फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

till 640
No edit summary
(till 640)
Line 1,407: Line 1,407:
{{ParPU|324}} क्या यह कहना उचित होगा कि यह आगमनात्मक वस्तु है और यह भी कि श्रृंखला को आगे बढ़ाने की अपनी योग्यता के बारे में मैं उतना ही निश्चिन्त हूँ जितना मैं इस पुस्तक को हाथ से छोड़ने पर इसके फर्श पर गिर जाने के बारे में होता हूँ; और यह कहना भी कि यदि मैं यकायक और बिना कारण श्रृंखला को हल करने में अटक जाऊँ तो मुझे उतना ही आश्चर्य होगा जितना कि गिरने के बजाय इस पुस्तक के अधर में लटक जाने से होगा। इसके उत्तर में मैं कहूँगा कि इस निश्चिन्तता के लिए भी किसी आधार की आवश्यकता नहीं है। निश्चिन्तता का सफलता से ''अधिक अच्छा'' औचित्य क्या हो सकता है?
{{ParPU|324}} क्या यह कहना उचित होगा कि यह आगमनात्मक वस्तु है और यह भी कि श्रृंखला को आगे बढ़ाने की अपनी योग्यता के बारे में मैं उतना ही निश्चिन्त हूँ जितना मैं इस पुस्तक को हाथ से छोड़ने पर इसके फर्श पर गिर जाने के बारे में होता हूँ; और यह कहना भी कि यदि मैं यकायक और बिना कारण श्रृंखला को हल करने में अटक जाऊँ तो मुझे उतना ही आश्चर्य होगा जितना कि गिरने के बजाय इस पुस्तक के अधर में लटक जाने से होगा। इसके उत्तर में मैं कहूँगा कि इस निश्चिन्तता के लिए भी किसी आधार की आवश्यकता नहीं है। निश्चिन्तता का सफलता से ''अधिक अच्छा'' औचित्य क्या हो सकता है?


{{ParPU|325}} “यह निश्चिन्तता कि ऐसा अनुभव होने — उदाहरणार्थ, सूत्र को समझने के अनुभव — के पश्चात् मैं श्रृंखला को आगे बढ़ाने के योग्य हो जाऊँगा यह तो आगमन पर ही आधारित है।” इसका क्या अर्थ है? — “यह निश्चितता कि अग्नि मुझे जला देगी, आगमन पर आधारित है।” क्या इसका अर्थ यह है कि मैं अपने आप से तर्क करता हूँ : “अग्नि ने हमेशा मुझे जलाया है, अतः अब भी ऐसा ही होगा?” अथवा क्या पूर्वानुभव मेरी निश्चितता का ''कारण'' है, न कि उसका आधार? पूर्वानुभव का इस निश्चितता का कारण होना तो प्राक्कल्पनाओं, प्राकृतिक नियमों की उस प्रणाली पर निर्भर करता है, जिसमें हम निश्चितता की संवृत्ति पर विचार कर रहे हैं।
{{ParPU|325}} “यह निश्चिन्तता कि ऐसा अनुभव होने — उदाहरणार्थ, सूत्र को समझने के अनुभव — के पश्चात् मैं श्रृंखला को आगे बढ़ाने के योग्य हो जाऊँगा यह तो आगमन पर ही आधारित है।” इसका क्या अर्थ है? — “यह निश्चितता कि अग्नि मुझे जला देगी, आगमन पर आधारित है।” क्या इसका अर्थ यह है कि मैं अपने आप से तर्क करता हूँ : “अग्नि ने हमेशा मुझे जलाया है, अतः अब भी ऐसा ही होगा?” अथवा क्या पूर्वानुभव मेरी निश्चितता का कारण है, न कि उसका आधार? पूर्वानुभव का इस निश्चितता का कारण होना तो प्राक्कल्पनाओं, प्राकृतिक नियमों की उस प्रणाली पर निर्भर करता है, जिसमें हम निश्चितता की संवृत्ति पर विचार कर रहे हैं।


क्या हमारे विश्वास का कोई औचित्य है? — जिसे लोग औचित्य मानते हैं — उसका तो उनके विचार और व्यवहार से पता चलता है।
क्या हमारे विश्वास का कोई औचित्य है? — जिसे लोग औचित्य मानते हैं — उसका तो उनके विचार और व्यवहार से पता चलता है।
Line 1,507: Line 1,507:
{{ParPU|361}} कुर्सी सोच रही है कि.........
{{ParPU|361}} कुर्सी सोच रही है कि.........


