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यह 'पदलोची' वाक्य है, इसलिए नहीं कि इसको बोलते हुए जो हम सोचते हैं उसमें से कुछ छूट जाता है, परन्तु इसलिए कि हमारी भाषा के विशिष्ट प्रतिमान की तुलना में यह संक्षिप्त है। — बेशक यहाँ कोई टोक सकता है: "आप यह मानते हैं कि संक्षिप्त और असंक्षिप्त वाक्य का अर्थ एक ही है — तो यह अर्थ क्या है? क्या इस अर्थ के लिए कोई भाषाई अभिव्यक्ति नहीं है?" — किन्तु वाक्यों के एक ही अर्थ होने का तथ्य क्या उनके प्रयोग की अभिन्नता में ही निहित नहीं है? — (रूसी भाषा में "पत्थर लाल है" की बजाय "पत्थर लाल" कहते हैं; क्या उन्हें इस के अर्थ में "है" का अभाव खटकता है, या फिर वे उसे अपने विचार में जोड़ लेते हैं?) | यह 'पदलोची' वाक्य है, इसलिए नहीं कि इसको बोलते हुए जो हम सोचते हैं उसमें से कुछ छूट जाता है, परन्तु इसलिए कि हमारी भाषा के विशिष्ट प्रतिमान की तुलना में यह संक्षिप्त है। — बेशक यहाँ कोई टोक सकता है: "आप यह मानते हैं कि संक्षिप्त और असंक्षिप्त वाक्य का अर्थ एक ही है — तो यह अर्थ क्या है? क्या इस अर्थ के लिए कोई भाषाई अभिव्यक्ति नहीं है?" — किन्तु वाक्यों के एक ही अर्थ होने का तथ्य क्या उनके प्रयोग की अभिन्नता में ही निहित नहीं है? — (रूसी भाषा में "पत्थर लाल है" की बजाय "पत्थर लाल" कहते हैं; क्या उन्हें इस के अर्थ में "है" का अभाव खटकता है, या फिर वे उसे अपने विचार में जोड़ लेते हैं?) | ||
'''21.''' ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जिसमें '''क''' पूछता है और '''ख''' चट्टे में पड़ी हुई पट्टियों या गुटकों की संख्या बताता है, अथवा फिर किसी स्थान पर रखे निर्माण-पत्थरों के रंग और आकार बताता है। ऐसा विवरण यूँ भी हो सकता है: “पाँच पट्टियां"। तो विवरण अथवा कथन "पांच पट्टियां" तथा आदेश "पांच पट्टियां!" में क्या अन्तर है? — यह तो भाषा-खेल में इन शब्दों के उच्चारण के ढंग पर निर्भर करता है। उन्हें बोलते हुए कंठस्वर, भंगिमा तथा अन्य बहुत कुछ भी बेशक भिन्न ही होगा। परन्तु हम कंठ-स्वर की अभिन्नता की भी कल्पना कर सकते हैं-क्योंकि आदेश और विवरण दोनों ही विभिन्न प्रकार के कंठस्वरों और विभिन्न भंगिमाओं के साथ कहे जा सकते हैं-अन्तर तो केवल उनके प्रयोग में है। (निश्चय ही हम "कथन" और "आदेश" शब्दों को वाक्यों के व्याकरण-सम्मत आकारों के रूप में तथा स्वर-शैलियों के रूप में भी प्रयोग कर सकते हैं; हम वास्तव में "क्या आज मौसम लुभावना नहीं ?" को प्रश्न कहते हैं यद्यपि इसका कथन के रूप में प्रयोग होता है।) हम ऐसी भाषा की कल्पना कर सकते हैं जिसमें सभी वाक्यों का आकार तथा स्वर आलंकारिक प्रश्नों का सा हो; या फिर प्रत्येक आदेश का आकार "क्या आप चाहेंगे कि...?" प्रश्न रूप हो। संभवत: तब यह कहा जाए: “वह जो कहता है उसका आकार तो प्रश्न रूपी है, परन्तु वास्तव में वह आदेश है" — अर्थात् भाषा के प्रयोग की विधि में उसका प्रयोग आदेश का है। (इसी प्रकार "आप यह करेंगे" कथन भविष्यवाणी के रूप में नहीं, अपितु आदेश के रूप में, कहा जाता है। वह क्या है जो इसे भविष्यवाणी अथवा आदेश का रूप प्रदान करता है?) | '''21.''' ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जिसमें '''क''' पूछता है और '''ख''' चट्टे में पड़ी हुई पट्टियों या गुटकों की संख्या बताता है, अथवा फिर किसी स्थान पर रखे निर्माण-पत्थरों के रंग और आकार बताता है। ऐसा विवरण यूँ भी हो सकता है: “पाँच पट्टियां"। तो विवरण अथवा कथन "पांच पट्टियां" तथा आदेश "पांच पट्टियां!" में क्या अन्तर है? — यह तो भाषा-खेल में इन शब्दों के उच्चारण के ढंग पर निर्भर करता है। उन्हें बोलते हुए कंठस्वर, भंगिमा तथा अन्य बहुत कुछ भी बेशक भिन्न ही होगा। परन्तु हम कंठ-स्वर की अभिन्नता की भी कल्पना कर सकते हैं-क्योंकि आदेश और विवरण दोनों ही विभिन्न प्रकार के कंठस्वरों और विभिन्न भंगिमाओं के साथ कहे जा सकते हैं-अन्तर तो केवल उनके प्रयोग में है। (निश्चय ही हम "कथन" और "आदेश" शब्दों को वाक्यों के व्याकरण-सम्मत आकारों के रूप में तथा स्वर-शैलियों के रूप में भी प्रयोग कर सकते हैं; हम वास्तव में "क्या आज मौसम लुभावना नहीं?" को प्रश्न कहते हैं यद्यपि इसका कथन के रूप में प्रयोग होता है।) हम ऐसी भाषा की कल्पना कर सकते हैं जिसमें सभी वाक्यों का आकार तथा स्वर आलंकारिक प्रश्नों का सा हो; या फिर प्रत्येक आदेश का आकार "क्या आप चाहेंगे कि...?" प्रश्न रूप हो। संभवत: तब यह कहा जाए: “वह जो कहता है उसका आकार तो प्रश्न रूपी है, परन्तु वास्तव में वह आदेश है" — अर्थात् भाषा के प्रयोग की विधि में उसका प्रयोग आदेश का है। (इसी प्रकार "आप यह करेंगे" कथन भविष्यवाणी के रूप में नहीं, अपितु आदेश के रूप में, कहा जाता है। वह क्या है जो इसे भविष्यवाणी अथवा आदेश का रूप प्रदान करता है?) | ||
'''22.''' फ्रेगे की यह धारणा, कि प्रत्येक कथ्य में एक तथ्य निहित होता है, वास्तव में हमारी भाषा में प्रत्येक कथन को "यह अभिकथित है कि अमुक स्थिति है" — रूप में लिखने की संभावना पर आधारित है। किन्तु "अमुक स्थिति है" हमारी भाषा का वाक्य नहीं है — भाषा-खेल में ऐसी तो कोई चाल ही नहीं है । और "यह अभिकथित है कि..." न लिखकर यदि मैं "यह अभिकथित है: अमुक अमुक स्थिति है" लिखूँ तो "यह अभिकथित है" शब्द निष्प्रयोजन हो जाते हैं। | '''22.''' फ्रेगे की यह धारणा, कि प्रत्येक कथ्य में एक तथ्य निहित होता है, वास्तव में हमारी भाषा में प्रत्येक कथन को "यह अभिकथित है कि अमुक स्थिति है" — रूप में लिखने की संभावना पर आधारित है। किन्तु "अमुक स्थिति है" हमारी भाषा का वाक्य नहीं है — भाषा-खेल में ऐसी तो कोई चाल ही नहीं है । और "यह अभिकथित है कि..." न लिखकर यदि मैं "यह अभिकथित है: अमुक अमुक स्थिति है" लिखूँ तो "यह अभिकथित है" शब्द निष्प्रयोजन हो जाते हैं। | ||
