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यूँ भी कहा जा सकता है: हम अपनी अभिव्यक्तियों को अधिक यथार्थ बनाकर भ्रान्तियों का निवारण कर सकते हैं; किन्तु अब ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हम एक विशेष स्थिति, यथार्थता की स्थिति की ओर बढ़ रहे हों; और मानों यही हमारे अन्वेषण का वास्तविक ध्येय हो। | यूँ भी कहा जा सकता है: हम अपनी अभिव्यक्तियों को अधिक यथार्थ बनाकर भ्रान्तियों का निवारण कर सकते हैं; किन्तु अब ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हम एक विशेष स्थिति, यथार्थता की स्थिति की ओर बढ़ रहे हों; और मानों यही हमारे अन्वेषण का वास्तविक ध्येय हो। | ||
'''92.''' भाषा के, प्रतिज्ञप्तियों के विचार के, सार संबंधी प्रश्नों में इसकी अभिव्यक्ति होती है। — क्योंकि इन अन्वेषणों में यद्यपि हम भी भाषा के सार — उसके कार्यों, उसकी संरचना को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं — फिर भी इन प्रश्नों का यह उद्देश्य नहीं है। क्योंकि सार से वे कुछ ऐसा नहीं समझते जो पहले से ही दृश्यमान हो और जिसका पुनर्विन्यास किए जाने पर सर्वेक्षण किया जा सकता हो, अपितु उसे वे कुछ ऐसा समझते हैं जो सतह के नीचे स्थित हो। कुछ ऐसा जो अन्तर्भाग में रहता है, जिसे हम पदार्थ का निरीक्षण करने पर देखते हैं, और जिसे विश्लेषण खोद कर बाहर निकालता है। | |||
‘''सार तो हमसे छुपा हुआ है''’ : अब हमारी समस्या का यह आकार हो सकता है। हम पूछते हैं: "भाषा ''क्या है?''", "प्रतिज्ञप्ति क्या है?" और इन प्रश्नों का उत्तर किसी भी भावी अनुभव पर विचार किये बिना हमेशा-हमेशा के लिए दिया जाना है। | ‘''सार तो हमसे छुपा हुआ है''’ : अब हमारी समस्या का यह आकार हो सकता है। हम पूछते हैं: "भाषा ''क्या है?''", "प्रतिज्ञप्ति क्या है?" और इन प्रश्नों का उत्तर किसी भी भावी अनुभव पर विचार किये बिना हमेशा-हमेशा के लिए दिया जाना है। | ||
'''93.''' कोई व्यक्ति कह सकता है "प्रतिज्ञप्ति तो संसार की सर्वाधिक साधारण वस्तु है" और दूसरा व्यक्ति कह सकता है: “प्रतिज्ञप्ति — क्या ही विलक्षण विषय!" — और कोई अन्य व्यक्ति यह देखने में बिल्कुल असमर्थ है कि प्रतिज्ञप्ति वास्तव में कैसे कार्य करती है। प्रतिज्ञप्तियों एवं विचार को अभिव्यक्त करने में प्रयुक्त हमारे आकार उस व्यक्ति के आड़े आते हैं। | |||
हम क्यों कहते हैं कि प्रतिज्ञप्ति तो विशिष्ट होती है? एक तो इसलिए कि इसकी अत्यधिक महत्ता है। (और यह उचित ही है)। दूसरी ओर भाषा के तर्क की गलतफहमी के साथ मिलकर यह महत्ता हमें प्रतिज्ञप्ति द्वारा अवश्य ही कुछ असाधारण, कुछ अप्रतिम निष्पादित किया जाएगा — ऐसा सोचने का प्रलोभन देती है। ''गलतफहमी'' के कारण हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रतिज्ञप्ति विलक्षण है। | हम क्यों कहते हैं कि प्रतिज्ञप्ति तो विशिष्ट होती है? एक तो इसलिए कि इसकी अत्यधिक महत्ता है। (और यह उचित ही है)। दूसरी ओर भाषा के तर्क की गलतफहमी के साथ मिलकर यह महत्ता हमें प्रतिज्ञप्ति द्वारा अवश्य ही कुछ असाधारण, कुछ अप्रतिम निष्पादित किया जाएगा — ऐसा सोचने का प्रलोभन देती है। ''गलतफहमी'' के कारण हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रतिज्ञप्ति विलक्षण है। | ||