कहाँ? अपने किसी भाग में, अथवा अपनी देह से बाहर; अपने चारों ओर के वायुमण्डल में? अथवा ''कहीं भी नहीं''? किन्तु तब उस कुर्सी के अपने आप कुछ कहने में, और इसके साथ पड़ी कुर्सी के ऐसा ही करने में क्या भेद है? — तब मनुष्य के साथ ऐसा कैसे होता है: वह अपने आप से कहाँ बातें करता है? यह प्रश्न अर्थहीन क्यों प्रतीत होता है; और सिवा यह कहने के कि यह मनुष्य अपने आप से कुछ कह रहा है, देह अथवा देह से बाहर उस स्थान के बारे में जहाँ वह अपने से कुछ कहता है, कुछ भी कहना आवश्यक नहीं है? जबकि ऐसा लगता है कि कुर्सी ''किस स्थान पर'' स्वयं से वार्तालाप करती हैं, इस प्रश्न का उत्तर होना चाहिए। — कारण यह है: हम जानना चाहते हैं कि कुर्सी मनुष्य के समान ''कैसे'' हो सकती है; उदाहरणार्थ, क्या कुर्सी का सिर उसकी टेक के ऊपर है, इत्यादि।
'''कहाँ?''' अपने किसी भाग में, अथवा अपनी देह से बाहर; अपने चारों ओर के वायुमण्डल में? अथवा ''कहीं भी नहीं''? किन्तु तब उस कुर्सी के अपने आप कुछ कहने में, और इसके साथ पड़ी कुर्सी के ऐसा ही करने में क्या भेद है? — तब मनुष्य के साथ ऐसा कैसे होता है: वह अपने आप से कहाँ बातें करता है? यह प्रश्न अर्थहीन क्यों प्रतीत होता है; और सिवा यह कहने के कि यह मनुष्य अपने आप से कुछ कह रहा है, देह अथवा देह से बाहर उस स्थान के बारे में जहाँ वह अपने से कुछ कहता है, कुछ भी कहना आवश्यक नहीं है? जबकि ऐसा लगता है कि कुर्सी ''किस स्थान पर'' स्वयं से वार्तालाप करती हैं, इस प्रश्न का उत्तर होना चाहिए। — कारण यह है: हम जानना चाहते हैं कि कुर्सी मनुष्य के समान ''कैसे'' हो सकती है; उदाहरणार्थ, क्या कुर्सी का सिर उसकी टेक के ऊपर है, इत्यादि।


अपने आप से बात करना कैसा होता है; यहाँ क्या होता है? — मैं इसकी व्याख्या कैसे करूँ? अच्छा, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार आप किसी को “अपने आप से कुछ कहना” इस अभिव्यक्ति का अर्थ सिखाते हैं। और निश्चित रूप से बाल्यकाल में हम उसका अर्थ सीखते हैं। — कोई भी यह नहीं कहेगा कि जिस व्यक्ति ने हमें यह सिखाया है उसने ‘क्या घटित होता है’ यह भी बताया है।
अपने आप से बात करना कैसा होता है; यहाँ क्या होता है? — मैं इसकी व्याख्या कैसे करूँ? अच्छा, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार आप किसी को “अपने आप से कुछ कहना” इस अभिव्यक्ति का अर्थ सिखाते हैं। और निश्चित रूप से बाल्यकाल में हम उसका अर्थ सीखते हैं। — कोई भी यह नहीं कहेगा कि जिस व्यक्ति ने हमें यह सिखाया है उसने ‘क्या घटित होता है’ यह भी बताया है।
Line 1,537: Line 1,537:
{{ParPU|370}} यह नहीं पूछना चाहिए कि प्रतिबिम्ब क्या है अथवा किसी विषय की कल्पना करते समय क्या घटित होता है, अपितु यह पूछना चाहिए कि “कल्पना” शब्द का प्रयोग कैसे किया जाता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं शब्दों के बारे में ही बात करना चाहता हूँ। क्योंकि कल्पना के स्वभाव के बारे में कोई भी प्रश्न उसी तरह “कल्पना” शब्द के बारे में है जिस तरह कल्पना संबंधी मेरा प्रश्न है। और मैं केवल इतना ही कह रहा हूँ कि इस प्रश्न का निर्णय — न तो कल्पना करने वाले व्यक्ति के लिए, न ही किसी अन्य व्यक्ति के लिए — इंगित करके नहीं लिया जा सकता, और न ही यह निर्णय किसी भी प्रक्रिया के विवरण द्वारा लिया जा सकता है। पहला प्रश्न शब्द की व्याख्या भी पूछता है; किन्तु इससे अनुचित उत्तर की अपेक्षा भी पैदा होती है।
{{ParPU|370}} यह नहीं पूछना चाहिए कि प्रतिबिम्ब क्या है अथवा किसी विषय की कल्पना करते समय क्या घटित होता है, अपितु यह पूछना चाहिए कि “कल्पना” शब्द का प्रयोग कैसे किया जाता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं शब्दों के बारे में ही बात करना चाहता हूँ। क्योंकि कल्पना के स्वभाव के बारे में कोई भी प्रश्न उसी तरह “कल्पना” शब्द के बारे में है जिस तरह कल्पना संबंधी मेरा प्रश्न है। और मैं केवल इतना ही कह रहा हूँ कि इस प्रश्न का निर्णय — न तो कल्पना करने वाले व्यक्ति के लिए, न ही किसी अन्य व्यक्ति के लिए — इंगित करके नहीं लिया जा सकता, और न ही यह निर्णय किसी भी प्रक्रिया के विवरण द्वारा लिया जा सकता है। पहला प्रश्न शब्द की व्याख्या भी पूछता है; किन्तु इससे अनुचित उत्तर की अपेक्षा भी पैदा होती है।


