ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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9. तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है ?
9. तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है ?


10. मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास ! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि 'मैं यहाँ हूँ ।' तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है ? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो " कभी " और न ही 'सदा' – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है । और "मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है" यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि " मैं जानता हूँ कि ..." शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
10. मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि 'मैं यहाँ हूँ ।' तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो " कभी " और न ही 'सदा' – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है । और "मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है" यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि " मैं जानता हूँ कि ..." शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती।


11. "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते।
11. "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते।
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50. हम कब यह कहते हैं कि ... × ... = ...?  जब हमने परिकलन को जाँच लिया होता है।
50. हम कब यह कहते हैं कि ... × ... = ...?  जब हमने परिकलन को जाँच लिया होता है।


51. यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: " यहाँ भूल कैसे हो सकती है !”? इसे तो तार्किक प्रतिज्ञप्ति होना चाहिए। किन्तु क्या यह ऐसा तर्क है जिसको प्रतिज्ञप्तियों द्वारा सिखाया न जा सकने के कारण हम प्रयोग में नहीं लाते। – यह एक तार्किक प्रतिज्ञप्ति है; क्योंकि यह प्रत्ययात्मक (भाषिक) परिस्थिति का विवरण देती है।
51. यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: " यहाँ भूल कैसे हो सकती है!”? इसे तो तार्किक प्रतिज्ञप्ति होना चाहिए। किन्तु क्या यह ऐसा तर्क है जिसको प्रतिज्ञप्तियों द्वारा सिखाया न जा सकने के कारण हम प्रयोग में नहीं लाते। – यह एक तार्किक प्रतिज्ञप्ति है; क्योंकि यह प्रत्ययात्मक (भाषिक) परिस्थिति का विवरण देती है।


52. अतः, यह स्थिति "सूर्य से इतनी दूरी पर एक ग्रह है" या फिर "यह एक हाथ है" (उदाहरणार्थ, मेरा हाथ) प्रतिज्ञप्ति जैसी नहीं है। बाद वाले वाक्य को प्राक्कल्पना नहीं कहा जा सकता। फिर भी इन दोनों प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुनिश्चित भेद नहीं है।
52. अतः, यह स्थिति "सूर्य से इतनी दूरी पर एक ग्रह है" या फिर "यह एक हाथ है" (उदाहरणार्थ, मेरा हाथ) प्रतिज्ञप्ति जैसी नहीं है। बाद वाले वाक्य को प्राक्कल्पना नहीं कहा जा सकता। फिर भी इन दोनों प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुनिश्चित भेद नहीं है।
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110. जाँच से क्या ''अभिप्राय'' है? – "किन्तु क्या यह जाँच पर्याप्त है? और यदि यह पर्याप्त है तो क्या इसे तर्कशास्त्र से मान्यता नहीं मिलनी चाहिए?" – मानो आधारों का कोई अन्त ही नहीं होता । किन्तु अन्त आधारहीन प्राक्कल्पना तो नहीं होता : वह तो व्यवहार का आधारहीन ढंग होता है।
110. जाँच से क्या ''अभिप्राय'' है? – "किन्तु क्या यह जाँच पर्याप्त है? और यदि यह पर्याप्त है तो क्या इसे तर्कशास्त्र से मान्यता नहीं मिलनी चाहिए?" – मानो आधारों का कोई अन्त ही नहीं होता । किन्तु अन्त आधारहीन प्राक्कल्पना तो नहीं होता : वह तो व्यवहार का आधारहीन ढंग होता है।


