐसे जुड़ा है कि मुझे उसका पता नहीं चलता।
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{{ParUG|105}} किसी प्राक्कल्पना की जाँच, उसकी पुष्टि अथवा उसका निराकरण किसी प्रणाली में ही किया जाता है। और वह प्रणाली हमारी तर्क-पद्धति से कमोबेश भिन्न नहीं है। नहीं: अपितु वह तो हमारी युक्तियों का सार है। प्रणाली के कारण भिन्नता नहीं होती बल्कि उसी के कारण युक्तियां जीवन्त होती हैं।
{{ParUG|105}} किसी प्राक्कल्पना की जाँच, उसकी पुष्टि अथवा उसका निराकरण किसी प्रणाली में ही किया जाता है। और वह प्रणाली हमारी तर्क-पद्धति से कमोबेश भिन्न नहीं है। नहीं: अपितु वह तो हमारी युक्तियों का सार है। प्रणाली के कारण भिन्नता नहीं होती बल्कि उसी के कारण युक्तियां जीवन्त होती हैं।


{{ParUG|106}} मान लीजिए कि कोई बुजुर्ग किसी शिशु से कहे कि वह चाँद पर जा चुका है। शिशु के मुझे यह बताने पर मैं उसे कहता हूँ कि वह तो एक मज़ाक था, वह व्यक्ति चाँद पर नहीं गया; चाँद बहुत दूर है और वहाँ पर चढ़ पाना, या उड़ जाना असंभव है। पर यदि अब शिशु जिद करे कि वहाँ जाने का रास्ता तो है किन्तु उस रास्ते का मुझे पता ही नहीं है तो मैं उसे क्या जवाब दूँ? किसी जनजाति के ऐसे बुजुर्गों को जिनकी मान्यता हो कि कभी-कभी लोग चाँद पर चले जाते हैं (संभवत: वे अपने स्वप्नों की व्याख्या ऐसे करते हैं), और जो यह भी मानते हों कि चाँद पर चढ़ जाने, या उस तक उड़ कर जाने का कोई साधारण साधन नहीं है, उनको मैं क्या उत्तर दूँ? किन्तु, साधारणतः शिशु ऐसी मान्यता से चिपकेगा नहीं और हमारी सीख को मान लेगा।
{{ParUG|106}} मान लीजिए कि कोई बुजुर्ग किसी शिशु से कहे कि वह चाँद पर जा चुका है। शिशु के मुझे यह बताने पर मैं उसे कहता हूँ कि वह तो एक मज़ाक था, वह व्यक्ति चाँद पर नहीं गया; चाँद बहुत दूर है और वहाँ पर चढ़ पाना, या उड़ जाना असंभव है। पर यदि अब शिशु जिद करे कि वहाँ जाने का रास्ता तो है किन्तु उस रास्ते का मुझे पता ही नहीं है तो मैं उसे क्या जवाब दूँ? किसी जनजाति के ऐसे बुजुर्गों को जिनकी मान्यता हो कि कभी-कभी लोग चाँद पर चले जाते हैं (संभवत: वे अपने स्वप्नों की व्याख्या ऐसे करते हैं), और जो यह भी मानते हों कि चाँद पर चढ़ जाने, या उस तक उड़ कर जाने का कोई साधारण साधन नहीं है, उनको मैं क्या उत्तर दूँ? किन्तु, साधारणतः शिशु ऐसी मान्यता से चिपकेगा नहीं और हमारी सीख को मान लेगा।


{{ParUG|107}} क्या बिल्कुल इसी तरह किसी शिशु को ईश्वर के अस्तित्व या उसके न होने पर विश्वास करना नहीं सिखाया जा सकता? और फिर तदनुसार वह शिशु ईश्वर के होने या न होने के बारे में विलक्षण युक्तियां प्रस्तुत कर सकता है।
{{ParUG|107}} क्या बिल्कुल इसी तरह किसी शिशु को ईश्वर के अस्तित्व या उसके न होने पर विश्वास करना नहीं सिखाया जा सकता? और फिर तदनुसार वह शिशु ईश्वर के होने या न होने के बारे में विलक्षण युक्तियां प्रस्तुत कर सकता है।
Line 257: Line 257:
{{ParUG|109}} (हम कहते हैं कि) “आनुभविक प्रतिज्ञप्ति की ''जाँच'' की जा सकती है।” पर कैसे? और किस विधि से?
{{ParUG|109}} (हम कहते हैं कि) “आनुभविक प्रतिज्ञप्ति की ''जाँच'' की जा सकती है।” पर कैसे? और किस विधि से?


{{ParUG|110}} जाँच से क्या ''अभिप्राय'' है? “किन्तु क्या यह जाँच पर्याप्त है? और यदि यह पर्याप्त है तो क्या इसे तर्कशास्त्र से मान्यता नहीं मिलनी चाहिए?” मानो आधारों का कोई अन्त ही नहीं होता। किन्तु अन्त आधारहीन प्राक्कल्पना तो नहीं होता: वह तो व्यवहार का आधारहीन ढंग होता है।
{{ParUG|110}} जाँच से क्या ''अभिप्राय'' है? “किन्तु क्या यह जाँच पर्याप्त है? और यदि यह पर्याप्त है तो क्या इसे तर्कशास्त्र से मान्यता नहीं मिलनी चाहिए?” मानो आधारों का कोई अन्त ही नहीं होता। किन्तु अन्त आधारहीन प्राक्कल्पना तो नहीं होता: वह तो व्यवहार का आधारहीन ढंग होता है।


{{ParUG|111}} “मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया।” सामयिक परिस्थितियों में यह कहना एक बात है और यदि बहुत से लोग, जिन में से कई बिना यह जाने कि वे चाँद पर गए हैं, चाँद पर गए होते तो यह कहना दूसरी बात होती। ''इस'' परिस्थिति में अपने इस ज्ञान के आधार दिए जा सकते थे। क्या इन दोनों बातों का संबंध परिकलन के साधारण नियमों और वास्तविक परिकलन जैसा नहीं है?
{{ParUG|111}} “मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया।” सामयिक परिस्थितियों में यह कहना एक बात है और यदि बहुत से लोग, जिन में से कई बिना यह जाने कि वे चाँद पर गए हैं, चाँद पर गए होते तो यह कहना दूसरी बात होती। ''इस'' परिस्थिति में अपने इस ज्ञान के आधार दिए जा सकते थे। क्या इन दोनों बातों का संबंध परिकलन के साधारण नियमों और वास्तविक परिकलन जैसा नहीं है?
Line 263: Line 263:
मैं कहना चाहता हूँ: चाँद पर मेरे न जाने के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त हूँ जितना कि इसकी पुष्टि में दिए गए किसी भी आधार के बारे में।
मैं कहना चाहता हूँ: चाँद पर मेरे न जाने के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त हूँ जितना कि इसकी पुष्टि में दिए गए किसी भी आधार के बारे में।


{{ParUG|112}} जब मूअर कहते हैं कि वे इन सब बातों को ''जानते'' हैं तो क्या वे भी यही बात नहीं कहते? किन्तु उनके इन बातों को जानने के बारे में क्या कोई शंका है या फिर इनमें से कुछ प्रतिज्ञप्तियों को हमारे द्वारा संशय-रहित मानने में कोई दुविधा है?
{{ParUG|112}} जब मूअर कहते हैं कि वे इन सब बातों को ''जानते'' हैं तो क्या वे भी यही बात नहीं कहते? किन्तु उनके इन बातों को जानने के बारे में क्या कोई शंका है या फिर इनमें से कुछ प्रतिज्ञप्तियों को हमारे द्वारा संशय-रहित मानने में कोई दुविधा है?


{{ParUG|113}} कोई हमें गणित यह कहकर नहीं सिखाता कि वह जानता है कि क + ख = ख + क।
{{ParUG|113}} कोई हमें गणित यह कहकर नहीं सिखाता कि वह जानता है कि क + ख = ख + क।
Line 313: Line 313:
{{ParUG|132}} मनुष्यों की यह अवधारणा रही है कि राजा वर्षा करा सकते हैं; ''हम'' कहते हैं कि यह हमारे समस्त अनुभवों के विरुद्ध है। आज उनकी यह अवधारणा है कि वायुयान और रेडियो इत्यादि लोगों से निकट सम्पर्क स्थापित करने में और संस्कृति के प्रसार में सहायक हैं।
{{ParUG|132}} मनुष्यों की यह अवधारणा रही है कि राजा वर्षा करा सकते हैं; ''हम'' कहते हैं कि यह हमारे समस्त अनुभवों के विरुद्ध है। आज उनकी यह अवधारणा है कि वायुयान और रेडियो इत्यादि लोगों से निकट सम्पर्क स्थापित करने में और संस्कृति के प्रसार में सहायक हैं।


{{ParUG|133}} साधारणतया मैं अपने दोनों हाथों को देखकर उनके अस्तित्व के बारे में आश्वस्त नहीं होता। क्यों नहीं? क्या मुझे अनुभव से पता चला है कि यह व्यर्थ है? या (फिर): क्या हमने पहले किसी सार्वभौमिक आगमनात्मक नियम को सीखकर यहाँ भी उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया? किन्तु हमें ''विशिष्ट'' नियम की बजाय ''सार्वभौमिक'' नियम का पता पहले क्यों चलता है?
{{ParUG|133}} साधारणतया मैं अपने दोनों हाथों को देखकर उनके अस्तित्व के बारे में आश्वस्त नहीं होता। क्यों नहीं? क्या मुझे अनुभव से पता चला है कि यह व्यर्थ है? या (फिर): क्या हमने पहले किसी सार्वभौमिक आगमनात्मक नियम को सीखकर यहाँ भी उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया? किन्तु हमें ''विशिष्ट'' नियम की बजाय ''सार्वभौमिक'' नियम का पता पहले क्यों चलता है?


{{ParUG|134}} किसी पुस्तक को मेज़ की दराज़ में रखकर मैं उसके वहीं रखे रहने की कल्पना करता हूँ जब तक कि.....। “अनुभव सदा मुझे ठीक सिद्ध करता है। पुस्तक के (यकायक) लुप्त होने का कोई प्रामाणिक अनुभव नहीं है।” किसी विशेष स्थान पर पुस्तक के होने का पक्का अनुमान होने पर भी ''कभी-कभी'' पुस्तक वहाँ उपलब्ध नहीं होती। किन्तु अनुभव से ही हमें वास्तव में यह पता चलता है कि कोई पुस्तक लुप्त नहीं हो जाती। (उदाहरणार्थ, वह भाप बन कर शनै: शनै: उड़ नहीं जाती।) किन्तु क्या पुस्तकों इत्यादि के इस अनुभव के कारण हम यह मान लेते हैं कि पुस्तक लुप्त नहीं हुई है? क्या हमें अपनी प्राक्कल्पना को बदल नहीं देना चाहिए? क्या हम प्राक्कल्पना-प्रणाली पर पड़े अपने अनुभव के प्रभाव को झुठला सकते हैं?
{{ParUG|134}} किसी पुस्तक को मेज़ की दराज़ में रखकर मैं उसके वहीं रखे रहने की कल्पना करता हूँ जब तक कि.....। “अनुभव सदा मुझे ठीक सिद्ध करता है। पुस्तक के (यकायक) लुप्त होने का कोई प्रामाणिक अनुभव नहीं है।” किसी विशेष स्थान पर पुस्तक के होने का पक्का अनुमान होने पर भी ''कभी-कभी'' पुस्तक वहाँ उपलब्ध नहीं होती। किन्तु अनुभव से ही हमें वास्तव में यह पता चलता है कि कोई पुस्तक लुप्त नहीं हो जाती। (उदाहरणार्थ, वह भाप बन कर शनै: शनै: उड़ नहीं जाती।) किन्तु क्या पुस्तकों इत्यादि के इस अनुभव के कारण हम यह मान लेते हैं कि पुस्तक लुप्त नहीं हुई है? क्या हमें अपनी प्राक्कल्पना को बदल नहीं देना चाहिए? क्या हम प्राक्कल्पना-प्रणाली पर पड़े अपने अनुभव के प्रभाव को झुठला सकते हैं?


{{ParUG|135}} क्या हम सदैव इस (या ऐसे) सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करते कि जो हमेशा से होता चला आया है वह पुनः घटित होगा? इस सिद्धान्त के अनुसरण का क्या अभिप्राय है? क्या हम इसे अपनी युक्तियों में शामिल करते हैं? या फिर, क्या यह कोई ऐसा ''प्राकृतिक नियम'' है जिसका अनुमान-प्रक्रिया सहज ही पालन करती है? यह तो सम्भव है। यह हमारे विचार का विषय नहीं है।
{{ParUG|135}} क्या हम सदैव इस (या ऐसे) सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करते कि जो हमेशा से होता चला आया है वह पुनः घटित होगा? इस सिद्धान्त के अनुसरण का क्या अभिप्राय है? क्या हम इसे अपनी युक्तियों में शामिल करते हैं? या फिर, क्या यह कोई ऐसा ''प्राकृतिक नियम'' है जिसका अनुमान-प्रक्रिया सहज ही पालन करती है? यह तो सम्भव है। यह हमारे विचार का विषय नहीं है।
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{{ParUG|138}} उदाहरणार्थ, हमें अन्वेषण से उनमें से किसी का भी पता नहीं चलता।
{{ParUG|138}} उदाहरणार्थ, हमें अन्वेषण से उनमें से किसी का भी पता नहीं चलता।


पृथ्वी के उद्भव, उसकी आकृति और उसके इतिहास संबंधी अन्वेषण तो किए जाते हैं किन्तु इस बात का कोई अन्वेषण नहीं होता कि पृथ्वी का अस्तित्व पिछले सौ सालों से है। इस काल की जानकारी हमें अपने माता-पिता या अपने दादा-दादी से मिलती है; किन्तु क्या वे भूल नहीं कर सकते? “बकवास!” हम कहेंगे। “ये सभी कैसे त्रुटि कर सकते हैं?” किन्तु यह कौनसी युक्ति हुई? क्या यह विचार की ही अस्वीकृति नहीं है? और संभवत: किसी प्रत्यय के निर्धारण की भी? क्योंकि यहाँ किसी संभावित भूल का उल्लेख करने पर हमारे जीवन में “भूल” और “सत्य” प्रत्ययों की भूमिका भी बदल जाती है।
पृथ्वी के उद्भव, उसकी आकृति और उसके इतिहास संबंधी अन्वेषण तो किए जाते हैं किन्तु इस बात का कोई अन्वेषण नहीं होता कि पृथ्वी का अस्तित्व पिछले सौ सालों से है। इस काल की जानकारी हमें अपने माता-पिता या अपने दादा-दादी से मिलती है; किन्तु क्या वे भूल नहीं कर सकते? “बकवास!” हम कहेंगे। “ये सभी कैसे त्रुटि कर सकते हैं?” किन्तु यह कौनसी युक्ति हुई? क्या यह विचार की ही अस्वीकृति नहीं है? और संभवत: किसी प्रत्यय के निर्धारण की भी? क्योंकि यहाँ किसी संभावित भूल का उल्लेख करने पर हमारे जीवन में “भूल” और “सत्य” प्रत्ययों की भूमिका भी बदल जाती है।


{{ParUG|139}} किसी परिपाटी की स्थापना के लिए नियमों के साथ-साथ उदाहरणों की भी आवश्यकता होती है। हमारे नियमों से कई बातें छूट जाती हैं, परिपाटी को ही उन्हें पूरा करना पड़ता है।
{{ParUG|139}} किसी परिपाटी की स्थापना के लिए नियमों के साथ-साथ उदाहरणों की भी आवश्यकता होती है। हमारे नियमों से कई बातें छूट जाती हैं, परिपाटी को ही उन्हें पूरा करना पड़ता है।
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{{ParUG|146}} आकाश में पृथ्वी का एक तैरता हुआ गेंद जैसा हमारा ''चित्र'' विगत सौ सालों में भी नहीं बदला है। मैंने कहा “हमारे द्वारा निर्मित पृथ्वी का चित्र इत्यादि” और अब यह चित्र अनेक समस्याओं के समाधान में हमारी सहायता करता है।
{{ParUG|146}} आकाश में पृथ्वी का एक तैरता हुआ गेंद जैसा हमारा ''चित्र'' विगत सौ सालों में भी नहीं बदला है। मैंने कहा “हमारे द्वारा निर्मित पृथ्वी का चित्र इत्यादि” और अब यह चित्र अनेक समस्याओं के समाधान में हमारी सहायता करता है।


किसी पुल की लम्बाई-चौड़ाई-ऊँचाई के बारे में मैं हिसाब कर सकता हूँ, कभी-कभी यह भी हिसाब लगा सकता हूँ कि यहाँ पर पुल बनाना नाव चलाने से बेहतर होगा इत्यादि, इत्यादि किन्तु कहीं न कहीं तो मुझे किसी प्राक्कल्पना या किसी निर्णय से आरंभ करना होगा।
किसी पुल की लम्बाई-चौड़ाई-ऊँचाई के बारे में मैं हिसाब कर सकता हूँ, कभी-कभी यह भी हिसाब लगा सकता हूँ कि यहाँ पर पुल बनाना नाव चलाने से बेहतर होगा इत्यादि, इत्यादि किन्तु कहीं न कहीं तो मुझे किसी प्राक्कल्पना या किसी निर्णय से आरंभ करना होगा।


{{ParUG|147}} गेंद के समान पृथ्वी का चित्र एक अच्छा चित्र है, यह सभी जगह मान्य है, यह एक सरल चित्र भी है संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस चित्र का असंदिग्ध रूप से उपयोग किया जा सकता है।
{{ParUG|147}} गेंद के समान पृथ्वी का चित्र एक अच्छा चित्र है, यह सभी जगह मान्य है, यह एक सरल चित्र भी है संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस चित्र का असंदिग्ध रूप से उपयोग किया जा सकता है।


{{ParUG|148}} कुर्सी छोड़ने से पहले मैं अपने दो पैरों के अस्तित्व के बारे में अपने-आपको आश्वस्त क्यों नहीं करता? यहाँ क्यों का प्रश्न ही नहीं है? मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करता। मैं इसी प्रकार व्यवहार करता हूँ।
{{ParUG|148}} कुर्सी छोड़ने से पहले मैं अपने दो पैरों के अस्तित्व के बारे में अपने-आपको आश्वस्त क्यों नहीं करता? यहाँ क्यों का प्रश्न ही नहीं है? मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करता। मैं इसी प्रकार व्यवहार करता हूँ।
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{{ParUG|167}} यह तो स्पष्ट है कि सभी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियां एक जैसी नहीं होतीं क्योंकि कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति हो सकती है जिसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति से विवरण देने के प्रतिमान में बदला जा सके।
{{ParUG|167}} यह तो स्पष्ट है कि सभी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियां एक जैसी नहीं होतीं क्योंकि कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति हो सकती है जिसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति से विवरण देने के प्रतिमान में बदला जा सके।


रासायनिक अनुसंधान पर विचार करें। लेवोइसियर अपनी अनुसंधानशाला में पदार्थ-प्रयोग द्वारा इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि जलने पर अमुक प्रतिक्रिया होती है। वे यह नहीं कहते कि किसी अन्य समय पर इससे उलट भी हो सकता है। उनके मन में संसार का एक विशिष्ट चित्र है यह चित्र उनकी खोज का परिणाम नहीं है: उन्होंने उस चित्र को शैशवावस्था से सीखा है। मैं यहाँ संसार के चित्र का उल्लेख कर रहा हूँ न कि प्राक्कल्पना का, क्योंकि यह उनके अनुसंधान का ''सहज'' आधार है और इसीलिए इसका उल्लेख भी नहीं होता।
रासायनिक अनुसंधान पर विचार करें। लेवोइसियर अपनी अनुसंधानशाला में पदार्थ-प्रयोग द्वारा इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि जलने पर अमुक प्रतिक्रिया होती है। वे यह नहीं कहते कि किसी अन्य समय पर इससे उलट भी हो सकता है। उनके मन में संसार का एक विशिष्ट चित्र है यह चित्र उनकी खोज का परिणाम नहीं है: उन्होंने उस चित्र को शैशवावस्था से सीखा है। मैं यहाँ संसार के चित्र का उल्लेख कर रहा हूँ न कि प्राक्कल्पना का, क्योंकि यह उनके अनुसंधान का ''सहज'' आधार है और इसीलिए इसका उल्लेख भी नहीं होता।


{{ParUG|168}} किन्तु समान परिस्थितियों में पदार्थ क, पदार्थ ख से सदैव एक सी प्रतिक्रिया करता है, इस प्राक्कल्पना की अब क्या भूमिका है? या फिर, क्या यह पदार्थ की परिभाषा का ही अंग है?
{{ParUG|168}} किन्तु समान परिस्थितियों में पदार्थ क, पदार्थ ख से सदैव एक सी प्रतिक्रिया करता है, इस प्राक्कल्पना की अब क्या भूमिका है? या फिर, क्या यह पदार्थ की परिभाषा का ही अंग है?
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{{ParUG|173}} किसी बात पर विश्वास या अटूट विश्वास क्या मेरे बस में है?
{{ParUG|173}} किसी बात पर विश्वास या अटूट विश्वास क्या मेरे बस में है?


मेरा विश्वास है कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है? क्या मैं भूल नहीं कर सकता? किन्तु क्या मैं अपनी भूल स्वीकार कर सकता हूँ? या फिर क्या मैं अपने द्वारा भूल किये जाने के बारे में सोच भी सकता हूँ? और क्या बाद का शिक्षण मेरे विश्वास को डिगा सकता है?! तो क्या मेरे विश्वास का कोई ''आधार'' है?
मेरा विश्वास है कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है? क्या मैं भूल नहीं कर सकता? किन्तु क्या मैं अपनी भूल स्वीकार कर सकता हूँ? या फिर क्या मैं अपने द्वारा भूल किये जाने के बारे में सोच भी सकता हूँ? और क्या बाद का शिक्षण मेरे विश्वास को डिगा सकता है?! तो क्या मेरे विश्वास का कोई ''आधार'' है?


{{ParUG|174}} मैं ''पूरी'' निश्चितता के साथ कार्य करता हूँ। किन्तु यह मेरी अपनी निश्चितता है।
{{ParUG|174}} मैं ''पूरी'' निश्चितता के साथ कार्य करता हूँ। किन्तु यह मेरी अपनी निश्चितता है।
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{{ParUG|175}} मैं किसी को कहता हूँ “मैं इसे जानता हूँ”; और ऐसा कहने का कोई औचित्य है। किन्तु मेरे विश्वास का कोई औचित्य नहीं होता।
{{ParUG|175}} मैं किसी को कहता हूँ “मैं इसे जानता हूँ”; और ऐसा कहने का कोई औचित्य है। किन्तु मेरे विश्वास का कोई औचित्य नहीं होता।


{{ParUG|176}} कुछ स्थितियों में “मैं इसे जानता हूँ” कहने के बजाय “यह ऐसा ही है इस पर विश्वास करो” कहा जा सकता है। कुछ स्थितियों में बेशक यह कहा जा सकता है “बहुत सालों पहले मैंने इसे सीखा था “; और कभी-कभी यह भी कहा जा सकता है: “मैं इस विषय में आश्वस्त हूँ।”
{{ParUG|176}} कुछ स्थितियों में “मैं इसे जानता हूँ” कहने के बजाय “यह ऐसा ही है इस पर विश्वास करो” कहा जा सकता है। कुछ स्थितियों में बेशक यह कहा जा सकता है “बहुत सालों पहले मैंने इसे सीखा था “; और कभी-कभी यह भी कहा जा सकता है: “मैं इस विषय में आश्वस्त हूँ।”


{{ParUG|177}} मैं जो जानता हूँ, उस पर विश्वास भी करता हूँ।
{{ParUG|177}} मैं जो जानता हूँ, उस पर विश्वास भी करता हूँ।
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{{ParUG|181}} मान लीजिए कि मूअर “मैं जानता हूँ कि.....” कहने के बजाय “मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि.....” कहते।
{{ParUG|181}} मान लीजिए कि मूअर “मैं जानता हूँ कि.....” कहने के बजाय “मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि.....” कहते।


{{ParUG|182}} इससे भी कच्ची बात तो यह है कि पृथ्वी ''अनादि'' है। किसी भी बालक को यह पूछने का अधिकार नहीं है कि पृथ्वी का अस्तित्व कब से है, क्योंकि सब कुछ तो उसी ''पर'' घटित होता है। यदि पृथ्वी नामक ग्रह का किसी समय कल्पनातीत समय उद्भव हुआ हो तो इसके उद्भव-काल को कल्पनातीत मानना होगा।
{{ParUG|182}} इससे भी कच्ची बात तो यह है कि पृथ्वी ''अनादि'' है। किसी भी बालक को यह पूछने का अधिकार नहीं है कि पृथ्वी का अस्तित्व कब से है, क्योंकि सब कुछ तो उसी ''पर'' घटित होता है। यदि पृथ्वी नामक ग्रह का किसी समय कल्पनातीत समय उद्भव हुआ हो तो इसके उद्भव-काल को कल्पनातीत मानना होगा।


{{ParUG|183}} “यह सुनिश्चित है कि ऑस्ट्रलित्ज़ के युद्ध के बाद नेपोलियन.....। तो यह भी सुनिश्चित ही है कि उस समय पृथ्वी का अस्तित्व था।”
{{ParUG|183}} “यह सुनिश्चित है कि ऑस्ट्रलित्ज़ के युद्ध के बाद नेपोलियन.....। तो यह भी सुनिश्चित ही है कि उस समय पृथ्वी का अस्तित्व था।”
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{{ParUG|186}} मैं यह मान सकता हूँ कि नेपोलियन का कभी अस्तित्व ही नहीं था यह एक कपोल-कल्पना है, किन्तु यह नहीं मान सकता कि 150 वर्ष पूर्व ''पृथ्वी'' का अस्तित्व ही न था।
{{ParUG|186}} मैं यह मान सकता हूँ कि नेपोलियन का कभी अस्तित्व ही नहीं था यह एक कपोल-कल्पना है, किन्तु यह नहीं मान सकता कि 150 वर्ष पूर्व ''पृथ्वी'' का अस्तित्व ही न था।


{{ParUG|187}} “क्या आप ''जानते'' हैं कि तब भी पृथ्वी का अस्तित्व था?” “बेशक, मैं जाता हूँ। मुझे यह जानकारी ऐसे व्यक्ति से मिली है जो इस बारे में पूरी तरह जानता है।”
{{ParUG|187}} “क्या आप ''जानते'' हैं कि तब भी पृथ्वी का अस्तित्व था?” “बेशक, मैं जाता हूँ। मुझे यह जानकारी ऐसे व्यक्ति से मिली है जो इस बारे में पूरी तरह जानता है।”


{{ParUG|188}} मुझे लगता है कि उस समय पृथ्वी के अस्तित्व पर शंका करने वाला व्यक्ति संपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण को नकारता है। और मैं इस प्रमाण को पूर्णतः ''ठीक'' नहीं कह सकता।
{{ParUG|188}} मुझे लगता है कि उस समय पृथ्वी के अस्तित्व पर शंका करने वाला व्यक्ति संपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण को नकारता है। और मैं इस प्रमाण को पूर्णतः ''ठीक'' नहीं कह सकता।
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{{ParUG|189}} कभी तो व्याख्या से वर्णन मात्र पर पहुँचना पड़ता है।
{{ParUG|189}} कभी तो व्याख्या से वर्णन मात्र पर पहुँचना पड़ता है।


{{ParUG|190}} जिसे हम ऐतिहासिक साक्ष्य कहते हैं वह बतलाता है कि मेरे जन्म के बहुत पहले से ही पृथ्वी का अस्तित्व है; विपरीत-कल्पना के समर्थन में ''कुछ भी नहीं'' है।
{{ParUG|190}} जिसे हम ऐतिहासिक साक्ष्य कहते हैं वह बतलाता है कि मेरे जन्म के बहुत पहले से ही पृथ्वी का अस्तित्व है; विपरीत-कल्पना के समर्थन में ''कुछ भी नहीं'' है।


{{ParUG|191}} यदि सभी कुछ किसी प्राक्कल्पना के पक्ष में हो और विपक्ष में कुछ भी न कहा जाए तो क्या वह निश्चित रूप से सत्य होती है? उसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है। किन्तु क्या वह निश्चित रूप से यथार्थ के, तथ्यों के अनुरूप होती है? इस प्रश्न को पूछते ही आप एक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं।
{{ParUG|191}} यदि सभी कुछ किसी प्राक्कल्पना के पक्ष में हो और विपक्ष में कुछ भी न कहा जाए तो क्या वह निश्चित रूप से सत्य होती है? उसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है। किन्तु क्या वह निश्चित रूप से यथार्थ के, तथ्यों के अनुरूप होती है? इस प्रश्न को पूछते ही आप एक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं।


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यह अनुरूपता इन भाषा खेलों में हमारी प्रतिज्ञप्ति के पक्ष में दिए गए साक्ष्य के अलावा और किसमें निहित है? (''ट्रैक्टेटस लॉजिको फ़िलॉसॉफ़िक्स'')
यह अनुरूपता इन भाषा खेलों में हमारी प्रतिज्ञप्ति के पक्ष में दिए गए साक्ष्य के अलावा और किसमें निहित है? (''ट्रैक्टेटस लॉजिको फ़िलॉसॉफ़िक्स'')


{{ParUG|204}} वस्तुत: साक्ष्य के औचित्य देने की एक सीमा होती है; किन्तु इस सीमा का प्रतिफलन उन सुनिश्चित वाक्यों में नहीं होता जो हमें अपरोक्ष रूप से सत्य जान पड़ते हैं, यानी, यह हमारे लिए कोई ''सोचने-समझने'' की बात नहीं है; यह तो ऐसे व्यवहार की बात है जो भाषा-खेल का आधार है।
{{ParUG|204}} वस्तुत: साक्ष्य के औचित्य देने की एक सीमा होती है; किन्तु इस सीमा का प्रतिफलन उन सुनिश्चित वाक्यों में नहीं होता जो हमें अपरोक्ष रूप से सत्य जान पड़ते हैं, यानी, यह हमारे लिए कोई ''सोचने-समझने'' की बात नहीं है; यह तो ऐसे व्यवहार की बात है जो भाषा-खेल का आधार है।


{{ParUG|205}} यदि सत्य का कोई आधार होता है तो वह आधार न तो सत्य होता है न असत्य।
{{ParUG|205}} यदि सत्य का कोई आधार होता है तो वह आधार न तो सत्य होता है न असत्य।
Line 517: Line 517:
{{ParUG|218}} क्या मैं क्षण भर के लिए भी यह मान सकता हूँ कि मैं स्ट्रैटोस्फीयर (समताप-मण्डल) में रहा हूँ? नहीं। तो क्या मूअर की तरह मैं इससे उलट जान सकता हूँ?
{{ParUG|218}} क्या मैं क्षण भर के लिए भी यह मान सकता हूँ कि मैं स्ट्रैटोस्फीयर (समताप-मण्डल) में रहा हूँ? नहीं। तो क्या मूअर की तरह मैं इससे उलट जान सकता हूँ?