{{ParPU|371}} सार, व्याकरण द्वारा अभिव्यक्त होता है।
{{ParPU|371}} ''सार'', व्याकरण द्वारा अभिव्यक्त होता है।


{{ParPU|372}} विचार कीजिए : “भाषा की मूलभूत आवश्यकता यादृच्छिक नियम ही हैं। इसी को मूलभूत आवश्यकता के जरिये प्रतिज्ञप्ति में परिणित किया जा सकता है।”
{{ParPU|372}} विचार कीजिए : “भाषा की मूलभूत आवश्यकता यादृच्छिक नियम ही हैं। इसी को मूलभूत आवश्यकता के जरिये प्रतिज्ञप्ति में परिणित किया जा सकता है।”
Line 1,547: Line 1,547:
{{ParPU|375}} किसी को मन ही मन पढ़ने का प्रशिक्षण कैसे दिया जाता है? कैसे पता चलता है कि वह ऐसा कर सकता है? वह स्वयं ही कैसे जान पाता है कि वह वही कर रहा है जिसकी उससे अपेक्षा है?
{{ParPU|375}} किसी को मन ही मन पढ़ने का प्रशिक्षण कैसे दिया जाता है? कैसे पता चलता है कि वह ऐसा कर सकता है? वह स्वयं ही कैसे जान पाता है कि वह वही कर रहा है जिसकी उससे अपेक्षा है?


{{ParPU|376}} जब मैं अपने आप क, ख, ग बोलता हूँ और कोई अन्य व्यक्ति भी मन ही मन चुपचाप उन्हें दोहराता है तो मेरी और उस व्यक्ति की क्रियाओं में समानता निर्धारित करने की कसौटी क्या है? यह पता चल सकता है कि मेरे और उसके कंठ में एक समान हलचल हो रही है। (और ऐसा ही होता है जब हम दोनों एक ही विषय के बारे में सोचते हैं, एक ही कामना करते हैं, इत्यादि-इत्यादि।) किन्तु फिर क्या हमने इन शब्दों : “अपने आप को अमुक बात कहना” का प्रयोग किसी व्यक्ति द्वारा कंठ अथवा मस्तिष्क की किसी प्रक्रिया को इंगित करने से सीखा था? क्या यह भी पूर्णत : संभव नहीं है कि क की ध्वनि का मेरा और उसका प्रतिबिम्ब अलग-अलग शारीरिक-क्रियाओं से संबद्ध हो? प्रश्न तो यह है: प्रतिबिम्बों ''की तुलना हम कैसे करते हैं''?
{{ParPU|376}} जब मैं अपने आप '''क, ख, ग''' बोलता हूँ और कोई अन्य व्यक्ति भी मन ही मन चुपचाप उन्हें दोहराता है तो मेरी और उस व्यक्ति की क्रियाओं में समानता निर्धारित करने की कसौटी क्या है? यह पता चल सकता है कि मेरे और उसके कंठ में एक समान हलचल हो रही है। (और ऐसा ही होता है जब हम दोनों एक ही विषय के बारे में सोचते हैं, एक ही कामना करते हैं, इत्यादि-इत्यादि।) किन्तु फिर क्या हमने इन शब्दों : “अपने आप को अमुक बात कहना” का प्रयोग किसी व्यक्ति द्वारा कंठ अथवा मस्तिष्क की किसी प्रक्रिया को इंगित करने से सीखा था? क्या यह भी पूर्णत : संभव नहीं है कि क की ध्वनि का मेरा और उसका प्रतिबिम्ब अलग-अलग शारीरिक-क्रियाओं से संबद्ध हो? प्रश्न तो यह है: प्रतिबिम्बों ''की तुलना हम कैसे करते हैं''?