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§2 और §8 में वर्णित भाषाओं के विषय के नाम पूछने जैसी कोई बात थी ही नहीं। हम कह सकते हैं कि यह अपनी सहसंबद्ध निदर्शनात्मक परिभाषा के साथ स्वयं में एक भाषा-खेल है। यह तो वास्तव में ऐसा कहना है: हमें यह पूछने का प्रशिक्षण दिया जाता है: "उसे क्या कहते हैं?" — जिस पर नाम बताया जाता है। और किसी विषय के नाम का आविष्कार करने और इस प्रकार "यह... है" कहने और फिर नए नाम का प्रयोग करने वाला भाषा-खेल भी होता है। (उदाहरणार्थ, बच्चे अपनी पुतलिकाओं का नामकरण करते हैं और फिर उनके बारे में स्वयं उनसे बातें करते हैं। इस विषय पर विचार कीजिए कि किसी व्यक्ति के नाम का उसे ''संबोधित'' करने का प्रयोग, कितना विलक्षण है।) | §2 और §8 में वर्णित भाषाओं के विषय के नाम पूछने जैसी कोई बात थी ही नहीं। हम कह सकते हैं कि यह अपनी सहसंबद्ध निदर्शनात्मक परिभाषा के साथ स्वयं में एक भाषा-खेल है। यह तो वास्तव में ऐसा कहना है: हमें यह पूछने का प्रशिक्षण दिया जाता है: "उसे क्या कहते हैं?" — जिस पर नाम बताया जाता है। और किसी विषय के नाम का आविष्कार करने और इस प्रकार "यह... है" कहने और फिर नए नाम का प्रयोग करने वाला भाषा-खेल भी होता है। (उदाहरणार्थ, बच्चे अपनी पुतलिकाओं का नामकरण करते हैं और फिर उनके बारे में स्वयं उनसे बातें करते हैं। इस विषय पर विचार कीजिए कि किसी व्यक्ति के नाम का उसे ''संबोधित'' करने का प्रयोग, कितना विलक्षण है।) | ||
'''28.''' किसी नामवाचक संज्ञा, किसी रंग के नाम, किसी पदार्थ के नाम, किसी संख्यांक, कम्पास के किसी बिन्दु के नाम, इत्यादि को निदर्शनात्मक विधि से परिभाषित किया जा सकता है। संख्या '''दो''' की परिभाषा — दो पेचों को इंगित करते हुए — यह कह कर करना कि "उसको '''दो''' कहते हैं" — बिल्कुल ठीक है। — किन्तु '''दो''' को इस प्रकार कैसे परिभाषित किया जा सकता है? जिस व्यक्ति को आप यह परिभाषा देते हैं वह यह नहीं जानता कि आप "'''दो'''" किसे कहते हैं; वह यह समझेगा कि "'''दो'''" तो इस पेच-समूह को दिया गया नाम है! — उसका ऐसा समझना ''संभव'' तो है; किन्तु संभवत: वह ऐसा समझता नहीं। वह इससे बिल्कुल उलट गलती कर सकता है; जब मेरा अभिप्राय इस पेच-समूह को नाम देने का तो यह हो सकता है कि वह उस नाम को संख्यांक समझे। और उसी प्रकार जब मैं उसे निदर्शनात्मक परिभाषा द्वारा किसी व्यक्ति का नाम बताता हूँ तो यह उतना ही संभव है कि वह उस नाम को किसी रंग, किसी जाति, अथवा कम्पास के किसी बिन्दु का ही नाम समझे। अर्थात् निदर्शनात्मक | '''28.''' किसी नामवाचक