ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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1. यदि आप निश्चित रूप से यह जानते हैं कि ''यह एक हाथ है''<ref>देखें, जी. ई. मूअर " प्रूफ़ ऑव एन एक्सटर्नल वर्ल्ड", प्रोसीडिंग्स ऑव द ब्रिटिश अकेडमी, खडं xxv, 1930 और ए डिफेन्स ऑव कॉमन सेन्स", कान्टेम्परेरी ब्रिटिश फ़िलोसॉफ़ी, सेकेंड सिरीज़, संपादक जे. एच. मयूरहैड, 1925 ये दोनों शोध-पत्र मूअर की पुस्तक फ़िलोसॉफ़िकल पेपर्स, लंदन : जॉर्ज एलन एन्ड अन्विन, 1959 में भी मिलते हैं।</ref> तो हम आपके बाकी सारे ज्ञान को स्वीकार कर लेते हैं।
1. यदि आप निश्चित रूप से यह जानते हैं कि ''यह एक हाथ है''<ref>देखें, जी. ई. मूअर "प्रूफ़ ऑव एन एक्सटर्नल वर्ल्ड", ''प्रोसीडिंग्स ऑव द ब्रिटिश अकेडमी'', खडं xxv, 1930; और "ए डिफेन्स ऑव कॉमन सेन्स", ''कान्टेम्परेरी ब्रिटिश फ़िलोसॉफ़ी, सेकेंड सिरीज़'', संपादक जे. एच. मयूरहैड, 1925। ये दोनों शोध-पत्र मूअर की पुस्तक ''फ़िलोसॉफ़िकल पेपर्स'', लंदन: जॉर्ज एलन एन्ड अन्विन, 1959 में भी मिलते हैं।</ref> तो हम आपके बाकी सारे ज्ञान को स्वीकार कर लेते हैं।


जब हम यह कहते हैं कि अमुक प्रतिज्ञप्ति को सिद्ध नहीं किया जा सकता तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि उसकी अन्य प्रतिज्ञप्तियों से निष्पत्ति नहीं की जा सकती; किसी प्रतिज्ञप्ति की अन्य प्रतिज्ञप्तियों से निष्पत्ति की जा सकती है, किन्तु यह जरूरी नहीं कि वे उस प्रतिज्ञप्ति से अधिक विश्वसनीय हों। (इस पर एच. न्यूमैन की अटपटी टिप्पणी)
जब हम यह कहते हैं कि अमुक प्रतिज्ञप्ति को सिद्ध नहीं किया जा सकता तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि उसकी अन्य प्रतिज्ञप्तियों से निष्पत्ति नहीं की जा सकती; किसी प्रतिज्ञप्ति की अन्य प्रतिज्ञप्तियों से निष्पत्ति की जा सकती है, किन्तु यह जरूरी नहीं कि वे उस प्रतिज्ञप्ति से अधिक विश्वसनीय हों। (इस पर एच. न्यूमैन की अटपटी टिप्पणी)
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84. मूअर का कहना है कि उन्हें ''पता'' है कि पृथ्वी का अस्तित्व उनके जन्म के बहुत पहले से है । और इस प्रकार कहे जाने पर ऐसा लगता है कि यह कथन भौतिक जगत् के बारे में होने के साथ-साथ वैयक्तिक भी है। मूअर इसके, या उसके बारे में कुछ जानते हैं, या नहीं, यह तो दार्शनिक रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं है किन्तु इसे या उसे जानने की विधि को जानना दार्शनिक के लिए महत्त्वपूर्ण है। यदि मूअर हमें बताते कि उन्हें दो सितारों के बीच की दूरी का ज्ञान है तो इससे हम यह निष्कर्ष निकालते कि उन्होंने कोई विशिष्ट अनुसंधान किया है और हम उस अनुसंधान के बारे में जानना भी चाहते । किन्तु मूअर तो वही बात कहते हैं जिसे हम सभी जानते हैं किन्तु यह नहीं बतला सकते कि हम उसे कैसे जानते हैं। उदाहरणार्थ, मेरी यह मान्यता है कि (पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में) मैं भी मूअर जितना ही जानता हूँ, और यदि वे कहते हैं कि वे जानते हैं कि पृथ्वी है तो ''मुझे'' भी यह ज्ञात है। क्योंकि ऐसा नहीं है कि वे किसी पूर्व-निर्धारित चिन्तन-विधि का अवलम्बन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हों । जबकि मैं उस विधि को जानते हुए भी बिना उसके प्रयोग के ही इस निष्कर्ष पर पहुँच गया हूँ।
84. मूअर का कहना है कि उन्हें ''पता'' है कि पृथ्वी का अस्तित्व उनके जन्म के बहुत पहले से है । और इस प्रकार कहे जाने पर ऐसा लगता है कि यह कथन भौतिक जगत् के बारे में होने के साथ-साथ वैयक्तिक भी है। मूअर इसके, या उसके बारे में कुछ जानते हैं, या नहीं, यह तो दार्शनिक रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं है किन्तु इसे या उसे जानने की विधि को जानना दार्शनिक के लिए महत्त्वपूर्ण है। यदि मूअर हमें बताते कि उन्हें दो सितारों के बीच की दूरी का ज्ञान है तो इससे हम यह निष्कर्ष निकालते कि उन्होंने कोई विशिष्ट अनुसंधान किया है और हम उस अनुसंधान के बारे में जानना भी चाहते । किन्तु मूअर तो वही बात कहते हैं जिसे हम सभी जानते हैं किन्तु यह नहीं बतला सकते कि हम उसे कैसे जानते हैं। उदाहरणार्थ, मेरी यह मान्यता है कि (पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में) मैं भी मूअर जितना ही जानता हूँ, और यदि वे कहते हैं कि वे जानते हैं कि पृथ्वी है तो ''मुझे'' भी यह ज्ञात है। क्योंकि ऐसा नहीं है कि वे किसी पूर्व-निर्धारित चिन्तन-विधि का अवलम्बन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हों । जबकि मैं उस विधि को जानते हुए भी बिना उसके प्रयोग के ही इस निष्कर्ष पर पहुँच गया हूँ।