{{ParPU|377}} संभवत : तर्कशास्त्री सोचेगा : सादृश्य तो सादृश्य ही है — तादात्म्य कैसे स्थापित किया जाता है यह तो मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। (ऊँचा तो ऊँचा ही है — यह मनोवैज्ञानिक विषय है कि हम कभी तो ऊँचा ''देखते'' हैं, और कभी ऊँचा ''सुनते'' हैं।)
{{ParPU|377}} संभवत : तर्कशास्त्री सोचेगा : सादृश्य तो सादृश्य ही है — तादात्म्य कैसे स्थापित किया जाता है यह तो मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। (ऊँचा तो ऊँचा ही है — यह मनोवैज्ञानिक विषय है कि हम कभी तो ऊँचा ''देखते'' हैं, और कभी ऊँचा ''सुनते'' हैं।)
Line 1,571: Line 1,571:
“''यह'' प्रतिबिम्ब” इन शब्दों का क्या अर्थ है? — किसी प्रतिबिम्ब को इंगित कैसे किया जाता है? उसी प्रतिबिम्ब को दो बार कैसे इंगित किया जाता है?
“''यह'' प्रतिबिम्ब” इन शब्दों का क्या अर्थ है? — किसी प्रतिबिम्ब को इंगित कैसे किया जाता है? उसी प्रतिबिम्ब को दो बार कैसे इंगित किया जाता है?


{{ParPU|383}} हम किसी संवृत्ति (उदाहरणार्थ किसी विचार) का विश्लेषण नहीं कर रहे, अपितु प्रत्यय (उदाहरणार्थ, सोच) का और इसीलिए शब्द के प्रयोग का विश्लेषण कर रहे हैं। अतः ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हम नामरूपवाद में फँसे हों। नामरूपवादी सभी शब्दों का ''नामों'' के सदृश निर्वचन करने की भूल करते हैं, और इसीलिए उनके प्रयोग का यथार्थ विवरण नहीं देते अपितु यूँ कहिए कि, ऐसे विवरण का केवल कागजी प्रारूप ही देते हैं।
{{ParPU|383}} हम किसी संवृत्ति (उदाहरणार्थ किसी विचार) का विश्लेषण नहीं कर रहे, अपितु प्रत्यय (उदाहरणार्थ, सोच) का और इसीलिए शब्द के प्रयोग का विश्लेषण कर रहे हैं। अतः ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हम नामरूपवाद में फँसे हों। नामरूपवादी सभी शब्दों का ''नामों'' के सदृश निर्वचन करने की भूल करते हैं, और इसीलिए उनके प्रयोग का यथार्थ विवरण नहीं देते अपितु यूँ कहिए कि, ऐसे विवरण का केवल कागजी प्रारूप ही देते हैं।  


