ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions
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9. तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है ? | 9. तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है ? | ||
10. मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास ! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि 'मैं यहाँ हूँ ।' तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है ? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो " कभी " और न ही 'सदा' – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है । और "मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है" यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि " मैं जानता हूँ कि ..." शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती। | 10. मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि 'मैं यहाँ हूँ ।' तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो " कभी " और न ही 'सदा' – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है । और "मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है" यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि " मैं जानता हूँ कि ..." शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती। | ||
11. "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते। | 11. "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते। | ||
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50. हम कब यह कहते हैं कि ... × ... = ...? जब हमने परिकलन को जाँच लिया होता है। | 50. हम कब यह कहते हैं कि ... × ... = ...? जब हमने परिकलन को जाँच लिया होता है। | ||
51. यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: " यहाँ भूल कैसे हो सकती है !”? इसे तो तार्किक प्रतिज्ञप्ति होना चाहिए। किन्तु क्या यह ऐसा तर्क है जिसको प्रतिज्ञप्तियों द्वारा सिखाया न जा सकने के कारण हम प्रयोग में नहीं लाते। – यह एक तार्किक प्रतिज्ञप्ति है; क्योंकि यह प्रत्ययात्मक (भाषिक) परिस्थिति का विवरण देती है। | 51. यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: " यहाँ भूल कैसे हो सकती है!”? इसे तो तार्किक प्रतिज्ञप्ति होना चाहिए। किन्तु क्या यह ऐसा तर्क है जिसको प्रतिज्ञप्तियों द्वारा सिखाया न जा सकने के कारण हम प्रयोग में नहीं लाते। – यह एक तार्किक प्रतिज्ञप्ति है; क्योंकि यह प्रत्ययात्मक (भाषिक) परिस्थिति का विवरण देती है। | ||
52. अतः, यह स्थिति "सूर्य से इतनी दूरी पर एक ग्रह है" या फिर "यह एक हाथ है" (उदाहरणार्थ, मेरा हाथ) प्रतिज्ञप्ति जैसी नहीं है। बाद वाले वाक्य को प्राक्कल्पना नहीं कहा जा सकता। फिर भी इन दोनों प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुनिश्चित भेद नहीं है। | 52. अतः, यह स्थिति "सूर्य से इतनी दूरी पर एक ग्रह है" या फिर "यह एक हाथ है" (उदाहरणार्थ, मेरा हाथ) प्रतिज्ञप्ति जैसी नहीं है। बाद वाले वाक्य को प्राक्कल्पना नहीं कहा जा सकता। फिर भी इन दोनों प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुनिश्चित भेद नहीं है। | ||