{{ParUG|219}} समझदार व्यक्ति के समान मुझे इसके बारे में कोई संशय नहीं है। बस यही तो।
{{ParUG|219}} समझदार व्यक्ति के समान मुझे इसके बारे में कोई संशय नहीं है। बस यही तो।


{{ParUG|220}} समझदार व्यक्ति कुछ बातों पर संशय ''नहीं करता''।
{{ParUG|220}} समझदार व्यक्ति कुछ बातों पर संशय ''नहीं करता''।
Line 567: Line 567:
{{ParUG|237}} जब मैं कहता हूँ कि “एक घंटे पहले यह मेज़ नहीं थी” तो मेरा यह तात्पर्य होता है कि संभवत: यह बाद में निर्मित हुई हो।
{{ParUG|237}} जब मैं कहता हूँ कि “एक घंटे पहले यह मेज़ नहीं थी” तो मेरा यह तात्पर्य होता है कि संभवत: यह बाद में निर्मित हुई हो।


जब मैं कहता हूँ कि “पहले यहाँ यह पर्वत नहीं था” तो संभवतः मेरा तात्पर्य होता है कि वह बाद में शायद किसी ज्वालामुखी के द्वारा अस्तित्व में आया है।
जब मैं कहता हूँ कि “पहले यहाँ यह पर्वत नहीं था” तो संभवतः मेरा तात्पर्य होता है कि वह बाद में शायद किसी ज्वालामुखी के द्वारा अस्तित्व में आया है।


जब मैं कहता हूँ कि “आधा घंटा पहले यह पर्वत नहीं था” तो इस अटपटे कथन से पता ही नहीं चलता कि मेरा तात्पर्य क्या है। उदाहरणार्थ कहीं मैं कोई असत्य किन्तु वैज्ञानिक बात तो नहीं कर रहा। संभवतः आपको लगे कि ‘यह पर्वत तब तो नहीं था’ कथन सुस्पष्ट है, हालाँकि आपको इसके संदर्भ की कल्पना करनी पड़ती है। किन्तु कल्पना कीजिए कि कोई कहे “क्षण भर पहले यह पर्वत नहीं था अपितु उस समय बिल्कुल ऐसा ही पर्वत मौजूद था”। सुपरिचित संदर्भ से ही तात्पर्य का पता चलेगा।
जब मैं कहता हूँ कि “आधा घंटा पहले यह पर्वत नहीं था” तो इस अटपटे कथन से पता ही नहीं चलता कि मेरा तात्पर्य क्या है। उदाहरणार्थ कहीं मैं कोई असत्य किन्तु वैज्ञानिक बात तो नहीं कर रहा। संभवतः आपको लगे कि ‘यह पर्वत तब तो नहीं था’ कथन सुस्पष्ट है, हालाँकि आपको इसके संदर्भ की कल्पना करनी पड़ती है। किन्तु कल्पना कीजिए कि कोई कहे “क्षण भर पहले यह पर्वत नहीं था अपितु उस समय बिल्कुल ऐसा ही पर्वत मौजूद था”। सुपरिचित संदर्भ से ही तात्पर्य का पता चलेगा।
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{{ParUG|245}} कोई किसे कहता है कि वह कुछ जानता है? अपने आप को या किसी और को। यदि हम अपने आप को यह बताते हैं तो हम वस्तुस्थिति के बारे में ''सुनिश्चित'' हैं, इस कथन से उसका भेद कैसे होगा? मैं किसी बात को जानता हूँ, इसके बारे में कोई मनोगत निश्चितता नहीं होती। आश्वासन मनोगत होता है किन्तु ज्ञान मनोगत नहीं होता। अतः जब मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ कि मेरे दो हाथ हैं” और ऐसा कहते समय अपनी मनोगत निश्चितता को अभिव्यक्त नहीं करता, तब अपने कथन का औचित्य सिद्ध करना होगा। किन्तु मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अपने दो हाथों के अस्तित्व के बारे में मैं उन्हें देखने से पहले, या देखने के बाद बराबर सुनिश्चित होता हूँ। किन्तु मैं कह सकता हूँ: “मेरा अटूट विश्वास है कि मेरे दो हाथ हैं।” इससे यह पता चलता है कि मैं इस प्रतिज्ञप्ति के विरुद्ध किसी भी बात को प्रमाण नहीं मानता।
{{ParUG|245}} कोई किसे कहता है कि वह कुछ जानता है? अपने आप को या किसी और को। यदि हम अपने आप को यह बताते हैं तो हम वस्तुस्थिति के बारे में ''सुनिश्चित'' हैं, इस कथन से उसका भेद कैसे होगा? मैं किसी बात को जानता हूँ, इसके बारे में कोई मनोगत निश्चितता नहीं होती। आश्वासन मनोगत होता है किन्तु ज्ञान मनोगत नहीं होता। अतः जब मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ कि मेरे दो हाथ हैं” और ऐसा कहते समय अपनी मनोगत निश्चितता को अभिव्यक्त नहीं करता, तब अपने कथन का औचित्य सिद्ध करना होगा। किन्तु मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अपने दो हाथों के अस्तित्व के बारे में मैं उन्हें देखने से पहले, या देखने के बाद बराबर सुनिश्चित होता हूँ। किन्तु मैं कह सकता हूँ: “मेरा अटूट विश्वास है कि मेरे दो हाथ हैं।” इससे यह पता चलता है कि मैं इस प्रतिज्ञप्ति के विरुद्ध किसी भी बात को प्रमाण नहीं मानता।


{{ParUG|246}} “अब मैं अपने समस्त विश्वासों के मूल पर पहुँच गया हूँ।” “मैं इस स्थिति पर दृढ़ रहूँगा!” किन्तु मेरा दृढ़ रहना क्या केवल इसलिए नहीं है कि मैं इसका ''कायल'' हूँ। ‘पूरी तरह कायल होना’ क्या होता है?
{{ParUG|246}} “अब मैं अपने समस्त विश्वासों के मूल पर पहुँच गया हूँ।” “मैं इस स्थिति पर दृढ़ रहूँगा!” किन्तु मेरा दृढ़ रहना क्या केवल इसलिए नहीं है कि मैं इसका ''कायल'' हूँ। ‘पूरी तरह कायल होना’ क्या होता है?


{{ParUG|247}} अभी अपने दोनों हाथों के अस्तित्व पर संशय करना कैसा होगा? मैं इसकी कल्पना भी क्यों नहीं कर सकता? यदि मैं अपने हाथों के अस्तित्व में विश्वास नहीं करूँ तो मैं किस बात पर विश्वास कर सकता हूँ? अब तक मेरे पास ऐसी कोई प्रणाली नहीं है जिसमें ऐसे संशय को अवकाश मिले।
{{ParUG|247}} अभी अपने दोनों हाथों के अस्तित्व पर संशय करना कैसा होगा? मैं इसकी कल्पना भी क्यों नहीं कर सकता? यदि मैं अपने हाथों के अस्तित्व में विश्वास नहीं करूँ तो मैं किस बात पर विश्वास कर सकता हूँ? अब तक मेरे पास ऐसी कोई प्रणाली नहीं है जिसमें ऐसे संशय को अवकाश मिले।
Line 629: Line 629:
{{ParUG|261}} फिलहाल, मैं पृथ्वी के सौ वर्ष पूर्व के अस्तित्व विषयक किसी तार्किक संशय की कल्पना भी नहीं कर सकता।
{{ParUG|261}} फिलहाल, मैं पृथ्वी के सौ वर्ष पूर्व के अस्तित्व विषयक किसी तार्किक संशय की कल्पना भी नहीं कर सकता।


{{ParUG|262}} मैं ऐसे व्यक्ति के अस्तित्व की कल्पना कर सकता हूँ जिसका लालन-पालन विशिष्ट परिस्थितियों में किया गया हो और जिसे यह सिखाया गया हो कि पृथ्वी पचास वर्ष पहले ही अस्तित्व में आई है और इसीलिए वह इस पर विश्वास करता हो। हम उसे बता सकते हैं: पृथ्वी तो बहुत पहले.... इत्यादि। तब हम उसे अपने संसार विषयक चित्र का वर्णन देते हैं।
{{ParUG|262}} मैं ऐसे व्यक्ति के अस्तित्व की कल्पना कर सकता हूँ जिसका लालन-पालन विशिष्ट परिस्थितियों में किया गया हो और जिसे यह सिखाया गया हो कि पृथ्वी पचास वर्ष पहले ही अस्तित्व में आई है और इसीलिए वह इस पर विश्वास करता हो। हम उसे बता सकते हैं: पृथ्वी तो बहुत पहले.... इत्यादि। तब हम उसे अपने संसार विषयक चित्र का वर्णन देते हैं।


''समझा-बुझा'' कर ऐसा किया जा सकेगा।
''समझा-बुझा'' कर ऐसा किया जा सकेगा।
Line 643: Line 643:
{{ParUG|267}} “मुझे पेड़ का चाक्षुष-प्रत्यक्ष मात्र नहीं होता: मैं ''जानता'' हूँ कि यह पेड़ है।”
{{ParUG|267}} “मुझे पेड़ का चाक्षुष-प्रत्यक्ष मात्र नहीं होता: मैं ''जानता'' हूँ कि यह पेड़ है।”


{{ParUG|268}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है।” पर हाथ किसे कहते हैं? “उदाहरणार्थ, ''इसे''।”
{{ParUG|268}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है।” पर हाथ किसे कहते हैं? “उदाहरणार्थ, ''इसे''।”


{{ParUG|269}} क्या चाँद पर अपने कभी भी न जाने के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त हूँ जितना कि अपने बलगारिया न जाने के बारे में। मैं इतना आश्वस्त क्यों हूँ? क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी उसके आस-पास के क्षेत्र उदाहरणार्थ, बाल्कन्स में भी कभी नहीं गया।
{{ParUG|269}} क्या चाँद पर अपने कभी भी न जाने के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त हूँ जितना कि अपने बलगारिया न जाने के बारे में। मैं इतना आश्वस्त क्यों हूँ? क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी उसके आस-पास के क्षेत्र उदाहरणार्थ, बाल्कन्स में भी कभी नहीं गया।


{{ParUG|270}} “अपनी निश्चितता के मेरे पास सशक्त आधार हैं।” इन्हीं आधारों के कारण निश्चितता वस्तुनिष्ठ होती है।
{{ParUG|270}} “अपनी निश्चितता के मेरे पास सशक्त आधार हैं।” इन्हीं आधारों के कारण निश्चितता वस्तुनिष्ठ होती है।
Line 683: Line 683:
{{ParUG|280}} इसको देखने और उसको सुनने के बाद वह.... पर शंका करने की स्थिति में नहीं रह जाता।
{{ParUG|280}} इसको देखने और उसको सुनने के बाद वह.... पर शंका करने की स्थिति में नहीं रह जाता।


{{ParUG|281}} ''मैं'', लु. वि. विश्वास करता हूँ, मुझे पक्का भरोसा है, कि मेरे मित्र के शरीर में या फिर उसके मस्तिष्क में भूसा नहीं भरा है यद्यपि इससे उलट के बारे में मेरे पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। जो कुछ भी मुझे बताया गया है, जो कुछ भी मैंने पढ़ा है उसके और अपने अनुभवों के कारण ही मैं निश्चिन्त हूँ। इस पर शंका करना मुझे पागलपन लगता है बेशक यह दूसरों के मत से भी मेल खाता है; किन्तु ''मैं'' उनसे सहमत हूँ।
{{ParUG|281}} ''मैं'', लु. वि. विश्वास करता हूँ, मुझे पक्का भरोसा है, कि मेरे मित्र के शरीर में या फिर उसके मस्तिष्क में भूसा नहीं भरा है यद्यपि इससे उलट के बारे में मेरे पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। जो कुछ भी मुझे बताया गया है, जो कुछ भी मैंने पढ़ा है उसके और अपने अनुभवों के कारण ही मैं निश्चिन्त हूँ। इस पर शंका करना मुझे पागलपन लगता है बेशक यह दूसरों के मत से भी मेल खाता है; किन्तु ''मैं'' उनसे सहमत हूँ।


{{ParUG|282}} बिल्लियों के पेड़ों से पैदा न होने, या फिर अपने माता-पिता के अस्तित्व के बारे में अपने विश्वास का मेरा कोई ठोस आधार नहीं है।
{{ParUG|282}} बिल्लियों के पेड़ों से पैदा न होने, या फिर अपने माता-पिता के अस्तित्व के बारे में अपने विश्वास का मेरा कोई ठोस आधार नहीं है।
Line 697: Line 697:
{{ParUG|285}} जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को किसी विशिष्ट स्थान पर खोजता है तो इससे पता चलता है कि उसे उस वस्तु के विशिष्ट स्थान के आस-पास होने का भरोसा है।
{{ParUG|285}} जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को किसी विशिष्ट स्थान पर खोजता है तो इससे पता चलता है कि उसे उस वस्तु के विशिष्ट स्थान के आस-पास होने का भरोसा है।


{{ParUG|286}} हमारे विश्वास का आधार वह है जो हम सीखते हैं। हमारा विश्वास है कि चाँद पर जाना संभव नहीं है; किन्तु ऐसे लोग भी हो सकते हैं जिनका विश्वास है कि चाँद पर जाया जा सकता है और कभी-कभी ऐसा होता भी है: हम कहते हैं इन लोगों को ऐसी कई बातों का ज्ञान नहीं है जिनका ज्ञान हमें है। और उन्हें अपने विश्वास पर इतना भरोसा नहीं होना चाहिए वे त्रुटि पर हैं और हम यह जानते हैं।
{{ParUG|286}} हमारे विश्वास का आधार वह है जो हम सीखते हैं। हमारा विश्वास है कि चाँद पर जाना संभव नहीं है; किन्तु ऐसे लोग भी हो सकते हैं जिनका विश्वास है कि चाँद पर जाया जा सकता है और कभी-कभी ऐसा होता भी है: हम कहते हैं इन लोगों को ऐसी कई बातों का ज्ञान नहीं है जिनका ज्ञान हमें है। और उन्हें अपने विश्वास पर इतना भरोसा नहीं होना चाहिए वे त्रुटि पर हैं और हम यह जानते हैं।


और उनकी ज्ञान-प्रणाली के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि उनकी ज्ञान-प्रणाली हमसे कहीं निम्न स्तर की है।
और उनकी ज्ञान-प्रणाली के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि उनकी ज्ञान-प्रणाली हमसे कहीं निम्न स्तर की है।
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{{ParUG|291}} हम जानते हैं कि पृथ्वी गोल है। हमने भली-भांति पता लगा लिया है कि वह गोल हैं।
{{ParUG|291}} हम जानते हैं कि पृथ्वी गोल है। हमने भली-भांति पता लगा लिया है कि वह गोल हैं।


अपनी इस मान्यता पर हम तब तक टिके रहेंगे जब तक प्रकृति को समझने का हमारा दृष्टिकोण पूर्णत: बदल नहीं जाता। “आप यह कैसे जानते हैं?” यह मेरा विश्वास है।
अपनी इस मान्यता पर हम तब तक टिके रहेंगे जब तक प्रकृति को समझने का हमारा दृष्टिकोण पूर्णत: बदल नहीं जाता। “आप यह कैसे जानते हैं?” यह मेरा विश्वास है।


{{ParUG|292}} भावी-प्रयोग हमारे पूर्व-प्रयोगों को ''झुठला'' नहीं सकते, अधिकाधिक वे हमारी समझ के तौर-तरीकों में परिवर्तन ला सकते हैं।
{{ParUG|292}} भावी-प्रयोग हमारे पूर्व-प्रयोगों को ''झुठला'' नहीं सकते, अधिकाधिक वे हमारी समझ के तौर-तरीकों में परिवर्तन ला सकते हैं।
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{{ParUG|300}} हमारे विचारों के सभी संशोधनों का स्तर एक जैसा नहीं होता।
{{ParUG|300}} हमारे विचारों के सभी संशोधनों का स्तर एक जैसा नहीं होता।


{{ParUG|301}} मान लीजिए कि यह सत्य न होता कि पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से बहुत पहले से है तो इस भूल का हमें पता भी कैसे चलता?
{{ParUG|301}} मान लीजिए कि यह सत्य न होता कि पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से बहुत पहले से है तो इस भूल का हमें पता भी कैसे चलता?


{{ParUG|302}} यह कहने से कोई लाभ नहीं होगा कि “संभवतः हम भूल कर रहे हैं” क्योंकि, किसी ''अन्य प्रमाण'' के विश्वसनीय ''न'' होने पर, वर्तमान प्रमाण का भी औचित्य नहीं रहता।
{{ParUG|302}} यह कहने से कोई लाभ नहीं होगा कि “संभवतः हम भूल कर रहे हैं” क्योंकि, किसी ''अन्य प्रमाण'' के विश्वसनीय ''न'' होने पर, वर्तमान प्रमाण का भी औचित्य नहीं रहता।
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{{ParUG|305}} यहाँ ''भी'' एक ऐसे चरण की आवश्यकता है जैसा कि सापेक्षता सिद्धान्त में लेना पड़ता है।
{{ParUG|305}} यहाँ ''भी'' एक ऐसे चरण की आवश्यकता है जैसा कि सापेक्षता सिद्धान्त में लेना पड़ता है।


{{ParUG|306}} “मैं नहीं जानता कि यह हाथ है।” किन्तु क्या आप “हाथ” शब्द का अर्थ जानते हैं? यह न कहें “मैं जानता हूँ कि अब मेरे लिए इसका क्या अर्थ है।” और क्या यह आनुभविक तथ्य नहीं है कि ''यह'' शब्द ''इस'' प्रकार प्रयुक्त होता है?
{{ParUG|306}} “मैं नहीं जानता कि यह हाथ है।” किन्तु क्या आप “हाथ” शब्द का अर्थ जानते हैं? यह न कहें “मैं जानता हूँ कि अब मेरे लिए इसका क्या अर्थ है।” और क्या यह आनुभविक तथ्य नहीं है कि ''यह'' शब्द ''इस'' प्रकार प्रयुक्त होता है?


{{ParUG|307}} विचित्र बात यह है कि जब मैं शब्द-प्रयोग के बारे में पूर्णतः आश्वस्त रहता हूँ, कोई शंका नहीं रखता, तो भी मैं अपने शब्द-प्रयोग का कोई आधार नहीं दे पाता। प्रयास करने पर मैं हजारों ''आधार'' दे सकता हूँ किन्तु उनमें से कोई भी उस विषयवस्तु जितने सुनिश्चित नहीं होंगे जिसके वे आधार हैं।
{{ParUG|307}} विचित्र बात यह है कि जब मैं शब्द-प्रयोग के बारे में पूर्णतः आश्वस्त रहता हूँ, कोई शंका नहीं रखता, तो भी मैं अपने शब्द-प्रयोग का कोई आधार नहीं दे पाता। प्रयास करने पर मैं हजारों ''आधार'' दे सकता हूँ किन्तु उनमें से कोई भी उस विषयवस्तु जितने सुनिश्चित नहीं होंगे जिसके वे आधार हैं।
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{{ParUG|310}} एक विद्यार्थी और एक अध्यापक। शिष्य किसी भी बात की व्याख्या नहीं करने देता क्योंकि वह निरंतर शब्दों के अर्थ, वस्तुओं के अस्तित्व के बारे में संशय करता है और टोकता जाता है। अध्यापक कहता है “टोको मत और मेरे कहे अनुसार कार्य करो। इस समय तुम्हारे संशयों का कोई अर्थ ही नहीं है।”
{{ParUG|310}} एक विद्यार्थी और एक अध्यापक। शिष्य किसी भी बात की व्याख्या नहीं करने देता क्योंकि वह निरंतर शब्दों के अर्थ, वस्तुओं के अस्तित्व के बारे में संशय करता है और टोकता जाता है। अध्यापक कहता है “टोको मत और मेरे कहे अनुसार कार्य करो। इस समय तुम्हारे संशयों का कोई अर्थ ही नहीं है।”


{{ParUG|311}} और कल्पना कीजिए कि विद्यार्थी ऐतिहासिक तथ्यों की सत्यता पर (उनसे जुड़ी सभी बातों पर) और पृथ्वी के सौ वर्ष पूर्व के अस्तित्व पर भी शंका करे।
{{ParUG|311}} और कल्पना कीजिए कि विद्यार्थी ऐतिहासिक तथ्यों की सत्यता पर (उनसे जुड़ी सभी बातों पर) और पृथ्वी के सौ वर्ष पूर्व के अस्तित्व पर भी शंका करे।


{{ParUG|312}} मुझे तो यह संशय व्यर्थ लगता है। किन्तु तब क्या इतिहास पर हमारा ''विश्वास'' भी व्यर्थ नहीं है? नहीं; इससे तो अनेक बातें जुड़ी हैं।
{{ParUG|312}} मुझे तो यह संशय व्यर्थ लगता है। किन्तु तब क्या इतिहास पर हमारा ''विश्वास'' भी व्यर्थ नहीं है? नहीं; इससे तो अनेक बातें जुड़ी हैं।


{{ParUG|313}} तो क्या ''इसी कारण'' हम किसी प्रतिज्ञप्ति पर विश्वास करते हैं? हाँ “विश्वास” का व्याकरण विश्वस्त प्रतिज्ञप्ति के व्याकरण से जुड़ा होता है।
{{ParUG|313}} तो क्या ''इसी कारण'' हम किसी प्रतिज्ञप्ति पर विश्वास करते हैं? हाँ “विश्वास” का व्याकरण विश्वस्त प्रतिज्ञप्ति के व्याकरण से जुड़ा होता है।


{{ParUG|314}} किसी विद्यार्थी द्वारा यह पूछे जाने की कल्पना कीजिए: “क्या जब मैं मेज़ की ओर से मुड़ जाता हूँ, और जब उसे ''कोई'' नहीं देखता, तब भी क्या वह वहाँ होती है?” क्या अध्यापक को उसे आश्वस्त करते हुए कहना होगा: “बेशक, उसका अस्तित्व रहता है!”?
{{ParUG|314}} किसी विद्यार्थी द्वारा यह पूछे जाने की कल्पना कीजिए: “क्या जब मैं मेज़ की ओर से मुड़ जाता हूँ, और जब उसे ''कोई'' नहीं देखता, तब भी क्या वह वहाँ होती है?” क्या अध्यापक को उसे आश्वस्त करते हुए कहना होगा: “बेशक, उसका अस्तित्व रहता है!”?
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{{ParUG|315}} यानी अध्यापक को यह भान होगा कि यह प्रश्न पूछे जाने योग्य कतई नहीं है।
{{ParUG|315}} यानी अध्यापक को यह भान होगा कि यह प्रश्न पूछे जाने योग्य कतई नहीं है।


और विद्यार्थी के द्वारा प्रकृति की नियमवत्ता यानी आगमनात्मक तर्कों के औचित्य पर संदेह करने पर भी यही होगा अध्यापक को भान होगा कि ऐसे प्रश्नों से तो गाड़ी अटक जाएगी और बात आगे नहीं बढ़ेगी। और अध्यापक सही होगा। यह तो किसी कमरे में किसी वस्तु को खोजने जैसा ही होगा; मानो कोई व्यक्ति मेज़ की दराज खोलता है और वहाँ उस वस्तु को नहीं पाता; उस दराज को बंद करने के बाद वह फिर उसे दुबारा खोलता है कि कहीं अब वह वस्तु वहीं तो नहीं है, और बारम्बार यही करता रहता है। उसने वस्तुओं को खोजना सीखा ही नहीं है। इसी प्रकार इस विद्यार्थी ने भी प्रश्नों को पूछना नहीं सीखा है। उसने ''उस'' खेल को, जिसे हम उसे सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं, नहीं सीखा है।
और विद्यार्थी के द्वारा प्रकृति की नियमवत्ता यानी आगमनात्मक तर्कों के औचित्य पर संदेह करने पर भी यही होगा अध्यापक को भान होगा कि ऐसे प्रश्नों से तो गाड़ी अटक जाएगी और बात आगे नहीं बढ़ेगी। और अध्यापक सही होगा। यह तो किसी कमरे में किसी वस्तु को खोजने जैसा ही होगा; मानो कोई व्यक्ति मेज़ की दराज खोलता है और वहाँ उस वस्तु को नहीं पाता; उस दराज को बंद करने के बाद वह फिर उसे दुबारा खोलता है कि कहीं अब वह वस्तु वहीं तो नहीं है, और बारम्बार यही करता रहता है। उसने वस्तुओं को खोजना सीखा ही नहीं है। इसी प्रकार इस विद्यार्थी ने भी प्रश्नों को पूछना नहीं सीखा है। उसने ''उस'' खेल को, जिसे हम उसे सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं, नहीं सीखा है।


{{ParUG|316}} पर इतिहास के अपने पाठ को रोककर पृथ्वी के अस्तित्व.... पर संशय जताने वाले शिष्य की भी क्या यही स्थिति नहीं होती?
{{ParUG|316}} पर इतिहास के अपने पाठ को रोककर पृथ्वी के अस्तित्व.... पर संशय जताने वाले शिष्य की भी क्या यही स्थिति नहीं होती?
Line 784: Line 784:
{{ParUG|320}} यहाँ याद रहे कि ‘प्रतिज्ञप्ति’ का प्रत्यय स्वयं ही सुस्पष्ट प्रत्यय नहीं है।
{{ParUG|320}} यहाँ याद रहे कि ‘प्रतिज्ञप्ति’ का प्रत्यय स्वयं ही सुस्पष्ट प्रत्यय नहीं है।


{{ParUG|321}} क्या मैं यही नहीं कह रहा: किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को प्राक्कल्पना बनाया जा सकता है और तब वह विवरण का मानदण्ड बन जाती है। किन्तु मुझे इस पर भी शक है। इस वाक्य में अतिव्याप्ति दोष हैं। हम यही कहना चाहते हैं “किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को सिद्धान्ततः .... में परिवर्तित किया जा सकता है”, किन्तु यहाँ “सिद्धान्ततः” का क्या अर्थ है? यह तो ''ट्रैक्टेटस'' की याद दिलाता है।
{{ParUG|321}} क्या मैं यही नहीं कह रहा: किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को प्राक्कल्पना बनाया जा सकता है और तब वह विवरण का मानदण्ड बन जाती है। किन्तु मुझे इस पर भी शक है। इस वाक्य में अतिव्याप्ति दोष हैं। हम यही कहना चाहते हैं “किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को सिद्धान्ततः .... में परिवर्तित किया जा सकता है”, किन्तु यहाँ “सिद्धान्ततः” का क्या अर्थ है? यह तो ''ट्रैक्टेटस'' की याद दिलाता है।


{{ParUG|322}} विद्यार्थी द्वारा मनुष्यों की याददाश्त से पूर्व पर्वत के अस्तित्व को अस्वीकार कर देने पर क्या होगा?
{{ParUG|322}} विद्यार्थी द्वारा मनुष्यों की याददाश्त से पूर्व पर्वत के अस्तित्व को अस्वीकार कर देने पर क्या होगा?
Line 804: Line 804:
{{ParUG|328}} “इसे मैं अपने नाम लु. वि. की तरह जानता हूँ।”
{{ParUG|328}} “इसे मैं अपने नाम लु. वि. की तरह जानता हूँ।”


{{ParUG|329}} “यदि कोई ''इस पर'' सन्देह करे और “सन्देह” का यहाँ चाहे जो भी अर्थ हो वह इस खेल को सीख ही नहीं पाएगा।
{{ParUG|329}} “यदि कोई ''इस पर'' सन्देह करे और “सन्देह” का यहाँ चाहे जो भी अर्थ हो वह इस खेल को सीख ही नहीं पाएगा।


{{ParUG|330}} अतः यहाँ “मैं जानता हूँ....” वाक्य किन्हीं विशिष्ट बातों पर विश्वास करने की तत्परता को व्यक्त करता है।
{{ParUG|330}} अतः यहाँ “मैं जानता हूँ....” वाक्य किन्हीं विशिष्ट बातों पर विश्वास करने की तत्परता को व्यक्त करता है।
Line 814: Line 814:
{{ParUG|332}} ''दार्शनिक-चिन्तन'' से परे किसी के ऐसे कथन की कल्पना कीजिए, “मैं नहीं जानता कि मैं कभी चाँद पर गया था; मुझे ''याद'' नहीं है कि मैं कभी वहाँ गया होऊँ। (ऐसा व्यक्ति हमसे बिल्कुल भिन्न क्योंकर होगा?)
{{ParUG|332}} ''दार्शनिक-चिन्तन'' से परे किसी के ऐसे कथन की कल्पना कीजिए, “मैं नहीं जानता कि मैं कभी चाँद पर गया था; मुझे ''याद'' नहीं है कि मैं कभी वहाँ गया होऊँ। (ऐसा व्यक्ति हमसे बिल्कुल भिन्न क्योंकर होगा?)