{{ParPU|384}} आपने ‘वेदना’ ''प्रत्यय'' को तब सीखा था जब आपने भाषा सीखी थी।
{{ParPU|384}} आपने ‘वेदना’ ''प्रत्यय'' को तब सीखा था जब आपने भाषा सीखी थी।
Line 1,593: Line 1,593:
{{ParPU|391}} मैं संभवतः यह कल्पना भी कर सकता हूँ (यद्यपि ऐसा करना सरल नहीं है) कि सड़क पर दिखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को घोर वेदना हो रही है, किन्तु उसे वह चतुराई से छिपा रहा है। और यह महत्त्वपूर्ण है कि मुझे यहाँ चतुराई से छिपाने की कल्पना करनी पड़ रही है। यह भी कि मैं अपने आप से सरलतापूर्वक नहीं कहता: “अच्छा उसकी आत्मा वेदना ग्रस्त है: किन्तु इससे उसके शरीर को क्या लेना देना?” अथवा “बहरहाल इसे उसके शरीर में दिखाई देने की आवश्यकता नहीं है!” — और यदि मैं इसकी कल्पना करता हूँ ''तो'' मैं क्या करता हूँ; मैं अपने आप से क्या कहता हूँ; मैं लोगों को कैसे समझता हूँ? संभवतः मैं किसी एक को देखूँ और सोचूँ: “जब कोई ऐसी वेदना से ग्रस्त हो, तो उसके लिए हँसना कठिन होता होगा”, और ऐसी और भी बहुत सी बातें। मानो मैं कोई नाटक खेल रहा हूँ, और इसमें ऐसा ''अभिनय'' करता हूँ जैसे कि दूसरे लोग वेदना-ग्रस्त हों। जब मैं ऐसा करता हूँ तो, उदाहरणार्थ, कहा जाता है कि मैं, ... कल्पना कर रहा हूँ।
{{ParPU|391}} मैं संभवतः यह कल्पना भी कर सकता हूँ (यद्यपि ऐसा करना सरल नहीं है) कि सड़क पर दिखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को घोर वेदना हो रही है, किन्तु उसे वह चतुराई से छिपा रहा है। और यह महत्त्वपूर्ण है कि मुझे यहाँ चतुराई से छिपाने की कल्पना करनी पड़ रही है। यह भी कि मैं अपने आप से सरलतापूर्वक नहीं कहता: “अच्छा उसकी आत्मा वेदना ग्रस्त है: किन्तु इससे उसके शरीर को क्या लेना देना?” अथवा “बहरहाल इसे उसके शरीर में दिखाई देने की आवश्यकता नहीं है!” — और यदि मैं इसकी कल्पना करता हूँ ''तो'' मैं क्या करता हूँ; मैं अपने आप से क्या कहता हूँ; मैं लोगों को कैसे समझता हूँ? संभवतः मैं किसी एक को देखूँ और सोचूँ: “जब कोई ऐसी वेदना से ग्रस्त हो, तो उसके लिए हँसना कठिन होता होगा”, और ऐसी और भी बहुत सी बातें। मानो मैं कोई नाटक खेल रहा हूँ, और इसमें ऐसा ''अभिनय'' करता हूँ जैसे कि दूसरे लोग वेदना-ग्रस्त हों। जब मैं ऐसा करता हूँ तो, उदाहरणार्थ, कहा जाता है कि मैं, ... कल्पना कर रहा हूँ।


{{ParPU|392}} “जब मैं उसके वेदना ग्रस्त होने की कल्पना करता तो मेरे अन्तर्मन में वास्तव में... होता है”। तब कोई अन्य व्यक्ति कहता है: “मेरा विश्वास है। कि मैं ''बिना'' ‘...’ सोचे इसकी कल्पना कर सकता हूँ” (“मेरा विश्वास है कि मैं शब्दों के बिना सोच सकता हूँ।”) इससे कोई परिणाम नहीं निकलता। यह विश्लेषण प्राकृतिक विज्ञान एवं व्याकरण के बीच डोलता रहता है।
{{ParPU|392}} “जब मैं उसके वेदना ग्रस्त होने की कल्पना करता तो मेरे अन्तर्मन में वास्तव में... होता है”। तब कोई अन्य व्यक्ति कहता है: “मेरा विश्वास है कि मैं ''बिना'' ‘...’ सोचे इसकी कल्पना कर सकता हूँ” (“मेरा विश्वास है कि मैं शब्दों के बिना सोच सकता हूँ।”) इससे कोई परिणाम नहीं निकलता। यह विश्लेषण प्राकृतिक विज्ञान एवं व्याकरण के बीच डोलता रहता है।