85. और इसे कैसे जाना जाता है? क्या इतिहास-ज्ञान से? उसे इसका अर्थ जानना होगा: अमुक काल से पृथ्वी का अस्तित्व है। क्योंकि ''किसी भी'' बुद्धिमान् व्यक्ति को इस बात का पता होना चाहिए। लोगों को मकान बनाते और तोड़ते देखकर हम पूछते हैं: "इस मकान का अस्तित्व यहाँ कब से है?" किन्तु किसी पर्वत के बारे में हम यही प्रश्न कैसे कर सकते हैं? और क्या सभी व्यक्ति पृथ्वी को एक ऐसी ''वस्तु''<references />
85. और इसे कैसे जाना जाता है? क्या इतिहास-ज्ञान से? उसे इसका अर्थ जानना होगा: अमुक काल से पृथ्वी का अस्तित्व है। क्योंकि ''किसी भी'' बुद्धिमान् व्यक्ति को इस बात का पता होना चाहिए। लोगों को मकान बनाते और तोड़ते देखकर हम पूछते हैं: "इस मकान का अस्तित्व यहाँ कब से है?" किन्तु किसी पर्वत के बारे में हम यही प्रश्न कैसे कर सकते हैं? और क्या सभी व्यक्ति पृथ्वी को एक ऐसी ''वस्तु'' समझते हैं जो बनती बिगड़ती रहती है? मैं पृथ्वी को (गहराई समेत) अन्तहीन, दिग्दिगन्त विस्तार वाली चपटी वस्तु क्यों नहीं मानता? किन्तु ऐसी स्थिति में भी कहा जा सकता है कि "मैं जानता हूँ कि इस पर्वत का अस्तित्व मेरे जन्म के बहुत पहले से है ।" – पर मान लीजिए कि कोई व्यक्ति ऐसा न मानता हो, तब क्या होगा?
 
86. मूअर के "मैं जानता हूँ" को "मेरी यह अविचल अवधारणा है" से प्रतिस्थापित करने पर क्या होगा?
 