'''94.''' 'प्रतिज्ञप्ति एक विलक्षण विषय है!' इसमें तर्कशास्त्र के हमारे संपूर्ण विवरण को उत्कृष्ट समझने का बीज है। प्रतिज्ञप्ति संबंधी ''संकेतों'' एवं तथ्यों के बीच विशुद्ध मध्यस्थता अपनाने की प्रवृत्ति अथवा संकेतों के शुद्धीकरण, उदात्तीकरण का प्रयास भी इसमें निहित है। — क्योंकि हमें मृग-मरीचिका की खोज में लगाकर हमारी अभिव्यक्ति के आकार अनेक ढंगों से हमें यह समझने से बचाते हैं कि इस खोज में कुछ भी असाधारण नहीं है। | |||
'''95.''' "विचार को तो अपूर्व होना ही चाहिए"। जब हम अमुक-अमुक स्थिति है, ऐसा कहते हैं और इससे यही हमारा ''अभिप्राय'' होता है तो हम — और हमारा अभिप्राय — तथ्य को जाने बिना कभी नहीं रुकते; किन्तु हमारा अभिप्राय है: ''यह'' — ऐसा — है। किन्तु इस विरोधाभास (जो यथातथ्यता के आकार वाला है) को इस प्रकार भी अभिव्यक्त किया जा सकता है: जो स्थिति ''नहीं'' है, उस की भी ''धारणा'' बनाई जा सकती है। | |||
'''96.''' यहाँ उल्लिखित विशिष्ट भ्रांति के साथ विभिन्न स्थितियों में पाई जाने वाली अन्य भ्रान्तियां भी जुड़ जाती हैं। अब हमें विचार और भाषा, संसार के सहसंबद्ध अपूर्व चित्र प्रतीत होते हैं। ये प्रत्यय प्रतिज्ञप्ति, भाषा, विचार, संसार, एक दूसरे के पीछे पंक्तिबद्ध खड़े हैं, इनमें से हर एक दूसरे का समानार्थी है। (किन्तु अब इन शब्दों का किसके लिए प्रयोग करें? जिस भाषा-खेल में इनका प्रयोग करना है वह तो यहाँ है ही नहीं।) | |||
'''97.''' विचार के चारों ओर एक प्रभामण्डल होता है। — इसका सार, अतः तर्क, एक व्यवस्था, वस्तुतः संसार की प्रागनुभव व्यवस्था, प्रस्तुत करता है: अतः ''संभावनाओं'' की व्यवस्था जो संसार और विचार दोनों में ही साझी होंगी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यवस्था ''पूर्णतः सरल'' होनी चाहिए। यह समस्त अनुभव से पूर्ववर्ती है, इसे समस्त अनुभव में आद्योपांत रहना चाहिए; इस पर किसी भी आनुभविक भटकाव अथवा अनिश्चितता का प्रभाव नहीं पड़ने देना चाहिए — बल्कि इसे तो सर्वाधिक शुद्ध स्फटिक होना चाहिए। किन्तु यह स्फटिक अमूर्त तो प्रतीत नहीं होता; बल्कि यह तो मूर्त, वास्तव में सर्वाधिक मूर्त, प्रतीत होता है मानो सत्तावान पदार्थों में यह सर्वाधिक कठोर पदार्थ हो (''ट्रेकटेटस लॉजिको-फिलोसफ़िकस'' न. 5.5563)। | |||
हमें यह भ्रम है कि हमारी अन्वेषणा की विशिष्टता, गहनता, एवं अपरिहार्यता भाषा के अनुपमेय सार को ग्रहण करने के प्रयत्न में निहित है; यानी प्रतिज्ञप्ति, शब्द, प्रमाण, सत्य, अनुभव इत्यादि के प्रत्ययों में पाई जाने वाली व्यवस्था में। यह व्यवस्था तो — यूँ कहिये कि — ''परा''-प्रत्ययों के मध्य ''परा''-व्यवस्था है। "भाषा", "अनुभव", "संसार" शब्दों का यदि प्रयोग है तो बेशक वह "मेज", "दीपक", "द्वार", शब्दों के समान ही साधारण होना चाहिए। | हमें यह भ्रम है कि हमारी अन्वेषणा की विशिष्टता, गहनता, एवं अपरिहार्यता भाषा के अनुपमेय सार को ग्रहण करने के प्रयत्न में निहित है; यानी प्रतिज्ञप्ति, शब्द, प्रमाण, सत्य, अनुभव इत्यादि के प्रत्ययों में पाई जाने वाली व्यवस्था में। यह व्यवस्था तो — यूँ कहिये कि — ''परा''-प्रत्ययों के मध्य ''परा''-व्यवस्था है। "भाषा", "अनुभव", "संसार" शब्दों का यदि प्रयोग है तो बेशक वह "मेज", "दीपक", "द्वार", शब्दों के समान ही साधारण होना चाहिए। | ||