पहले तो उसे पता ही कैसे चलेगा कि वह चाँद पर है? वह इसकी कल्पना भी कैसे कर पाएगा? तुलना कीजिए: “मुझे ज्ञात नहीं है कि मैं कभी क के गाँव गया था।” किन्तु मैं यह भी नहीं कह सकता कि क तुर्किस्तान में है क्योंकि मैं कभी तुर्किस्तान गया ही नहीं।
पहले तो उसे पता ही कैसे चलेगा कि वह चाँद पर है? वह इसकी कल्पना भी कैसे कर पाएगा? तुलना कीजिए: “मुझे ज्ञात नहीं है कि मैं कभी क के गाँव गया था।” किन्तु मैं यह भी नहीं कह सकता कि क तुर्किस्तान में है क्योंकि मैं कभी तुर्किस्तान गया ही नहीं।


{{ParUG|333}} मैं किसी से पूछता हूँ “क्या आप कभी चीन गए हैं?” वह उत्तर देता है कि “मुझे पता नहीं”। तब यह कहा जाएगा “तुम्हें नहीं ''पता''? वहाँ कभी जाने के तुम्हारे विश्वास का कोई कारण है? उदाहरणार्थ, तुम कभी चीनी सीमा के पास गए हो? या फिर तुम्हारे जन्म के समय तुम्हारे माता-पिता वहाँ गए थे?” साधारणत: यूरोप-वासी यह जानते हैं कि वे कभी चीन गए थे या नहीं।
{{ParUG|333}} मैं किसी से पूछता हूँ “क्या आप कभी चीन गए हैं?” वह उत्तर देता है कि “मुझे पता नहीं”। तब यह कहा जाएगा “तुम्हें नहीं ''पता''? वहाँ कभी जाने के तुम्हारे विश्वास का कोई कारण है? उदाहरणार्थ, तुम कभी चीनी सीमा के पास गए हो? या फिर तुम्हारे जन्म के समय तुम्हारे माता-पिता वहाँ गए थे?” साधारणत: यूरोप-वासी यह जानते हैं कि वे कभी चीन गए थे या नहीं।


{{ParUG|334}} यानी: अमुक परिस्थितियों में ही कोई समझदार व्यक्ति ''इस बारे'' में सन्देह करता है।
{{ParUG|334}} यानी: अमुक परिस्थितियों में ही कोई समझदार व्यक्ति ''इस बारे'' में सन्देह करता है।
Line 828: Line 828:
कुछ ''अत्यन्त'' मेधावी और शिक्षित लोग बाइबल में वर्णित सृष्टि की कहानी पर विश्वास करते हैं परन्तु अन्य व्यक्ति इसे सर्वथा असत्य मानते हैं, और बाइबल में विश्वास रखने वाले लोगों को अन्य व्यक्तियों की मान्यताओं के आधार का ज्ञान होता है।
कुछ ''अत्यन्त'' मेधावी और शिक्षित लोग बाइबल में वर्णित सृष्टि की कहानी पर विश्वास करते हैं परन्तु अन्य व्यक्ति इसे सर्वथा असत्य मानते हैं, और बाइबल में विश्वास रखने वाले लोगों को अन्य व्यक्तियों की मान्यताओं के आधार का ज्ञान होता है।


{{ParUG|337}} संशयातीत विषयों पर हमें प्रयोग करने की आवश्यकता ही नहीं होती। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि व्यक्ति कुछ पूर्वकल्पनाओं को मानकर चलता है। पत्र लिखकर डाकपेटी में डालने के बाद मुझे विश्वास रहता है कि वह गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाएगा।
{{ParUG|337}} संशयातीत विषयों पर हमें प्रयोग करने की आवश्यकता ही नहीं होती। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि व्यक्ति कुछ पूर्वकल्पनाओं को मानकर चलता है। पत्र लिखकर डाकपेटी में डालने के बाद मुझे विश्वास रहता है कि वह गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाएगा।


जब मैं कोई प्रयोग करता हूँ तो अपने सामने पड़े उपकरणों के अस्तित्व में सन्देह नहीं करता। मुझे अनेक संदेह हो सकते हैं पर ''ऐसा'' नहीं। जब मैं कोई परिकलन करता हूँ तो निस्संदेह मैं यह मानता हूँ कि कागज पर लिखी हुई संख्याएँ स्वतः परिवर्तित नहीं हो रहीं। साथ-साथ मैं अपनी याददाश्त पर भी पूरा भरोसा करता हूँ। यह भी चाँद पर मेरे कभी भी न जाने जैसा सुनिश्चित है।
जब मैं कोई प्रयोग करता हूँ तो अपने सामने पड़े उपकरणों के अस्तित्व में सन्देह नहीं करता। मुझे अनेक संदेह हो सकते हैं पर ''ऐसा'' नहीं। जब मैं कोई परिकलन करता हूँ तो निस्संदेह मैं यह मानता हूँ कि कागज पर लिखी हुई संख्याएँ स्वतः परिवर्तित नहीं हो रहीं। साथ-साथ मैं अपनी याददाश्त पर भी पूरा भरोसा करता हूँ। यह भी चाँद पर मेरे कभी भी न जाने जैसा सुनिश्चित है।
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{{ParUG|347}} “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है।” एक अत्यन्त सरल और साधारण वाक्य होने के बावजूद मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मैं इसे समझ नहीं पाया। मानो मैं किसी भी अर्थ पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाया। इसका कारण केवल यह है कि मैं अर्थ पर ध्यान ही नहीं देता। किसी वाक्य के दार्शनिक प्रयोग के बजाय उसके दैनिक प्रयोग पर विचार करते ही उसका अर्थ सुस्पष्ट एवं सरल हो जाता है।
{{ParUG|347}} “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है।” एक अत्यन्त सरल और साधारण वाक्य होने के बावजूद मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मैं इसे समझ नहीं पाया। मानो मैं किसी भी अर्थ पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाया। इसका कारण केवल यह है कि मैं अर्थ पर ध्यान ही नहीं देता। किसी वाक्य के दार्शनिक प्रयोग के बजाय उसके दैनिक प्रयोग पर विचार करते ही उसका अर्थ सुस्पष्ट एवं सरल हो जाता है।


{{ParUG|348}} जैसे “मैं यहाँ हूँ” शब्दों का अपने सन्दर्भों में ही कोई अर्थ है, उनका तब कोई अर्थ नहीं होता जब अपने सामने बैठे हुए, और मुझे अच्छी तरह देख सकने वाले व्यक्ति को उन्हें कहा जाए इसका कारण इन शब्दों का निरर्थक होना न होकर, इनका सन्दर्भ ''सापेक्ष'' होना है, और अर्थ-निर्धारण के लिए सन्दर्भों की आवश्यकता होती है।
{{ParUG|348}} जैसे “मैं यहाँ हूँ” शब्दों का अपने सन्दर्भों में ही कोई अर्थ है, उनका तब कोई अर्थ नहीं होता जब अपने सामने बैठे हुए, और मुझे अच्छी तरह देख सकने वाले व्यक्ति को उन्हें कहा जाए इसका कारण इन शब्दों का निरर्थक होना न होकर, इनका सन्दर्भ ''सापेक्ष'' होना है, और अर्थ-निर्धारण के लिए सन्दर्भों की आवश्यकता होती है।


{{ParUG|349}} “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” इसके अनेक अर्थ हो सकते हैं: मैं सामने के पौधे को बेरी समझता हूँ जबकि कोई अन्य व्यक्ति उसे किशमिश का पौधा समझता है। वह कहता है: “यह एक झाड़ी है”, मैं कहता हूँ कि यह एक पेड़ है। धुंधलके में हम किसी आकृति को आदमी समझते हैं जबकि कोई अन्य कहता है “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है”। कोई मेरी नज़र को जाँचना चाहता है, इत्यादि, इत्यादि इत्यादि, इत्यादि। हर बार जिसे मैं पेड़ कहता हूँ वह कोई और ही वस्तु होती है।
{{ParUG|349}} “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” इसके अनेक अर्थ हो सकते हैं: मैं सामने के पौधे को बेरी समझता हूँ जबकि कोई अन्य व्यक्ति उसे किशमिश का पौधा समझता है। वह कहता है: “यह एक झाड़ी है”, मैं कहता हूँ कि यह एक पेड़ है। धुंधलके में हम किसी आकृति को आदमी समझते हैं जबकि कोई अन्य कहता है “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है”। कोई मेरी नज़र को जाँचना चाहता है, इत्यादि, इत्यादि इत्यादि, इत्यादि। हर बार जिसे मैं पेड़ कहता हूँ वह कोई और ही वस्तु होती है।


अत्यधिक सूक्ष्मता से अभिव्यक्त करने की दशा में क्या होगा? उदाहरणार्थ: “मैं जानता हूँ कि वह वस्तु एक वृक्ष है, मैं उसे स्पष्ट देख सकता हूँ।” हम यह भी मान सकते हैं कि मैंने यह टिप्पणी किसी वार्तालाप के संदर्भ में की थी (यह तभी प्रासंगिक थी); और अब मैं पेड़ को देखते हुए इसी बात को बिना किसी संदर्भ में यह कहते हुए दोहराता हूँ कि “इन शब्दों से मेरा वही आशय है जो पाँच मिनट पहले था”। यदि, उदाहरणार्थ, मैं यह कहता कि मैं अपनी कमजोर दृष्टि के बारे में सोच रहा था और ये शब्द तो एक प्रकार की दुःखाभिव्यक्ति ही थे तो यह टिप्पणी हमें अचरज में नहीं डालती।
अत्यधिक सूक्ष्मता से अभिव्यक्त करने की दशा में क्या होगा? उदाहरणार्थ: “मैं जानता हूँ कि वह वस्तु एक वृक्ष है, मैं उसे स्पष्ट देख सकता हूँ।” हम यह भी मान सकते हैं कि मैंने यह टिप्पणी किसी वार्तालाप के संदर्भ में की थी (यह तभी प्रासंगिक थी); और अब मैं पेड़ को देखते हुए इसी बात को बिना किसी संदर्भ में यह कहते हुए दोहराता हूँ कि “इन शब्दों से मेरा वही आशय है जो पाँच मिनट पहले था”। यदि, उदाहरणार्थ, मैं यह कहता कि मैं अपनी कमजोर दृष्टि के बारे में सोच रहा था और ये शब्द तो एक प्रकार की दुःखाभिव्यक्ति ही थे तो यह टिप्पणी हमें अचरज में नहीं डालती।


''वाक्यार्थ'' को वाक्यार्थ-विस्तार से व्यक्त किया जा सकता है और इसलिए उसे वाक्यार्थ का अंग बनाया जा सकता है।
''वाक्यार्थ'' को वाक्यार्थ-विस्तार से व्यक्त किया जा सकता है और इसलिए उसे वाक्यार्थ का अंग बनाया जा सकता है।
Line 866: Line 866:
{{ParUG|351}} “क्या इन शब्दों का कोई अर्थ है?” क्या यह प्रश्न किसी हथौड़ी को दिखाते हुए यह पूछने के समान है “क्या यह कोई औज़ार है?” मैं कहता हूँ “हाँ, यह एक हथौड़ी है”। किन्तु तब क्या होगा जब जिस वस्तु को हम हथौड़ी कहते हैं वह अन्यंत्र, उदाहरणार्थ, कोई फेंक कर मारने वाली वस्तु हो, या किसी संगीतज्ञ की छड़ी हो? प्रयोग तो आप खुद तय करेंगे।
{{ParUG|351}} “क्या इन शब्दों का कोई अर्थ है?” क्या यह प्रश्न किसी हथौड़ी को दिखाते हुए यह पूछने के समान है “क्या यह कोई औज़ार है?” मैं कहता हूँ “हाँ, यह एक हथौड़ी है”। किन्तु तब क्या होगा जब जिस वस्तु को हम हथौड़ी कहते हैं वह अन्यंत्र, उदाहरणार्थ, कोई फेंक कर मारने वाली वस्तु हो, या किसी संगीतज्ञ की छड़ी हो? प्रयोग तो आप खुद तय करेंगे।


{{ParUG|352}} “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” किसी के ऐसा कहने पर मैं उसे प्रत्युत्तर दे सकता हूँ: “हाँ, यह एक वाक्य है, हिन्दी भाषा का एक वाक्य। किन्तु इसका क्या प्रयोजन है?” मान लीजिए वह कहे: “मैं तो स्वयं को यह याद दिलाना चाहता था कि मैं इस प्रकार की वस्तुओं को जानता हूँ”?
{{ParUG|352}} “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” किसी के ऐसा कहने पर मैं उसे प्रत्युत्तर दे सकता हूँ: “हाँ, यह एक वाक्य है, हिन्दी भाषा का एक वाक्य। किन्तु इसका क्या प्रयोजन है?” मान लीजिए वह कहे: “मैं तो स्वयं को यह याद दिलाना चाहता था कि मैं इस प्रकार की वस्तुओं को जानता हूँ”?


{{ParUG|353}} पर मान लीजिए कि वह कहता “मैं एक तार्किक बात कहना चाहता था?” मान लीजिए कि कोई वनपाल अपने मातहतों के साथ वन में जाता है और कहता है “''अमुक'', ''अमुक'' और ''अमुक'' पेड़ को काटना है” और फिर यह कहता है कि “मैं ''जानता'' हूँ कि यह एक पेड़ है” तो क्या होगा? किन्तु क्या मैं वनपाल के बारे में यह नहीं कह सकता कि “वह ''जानता'' है कि वह एक पेड़ है वह न तो स्वयं इस बात की जाँच करता है और न ही मातहतों से इसकी जाँच करवाता है”?
{{ParUG|353}} पर मान लीजिए कि वह कहता “मैं एक तार्किक बात कहना चाहता था?” मान लीजिए कि कोई वनपाल अपने मातहतों के साथ वन में जाता है और कहता है “''अमुक'', ''अमुक'' और ''अमुक'' पेड़ को काटना है” और फिर यह कहता है कि “मैं ''जानता'' हूँ कि यह एक पेड़ है” तो क्या होगा? किन्तु क्या मैं वनपाल के बारे में यह नहीं कह सकता कि “वह ''जानता'' है कि वह एक पेड़ है वह न तो स्वयं इस बात की जाँच करता है और न ही मातहतों से इसकी जाँच करवाता है”?


{{ParUG|354}} संदिग्ध और असंदिग्ध व्यवहार। असंदिग्ध व्यवहार, संदिग्ध व्यवहार की पूर्व शर्त है।
{{ParUG|354}} संदिग्ध और असंदिग्ध व्यवहार। असंदिग्ध व्यवहार, संदिग्ध व्यवहार की पूर्व शर्त है।
Line 892: Line 892:
{{ParUG|363}} और यहाँ विस्मयबोधक अभिव्यक्ति और तदनुकूल व्यवहार के बीच संक्रमण को जानना कठिन होगा
{{ParUG|363}} और यहाँ विस्मयबोधक अभिव्यक्ति और तदनुकूल व्यवहार के बीच संक्रमण को जानना कठिन होगा


{{ParUG|364}} यह भी पूछा जा सकता है: “यदि आप जानते हैं कि यह आपका पैर है, तो क्या आप यह भी जानते हैं या फिर क्या यह आपका विश्वास ही है कि कोई भविष्यत्कालीन अनुभव आपके इस ज्ञान को खण्डित करता प्रतीत नहीं होगा?” (यानी, कोई भी बात ''आपको'' ऐसी प्रतीति नहीं करा सकती।)
{{ParUG|364}} यह भी पूछा जा सकता है: “यदि आप जानते हैं कि यह आपका पैर है, तो क्या आप यह भी जानते हैं या फिर क्या यह आपका विश्वास ही है कि कोई भविष्यत्कालीन अनुभव आपके इस ज्ञान को खण्डित करता प्रतीत नहीं होगा?” (यानी, कोई भी बात ''आपको'' ऐसी प्रतीति नहीं करा सकती।)


{{ParUG|365}} यदि कोई उत्तर दे: “मैं यह भी जानता हूँ कि इस ज्ञान को खण्डित करने वाली कोई बात मुझे कभी भी प्रतीत नहीं होगी”, इस विषय में उसकी असंदिग्धता के अतिरिक्त हमें और क्या पता चलेगा?
{{ParUG|365}} यदि कोई उत्तर दे: “मैं यह भी जानता हूँ कि इस ज्ञान को खण्डित करने वाली कोई बात मुझे कभी भी प्रतीत नहीं होगी”, इस विषय में उसकी असंदिग्धता के अतिरिक्त हमें और क्या पता चलेगा?


{{ParUG|366}} मान लीजिए कि हमारी “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति का निषेध हो, और हमें “मेरा विश्वास है कि मैं जानता हूँ” कहने की ही अनुमति हो?
{{ParUG|366}} मान लीजिए कि हमारी “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति का निषेध हो, और हमें “मेरा विश्वास है कि मैं जानता हूँ” कहने की ही अनुमति हो?
Line 908: Line 908:
{{ParUG|369}} यदि मैं अपने हाथ के अस्तित्व पर संशय करूँ तो मैं “हाथ” शब्द के अर्थ पर संशय करने से कैसे बच सकता हूँ? यानी, इतना ''ज्ञान'' तो मुझे है ही।
{{ParUG|369}} यदि मैं अपने हाथ के अस्तित्व पर संशय करूँ तो मैं “हाथ” शब्द के अर्थ पर संशय करने से कैसे बच सकता हूँ? यानी, इतना ''ज्ञान'' तो मुझे है ही।


{{ParUG|370}} बेहतर होगा: मैं अपने वाक्य में ‘हाथ’ या अन्य शब्दों का सहज प्रयोग करता हूँ और उनके अर्थ पर संशय करना रसातल में जाना है असंदिग्धता भाषा-खेल का सार तत्त्व है, और” मैं कैसे जानता हूँ....” जैसे प्रश्न भाषा-खेल से हमें बहिष्कृत कर देते हैं, या फिर उन खेलों को ही समाप्त कर देते हैं।
{{ParUG|370}} बेहतर होगा: मैं अपने वाक्य में ‘हाथ’ या अन्य शब्दों का सहज प्रयोग करता हूँ और उनके अर्थ पर संशय करना रसातल में जाना है असंदिग्धता भाषा-खेल का सार तत्त्व है, और” मैं कैसे जानता हूँ....” जैसे प्रश्न भाषा-खेल से हमें बहिष्कृत कर देते हैं, या फिर उन खेलों को ही समाप्त कर देते हैं।


{{ParUG|371}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” क्या इसका मूअर के अनुसार यही या इस जैसा ही अर्थ नहीं है: हाथ के अस्तित्व पर सन्देह न करने वाले भाषा-खेलों में मैं ऐसा कह सकता हूँ, “मेरे इस हाथ में पीड़ा हो रही है” अथवा “यह हाथ अन्य हाथ से कमजोर है” अथवा “एक बार मेरा यह हाथ टूट गया था” इत्यादि।
{{ParUG|371}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” क्या इसका मूअर के अनुसार यही या इस जैसा ही अर्थ नहीं है: हाथ के अस्तित्व पर सन्देह न करने वाले भाषा-खेलों में मैं ऐसा कह सकता हूँ, “मेरे इस हाथ में पीड़ा हो रही है” अथवा “यह हाथ अन्य हाथ से कमजोर है” अथवा “एक बार मेरा यह हाथ टूट गया था” इत्यादि।


{{ParUG|372}} “क्या यह वास्तव में हाथ है?” (या “मेरा हाथ है”) इसे विशिष्ट परिस्थितियों में ही जाँचा जा सकता है। क्योंकि “मुझे संशय है कि यह वास्तव में मेरा (या एक) हाथ है” कथन किसी अन्य आधार के बिना निरर्थक है। इन शब्दों से संशय या उसके प्रकार के बारे में पता नहीं चलता है।
{{ParUG|372}} “क्या यह वास्तव में हाथ है?” (या “मेरा हाथ है”) इसे विशिष्ट परिस्थितियों में ही जाँचा जा सकता है। क्योंकि “मुझे संशय है कि यह वास्तव में मेरा (या एक) हाथ है” कथन किसी अन्य आधार के बिना निरर्थक है। इन शब्दों से संशय या उसके प्रकार के बारे में पता नहीं चलता है।


{{ParUG|373}} यदि निश्चित होना संभव ही नहीं है तो किसी बात पर ''विश्वास'' करने का आधार ही क्यों संभव हो?
{{ParUG|373}} यदि निश्चित होना संभव ही नहीं है तो किसी बात पर ''विश्वास'' करने का आधार ही क्यों संभव हो?
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{{ParUG|378}} ज्ञान अन्ततः स्वीकृति पर ही आधारित है।
{{ParUG|378}} ज्ञान अन्ततः स्वीकृति पर ही आधारित है।


{{ParUG|379}} मैं जोश के साथ कहता हूँ “मैं ''जानता'' हूँ कि यह पैर है” किन्तु इसका क्या ''अर्थ'' है?
{{ParUG|379}} मैं जोश के साथ कहता हूँ “मैं ''जानता'' हूँ कि यह पैर है” किन्तु इसका क्या ''अर्थ'' है?


{{ParUG|380}} फिर मैं कह सकता हूँ: “इससे विपरीत संसार की कोई भी बात मुझे स्वीकार्य नहीं है!” क्योंकि मैं इस तथ्य को संपूर्ण ज्ञान का आधार मानता हूँ। मैं सब कुछ छोड़ सकता हूँ, पर इसे नहीं।
{{ParUG|380}} फिर मैं कह सकता हूँ: “इससे विपरीत संसार की कोई भी बात मुझे स्वीकार्य नहीं है!” क्योंकि मैं इस तथ्य को संपूर्ण ज्ञान का आधार मानता हूँ। मैं सब कुछ छोड़ सकता हूँ, पर इसे नहीं।
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{{ParUG|382}} इसका अर्थ यह नहीं है कि संसार की कोई भी बात मुझे किसी अन्य बात का काल नहीं बनाएगी।
{{ParUG|382}} इसका अर्थ यह नहीं है कि संसार की कोई भी बात मुझे किसी अन्य बात का काल नहीं बनाएगी।


{{ParUG|383}} “मैं स्वप्न ले रहा हूँ” इसलिए अर्थहीन है क्योंकि: स्वप्नावस्था में की गई टिप्पणी भी तो स्वप्न ही है और वस्तुतः इन शब्दों के सार्थक होने की बात भी स्वप्न ही है।
{{ParUG|383}} “मैं स्वप्न ले रहा हूँ” इसलिए अर्थहीन है क्योंकि: स्वप्नावस्था में की गई टिप्पणी भी तो स्वप्न ही है और वस्तुतः इन शब्दों के सार्थक होने की बात भी स्वप्न ही है।


{{ParUG|384}} “संसार की कोई भी बात....” यह किस प्रकार का वाक्य है?
{{ParUG|384}} “संसार की कोई भी बात....” यह किस प्रकार का वाक्य है?
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{{ParUG|385}} इसका आकार भावी कथन का है, किन्तु (स्पष्टतः) यह अनुभव पर आधारित नहीं है।
{{ParUG|385}} इसका आकार भावी कथन का है, किन्तु (स्पष्टतः) यह अनुभव पर आधारित नहीं है।


{{ParUG|386}} मूअर के साथ जो भी यह कहता है कि वह जानता है कि ऐसा, ऐसा और ऐसा है.... वह अपनी निश्चितता की कोटि प्रस्तुत करता है। और यह महत्त्वपूर्ण है कि उस कोटि का अधिकतम महत्त्व है।
{{ParUG|386}} मूअर के साथ जो भी यह कहता है कि वह जानता है कि ऐसा, ऐसा और ऐसा है.... वह अपनी निश्चितता की कोटि प्रस्तुत करता है। और यह महत्त्वपूर्ण है कि उस कोटि का अधिकतम महत्त्व है।


{{ParUG|387}} कोई मुझसे पूछ सकता है: “आप कितनी निश्चितता से कह सकते हैं कि वहाँ एक पेड़ है; कि आपकी जेब में पैसे हैं; कि यह आपका पाँव है?” और पहले का उत्तर हो सकता है “पक्का नहीं पता”, दूसरे का “लगभग निश्चित हूँ”, और तीसरे का “मैं इस पर सन्देह नहीं कर सकता”। और बिना किसी आधार के भी ये उत्तर सार्थक होंगे। उदाहरणार्थ, मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी: “उसके पेड़ होने के बारे में मैं सुनिश्चित नहीं हो सकता क्योंकि मेरी नज़र तेज नहीं है”। मैं कहना चाहता हूँ: विशिष्ट अर्थ की अपेक्षा से ही मूअर का “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” कथन सार्थक होता है।
{{ParUG|387}} कोई मुझसे पूछ सकता है: “आप कितनी निश्चितता से कह सकते हैं कि वहाँ एक पेड़ है; कि आपकी जेब में पैसे हैं; कि यह आपका पाँव है?” और पहले का उत्तर हो सकता है “पक्का नहीं पता”, दूसरे का “लगभग निश्चित हूँ”, और तीसरे का “मैं इस पर सन्देह नहीं कर सकता”। और बिना किसी आधार के भी ये उत्तर सार्थक होंगे। उदाहरणार्थ, मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी: “उसके पेड़ होने के बारे में मैं सुनिश्चित नहीं हो सकता क्योंकि मेरी नज़र तेज नहीं है”। मैं कहना चाहता हूँ: विशिष्ट अर्थ की अपेक्षा से ही मूअर का “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” कथन सार्थक होता है।
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18.3.
18.3.


{{ParUG|389}} मूअर ऐसा उदाहरण देना चाहते थे जिससे यह पता चले कि हमें भौतिक वस्तुओं के बारे में प्रतिज्ञप्तियों का वास्तविक ''ज्ञान'' हो सकता है। यदि शरीर के किसी अंग की वेदना के बारे में विवाद हो, तो जिसके अंग में उस समय पीड़ा हो रही हो वह कह सकता है: “मैं तुम्हें निश्चित रूप से कहता हूँ कि अभी मुझे वहाँ पीड़ा हो रही है।” किन्तु यदि मूअर कहते: “मैं तुम्हें निश्चित रूप से कहता हूँ कि वह एक पेड़ है” तो यह अटपटा लगता। यहाँ किसी के व्यक्तिगत अनुभव में हमारी कोई रुचि नहीं है।
{{ParUG|389}} मूअर ऐसा उदाहरण देना चाहते थे जिससे यह पता चले कि हमें भौतिक वस्तुओं के बारे में प्रतिज्ञप्तियों का वास्तविक ''ज्ञान'' हो सकता है। यदि शरीर के किसी अंग की वेदना के बारे में विवाद हो, तो जिसके अंग में उस समय पीड़ा हो रही हो वह कह सकता है: “मैं तुम्हें निश्चित रूप से कहता हूँ कि अभी मुझे वहाँ पीड़ा हो रही है।” किन्तु यदि मूअर कहते: “मैं तुम्हें निश्चित रूप से कहता हूँ कि वह एक पेड़ है” तो यह अटपटा लगता। यहाँ किसी के व्यक्तिगत अनुभव में हमारी कोई रुचि नहीं है।


{{ParUG|390}} यहाँ तो इतना ही महत्त्वपूर्ण है कि इस बात को कहने का कोई अर्थ है कि हम इस तरह की किसी चीज को जानते हैं साथ ही साथ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि ऐसी बात कहने से कुछ हासिल नहीं होता।
{{ParUG|390}} यहाँ तो इतना ही महत्त्वपूर्ण है कि इस बात को कहने का कोई अर्थ है कि हम इस तरह की किसी चीज को जानते हैं साथ ही साथ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि ऐसी बात कहने से कुछ हासिल नहीं होता।
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{{ParUG|392}} मुझे तो यह दर्शाना है कि संशय की संभावना में भी संशय आवश्यक नहीं है। भाषा-खेल की संभावना इस पर निर्भर नहीं करती कि प्रत्येक संशय-योग्य बात पर संशय किया जाए। (गणित में व्याघात की भूमिका से इसका संबंध है।)
{{ParUG|392}} मुझे तो यह दर्शाना है कि संशय की संभावना में भी संशय आवश्यक नहीं है। भाषा-खेल की संभावना इस पर निर्भर नहीं करती कि प्रत्येक संशय-योग्य बात पर संशय किया जाए। (गणित में व्याघात की भूमिका से इसका संबंध है।)


{{ParUG|393}} यदि भाषा-खेल के बाहर “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” वाक्य को कहा जाए तो यह (संभवत: किसी हिन्दी व्याकरण से) लिया गया उद्धरण हो। “पर जब मैं इसे सार्थक ढंग से कहता हूँ तो क्या होता है?” ‘अर्थ’ के प्रत्यय के बारे में पुरानी गलतफहमी।
{{ParUG|393}} यदि भाषा-खेल के बाहर “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” वाक्य को कहा जाए तो यह (संभवत: किसी हिन्दी व्याकरण से) लिया गया उद्धरण हो। “पर जब मैं इसे सार्थक ढंग से कहता हूँ तो क्या होता है?” ‘अर्थ’ के प्रत्यय के बारे में पुरानी गलतफहमी।


{{ParUG|394}} “यह ऐसी बातों में से है जिन पर मैं संशय नहीं कर सकता।”
{{ParUG|394}} “यह ऐसी बातों में से है जिन पर मैं संशय नहीं कर सकता।”
Line 968: Line 968:
{{ParUG|395}} “मैं वह सब जानता हूँ।” और मेरे वार्तालाप और आचरण से इसका पता चलता है।
{{ParUG|395}} “मैं वह सब जानता हूँ।” और मेरे वार्तालाप और आचरण से इसका पता चलता है।


{{ParUG|396}} (2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' I §2. (संपादक)</ref> के भाषा-खेल में क्या वह कह सकता है कि वह जानता है कि उन्हें ईंट कहते हैं? “नहीं, पर उसे यह पता ''होता'' है।”
{{ParUG|396}} (2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' I §2. (संपादक)</ref> के भाषा-खेल में क्या वह कह सकता है कि वह जानता है कि उन्हें ईंट कहते हैं? “नहीं, पर उसे यह पता ''होता'' है।”


{{ParUG|397}} क्या मैं गलत, और मूअर पूर्णत: सही हैं? क्या मैंने विचार को ज्ञान समझने जैसी साधारण भूल नहीं कर दी है? बहरहाल, यह ठीक है कि मैं अपने आप यह नहीं सोचता कि “पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से कुछ ही समय पहले से है” किन्तु इससे क्या मेरी ''जानकारी'' कम हो जाती है? क्या मैं यह नहीं जताता कि मैं इसे सर्वदा इसके परिणामों द्वारा ही जानता हूँ।
{{ParUG|397}} क्या मैं गलत, और मूअर पूर्णत: सही हैं? क्या मैंने विचार को ज्ञान समझने जैसी साधारण भूल नहीं कर दी है? बहरहाल, यह ठीक है कि मैं अपने आप यह नहीं सोचता कि “पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से कुछ ही समय पहले से है” किन्तु इससे क्या मेरी ''जानकारी'' कम हो जाती है? क्या मैं यह नहीं जताता कि मैं इसे सर्वदा इसके परिणामों द्वारा ही जानता हूँ।
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{{ParUG|400}} यहाँ मैं हवा में तलवार चला रहा हूँ क्योंकि जो बात मैं कहना चाहता हूँ उसे अभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ।
{{ParUG|400}} यहाँ मैं हवा में तलवार चला रहा हूँ क्योंकि जो बात मैं कहना चाहता हूँ उसे अभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ।


{{ParUG|401}} मैं कहना चाहता हूँ: न केवल तर्कशास्त्रीय अपितु आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां भी विचारों (भाषा) का आधार होती हैं। “मैं जानता हूँ....” इस टिप्पणी का आकार नहीं है। “मैं जानता हूँ....” अभिव्यक्ति मेरी जानकारी को अभिव्यक्त करती है, पर उसका कोई तार्किक महत्त्व नहीं है।
{{ParUG|401}} मैं कहना चाहता हूँ: न केवल तर्कशास्त्रीय अपितु आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां भी विचारों (भाषा) का आधार होती हैं। “मैं जानता हूँ....” इस टिप्पणी का आकार नहीं है। “मैं जानता हूँ....” अभिव्यक्ति मेरी जानकारी को अभिव्यक्त करती है, पर उसका कोई तार्किक महत्त्व नहीं है।


{{ParUG|402}} इस टिप्पणी में “आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां” अभिव्यक्ति अपने-आप में बेहूदा है; प्रसंग तो भौतिक वस्तुओं के कथन का है। जैसे किसी प्राक्कल्पना के असिद्ध हो जाने पर किसी अन्य प्रतिज्ञप्ति को आधार बनाया जा सकता है वैसे ही इन प्रतिज्ञप्तियों को आधार के रूप में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।
{{ParUG|402}} इस टिप्पणी में “आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां” अभिव्यक्ति अपने-आप में बेहूदा है; प्रसंग तो भौतिक वस्तुओं के कथन का है। जैसे किसी प्राक्कल्पना के असिद्ध हो जाने पर किसी अन्य प्रतिज्ञप्ति को आधार बनाया जा सकता है वैसे ही इन प्रतिज्ञप्तियों को आधार के रूप में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।
Line 988: Line 988:
“आरम्भ में तो कर्म ही था।”<ref>देखें गेटे, ''फ़ाउस्ट'' I</ref></blockquote>
“आरम्भ में तो कर्म ही था।”<ref>देखें गेटे, ''फ़ाउस्ट'' I</ref></blockquote>


{{ParUG|403}} मूअर के अनुसार किसी व्यक्ति के बारे में यह कहना कि उसे कुछ ''पता'' है; इसीलिए उसका कथन सर्वथा सत्य है, मुझे मिथ्या लगता है। इस बात के सत्य होने का कारण तो इसका उस भाषा-खेल का अविचल आधार होना ही है।
{{ParUG|403}} मूअर के अनुसार किसी व्यक्ति के बारे में यह कहना कि उसे कुछ ''पता'' है; इसीलिए उसका कथन सर्वथा सत्य है, मुझे मिथ्या लगता है। इस बात के सत्य होने का कारण तो इसका उस भाषा-खेल का अविचल आधार होना ही है।


{{ParUG|404}} मैं कहना चाहता हूँ: ऐसा नहीं है कि कुछ बातों के सत्य होने के बारे में मनुष्य असंदिग्ध रूप से जानते हैं। नहीं: असंदिग्धता तो उनकी मनोवृत्ति पर निर्भर करती है।
{{ParUG|404}} मैं कहना चाहता हूँ: ऐसा नहीं है कि कुछ बातों के सत्य होने के बारे में मनुष्य असंदिग्ध रूप से जानते हैं। नहीं: असंदिग्धता तो उनकी मनोवृत्ति पर निर्भर करती है।
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{{ParUG|406}} साधारण रूप से की गई आकस्मिक टिप्पणी “मैं जानता हूँ कि वह एक....” और दार्शनिक की इसी टिप्पणी के भेद से भी लक्ष्य का पता चलता है।
{{ParUG|406}} साधारण रूप से की गई आकस्मिक टिप्पणी “मैं जानता हूँ कि वह एक....” और दार्शनिक की इसी टिप्पणी के भेद से भी लक्ष्य का पता चलता है।


{{ParUG|407}} क्योंकि मूअर के “मैं जानता हूँ कि वह....” कहने पर मैं उत्तर देता हूँ “आप कुछ भी नहीं ''जानते''!” पर फिर भी दार्शनिक-प्रवृत्ति से रहित व्यक्ति को मैं यह उत्तर नहीं दूँगा। यानी, मुझे लगता है (ठीक ही?) कि ये दोनों व्यक्ति कोई अलग-अलग बात कहते हैं।
{{ParUG|407}} क्योंकि मूअर के “मैं जानता हूँ कि वह....” कहने पर मैं उत्तर देता हूँ “आप कुछ भी नहीं ''जानते''!” पर फिर भी दार्शनिक-प्रवृत्ति से रहित व्यक्ति को मैं यह उत्तर नहीं दूँगा। यानी, मुझे लगता है (ठीक ही?) कि ये दोनों व्यक्ति कोई अलग-अलग बात कहते हैं।


{{ParUG|408}} क्योंकि यदि कोई कहता है कि उसे अमुक बात ज्ञात है, और यह उसके दर्शन का एक भाग है तो इस कथन के त्रुटिपूर्ण होने पर उसका दर्शन असत्य हो जाता है।
{{ParUG|408}} क्योंकि यदि कोई कहता है कि उसे अमुक बात ज्ञात है, और यह उसके दर्शन का एक भाग है तो इस कथन के त्रुटिपूर्ण होने पर उसका दर्शन असत्य हो जाता है।


{{ParUG|409}} जब मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ कि वह पैर है” तो वास्तव में मैं क्या कहता हूँ? क्या सारी बात यह नहीं है कि मैं इसके परिणामों के बारे में सुनिश्चित हूँ और यह भी कि अन्य व्यक्ति के शंका करने पर मैं उसे कहता “देखो मैंने तुम्हें ऐसा कहा था”? यदि मेरा ज्ञान व्यावहारिक कार्य में कोई सहायता नहीं करता तो क्या उसका कोई महत्त्व है? और क्या वह मुझे धोखा ''नहीं दे सकता''?
{{ParUG|409}} जब मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ कि वह पैर है” तो वास्तव में मैं क्या कहता हूँ? क्या सारी बात यह नहीं है कि मैं इसके परिणामों के बारे में सुनिश्चित हूँ और यह भी कि अन्य व्यक्ति के शंका करने पर मैं उसे कहता “देखो मैंने तुम्हें ऐसा कहा था”? यदि मेरा ज्ञान व्यावहारिक कार्य में कोई सहायता नहीं करता तो क्या उसका कोई महत्त्व है? और क्या वह मुझे धोखा ''नहीं दे सकता''?


