ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

no edit summary
No edit summary
No edit summary
Line 1: Line 1:
<html>
<html>
<style>
<style>
@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Google+Sans:wght@100;200;300;400;500;700;900&display=swap');
@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Google+Sans:wght@400;700&display=swap');
.mw-parser-output * {
.mw-parser-output * {
   font-family: 'Google Sans', sans-serif;
   font-family: 'Google Sans', sans-serif;
Line 11: Line 11:
</style>
</style>
</html>
</html>
{{menu bar
|lang1=German
|target1=Über Gewißheit
}}
{{header}}
{{top}}
{{colophon
|translator=Tranlsated by Ashok Vohra
|notes=This digital edition is based on Ludwig Wittgenstein. ''On Certainty — ऑन सर्टेन्टि'', translated by Ashok Vohra, Indian Council of Philosophical Research, 1998. The original-language text is in the public domain in its country of origin and other countries and areas where the copyright term is the author’s life plus 70 years or fewer. The translation was kindly released by Prof. Ashok Vohra under the [https://creativecommons.org/licenses/by-sa/4.0/deed.en Creative Commons Attribution-ShareAlike] licence. The web edition was created by Michele Lavazza and proofread by Abhishek Manhas under the supervision of Désirée Weber.
}}
{{quality|scholarly approved=1 }}
{{TOC|{{TOCitem|10}}{{TOCitem|20}}{{TOCitem|30}}{{TOCitem|40}}{{TOCitem|50}}{{TOCitem|60}}{{TOCitem|70}}{{TOCitem|80}}{{TOCitem|90}}{{TOCitem|100}}{{TOCitem|110}}{{TOCitem|120}}{{TOCitem|130}}{{TOCitem|140}}{{TOCitem|150}}{{TOCitem|160}}{{TOCitem|170}}{{TOCitem|180}}{{TOCitem|190}}{{TOCitem|200}}{{TOCitem|210}}{{TOCitem|220}}{{TOCitem|230}}{{TOCitem|240}}{{TOCitem|250}}{{TOCitem|260}}{{TOCitem|270}}{{TOCitem|280}}{{TOCitem|290}}{{TOCitem|300}}{{TOCitem|310}}{{TOCitem|320}}{{TOCitem|330}}{{TOCitem|340}}{{TOCitem|350}}{{TOCitem|360}}{{TOCitem|370}}{{TOCitem|380}}{{TOCitem|390}}{{TOCitem|400}}{{TOCitem|410}}{{TOCitem|420}}{{TOCitem|430}}{{TOCitem|440}}{{TOCitem|450}}{{TOCitem|460}}{{TOCitem|470}}{{TOCitem|480}}{{TOCitem|490}}{{TOCitem|500}}{{TOCitem|510}}{{TOCitem|520}}{{TOCitem|530}}{{TOCitem|540}}{{TOCitem|550}}{{TOCitem|560}}{{TOCitem|570}}{{TOCitem|580}}{{TOCitem|590}}{{TOCitem|600}}{{TOCitem|610}}{{TOCitem|620}}{{TOCitem|630}}{{TOCitem|640}}{{TOCitem|650}}{{TOCitem|660}}{{TOCitem|670}}}}
{{title|author=लुडविग विट्गेंस्टाइन}}


{{ParUG|1}} यदि आप निश्चित रूप से यह जानते हैं कि ''यह एक हाथ है''<ref>देखें, जी. ई. मूअर “प्रूफ़ ऑव एन एक्सटर्नल वर्ल्ड”, ''प्रोसीडिंग्स ऑव द ब्रिटिश अकेडमी'', खडं xxv, 1930; और “ए डिफेन्स ऑव कॉमन सेन्स”, ''कान्टेम्परेरी ब्रिटिश फ़िलोसॉफ़ी, सेकेंड सिरीज़'', संपादक जे. एच. मयूरहैड, 1925। ये दोनों शोध-पत्र मूअर की पुस्तक ''फ़िलोसॉफ़िकल पेपर्स'', लंदन&nbsp;: जॉर्ज एलन एन्ड अन्विन, 1959 में भी मिलते हैं।</ref> तो हम आपके बाकी सारे ज्ञान को स्वीकार कर लेते हैं।
{{ParUG|1}} यदि आप निश्चित रूप से यह जानते हैं कि ''यह एक हाथ है''<ref>देखें, जी. ई. मूअर “प्रूफ़ ऑव एन एक्सटर्नल वर्ल्ड”, ''प्रोसीडिंग्स ऑव द ब्रिटिश अकेडमी'', खडं xxv, 1930; और “ए डिफेन्स ऑव कॉमन सेन्स”, ''कान्टेम्परेरी ब्रिटिश फ़िलोसॉफ़ी, सेकेंड सिरीज़'', संपादक जे. एच. मयूरहैड, 1925। ये दोनों शोध-पत्र मूअर की पुस्तक ''फ़िलोसॉफ़िकल पेपर्स'', लंदन&nbsp;: जॉर्ज एलन एन्ड अन्विन, 1959 में भी मिलते हैं।</ref> तो हम आपके बाकी सारे ज्ञान को स्वीकार कर लेते हैं।
Line 1,792: Line 1,811:
{{ParUG|676}} “किन्तु चाहे ऐसी स्थितियों में मैं गलती नहीं भी कर सकूँ तो भी क्या मेरा नशे में होना संभव नहीं है?” यदि मैं नशे में हूँ और यदि नशे ने मेरी चेतना हर ली है, तो वस्तुत&nbsp;: मैं अभी न तो वार्तालाप कर रहा हूँ और न ही चिन्तन कर रहा हूँ। मैं इस क्षण स्वप्नाविष्ट होने की दुरूह कल्पना भी नहीं कर सकता। स्वप्न के समय “मुझे सपना आ रहा है” ऐसा कहने वाले व्यक्ति की बात सुनाई देने पर भी वह उतनी ही ठीक होती है जितनी वास्तविक वर्षा की स्थिति में स्वप्न में उसका यह कथन कि “वर्षा हो रही है”, भले ही उसका स्वप्न, वर्षा के कोलाहल से वस्तुतः सम्बन्धित ही क्यों न हो।
{{ParUG|676}} “किन्तु चाहे ऐसी स्थितियों में मैं गलती नहीं भी कर सकूँ तो भी क्या मेरा नशे में होना संभव नहीं है?” यदि मैं नशे में हूँ और यदि नशे ने मेरी चेतना हर ली है, तो वस्तुत&nbsp;: मैं अभी न तो वार्तालाप कर रहा हूँ और न ही चिन्तन कर रहा हूँ। मैं इस क्षण स्वप्नाविष्ट होने की दुरूह कल्पना भी नहीं कर सकता। स्वप्न के समय “मुझे सपना आ रहा है” ऐसा कहने वाले व्यक्ति की बात सुनाई देने पर भी वह उतनी ही ठीक होती है जितनी वास्तविक वर्षा की स्थिति में स्वप्न में उसका यह कथन कि “वर्षा हो रही है”, भले ही उसका स्वप्न, वर्षा के कोलाहल से वस्तुतः सम्बन्धित ही क्यों न हो।


<references />
{{references}}