'''98.''' एक ओर तो यह स्पष्ट है कि हमारी भाषा का प्रत्येक वाक्य 'जैसे भी है ठीक है'। यानी हम किसी आदर्श के ''पीछे'' नहीं ''पड़े हैं'', मानो हमारे साधारण अस्पष्ट वाक्यों को अभी पूर्णतः असाधारण अर्थ नहीं मिले हों और एक परिपूर्ण भाषा को हमारे द्वारा रचे जाने की प्रतीक्षा हो। — दूसरी ओर, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि जहाँ अर्थ होता है वहाँ परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए। — अतः अत्यन्त अस्पष्ट वाक्यों में भी परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए। | |||
'''99.''' वाक्य का अर्थ — कोई कह सकता है — बेशक इसे या उसे अनिर्धारित छोड़ सकता है, किन्तु फिर भी वाक्य का कोई निर्धारित अर्थ तो होना ही चाहिए। अनिर्धारित अर्थ — वह तो ''कोई'' अर्थ ही नहीं हुआ। — यह ऐसा है: अनिर्धारित सीमा तो वास्तव में कोई सीमा ही नहीं होती। यहाँ संभवत : कोई विचार करता है: यदि मैं कहता हूँ "मैंने व्यक्ति को कमरे में अच्छी तरह बन्द कर दिया है — केवल एक द्वार ही खुला रख छोड़ा है" — तो मैंने उसे कमरे में बन्द किया ही नहीं; उसका कमरे बन्द होना तो ढोंग है। कोई यहाँ कहना चाहेगा : "आपने तो कुछ किया ही नहीं"। टूटा हुआ अहाता तो अहाता न होने के समान ही है। — किन्तु क्या यह सत्य है? | |||
'''100.''' "परन्तु फिर भी, यदि ''नियमों में'' कुछ अस्पष्टता है तो यह खेल नहीं है" — किन्तु ''क्या'' यह उसे खेल होने से रोकता है? — "संभवतः आप इसे खेल कहेंगे, किन्तु निश्चय ही किसी भी प्रकार यह परिपूर्ण खेल नहीं है।" इसका अर्थ है: इसमें अशुद्धियां हैं, और इस समय मेरी रुचि पूर्ण विवरण में है। — किन्तु मैं कहना चाहता हूँ : हमारी भाषा में आदर्श की भूमिका को हम गलत ढंग से समझते हैं। अतएव हमें भी इसे खेल ही कहना चाहिए, किन्तु आदर्श ने हमें हतप्रभ कर दिया है और इसलिए हम "खेल" शब्द के वास्तविक प्रयोग को स्पष्टतः देखने में असमर्थ हैं। | |||
{{ParPU|101}} हम कहना चाहते हैं कि तर्कशास्त्र में तो कोई अस्पष्टता हो ही नहीं सकती। अब हम इस विचार में मग्न रहते हैं कि आदर्श तो ‘''अनिवार्यतः''’ वास्तविकता में ही मिलना चाहिए। इस बीच, हमें यह नहीं पता चलता कि यह वहाँ ''कैसे'' पाया जाता है, न ही हम इस "अनिवार्यतः" के स्वभाव को समझते हैं। हम सोचते हैं कि इस अनिवार्यतः को वास्तविकता में होना चाहिए; क्योंकि हमें लगता है कि हम उसे पहले से ही वहाँ देख रहे हैं। | {{ParPU|101}} हम कहना चाहते हैं कि तर्कशास्त्र में तो कोई अस्पष्टता हो ही नहीं सकती। अब हम इस विचार में मग्न रहते हैं कि आदर्श तो ‘''अनिवार्यतः''’ वास्तविकता में ही मिलना चाहिए। इस बीच, हमें यह नहीं पता चलता कि यह वहाँ ''कैसे'' पाया जाता है, न ही हम इस "अनिवार्यतः" के स्वभाव को समझते हैं। हम सोचते हैं कि इस अनिवार्यतः को वास्तविकता में होना चाहिए; क्योंकि हमें लगता है कि हम उसे पहले से ही वहाँ देख रहे हैं। |