{{ParPU|393}} “जब मैं कल्पना करता हूँ कि वह हँसने वाला व्यक्ति वास्तव में वेदना-ग्रस्त है तो मैं किसी वेदना-व्यवहार की कल्पना नहीं करता क्योंकि मैं उसके ठीक विपरीत देखता हूँ। तो मैं ''किसकी'' कल्पना करता हूँ?” — मैंने पहले ही कह दिया है कि किसकी। और अनिवार्यतः मैं ''स्वयं अपने'' वेदना-ग्रस्त होने की कल्पना नहीं करता। — “किन्तु फिर इसकी कल्पना करने की प्रक्रिया क्या होगी?” — “मैं उसके वेदना-ग्रस्त होने की कल्पना कर सकता हूँ” अथवा “मैं कल्पना करता हूँ कि...” अथवा “कल्पना कीजिए कि...” शब्दों का प्रयोग हम (दर्शन से बाहर) कहाँ करते हैं?
{{ParPU|393}} “जब मैं कल्पना करता हूँ कि वह हँसने वाला व्यक्ति वास्तव में वेदना-ग्रस्त है तो मैं किसी वेदना-व्यवहार की कल्पना नहीं करता क्योंकि मैं उसके ठीक विपरीत देखता हूँ। तो मैं ''किसकी'' कल्पना करता हूँ?” — मैंने पहले ही कह दिया है कि किसकी। और अनिवार्यतः मैं ''स्वयं अपने'' वेदना-ग्रस्त होने की कल्पना नहीं करता। — “किन्तु फिर इसकी कल्पना करने की प्रक्रिया क्या होगी?” — “मैं उसके वेदना-ग्रस्त होने की कल्पना कर सकता हूँ” अथवा “मैं कल्पना करता हूँ कि...” अथवा “कल्पना कीजिए कि...” शब्दों का प्रयोग हम (दर्शन से बाहर) कहाँ करते हैं?
Line 1,753: Line 1,753:
मान लीजिए यह पूछा जाए “क्या प्राप्ति से पूर्व ही मैं जानता हूँ कि मुझे किस की अभिलाषा है?” हाँ यदि मैंने बोलना सीखा है, तो मैं अवश्य ही जानता हूँ।
मान लीजिए यह पूछा जाए “क्या प्राप्ति से पूर्व ही मैं जानता हूँ कि मुझे किस की अभिलाषा है?” हाँ यदि मैंने बोलना सीखा है, तो मैं अवश्य ही जानता हूँ।


{{ParPU|442}} कोई मुझे बन्दूक से धमकाते हुए कहता है: “मुझे जानकारी दो”। गोली चला दी जाती है। — अच्छा तो यही आपकी अपेक्षा थी; तो क्या वह जानकारी किसी प्रकार आपको अपेक्षित थी। अथवा, क्या आपकी अपेक्षा और घटित घटना के बीच किसी अन्य प्रकार का सम्बन्ध है; और यह कि वह शोर आपको अपेक्षित न था, परन्तु अपेक्षापूर्ति के समय वह अकस्मात् आ टपका? — किन्तु नहीं, यदि शोर न होता तो मेरी अपेक्षा की पूर्ति भी न होती; शोर ने उसकी पूर्ति की; यह शोर मेरे अपेक्षित अतिथि के साथ बिन बुलाए आने वाले व्यक्ति के समान मेरी अपेक्षा-पूर्ति का साथी नहीं है। क्या अनपेक्षित घटना आकस्मिक दुर्घटना ही ''थी''? किन्तु आकस्मिक क्या था? क्या गोली चलने की मुझे पहले ही अपेक्षा ''थी''? तो, आकस्मिक क्या था? क्योंकि क्या मुझे गोली चलने की पूरी अपेक्षा नहीं थी?
{{ParPU|442}} कोई मुझे बन्दूक से धमकाते हुए कहता है: “मुझे जानकारी दो”। गोली चला दी जाती है। — अच्छा तो यही आपकी अपेक्षा थी; तो क्या वह जानकारी किसी प्रकार आपको अपेक्षित थी। अथवा, क्या आपकी अपेक्षा और घटित घटना के बीच किसी अन्य प्रकार का सम्बन्ध है; और यह कि वह शोर आपको अपेक्षित न था, परन्तु अपेक्षापूर्ति के समय वह अकस्मात् आ टपका? — किन्तु नहीं, यदि शोर न होता तो मेरी अपेक्षा की पूर्ति भी न होती; शोर ने उसकी पूर्ति की; यह शोर मेरे अपेक्षित अतिथि के साथ बिन बुलाए आने वाले व्यक्ति के समान मेरी अपेक्षा-पूर्ति का साथी नहीं है। क्या अनपेक्षित घटना आकस्मिक दुर्घटना ही थी? किन्तु आकस्मिक क्या ''था''? क्या गोली चलने की मुझे पहले ही अपेक्षा थी? तो, आकस्मिक क्या ''था''? क्योंकि क्या मुझे गोली चलने की पूरी अपेक्षा नहीं थी?