111. "मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया।" सामयिक परिस्थितियों में यह कहना एक बात है और यदि बहुत से लोग, जिन में से कई बिना यह जाने कि वे चाँद पर गए हैं, चाँद पर गए होते तो यह कहना दूसरी बात होती। ''इस'' परिस्थिति में अपने इस ज्ञान के आधार दिए जा सकते थे। क्या इन दोनों बातों का संबंध परिकलन के साधारण नियमों और वास्तविक परिकलन जैसा नहीं है ?
111. "मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया।" सामयिक परिस्थितियों में यह कहना एक बात है और यदि बहुत से लोग, जिन में से कई बिना यह जाने कि वे चाँद पर गए हैं, चाँद पर गए होते तो यह कहना दूसरी बात होती। ''इस'' परिस्थिति में अपने इस ज्ञान के आधार दिए जा सकते थे। क्या इन दोनों बातों का संबंध परिकलन के साधारण नियमों और वास्तविक परिकलन जैसा नहीं है?


मैं कहना चाहता हूँ: चाँद पर मेरे न जाने के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त हूँ जितना कि इसकी पुष्टि में दिए गए किसी भी आधार के बारे में।
मैं कहना चाहता हूँ: चाँद पर मेरे न जाने के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त हूँ जितना कि इसकी पुष्टि में दिए गए किसी भी आधार के बारे में।
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141. पहले-पहल जब हम किसी बात पर ''विश्वास'' करने लगते हैं तो हम किसी प्रतिज्ञप्ति पर विश्वास न करके, प्रतिज्ञप्तियों के एक सम्पूर्ण तन्त्र पर विश्वास करते हैं। (सम्पूर्ण तन्त्र ही उद्भासित हो जाता है।)
141. पहले-पहल जब हम किसी बात पर ''विश्वास'' करने लगते हैं तो हम किसी प्रतिज्ञप्ति पर विश्वास न करके, प्रतिज्ञप्तियों के एक सम्पूर्ण तन्त्र पर विश्वास करते हैं। (सम्पूर्ण तन्त्र ही उद्भासित हो जाता है।)


142. कोई स्वयंसिद्ध सिद्धान्त ही मुझे उजागर नहीं होता अपितु एक ऐसी प्रणाली स्पष्ट हो जाती है जिसमें आधार-वाक्य और परिणाम ''एक दूसरे'' के पूरक हों।<references />
142. कोई स्वयंसिद्ध सिद्धान्त ही मुझे उजागर नहीं होता अपितु एक ऐसी प्रणाली स्पष्ट हो जाती है जिसमें आधार-वाक्य और परिणाम ''एक दूसरे'' के पूरक हों।
 
143. उदाहरणार्थ, कोई मुझे बतलाये कि बहुत पहले कोई इस पर्वत पर चढ़ा था । क्या मैं हमेशा वार्ताकार की विश्वसनीयता के बारे में संदिग्ध रहता हूँ, और क्या मैं वर्षों पहले पहाड़ के अस्तित्व के बारे में भी संशय करता हूँ? शिशु विश्वसनीय और अविश्वसनीय वार्ताकारों के बारे में जानने से बहुत पहले ही अपने तथ्यों को सीख लेता है । पर्वत के दीर्घकालीन अस्तित्व के बारे में वह कभी भी नहीं सीखता: यानी, यहाँ संशय का कोई अवकाश ही नहीं। ''सिखाए गए'' पाठ के साथ-साथ वह, इस परिणाम को भी, मानो, आत्मसात् कर लेता है।
 
144. शिशु अनेक बातों पर विश्वास करना सीखता है। यानी, वह इन विश्वासों के अनुसार व्यवहार करना सीखता है। धीरे-धीरे इन विश्वासों की एक प्रणाली बन जाती है, और उस प्रणाली में कई बातें तो स्थिर हो जाती हैं और कुछ बातें कमोबेश बदलती रहती हैं। स्थिर हो जाने वाली बातों का कारण उनकी मूलभूत स्पष्टता या विश्वसनीयता न होकर, उनका परिवेश ही है ।
 
145. हम कहना चाहते हैं "मेरा ''समस्त'' अनुभव ऐसा बताता है"। किन्तु इन अनुभवों द्वारा यह करना कैसे सम्भव है? अनुभवों द्वारा ज्ञापित प्रतिज्ञप्ति उन्हीं अनुभवों की ही एक विशिष्ट व्याख्या है।
 