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110. जाँच से क्या ''अभिप्राय'' है? – "किन्तु क्या यह जाँच पर्याप्त है? और यदि यह पर्याप्त है तो क्या इसे तर्कशास्त्र से मान्यता नहीं मिलनी चाहिए?" – मानो आधारों का कोई अन्त ही नहीं होता । किन्तु अन्त आधारहीन प्राक्कल्पना तो नहीं होता : वह तो व्यवहार का आधारहीन ढंग होता है। | 110. जाँच से क्या ''अभिप्राय'' है? – "किन्तु क्या यह जाँच पर्याप्त है? और यदि यह पर्याप्त है तो क्या इसे तर्कशास्त्र से मान्यता नहीं मिलनी चाहिए?" – मानो आधारों का कोई अन्त ही नहीं होता । किन्तु अन्त आधारहीन प्राक्कल्पना तो नहीं होता : वह तो व्यवहार का आधारहीन ढंग होता है। | ||
111. "मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया।" सामयिक परिस्थितियों में यह कहना एक बात है और यदि बहुत से लोग, जिन में से कई बिना यह जाने कि वे चाँद पर गए हैं, चाँद पर गए होते तो यह कहना दूसरी बात होती। ''इस'' परिस्थिति में अपने इस ज्ञान के आधार दिए जा सकते थे। क्या इन दोनों बातों का संबंध परिकलन के साधारण नियमों और वास्तविक परिकलन जैसा नहीं है ? | 111. "मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया।" सामयिक परिस्थितियों में यह कहना एक बात है और यदि बहुत से लोग, जिन में से कई बिना यह जाने कि वे चाँद पर गए हैं, चाँद पर गए होते तो यह कहना दूसरी बात होती। ''इस'' परिस्थिति में अपने इस ज्ञान के आधार दिए जा सकते थे। क्या इन दोनों बातों का संबंध परिकलन के साधारण नियमों और वास्तविक परिकलन जैसा नहीं है? | ||
मैं कहना चाहता हूँ: चाँद पर मेरे न जाने के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त हूँ जितना कि इसकी पुष्टि में दिए गए किसी भी आधार के बारे में। | मैं कहना चाहता हूँ: चाँद पर मेरे न जाने के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त हूँ जितना कि इसकी पुष्टि में दिए गए किसी भी आधार के बारे में। | ||
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141. पहले-पहल जब हम किसी बात पर ''विश्वास'' करने लगते हैं तो हम किसी प्रतिज्ञप्ति पर विश्वास न करके, प्रतिज्ञप्तियों के एक सम्पूर्ण तन्त्र पर विश्वास करते हैं। (सम्पूर्ण तन्त्र ही उद्भासित हो जाता है।) | 141. पहले-पहल जब हम किसी बात पर ''विश्वास'' करने लगते हैं तो हम किसी प्रतिज्ञप्ति पर विश्वास न करके, प्रतिज्ञप्तियों के एक सम्पूर्ण तन्त्र पर विश्वास करते हैं। (सम्पूर्ण तन्त्र ही उद्भासित हो जाता है।) | ||
142. कोई स्वयंसिद्ध सिद्धान्त ही मुझे उजागर नहीं होता अपितु एक ऐसी प्रणाली स्पष्ट हो जाती है जिसमें आधार-वाक्य और परिणाम ''एक दूसरे'' के पूरक हों।<references /> | 142. कोई स्वयंसिद्ध सिद्धान्त ही मुझे उजागर नहीं होता अपितु एक ऐसी प्रणाली स्पष्ट हो जाती है जिसमें आधार-वाक्य और परिणाम ''एक दूसरे'' के पूरक हों। | ||
143. उदाहरणार्थ, कोई मुझे बतलाये कि बहुत पहले कोई इस पर्वत पर चढ़ा था । क्या मैं हमेशा वार्ताकार की विश्वसनीयता के बारे में संदिग्ध रहता हूँ, और क्या मैं वर्षों पहले पहाड़ के अस्तित्व के बारे में भी संशय करता हूँ? शिशु विश्वसनीय और अविश्वसनीय वार्ताकारों के बारे में जानने से बहुत पहले ही अपने तथ्यों को सीख लेता है । पर्वत के दीर्घकालीन अस्तित्व के बारे में वह कभी भी नहीं सीखता: यानी, यहाँ संशय का कोई अवकाश ही नहीं। ''सिखाए गए'' पाठ के साथ-साथ वह, इस परिणाम को भी, मानो, आत्मसात् कर लेता है। | |||
144. शिशु अनेक बातों पर विश्वास करना सीखता है। यानी, वह इन विश्वासों के अनुसार व्यवहार करना सीखता है। धीरे-धीरे इन विश्वासों की एक प्रणाली बन जाती है, और उस प्रणाली में कई बातें तो स्थिर हो जाती हैं और कुछ बातें कमोबेश बदलती रहती हैं। स्थिर हो जाने वाली बातों का कारण उनकी मूलभूत स्पष्टता या विश्वसनीयता न होकर, उनका परिवेश ही है । | |||