“धमाका मेरी अपेक्षा जितना तीव्र नहीं था।” — “तो क्या आपकी अपेक्षा में कोई अधिक तीव्र धमाका था?”
“धमाका मेरी अपेक्षा जितना तीव्र नहीं था।” — “तो क्या आपकी अपेक्षा में कोई अधिक तीव्र धमाका था?”
Line 1,780: Line 1,780:


{{ParPU|449}} “किन्तु क्या मुझे यह विदित नहीं होना चाहिए कि मेरा वेदना-ग्रस्त होना कैसा होगा?” — हम इस विचार से बच निकलने में असफल हैं कि वाक्य को प्रयोग करने में, प्रत्येक शब्द के स्थान पर कुछ कल्पना करनी होती है।
{{ParPU|449}} “किन्तु क्या मुझे यह विदित नहीं होना चाहिए कि मेरा वेदना-ग्रस्त होना कैसा होगा?” — हम इस विचार से बच निकलने में असफल हैं कि वाक्य को प्रयोग करने में, प्रत्येक शब्द के स्थान पर कुछ कल्पना करनी होती है।
है।
 
हम यह नहीं समझते कि हम शब्दों को ''नाप-तोल'' कर प्रयोग करते हैं, उनसे काम लेते हैं, और कालांतर में उनको कभी तो एक चित्र में और कभी किसी अन्य चित्र में अनूदित करते हैं। — यह तो ऐसा ही है मानो कोई समझे कि मुझे दी जाने वाली गाय से संबन्धित लिखित आदेश को अर्थपूर्ण होने के लिए ऐसे आदेश के साथ सदैव गाय की प्रतिकृति को संलग्न किया जाना चाहिए।
हम यह नहीं समझते कि हम शब्दों को ''नाप-तोल'' कर प्रयोग करते हैं, उनसे काम लेते हैं, और कालांतर में उनको कभी तो एक चित्र में और कभी किसी अन्य चित्र में अनूदित करते हैं। — यह तो ऐसा ही है मानो कोई समझे कि मुझे दी जाने वाली गाय से संबन्धित लिखित आदेश को अर्थपूर्ण होने के लिए ऐसे आदेश के साथ सदैव गाय की प्रतिकृति को संलग्न किया जाना चाहिए।


Line 1,971: Line 1,971:
क्योंकि अनेक गणितीय प्रमाण हमें यह कहने को बाध्य करते हैं कि हम कई ऐसे विषयों की कल्पना ''नहीं कर सकते'' जिनकी कल्पना कर सकने का हमें विश्वास था।(उदाहरणार्थ, सप्तभुज का निर्माण।) वे हमें कल्पना-क्षेत्र में फेर-बदल करने को बाध्य करते हैं।
क्योंकि अनेक गणितीय प्रमाण हमें यह कहने को बाध्य करते हैं कि हम कई ऐसे विषयों की कल्पना ''नहीं कर सकते'' जिनकी कल्पना कर सकने का हमें विश्वास था।(उदाहरणार्थ, सप्तभुज का निर्माण।) वे हमें कल्पना-क्षेत्र में फेर-बदल करने को बाध्य करते हैं।


{{ParPU|518}} सुकरात थिएटेटस को कहते हैं: “और यदि कोई ऐसा सोचता है तो क्या उसे कुछ सोचना नहीं चाहिए?” — थि.: “हाँ, अवश्य” — सु.: “और यदि वह कुछ सोचता है, तो क्या उस विषय का कोई अस्तित्व नहीं होना चाहिए?” — थि.: “स्पष्टतया।”
{{ParPU|518}} सुकरात थिएटेटस को कहते हैं: “और यदि कोई ऐसा सोचता है तो क्या उसे कुछ सोचना नहीं चाहिए?” — थि. : “हाँ, अवश्य” — सु. : “और यदि वह कुछ सोचता है, तो क्या उस विषय का कोई अस्तित्व नहीं होना चाहिए?” — थि. : “स्पष्टतया।”