"इस प्रतिज्ञप्ति को निश्चित रूप से सत्य मानना भी अनुभव की मेरी व्याख्या ही है।"
 
146. आकाश में पृथ्वी का एक तैरता हुआ गेंद जैसा हमारा ''चित्र'' विगत सौ सालों में भी नहीं बदला है। मैंने कहा "हमारे द्वारा निर्मित पृथ्वी का चित्र इत्यादि" और अब यह चित्र अनेक समस्याओं के समाधान में हमारी सहायता करता है।
 
किसी पुल की लम्बाई-चौड़ाई-ऊँचाई के बारे में मैं हिसाब कर सकता हूँ, कभी- कभी यह भी हिसाब लगा सकता हूँ कि यहाँ पर पुल बनाना नाव चलाने से बेहतर होगा इत्यादि, इत्यादि – किन्तु कहीं न कहीं तो मुझे किसी प्राक्कल्पना या किसी निर्णय से आरंभ करना होगा।
 
147. गेंद के समान पृथ्वी का चित्र एक अच्छा चित्र है, यह सभी जगह मान्य है, यह एक सरल चित्र भी है – संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस चित्र का असंदिग्ध रूप से उपयोग किया जा सकता है।
 
148. कुर्सी छोड़ने से पहले मैं अपने दो पैरों के अस्तित्व के बारे में अपने-आपको आश्वस्त क्यों नहीं करता? यहाँ क्यों का प्रश्न ही नहीं है? मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करता। मैं इसी प्रकार व्यवहार करता हूँ।
 
149. मेरे निर्णय ही मेरे निर्णय लेने के स्वरूप के परिचायक हैं, वे ही निर्णय के स्वरूप को लक्षित करते हैं ।
 
150. हम अपने दायें और बायें हाथ का भेद कैसे जानते हैं? मैं कैसे जानता हूँ कि मेरा और अन्य व्यक्ति का निर्णय समान होगा? मैं कैसे जानता हूँ कि यह नीला रंग है? इस बारे में जब मैं ''अपने आप'' पर ही विश्वास नहीं करता तो मैं किसी अन्य व्यक्ति के निर्णय पर विश्वास क्यों करूँ? क्या यहाँ 'क्यों' का प्रश्न उठता है? क्या मुझे कहीं न कहीं विश्वास की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। यानी: कहीं से तो मुझे बिना संशय आरंभ करना होगा; और ऐसा करना जल्दबाज़ी न होकर सामान्यतः ठीक होगा। यह निर्णय प्रक्रिया का अंश है।
 
151. मैं कहना चाहूँगा: मूअर ऐसे विषयों को नहीं ''जानते'' जिन्हें वे ज्ञात-विषय कहते हैं, यह बात हम दोनों पर समान रूप से लागू होती है; इसे बिल्कुल ठीक मानना हमारी शोध-प्रक्रिया और संशय ''विधि'' का अंग है।
 
152. जिन प्रतिज्ञप्तियों को मैं सदा सही मानता हूँ उन्हें मैं किसी नियोजित ढंग से नहीं सीखता । मैं उन्हें कालान्तर में, किसी वस्तु की धुरी के समान, ''खोज'' निकालता हूँ। इस धुरी की स्थिरता नियत नहीं होती, अपितु उसके चारों ओर होने वाली गतिविधि ही उसकी स्थिरता का निर्धारण करती है ।
 
153. मुझे कभी यह नहीं सिखाया गया कि जब मैं अपने हाथों पर ध्यान नहीं देता तो वे लुप्त नहीं हो जाते हैं । न ही मैं अपने कथनों, इत्यादि में इस प्रतिज्ञप्ति की सत्यता की कल्पना करता हूँ (मानो वे इसी पर निर्भर हों)। सच तो यह है कि इसका अर्थ हमारी समग्र-कथन-पद्धति से ही निकलता है।
 
