फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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उदाहरणार्थ: प्रश्नवाचक चिह्न से भेद करते हुए अभिकथन चिह्न के प्रयोग का तो हमें बेशक अधिकार है ही, या फिर यदि हम चाहें तो इसका प्रयोग अभिकथन को गल्प अथवा प्राक्कल्पना से भेद करने के लिए भी कर सकते हैं। यह सोचना तो भ्रम ही है कि किसी अभिकथन में दो क्रियाएं होती हैं, ग्रहण करना तथा अभिकथित करना (सत्य/असत्य कहना या कुछ ऐसा ही तय करना), तथा यह कि इन क्रियाओं में हम कथनात्मक चिह्न को उसी प्रकार समझते हैं जैसे कि स्वरलिपि को उसे पढ़कर गाते समय समझते हैं। लिखित वाक्य को ऊँचे अथवा नीचे सुर में पढ़ना तो स्वरलिपि से गाने के समान है, किन्तु यह पढ़े हुए वाक्य का '''अर्थ करना''<nowiki/>' (सोचना) नहीं होता ।
उदाहरणार्थ: प्रश्नवाचक चिह्न से भेद करते हुए अभिकथन चिह्न के प्रयोग का तो हमें बेशक अधिकार है ही, या फिर यदि हम चाहें तो इसका प्रयोग अभिकथन को गल्प अथवा प्राक्कल्पना से भेद करने के लिए भी कर सकते हैं। यह सोचना तो भ्रम ही है कि किसी अभिकथन में दो क्रियाएं होती हैं, ग्रहण करना तथा अभिकथित करना (सत्य/असत्य कहना या कुछ ऐसा ही तय करना), तथा यह कि इन क्रियाओं में हम कथनात्मक चिह्न को उसी प्रकार समझते हैं जैसे कि स्वरलिपि को उसे पढ़कर गाते समय समझते हैं। लिखित वाक्य को ऊँचे अथवा नीचे सुर में पढ़ना तो स्वरलिपि से गाने के समान है, किन्तु यह पढ़े हुए वाक्य का '''अर्थ करना''<nowiki/>' (सोचना) नहीं होता ।


फ्रेगे का अभिकथन-चिह्न तो वाक्यारंभ चिह्न है। तो इसका कार्य पूर्णविराम चिह्न जैसा ही है । यह तो पूर्ण वाक्य का उसके उपवाक्य से भेद करता है। यदि मैं किसी को "वर्षा हो रही है", यह कहते हुए सुनूँ, किन्तु यह न जान पाऊँ कि मैंने वाक्य का आरम्भ तथा अन्त सुना है अथवा नहीं तो मैं इस वाक्य से कुछ भी न जान पाऊँगा ।
फ्रेगे का अभिकथन-चिह्न तो ''वाक्यारंभ'' चिह्न है। तो इसका कार्य पूर्णविराम चिह्न जैसा ही है । यह तो पूर्ण वाक्य का उसके उपवाक्य से भेद करता है। यदि मैं किसी को "वर्षा हो रही है", यह कहते हुए सुनूँ, किन्तु यह न जान पाऊँ कि मैंने वाक्य का आरम्भ तथा अन्त सुना है अथवा नहीं तो मैं इस वाक्य से कुछ भी न जान पाऊँगा ।


{{PU box|विशिष्ट मुद्रा में खड़े हुए किसी मुक्केबाज के चित्र की कल्पना कीजिए। इस चित्र का प्रयोग किसी को यह बताने के लिए किया जा सकता है कि उसे कैसे खड़ा होना चाहिए, कैसे अपने आप को बचाना चाहिए: अथवा कैसे उसे अपने आप को नहीं बचाना चाहिए। अथवा यह बताने के लिए कि कोई व्यक्ति अमुक स्थान पर किस मुद्रा में खड़ा इत्यादि था; इस चित्र का प्रयोग किया जा सकता है। (रसायन-शास्त्र की भाषा में) हम इस चित्र को प्रतिज्ञप्ति मूलक कह सकते हैं। फ्रेंगे ने “पूर्वधारणा” की कल्पना इसी प्रकार बनाई होगी।}}
{{PU box|विशिष्ट मुद्रा में खड़े हुए किसी मुक्केबाज के चित्र की कल्पना कीजिए। इस चित्र का प्रयोग किसी को यह बताने के लिए किया जा सकता है कि उसे कैसे खड़ा होना चाहिए, कैसे अपने आप को बचाना चाहिए: अथवा कैसे उसे अपने आप को नहीं बचाना चाहिए। अथवा यह बताने के लिए कि कोई व्यक्ति अमुक स्थान पर किस मुद्रा में खड़ा इत्यादि था; इस चित्र का प्रयोग किया जा सकता है। (रसायन-शास्त्र की भाषा में) हम इस चित्र को प्रतिज्ञप्ति मूलक कह सकते हैं। फ्रेंगे ने “पूर्वधारणा” की कल्पना इसी प्रकार बनाई होगी।}}'''23.''' परन्तु वाक्य कितने प्रकार के होते हैं? — उदाहरणार्थ: अभिकथन, प्रश्न, और आदेश? — ''अनगिनत'' प्रकार के होते हैं: "प्रतीकों" के "शब्दों" के, "वाक्यों" के ''अनगिनत'' विविध प्रयोग होते हैं। और यह अनेकता सदा के लिए निश्चित नहीं होती; अपितु कहा जा सकता है कि भाषा के नये प्रकारों का, नए भाषा-खेलों का उद्भव होता है, और उनमें से कुछ अप्रचलित हो जाते हैं और इसीलिए विस्मृत हो जाते हैं। (गणित में हुए परिवर्तनों से हमें इसका ''धुंधला चित्र'' मिल सकता है।)
 