20.3.
20.3.
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{{ParUG|411}} यदि मैं यह (या फिर ऐसा ही कुछ और) कहता हूँ “''हम मानते'' हैं कि पिछले कई वर्षों से पृथ्वी का अस्तित्व है” तो यह अटपटा लगता है कि हम ऐसी बात को ''मानते'' हैं। किन्तु भाषा-खेलों के संपूर्ण तन्त्र में यह आधारभूत है। कहा जा सकता है कि यह मान्यता हमारे व्यवहार का, और इसीलिए स्वभावत: हमारे विचार का आधार है।
{{ParUG|411}} यदि मैं यह (या फिर ऐसा ही कुछ और) कहता हूँ “''हम मानते'' हैं कि पिछले कई वर्षों से पृथ्वी का अस्तित्व है” तो यह अटपटा लगता है कि हम ऐसी बात को ''मानते'' हैं। किन्तु भाषा-खेलों के संपूर्ण तन्त्र में यह आधारभूत है। कहा जा सकता है कि यह मान्यता हमारे व्यवहार का, और इसीलिए स्वभावत: हमारे विचार का आधार है।


{{ParUG|412}} ऐसी स्थिति (और ऐसी स्थिति विरल ही है) जिसमें हम कह सकते हैं कि “मैं जानता हूँ कि यह मेरा हाथ है” की कल्पना न कर सकने वाला व्यक्ति यह कह सकता है कि ये शब्द निरर्थक हैं। वस्तुतः, वह यह भी कह सकता है “बेशक मैं जानता हूँ मैं इसे कैसे नहीं जानूँगा?” पर तब वह संभवतः “यह मेरा हाथ है” इस वाक्य को “मेरा हाथ” शब्दों की ''व्याख्या'' के रूप में लेता है।
{{ParUG|412}} ऐसी स्थिति (और ऐसी स्थिति विरल ही है) जिसमें हम कह सकते हैं कि “मैं जानता हूँ कि यह मेरा हाथ है” की कल्पना न कर सकने वाला व्यक्ति यह कह सकता है कि ये शब्द निरर्थक हैं। वस्तुतः, वह यह भी कह सकता है “बेशक मैं जानता हूँ मैं इसे कैसे नहीं जानूँगा?” पर तब वह संभवतः “यह मेरा हाथ है” इस वाक्य को “मेरा हाथ” शब्दों की ''व्याख्या'' के रूप में लेता है।


{{ParUG|413}} मान लीजिए कि आप किसी अंधे का हाथ पकड़ कर उसका मार्गदर्शन करते हुए उसे कहते हैं: “यह मेरा हाथ है”; यदि तब वह कहे “क्या आपको निश्चय है?” अथवा “क्या आप जानते हैं कि यह आपका हाथ है?” तो ये प्रश्न अत्यन्त विशिष्ट परिस्थितियों में ही सार्थक होंगे।
{{ParUG|413}} मान लीजिए कि आप किसी अंधे का हाथ पकड़ कर उसका मार्गदर्शन करते हुए उसे कहते हैं: “यह मेरा हाथ है”; यदि तब वह कहे “क्या आपको निश्चय है?” अथवा “क्या आप जानते हैं कि यह आपका हाथ है?” तो ये प्रश्न अत्यन्त विशिष्ट परिस्थितियों में ही सार्थक होंगे।


{{ParUG|414}} किन्तु दूसरी ओर: मैं कैसे ''जानता'' हूँ कि यह मेरा हाथ है? क्या मुझे इतना भी पूरी तरह पता है कि यहाँ यह मेरा हाथ है कहने का क्या अर्थ है? जब मैं यह कहता हूँ कि “मुझे कैसे पता है?” तो मेरा अर्थ यह नहीं होता कि इसके बारे में मुझे कोई ''संशय'' है। यह तो मेरे व्यवहार का आधार है। किन्तु मुझे लगता है कि “मैं जानता हूँ” शब्दों द्वारा इसे गलत ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
{{ParUG|414}} किन्तु दूसरी ओर: मैं कैसे ''जानता'' हूँ कि यह मेरा हाथ है? क्या मुझे इतना भी पूरी तरह पता है कि यहाँ यह मेरा हाथ है कहने का क्या अर्थ है? जब मैं यह कहता हूँ कि “मुझे कैसे पता है?” तो मेरा अर्थ यह नहीं होता कि इसके बारे में मुझे कोई ''संशय'' है। यह तो मेरे व्यवहार का आधार है। किन्तु मुझे लगता है कि “मैं जानता हूँ” शब्दों द्वारा इसे गलत ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।


{{ParUG|415}} वस्तुतः, “जानना” शब्द का मुख्य रूप से दार्शनिक शब्द के रूप में प्रयोग ही क्या बिल्कुल गलत नहीं है? यदि “जानने” का यह प्रयोग है तो “निश्चित होने” का क्यों नहीं? वस्तुतः इसलिए कि यह अत्यधिक व्यक्ति-सापेक्ष हो जाएगा। किन्तु क्या “जानना” भी ''उतना ही'' मनोगत नहीं होता? कहीं हम इस व्याकरणिक विशिष्टता सेतो भ्रमित नहीं हो जाते कि “मैं जानता हूँ कि प” से “प” निष्पन्न होता है?
{{ParUG|415}} वस्तुतः, “जानना” शब्द का मुख्य रूप से दार्शनिक शब्द के रूप में प्रयोग ही क्या बिल्कुल गलत नहीं है? यदि “जानने” का यह प्रयोग है तो “निश्चित होने” का क्यों नहीं? वस्तुतः इसलिए कि यह अत्यधिक व्यक्ति-सापेक्ष हो जाएगा। किन्तु क्या “जानना” भी ''उतना ही'' मनोगत नहीं होता? कहीं हम इस व्याकरणिक विशिष्टता सेतो भ्रमित नहीं हो जाते कि “मैं जानता हूँ कि प” से “प” निष्पन्न होता है?


“मुझे विश्वास है कि मैं जानता हूँ” इससे कोई कम निश्चितता तो अभिव्यक्त नहीं होती। यह ठीक है कि हम किसी बड़ी मनोगत निश्चितता को भी अभिव्यक्त करने का प्रयत्न नहीं कर रहे, अपितु हम तो यह कह रहे हैं कि कुछ बातें सभी प्रश्नों एवं सारे विचारों के मूल में प्रतीत होती हैं।
“मुझे विश्वास है कि मैं जानता हूँ” इससे कोई कम निश्चितता तो अभिव्यक्त नहीं होती। यह ठीक है कि हम किसी बड़ी मनोगत निश्चितता को भी अभिव्यक्त करने का प्रयत्न नहीं कर रहे, अपितु हम तो यह कह रहे हैं कि कुछ बातें सभी प्रश्नों एवं सारे विचारों के मूल में प्रतीत होती हैं।


{{ParUG|416}} यह बात कि मैं पिछले कई सप्ताहों से इस कमरे में रह रहा हूँ और यहाँ मेरी स्मृति मुझे धोखा नहीं दे रही क्या इस बात का उदाहरण नहीं है?
{{ParUG|416}} यह बात कि मैं पिछले कई सप्ताहों से इस कमरे में रह रहा हूँ और यहाँ मेरी स्मृति मुझे धोखा नहीं दे रही क्या इस बात का उदाहरण नहीं है?


“सारे युक्तियुक्त संशयों से रहित असंदिग्ध”
“सारे युक्तियुक्त संशयों से रहित असंदिग्ध”


21.3.
21.3.
Line 1,028: Line 1,028:
{{ParUG|418}} क्या मेरी समझ अपनी समझ की कमी पर पर्दा डाल देती है? मुझे अक्सर ऐसा लगता है।
{{ParUG|418}} क्या मेरी समझ अपनी समझ की कमी पर पर्दा डाल देती है? मुझे अक्सर ऐसा लगता है।


{{ParUG|419}} जब मैं कहता हूँ कि “मैं कभी भी एशिया माइनर नहीं गया हूँ” तो मुझे इसका कैसे पता चलता है? न तो मैंने इसे सीखा है और न ही किसी ने मुझे इसके बारे में बताया है; मेरी स्मृति मुझे यह बताती है। अतः, मैं इस बारे में भूल नहीं कर सकता? क्या इसमें कोई ऐसी सच्चाई है जिसे मैं ''जानता'' हूँ? इस निर्णय को निरस्त करने के लिए मुझे अन्य सभी निर्णयों को निरस्त करना होगा।
{{ParUG|419}} जब मैं कहता हूँ कि “मैं कभी भी एशिया माइनर नहीं गया हूँ” तो मुझे इसका कैसे पता चलता है? न तो मैंने इसे सीखा है और न ही किसी ने मुझे इसके बारे में बताया है; मेरी स्मृति मुझे यह बताती है। अतः, मैं इस बारे में भूल नहीं कर सकता? क्या इसमें कोई ऐसी सच्चाई है जिसे मैं ''जानता'' हूँ? इस निर्णय को निरस्त करने के लिए मुझे अन्य सभी निर्णयों को निरस्त करना होगा।


{{ParUG|420}} मैं आजकल इंगलैण्ड में रहता हूँ इस प्रतिज्ञप्ति के भी दो पक्ष हैं: यह ''गलत'' नहीं है पर दूसरी ओर मैं इंगलैण्ड के बारे में क्या जानता हूँ? क्या मेरा निर्णय खंड-खंड नहीं हो सकता?
{{ParUG|420}} मैं आजकल इंगलैण्ड में रहता हूँ इस प्रतिज्ञप्ति के भी दो पक्ष हैं: यह ''गलत'' नहीं है पर दूसरी ओर मैं इंगलैण्ड के बारे में क्या जानता हूँ? क्या मेरा निर्णय खंड-खंड नहीं हो सकता?


क्या यह संभव नहीं है कि लोग मेरे कमरे में आयें और इससे विपरीत बात कहें? और अपनी बात का ‘प्रमाण’ भी दें, जिससे मैं सामान्य लोगों में अकेला पागल या फिर पागलों में एकाकी सामान्य व्यक्ति दिखाई दूँ? क्या तब मैं उन बातों पर भी संशय नहीं करूँगा जो अभी मुझे संशय से रहित प्रतीत होती हैं?
क्या यह संभव नहीं है कि लोग मेरे कमरे में आयें और इससे विपरीत बात कहें? और अपनी बात का ‘प्रमाण’ भी दें, जिससे मैं सामान्य लोगों में अकेला पागल या फिर पागलों में एकाकी सामान्य व्यक्ति दिखाई दूँ? क्या तब मैं उन बातों पर भी संशय नहीं करूँगा जो अभी मुझे संशय से रहित प्रतीत होती हैं?


{{ParUG|421}} मैं इंगलैण्ड में हूँ। अपने संपूर्ण परिवेश से मुझे यह पता चलता है; जहाँ भी और जैसे भी मैं इस पर विचार करता हूँ, मेरा परिवेश पूर्णतः इसकी पुष्टि करता है। किन्तु, जिसकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने पर क्या मैं स्थिर रह सकूँगा?
{{ParUG|421}} मैं इंगलैण्ड में हूँ। अपने संपूर्ण परिवेश से मुझे यह पता चलता है; जहाँ भी और जैसे भी मैं इस पर विचार करता हूँ, मेरा परिवेश पूर्णतः इसकी पुष्टि करता है। किन्तु, जिसकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने पर क्या मैं स्थिर रह सकूँगा?


{{ParUG|422}} अतः, मैं उपयोगितावाद जैसी कोई बात कहने का प्रयास कर रहा हूँ।
{{ParUG|422}} अतः, मैं उपयोगितावाद जैसी कोई बात कहने का प्रयास कर रहा हूँ।
Line 1,040: Line 1,040:
यहाँ एक प्रकार की ''वेल्टानशाऊँग'' (विश्व-दृष्टि) मेरे आड़े आ रही है।
यहाँ एक प्रकार की ''वेल्टानशाऊँग'' (विश्व-दृष्टि) मेरे आड़े आ रही है।


{{ParUG|423}} तो मूअर की भाँति मैं यह ही क्यों नहीं कहता कि “मैं ''जानता'' हूँ कि मैं इंगलैण्ड में हूँ”? ऐसा कहना ''विशिष्ट परिस्थितियों में'' सार्थक होता है और मैं उनकी कल्पना कर सकता हूँ। किन्तु, जब मैं इन परिस्थितियों के बिना इस वाक्य को इसलिए उदाहृत करने को कहता हूँ कि मैं इस प्रकार के सत्यों को निश्चितता के साथ जान सकता हूँ, तो यकायक यह मुझे संदिग्ध लगने लगता है। क्या ऐसा होना चाहिए?
{{ParUG|423}} तो मूअर की भाँति मैं यह ही क्यों नहीं कहता कि “मैं ''जानता'' हूँ कि मैं इंगलैण्ड में हूँ”? ऐसा कहना ''विशिष्ट परिस्थितियों में'' सार्थक होता है और मैं उनकी कल्पना कर सकता हूँ। किन्तु, जब मैं इन परिस्थितियों के बिना इस वाक्य को इसलिए उदाहृत करने को कहता हूँ कि मैं इस प्रकार के सत्यों को निश्चितता के साथ जान सकता हूँ, तो यकायक यह मुझे संदिग्ध लगने लगता है। क्या ऐसा होना चाहिए?


{{ParUG|424}} “मैं जानता हूँ कि प” ऐसा मैं या तो लोगों को यह बताने के लिए कहता हूँ कि मुझे भी प के सत्य होने के बारे में पता है, या फिर ऐसा मैं। प सिद्ध है पर बल देने के लिए ही कहता हूँ। हम यह भी कहते हैं “यह मेरा विश्वास नहीं है, मैं इसे जानता हूँ”। और इसे (उदाहरणार्थ) ऐसे भी कहा जा सकता है: “वह एक पेड़ है। कोई कपोल-कल्पना नहीं है।”
{{ParUG|424}} “मैं जानता हूँ कि प” ऐसा मैं या तो लोगों को यह बताने के लिए कहता हूँ कि मुझे भी प के सत्य होने के बारे में पता है, या फिर ऐसा मैं। प सिद्ध है पर बल देने के लिए ही कहता हूँ। हम यह भी कहते हैं “यह मेरा विश्वास नहीं है, मैं इसे जानता हूँ”। और इसे (उदाहरणार्थ) ऐसे भी कहा जा सकता है: “वह एक पेड़ है। कोई कपोल-कल्पना नहीं है।”


किन्तु इसके बारे में क्या कहेंगे: “यदि मैं किसी को कहता कि वह एक पेड़ है तो यह कोई कपोल-कल्पना नहीं होती।” क्या मूअर यही नहीं कहना चाहते?
किन्तु इसके बारे में क्या कहेंगे: “यदि मैं किसी को कहता कि वह एक पेड़ है तो यह कोई कपोल-कल्पना नहीं होती।” क्या मूअर यही नहीं कहना चाहते?


{{ParUG|425}} यह कोई कपोल-कल्पना नहीं है, और मैं किसी को भी असंदिग्ध रूप से पूर्ण निश्चितता के साथ यह बता सकता हूँ। किन्तु क्या इसका अर्थ है कि यह पूर्ण सत्य है? क्या यह सम्भव नहीं कि जिसे मैंने जीवन पर्यंत पेड़ के रूप में देखा हो और जिसे पूरी निश्चितता से चीह्ना हो पता चले कि वह तो कोई भिन्न वस्तु है? क्या इससे मैं हैरान नहीं हो जाऊँगा?
{{ParUG|425}} यह कोई कपोल-कल्पना नहीं है, और मैं किसी को भी असंदिग्ध रूप से पूर्ण निश्चितता के साथ यह बता सकता हूँ। किन्तु क्या इसका अर्थ है कि यह पूर्ण सत्य है? क्या यह सम्भव नहीं कि जिसे मैंने जीवन पर्यंत पेड़ के रूप में देखा हो और जिसे पूरी निश्चितता से चीह्ना हो पता चले कि वह तो कोई भिन्न वस्तु है? क्या इससे मैं हैरान नहीं हो जाऊँगा?


पर फिर भी, इस वाक्य को अर्थ प्रदान करने वाली परिस्थितियों में यह कहना ठीक है कि “मैं जानता हूँ (यह मेरी कपोल-कल्पना नहीं है कि) वह एक पेड़ है”। यह कहना गलत होगा कि वास्तव में मैं इस पर विश्वास ही करता हूँ। यह कहना पूर्णत: भ्रामक होगा: “मेरा विश्वास है कि मेरा नाम लु. वि. है।” और यह भी ठीक है: इस बारे में मैं कोई गलती नहीं कर सकता। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मैं इसके बारे में कभी भूल कर ही नहीं सकता।
पर फिर भी, इस वाक्य को अर्थ प्रदान करने वाली परिस्थितियों में यह कहना ठीक है कि “मैं जानता हूँ (यह मेरी कपोल-कल्पना नहीं है कि) वह एक पेड़ है”। यह कहना गलत होगा कि वास्तव में मैं इस पर विश्वास ही करता हूँ। यह कहना पूर्णत: भ्रामक होगा: “मेरा विश्वास है कि मेरा नाम लु. वि. है।” और यह भी ठीक है: इस बारे में मैं कोई गलती नहीं कर सकता। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मैं इसके बारे में कभी भूल कर ही नहीं सकता।
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मेरा पूर्वानुभव मेरी वर्तमान निश्चयात्मकता का ''कारण'' तो हो सकता है; किन्तु क्या यह इसका आधार है?
मेरा पूर्वानुभव मेरी वर्तमान निश्चयात्मकता का ''कारण'' तो हो सकता है; किन्तु क्या यह इसका आधार है?


{{ParUG|430}} मैं किसी मंगलग्रह वासी से मिलता हूँ और वह मुझसे पूछता है “मनुष्यों की कितनी पादांगुलियां होती हैं? मैं कहता हूँ “दस। मैं आपको दिखाता हूँ”। यह कहकर मैं अपने जूते उतार देता हूँ। मान लीजिए कि वह इस बात पर हैरान होता है कि पैरों को देखे बिना ही मैं इतना आश्वस्त हूँ तो क्या मुझे कहना चाहिए: पादांगुलियों को देखे बगैर हम मनुष्यों को पता होता है कि हमारी कितनी पादांगुलियां हैं”?
{{ParUG|430}} मैं किसी मंगलग्रह वासी से मिलता हूँ और वह मुझसे पूछता है “मनुष्यों की कितनी पादांगुलियां होती हैं? मैं कहता हूँ “दस। मैं आपको दिखाता हूँ”। यह कहकर मैं अपने जूते उतार देता हूँ। मान लीजिए कि वह इस बात पर हैरान होता है कि पैरों को देखे बिना ही मैं इतना आश्वस्त हूँ तो क्या मुझे कहना चाहिए: पादांगुलियों को देखे बगैर हम मनुष्यों को पता होता है कि हमारी कितनी पादांगुलियां हैं”?


26.3.51
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{{ParUG|431}} “मैं जानता हूँ कि यह कमरा दूसरी मंजिल पर है, दरवाज़े के पीछे एक संकरा गलियारा सीढ़ियों तक जाता है, इत्यादि, इत्यादि।” ऐसी परिस्थितियों की कल्पना की जा सकती है जिनमें मैं ऐसा कहूँ, किन्तु वे विरल ही होंगी। पर दूसरी ओर मैं दिन-प्रतिदिन अपने व्यवहार और कथनों द्वारा इस ज्ञान को प्रदर्शित करता रहता हूँ।
{{ParUG|431}} “मैं जानता हूँ कि यह कमरा दूसरी मंजिल पर है, दरवाज़े के पीछे एक संकरा गलियारा सीढ़ियों तक जाता है, इत्यादि, इत्यादि।” ऐसी परिस्थितियों की कल्पना की जा सकती है जिनमें मैं ऐसा कहूँ, किन्तु वे विरल ही होंगी। पर दूसरी ओर मैं दिन-प्रतिदिन अपने व्यवहार और कथनों द्वारा इस ज्ञान को प्रदर्शित करता रहता हूँ।


मेरे ऐसे व्यवहार और शब्दों का कोई अन्य व्यक्ति क्या अर्थ लगाता है? क्या इतना ही नहीं कि मैं अपने आधारों के बारे में आश्वस्त हूँ? मैं यहाँ कई सप्ताहों से रह रहा हूँ और प्रतिदिन कई बार ऊपर-नीचे आता-जाता रहता हूँ, इस तथ्य से वह यह नहीं जान जाता कि मुझे ''पता'' है कि मेरा कमरा कहाँ है। “मैं जानता हूँ” कहकर मैं उसे तभी आश्वस्त करता हूँ जब उसे पहले से ही उन बातों के बारे में पता ''नही'' होता जिनसे अनिवार्यतः यह निष्कर्ष निकलता है कि मुझे पता है।
मेरे ऐसे व्यवहार और शब्दों का कोई अन्य व्यक्ति क्या अर्थ लगाता है? क्या इतना ही नहीं कि मैं अपने आधारों के बारे में आश्वस्त हूँ? मैं यहाँ कई सप्ताहों से रह रहा हूँ और प्रतिदिन कई बार ऊपर-नीचे आता-जाता रहता हूँ, इस तथ्य से वह यह नहीं जान जाता कि मुझे ''पता'' है कि मेरा कमरा कहाँ है। “मैं जानता हूँ” कहकर मैं उसे तभी आश्वस्त करता हूँ जब उसे पहले से ही उन बातों के बारे में पता ''नही'' होता जिनसे अनिवार्यतः यह निष्कर्ष निकलता है कि मुझे पता है।


{{ParUG|432}} “मैं जानता हूँ....” कथन का अर्थ मेरे द्वारा ‘जानने’ के अन्य प्रमाणों से संबद्ध होने पर ही होता है।
{{ParUG|432}} “मैं जानता हूँ....” कथन का अर्थ मेरे द्वारा ‘जानने’ के अन्य प्रमाणों से संबद्ध होने पर ही होता है।
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{{ParUG|433}} अत:, जब मैं किसी को कहता हूँ कि “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” तो यह मेरे द्वारा उसे यह कहने जैसा होता है कि “वह एक पेड़ है; आप इस बात पर पूरी तरह विश्वास कर सकते हैं; इसमें कोई संदेह नहीं है”। और कोई दार्शनिक इस कथन का प्रयोग केवल यह प्रदर्शित करने के लिए करता है कि बातचीत में वस्तुतः ऐसा प्रयोग होता है। किन्तु, यदि उसका प्रयोग हिन्दी-व्याकरण पर टिप्पणी नहीं होती, तो उसे इस अभिव्यक्ति के कार्य-व्यापार का ब्योरा देना होगा।
{{ParUG|433}} अत:, जब मैं किसी को कहता हूँ कि “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” तो यह मेरे द्वारा उसे यह कहने जैसा होता है कि “वह एक पेड़ है; आप इस बात पर पूरी तरह विश्वास कर सकते हैं; इसमें कोई संदेह नहीं है”। और कोई दार्शनिक इस कथन का प्रयोग केवल यह प्रदर्शित करने के लिए करता है कि बातचीत में वस्तुतः ऐसा प्रयोग होता है। किन्तु, यदि उसका प्रयोग हिन्दी-व्याकरण पर टिप्पणी नहीं होती, तो उसे इस अभिव्यक्ति के कार्य-व्यापार का ब्योरा देना होगा।


{{ParUG|434}} क्या हमें ''अनुभव'' से पता चलता है कि अमुक-अमुक परिस्थितियों में लोगों को अमुक-अमुक बात का पता चलता है? यकीनन, अनुभव हमें बतलाता है कि, किसी घर में अमुक समय तक रहने के बाद, साधारणतः, मनुष्य को घर के बारे में पता चल जाता है। या फिर: अनुभव से हमें पता चलता है कि अमुक समय के प्रशिक्षण के बाद, प्रशिक्षणार्थी की राय पर विश्वास किया जा सकता है। अनुभव से हमें पता चलता है कि अमुक समय के प्रशिक्षण के बाद ही वह ठीक विश्लेषण कर सकता है। किन्तु – – –।
{{ParUG|434}} क्या हमें ''अनुभव'' से पता चलता है कि अमुक-अमुक परिस्थितियों में लोगों को अमुक-अमुक बात का पता चलता है? यकीनन, अनुभव हमें बतलाता है कि, किसी घर में अमुक समय तक रहने के बाद, साधारणतः, मनुष्य को घर के बारे में पता चल जाता है। या फिर: अनुभव से हमें पता चलता है कि अमुक समय के प्रशिक्षण के बाद, प्रशिक्षणार्थी की राय पर विश्वास किया जा सकता है। अनुभव से हमें पता चलता है कि अमुक समय के प्रशिक्षण के बाद ही वह ठीक विश्लेषण कर सकता है। किन्तु — — —।


27.3.
27.3.
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{{ParUG|442}} क्या यह सम्भव नहीं कि मैंने ऐसा ''मान लिया'' है कि मैं किसी बात को जानता हूँ?
{{ParUG|442}} क्या यह सम्भव नहीं कि मैंने ऐसा ''मान लिया'' है कि मैं किसी बात को जानता हूँ?