154. संशय-रहित परिस्थितियों में भी संशय के संकेत मिलने पर हम उन संकेतों को संशय के संकेत ही नहीं मानते।
 
यानी: उन संकेतों को संशय के संकेतों जैसा समझने के लिए उनका विशिष्ट परिस्थितियों में ही प्रयोग करना चाहिए, सभी स्थितियों में नहीं ।
 
155. किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में भूल हो ही नहीं सकती। ("सकती" शब्द को यहाँ तार्किक रूप में प्रयोग किया जा रहा है, और इस प्रतिज्ञप्ति का यह अर्थ नहीं है कि उन परिस्थितियों में कोई दोषयुक्त बात नहीं कही जा सकती।) यदि मूअर स्वघोषित निश्चित प्रतिज्ञप्ति को विलोम अर्थ में प्रयुक्त करते तो ऐसा नहीं है कि हम उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते: हम उन्हें सिरफिरा मानते ।
 
156. भूल सामाजिक नियमों के दायरे में ही सम्भव है।
 
157. किसी व्यक्ति के अपने दोनों हाथों और हर हाथ में पाँच अंगुलियों के अस्तित्व को भूल जाने पर क्या होगा ? क्या हम उसे समझ पाऐंगे? क्या हम उसकी समझ के विषय में संतुष्ट होंगे?
 
158. उदाहरणार्थ, क्या मैं हिन्दी भाषा के इस वाक्य में प्रयुक्त शब्दों के अपने अर्थ-ज्ञान के बारे में भूल कर सकता हूँ?
 
159. शैशव काल में हम तथ्यों को सीखते हैं; उदाहरणार्थ, यह तथ्य कि प्रत्येक मनुष्य के शरीर में मस्तिष्क होता है, और उन पर विश्वास करते हैं । मेरी मान्यता है कि अमुक आकृति वाला एक टापू ऑस्ट्रेलिया कहलाता है, इत्यादि, इत्यादि मैं मानता हूँ कि मेरे दादा-पड़दादा थे, और यह भी मानता हूँ कि मेरे माता-पिता कहलाने वाले व्यक्ति वास्तव में मेरे माता-पिता थे, इत्यादि । संभवत: इस मान्यता को कभी भी अभिव्यक्ति न मिली हो; और ऐसे विचार को कभी सोचा भी न गया हो।
 
160. शिशु बड़ों पर भरोसा करके सीखता है। संशय तो विश्वास के ''उपरांत'' आता है।
 
161. बहुत सी बातों को मैंने श्रुति-प्रमाण से ही सीखा और अपनाया और फिर अपने अनुभव से मैंने पाया कि कुछ बातों की पुष्टि हो सकती है और कुछ की नहीं।
 
162. पाठ्य-पुस्तकों, उदाहरणार्थ, भूगोल की पाठ्य-पुस्तकों, में पायी जाने वाली बातों को मैं सामान्यतः सच मानता हूँ। क्यों? मैं कहता हूँ: इन तथ्यों की अनेक बार पुष्टि की जा चुकी है। किन्तु मैं इसे कैसे जानता हूँ? मेरे पास इसका क्या प्रमाण है? मेरे पास संसार का एक चित्र है। क्या वह प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? फिर भी वह मेरे सभी कथनों और मेरी समस्त जिज्ञासाओं का आधार है। इसका वर्णन करने वाली सभी प्रतिज्ञप्तियों की जाँच तो नहीं की जा सकती।
 
163. मेज़ की ओर किसी का ध्यान न होने पर भी क्या कभी किसी ने उसके अस्तित्व की जाँच की है ?
 