यहाँ "भाषा-खेल" पद तो इस तथ्य की प्रमुखता दर्शाने के लिए है कि भाषा ''बोलना'' एक क्रिया-कलाप है, या फिर एक जीवन-पद्धति का भाग है।
 
निम्नलिखित एवं अन्य उदाहरणों में भाषा-खेलों की अनेकता का पुनरवलोकन कीजिए:
 
आदेश देना, और उनका पालन करना —
 
किसी वस्तु के रूप का विवरण देना, या उसका नाप देना —
 
किसी वस्तु को उसके विवरण से (ड्राइंग से) बनाना —
 
किसी घटना का वर्णन करना —
 
किसी घटना के बारे में अनुमान करना —
 
किसी प्राक्कल्पना की रचना और उसकी परीक्षा करना —
 
किसी प्रयोग के परिणामों को सारणियों तथा रेखाचित्रों में प्रस्तुत करना —
 
कोई कहानी बनाना; और उसे सुनाना —
 
अभिनय करना —
 
अन्त्याक्षरी करना —
 
पहेलियां बुझाना —
 
व्यावहारिक गणित के सवाल हल करना —
 
एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना —
 
माँगना, धन्यवाद देना, बुरा-भला कहना, अभिवादन करना, प्रार्थना करना ।
 
भाषा के औजारों और उनकी प्रयोग विधियों की अनेकता की, शब्द और वाक्य के अनेक प्रकारों की अनेकताओं की, तार्किकों (''ट्रैक्टेटस लॉजिको-फ़िलॉसफ़िकस'' का लेखक भी) के द्वारा भाषा की संरचना के संबंध में जो कहा गया है उससे तुलना करना दिलचस्प है।
 
'''24.''' यदि आप भाषा-खेलों की अनेकता का ध्यान नहीं रखेंगे तो आप "प्रश्न क्या होता है?" जैसे प्रश्न पूछेंगे। — ऐसा पूछना वास्तव में यह कहना है कि मैं
 
अमुक-अमुक विषय को नहीं जानता, अथवा यह कहना है कि मैं चाहता हूँ कि कोई मुझे बताए कि...? — अथवा यह मेरी अनिश्चित मनःस्थिति का विवरण है? — पर "बचाओ!" यह चीत्कार भी क्या ऐसा विवरण है?
 
"विवरण" कहे जाने वाली विभिन्न परिस्थितियों पर विचार कीजिए: किसी वस्तु की स्थिति का उसके स्थानकों द्वारा विवरण; किसी चेहरे की अभिव्यक्ति का विवरण; स्पर्श-संवेदन का विवरण; भावदशा का विवरण ।
 
सामान्यतः प्रयुक्त प्रश्न के आकार को निस्संदेह कथन के इस आकार अथवा विवरण से प्रतिस्थापित किया जा सकता है: "मैं जानना चाहता हूँ कि..." अथवा "मुझे संशय है कि..." — परन्तु इससे विभिन्न भाषा-खेल कोई अधिक निकट तो नहीं आ जाते।
 
उदाहरणार्थ, सभी कथनों को, "मैं सोचता हूँ", अथवा "मुझे विश्वास है" (मानो वे मेरे आन्तरिक जीवन के विवरण हों) से आरंभ होने वाले वाक्यों में रूपान्तरित करने की संभावनाओं का महत्त्व किसी दूसरी जगह अधिक स्पष्ट होगा। (अहम्मात्रवाद)
 