{{ParUG|443}} मान लीजिए कि किसी भाषा में हमारी भाषा के “जानने” शब्द के अनुरूप कोई शब्द ही न हो। लोग केवल टिप्पणी ही करते हों। (“वह एक पेड़ है”, इत्यादि)। उनको अपनी त्रुटि की सम्भावना का ज्ञान स्वाभाविक ही है। इसलिए वे वाक्यों के साथ ऐसे संकेत जोड़ देते हैं जिनसे यह पता चलता है कि उन्हें उस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना प्रतीत होती है या फिर, मैं कह सकता हूँ कि इस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना है? बाद के कथन को विशिष्ट परिस्थितियों का विवरण देकर भी इंगित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, “तब अ ने ब से कहा  ‘....’। मैं उनके समीप ही खड़ा था और मेरी श्रवण-शक्ति भी ठीक है”, अथवा “कल अ अमुक स्थान पर था। मैंने उसे दूर से देखा था। मेरी दृष्टि बहुत अच्छी नहीं है”, अथवा “वहाँ एक पेड़ है: मैं उसे साफ-साफ देख सकता हूँ और मैंने उसे पहले भी अनेक बार देखा है”।
{{ParUG|443}} मान लीजिए कि किसी भाषा में हमारी भाषा के “जानने” शब्द के अनुरूप कोई शब्द ही न हो। लोग केवल टिप्पणी ही करते हों। (“वह एक पेड़ है”, इत्यादि)। उनको अपनी त्रुटि की सम्भावना का ज्ञान स्वाभाविक ही है। इसलिए वे वाक्यों के साथ ऐसे संकेत जोड़ देते हैं जिनसे यह पता चलता है कि उन्हें उस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना प्रतीत होती है या फिर, मैं कह सकता हूँ कि इस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना है? बाद के कथन को विशिष्ट परिस्थितियों का विवरण देकर भी इंगित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, “तब अ ने ब से कहा  ‘....’। मैं उनके समीप ही खड़ा था और मेरी श्रवण-शक्ति भी ठीक है”, अथवा “कल अ अमुक स्थान पर था। मैंने उसे दूर से देखा था। मेरी दृष्टि बहुत अच्छी नहीं है”, अथवा “वहाँ एक पेड़ है: मैं उसे साफ-साफ देख सकता हूँ और मैंने उसे पहले भी अनेक बार देखा है”।


{{ParUG|444}} “गाड़ी दो बजे छूटती है। पक्की जानकारी के लिए एक बार और पता कर लो”, अथवा “गाड़ी दो बजे छूटती है। मैंने नवीनतम समय-सारिणी में अभी-अभी देखा है”। यह भी कहा जा सकता है “ऐसी बातों के लिए मुझ पर भरोसा किया जा सकता है”। ऐसे कथनों के लाभ स्पष्ट हैं।
{{ParUG|444}} “गाड़ी दो बजे छूटती है। पक्की जानकारी के लिए एक बार और पता कर लो”, अथवा “गाड़ी दो बजे छूटती है। मैंने नवीनतम समय-सारिणी में अभी-अभी देखा है”। यह भी कहा जा सकता है “ऐसी बातों के लिए मुझ पर भरोसा किया जा सकता है”। ऐसे कथनों के लाभ स्पष्ट हैं।
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{{ParUG|449}} कोई बात तो हमें आधार के रूप में सिखाई जानी चाहिए।
{{ParUG|449}} कोई बात तो हमें आधार के रूप में सिखाई जानी चाहिए।


{{ParUG|450}} मैं कहना चाहता हूँ: हमें इस तरह सिखाया जाता है “वह एक जामुनी वस्तु है”, “वह एक मेज है”। यह सम्भव है कि शिशु ने प्रथम बार ही ‘जामुनी’ शब्द को “संभवत: वह एक जामुनी वस्तु है” वाक्य में सुना हो किन्तु फिर भी वह “जामुनी क्या होता है?” प्रश्न को पूछ सकता है। शायद उसे किसी चित्र को दिखा कर इसका उत्तर दिया जा सकता है। यदि उसे चित्र दिखाते हुए ही हम कहें “वह एक....” पर अन्य स्थितियों में हम “संभवत: वह एक....” कहने के सिवाय कुछ भी न कहें, तो क्या होगा इसके व्यावहारिक परिणाम क्या होंगे?
{{ParUG|450}} मैं कहना चाहता हूँ: हमें इस तरह सिखाया जाता है “वह एक जामुनी वस्तु है”, “वह एक मेज है”। यह सम्भव है कि शिशु ने प्रथम बार ही ‘जामुनी’ शब्द को “संभवत: वह एक जामुनी वस्तु है” वाक्य में सुना हो किन्तु फिर भी वह “जामुनी क्या होता है?” प्रश्न को पूछ सकता है। शायद उसे किसी चित्र को दिखा कर इसका उत्तर दिया जा सकता है। यदि उसे चित्र दिखाते हुए ही हम कहें “वह एक....” पर अन्य स्थितियों में हम “संभवत: वह एक....” कहने के सिवाय कुछ भी न कहें, तो क्या होगा इसके व्यावहारिक परिणाम क्या होंगे?


सभी विषयों पर संशय करना कोई संशय नहीं होता।
सभी विषयों पर संशय करना कोई संशय नहीं होता।


{{ParUG|451}} मूअर के विरोध में मेरी यह आपत्ति “वह एक पेड़ है” इस एकल वाक्य का अर्थ अनिश्चित है क्योंकि जिसे पेड़ कहा जा रहा है उसके बारे में “''वह''” कहना ही अनिश्चित है उपयोगी नहीं है क्योंकि इसके अर्थ को उदाहरणार्थ यह कहकर अधिक सुनिश्चित किया जा सकता है: पेड़ के समान दिखाई देने वाली वह वस्तु किसी पेड़ की कृत्रिम नकल न होकर वास्तविक पेड़ ही है।”
{{ParUG|451}} मूअर के विरोध में मेरी यह आपत्ति “वह एक पेड़ है” इस एकल वाक्य का अर्थ अनिश्चित है क्योंकि जिसे पेड़ कहा जा रहा है उसके बारे में “''वह''” कहना ही अनिश्चित है उपयोगी नहीं है क्योंकि इसके अर्थ को उदाहरणार्थ यह कहकर अधिक सुनिश्चित किया जा सकता है: पेड़ के समान दिखाई देने वाली वह वस्तु किसी पेड़ की कृत्रिम नकल न होकर वास्तविक पेड़ ही है।”


{{ParUG|452}} उसके वास्तविक पेड़ होने या फिर होगा.... होने पर शक करना समुचित नहीं।
{{ParUG|452}} उसके वास्तविक पेड़ होने या फिर होगा.... होने पर शक करना समुचित नहीं।
Line 1,134: Line 1,134:
मेरा इसे संशयातीत समझना महत्त्वपूर्ण नहीं है। किसी संशय के समुचित न होने का पता केवल मेरी जानकारी से तो नहीं चलता। अतः कोई ऐसा नियम होना चाहिए जिससे यह पता चले कि इस पर संशय करना समुचित नहीं है। किन्तु ऐसा नियम भी तो नहीं है।
मेरा इसे संशयातीत समझना महत्त्वपूर्ण नहीं है। किसी संशय के समुचित न होने का पता केवल मेरी जानकारी से तो नहीं चलता। अतः कोई ऐसा नियम होना चाहिए जिससे यह पता चले कि इस पर संशय करना समुचित नहीं है। किन्तु ऐसा नियम भी तो नहीं है।


{{ParUG|453}} वस्तुत: मैं कहता हूँ: “कोई भी समझदार व्यक्ति संशय नहीं करता।” क्या हम माननीय न्यायाधीशों से यह पूछने की कल्पना कर सकते हैं कि कोई संशय समुचित है या नहीं?
{{ParUG|453}} वस्तुत: मैं कहता हूँ: “कोई भी समझदार व्यक्ति संशय नहीं करता।” क्या हम माननीय न्यायाधीशों से यह पूछने की कल्पना कर सकते हैं कि कोई संशय समुचित है या नहीं?


{{ParUG|454}} ऐसी स्थितियां होती हैं जिनमें संशय करना समुचित नहीं होता, और ऐसी स्थितियां भी होती हैं जिनमें संशय करना तार्किक रूप से असंभव प्रतीत होता है। और इन दोनों में कोई सुस्पष्ट भेद नहीं दिखता।
{{ParUG|454}} ऐसी स्थितियां होती हैं जिनमें संशय करना समुचित नहीं होता, और ऐसी स्थितियां भी होती हैं जिनमें संशय करना तार्किक रूप से असंभव प्रतीत होता है। और इन दोनों में कोई सुस्पष्ट भेद नहीं दिखता।
Line 1,150: Line 1,150:
{{ParUG|459}} यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय ‘धार्मिक विश्वास’ जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है।
{{ParUG|459}} यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय ‘धार्मिक विश्वास’ जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है।


{{ParUG|460}} मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ “यह एक हाथ है न कि....; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।” क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि “यह एक हाथ है” ये शब्द कोई जानकारी देते तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते? वस्तुत:, ‘इसके हाथ होने’ पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं चाहे वे विरल ही क्यों न हों जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता।
{{ParUG|460}} मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ “यह एक हाथ है न कि....; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।” क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि “यह एक हाथ है” ये शब्द कोई जानकारी देते तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते? वस्तुत:, ‘इसके हाथ होने’ पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं चाहे वे विरल ही क्यों न हों जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता।


{{ParUG|461}} मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: “हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर वास्तव में एक हाथ है” और फिर अपनी चोट के बारे में बताए तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है।
{{ParUG|461}} मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: “हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर वास्तव में एक हाथ है” और फिर अपनी चोट के बारे में बताए तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है।


30.3.
30.3.


{{ParUG|462}} मूअर कोई ऐसी बात क्यों नहीं कहते जिसे वे जानते हों उदाहरणार्थ इंग्लैंड के अमुक भाग में अमुक गाँव है? दूसरे शब्दों में: वह किसी ऐसे तथ्य का उल्लेख क्यों नहीं करते जिसे वे तो जानते हों किन्तु जिससे ''हम सब'' अपरिचित हों?
{{ParUG|462}} मूअर कोई ऐसी बात क्यों नहीं कहते जिसे वे जानते हों उदाहरणार्थ इंग्लैंड के अमुक भाग में अमुक गाँव है? दूसरे शब्दों में: वह किसी ऐसे तथ्य का उल्लेख क्यों नहीं करते जिसे वे तो जानते हों किन्तु जिससे ''हम सब'' अपरिचित हों?


31.3.
31.3.
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6.4.
6.4.


{{ParUG|476}} बच्चे यह नहीं सीखते कि पुस्तकों का अस्तित्व है, कुर्सियों का अस्तित्व है, इत्यादि, इत्यादि वे पुस्तकें लाना, कुर्सियों पर बैठना, इत्यादि, इत्यादि सीखते हैं।
{{ParUG|476}} बच्चे यह नहीं सीखते कि पुस्तकों का अस्तित्व है, कुर्सियों का अस्तित्व है, इत्यादि, इत्यादि वे पुस्तकें लाना, कुर्सियों पर बैठना, इत्यादि, इत्यादि सीखते हैं।


बाद में, बेशक, वस्तुओं के अस्तित्व विषयक प्रश्न उठाए जाते हैं। “क्या एकशृंगी जैसा कुछ होता है?” इत्यादि। अनुरूप प्रश्न के अभाव के कारण ही ऐसे प्रश्न की सम्भावना रहती है। अन्यथा हमें एकशृंगी के अस्तित्व-विषयक जानकारी प्राप्त करने के उपायों का कैसे पता चलेगा? अस्तित्व को जानने की पद्धति हमने कैसे सीखी?
बाद में, बेशक, वस्तुओं के अस्तित्व विषयक प्रश्न उठाए जाते हैं। “क्या एकशृंगी जैसा कुछ होता है?” इत्यादि। अनुरूप प्रश्न के अभाव के कारण ही ऐसे प्रश्न की सम्भावना रहती है। अन्यथा हमें एकशृंगी के अस्तित्व-विषयक जानकारी प्राप्त करने के उपायों का कैसे पता चलेगा? अस्तित्व को जानने की पद्धति हमने कैसे सीखी?


{{ParUG|477}} “अत:, जिन वस्तुओं के नाम को हम शिशुओं को निदर्शनात्मक पद्धति से सिखाते हैं, उनके अस्तित्व के बारे में हमें जानकारी होनी ही चाहिए।” उनके अस्तित्व के बारे में हमें जानकारी क्यों होनी चाहिए? क्या यही पर्याप्त नहीं है कि हमारा अनुभव बाद में इससे उलट बात नहीं बताता?
{{ParUG|477}} “अत:, जिन वस्तुओं के नाम को हम शिशुओं को निदर्शनात्मक पद्धति से सिखाते हैं, उनके अस्तित्व के बारे में हमें जानकारी होनी ही चाहिए।” उनके अस्तित्व के बारे में हमें जानकारी क्यों होनी चाहिए? क्या यही पर्याप्त नहीं है कि हमारा अनुभव बाद में इससे उलट बात नहीं बताता?


भाषा-खेल को क्यों किसी प्रकार के ज्ञान पर आधारित होना चाहिए?
भाषा-खेल को क्यों किसी प्रकार के ज्ञान पर आधारित होना चाहिए?
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8.4.
8.4.


{{ParUG|480}} “पेड़” शब्द के प्रयोग को सीखने वाला शिशु। उसके साथ पेड़ के समक्ष खड़े होकर हम कहते हैं “''प्यारा'' पेड़!” स्पष्टतः, इस भाषा-खेल में पेड़ के अस्तित्व में कोई संशय उपस्थित ही नहीं होता। किन्तु क्या यह कहा जा सकता है कि शिशु ''जानता'' है: ‘कि पेड़ का अस्तित्व है’? यह तो ठीक है कि ‘किसी वस्तु को जानने के लिए उसके बारे में ''चिन्तन'' करने की आवश्यकता नहीं होती किन्तु, क्या ज्ञाता में संशय करने की क्षमता नहीं होनी चाहिए? और संशय करने का अभिप्राय है चिन्तन करना।
{{ParUG|480}} “पेड़” शब्द के प्रयोग को सीखने वाला शिशु। उसके साथ पेड़ के समक्ष खड़े होकर हम कहते हैं “''प्यारा'' पेड़!” स्पष्टतः, इस भाषा-खेल में पेड़ के अस्तित्व में कोई संशय उपस्थित ही नहीं होता। किन्तु क्या यह कहा जा सकता है कि शिशु ''जानता'' है: ‘कि पेड़ का अस्तित्व है’? यह तो ठीक है कि ‘किसी वस्तु को जानने के लिए उसके बारे में ''चिन्तन'' करने की आवश्यकता नहीं होती किन्तु, क्या ज्ञाता में संशय करने की क्षमता नहीं होनी चाहिए? और संशय करने का अभिप्राय है चिन्तन करना।


{{ParUG|481}} जब हम मूअर को यह कहते हुए सुनते हैं कि “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” तो हमें यकायक उन लोगों की बात समझ आ जाती है जो सोचते हैं कि यह बात अभी तय नहीं हुई है।
{{ParUG|481}} जब हम मूअर को यह कहते हुए सुनते हैं कि “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” तो हमें यकायक उन लोगों की बात समझ आ जाती है जो सोचते हैं कि यह बात अभी तय नहीं हुई है।
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{{ParUG|482}} मानो “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति का तत्त्वमीमासीय सरोकार न हो।
{{ParUG|482}} मानो “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति का तत्त्वमीमासीय सरोकार न हो।


{{ParUG|483}} “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति का समुचित प्रयोग। कमज़ोर नज़र वाला कोई व्यक्ति मुझसे पूछता है: “क्या आपको विश्वास है कि हमें दिखाई पड़ने वाली वह वस्तु एक पेड़ है?” मैं उसे उत्तर देता हूँ: “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है; मैं उसे अच्छी तरह देख सकता हूँ और उससे परिचित भी हूँ”। अः “क्या न. न. घर पर हैं?” मैं: “मुझे विश्वास है कि वे घर पर हैं।” अः क्या वे कल घर पर थे?” मैं: “मैं जानता हूँ कि वे घर पर थे; मैंने उनसे बातचीत की थी।” अः “क्या आप जानते हैं या केवल ऐसा मानते हैं कि घर का यह भाग बाकी घर से बाद में बनाया गया था?” मैं: मैं ''जानता'' हूँ कि ऐसा ही है; मैंने यह बात अमुक व्यक्ति से जानी थी।”
{{ParUG|483}} “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति का समुचित प्रयोग। कमज़ोर नज़र वाला कोई व्यक्ति मुझसे पूछता है: “क्या आपको विश्वास है कि हमें दिखाई पड़ने वाली वह वस्तु एक पेड़ है?” मैं उसे उत्तर देता हूँ: “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है; मैं उसे अच्छी तरह देख सकता हूँ और उससे परिचित भी हूँ”। अः “क्या न. न. घर पर हैं?” मैं: “मुझे विश्वास है कि वे घर पर हैं।” अः क्या वे कल घर पर थे?” मैं: “मैं जानता हूँ कि वे घर पर थे; मैंने उनसे बातचीत की थी।” अः “क्या आप जानते हैं या केवल ऐसा मानते हैं कि घर का यह भाग बाकी घर से बाद में बनाया गया था?” मैं: मैं ''जानता'' हूँ कि ऐसा ही है; मैंने यह बात अमुक व्यक्ति से जानी थी।”


{{ParUG|484}} तो, इन परिस्थितियों में हम “मैं जानता हूँ” कहते हैं और यह उल्लेख भी करते हैं, या कर सकते हैं कि हम कैसे जानते हैं।
{{ParUG|484}} तो, इन परिस्थितियों में हम “मैं जानता हूँ” कहते हैं और यह उल्लेख भी करते हैं, या कर सकते हैं कि हम कैसे जानते हैं।
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10.4.
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{{ParUG|491}} “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है कि मेरा नाम लु.वि. है?” बेशक, यदि यह प्रश्न होता “क्या मुझे निश्चय है या फिर मैं केवल अनुमान लगा रहा हूँ कि....?” तो मेरे उत्तर पर भरोसा किया जा सकता था।
{{ParUG|491}} “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है कि मेरा नाम लु.वि. है?” बेशक, यदि यह प्रश्न होता “क्या मुझे निश्चय है या फिर मैं केवल अनुमान लगा रहा हूँ कि....?” तो मेरे उत्तर पर भरोसा किया जा सकता था।


{{ParUG|492}} “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है....?” इसकी यह भी अभिव्यक्ति हो सकती है: जिस बात को हम अभी तक संशयातीत समझते आये हैं यदि वही निर्मूल ''लगने लगे'' तो क्या होगा? तब क्या मेरी वही प्रतिक्रिया होगी जो किसी मान्यता के निर्मूल सिद्ध होने पर होती है? अथवा क्या इससे मेरे समस्त निर्णयों का आधार ही समाप्त हो जायेगा? बेशक मेरा मन्तव्य कोई ''भविष्यवाणी'' करना नहीं है।
{{ParUG|492}} “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है....?” इसकी यह भी अभिव्यक्ति हो सकती है: जिस बात को हम अभी तक संशयातीत समझते आये हैं यदि वही निर्मूल ''लगने लगे'' तो क्या होगा? तब क्या मेरी वही प्रतिक्रिया होगी जो किसी मान्यता के निर्मूल सिद्ध होने पर होती है? अथवा क्या इससे मेरे समस्त निर्णयों का आधार ही समाप्त हो जायेगा? बेशक मेरा मन्तव्य कोई ''भविष्यवाणी'' करना नहीं है।


क्या मैं यही कहूँगा कि “मुझे कभी ऐसा सोचना ही नहीं चाहिए था” या फिर मुझे अपने निर्णय को संशोधित करने से इन्कार कर देना होगा (चाहिए) क्योंकि ऐसे ‘संशोधन’ से सभी मानदण्ड लुप्त हो जाएंगे?
क्या मैं यही कहूँगा कि “मुझे कभी ऐसा सोचना ही नहीं चाहिए था” या फिर मुझे अपने निर्णय को संशोधित करने से इन्कार कर देना होगा (चाहिए) क्योंकि ऐसे ‘संशोधन’ से सभी मानदण्ड लुप्त हो जाएंगे?


{{ParUG|493}} तो क्या बात यह है: कोई भी निर्णय लेने के लिए मुझे कुछ मानदण्डों को अपनाना पड़ेगा?
{{ParUG|493}} तो क्या बात यह है: कोई भी निर्णय लेने के लिए मुझे कुछ मानदण्डों को अपनाना पड़ेगा?
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{{ParUG|496}} यह तो किसी को किसी खेल के सदैव गलत खेले जाने जैसी निरर्थक जानकारी देने जैसा ही होगा।
{{ParUG|496}} यह तो किसी को किसी खेल के सदैव गलत खेले जाने जैसी निरर्थक जानकारी देने जैसा ही होगा।


{{ParUG|497}} यदि कोई मेरे मन में संदेह उत्पन्न कराना चाहे और यह कहे: यहाँ आपकी स्मृति आपको धोखा दे रही है, उस बार आप धोखा खा गए, और उससे पूर्व भी आपने अपने आपको पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं किया, इत्यादि पर फिर भी यदि मैं अविचलित बना रहूँ और अपने निश्चय पर अड़ा रहूँ तो मेरा यह व्यवहार गलत नहीं होगा, भले ही इसी से खेल का निर्धारण क्यों न हो।
{{ParUG|497}} यदि कोई मेरे मन में संदेह उत्पन्न कराना चाहे और यह कहे: यहाँ आपकी स्मृति आपको धोखा दे रही है, उस बार आप धोखा खा गए, और उससे पूर्व भी आपने अपने आपको पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं किया, इत्यादि पर फिर भी यदि मैं अविचलित बना रहूँ और अपने निश्चय पर अड़ा रहूँ तो मेरा यह व्यवहार गलत नहीं होगा, भले ही इसी से खेल का निर्धारण क्यों न हो।


11.4.
11.4.


{{ParUG|498}} विचित्र बात तो यह है कि किसी व्यक्ति के “बकवास!” कहने को यद्यपि मैं उचित मानता हूँ और मूलभूत बातों पर संशय दर्शा कर उसे भ्रमित करने के प्रयास को अनुचित मानता हूँ फिर भी (उदाहरणार्थ “मैं जानता हूँ” शब्दों के प्रयोग द्वारा) उसके बचाव के प्रयास को भी मैं अनुचित मानता हूँ।
{{ParUG|498}} विचित्र बात तो यह है कि किसी व्यक्ति के “बकवास!” कहने को यद्यपि मैं उचित मानता हूँ और मूलभूत बातों पर संशय दर्शा कर उसे भ्रमित करने के प्रयास को अनुचित मानता हूँ फिर भी (उदाहरणार्थ “मैं जानता हूँ” शब्दों के प्रयोग द्वारा) उसके बचाव के प्रयास को भी मैं अनुचित मानता हूँ।


{{ParUG|499}} मैं इसे ऐसे भी कह सकता हूँ: “आगमनात्मक सिद्धान्त” का ''आधार'' और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति का ''आधार'' एक जैसा होता है।
{{ParUG|499}} मैं इसे ऐसे भी कह सकता हूँ: “आगमनात्मक सिद्धान्त” का ''आधार'' और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति का ''आधार'' एक जैसा होता है।
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{{ParUG|502}} मेरे हाथ की स्थिति के बारे में दूसरे लोगों के विपरीत साक्ष्य के बावजूद भी क्या मैं कह सकता हूँ कि “मैं आँखें बन्द करने पर भी अपने हाथ की स्थिति बता सकता हूँ”?
{{ParUG|502}} मेरे हाथ की स्थिति के बारे में दूसरे लोगों के विपरीत साक्ष्य के बावजूद भी क्या मैं कह सकता हूँ कि “मैं आँखें बन्द करने पर भी अपने हाथ की स्थिति बता सकता हूँ”?


{{ParUG|503}} मैं किसी वस्तु को देखकर कहता हूँ “वह एक पेड़ है” अथवा “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है”। अब यदि उसके समीप जाने पर यह पता चले कि वह पेड़ नहीं है तो मैं या “तो वह पेड़ नहीं था” या फिर “यह पेड़ तो ''था'' पर अब नहीं रहा” ऐसा कहता हूँ। किन्तु यदि अन्य सभी लोग मेरा विरोध करें और कहें कि वह कभी पेड़ था ही नहीं और यदि सारे साक्ष्य मेरे विरुद्ध हों तो “मैं जानता हूँ” कहने पर अड़े रहने से मेरा क्या ''भला'' होगा?
{{ParUG|503}} मैं किसी वस्तु को देखकर कहता हूँ “वह एक पेड़ है” अथवा “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है”। अब यदि उसके समीप जाने पर यह पता चले कि वह पेड़ नहीं है तो मैं या “तो वह पेड़ नहीं था” या फिर “यह पेड़ तो ''था'' पर अब नहीं रहा” ऐसा कहता हूँ। किन्तु यदि अन्य सभी लोग मेरा विरोध करें और कहें कि वह कभी पेड़ था ही नहीं और यदि सारे साक्ष्य मेरे विरुद्ध हों तो “मैं जानता हूँ” कहने पर अड़े रहने से मेरा क्या ''भला'' होगा?


{{ParUG|504}} साक्ष्य के पक्ष या विपक्ष पर मेरा किसी बात को ''जानना'' निर्भर करता है। क्योंकि अपनी वेदना को जानने जैसी बात का कोई अर्थ नहीं होता।
{{ParUG|504}} साक्ष्य के पक्ष या विपक्ष पर मेरा किसी बात को ''जानना'' निर्भर करता है। क्योंकि अपनी वेदना को जानने जैसी बात का कोई अर्थ नहीं होता।
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{{ParUG|512}} क्या प्रश्न यह नहीं है: “इन आधारभूत बातों के बारे में भी अपने मत को बदलने पर क्या होगा?” और मेरे अनुसार इसका उत्तर होगा: “उनके बारे में आपको अपने मत को बदलना ही नहीं पड़ेगा। ‘आधारभूत’ होने का अर्थ ही यही है।”
{{ParUG|512}} क्या प्रश्न यह नहीं है: “इन आधारभूत बातों के बारे में भी अपने मत को बदलने पर क्या होगा?” और मेरे अनुसार इसका उत्तर होगा: “उनके बारे में आपको अपने मत को बदलना ही नहीं पड़ेगा। ‘आधारभूत’ होने का अर्थ ही यही है।”


{{ParUG|513}} ''अनहोनी'' होने पर क्या होगा? उदाहरणार्थ, यदि मैं घरों को अकारण ही वाष्पीभूत होते देखूँ, यदि खेतों में पशु अपने सिर के बल खड़े होकर हँसने लगें और सार्थक शब्द बोलने लगें; यदि वृक्ष शनै: शनै: मानव और मानव वृक्षों के रूप में परिवर्तित होने लगें, तो इन समस्त घटनाओं के घटित होने से पहले क्या मेरा यह कहना ठीक था कि “मैं जानता हूँ कि वह एक घर है” इत्यादि, या फिर सिर्फ यह कहना कि “वह एक घर है” इत्यादि, उचित था?
{{ParUG|513}} ''अनहोनी'' होने पर क्या होगा? उदाहरणार्थ, यदि मैं घरों को अकारण ही वाष्पीभूत होते देखूँ, यदि खेतों में पशु अपने सिर के बल खड़े होकर हँसने लगें और सार्थक शब्द बोलने लगें; यदि वृक्ष शनै: शनै: मानव और मानव वृक्षों के रूप में परिवर्तित होने लगें, तो इन समस्त घटनाओं के घटित होने से पहले क्या मेरा यह कहना ठीक था कि “मैं जानता हूँ कि वह एक घर है” इत्यादि, या फिर सिर्फ यह कहना कि “वह एक घर है” इत्यादि, उचित था?


{{ParUG|514}} मुझे यह आधारभूत कथन लगता था; यदि यही गलत है तो फिर ‘सत्य’ अथवा ‘असत्य’ किसे कहेंगे?!
{{ParUG|514}} मुझे यह आधारभूत कथन लगता था; यदि यही गलत है तो फिर ‘सत्य’ अथवा ‘असत्य’ किसे कहेंगे?!
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{{ParUG|518}} क्या मैं किसी अन्य व्यक्ति में इसे देखने की कल्पना कर सकता हूँ?
{{ParUG|518}} क्या मैं किसी अन्य व्यक्ति में इसे देखने की कल्पना कर सकता हूँ?


{{ParUG|519}} यह तो सच है कि “मुझे एक पुस्तक दो” जब आप इस आदेश का पालन करते हैं तो आप इस बात की जाँच कर सकते हैं कि दृश्यमान वस्तु वस्तुत: पुस्तक ही है, किन्तु आप यह तो जानते ही हैं कि “पुस्तक” शब्द से क्या अभिप्राय है; पर यदि आप उसका अर्थ नहीं जानते तो आप उसे जान सकते हैं, किन्तु, फिर भी आपको किसी अन्य शब्दार्थ का ज्ञान होना ही चाहिए। किसी शब्द का अमुक अर्थ या अमुक ढंग से प्रयोग, दृश्यमान वस्तु के आनुभविक तथ्य होने जैसा है।
{{ParUG|519}} यह तो सच है कि “मुझे एक पुस्तक दो” जब आप इस आदेश का पालन करते हैं तो आप इस बात की जाँच कर सकते हैं कि दृश्यमान वस्तु वस्तुत: पुस्तक ही है, किन्तु आप यह तो जानते ही हैं कि “पुस्तक” शब्द से क्या अभिप्राय है; पर यदि आप उसका अर्थ नहीं जानते तो आप उसे जान सकते हैं, किन्तु, फिर भी आपको किसी अन्य शब्दार्थ का ज्ञान होना ही चाहिए। किसी शब्द का अमुक अर्थ या अमुक ढंग से प्रयोग, दृश्यमान वस्तु के आनुभविक तथ्य होने जैसा है।


इसीलिए, आदेश पालन के लिए किसी निर्भ्रान्त आनुभविक तथ्य की आवश्यकता होती है। संदेह, निर्भ्रान्त तथ्य पर आधारित होता है।
इसीलिए, आदेश पालन के लिए किसी निर्भ्रान्त आनुभविक तथ्य की आवश्यकता होती है। संदेह, निर्भ्रान्त तथ्य पर आधारित होता है।


किन्तु, भाषा-खेल के कालानुरूप नियमों की पुनरावृत्ति में निहित होने के कारण यह कहना असंभव लगता है कि भाषा-खेल के अस्तित्व के लिए किसी ''विशिष्ट'' स्थिति में कौनसी बात संशयातीत होनी चाहिए यद्यपि यह कहना तो ठीक ही है कि ''साधारणतया'' कोई आनुभविक निर्णय संदेहातीत होना चाहिए।
किन्तु, भाषा-खेल के कालानुरूप नियमों की पुनरावृत्ति में निहित होने के कारण यह कहना असंभव लगता है कि भाषा-खेल के अस्तित्व के लिए किसी ''विशिष्ट'' स्थिति में कौनसी बात संशयातीत होनी चाहिए यद्यपि यह कहना तो ठीक ही है कि ''साधारणतया'' कोई आनुभविक निर्णय संदेहातीत होना चाहिए।


13.4.
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14.4
14.4


{{ParUG|521}} मूअर की गलती यह है कि वे “हम उसे जान ही नहीं सकते” इस कथन का प्रत्युत्तर “मैं तो इसे जानता हूँ” कहकर देते हैं।
{{ParUG|521}} मूअर की गलती यह है कि वे “हम उसे जान ही नहीं सकते” इस कथन का प्रत्युत्तर “मैं तो इसे जानता हूँ” कहकर देते हैं।


{{ParUG|522}} हम कहते हैं: यदि किसी बच्चे ने भाषा पर और इसीलिए उसके प्रयोग पर अधिकार प्राप्त कर लिया है तो उसे शब्दार्थ का ज्ञान होना ही चाहिए। उदाहरणार्थ, उसे निस्संदिग्ध रूप से वस्तुओं के रंग के अनुरूप श्वेत, श्याम, रक्त या नीला कहना आना चाहिए।
{{ParUG|522}} हम कहते हैं: यदि किसी बच्चे ने भाषा पर और इसीलिए उसके प्रयोग पर अधिकार प्राप्त कर लिया है तो उसे शब्दार्थ का ज्ञान होना ही चाहिए। उदाहरणार्थ, उसे निस्संदिग्ध रूप से वस्तुओं के रंग के अनुरूप श्वेत, श्याम, रक्त या नीला कहना आना चाहिए।


{{ParUG|523}} और वस्तुत: यहाँ संदेह का अभाव किसी को भी नहीं खटकता; इस बात से कोई भी चकित नहीं होता कि हम अपने शब्दार्थ के बारे में ''अनुमान'' भी नहीं लगाते।
{{ParUG|523}} और वस्तुत: यहाँ संदेह का अभाव किसी को भी नहीं खटकता; इस बात से कोई भी चकित नहीं होता कि हम अपने शब्दार्थ के बारे में ''अनुमान'' भी नहीं लगाते।
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{{ParUG|524}} क्या हमारे भाषा-खेलों (उदाहरणार्थ, ‘आदेश देना और उसका पालन करना’) के लिए यह अनिवार्य है कि किन्हीं विशिष्ट बातों पर संदेह किया ही नहीं जा सकता, या फिर यही काफी है कि संदेह की गुंजाइश रहने पर भी हमें असंदिग्धता की अनुभूति हो?
{{ParUG|524}} क्या हमारे भाषा-खेलों (उदाहरणार्थ, ‘आदेश देना और उसका पालन करना’) के लिए यह अनिवार्य है कि किन्हीं विशिष्ट बातों पर संदेह किया ही नहीं जा सकता, या फिर यही काफी है कि संदेह की गुंजाइश रहने पर भी हमें असंदिग्धता की अनुभूति हो?