हम नेपोलियन की कथाओं की जाँच तो करते हैं किन्तु उनके बारे में दी गई सूचनाओं की भ्रान्त धारणा, जालसाजी इत्यादि की जाँच नहीं करते। क्योंकि जाँच करते समय हम किसी न किसी ऐसी बात की पूर्वकल्पना कर लेते हैं जिसको हम जाँचते नहीं। तो क्या मैं कहूँ कि किसी प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को जाँचने के लिए मैं जो प्रयोग करता हूँ वह प्रयोग इस प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को मान कर चलता है कि जिन उपकरणों के बारे में मेरा विश्वास है कि मैं उनको देख रहा हूँ, उनका वास्तव में अस्तित्व है (इत्यादि)?
 
164. क्या जाँच-प्रक्रिया का कोई अन्त नहीं होता ?
 
165. एक शिशु दूसरे से कह सकता है : "मैं जानता हूँ कि पृथ्वी सैंकड़ों वर्ष पुरानी है" उसका अभिप्राय होगा: मैंने ऐसा सीखा है।
 
166. अपने विश्वास की आधारहीनता का अहसास करना कठिन है।
 
167. यह तो स्पष्ट है कि सभी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियां एक जैसी नहीं होतीं क्योंकि कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति हो सकती है जिसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति से विवरण देने के प्रतिमान में बदला जा सके।
 
रासायनिक अनुसंधान पर विचार करें। लेवोइसियर अपनी अनुसंधानशाला में पदार्थ-प्रयोग द्वारा इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि जलने पर अमुक प्रतिक्रिया होती है । वे यह नहीं कहते कि किसी अन्य समय पर इससे उलट भी हो सकता है। उनके मन में संसार का एक विशिष्ट चित्र है – यह चित्र उनकी खोज का परिणाम नहीं है : उन्होंने उस चित्र को शैशवावस्था से सीखा है। मैं यहाँ संसार के चित्र का उल्लेख कर रहा हूँ न कि प्राक्कल्पना का, क्योंकि यह उनके अनुसंधान का ''सहज'' आधार है और इसीलिए इसका उल्लेख भी नहीं होता ।
 
168. किन्तु समान परिस्थितियों में पदार्थ क, पदार्थ ख से सदैव एक सी प्रतिक्रिया करता है, इस प्राक्कल्पना की अब क्या भूमिका है? या फिर, क्या यह पदार्थ की परिभाषा का ही अंग है ?
 
169. रसायन शास्त्र की ''संभावना'' को अभिव्यक्त करने वाली प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना की जा सकती है। और वे प्राकृतिक-विज्ञान की प्रतिज्ञप्तियां ही होंगी। क्योंकि अनुभव के सिवाय उनका क्या आधार होगा ?
 
170. लोगों के विशेष लहजे में बात करने पर मुझे उन पर भरोसा होता है । इसी प्रकार मैं भौगोलिक, रासायनिक, ऐतिहासिक इत्यादि तथ्यों पर विश्वास करता हूँ । विज्ञान के विषय को भी मैं इसी प्रकार ''सीखता'' हूँ । सीखने का आधार तो विश्वास ही है।
 
यदि आपने यह सीखा है कि माँट पर्वत की ऊँचाई 4000 मीटर है, यदि आपने मानचित्र में इसे देखा है, तो आप कहते हैं कि आप इस बारे में ''जानते'' हैं ।
 
तो क्या यह कहा जा सकता है : हम इसे विश्वसनीय मानते हैं क्योंकि इससे हमें लाभ हुआ है?
 
171. मूअर के कभी चाँद पर न जाने के विश्वास का मुख्य कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति कभी चाँद पर नहीं गया, या कभी भी वहाँ नहीं ''पहुँचा''। यह विश्वास हमारी शिक्षा पर आधारित है ।
 
172. संभवत: कोई कहे कि "किसी बात को विश्वसनीय मानने का हमारा कोई मुख्य आधार तो होगा", किन्तु ऐसे आधार से क्या उपलब्धि होगी? क्या यह 'सत्य मानने' के प्राकृतिक नियम से बेहतर है ?
 