और क्या चित्रकार को किसी विषय का चित्र नहीं बनाना चाहिए — और किसी विषय का चित्र बनाने वाला तो किसी वास्तविक विषय का चित्र ही बना रहा होगा! — अच्छा, मुझे बताओ कि चित्र का विषय क्या है: मनुष्य का चित्र (उदाहरणार्थ), अथवा वह व्यक्ति जिसे चित्र चित्रित करता है
और क्या चित्रकार को किसी विषय का चित्र नहीं बनाना चाहिए — और किसी विषय का चित्र बनाने वाला तो किसी वास्तविक विषय का चित्र ही बना रहा होगा! — अच्छा, मुझे बताओ कि चित्र का विषय क्या है: मनुष्य का चित्र (उदाहरणार्थ), अथवा वह व्यक्ति जिसे चित्र चित्रित करता है
Line 2,309: Line 2,309:
अपने आचरण के निरीक्षण के आधार पर मैंने नहीं कहा था कि मैं दो दवाइयों
अपने आचरण के निरीक्षण के आधार पर मैंने नहीं कहा था कि मैं दो दवाइयों


को खाने जा रहा हूँ। इस प्रतिज्ञप्ति के पूर्ववृत्त भिन्न थे। मेरा आशय उन विचारों, क्रियाओं इत्यादि से था जो हमें यहाँ तक ले आए। और यह कहना तो भ्रामक ही होगा: “आपके उच्चारण की आवश्यक पूर्वकल्पना तो आपका निर्णय ही था।”
को खाने जा रहा हूँ। इस प्रतिज्ञप्ति के पूर्ववृत्त भिन्न थे। मेरा आशय उन विचारों, क्रियाओं इत्यादि से था जो हमें यहाँ तक ले आए। और यह कहना तो भ्रामक ही होगा: “आपके उच्चारण की आवश्यक पूर्वकल्पना तो आपका निर्णय ही था।”{{ParPU|632}} मैं यह नहीं कहना चाहता कि “मैं दो दवाइयाँ खाने जा रहा हूँ” इस अभिप्राय की अभिव्यक्ति में भविष्यवाणी कारण है — और अभिप्राय की पूर्ति उस अभिव्यक्ति का परिणाम। (संभवतः, शारीरिक निरीक्षण इसका निर्धारण कर पाए।) फिर भी, इतना तो सत्य ही है: किसी मनुष्य की क्रियाओं की भविष्यवाणी बहुधा हम उसके निर्णय की अभिव्यक्ति से कर सकते हैं। एक महत्त्वपूर्ण भाषा-खेल।
 
 
{{ParPU|632}} मैं यह नहीं कहना चाहता कि “मैं दो दवाइयाँ खाने जा रहा हूँ” इस अभिप्राय की अभिव्यक्ति में भविष्यवाणी कारण है — और अभिप्राय की पूर्ति उस अभिव्यक्ति का परिणाम। (संभवतः, शारीरिक निरीक्षण इसका निर्धारण कर पाए।) फिर भी, इतना तो सत्य ही है: किसी मनुष्य की क्रियाओं की भविष्यवाणी बहुधा हम उसके निर्णय की अभिव्यक्ति से कर सकते हैं। एक महत्त्वपूर्ण भाषा-खेल।


{{ParPU|633}} “कुछ क्षण पूर्व आपको टोक दिया गया था; क्या अभी भी आपको पता है कि आप क्या कहने जा रहे थे?”- - यदि अब भी मुझे उस बात का पता है और मैं उसे कहता हूँ - तो क्या इसका अर्थ है कि मैंने पहले से ही उसे सोच रखा था, किन्तु उसे कहा नहीं था? नहीं; यदि आप उस निश्चय को ही, विचार से पहले पूर्ण हो जाने की कसौटी नहीं मान लेते, जिस निश्चय से टोके गये वाक्य को मैं आगे बढ़ाता हूँ। — किन्तु, निस्संदेह, मेरी परिस्थिति और विचारों में वे सभी विषय निहित थे जिनसे वाक्य को आगे बढ़ाने में सहायता मिलती है।
{{ParPU|633}} “कुछ क्षण पूर्व आपको टोक दिया गया था; क्या अभी भी आपको पता है कि आप क्या कहने जा रहे थे?”- - यदि अब भी मुझे उस बात का पता है और मैं उसे कहता हूँ - तो क्या इसका अर्थ है कि मैंने पहले से ही उसे सोच रखा था, किन्तु उसे कहा नहीं था? नहीं; यदि आप उस निश्चय को ही, विचार से पहले पूर्ण हो जाने की कसौटी नहीं मान लेते, जिस निश्चय से टोके गये वाक्य को मैं आगे बढ़ाता हूँ। — किन्तु, निस्संदेह, मेरी परिस्थिति और विचारों में वे सभी विषय निहित थे जिनसे वाक्य को आगे बढ़ाने में सहायता मिलती है।