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{{ParUG|423}} तो मूअर की भाँति मैं यह ही क्यों नहीं कहता कि “मैं ''जानता'' हूँ कि मैं इंगलैण्ड में हूँ”? ऐसा कहना ''विशिष्ट परिस्थितियों में'' सार्थक होता है और मैं उनकी कल्पना कर सकता हूँ। किन्तु, जब मैं इन परिस्थितियों के बिना इस वाक्य को इसलिए उदाहृत करने को कहता हूँ कि मैं इस प्रकार के सत्यों को निश्चितता के साथ जान सकता हूँ, तो यकायक यह मुझे संदिग्ध लगने लगता है। — क्या ऐसा होना चाहिए? | {{ParUG|423}} तो मूअर की भाँति मैं यह ही क्यों नहीं कहता कि “मैं ''जानता'' हूँ कि मैं इंगलैण्ड में हूँ”? ऐसा कहना ''विशिष्ट परिस्थितियों में'' सार्थक होता है और मैं उनकी कल्पना कर सकता हूँ। किन्तु, जब मैं इन परिस्थितियों के बिना इस वाक्य को इसलिए उदाहृत करने को कहता हूँ कि मैं इस प्रकार के सत्यों को निश्चितता के साथ जान सकता हूँ, तो यकायक यह मुझे संदिग्ध लगने लगता है। — क्या ऐसा होना चाहिए? | ||
{{ParUG|424}} “मैं जानता हूँ कि '''प'''” ऐसा मैं या तो लोगों को यह बताने के लिए कहता हूँ कि मुझे भी प के सत्य होने के बारे में पता है, या फिर ऐसा मैं ⊢ | {{ParUG|424}} “मैं जानता हूँ कि '''प'''” ऐसा मैं या तो लोगों को यह बताने के लिए कहता हूँ कि मुझे भी प के सत्य होने के बारे में पता है, या फिर ऐसा मैं ⊢ '''प''' सिद्ध है पर बल देने के लिए ही कहता हूँ। हम यह भी कहते हैं “यह मेरा विश्वास नहीं है, मैं इसे जानता हूँ”। और इसे (उदाहरणार्थ) ऐसे भी कहा जा सकता है: “वह एक पेड़ है। कोई कपोल-कल्पना नहीं है।” | ||
किन्तु इसके बारे में क्या कहेंगे: “यदि मैं किसी को कहता कि वह एक पेड़ है तो यह कोई कपोल-कल्पना नहीं होती।” क्या मूअर यही नहीं कहना चाहते? | किन्तु इसके बारे में क्या कहेंगे: “यदि मैं किसी को कहता कि वह एक पेड़ है तो यह कोई कपोल-कल्पना नहीं होती।” क्या मूअर यही नहीं कहना चाहते? |