173. किसी बात पर विश्वास या अटूट विश्वास क्या मेरे बस में है ?
 
मेरा विश्वास है कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है? क्या मैं भूल नहीं कर सकता ? किन्तु क्या मैं अपनी भूल स्वीकार कर सकता हूँ? या फिर क्या मैं अपने द्वारा भूल किये जाने के बारे में सोच भी सकता हूँ? – और क्या बाद का शिक्षण मेरे विश्वास को डिगा सकता है?! तो क्या मेरे विश्वास का कोई ''आधार'' है?
 
174. मैं ''पूरी'' निश्चितता के साथ कार्य करता हूँ । किन्तु यह मेरी अपनी निश्चितता है ।
 
175. मैं किसी को कहता हूँ "मैं इसे जानता हूँ"; और ऐसा कहने का कोई औचित्य है । किन्तु मेरे विश्वास का कोई औचित्य नहीं होता ।
 
176. कुछ स्थितियों में "मैं इसे जानता हूँ" कहने के बजाय "यह ऐसा ही है – इस पर विश्वास करो" कहा जा सकता है। कुछ स्थितियों में बेशक यह कहा जा सकता है "बहुत सालों पहले मैंने इसे सीखा था "; और कभी-कभी यह भी कहा जा सकता है: "मैं इस विषय में आश्वस्त हूँ।"
 
177. मैं जो जानता हूँ, उस पर विश्वास भी करता हूँ ।
 
178. मूअर की "मैं जानता हूँ कि..." प्रतिज्ञप्ति के दोषपूर्ण प्रयोग का कारण यह है कि वे इसे "मैं वेदना-ग्रस्त हूँ" इस कथन के समान संशयरहित समझ लेते हैं। और क्योंकि "मैं इसे जानता हूँ" से "ऐसा ही है" निष्पन्न होता हैं, इसीलिए उस पर भी संशय नहीं किया जा सकता।
 
179. यह कहना ठीक है: "मेरा विश्वास है कि..." एक मनोगत सत्य है लेकिन; "मैं जानता हूँ कि..." मनोगत सत्य नहीं है।
 
180. या फिर "मेरा विश्वास है..." एक 'अभिव्यक्ति' है, किन्तु "मैं जानता हूँ कि..." कोई 'अभिव्यक्ति' नहीं है।
 
181. मान लीजिए कि मूअर "मैं जानता हूँ कि..." कहने के बजाय "मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि..." कहते।
 
182. इससे भी कच्ची बात तो यह है कि पृथ्वी ''अनादि'' है। किसी भी बालक को यह पूछने का अधिकार नहीं है कि पृथ्वी का अस्तित्व कब से है, क्योंकि सब कुछ तो उसी ''पर'' घटित होता है। यदि पृथ्वी नामक ग्रह का किसी समय – कल्पनातीत समय – उद्भव हुआ हो तो इसके उद्भव-काल को कल्पनातीत मानना होगा ।
 
183. "यह सुनिश्चित है कि ऑस्ट्रलित्ज़ के युद्ध के बाद नेपोलियन...। तो यह भी सुनिश्चित ही है कि उस समय पृथ्वी का अस्तित्व था।"
 
184. "यह सुनिश्चित है कि एक सौ वर्ष पहले हम इस ग्रह पर किसी अन्य ग्रह से नहीं आए हैं।" यह ऐसी बातों जैसा ही सुनिश्चित है।
 
185. नेपोलियन के अस्तित्व के बारे में संशय करना भी मुझे हास्यास्पद लगता है; किन्तु यदि कोई पृथ्वी के 150 वर्ष पूर्व के अस्तित्व में शंका व्यक्त करे तो संभवतः मैं उसे गंभीरतापूर्वक सुनूँ क्योंकि ऐसा करना हमारी संपूर्ण प्रमाण-प्रणाली पर ही संशय करना है। मुझे नहीं लगता कि यह प्रणाली अपनी अन्तर्निहित सुनिश्चितता से कहीं अधिक सुनिश्चित है।
 
