फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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{{ParPU|322}} अभिव्यक्ति का अर्थ क्या है, इस प्रश्न का उत्तर ऐसे विवरण से नहीं दिया जाता; और इससे भ्रान्त होकर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि समझना कोई विशिष्ट परिभाषातीत अनुभव होता है। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि हमारे लिए यह प्रश्न रुचिकर होना चाहिए : हम इन अनुभवों की ''तुलना'' कैसे करते हैं; इन अनुभवों के होने के लिए तद्रूपता की कौन सी कसौटियां ''हमने निर्धारित की है''?
{{ParPU|322}} अभिव्यक्ति का अर्थ क्या है, इस प्रश्न का उत्तर ऐसे विवरण से नहीं दिया जाता; और इससे भ्रान्त होकर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि समझना कोई विशिष्ट परिभाषातीत अनुभव होता है। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि हमारे लिए यह प्रश्न रुचिकर होना चाहिए : हम इन अनुभवों की ''तुलना'' कैसे करते हैं; इन अनुभवों के होने के लिए तद्रूपता की कौन सी कसौटियां ''हमने निर्धारित की है''?


{{ParPU|323}} “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है!” यह तो विस्मयादिबोधक है; यह एक स्वाभाविक ध्वनि, एक शुभारंभ के अनुरूप होता है। निस्संदेह मेरी इस सोच से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि आगे बढ़ने का प्रयास करने पर मैं अटक भी सकता हूँ। — यहाँ ऐसी स्थितियां होती हैं जिनमें मैं कहना चाहूँगा : “जब मैंने कहा था कि मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है तो मुझे यह ''पता था'' कि आगे ''कैसे'' बढ़ना है। उदाहरणार्थ, किसी अनहोनी बाधा के आने पर, हम ऐसा ही कहेंगे। किन्तु अनहोनी यह तो नहीं होनी चाहिए कि मैं अटक कर रह जाऊँ ।
{{ParPU|323}} “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है!” यह तो विस्मयादिबोधक है; यह एक स्वाभाविक ध्वनि, एक शुभारंभ के अनुरूप होता है। निस्संदेह मेरी इस सोच से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि आगे बढ़ने का प्रयास करने पर मैं अटक भी सकता हूँ। — यहाँ ऐसी स्थितियां होती हैं जिनमें मैं कहना चाहूँगा : “जब मैंने कहा था कि मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है तो मुझे यह ''पता था'' कि आगे ''कैसे'' बढ़ना है। उदाहरणार्थ, किसी अनहोनी बाधा के आने पर, हम ऐसा ही कहेंगे। किन्तु अनहोनी यह तो नहीं होनी चाहिए कि मैं अटक कर रह जाऊँ।


हम ऐसी स्थिति की भी कल्पना कर सकते हैं जिसमें ऐसा प्रतीत होता हो कि किसी व्यक्ति को यकायक कुछ सूझ जाता है — वह खुशी से कहेगा “अब तो मैं इसे समझ गया!” किन्तु फिर व्यवहार में वह कभी भी इसका औचित्य नहीं दे पाता। — उसे ऐसा प्रतीत हो सकता है कि पलक झपकते ही वह फिर से उस चित्र का अर्थ भूल गया जो उसे सूझा था।
हम ऐसी स्थिति की भी कल्पना कर सकते हैं जिसमें ऐसा प्रतीत होता हो कि किसी व्यक्ति को यकायक कुछ सूझ जाता है — वह खुशी से कहेगा “अब तो मैं इसे समझ गया!” किन्तु फिर व्यवहार में वह कभी भी इसका औचित्य नहीं दे पाता। — उसे ऐसा प्रतीत हो सकता है कि पलक झपकते ही वह फिर से उस चित्र का अर्थ भूल गया जो उसे सूझा था।