यानी, क्या यही काफी है कि जिन वस्तुओं को मैं अभी ''सीधे-सीधे'' ‘श्याम’ ‘हरित’ ‘रक्त’ कहता हूँ, उन्हें ऐसा न कहकर यह कहने लगूँ कि “मुझे निश्चय है कि वह रक्त है”, जैसे हम कहते हैं कि “मुझे निश्चय है कि वह आज आएगा” (दूसरे शब्दों में ‘निश्चयात्मकता’ के साथ)?
यानी, क्या यही काफी है कि जिन वस्तुओं को मैं अभी ''सीधे-सीधे'' ‘श्याम’ ‘हरित’ ‘रक्त’ कहता हूँ, उन्हें ऐसा न कहकर यह कहने लगूँ कि “मुझे निश्चय है कि वह रक्त है”, जैसे हम कहते हैं कि “मुझे निश्चय है कि वह आज आएगा” (दूसरे शब्दों में ‘निश्चयात्मकता’ के साथ)?


बेशक, जैसे हम सहगामी अनुभूति के प्रति तटस्थ हैं, उसी प्रकार हमें “मुझे निश्चय है” जैसे शब्दों की परवाह करने की आवश्यकता नहीं है। महत्त्वपूर्ण तो यह है कि उनसे भाषा के ''प्रयोग'' में कोई अन्तर पड़ता है या नहीं।
बेशक, जैसे हम सहगामी अनुभूति के प्रति तटस्थ हैं, उसी प्रकार हमें “मुझे निश्चय है” जैसे शब्दों की परवाह करने की आवश्यकता नहीं है। महत्त्वपूर्ण तो यह है कि उनसे भाषा के ''प्रयोग'' में कोई अन्तर पड़ता है या नहीं।


पूछा जा सकता है कि क्या ऐसा कहने वाला व्यक्ति उन सभी परिस्थितियों में (उदाहरणार्थ) जिनमें हमारे वर्णनों में निश्चितता का भाव हो (उदाहरणार्थ, किसी ऐसे प्रयोग, जिसमें, परखनली के माध्यम से देखने पर हमें दिखाई देने वाले रंगों का वर्णन देना हो) सदैव यह कहेगा कि “मैं आश्वस्त हूँ”। ऐसा कहने पर हम तुरन्त उसके कथन की जाँच करना चाहेंगे। किन्तु, उसके पूरी तरह ठीक निकलने पर हमें कहना पड़ेगा कि उसका बात करने का ढंग थोड़ा अटपटा है पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ, हम यह मान सकते हैं कि उसने संशयवादी दार्शनिकों को हृदयंगम कर लिया है, और उनकी इस बात से आश्वस्त हो गया है कि हमें किसी भी बात का ज्ञान नहीं हो सकता और इसीलिए वह इस ढंग से बातचीत करता है। उसके वार्तालाप के ढंग के आदी होने पर हमारे व्यवहार पर कोई असर नहीं पड़ता।
पूछा जा सकता है कि क्या ऐसा कहने वाला व्यक्ति उन सभी परिस्थितियों में (उदाहरणार्थ) जिनमें हमारे वर्णनों में निश्चितता का भाव हो (उदाहरणार्थ, किसी ऐसे प्रयोग, जिसमें, परखनली के माध्यम से देखने पर हमें दिखाई देने वाले रंगों का वर्णन देना हो) सदैव यह कहेगा कि “मैं आश्वस्त हूँ”। ऐसा कहने पर हम तुरन्त उसके कथन की जाँच करना चाहेंगे। किन्तु, उसके पूरी तरह ठीक निकलने पर हमें कहना पड़ेगा कि उसका बात करने का ढंग थोड़ा अटपटा है पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ, हम यह मान सकते हैं कि उसने संशयवादी दार्शनिकों को हृदयंगम कर लिया है, और उनकी इस बात से आश्वस्त हो गया है कि हमें किसी भी बात का ज्ञान नहीं हो सकता और इसीलिए वह इस ढंग से बातचीत करता है। उसके वार्तालाप के ढंग के आदी होने पर हमारे व्यवहार पर कोई असर नहीं पड़ता।
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इस शब्द-प्रयोग में कुशल शिशु को ‘इस बात का निश्चय’ नहीं होता ‘कि उसकी भाषा में यह रंग.... कहलाता है’। न ही यह कहा जा सकता है कि बोलना सीखते समय ही वह यह भी सीख जाता है कि उस रंग को हिन्दी में यह कहते हैं; न ही यह कहा जा सकता है: शब्द के प्रयोग को सीखने पर वह इस बात को ''जान जाता'' है।
इस शब्द-प्रयोग में कुशल शिशु को ‘इस बात का निश्चय’ नहीं होता ‘कि उसकी भाषा में यह रंग.... कहलाता है’। न ही यह कहा जा सकता है कि बोलना सीखते समय ही वह यह भी सीख जाता है कि उस रंग को हिन्दी में यह कहते हैं; न ही यह कहा जा सकता है: शब्द के प्रयोग को सीखने पर वह इस बात को ''जान जाता'' है।


{{ParUG|528}} तिस पर भी: यह पूछने पर कि इस रंग को हिन्दी भाषा में क्या कहते हैं, यदि मेरे जवाब देने पर वह पूछता है “क्या आप आश्वस्त हैं?” तो मैं उसे उत्तर देता हूँ “मैं इसे ''जानता'' हूँ; हिन्दी मेरी मातृ-भाषा है”।
{{ParUG|528}} तिस पर भी: यह पूछने पर कि इस रंग को हिन्दी भाषा में क्या कहते हैं, यदि मेरे जवाब देने पर वह पूछता है “क्या आप आश्वस्त हैं?” तो मैं उसे उत्तर देता हूँ “मैं इसे ''जानता'' हूँ; हिन्दी मेरी मातृ-भाषा है”।


{{ParUG|529}} उदाहरणार्थ, एक शिशु किसी अन्य शिशु के बारे में या फिर अपने ही बारे में कहेगा कि उसे पहले से ही ज्ञात है कि अमुक वस्तु का क्या अभिधान है।
{{ParUG|529}} उदाहरणार्थ, एक शिशु किसी अन्य शिशु के बारे में या फिर अपने ही बारे में कहेगा कि उसे पहले से ही ज्ञात है कि अमुक वस्तु का क्या अभिधान है।


{{ParUG|530}} मैं किसी को (उदाहरणार्थ, उसे हिन्दी सिखाते समय) कह सकता हूँ कि “इस रंग को हिन्दी में ‘लाल’ कहते हैं”। इस स्थिति में मुझे यह नहीं कहना चाहिए कि “मैं जानता हूँ कि इस रंग को....” संभवतः, मैं ऐसा तभी कहूँगा जब मैंने इसे हाल ही में सीखा हो, या फिर मैं इसे तब कहूँगा जब मुझे उसकी किसी ऐसे रंग के नाम से तुलना करनी हो जिससे मैं अपरिचित हूँ।
{{ParUG|530}} मैं किसी को (उदाहरणार्थ, उसे हिन्दी सिखाते समय) कह सकता हूँ कि “इस रंग को हिन्दी में ‘लाल’ कहते हैं”। इस स्थिति में मुझे यह नहीं कहना चाहिए कि “मैं जानता हूँ कि इस रंग को....” संभवतः, मैं ऐसा तभी कहूँगा जब मैंने इसे हाल ही में सीखा हो, या फिर मैं इसे तब कहूँगा जब मुझे उसकी किसी ऐसे रंग के नाम से तुलना करनी हो जिससे मैं अपरिचित हूँ।


{{ParUG|531}} किन्तु, क्या मेरी वर्तमान स्थिति का उचित विवरण निम्नलिखित नही होगा: मैं ''जानता'' हूँ कि इस रंग को हिन्दी में क्या कहते हैं? और यदि यह ठीक है तो मैं अपनी स्थिति का वर्णन उसके अनुरूप “मैं जानता हूँ इत्यादि” शब्दों द्वारा क्यों नहीं दे सकता?
{{ParUG|531}} किन्तु, क्या मेरी वर्तमान स्थिति का उचित विवरण निम्नलिखित नही होगा: मैं ''जानता'' हूँ कि इस रंग को हिन्दी में क्या कहते हैं? और यदि यह ठीक है तो मैं अपनी स्थिति का वर्णन उसके अनुरूप “मैं जानता हूँ इत्यादि” शब्दों द्वारा क्यों नहीं दे सकता?
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{{ParUG|534}} किन्तु क्या यह कहना गलत है: “किसी भाषा-खेल में कुशल शिशु को कतिपय विशिष्ट बातें ''पता'' होनी चाहिएं”?
{{ParUG|534}} किन्तु क्या यह कहना गलत है: “किसी भाषा-खेल में कुशल शिशु को कतिपय विशिष्ट बातें ''पता'' होनी चाहिएं”?


यदि इसके विपरीत कोई कहे “कुछ विशिष्ट बातें ''करने योग्य'' होना ही चाहिए” तो चाहे यह पुनरुक्ति ही हो, फिर भी मैं पहले वाले वाक्य का इससे प्रतिकार करना चाहूँगा। किन्तु: “शिशु प्राकृतिक इतिहास का ज्ञान प्राप्त करता है”। इसकी पूर्वमान्यता यह है कि वह पूछ सकता है कि अमुक पौधे का क्या नाम है।
यदि इसके विपरीत कोई कहे “कुछ विशिष्ट बातें ''करने योग्य'' होना ही चाहिए” तो चाहे यह पुनरुक्ति ही हो, फिर भी मैं पहले वाले वाक्य का इससे प्रतिकार करना चाहूँगा। किन्तु: “शिशु प्राकृतिक इतिहास का ज्ञान प्राप्त करता है”। इसकी पूर्वमान्यता यह है कि वह पूछ सकता है कि अमुक पौधे का क्या नाम है।


{{ParUG|535}} शिशु तभी किसी वस्तु का नाम जानता है जब वह इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर दे सके कि “उसे क्या कहते हैं?”।
{{ParUG|535}} शिशु तभी किसी वस्तु का नाम जानता है जब वह इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर दे सके कि “उसे क्या कहते हैं?”।
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{{ParUG|540}} कुत्ता “न” की और “म” की आवाजें सुन कर न और म के पास जाना सीख जाता है, परन्तु इसका यह तो अभिप्राय नहीं कि कुत्ता उनके नाम जानता है?
{{ParUG|540}} कुत्ता “न” की और “म” की आवाजें सुन कर न और म के पास जाना सीख जाता है, परन्तु इसका यह तो अभिप्राय नहीं कि कुत्ता उनके नाम जानता है?


{{ParUG|541}} “वह इस व्यक्ति के नाम को तो जानता है परन्तु उस व्यक्ति के नाम को नहीं”। यह बात हम उस व्यक्ति के बारे में तो कह ही नहीं सकते जो अभिधान के प्रत्यय से अनभिज्ञ है।
{{ParUG|541}} “वह इस व्यक्ति के नाम को तो जानता है परन्तु उस व्यक्ति के नाम को नहीं”। यह बात हम उस व्यक्ति के बारे में तो कह ही नहीं सकते जो अभिधान के प्रत्यय से अनभिज्ञ है।


{{ParUG|542}} “यह जाने बिना कि इस रंग को ‘लाल’ कहते हैं मैं इस फूल का वर्णन नहीं: दे सकता।”
{{ParUG|542}} “यह जाने बिना कि इस रंग को ‘लाल’ कहते हैं मैं इस फूल का वर्णन नहीं: दे सकता।”
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{{ParUG|543}} “मैं इसका नाम जानता हूँ; मैं अभी तक उसका नाम नहीं जानता” यह कह सकने की स्थिति से पूर्व शिशु लोगों के नामों का प्रयोग कर सकता है।
{{ParUG|543}} “मैं इसका नाम जानता हूँ; मैं अभी तक उसका नाम नहीं जानता” यह कह सकने की स्थिति से पूर्व शिशु लोगों के नामों का प्रयोग कर सकता है।


{{ParUG|544}} बेशक (उदाहरणार्थ), ताज़े खून को इंगित करते हुए मैं सच्चाई से कह सकता हूँ कि “मैं जानता हूँ कि इस रंग को हिन्दी में क्या कहते हैं”। किन्तु – – –
{{ParUG|544}} बेशक (उदाहरणार्थ), ताज़े खून को इंगित करते हुए मैं सच्चाई से कह सकता हूँ कि “मैं जानता हूँ कि इस रंग को हिन्दी में क्या कहते हैं”। किन्तु — — —


17.4.
17.4.
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{{ParUG|551}} इस प्रश्न के उत्तर की स्थिति में वह उत्तर सामान्य रूप में स्वीकृत मान्यताओं के अनुकूल होना चाहिए। ''ऐसी'' बात को ऐसे ही जाना जाता है।
{{ParUG|551}} इस प्रश्न के उत्तर की स्थिति में वह उत्तर सामान्य रूप में स्वीकृत मान्यताओं के अनुकूल होना चाहिए। ''ऐसी'' बात को ऐसे ही जाना जाता है।


{{ParUG|552}} क्या मैं जानता हूँ कि मैं इस समय आराम-कुर्सी पर बैठा हूँ? क्या मैं यह नहीं जानता?! वर्तमान परिस्थितियों में कोई भी यह नहीं कहेगा कि मैं इसे जानता हूँ; किन्तु, उदाहरणार्थ, कोई यह भी नहीं कहेगा कि मैं जीवित हूँ। साधारणतः, सड़क पर जाने वाले व्यक्तियों के बारे में भी कोई ऐसा नहीं कहेगा।
{{ParUG|552}} क्या मैं जानता हूँ कि मैं इस समय आराम-कुर्सी पर बैठा हूँ? क्या मैं यह नहीं जानता?! वर्तमान परिस्थितियों में कोई भी यह नहीं कहेगा कि मैं इसे जानता हूँ; किन्तु, उदाहरणार्थ, कोई यह भी नहीं कहेगा कि मैं जीवित हूँ। साधारणतः, सड़क पर जाने वाले व्यक्तियों के बारे में भी कोई ऐसा नहीं कहेगा।


किन्तु ऐसा न कहने के कारण क्या यह बात ''असत्य'' हो जाती है?
किन्तु ऐसा न कहने के कारण क्या यह बात ''असत्य'' हो जाती है?


{{ParUG|553}} यह अजीब बात है: जब मैं बिना किसी विशेष अवसर के कहता हूँ कि “मैं जानता हूँ” उदाहरणार्थ “मैं जानता हूँ कि इस समय मैं कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ”, तो यह कथन मुझे अनुचित एवं धृष्ट लगता है। किन्तु जब मैं यही कथन किसी ऐसी स्थिति में कहता हूँ जहाँ इसकी आवश्यकता होती है तो इसकी सत्यता के बारे में किसी अतिरिक्त निश्चितता के बिना भी यह कथन पूर्णत: उचित और सामान्य लगता है।
{{ParUG|553}} यह अजीब बात है: जब मैं बिना किसी विशेष अवसर के कहता हूँ कि “मैं जानता हूँ” उदाहरणार्थ “मैं जानता हूँ कि इस समय मैं कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ”, तो यह कथन मुझे अनुचित एवं धृष्ट लगता है। किन्तु जब मैं यही कथन किसी ऐसी स्थिति में कहता हूँ जहाँ इसकी आवश्यकता होती है तो इसकी सत्यता के बारे में किसी अतिरिक्त निश्चितता के बिना भी यह कथन पूर्णत: उचित और सामान्य लगता है।


{{ParUG|554}} अपने भाषा-खेल में यह कथन धृष्ट नहीं है। वहाँ इसकी स्थिति साधारण मानवीय भाषा-खेल से अधिक नहीं है। क्योंकि वहाँ इसका सीमित प्रयोग है।
{{ParUG|554}} अपने भाषा-खेल में यह कथन धृष्ट नहीं है। वहाँ इसकी स्थिति साधारण मानवीय भाषा-खेल से अधिक नहीं है। क्योंकि वहाँ इसका सीमित प्रयोग है।
Line 1,434: Line 1,434:
19.4.
19.4.


{{ParUG|555}} हम कहते हैं कि हम जानते हैं कि आग पर रखने से पानी खौलता है। हम कैसे जानते हैं? अनुभव ने हमें यह सिखाया है। मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ कि आज सुबह मैंने नाश्ता किया था”; अनुभव ने मुझे यह नहीं सिखाया। हम यह भी कहते हैं: “मैं जानता हूँ कि उसे पीड़ा हो रही है”। हर बार भाषा-खेल भिन्न है, हर बार हम ''सुनिश्चित'' होते हैं, और लोग भी हमसे सहमत होते हैं कि हर बार हम जानने ''की स्थिति'' में हैं। यही कारण है कि भौतिक-शास्त्र की प्रतिज्ञप्तियां आम पाठ्य-पुस्तकों में पायी जाती है।
{{ParUG|555}} हम कहते हैं कि हम जानते हैं कि आग पर रखने से पानी खौलता है। हम कैसे जानते हैं? अनुभव ने हमें यह सिखाया है। मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ कि आज सुबह मैंने नाश्ता किया था”; अनुभव ने मुझे यह नहीं सिखाया। हम यह भी कहते हैं: “मैं जानता हूँ कि उसे पीड़ा हो रही है”। हर बार भाषा-खेल भिन्न है, हर बार हम ''सुनिश्चित'' होते हैं, और लोग भी हमसे सहमत होते हैं कि हर बार हम जानने ''की स्थिति'' में हैं। यही कारण है कि भौतिक-शास्त्र की प्रतिज्ञप्तियां आम पाठ्य-पुस्तकों में पायी जाती है।


जब कोई कहता है कि वह कुछ ''जानता'' है, तो वह कोई ऐसी बात होनी चाहिए जिसके बारे में आम राय हो कि वह जानने की स्थिति में है।
जब कोई कहता है कि वह कुछ ''जानता'' है, तो वह कोई ऐसी बात होनी चाहिए जिसके बारे में आम राय हो कि वह जानने की स्थिति में है।
Line 1,446: Line 1,446:
{{ParUG|558}} हम कहते हैं, हम जानते हैं कि अमुक परिस्थितियों में पानी खौलता है बर्फ का रूप नहीं लेता। क्या हमारे गलत होने की कल्पना की जा सकती है? क्या किसी गलती से हमारा संपूर्ण विवेक ही नहीं गड़बड़ा जाएगा? या फिर: यदि यही गलत होगा तो फिर ठीक क्या होगा? क्या कोई ऐसी बात खोज पाएगा जिसके कारण हमें कहना पड़े: “यह गलती थी”?
{{ParUG|558}} हम कहते हैं, हम जानते हैं कि अमुक परिस्थितियों में पानी खौलता है बर्फ का रूप नहीं लेता। क्या हमारे गलत होने की कल्पना की जा सकती है? क्या किसी गलती से हमारा संपूर्ण विवेक ही नहीं गड़बड़ा जाएगा? या फिर: यदि यही गलत होगा तो फिर ठीक क्या होगा? क्या कोई ऐसी बात खोज पाएगा जिसके कारण हमें कहना पड़े: “यह गलती थी”?


भविष्य में चाहे कुछ भी हो, पानी की कोई भी गति हो, हम ''जानते'' हैं कि ''अब तक'' अनगिनत बार उसकी यही गति हुई है।
भविष्य में चाहे कुछ भी हो, पानी की कोई भी गति हो, हम ''जानते'' हैं कि ''अब तक'' अनगिनत बार उसकी यही गति हुई है।


यह तथ्य हमारे भाषा-खेल के आधार में रच-बस गया है।
यह तथ्य हमारे भाषा-खेल के आधार में रच-बस गया है।
Line 1,452: Line 1,452:
{{ParUG|559}} आपको यह याद रखना चाहिए कि भाषा-खेल अननुमेय है। मेरा अभिप्राय है: यह आधारों पर टिका हुआ नहीं है। यह उचित (अथवा अनुचित) नहीं होता।
{{ParUG|559}} आपको यह याद रखना चाहिए कि भाषा-खेल अननुमेय है। मेरा अभिप्राय है: यह आधारों पर टिका हुआ नहीं है। यह उचित (अथवा अनुचित) नहीं होता।


इसका अस्तित्व है हमारे जीवन के समान।
इसका अस्तित्व है हमारे जीवन के समान।


{{ParUG|560}} और जानने का प्रत्यय भाषा-खेल के प्रत्यय से जुड़ा है।
{{ParUG|560}} और जानने का प्रत्यय भाषा-खेल के प्रत्यय से जुड़ा है।
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{{ParUG|562}} किसी ऐसी भाषा की कल्पना तो करनी ही होगी जिसमें ‘ज्ञान’ का ''हमारा'' प्रत्यय न हो।
{{ParUG|562}} किसी ऐसी भाषा की कल्पना तो करनी ही होगी जिसमें ‘ज्ञान’ का ''हमारा'' प्रत्यय न हो।


{{ParUG|563}} ठोस आधारों के अभाव में भी हम कहते हैं “मैं जानता हूँ कि वह वेदना-ग्रस्त है”। क्या यह ऐसा कहना है “मुझे निश्चय है कि वह....”? नहीं। “मुझे निश्चय है” कहने से आपको मेरी मनोगत निश्चयात्मकता का पता चलता है। “मैं जानता हूँ” कहने का अभिप्राय यह है कि जानकार मैं और गैरजानकार अन्य व्यक्ति में (संभवत: अनुभव की कोटि में भेद पर आधारित) भिन्नता का कारण जानकारी का भेद है।
{{ParUG|563}} ठोस आधारों के अभाव में भी हम कहते हैं “मैं जानता हूँ कि वह वेदना-ग्रस्त है”। क्या यह ऐसा कहना है “मुझे निश्चय है कि वह....”? नहीं। “मुझे निश्चय है” कहने से आपको मेरी मनोगत निश्चयात्मकता का पता चलता है। “मैं जानता हूँ” कहने का अभिप्राय यह है कि जानकार मैं और गैरजानकार अन्य व्यक्ति में (संभवत: अनुभव की कोटि में भेद पर आधारित) भिन्नता का कारण जानकारी का भेद है।


गणित में जब मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ” तो उसका औचित्य कोई उपपत्ति होती है।
गणित में जब मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ” तो उसका औचित्य कोई उपपत्ति होती है।
Line 1,468: Line 1,468:
प्रमाण की भी कोई सीमा होती है।
प्रमाण की भी कोई सीमा होती है।


{{ParUG|564}} कोई भाषा खेल: ईंटों को लाना, उपलब्ध ईंटों की संख्या बताना। इस संख्या का कभी तो हिसाब लगाया जाता है, और कभी गिन कर बताया जाता है। फिर प्रश्न उठता है: “क्या आपकी मान्यता है कि ईंटें इतनी हैं?” और इसका उत्तर होता है “मैं जानता हूँ कि ईंटें इतनी हैं मैंने उन्हें हाल ही में गिना है”। किन्तु यहाँ “मैं जानता हूँ” कथन का परित्याग किया जा सकता है। बहरहाल, यदि किसी बात को सुनिश्चित करने के अनेक तरीके हों, जैसे गिनना, तौलना, चट्टे की नपाई करना, तो “मैं जानता हूँ” कथन को हम ''कैसे'' जानते हैं से प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
{{ParUG|564}} कोई भाषा खेल: ईंटों को लाना, उपलब्ध ईंटों की संख्या बताना। इस संख्या का कभी तो हिसाब लगाया जाता है, और कभी गिन कर बताया जाता है। फिर प्रश्न उठता है: “क्या आपकी मान्यता है कि ईंटें इतनी हैं?” और इसका उत्तर होता है “मैं जानता हूँ कि ईंटें इतनी हैं मैंने उन्हें हाल ही में गिना है”। किन्तु यहाँ “मैं जानता हूँ” कथन का परित्याग किया जा सकता है। बहरहाल, यदि किसी बात को सुनिश्चित करने के अनेक तरीके हों, जैसे गिनना, तौलना, चट्टे की नपाई करना, तो “मैं जानता हूँ” कथन को हम ''कैसे'' जानते हैं से प्रतिस्थापित किया जा सकता है।


{{ParUG|565}} किन्तु यहाँ ''इसे'' “पट्टिका” ''इसे'' “स्तम्भ” इत्यादि कहते हैं इस ‘ज्ञान’ का प्रश्न ही नहीं उठता।
{{ParUG|565}} किन्तु यहाँ ''इसे'' “पट्टिका” ''इसे'' “स्तम्भ” इत्यादि कहते हैं इस ‘ज्ञान’ का प्रश्न ही नहीं उठता।
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{{ParUG|566}} न ही मेरा भाषा-खेल (नम्बर 2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' §2. सं.</ref> सीखने वाला शिशु यह कहना सीखता है कि “मैं जानता हूँ कि इसे ‘पट्टिका’ कहते हैं।”
{{ParUG|566}} न ही मेरा भाषा-खेल (नम्बर 2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' §2. सं.</ref> सीखने वाला शिशु यह कहना सीखता है कि “मैं जानता हूँ कि इसे ‘पट्टिका’ कहते हैं।”


बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे “इस रंग को.... कहते हैं”।) अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं “और इस ईंट को ‘....’ कहते हैं”, और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।
बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे “इस रंग को.... कहते हैं”।) अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं “और इस ईंट को ‘....’ कहते हैं”, और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।


{{ParUG|567}} और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे लु.वि. कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।
{{ParUG|567}} और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे लु.वि. कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।
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{{ParUG|569}} आन्तरिक अनुभव यह नहीं बतलाता कि मैं किसी बात को ''जानता'' हूँ।
{{ParUG|569}} आन्तरिक अनुभव यह नहीं बतलाता कि मैं किसी बात को ''जानता'' हूँ।


अतः, “मैं जानता हूँ कि मेरा नाम” मेरे ऐसा कहने पर भी स्पष्टतः यह कोई आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं होती, – – –।
अतः, “मैं जानता हूँ कि मेरा नाम” मेरे ऐसा कहने पर भी स्पष्टतः यह कोई आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं होती, — — —।


{{ParUG|570}} “मैं जानता हूँ कि यह मेरा नाम है; हम में से प्रत्येक वयस्क अपना नाम जानता है।”
{{ParUG|570}} “मैं जानता हूँ कि यह मेरा नाम है; हम में से प्रत्येक वयस्क अपना नाम जानता है।”


{{ParUG|571}} “मेरा नाम.... है आप इस पर भरोसा कर सकते हैं। यदि यह गलत निकले तो भविष्य में आप कभी भी मुझ पर भरोसा न करें।”
{{ParUG|571}} “मेरा नाम.... है आप इस पर भरोसा कर सकते हैं। यदि यह गलत निकले तो भविष्य में आप कभी भी मुझ पर भरोसा न करें।”


{{ParUG|572}} क्या मैं नहीं जानता कि मैं अपना नाम जानने जैसी बात के बारे में गलती नहीं कर सकता?
{{ParUG|572}} क्या मैं नहीं जानता कि मैं अपना नाम जानने जैसी बात के बारे में गलती नहीं कर सकता?
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{{ParUG|575}} अत:, “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति का उद्देश्य मेरी विश्वसनीयता को इंगित करना हो सकता है। किन्तु जहाँ यह मेरी विश्वसनीयता इंगित करती है वहाँ अनुभव से इस संकेत की उपयोगिता का पता चलता है।
{{ParUG|575}} अत:, “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति का उद्देश्य मेरी विश्वसनीयता को इंगित करना हो सकता है। किन्तु जहाँ यह मेरी विश्वसनीयता इंगित करती है वहाँ अनुभव से इस संकेत की उपयोगिता का पता चलता है।


{{ParUG|576}} हम कह सकते हैं, “मैं कैसे जानता हूँ कि मैं अपने नाम के बारे में गलती नहीं कर रहा?” और इसका यह उत्तर होने पर “मैंने इसका कई बार प्रयोग किया है” मैं पूछ सकता हूँ “मैं कैसे जानता हूँ कि मैं ''इस'' बारे में गलती नहीं कर रहा?” पर यहाँ “मैं कैसे जानता हूँ” अभिव्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।
{{ParUG|576}} हम कह सकते हैं, “मैं कैसे जानता हूँ कि मैं अपने नाम के बारे में गलती नहीं कर रहा?” और इसका यह उत्तर होने पर “मैंने इसका कई बार प्रयोग किया है” मैं पूछ सकता हूँ “मैं कैसे जानता हूँ कि मैं ''इस'' बारे में गलती नहीं कर रहा?” पर यहाँ “मैं कैसे जानता हूँ” अभिव्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।


{{ParUG|577}} “अपने नाम के बारे में मेरा ज्ञान सुनिश्चित है।”
{{ParUG|577}} “अपने नाम के बारे में मेरा ज्ञान सुनिश्चित है।”
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{{ParUG|581}} किन्तु, हो सकता है कि मैं फिर भी अपने आपको रोक न पाऊँ और “मैं जानता हूँ....” कहता रहूँ। किन्तु अपने आप से पूछें: इस अभिव्यक्ति को शिशु ने कैसे सीखा?
{{ParUG|581}} किन्तु, हो सकता है कि मैं फिर भी अपने आपको रोक न पाऊँ और “मैं जानता हूँ....” कहता रहूँ। किन्तु अपने आप से पूछें: इस अभिव्यक्ति को शिशु ने कैसे सीखा?


{{ParUG|582}} “मैं जानता हूँ” का यह अर्थ हो सकता है: मैं इससे पहले से परिचित हूँ या फिर: ऐसा ही है।
{{ParUG|582}} “मैं जानता हूँ” का यह अर्थ हो सकता है: मैं इससे पहले से परिचित हूँ या फिर: ऐसा ही है।


{{ParUG|583}} “मैं जानता हूँ कि.... में इसका नाम ‘....’ है।” आप कैसे जानते हैं? “मैंने.... सीखा है”।
{{ParUG|583}} “मैं जानता हूँ कि.... में इसका नाम ‘....’ है।” आप कैसे जानते हैं? “मैंने.... सीखा है”।


इस उदाहरण में “.... में इसका नाम ‘....’ है” के स्थान पर क्या मैं “जानता हूँ इत्यादि” अभिव्यक्ति का प्रयोग कर सकता हूँ?
इस उदाहरण में “.... में इसका नाम ‘....’ है” के स्थान पर क्या मैं “जानता हूँ इत्यादि” अभिव्यक्ति का प्रयोग कर सकता हूँ?