186. मैं यह मान सकता हूँ कि नेपोलियन का कभी अस्तित्व ही नहीं था यह एक कपोल-कल्पना है, किन्तु यह नहीं मान सकता कि 150 वर्ष पूर्व ''पृथ्वी'' का अस्तित्व ही न था।
 
187." क्या आप ''जानते'' हैं कि तब भी पृथ्वी का अस्तित्व था?" – "बेशक, मैं जाता हूँ । मुझे यह जानकारी ऐसे व्यक्ति से मिली है जो इस बारे में पूरी तरह जानता है।"
 
188. मुझे लगता है कि उस समय पृथ्वी के अस्तित्व पर शंका करने वाला व्यक्ति संपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण को नकारता है । और मैं इस प्रमाण को पूर्णतः ''ठीक'' नहीं कह सकता।
 
189. कभी तो व्याख्या से वर्णन मात्र पर पहुँचना पड़ता है।
 
190. जिसे हम ऐतिहासिक साक्ष्य कहते हैं वह बतलाता है कि मेरे जन्म के बहुत पहले से ही पृथ्वी का अस्तित्व है; – विपरीत-कल्पना के समर्थन में ''कुछ भी नहीं'' है।
 
191. यदि सभी कुछ किसी प्राक्कल्पना के पक्ष में हो और विपक्ष में कुछ भी न कहा जाए – तो क्या वह निश्चित रूप से सत्य होती है? उसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है। – किन्तु क्या वह निश्चित रूप से यथार्थ के, तथ्यों के अनुरूप होती है ? – इस प्रश्न को पूछते ही आप एक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं ।
----192. औचित्य सिद्ध किया जा सकता है, किन्तु औचित्य की भी सीमा होती है ।
 
193. इसका क्या अर्थ है : किसी प्रतिज्ञप्ति का सत्य होना तो ''सुनिश्चित'' है ?
 
194. "सुनिश्चित" शब्द को कहने से हम पूर्ण विश्वास को, संशय के संपूर्ण अभाव को, अभिव्यक्त करते हैं और ऐसा करके हम अन्य व्यक्तियों को आश्वस्त करते हैं । यह ''मनोगत'' निश्चितता है।
 
किन्तु कोई भी बात वस्तुनिष्ठ रूप से कब सुनिश्चित होती है? जब कोई गलती करना संभव नहीं हो। पर यह किस प्रकार की संभावना है? क्या ''तर्कतः'' गलती की संभावना को ही समाप्त नहीं कर देना चाहिए?
 
195. अपने कमरे में न होने पर भी मेरा यह विश्वास करना कि मैं अपने कमरे में बैठा हूँ कोई ''भूल'' नहीं होती। किन्तु इसमें और गलती करने की स्थिति में क्या कोई तात्त्विक भेद है ?
 
196. जिसे हम ''स्वीकार'' करते हैं वही निश्चित प्रमाण होता है, तथा उसी के कारण हम बिना किसी संशय के, सुनिश्चित रूप से, ''कार्य'' करते हैं ।
 
जिसे हम "गलती" कहते हैं उसकी हमारे भाषा-खेल में नितान्त विशिष्ट भूमिका होती है, और यही बात उस पर भी लागू होती है जिसे हम निश्चित साक्ष्य मानते हैं।
 
197. यह कहना निरर्थक है कि किसी प्रमाण को निश्चित रूप से सत्य होने के कारण ही हम उसे सुनिश्चित साक्ष्य मानते हैं ।
 
198. अच्छा तो यह हो कि किसी प्रतिज्ञप्ति के पक्ष अथवा विपक्ष में निर्णय लेने की भूमिका को ही हम पहले निर्धारित कर लें ।<references />