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{{ParPU|596}} ‘परिचय’ और ‘स्वाभाविकता’ की अनुभूति। ‘अपरिचय’ की और ‘अस्वाभाविकता’ की अनुभूति अथवा ''अनुभूतियों'' को समझना सरल है क्योंकि प्रत्येक अपरिचित विषय से हम पर अपरिचय का प्रभाव नहीं पड़ता। यहाँ हमें “अपरिचित” कहे जाने वाले विषय पर विचार करना होगा। जब सड़क पर कोई चट्टान पड़ी हो तो हम उसे चट्टान के रूप में जानते हैं, किंतु संभवतः उस चट्टान के रूप में नहीं जो सदैव ही वहाँ थी। उदाहरणार्थ, हम किसी व्यक्ति को, व्यक्ति के रूप में पहचानते हैं, न कि किसी परिचित के रूप में। पुराने परिचय की अनुभूतियाँ होती हैं: वे कभी-कभी अवलोकन के विशिष्ट ढंग से, अथवा शब्दों द्वारा अभिव्यक्त की जाती हैं: “वही पुराना कमरा!” (जिसमें मैं वर्षों पहले रहा था और अब वापिस आने पर उसे वैसा ही पाता हूँ)। इसी प्रकार अजनबीपन की अनुभूतियाँ होती हैं। सहसा मैं रुकता हूँ, वस्तु को अथवा व्यक्ति को संशय अथवा अविश्वास से देखता हूँ और कहता हूँ, “यह सब तो मुझे अजनबी लगता है।” — किन्तु अजनबीपन की इस अनुभूति के कारण हम यह नहीं कहते कि हमारे द्वारा भली भांति जाने गये, और हमें अजनबी न लगने वाले विषयों से, हमें परिचय की अनुभूति होती है। — मानो हम सोचते हों कि अजनबीपन की रिक्तता की अनुभूति को निश्चय ही ''किसी प्रकार'' भी भरना होगा! इस प्रकार की स्थिति के लिए स्थान तो है, और जब इनमें से कोई एक स्थिति नहीं रहती तो वहाँ दूसरी स्थिति जगह बना लेती है। | {{ParPU|596}} ‘परिचय’ और ‘स्वाभाविकता’ की अनुभूति। ‘अपरिचय’ की और ‘अस्वाभाविकता’ की अनुभूति अथवा ''अनुभूतियों'' को समझना सरल है क्योंकि प्रत्येक अपरिचित विषय से हम पर अपरिचय का प्रभाव नहीं पड़ता। यहाँ हमें “अपरिचित” कहे जाने वाले विषय पर विचार करना होगा। जब सड़क पर कोई चट्टान पड़ी हो तो हम उसे चट्टान के रूप में जानते हैं, किंतु संभवतः उस चट्टान के रूप में नहीं जो सदैव ही वहाँ थी। उदाहरणार्थ, हम किसी व्यक्ति को, व्यक्ति के रूप में पहचानते हैं, न कि किसी परिचित के रूप में। पुराने परिचय की अनुभूतियाँ होती हैं: वे कभी-कभी अवलोकन के विशिष्ट ढंग से, अथवा शब्दों द्वारा अभिव्यक्त की जाती हैं: “वही पुराना कमरा!” (जिसमें मैं वर्षों पहले रहा था और अब वापिस आने पर उसे वैसा ही पाता हूँ)। इसी प्रकार अजनबीपन की अनुभूतियाँ होती हैं। सहसा मैं रुकता हूँ, वस्तु को अथवा व्यक्ति को संशय अथवा अविश्वास से देखता हूँ और कहता हूँ, “यह सब तो मुझे अजनबी लगता है।” — किन्तु अजनबीपन की इस अनुभूति के कारण हम यह नहीं कहते कि हमारे द्वारा भली भांति जाने गये, और हमें अजनबी न लगने वाले विषयों से, हमें परिचय की अनुभूति होती है। — मानो हम सोचते हों कि अजनबीपन की रिक्तता की अनुभूति को निश्चय ही ''किसी प्रकार'' भी भरना होगा! इस प्रकार की स्थिति के लिए स्थान तो है, और जब इनमें से कोई एक स्थिति नहीं रहती तो वहाँ दूसरी स्थिति जगह बना लेती है। | ||
{{ParPU|597}} जैसे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले जर्मन व्यक्ति की जुबान पर जर्मन भाषा का असर दिखाई देता है, यद्यपि ऐसा नहीं होगा कि उसे पहले जर्मन भाषा के वाक्य सूझते हों और फिर वह उन्हें अंग्रेजी में अनूदित करता हो; जैसे वह अंग्रेजी ऐसे बोलता है, मानो वह | {{ParPU|597}} जैसे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले जर्मन व्यक्ति की जुबान पर जर्मन भाषा का असर दिखाई देता है, यद्यपि ऐसा नहीं होगा कि उसे पहले जर्मन भाषा के वाक्य सूझते हों और फिर वह उन्हें अंग्रेजी में अनूदित करता हो; जैसे वह अंग्रेजी ऐसे बोलता है, मानो वह ‘''अचेतन रूप से''’ जर्मन भाषा से ''अनुवाद कर रहा हो'' — वैसे ही हम बहुधा समझते हैं मानो हमारी सोच किसी विचार-योजना पर आधारित हो; मानो हम विचार की किसी आदिम विचार-प्रणाली से, अपनी विचार-प्रणाली में अनुवाद कर रहे हों। | ||
{{ParPU|598}} दार्शनिक चिन्तन करते समय हमें अननभूत अनुभूतियों की कल्पना करनी पड़ती है। वे हमारे ही विचारों की व्याख्या करने में सहायक होती हैं। | {{ParPU|598}} दार्शनिक चिन्तन करते समय हमें अननभूत अनुभूतियों की कल्पना करनी पड़ती है। वे हमारे ही विचारों की व्याख्या करने में सहायक होती हैं। |