'''25.''' कभी-कभी ऐसा कहा जाता है कि पशु नहीं बोलते क्योंकि उनमें मानसिक क्षमता नहीं होती। और इसका अर्थ है: "वे सोचते नहीं हैं और इसलिए वे बोलते भी नहीं।" परन्तु — वे बोलते ही नहीं हैं। अथवा यह कहना बेहतर होगाः वे तो भाषा का प्रयोग ही नहीं करते — यदि सबसे आदिम भाषाओं को हम छोड़ दें तो । — आदेश देना, प्रश्न पूछना, वर्णन करना, बातचीत करना उतना ही हमारे प्राकृतिक इतिहास का अंग है जितना कि चलना, खाना-पीना, खेलना।
 
'''26.''' साधारणतः ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा को सीखना तो विषयों को नाम देना ही है। जैसे मनुष्यों, रंगों, वेदनाओं, भावदशाओं, संख्याओं आदि को नाम देना । यानि कि — नामकरण तो किसी विषय पर लेबल लगाने जैसा ही है। ऐसा कहा जा सकता है कि यह तो शब्द के प्रयोग की तैयारी है। परन्तु इस तैयारी का ''उद्देश्य क्या'' है?
 
'''27.''' "हम विषयों का नामकरण करते हैं और फिर उनके बारे में बात कर सकते हैं: अपनी बातचीत में उनका उल्लेख कर सकते हैं" — मानो हमारी आगामी क्रिया तो नामकरण मात्र से ही निश्चित हो जाती है। मानो "विषय के बारे में बातचीत" नामक अभिव्यक्ति का केवल एक ही अर्थ हो। जबकि वास्तव में हम अपने वाक्यों के साथ अत्यन्त विभिन्न कार्य करते हैं। नितान्त भिन्न कार्यों वाले केवल विस्मयादिबोधकों के संबंध में विचार कीजिए ।
 
जल!
 
परे!
 
ओ!
 
बचाओ!
 
ठीक!
 
नहीं!
 
क्या अब भी आप इन शब्दों को "विषयों के नाम" कहना चाहेंगे?
 
§2 और §8 में वर्णित भाषाओं के विषय के नाम पूछने जैसी कोई बात थी ही नहीं। हम कह सकते हैं कि यह अपनी सहसंबद्ध निदर्शनात्मक परिभाषा के साथ स्वयं में एक भाषा-खेल है। यह तो वास्तव में ऐसा कहना है: हमें यह पूछने का प्रशिक्षण दिया जाता है: "उसे क्या कहते हैं?" — जिस पर नाम बताया जाता है। और किसी विषय के नाम का आविष्कार करने और इस प्रकार "यह... है" कहने और फिर नए नाम का प्रयोग करने वाला भाषा-खेल भी होता है। (उदाहरणार्थ, बच्चे अपनी पुतलिकाओं का नामकरण करते हैं और फिर उनके बारे में स्वयं उनसे बातें करते हैं। इस विषय पर विचार कीजिए कि किसी व्यक्ति के नाम का उसे ''संबोधित'' करने का प्रयोग, कितना विलक्षण है।)
 
'''28.''' किसी नामवाचक संज्ञा, किसी रंग के नाम, किसी पदार्थ के नाम, किसी संख्यांक, कम्पास के किसी बिन्दु के नाम, इत्यादि को निदर्शनात्मक विधि से परिभाषित किया जा सकता है। संख्या '''दो''' की परिभाषा — दो पेचों को इंगित करते हुए — यह कह कर करना कि "उसको '''दो''' कहते हैं" — बिल्कुल ठीक है। — किन्तु '''दो''' को इस प्रकार कैसे परिभाषित किया जा सकता है? जिस व्यक्ति को आप यह परिभाषा देते हैं वह यह नहीं जानता कि आप "'''दो'''" किसे कहते हैं; वह यह समझेगा कि "'''दो'''" तो इस पेच-समूह को दिया गया नाम है! — उसका ऐसा समझना ''संभव'' तो है; किन्तु संभवत: वह ऐसा समझता नहीं। वह इससे बिल्कुल उलट गलती कर सकता है; जब मेरा अभिप्राय इस पेच-समूह को नाम देने का तो यह हो सकता है कि वह उस नाम को संख्यांक समझे। और उसी प्रकार जब मैं उसे निदर्शनात्मक परिभाषा द्वारा किसी व्यक्ति का नाम बताता हूँ तो यह उतना ही संभव है कि वह उस नाम को किसी रंग, किसी जाति, अथवा कम्पास के किसी बिन्दु का ही नाम समझे। अर्थात् निदर्शनात्मक