87. किसी प्राक्कल्पना के रूप में प्रयुक्त हो सकने की सामर्थ्य वाले प्रकृत वाक्य का क्या हम शोध और व्यवहार के आधार के रूप में प्रयोग नहीं कर सकते? यानी, क्या हम उसे, किसी स्पष्ट नियम के बिना, संशय-रहित नहीं कर सकते ? इसे स्वयंसिद्ध मान लिया जाता है, इस पर कभी कोई प्रश्न नहीं उठाया जाता, संभवतः किसी प्रश्न की कभी कल्पना भी नहीं की जाती।
 
88. उदाहरणार्थ, ऐसा हो सकता है कि ''हमारी सारी परीक्षा'' कुछ अभिव्यक्ति- समर्थ प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित करने के लिए ही हो। वे परीक्षण-विधि के दायरे में नहीं आतीं ।
 
89. कहा जा सकता है: "... से भी बहुत पहले से पृथ्वी के अस्तित्व के पक्ष में सभी बातें हैं और उसके विपक्ष में कोई भी बात नहीं है।"
 
फिर भी क्या मैं इससे विपरीत-कल्पना नहीं कर सकता? किन्तु प्रश्न तो यह है: ऐसी मान्यता का व्यवहार पर क्या असर पड़ेगा? – संभवत: कोई कहे: "बात यह नहीं है। मान्यता तो मान्यता है, वह व्यावहारिक हो या नहीं।" कोई सोच सकता है: यह तो मानव-मन को समझाना ही है।
 
90. "मैं जानता हूँ" का आदिम अर्थ "मैं देखता हूँ" से मिलता-जुलता है। और "मैं जानता था कि वह कमरे में है किन्तु वह कमरे में था नहीं" यह कथन "मैंने उसे कमरे में देखा किन्तु वह वहाँ नहीं था" इस कथन के समान है। "मैं जानता हूँ" यह कथन मेरे और किसी प्रतिज्ञप्ति (जैसे कि "मेरी मान्यता है") के अर्थ-संबंध को अभिव्यक्त न करके, मेरे और तथ्य के बीच संबंध को अभिव्यक्त करता है। ताकि तथ्य मेरी चेतना में समाहित हो जाये। (इसी कारण हम यह कहना चाहते हैं कि बाह्य जगत् में घटित घटनाओं के बारे में हम कुछ भी नहीं जान सकते, किन्तु इन्द्रियगोचर विषय के क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं को ही हम वस्तुत: जान सकते हैं ।) इससे हमें प्रत्यक्ष-ज्ञान की प्रतीति होगी, और वह ज्ञान, मन और इन्द्रिय-सन्निकर्ष से प्राप्त होगा। तभी इस प्रतीति की ''निश्चितता'' के बारे में सन्देह उत्पन्न हो जाता है। इस प्रतीति से यह तो पता चल ही जाता है कि हमारी ''कल्पना'' ज्ञान को कैसे प्रस्तुत करती है, पर यह पता नहीं चलता कि इस प्रस्तुति का आधार क्या है।
 
91. यदि मूअर यह कहें कि पृथ्वी के अस्तित्व इत्यादि के बारे में उन्हें पता है तो उनके इस कथन पर लगभग सभी लोग विश्वास कर लेंगे, और इसके बारे में उनकी दृढ़ मान्यता को भी स्वीकार कर लेंगे। किन्तु क्या अपनी दृढ़ मान्यता का उनके पास कोई ठोस ''आधार'' है? क्योंकि यदि उनके पास इसका कोई ठोस आधार नहीं है तो उन्हें इसका ''ज्ञान'' भी नहीं है (रसेल)।
 