{{ParUG|584}} क्या किसी साधारण कथन के बाद “जानना” क्रिया को “आप कैसे जानते हैं?” प्रश्न में ही प्रयोग करना संभव होगा? “मैं पहले से ही उसे जानता हूँ” यह कहने के बजाय हम “मैं उससे परिचित हूँ” कहते हैं; और यह उस तथ्य के बताए जाने पर ही होता है। किन्तु<ref>''यह वाक्य बाद में जोड़ा गया।'' (सं.)</ref> “मैं जानता हूँ कि वह क्या है” के बदले हम क्या कहें?
{{ParUG|584}} क्या किसी साधारण कथन के बाद “जानना” क्रिया को “आप कैसे जानते हैं?” प्रश्न में ही प्रयोग करना संभव होगा? “मैं पहले से ही उसे जानता हूँ” यह कहने के बजाय हम “मैं उससे परिचित हूँ” कहते हैं; और यह उस तथ्य के बताए जाने पर ही होता है। किन्तु<ref>''यह वाक्य बाद में जोड़ा गया।'' (सं.)</ref> “मैं जानता हूँ कि वह क्या है” के बदले हम क्या कहें?


{{ParUG|585}} किन्तु क्या “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” यह अभिव्यक्ति “वह एक पेड़ है” इस अभिव्यक्ति से कोई भिन्न बात नहीं कहती?
{{ParUG|585}} किन्तु क्या “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” यह अभिव्यक्ति “वह एक पेड़ है” इस अभिव्यक्ति से कोई भिन्न बात नहीं कहती?
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{{ParUG|587}} पुन: इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या “मैं जानता हूँ कि वह एक....” अभिव्यक्ति “वह एक....” इस अभिव्यक्ति से कुछ भिन्न बात बताती है। पूर्व वाक्य में एक व्यक्ति का उल्लेख है किन्तु उत्तर वाक्य में किसी व्यक्ति का उल्लेख नहीं है। किन्तु इससे यह पता नहीं चलता कि दोनों के अर्थ भिन्न हैं। सभी प्रयोगों में हम पहले वाक्य को दूसरे वाक्य से प्रतिस्थापित कर देते हैं, और उत्तर वाक्य को एक विशेष अन्दाज में कहते हैं। चूँकि अविरोधी कथन और विरोधी कथन को कहने का अन्दाज ही भिन्न होता है।
{{ParUG|587}} पुन: इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या “मैं जानता हूँ कि वह एक....” अभिव्यक्ति “वह एक....” इस अभिव्यक्ति से कुछ भिन्न बात बताती है। पूर्व वाक्य में एक व्यक्ति का उल्लेख है किन्तु उत्तर वाक्य में किसी व्यक्ति का उल्लेख नहीं है। किन्तु इससे यह पता नहीं चलता कि दोनों के अर्थ भिन्न हैं। सभी प्रयोगों में हम पहले वाक्य को दूसरे वाक्य से प्रतिस्थापित कर देते हैं, और उत्तर वाक्य को एक विशेष अन्दाज में कहते हैं। चूँकि अविरोधी कथन और विरोधी कथन को कहने का अन्दाज ही भिन्न होता है।


{{ParUG|588}} किन्तु, क्या मैं “मैं जानता हूँ कि....” शब्दों का प्रयोग किसी मनःस्थिति को अभिव्यक्त करने के लिए नहीं करता, जबकि “वह एक.... है” कथन से वह अभिव्यक्ति नहीं होती? पर फिर भी बहुधा इस कथन का उत्तर यह प्रश्न पूछ कर दिया जाता है “आप कैसे जानते हैं?” “पर इसका कारण यही है कि मेरी जानकारी की स्थिति मेरे कथन से ज्ञात होती है।” इस बात को निम्नलिखित ढंग से कहा जा सकता है: चिड़ियाघर में ऐसी सूचना लिखी हो सकती है: “यह एक ज़ेबरा है”; किन्तु ऐसी सूचना कभी नहीं हो सकती “मैं जानता हूँ कि यह एक ज़ेबरा है”।
{{ParUG|588}} किन्तु, क्या मैं “मैं जानता हूँ कि....” शब्दों का प्रयोग किसी मनःस्थिति को अभिव्यक्त करने के लिए नहीं करता, जबकि “वह एक.... है” कथन से वह अभिव्यक्ति नहीं होती? पर फिर भी बहुधा इस कथन का उत्तर यह प्रश्न पूछ कर दिया जाता है “आप कैसे जानते हैं?” “पर इसका कारण यही है कि मेरी जानकारी की स्थिति मेरे कथन से ज्ञात होती है।” इस बात को निम्नलिखित ढंग से कहा जा सकता है: चिड़ियाघर में ऐसी सूचना लिखी हो सकती है: “यह एक ज़ेबरा है”; किन्तु ऐसी सूचना कभी नहीं हो सकती “मैं जानता हूँ कि यह एक ज़ेबरा है”।


किसी व्यक्ति द्वारा उच्चारित होने पर ही “मैं जानता हूँ” का अर्थ होता है, किन्तु, तभी जब “मैं जानता हूँ....” अथवा “वह एक.... है” के उच्चारण के प्रति
किसी व्यक्ति द्वारा उच्चारित होने पर ही “मैं जानता हूँ” का अर्थ होता है, किन्तु, तभी जब “मैं जानता हूँ....” अथवा “वह एक.... है” के उच्चारण के प्रति
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{{ParUG|590}} “मैं जानता हूँ कि वह क्या है” ऐसी स्थितियों के कथन में ही हम मनःस्थिति को पहचानने की बात कर सकते हैं। इनमें हम अपने आपको आश्वस्त कर सकते हैं कि हमें यह ज्ञात है।
{{ParUG|590}} “मैं जानता हूँ कि वह क्या है” ऐसी स्थितियों के कथन में ही हम मनःस्थिति को पहचानने की बात कर सकते हैं। इनमें हम अपने आपको आश्वस्त कर सकते हैं कि हमें यह ज्ञात है।


{{ParUG|591}} “मैं जानता हूँ कि वह कौनसा पेड़ है। वह पाँगर (चेस्टनट) है।”
{{ParUG|591}} “मैं जानता हूँ कि वह कौनसा पेड़ है। वह पाँगर (चेस्टनट) है।”


“मैं जानता हूँ कि वह कौनसा पेड़ है। मैं जानता हूँ कि वह पाँगर (चेस्टनट) है।”
“मैं जानता हूँ कि वह कौनसा पेड़ है। मैं जानता हूँ कि वह पाँगर (चेस्टनट) है।”


पूर्व कथन उत्तर कथन से अधिक सहज लगता है। हम दूसरी बार “मैं जानता हूँ” तभी कहते हैं जब हम अपने निश्चित होने पर बल देना चाहते हैं; संभवत: विरोध की प्रत्याशा में पहले “मैं जानता हूँ” का अर्थ कमोबेश होता है: मैं बता सकता हूँ।
पूर्व कथन उत्तर कथन से अधिक सहज लगता है। हम दूसरी बार “मैं जानता हूँ” तभी कहते हैं जब हम अपने निश्चित होने पर बल देना चाहते हैं; संभवत: विरोध की प्रत्याशा में पहले “मैं जानता हूँ” का अर्थ कमोबेश होता है: मैं बता सकता हूँ।
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ऐसे व्यक्ति की कल्पना करने में मैं एक वास्तविकता की, उसके चारों ओर विद्यमान संसार की भी कल्पना करता हूँ; और मैं यह कल्पना भी करता हूँ कि वह इस संसार के विरुद्ध सोच (और बोल) रहा है।
ऐसे व्यक्ति की कल्पना करने में मैं एक वास्तविकता की, उसके चारों ओर विद्यमान संसार की भी कल्पना करता हूँ; और मैं यह कल्पना भी करता हूँ कि वह इस संसार के विरुद्ध सोच (और बोल) रहा है।


{{ParUG|596}} जब कोई मुझे बताता है कि उसका नाम न. न. है तो मेरा उसे “क्या आप गलती कर सकते हैं?” पूछना सार्थक हो सकता है। भाषा-खेल में यह प्रश्न पूछा जा सकता है। और इसका सकारात्मक अथवा नकारात्मक उत्तर सार्थक होता है। बेशक, यह उत्तर भी अचूक नहीं होता, यानी, किसी समय इसमें चूक हो सकती है, पर फिर भी इससे “क्या आप.... हो सकते हैं” प्रश्न और इसका “निषेधात्मक” उत्तर निरर्थक नहीं हो जाता।
{{ParUG|596}} जब कोई मुझे बताता है कि उसका नाम न. न. है तो मेरा उसे “क्या आप गलती कर सकते हैं?” पूछना सार्थक हो सकता है। भाषा-खेल में यह प्रश्न पूछा जा सकता है। और इसका सकारात्मक अथवा नकारात्मक उत्तर सार्थक होता है। बेशक, यह उत्तर भी अचूक नहीं होता, यानी, किसी समय इसमें चूक हो सकती है, पर फिर भी इससे “क्या आप.... हो सकते हैं” प्रश्न और इसका “निषेधात्मक” उत्तर निरर्थक नहीं हो जाता।


{{ParUG|597}} “क्या आप गलती कर सकते हैं?” प्रश्न का उत्तर इस कथन को वज़नदार बना देता है। यह भी उत्तर हो सकता है: “मेरे ''विचार'' में गलती नहीं कर सकते।”
{{ParUG|597}} “क्या आप गलती कर सकते हैं?” प्रश्न का उत्तर इस कथन को वज़नदार बना देता है। यह भी उत्तर हो सकता है: “मेरे ''विचार'' में गलती नहीं कर सकते।”
Line 1,568: Line 1,568:
{{ParUG|598}} किन्तु “क्या आप....” प्रश्न का उत्तर यह कहकर नहीं दिया जा सकता: “मैं स्थिति का वर्णन कर देता हूँ, फिर आप स्वयं ही इस संबंध में निर्णय कर लें कि मैं गलती कर सकता हूँ या नहीं”?
{{ParUG|598}} किन्तु “क्या आप....” प्रश्न का उत्तर यह कहकर नहीं दिया जा सकता: “मैं स्थिति का वर्णन कर देता हूँ, फिर आप स्वयं ही इस संबंध में निर्णय कर लें कि मैं गलती कर सकता हूँ या नहीं”?


उदाहरणार्थ, जब प्रश्न किसी के अपने नाम के बारे में हो तो यह संभव है कि उसने कभी भी इस नाम का प्रयोग न किया हो, किन्तु किन्हीं दस्तावेजों में उसे इस नाम को पढ़ने की स्मृति हो, दूसरी ओर यह भी उत्तर हो सकता है: “तमाम उम्र मेरा यही नाम रहा है; सभी लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं।” यदि ''यह'' उत्तर “मैं गलती नहीं कर सकता” उत्तर के समकक्ष नहीं है, तो बाद का कथन पूरी तरह निरर्थक हो जाएगा। पर फिर भी यह महत्त्वपूर्ण भेद को इंगित करता है।
उदाहरणार्थ, जब प्रश्न किसी के अपने नाम के बारे में हो तो यह संभव है कि उसने कभी भी इस नाम का प्रयोग न किया हो, किन्तु किन्हीं दस्तावेजों में उसे इस नाम को पढ़ने की स्मृति हो, दूसरी ओर यह भी उत्तर हो सकता है: “तमाम उम्र मेरा यही नाम रहा है; सभी लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं।” यदि ''यह'' उत्तर “मैं गलती नहीं कर सकता” उत्तर के समकक्ष नहीं है, तो बाद का कथन पूरी तरह निरर्थक हो जाएगा। पर फिर भी यह महत्त्वपूर्ण भेद को इंगित करता है।


{{ParUG|599}} उदाहरणार्थ, लगभग 100° से. पर पानी खौलता है इस प्रतिज्ञप्ति की निश्चितता का वर्णन किया जा सकता है। यह कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति नहीं है जिसे मैंने सुना हो (कई अन्य प्रतिज्ञप्तियों की तरह जिनका मैं उल्लेख कर सकता हूँ)। पाठशाला में मैंने स्वयं यह प्रयोग किया है। हमारी पाठ्य पुस्तकों की यह एक अत्यधिक प्रारंभिक प्रतिज्ञप्ति है, और ऐसे मामलों में हमें अपनी पाठ्य-पुस्तकों पर विश्वास करना पड़ता है क्योंकि....। अब हम इससे उलट ऐसे उदाहरण दे सकते हैं जिनसे यह पता चलता है कि मनुष्यों ने कई बातों को सुनिश्चित माना जो बाद में, हमारे अनुसार, गलत सिद्ध हुईं। किन्तु यह युक्ति बेकार<ref>''हाशिये में टिप्पणी।'' क्या यह भी संभव नहीं है कि हम ऐसा मानते हों कि हम अपनी पूर्व त्रुटियों को पहचानकर बाद में यह निष्कर्ष निकालते हों कि हमारी पहली सोच ही उचित थी? इत्यादि।</ref> है। यह कहना तो कुछ भी कहना नहीं है कि: अन्ततोगत्वा ''हम'' उन्हीं आधारों का उल्लेख करते हैं जिन्हें हम आधार मानते हैं।
{{ParUG|599}} उदाहरणार्थ, लगभग 100° से. पर पानी खौलता है इस प्रतिज्ञप्ति की निश्चितता का वर्णन किया जा सकता है। यह कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति नहीं है जिसे मैंने सुना हो (कई अन्य प्रतिज्ञप्तियों की तरह जिनका मैं उल्लेख कर सकता हूँ)। पाठशाला में मैंने स्वयं यह प्रयोग किया है। हमारी पाठ्य पुस्तकों की यह एक अत्यधिक प्रारंभिक प्रतिज्ञप्ति है, और ऐसे मामलों में हमें अपनी पाठ्य-पुस्तकों पर विश्वास करना पड़ता है क्योंकि....। अब हम इससे उलट ऐसे उदाहरण दे सकते हैं जिनसे यह पता चलता है कि मनुष्यों ने कई बातों को सुनिश्चित माना जो बाद में, हमारे अनुसार, गलत सिद्ध हुईं। किन्तु यह युक्ति बेकार<ref>''हाशिये में टिप्पणी।'' क्या यह भी संभव नहीं है कि हम ऐसा मानते हों कि हम अपनी पूर्व त्रुटियों को पहचानकर बाद में यह निष्कर्ष निकालते हों कि हमारी पहली सोच ही उचित थी? इत्यादि।</ref> है। यह कहना तो कुछ भी कहना नहीं है कि: अन्ततोगत्वा ''हम'' उन्हीं आधारों का उल्लेख करते हैं जिन्हें हम आधार मानते हैं।


मेरा मानना है कि हमारे भाषा-खेलों की प्रकृति के बारे में गलतफहमी ही इसका आधार है।
मेरा मानना है कि हमारे भाषा-खेलों की प्रकृति के बारे में गलतफहमी ही इसका आधार है।
Line 1,576: Line 1,576:
{{ParUG|600}} प्रयोगात्मक भौतिकी की पाठ्य-पुस्तकों पर विश्वास करने के मेरे आधार किस प्रकार के हैं?
{{ParUG|600}} प्रयोगात्मक भौतिकी की पाठ्य-पुस्तकों पर विश्वास करने के मेरे आधार किस प्रकार के हैं?


उन पर विश्वास न करने के मेरे पास कोई आधार नहीं हैं। और मैं उन पर विश्वास करता हूँ। मैं जानता हूँ या फिर यह मेरा विश्वास ही है कि मैं जानता हूँ कि उन पुस्तकों को कैसे लिखा जाता है। मेरे पास कुछ छिटपुट प्रमाण हैं, पर उनसे यह पूर्णत: सिद्ध नहीं होता। मैंने अनेक बातों को देखा, सुना और पढ़ा है।
उन पर विश्वास न करने के मेरे पास कोई आधार नहीं हैं। और मैं उन पर विश्वास करता हूँ। मैं जानता हूँ या फिर यह मेरा विश्वास ही है कि मैं जानता हूँ कि उन पुस्तकों को कैसे लिखा जाता है। मेरे पास कुछ छिटपुट प्रमाण हैं, पर उनसे यह पूर्णत: सिद्ध नहीं होता। मैंने अनेक बातों को देखा, सुना और पढ़ा है।


22.4.
22.4.
Line 1,588: Line 1,588:
{{ParUG|603}} मुझे सिखाया गया है कि ''अमुक'' परिस्थितियों में ''ऐसा'' घटता है। अनेक प्रयोगों से यह ज्ञात हुआ है। यदि यह अनुभव दूसरे अनुभवों से इस प्रकार जुड़ा न हो जिससे एक तन्त्र बनता हो, तो उस अवस्था में कुछ सिद्ध नहीं होगा। इस प्रकार वैज्ञानिकों ने केवल नीचे गिरती हुई वस्तुओं के बारे में ही प्रयोग नहीं किए अपितु वायु-प्रतिरोध संबंधी, और अनेक अन्य बातों से सम्बन्धित प्रयोग भी किए।
{{ParUG|603}} मुझे सिखाया गया है कि ''अमुक'' परिस्थितियों में ''ऐसा'' घटता है। अनेक प्रयोगों से यह ज्ञात हुआ है। यदि यह अनुभव दूसरे अनुभवों से इस प्रकार जुड़ा न हो जिससे एक तन्त्र बनता हो, तो उस अवस्था में कुछ सिद्ध नहीं होगा। इस प्रकार वैज्ञानिकों ने केवल नीचे गिरती हुई वस्तुओं के बारे में ही प्रयोग नहीं किए अपितु वायु-प्रतिरोध संबंधी, और अनेक अन्य बातों से सम्बन्धित प्रयोग भी किए।


पर अन्ततोगत्वा मैं इन अनुभवों पर या उनकी रिपोर्ट पर भरोसा करता हूँ, और अपनी गतिविधियों को उनके अनुरूप ढालने में मुझे कोई संकोच नहीं होता। किन्तु क्या मेरा ऐसा विश्वास स्वयंसिद्ध नहीं है? जहाँ तक मैं सोचता हूँ हाँ।
पर अन्ततोगत्वा मैं इन अनुभवों पर या उनकी रिपोर्ट पर भरोसा करता हूँ, और अपनी गतिविधियों को उनके अनुरूप ढालने में मुझे कोई संकोच नहीं होता। किन्तु क्या मेरा ऐसा विश्वास स्वयंसिद्ध नहीं है? जहाँ तक मैं सोचता हूँ हाँ।


{{ParUG|604}} भौतिक-शास्त्री के इस कथन को कि पानी लगभग 100° से. पर खौलता है न्यायालय निरुपाधिक सत्य मानेगा।
{{ParUG|604}} भौतिक-शास्त्री के इस कथन को कि पानी लगभग 100° से. पर खौलता है न्यायालय निरुपाधिक सत्य मानेगा।
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{{ParUG|605}} किन्तु, यदि भौतिक-शास्त्री का कथन अंधविश्वास निकले तथा निर्णय पर पहुँचने के लिए उसे कसौटी मानना बेतुका हो तो क्या हो?
{{ParUG|605}} किन्तु, यदि भौतिक-शास्त्री का कथन अंधविश्वास निकले तथा निर्णय पर पहुँचने के लिए उसे कसौटी मानना बेतुका हो तो क्या हो?


{{ParUG|606}} मेरे विचार में किसी अन्य व्यक्ति के गलती करते रहने से मेरे अब तक के गलत व्यवहार को आधार नहीं मिल जाता। किन्तु क्या यह इस मान्यता का आधार नहीं होता कि मैं गलती कर ''सकता'' हूँ? मेरे किसी निर्णय का अथवा मेरे क्रियाकलापों की ''अनिश्चितता'' का कोई आधार ''नहीं'' हो सकता।
{{ParUG|606}} मेरे विचार में किसी अन्य व्यक्ति के गलती करते रहने से मेरे अब तक के गलत व्यवहार को आधार नहीं मिल जाता। किन्तु क्या यह इस मान्यता का आधार नहीं होता कि मैं गलती कर ''सकता'' हूँ? मेरे किसी निर्णय का अथवा मेरे क्रियाकलापों की ''अनिश्चितता'' का कोई आधार ''नहीं'' हो सकता।


{{ParUG|607}} कोई निर्णायक तो यह भी कह सकता है “जहाँ तक मुनष्य इसे जान सकते हैं, मनुष्यों के लिए यही सत्य है” किन्तु इस संशोधन से क्या मिलेगा? (“उचित संशय से परे”)।
{{ParUG|607}} कोई निर्णायक तो यह भी कह सकता है “जहाँ तक मुनष्य इसे जान सकते हैं, मनुष्यों के लिए यही सत्य है” किन्तु इस संशोधन से क्या मिलेगा? (“उचित संशय से परे”)।


{{ParUG|608}} भौतिक-शास्त्र की प्रतिज्ञप्तियों द्वारा अपने व्यवहार को संचालित करना क्या मेरी भूल होगी? क्या मुझे कहना होगा कि मेरे पास इसका कोई आधार नहीं है? क्या इसी को हम “उत्तम आधार” नहीं कहते?
{{ParUG|608}} भौतिक-शास्त्र की प्रतिज्ञप्तियों द्वारा अपने व्यवहार को संचालित करना क्या मेरी भूल होगी? क्या मुझे कहना होगा कि मेरे पास इसका कोई आधार नहीं है? क्या इसी को हम “उत्तम आधार” नहीं कहते?


{{ParUG|609}} मान लीजिए कि हम ऐसे लोगों से मिलें जो इसे उचित कारण न मानते हों। पर हम इसकी कल्पना कैसे कर सकते हैं? भौतिक-शास्त्री के बजाए वे किसी साधु-महात्मा से मन्त्रणा करते हैं। (और इसीलिए हम उन्हें आदिम मानते हैं।) क्या उनका सयानों से मन्त्रणा करना और उनकी सलाह पर चलना गलत हैं? यदि हम उन्हें “गलत” कहते हैं तो क्या हम अपने भाषा-खेल को उनके भाषा-खेल का ''मुकाबला'' करने का आधार नहीं बनाते?
{{ParUG|609}} मान लीजिए कि हम ऐसे लोगों से मिलें जो इसे उचित कारण न मानते हों। पर हम इसकी कल्पना कैसे कर सकते हैं? भौतिक-शास्त्री के बजाए वे किसी साधु-महात्मा से मन्त्रणा करते हैं। (और इसीलिए हम उन्हें आदिम मानते हैं।) क्या उनका सयानों से मन्त्रणा करना और उनकी सलाह पर चलना गलत हैं? यदि हम उन्हें “गलत” कहते हैं तो क्या हम अपने भाषा-खेल को उनके भाषा-खेल का ''मुकाबला'' करने का आधार नहीं बनाते?


{{ParUG|610}} और क्या उसका मुकाबला करना सही है या गलत? बेशक हमारी कार्यवाही के समर्थन में अनेक प्रकार की बातें कही जाएंगी।
{{ParUG|610}} और क्या उसका मुकाबला करना सही है या गलत? बेशक हमारी कार्यवाही के समर्थन में अनेक प्रकार की बातें कही जाएंगी।
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{{ParUG|611}} जब भी दो परस्पर विरोधी सिद्धान्तों का वास्तविक टकराव होता है तब दोनों एक दूसरे को बेवकूफ और पागल कहते हैं।
{{ParUG|611}} जब भी दो परस्पर विरोधी सिद्धान्तों का वास्तविक टकराव होता है तब दोनों एक दूसरे को बेवकूफ और पागल कहते हैं।


{{ParUG|612}} मैंने कहा कि मैं दूसरे व्यक्ति का ‘मुकाबला’ करूँगा, किन्तु, क्या मैं उसे ''युक्ति'' नहीं दूँगा? निश्चय ही मैं उसे युक्ति दूँगा; किन्तु उनसे हम कितनी दूर जा सकेंगे? अन्ततोगत्वा युक्ति के बाद ''समझाना'' पड़ता है। (मिशनरियों द्वारा आदिम लोगों के धर्म परिवर्तन की स्थिति पर विचार करें।)
{{ParUG|612}} मैंने कहा कि मैं दूसरे व्यक्ति का ‘मुकाबला’ करूँगा, किन्तु, क्या मैं उसे ''युक्ति'' नहीं दूँगा? निश्चय ही मैं उसे युक्ति दूँगा; किन्तु उनसे हम कितनी दूर जा सकेंगे? अन्ततोगत्वा युक्ति के बाद ''समझाना'' पड़ता है। (मिशनरियों द्वारा आदिम लोगों के धर्म परिवर्तन की स्थिति पर विचार करें।)


{{ParUG|613}} यदि अब मैं कहूँ “मैं जानता हूँ कि आँच पर रखी केतली में भरा पानी खौलेगा न कि जमेगा”, तो “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का औचित्य ''किसी भी'' प्रयोग जैसा होता है। ‘यदि मैं कुछ भी जानता हूँ तो मैं इसे जानता हूँ।’ अथवा, क्या इससे भी ''अधिक'' निश्चितता से मैं जानता हूँ कि मेरे सामने बैठा व्यक्ति मेरा अमुक मित्र है? और इसकी तुलना इस बात से कैसे होगी कि मैं दो आँखों से देखता हूँ और दर्पण में देखने पर वे मुझे दिखाई देंगी? मैं निश्चयपूर्वक इसका उत्तर नहीं दे सकता। किन्तु फिर भी इन स्थितियों में भेद तो है। आँच पर रखे पानी के जम जाने पर बेशक मैं स्तंभित हो जाऊँगा, किन्तु इसके लिए किसी अनजाने कारण की कल्पना करूँगा और संभवत: इस मामले को भौतिक-शास्त्रियों के निर्णय के लिए छोड़ दूँगा। किन्तु, मेरे सामने बैठा व्यक्ति वर्षों से मेरा परिचित न. न. है इस बात पर मैं क्योंकर संदेह करूँगा? इस पर संदेह करने से सभी बातें संदेहास्पद हो जाएंगी और सब कुछ गड़बड़ा जाएगा।
{{ParUG|613}} यदि अब मैं कहूँ “मैं जानता हूँ कि आँच पर रखी केतली में भरा पानी खौलेगा न कि जमेगा”, तो “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का औचित्य ''किसी भी'' प्रयोग जैसा होता है। ‘यदि मैं कुछ भी जानता हूँ तो मैं इसे जानता हूँ।’ अथवा, क्या इससे भी ''अधिक'' निश्चितता से मैं जानता हूँ कि मेरे सामने बैठा व्यक्ति मेरा अमुक मित्र है? और इसकी तुलना इस बात से कैसे होगी कि मैं दो आँखों से देखता हूँ और दर्पण में देखने पर वे मुझे दिखाई देंगी? मैं निश्चयपूर्वक इसका उत्तर नहीं दे सकता। किन्तु फिर भी इन स्थितियों में भेद तो है। आँच पर रखे पानी के जम जाने पर बेशक मैं स्तंभित हो जाऊँगा, किन्तु इसके लिए किसी अनजाने कारण की कल्पना करूँगा और संभवत: इस मामले को भौतिक-शास्त्रियों के निर्णय के लिए छोड़ दूँगा। किन्तु, मेरे सामने बैठा व्यक्ति वर्षों से मेरा परिचित न. न. है इस बात पर मैं क्योंकर संदेह करूँगा? इस पर संदेह करने से सभी बातें संदेहास्पद हो जाएंगी और सब कुछ गड़बड़ा जाएगा।


{{ParUG|614}} यानी: यदि चारों ओर मेरा विरोध हो और मुझे बताया जाए कि इस व्यक्ति का नाम वह नहीं है जिसे मैं सदा से जानता हूँ (और मैं यहाँ “जानना” शब्द का प्रयोग जान-बूझकर कर रहा हूँ), तो मेरे सभी निर्णयों का आधार ही मुझसे छिन जायेगा।
{{ParUG|614}} यानी: यदि चारों ओर मेरा विरोध हो और मुझे बताया जाए कि इस व्यक्ति का नाम वह नहीं है जिसे मैं सदा से जानता हूँ (और मैं यहाँ “जानना” शब्द का प्रयोग जान-बूझकर कर रहा हूँ), तो मेरे सभी निर्णयों का आधार ही मुझसे छिन जायेगा।
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24.4.
24.4.


{{ParUG|621}} शरीर-रचना की विवेचना में मैं कहूँगा: “मैं जानता हूँ कि मस्तिष्क से द्वादश-स्नायु-युग्म निकलते हैं।” मैंने कभी भी इन स्नायुओं को नहीं देखा, और विशेषज्ञों ने भी उन्हें कुछ नमूनों में ही देखा होगा। यहाँ “जानना” शब्द का उचित प्रयोग ऐसे ही किया जाता है।
{{ParUG|621}} शरीर-रचना की विवेचना में मैं कहूँगा: “मैं जानता हूँ कि मस्तिष्क से द्वादश-स्नायु-युग्म निकलते हैं।” मैंने कभी भी इन स्नायुओं को नहीं देखा, और विशेषज्ञों ने भी उन्हें कुछ नमूनों में ही देखा होगा। यहाँ “जानना” शब्द का उचित प्रयोग ऐसे ही किया जाता है।


{{ParUG|622}} किन्तु, क्या मूअर द्वारा उल्लेख किए गए संदर्भों में, कम से कम विशिष्ट परिस्थितियों में, भी “मैं जानता हूँ” का प्रयोग उचित है? (वस्तुतः मैं नहीं जानता कि “मैं जानता हूँ कि मैं एक मनुष्य हूँ” अभिव्यक्ति का क्या अर्थ होता है। किन्तु इसे भी सार्थक बनाया जा सकता है।)
{{ParUG|622}} किन्तु, क्या मूअर द्वारा उल्लेख किए गए संदर्भों में, कम से कम विशिष्ट परिस्थितियों में, भी “मैं जानता हूँ” का प्रयोग उचित है? (वस्तुतः मैं नहीं जानता कि “मैं जानता हूँ कि मैं एक मनुष्य हूँ” अभिव्यक्ति का क्या अर्थ होता है। किन्तु इसे भी सार्थक बनाया जा सकता है।)
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क्योंकि मैं ऐसी परिस्थितियों की कल्पना कर सकता हूँ जिनमें इनमें से प्रत्येक वाक्य हमारे भाषा-खेलों में से किसी एक भाषा-खेल का अंग बन जाएगा, और फिर उससे समस्त दार्शनिक-चमत्कार लुप्त हो जाएंगे।
क्योंकि मैं ऐसी परिस्थितियों की कल्पना कर सकता हूँ जिनमें इनमें से प्रत्येक वाक्य हमारे भाषा-खेलों में से किसी एक भाषा-खेल का अंग बन जाएगा, और फिर उससे समस्त दार्शनिक-चमत्कार लुप्त हो जाएंगे।


{{ParUG|623}} यह अटपटी बात ही है कि ऐसी स्थिति में मैं सदैव कहना चाहता हूँ (चाहे यह गलत है): “जहाँ तक इस बात को जानना संभव है मैं इसे जानता हूँ।” यह गलत है किन्तु इसके पीछे कोई ठीक बात छिपी है।
{{ParUG|623}} यह अटपटी बात ही है कि ऐसी स्थिति में मैं सदैव कहना चाहता हूँ (चाहे यह गलत है): “जहाँ तक इस बात को जानना संभव है मैं इसे जानता हूँ।” यह गलत है किन्तु इसके पीछे कोई ठीक बात छिपी है।


{{ParUG|624}} “हिन्दी में इस रंग को ‘हरा’ कहने में क्या आप गलती कर सकते हैं?” मैं इस प्रश्न का उत्तर “नहीं” में ही दे सकता हूँ। यदि मेरा उत्तर हो: “हाँ, क्योंकि भ्रम की संभावना सदा रहती ही है” तो यह निरर्थक बात होगी।
{{ParUG|624}} “हिन्दी में इस रंग को ‘हरा’ कहने में क्या आप गलती कर सकते हैं?” मैं इस प्रश्न का उत्तर “नहीं” में ही दे सकता हूँ। यदि मेरा उत्तर हो: “हाँ, क्योंकि भ्रम की संभावना सदा रहती ही है” तो यह निरर्थक बात होगी।
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क्या कोई इस संशोधन से अनभिज्ञ है? और मुझे इसका कैसे पता चलता है?
क्या कोई इस संशोधन से अनभिज्ञ है? और मुझे इसका कैसे पता चलता है?