संज्ञा, किसी रंग के नाम, किसी पदार्थ के नाम, किसी संख्यांक, कम्पास के किसी बिन्दु के नाम, इत्यादि को निदर्शनात्मक विधि से परिभाषित किया जा सकता है। संख्या '''दो''' की परिभाषा — दो पेचों को इंगित करते हुए — यह कह कर करना कि "उसको '''दो''' कहते हैं" — बिल्कुल ठीक है। — किन्तु '''दो''' को इस प्रकार कैसे परिभाषित किया जा सकता है? जिस व्यक्ति को आप यह परिभाषा देते हैं वह यह नहीं जानता कि आप "'''दो'''" किसे कहते हैं; वह यह समझेगा कि "'''दो'''" तो इस पेच-समूह को दिया गया नाम है! — उसका ऐसा समझना ''संभव'' तो है; किन्तु संभवत: वह ऐसा समझता नहीं। वह इससे बिल्कुल उलट गलती कर सकता है; जब मेरा अभिप्राय इस पेच-समूह को नाम देने का तो यह हो सकता है कि वह उस नाम को संख्यांक समझे। और उसी प्रकार जब मैं उसे निदर्शनात्मक परिभाषा द्वारा किसी व्यक्ति का नाम बताता हूँ तो यह उतना ही संभव है कि वह उस नाम को किसी रंग, किसी जाति, अथवा कम्पास के किसी बिन्दु का ही नाम समझे। अर्थात् निदर्शनात्मक परिभाषा को तो ''सदैव'' विविध प्रकार से समझा जा सकता है। | ||
'''29.''' संभवतः आप कहेंगे: '''दो''' तो निदर्शनात्मक रूप से केवल इस प्रकार ही परिभाषित किया जा सकता है: "यह ''संख्या'' '''दो''' कहलाती है"। क्योंकि "संख्या" शब्द यह दर्शाता है कि भाषा में, व्याकरण में, उस शब्द के लिए हम कौन सा स्थान नियत करते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह हुआ कि निदर्शनात्मक परिभाषा के बोध से पूर्व ही "संख्या" शब्द की व्याख्या करनी होगी । — परिभाषा में "संख्या" शब्द निश्चय ही उस स्थान को दर्शाता है, उस स्थान को बताता है जहाँ हम उस शब्द को रखते हैं। और हम यह कहकर मिथ्याबोधों का निवारण कर सकते हैं; "यह ''रंग'', अमुक-अमुक कहलाता है", "यह ''लम्बाई'', अमुक-अमुक कहलाती है" इत्यादि, इत्यादि । अर्थात्, मिथ्याबोधों का कई बार इस प्रकार निवारण हो जाता है। किन्तु "रंग" या "लम्बाई" शब्द क्या ''एक'' ही रूप में ग्राह्य हैं? — वस्तुतः, उनको परिभाषित करने की आवश्यकता है। — अन्य शब्दों से परिभाषित करने की! और इस श्रृंखला में अंतिम परिभाषा का क्या होगा? (मत कहिए: "'अंतिम' परिभाषा तो होती ही नहीं"। यह तो ऐसा कहने जैसा ही होगा: "इस वीथी में अंतिम गृह है ही नहीं: एक और गृह का निर्माण तो सदैव संभव है"।) | |||
निदर्शनात्मक परिभाषा में "संख्या" शब्द आवश्यक है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसके बिना कोई दूसरा व्यक्ति उस परिभाषा को मेरी इच्छा से विपरीत रूप में ग्रहण करता है या नहीं। और यह निर्भर करता है उन परिस्थितियों पर जिनमें वह परिभाषा दी जा रही है, और उस व्यक्ति पर जिसे मैं यह परिभाषा देता हूँ। | |||
और वह उस परिभाषा को किस रूप में 'ग्रहण' करता है इसका पता उसके परिभाषित शब्द के प्रयोग से चलता है। | |||