92. फिर भी हम पूछ सकते हैं: थोड़े दिन पहले से ही, उदाहरणार्थ किसी के जन्म के समय से ही, पृथ्वी का अस्तित्व है । इस कथन का क्या कोई उचित आधार हो सकता है? – मान लीजिए कि किसी को केवल यही बताया गया है, – तो क्या इस पर शंका की जा सकती है? मनुष्य यह मानता रहा है कि वह वर्षा कराने में समर्थ है: किसी राजा में यह संस्कार क्यों नहीं डाला जा सकता कि वह यह सोचने लगे कि इस संसार का प्रादुर्भाव उसके जन्मकाल से ही हुआ है? और यदि मूअर और यह राजा कभी मिलते और वार्तालाप करते तो क्या मूअर उस राजा के समक्ष अपनी मान्यता के औचित्य को सिद्ध कर पाते? मैं यह तो नहीं कहता कि मूअर उस राजा के विचारों में परिवर्तन नहीं ला पाते, अपितु मेरा तो यह कहना है कि यह एक विशेष प्रकार का परिवर्तन होगा; राजा का संसार के बारे में दृष्टिकोण ही बदल जाएगा।
 
याद रखें कि कभी-कभी हम किसी दृष्टिकोण की ''सरलता'' अथवा ''सहजता'' के कारण ही उसके ''औचित्य'' को मान लेते हैं, यानी, इनके कारण ही हम उस दृष्टि-कोण को अपनाते हैं। उसे अपनाकर हम कुछ ऐसा कहते हैं: "''ऐसा'' ही इसे होना चाहिए।"
 
93. मूअर द्वारा अपने ''ज्ञान'' के बारे में प्रस्तुत सभी प्रतिज्ञप्तियां ऐसी ही हैं कि उन प्रतिज्ञप्तियों से विपरीत की कोई कल्पना भी ''कैसे'' कर सकता है। उदाहरणार्थ, इस प्रतिज्ञप्ति पर कि मूअर ने अपना संपूर्ण जीवन पृथ्वी के समीप ही बिताया है। – एक बार फिर मैं यहाँ मूअर के स्थान पर अपने बारे में बात कर सकता हूँ। इससे विपरीत विश्वास करने के मेरे कौनसे कारण हो सकते हैं? या तो स्मृति या फिर सुनी-सुनाई बात। – जो कुछ भी मैंने देखा अथवा सुना है उससे मैं आश्वस्त हुआ हूँ कि कोई भी व्यक्ति पृथ्वी से बहुत दूर नहीं गया है। संसार के मेरे चित्र में ऐसी कोई भी बात नहीं है जो इसके विपरीत है।
 
94. किन्तु संसार के अपने चित्र को न तो मैंने उसके औचित्य को मान कर बनाया है, न ही मैं इस चित्र को इसके उचित होने के कारण मानता हूँ । नहीं: संस्कारों से ही मैं सत्य और असत्य में भेद करता हूँ।
 
95. संसार के इस चित्र का विवरण देने वाली प्रतिज्ञप्तियां किसी मिथक का अंग हो सकती हैं। और उनकी भूमिका किसी खेल के नियमों जैसी होती है; और उस खेल को बिना नियम सीखे, नितान्त व्यावहारिक रूप से भी सीखा जा सकता है।
 
96. आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली ऐसी प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना की जा सकती है जो रूढ़ होने के कारण ऐसी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों का माध्यम बन गई हों जो रूढ़ नहीं हुई हों; और इसकी भी कल्पना की जा सकती है कि समय के साथ-साथ उनका यह संबंध भी इस प्रकार परिवर्तित होता रहे कि रूढ़ प्रतिज्ञप्तियां रूढ़ न रहें और वे प्रतिज्ञप्तियां जो अभी रूढ़ नहीं हैं कालान्तर में वे रूढ़ हो जायें ।
 
97. मिथक बदल सकते हैं; विचारधारा की दिशा बदल सकती है। किन्तु मैं नदी के बहाव, नदी की धारा के बदलाव में भेद करता हूँ; यद्यपि दोनों में कोई सुस्पष्ट भेद नहीं है।
 
98. किन्तु, यदि कोई कहता है कि "अतः, तर्कशास्त्र भी आनुभविक-विज्ञान है<nowiki>''</nowiki> तो यह उसकी भूल होगी। फिर भी यह कहना ठीक है: एक ही प्रतिज्ञप्ति कभी तो अनुभव से जाँची जाती है और कभी उसी प्रतिज्ञप्ति को जाँच की कसौटी बना लिया जाता है।<references />