{{ParUG|625}} किन्तु, क्या यह अकल्पनीय है कि यहाँ पर “हरा” शब्द जुबान फिसलने अथवा क्षणिक भ्रांति के कारण कहा गया है? क्या हम ऐसी स्थितियों से अनभिज्ञ हैं? हम किसी को कह सकते हैं कि “कहीं आप भूल तो नहीं कर रहे?” इसका अर्थ है: “इस पर पुनर्विचार कीजिए”।
{{ParUG|625}} किन्तु, क्या यह अकल्पनीय है कि यहाँ पर “हरा” शब्द जुबान फिसलने अथवा क्षणिक भ्रांति के कारण कहा गया है? क्या हम ऐसी स्थितियों से अनभिज्ञ हैं? हम किसी को कह सकते हैं कि “कहीं आप भूल तो नहीं कर रहे?” इसका अर्थ है: “इस पर पुनर्विचार कीजिए”।


किन्तु सावधानी बरतने के ये नियम अपनी सीमा में ही सार्थक होते हैं।
किन्तु सावधानी बरतने के ये नियम अपनी सीमा में ही सार्थक होते हैं।
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{{ParUG|627}} क्या हमें ''सभी'' भाषा-खेलों में इस शर्त को स्थान नहीं देना होगा? (जिससे इसकी निरर्थकता का पता चलता है।)
{{ParUG|627}} क्या हमें ''सभी'' भाषा-खेलों में इस शर्त को स्थान नहीं देना होगा? (जिससे इसकी निरर्थकता का पता चलता है।)


{{ParUG|628}} जब हम कहते हैं कि “कुछ प्रतिज्ञप्तियों को संशय से परे रखना चाहिए” तो ऐसा लगता है कि मुझे लु. वि. कहते हैं जैसी प्रतिज्ञप्तियों को तर्क-शास्त्र की पुस्तक में ही रखना होगा। क्योंकि यदि यह भाषा-खेल के विवरण से संबंधित है, तो यह तर्क-शास्त्र का विषय है। किन्तु मुझे लु. वि. कहते हैं इसका किसी भी ऐसे विवरण से सम्बन्ध नहीं है। अपने नाम के बारे में मेरे गलती करने पर भी, लोगों के नामों पर लागू होने वाला भाषा-खेल निश्चित रूप से संभव है, किन्तु इसकी पूर्वमान्यता है कि यह कहना निरर्थक है कि अधिकांश लोग अपने नामों के संबंध में भूल करते. हैं।
{{ParUG|628}} जब हम कहते हैं कि “कुछ प्रतिज्ञप्तियों को संशय से परे रखना चाहिए” तो ऐसा लगता है कि मुझे लु. वि. कहते हैं जैसी प्रतिज्ञप्तियों को तर्क-शास्त्र की पुस्तक में ही रखना होगा। क्योंकि यदि यह भाषा-खेल के विवरण से संबंधित है, तो यह तर्क-शास्त्र का विषय है। किन्तु मुझे लु. वि. कहते हैं इसका किसी भी ऐसे विवरण से सम्बन्ध नहीं है। अपने नाम के बारे में मेरे गलती करने पर भी, लोगों के नामों पर लागू होने वाला भाषा-खेल निश्चित रूप से संभव है, किन्तु इसकी पूर्वमान्यता है कि यह कहना निरर्थक है कि अधिकांश लोग अपने नामों के संबंध में भूल करते. हैं।


{{ParUG|629}} दूसरी ओर, अपने बारे में मेरा यह कथन बेशक ठीक है कि “मैं अपने नाम सम्बन्ध में भूल नहीं कर सकता”, और यह कहना गलत है कि “संभवत: मैं भूल कर रहा हूँ”। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिसे मैं सुनिश्चित कहता हूँ उस पर अन्य व्यक्तियों द्वारा संशय करना निरर्थक है।
{{ParUG|629}} दूसरी ओर, अपने बारे में मेरा यह कथन बेशक ठीक है कि “मैं अपने नाम सम्बन्ध में भूल नहीं कर सकता”, और यह कहना गलत है कि “संभवत: मैं भूल कर रहा हूँ”। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिसे मैं सुनिश्चित कहता हूँ उस पर अन्य व्यक्तियों द्वारा संशय करना निरर्थक है।
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{{ParUG|632}} सुनिश्चित एवं अनिश्चित स्मृति। यदि साधारणत: सुनिश्चित स्मृति अनिश्चित स्मृति से अधिक विश्वसनीय न होती, यानी, यदि उसकी अनिश्चित स्मृति की तरह ही जाँच द्वारा बहुधा पुष्टि न होती, तो भाषाभिव्यक्ति में निश्चितता और अनिश्चितता की वर्तमान भूमिका नहीं रहती।
{{ParUG|632}} सुनिश्चित एवं अनिश्चित स्मृति। यदि साधारणत: सुनिश्चित स्मृति अनिश्चित स्मृति से अधिक विश्वसनीय न होती, यानी, यदि उसकी अनिश्चित स्मृति की तरह ही जाँच द्वारा बहुधा पुष्टि न होती, तो भाषाभिव्यक्ति में निश्चितता और अनिश्चितता की वर्तमान भूमिका नहीं रहती।


{{ParUG|633}} “मैं भूल कर ही नहीं सकता” किन्तु ऐसा कहने पर भी जब मैं भूल करता हूँ तो क्या होता है? क्या ऐसा संभव नहीं है? किन्तु क्या इससे “मैं.... कर ही नहीं सकता”, अभिव्यक्ति निरर्थक हो जाती है? अथवा क्या इसके बजाए यह कहना उचित होगा कि “मेरे द्वारा भूल करने की संभावना बहुत कम है”? नहीं; क्योंकि उसका कोई और ही अभिप्राय है?
{{ParUG|633}} “मैं भूल कर ही नहीं सकता” किन्तु ऐसा कहने पर भी जब मैं भूल करता हूँ तो क्या होता है? क्या ऐसा संभव नहीं है? किन्तु क्या इससे “मैं.... कर ही नहीं सकता”, अभिव्यक्ति निरर्थक हो जाती है? अथवा क्या इसके बजाए यह कहना उचित होगा कि “मेरे द्वारा भूल करने की संभावना बहुत कम है”? नहीं; क्योंकि उसका कोई और ही अभिप्राय है?


{{ParUG|634}} “मैं भूल कर भूल कर ही नहीं सकता; और अधिक से अधिक बुरा यही होगा कि मैं अपनी प्रतिज्ञप्ति को प्रतिमान में बदल दूँगा।”
{{ParUG|634}} “मैं भूल कर भूल कर ही नहीं सकता; और अधिक से अधिक बुरा यही होगा कि मैं अपनी प्रतिज्ञप्ति को प्रतिमान में बदल दूँगा।”
Line 1,680: Line 1,680:
{{ParUG|638}} “मैं भूल कर ही नहीं सकता” यह एक ऐसा साधारण वाक्य है जो किसी कथन की निश्चितता बतलाने में सहायक होता है। और अपने दैनंदिन प्रयोग में ही इसका औचित्य है।
{{ParUG|638}} “मैं भूल कर ही नहीं सकता” यह एक ऐसा साधारण वाक्य है जो किसी कथन की निश्चितता बतलाने में सहायक होता है। और अपने दैनंदिन प्रयोग में ही इसका औचित्य है।


{{ParUG|639}} किन्तु क्या यह विचित्र नहीं है कि मैं इसके बारे में और इसीलिए इसके द्वारा समर्थित प्रतिज्ञप्ति के प्रयोग में भी जैसा कि सभी मानते हैं भूल कर सकता हूँ?
{{ParUG|639}} किन्तु क्या यह विचित्र नहीं है कि मैं इसके बारे में और इसीलिए इसके द्वारा समर्थित प्रतिज्ञप्ति के प्रयोग में भी जैसा कि सभी मानते हैं भूल कर सकता हूँ?


{{ParUG|640}} या फिर क्या मैं यह कहूँ: यह वाक्य ''एक प्रकार'' की चूक को नकार देता है।
{{ParUG|640}} या फिर क्या मैं यह कहूँ: यह वाक्य ''एक प्रकार'' की चूक को नकार देता है।


{{ParUG|641}} “उसने आज ही मुझे इस बारे में बताया है मैं इस बारे में भूल कर ही नहीं सकता।” किन्तु इसके गलत निकलने पर क्या होगा?! किसी बात के ‘गलत निकलने’ के ढंगों में क्या हमें भेद नहीं करना होगा? अपने कथन की भूल को कैसे ''प्रदर्शित'' किया जा ''सकता'' है? यहाँ प्रमाण के सामने प्रमाण है, और यह ''निर्णय लेना होगा'' कि कौनसा प्रमाण रहे और कौनसा न रहे।
{{ParUG|641}} “उसने आज ही मुझे इस बारे में बताया है मैं इस बारे में भूल कर ही नहीं सकता।” किन्तु इसके गलत निकलने पर क्या होगा?! किसी बात के ‘गलत निकलने’ के ढंगों में क्या हमें भेद नहीं करना होगा? अपने कथन की भूल को कैसे ''प्रदर्शित'' किया जा ''सकता'' है? यहाँ प्रमाण के सामने प्रमाण है, और यह ''निर्णय लेना होगा'' कि कौनसा प्रमाण रहे और कौनसा न रहे।


{{ParUG|642}} पर मान लो कोई झिझकते हुए कहे: क्या होगा यदि मैं अचानक जागूँ और कहूँ कि “जरा रुकिए, मैं कल्पना कर रहा था कि मुझे लु. वि. कहते हैं!” बेशक, किन्तु कौन जानता है कि मैं पुनः न जागूँ और इसे विचित्र कल्पना न कहूँ, इत्यादि, इत्यादि?
{{ParUG|642}} पर मान लो कोई झिझकते हुए कहे: क्या होगा यदि मैं अचानक जागूँ और कहूँ कि “जरा रुकिए, मैं कल्पना कर रहा था कि मुझे लु. वि. कहते हैं!” बेशक, किन्तु कौन जानता है कि मैं पुनः न जागूँ और इसे विचित्र कल्पना न कहूँ, इत्यादि, इत्यादि?


{{ParUG|643}} हम ऐसी स्थिति की कल्पना तो कर ही सकते हैं और ऐसी स्थितियाँ होती भी हैं जिनमें ‘जागने’ के बाद कोई संदेह ही नहीं रहे कि कौनसी कल्पना थी और कौनसी वास्तविकता। किन्तु, ऐसी स्थिति या उसकी संभावना से “मैं भूल कर ही नहीं सकता” प्रतिज्ञप्ति की साख कम नहीं हो जाती।
{{ParUG|643}} हम ऐसी स्थिति की कल्पना तो कर ही सकते हैं और ऐसी स्थितियाँ होती भी हैं जिनमें ‘जागने’ के बाद कोई संदेह ही नहीं रहे कि कौनसी कल्पना थी और कौनसी वास्तविकता। किन्तु, ऐसी स्थिति या उसकी संभावना से “मैं भूल कर ही नहीं सकता” प्रतिज्ञप्ति की साख कम नहीं हो जाती।


{{ParUG|644}} अन्यथा, क्या सभी कथनों की साख इस प्रकार कम नहीं हो जाएगी?
{{ParUG|644}} अन्यथा, क्या सभी कथनों की साख इस प्रकार कम नहीं हो जाएगी?


{{ParUG|645}} मैं भूल कर ही नहीं सकता, किन्तु, सही या गलत, क्या यह नहीं हो सकता कि कभी मैं सोचूँ कि मैं निर्णय करने के योग्य ही नहीं था।
{{ParUG|645}} मैं भूल कर ही नहीं सकता, किन्तु, सही या गलत, क्या यह नहीं हो सकता कि कभी मैं सोचूँ कि मैं निर्णय करने के योग्य ही नहीं था।


{{ParUG|646}} यदि सर्वदा, या बहुधा ऐसा हो तो भाषा-खेल का स्वरूप ही पूरी तरह बदल जाएगा।
{{ParUG|646}} यदि सर्वदा, या बहुधा ऐसा हो तो भाषा-खेल का स्वरूप ही पूरी तरह बदल जाएगा।
Line 1,702: Line 1,702:
मैं किसी को कहता हूँ कि “अमुक व्यक्ति सुबह मेरे साथ था और उसने मुझे अमुक बात बताई”। यदि यह चकित करने वाली बात हो तो वह मुझसे पूछ सकता है: “आप इस बारे में भूल कर ही नही सकते?” उसका आशय हो सकता है: “क्या यह वास्तव में ''आज सुबह'' ही घटित हुआ?” या फिर: “क्या आपको उसे ठीक-ठीक समझने का भरोसा है?” समय और कथन सम्बन्धी अपनी निर्दोषता को प्रदर्शित करने के लिए मुझे जिन बातों का विवरण देना होगा वे तो सर्वविदित है। उन सब विवरणों से यह तो पता ''नहीं'' चलता कि मैंने पूरे प्रकरण को सपने में देखा हैं, या फिर उसकी केवल कल्पना की है। न ही उनसे यह पता चलता है कि आद्योपांत मेरी ''ज़बान फिसलती'' रही है। (ऐसा भी होता है।)
मैं किसी को कहता हूँ कि “अमुक व्यक्ति सुबह मेरे साथ था और उसने मुझे अमुक बात बताई”। यदि यह चकित करने वाली बात हो तो वह मुझसे पूछ सकता है: “आप इस बारे में भूल कर ही नही सकते?” उसका आशय हो सकता है: “क्या यह वास्तव में ''आज सुबह'' ही घटित हुआ?” या फिर: “क्या आपको उसे ठीक-ठीक समझने का भरोसा है?” समय और कथन सम्बन्धी अपनी निर्दोषता को प्रदर्शित करने के लिए मुझे जिन बातों का विवरण देना होगा वे तो सर्वविदित है। उन सब विवरणों से यह तो पता ''नहीं'' चलता कि मैंने पूरे प्रकरण को सपने में देखा हैं, या फिर उसकी केवल कल्पना की है। न ही उनसे यह पता चलता है कि आद्योपांत मेरी ''ज़बान फिसलती'' रही है। (ऐसा भी होता है।)


{{ParUG|649}} (एक बार मैंने किसी को अंग्रेजी भाषा में कहा कि यह टहनी एल्म (चिराबेल का अंग्रेजी नाम) की टहनी की आकृति जैसी है, पर मेरे साथी ने मेरी बात से असहमति जताई। थोड़ी देर बाद ऐसे स्थान पर पहुँचने पर जहाँ ऐश (अंगू का अंग्रेजी नाम) के पेड़ थे मैंने कहा “देखो, ये वैसी टहनियाँ हैं जिनके बारे में मैं बात कर रहा था”। यह सुनकर उसने कहा “किन्तु ये तो ऐश के पेड़ हैं” फिर मैंने कहा “एल्म शब्द से मेरा तात्पर्य ऐश से था”।)
{{ParUG|649}} (एक बार मैंने किसी को अंग्रेजी भाषा में कहा कि यह टहनी एल्म (चिराबेल का अंग्रेजी नाम) की टहनी की आकृति जैसी है, पर मेरे साथी ने मेरी बात से असहमति जताई। थोड़ी देर बाद ऐसे स्थान पर पहुँचने पर जहाँ ऐश (अंगू का अंग्रेजी नाम) के पेड़ थे मैंने कहा “देखो, ये वैसी टहनियाँ हैं जिनके बारे में मैं बात कर रहा था”। यह सुनकर उसने कहा “किन्तु ये तो ऐश के पेड़ हैं” फिर मैंने कहा “एल्म शब्द से मेरा तात्पर्य ऐश से था”।)


{{ParUG|650}} निश्चित रूप से इसका अर्थ है: कई (अनेक) स्थितियों में ''भूल'' की संभावना को दूर किया जा सकता है। हिसाब में भूल ऐसे ही सुधारी जाती है। किसी हिसाब की बार-बार जाँच करने के बाद हम यह नहीं कह सकते कि “फिलहाल यह ''अत्यन्त सम्भावित'' परिणाम ही है क्योंकि अभी भी कोई चूक हो सकती है”। किसी चूक के मिल जाने पर भी हम ऐसा क्यों न समझें कि यह किसी नई चूक का परिणाम है।
{{ParUG|650}} निश्चित रूप से इसका अर्थ है: कई (अनेक) स्थितियों में ''भूल'' की संभावना को दूर किया जा सकता है। हिसाब में भूल ऐसे ही सुधारी जाती है। किसी हिसाब की बार-बार जाँच करने के बाद हम यह नहीं कह सकते कि “फिलहाल यह ''अत्यन्त सम्भावित'' परिणाम ही है क्योंकि अभी भी कोई चूक हो सकती है”। किसी चूक के मिल जाने पर भी हम ऐसा क्यों न समझें कि यह किसी नई चूक का परिणाम है।


{{ParUG|651}} 12 × 12 के 144 होने के बारे में मैं भूल कर ही नहीं सकता। पर ''गणितीय'' निश्चितता की तुलना हम आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों की सापेक्षित निश्चितता से तो नहीं कर सकते। क्योंकि हमारी गणितीय प्रतिज्ञप्तियाँ भी हमारे जीवन से जुड़े क्रिया-कलापों का परिणाम हैं और उनमें भी वैसी ही भूल-चूक और भ्रान्ति की सम्भावना है।
{{ParUG|651}} 12 × 12 के 144 होने के बारे में मैं भूल कर ही नहीं सकता। पर ''गणितीय'' निश्चितता की तुलना हम आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों की सापेक्षित निश्चितता से तो नहीं कर सकते। क्योंकि हमारी गणितीय प्रतिज्ञप्तियाँ भी हमारे जीवन से जुड़े क्रिया-कलापों का परिणाम हैं और उनमें भी वैसी ही भूल-चूक और भ्रान्ति की सम्भावना है।
Line 1,714: Line 1,714:
26.4.51
26.4.51


{{ParUG|654}} किन्तु इसके विरोध में अनेक आपत्तियाँ हैं। प्रथमतः “12 × 12 इत्यादि” प्रतिज्ञप्ति एक ''गणितीय'' प्रतिज्ञप्ति है और इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसी स्थिति में केवल गणितीय प्रतिज्ञप्तियाँ ही होती हैं। और यदि यह अनुमान उचित न हो तो कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति होनी चाहिए जो इस प्रतिज्ञप्ति के समान सुनि-श्चित हो और जो इस परिकलन-पद्धति से संबंधित होने के बावजूद गणितीय न हो। मैं किसी ऐसी प्रतिज्ञप्ति के बारे में सोच रहा हूँ: “जब परिकलन जानने वाले लोग ‘12 × 12’ को गुणा करते हैं, तो अधिकांश लोगों का गुणनफल ‘144’ होता है।” इस प्रतिज्ञप्ति का कोई भी विरोध नहीं करेगा और यह गणितीय है भी नहीं है। किन्तु क्या यह गणितीय प्रतिज्ञप्ति के समान सुनिश्चित है?
{{ParUG|654}} किन्तु इसके विरोध में अनेक आपत्तियाँ हैं। प्रथमतः “12 × 12 इत्यादि” प्रतिज्ञप्ति एक ''गणितीय'' प्रतिज्ञप्ति है और इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसी स्थिति में केवल गणितीय प्रतिज्ञप्तियाँ ही होती हैं। और यदि यह अनुमान उचित न हो तो कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति होनी चाहिए जो इस प्रतिज्ञप्ति के समान सुनि-श्चित हो और जो इस परिकलन-पद्धति से संबंधित होने के बावजूद गणितीय न हो। मैं किसी ऐसी प्रतिज्ञप्ति के बारे में सोच रहा हूँ: “जब परिकलन जानने वाले लोग ‘12 × 12’ को गुणा करते हैं, तो अधिकांश लोगों का गुणनफल ‘144’ होता है।” इस प्रतिज्ञप्ति का कोई भी विरोध नहीं करेगा और यह गणितीय है भी नहीं है। किन्तु क्या यह गणितीय प्रतिज्ञप्ति के समान सुनिश्चित है?


{{ParUG|655}} गणितीय प्रतिज्ञप्ति पर तो, मानो आधिकारिक रूप से, अकाट्यता की मुहर लगा दी गई है। यानी: “अन्य बातों के बारे में विवाद कीजिए; ''यह'' तो ध्रुव है यह तो ऐसी धुरी है जिसके चारों ओर आपके विवाद घूमते हैं।”
{{ParUG|655}} गणितीय प्रतिज्ञप्ति पर तो, मानो आधिकारिक रूप से, अकाट्यता की मुहर लगा दी गई है। यानी: “अन्य बातों के बारे में विवाद कीजिए; ''यह'' तो ध्रुव है यह तो ऐसी धुरी है जिसके चारों ओर आपके विवाद घूमते हैं।”


{{ParUG|656}} पर मैं लु. वि. कहलाता हूँ, इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में ऐसा ''नहीं'' कहा जा सकता। न ही यह बात इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में कही जा सकती है कि अमुक लोगों ने अमुक समस्या का ठीक-ठीक समाधान कर लिया है।
{{ParUG|656}} पर मैं लु. वि. कहलाता हूँ, इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में ऐसा ''नहीं'' कहा जा सकता। न ही यह बात इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में कही जा सकती है कि अमुक लोगों ने अमुक समस्या का ठीक-ठीक समाधान कर लिया है।


{{ParUG|657}} गणित की प्रतिज्ञप्तियों के बारे में कहा जा सकता है कि वे जड़ हो चुकी हैं। “मैं.... कहलाता हूँ”, के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु मेरे जैसे
{{ParUG|657}} गणित की प्रतिज्ञप्तियों के बारे में कहा जा सकता है कि वे जड़ हो चुकी हैं। “मैं.... कहलाता हूँ”, के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु मेरे जैसे


कई अन्य लोग भी अनेकानेक प्रमाणों के आधार पर इसे ''अकाट्य'' मानते हैं। और वे विचारहीनता के कारण ऐसा नहीं मानते, क्योंकि, किसी प्रमाण का अत्यन्त प्रभावी बल इस तथ्य में निहित है कि उससे प्रतिकूल प्रमाण की स्थिति में भी हमें उसे छोड़ने की ''आवश्यकता'' नहीं पड़ती। अतः, अब हमें गणितीय प्रतिज्ञप्तियों को अकाट्य बनाने वाले आधार जैसा आधार मिल गया है।
कई अन्य लोग भी अनेकानेक प्रमाणों के आधार पर इसे ''अकाट्य'' मानते हैं। और वे विचारहीनता के कारण ऐसा नहीं मानते, क्योंकि, किसी प्रमाण का अत्यन्त प्रभावी बल इस तथ्य में निहित है कि उससे प्रतिकूल प्रमाण की स्थिति में भी हमें उसे छोड़ने की ''आवश्यकता'' नहीं पड़ती। अतः, अब हमें गणितीय प्रतिज्ञप्तियों को अकाट्य बनाने वाले आधार जैसा आधार मिल गया है।


{{ParUG|658}} “किन्तु कहीं अभी आप भ्रमित तो नहीं हैं और थोड़ी देर बाद आपको संभवतः इसका पता चले?” पहाड़ों की प्रतिज्ञप्ति पर सवालिया चिह्न अंकित करने के लिए भी इस प्रश्न को उठाया जा सकता है?
{{ParUG|658}} “किन्तु कहीं अभी आप भ्रमित तो नहीं हैं और थोड़ी देर बाद आपको संभवतः इसका पता चले?” पहाड़ों की प्रतिज्ञप्ति पर सवालिया चिह्न अंकित करने के लिए भी इस प्रश्न को उठाया जा सकता है?


{{ParUG|659}} “मैंने अभी-अभी भोजन किया है इस तथ्य के बारे में मैं भूल नहीं कर सकता।”
{{ParUG|659}} “मैंने अभी-अभी भोजन किया है इस तथ्य के बारे में मैं भूल नहीं कर सकता।”
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{{ParUG|661}} मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया, अपनी इस मान्यता के बारे में मैं कैसे भूल कर सकता हूँ?
{{ParUG|661}} मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया, अपनी इस मान्यता के बारे में मैं कैसे भूल कर सकता हूँ?


{{ParUG|662}} “मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया किन्तु मैं भूल कर सकता हूँ” मेरा यह कहना तो बेवकूफी ही होगी।
{{ParUG|662}} “मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया किन्तु मैं भूल कर सकता हूँ” मेरा यह कहना तो बेवकूफी ही होगी।


क्योंकि सपने में, अज्ञात साधनों द्वारा, वहाँ ले जाए जाने की कल्पना भी मुझे यहाँ भूल के उल्लेख का ''अधिकार नहीं देती''। ऐसा करने पर मैं खेल को ''गलत'' ढंग से खेलता हूँ।
क्योंकि सपने में, अज्ञात साधनों द्वारा, वहाँ ले जाए जाने की कल्पना भी मुझे यहाँ भूल के उल्लेख का ''अधिकार नहीं देती''। ऐसा करने पर मैं खेल को ''गलत'' ढंग से खेलता हूँ।
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{{ParUG|666}} किन्तु शरीर-रचना (या उसके बड़े भाग) के बारे में क्या कहें? क्या उसके वर्णन को भी संशय से मुक्ति मिली हुई है?
{{ParUG|666}} किन्तु शरीर-रचना (या उसके बड़े भाग) के बारे में क्या कहें? क्या उसके वर्णन को भी संशय से मुक्ति मिली हुई है?


{{ParUG|667}} स्वप्न में चाँद पर ले जाए जाने का विश्वास रखने वाले लोगों के देश में पहुँचने पर भी, मैं उन्हें यह नहीं कह सकता: “मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ। बेशक मैं भूल कर सकता हूँ।” और उनके यह प्रश्न पूछने पर कि “कहीं आप भूल तो नहीं कर रहे?” मुझे उत्तर देना होगा: नहीं।
{{ParUG|667}} स्वप्न में चाँद पर ले जाए जाने का विश्वास रखने वाले लोगों के देश में पहुँचने पर भी, मैं उन्हें यह नहीं कह सकता: “मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ। बेशक मैं भूल कर सकता हूँ।” और उनके यह प्रश्न पूछने पर कि “कहीं आप भूल तो नहीं कर रहे?” मुझे उत्तर देना होगा: नहीं।


{{ParUG|668}} किसी को कोई सूचना देने के साथ-साथ मेरे इस कथन कि मैं उसके बारे में कोई भूल कर ही नहीं सकता के क्या व्यावहारिक परिणाम होंगे?
{{ParUG|668}} किसी को कोई सूचना देने के साथ-साथ मेरे इस कथन कि मैं उसके बारे में कोई भूल कर ही नहीं सकता के क्या व्यावहारिक परिणाम होंगे?
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{{ParUG|670}} हम मानवीय अन्वेषण के मूल सिद्धान्तों का उल्लेख कर सकते हैं।
{{ParUG|670}} हम मानवीय अन्वेषण के मूल सिद्धान्तों का उल्लेख कर सकते हैं।


{{ParUG|671}} मैं यहाँ से संसार के उस भाग में उड़ कर जाता हूँ जहाँ के लोगों ने उड़ने की संभावना के बारे में या तो बहुत कम या फिर कुछ भी न सुना हो। मैं उन्हें बताता हूँ कि मैं अभी-अभी.... से उड़ कर आया हूँ। वे मुझसे पूछते हैं कि कहीं मैं भूल तो नहीं कर रहा। स्पष्टतः उड़ने के बारे में उनके दोषपूर्ण विचार हैं। (संदूक में बन्द होकर यात्रा करने पर अपनी यात्रा के साधन के बारे में मुझसे भूल होने की संभावना है।) मेरे मात्र यह कहने से कि मैं गलती नहीं कर सकता संभवत: वे सन्तुष्ट नहीं होंगे; किन्तु वास्तविक विधि के विवरण से वे सन्तुष्ट हो जाएंगे। फिर वे ''भूल'' करने की संभावना की बात ही नहीं करेंगे। किन्तु इतना होने पर मुझ पर भरोसा करने पर भी वे सोच सकते हैं कि मैं स्वप्नावस्था में था, या जादू के वशीभूत मैं इसकी कल्पना कर रहा हूँ।
{{ParUG|671}} मैं यहाँ से संसार के उस भाग में उड़ कर जाता हूँ जहाँ के लोगों ने उड़ने की संभावना के बारे में या तो बहुत कम या फिर कुछ भी न सुना हो। मैं उन्हें बताता हूँ कि मैं अभी-अभी.... से उड़ कर आया हूँ। वे मुझसे पूछते हैं कि कहीं मैं भूल तो नहीं कर रहा। स्पष्टतः उड़ने के बारे में उनके दोषपूर्ण विचार हैं। (संदूक में बन्द होकर यात्रा करने पर अपनी यात्रा के साधन के बारे में मुझसे भूल होने की संभावना है।) मेरे मात्र यह कहने से कि मैं गलती नहीं कर सकता संभवत: वे सन्तुष्ट नहीं होंगे; किन्तु वास्तविक विधि के विवरण से वे सन्तुष्ट हो जाएंगे। फिर वे ''भूल'' करने की संभावना की बात ही नहीं करेंगे। किन्तु इतना होने पर मुझ पर भरोसा करने पर भी वे सोच सकते हैं कि मैं स्वप्नावस्था में था, या जादू के वशीभूत मैं इसकी कल्पना कर रहा हूँ।


{{ParUG|672}} ‘जब मैं ''इस'' साक्ष्य पर भरोसा नहीं करता तो मैं किसी अन्य साक्ष्य पर भरोसा क्यों करूँ?’
{{ParUG|672}} ‘जब मैं ''इस'' साक्ष्य पर भरोसा नहीं करता तो मैं किसी अन्य साक्ष्य पर भरोसा क्यों करूँ?’