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'''लेखक का प्राक्कथन''' | '''लेखक का प्राक्कथन''' | ||
इस पुस्तक में प्रकाशित विचार पिछले सोलह वर्ष के मेरे दार्शनिक अन्वेषण के परिणाम हैं। वे अनेक विषयों से संबंधित हैं | इस पुस्तक में प्रकाशित विचार पिछले सोलह वर्ष के मेरे दार्शनिक अन्वेषण के परिणाम हैं। वे अनेक विषयों से संबंधित हैं: अर्थ, समझ और तर्क के प्रत्ययों से, गणित के आधारों से, चित्त की स्थितियों से और कई दूसरे विषयों से। इन सभी विचारों को मैंने ''टिप्पणियों'', छोटे-छोटे अनुच्छेदों के रूप में लिखा है। कहीं तो एक ही विषय पर इन टिप्पणियों और अनुच्छेदों की लम्बी श्रृंखला है, और कहीं मैं यकायक एक विषय से दूसरे विषय पर पहुँच जाता हूँ। — शुरु में मैं इन्हें एक ऐसी पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करना चाहता था जिसकी मैंने भिन्न‑भिन्न कालों में भिन्न‑भिन्न रूप में कल्पना की। किन्तु इन कल्पनाओं में अनिवार्य बात यह थी कि भावी पुस्तक में मेरे विचार बिना किसी बाधा के सहज ढंग से एक विषय से दूसरे विषय पर चलते चले जायें। | ||
अपने अन्वेषण के परिणामों को इस प्रकार संजोने के अनेक असफल प्रयासों के बाद मुझे अनुभव हुआ कि मैं इसमें कभी सफल नहीं हो पाऊँगा। मुझे लगा कि मैं दार्शनिक टिप्पणियां ही लिख सकूँगा : जैसे ही मैं अपने विचारों को उनकी सहज दिशा के विपरीत किसी एक विषय पर केन्द्रित करने का प्रयत्न करता, वे बिखर जाते। — और इसका कारण अन्वेषण का स्वरूप ही था। क्योंकि, अन्वेषण का स्वरूप ही हमें बृहद् क्षेत्र में, हर ओर आड़ी-तिरछी दिशाओं में जाने को बाध्य करता है। — मानो इस पुस्तक की दार्शनिक टिप्पणियां लम्बी और दुर्बोध यात्राओं के दौरान बनाए गए भूदृश्यों के चित्र हों। | अपने अन्वेषण के परिणामों को इस प्रकार संजोने के अनेक असफल प्रयासों के बाद मुझे अनुभव हुआ कि मैं इसमें कभी सफल नहीं हो पाऊँगा। मुझे लगा कि मैं दार्शनिक टिप्पणियां ही लिख सकूँगा : जैसे ही मैं अपने विचारों को उनकी सहज दिशा के विपरीत किसी एक विषय पर केन्द्रित करने का प्रयत्न करता, वे बिखर जाते। — और इसका कारण अन्वेषण का स्वरूप ही था। क्योंकि, अन्वेषण का स्वरूप ही हमें बृहद् क्षेत्र में, हर ओर आड़ी-तिरछी दिशाओं में जाने को बाध्य करता है। — मानो इस पुस्तक की दार्शनिक टिप्पणियां लम्बी और दुर्बोध यात्राओं के दौरान बनाए गए भूदृश्यों के चित्र हों। |