'''30.''' तो यह कहा जा सकता है: निदर्शनात्मक परिभाषा तभी किसी शब्द के प्रयोग के अर्थ की व्याख्या कर पाती है जब भाषा में उस शब्द का संपूर्ण कार्य स्पष्ट हो जाए। जैसे यदि मुझे यह पता हो कि किसी का तात्पर्य मुझे किसी रंग-शब्द की व्याख्या देना है तो निदर्शनात्मक परिभाषा "उसे भूरा कहते हैं", मुझे शब्द के समझने में सहायक होती है। — और यह आप तब तक ही कह सकते हैं जब तक आप यह न भूल जाएं कि "जानना" या "स्पष्ट होना" शब्दों के साथ कई प्रकार की समस्याएं जुड़ी हुई हैं। | |||
किसी वस्तु का नाम पूछने का सामर्थ्य होने से पूर्व कुछ जानना (या करने योग्य होना) आवश्यक है । परन्तु वह है क्या जिसे जानना होता है? | |||
'''31.''' जब कोई किसी को शतरंज के 'राजा' मोहरे को दिखाए और कहे: “यह राजा है" तो इससे उसे उस मोहरे के प्रयोग के बारे में तब तक पता नहीं चलता-जब तक उसे पहले से ही खेल के नियमों की जानकारी इस अन्तिम बात तक न हो कि राजा की आकृति होना क्या होता है। उसका वास्तविक मोहरे देखे बिना ही खेल के नियम सीखना कल्पनीय है। शतरंज के मोहरे की आकृति यहाँ शब्द की ध्वनि अथवा आकृति के तुल्य है। | |||
नियमों को बिना सीखे अथवा सूत्रबद्ध किए, किसी के द्वारा खेल सीखने की कल्पना संभव है। हो सकता है कि सर्वप्रथम वह पटल-खेलों को देख-देख कर ही सीख गया हो, और फिर उत्तरोत्तर कठिन खेलों की ओर अग्रसर हुआ हो। उसे भी "यह राजा है" कह कर व्याख्या दी जा सकती है — उदाहरणार्थ, जब उसे दिखाए जाने वाले शतरंज के मोहरे ऐसी आकृति के हों जिससे वह परिचित न हो। इस व्याख्या से उसे इस मोहरे के प्रयोग का पता चलता है क्योंकि कहा जा सकता है, उसके लिए स्थान तो पूर्वनिर्मित था । अथवा फिर हम केवल यही कहेंगे कि इससे उसके प्रयोग का पता चलता है, यदि स्थान पूर्वनिर्मित हो । और यहाँ ऐसा इसलिए नहीं है कि जिसे हम व्याख्या दे रहे हैं, वह पहले से ही नियम जानता है, बल्कि ऐसा इसलिए है कि किसी दूसरे अर्थ में वह पहले से ही किसी खेल में दक्ष है। | |||
{{PU box|क्या "लाल" शब्द की परिभाषा किसी ऐसी वस्तु को इंगित करके दी जा सकती है जो ''लाल'' न हो? ऐसा करना तो हिन्दी के ज्ञान में कमजोर व्यक्ति को "भद्र" शब्द का अर्थ बताने के लिए किसी घमंडी व्यक्ति को इंगित करके यह कहने के समान है कि "वह व्यक्ति भद्र ''नहीं'' है" । परिभाषा के ऐसे ढंग को अस्पष्ट कहना तो कोई तर्क नहीं है। किसी भी परिभाषा का गलत अर्थ लगाया जा सकता है। | |||
किन्तु यह भी तो पूछा जा सकता है: क्या हम इसे अभी भी "परिभाषा" ही कहेगें, — चाहे इसके एक जैसे ही व्यावहारिक परिणाम निकलते हों, चाहे इसका शिक्षार्थी पर एक जैसा ही ''प्रभाव'' पड़ता हो, तो भी "लाल" शब्द की "निदर्शनात्मक परिभाषा" से इसकी भूमिका भिन्न होगी।}} |