145. हम कहना चाहते हैं "मेरा ''समस्त'' अनुभव ऐसा बताता है"। किन्तु इन अनुभवों द्वारा यह करना कैसे सम्भव है? अनुभवों द्वारा ज्ञापित प्रतिज्ञप्ति उन्हीं अनुभवों की ही एक विशिष्ट व्याख्या है। | |||
"इस प्रतिज्ञप्ति को निश्चित रूप से सत्य मानना भी अनुभव की मेरी व्याख्या ही है।" | |||
146. आकाश में पृथ्वी का एक तैरता हुआ गेंद जैसा हमारा ''चित्र'' विगत सौ सालों में भी नहीं बदला है। मैंने कहा "हमारे द्वारा निर्मित पृथ्वी का चित्र इत्यादि" और अब यह चित्र अनेक समस्याओं के समाधान में हमारी सहायता करता है। | |||
किसी पुल की लम्बाई-चौड़ाई-ऊँचाई के बारे में मैं हिसाब कर सकता हूँ, कभी- कभी यह भी हिसाब लगा सकता हूँ कि यहाँ पर पुल बनाना नाव चलाने से बेहतर होगा इत्यादि, इत्यादि – किन्तु कहीं न कहीं तो मुझे किसी प्राक्कल्पना या किसी निर्णय से आरंभ करना होगा। | |||
147. गेंद के समान पृथ्वी का चित्र एक अच्छा चित्र है, यह सभी जगह मान्य है, यह एक सरल चित्र भी है – संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस चित्र का असंदिग्ध रूप से उपयोग किया जा सकता है। | |||
148. कुर्सी छोड़ने से पहले मैं अपने दो पैरों के अस्तित्व के बारे में अपने-आपको आश्वस्त क्यों नहीं करता? यहाँ क्यों का प्रश्न ही नहीं है? मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करता। मैं इसी प्रकार व्यवहार करता हूँ। | |||
149. मेरे निर्णय ही मेरे निर्णय लेने के स्वरूप के परिचायक हैं, वे ही निर्णय के स्वरूप को लक्षित करते हैं । | |||
150. हम अपने दायें और बायें हाथ का भेद कैसे जानते हैं? मैं कैसे जानता हूँ कि मेरा और अन्य व्यक्ति का निर्णय समान होगा? मैं कैसे जानता हूँ कि यह नीला रंग है? इस बारे में जब मैं ''अपने आप'' पर ही विश्वास नहीं करता तो मैं किसी अन्य व्यक्ति के निर्णय पर विश्वास क्यों करूँ? क्या यहाँ 'क्यों' का प्रश्न उठता है? क्या मुझे कहीं न कहीं विश्वास की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। यानी: कहीं से तो मुझे बिना संशय आरंभ करना होगा; और ऐसा करना जल्दबाज़ी न होकर सामान्यतः ठीक होगा। यह निर्णय प्रक्रिया का अंश है। | |||
151. मैं कहना चाहूँगा: मूअर ऐसे विषयों को नहीं ''जानते'' जिन्हें वे ज्ञात-विषय कहते हैं, यह बात हम दोनों पर समान रूप से लागू होती है; इसे बिल्कुल ठीक मानना हमारी शोध-प्रक्रिया और संशय ''विधि'' का अंग है। | |||
152. जिन प्रतिज्ञप्तियों को मैं सदा सही मानता हूँ उन्हें मैं किसी नियोजित ढंग से नहीं सीखता । मैं उन्हें कालान्तर में, किसी वस्तु की धुरी के समान, ''खोज'' निकालता हूँ। इस धुरी की स्थिरता नियत नहीं होती, अपितु उसके चारों ओर होने वाली गतिविधि ही उसकी स्थिरता का निर्धारण करती है । | |||
153. मुझे कभी यह नहीं सिखाया गया कि जब मैं अपने हाथों पर ध्यान नहीं देता तो वे लुप्त नहीं हो जाते हैं । न ही मैं अपने कथनों, इत्यादि में इस प्रतिज्ञप्ति की सत्यता की कल्पना करता हूँ (मानो वे इसी पर निर्भर हों)। सच तो यह है कि इसका अर्थ हमारी समग्र-कथन-पद्धति से ही निकलता है। | |||
154. संशय-रहित परिस्थितियों में भी संशय के संकेत मिलने पर हम उन संकेतों को संशय के संकेत ही नहीं मानते। | |||
यानी: उन संकेतों को संशय के संकेतों जैसा समझने के लिए उनका विशिष्ट परिस्थितियों में ही प्रयोग करना चाहिए, सभी स्थितियों में नहीं । | |||
155. किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में भूल हो ही नहीं सकती। ("सकती" शब्द को यहाँ तार्किक रूप में प्रयोग किया जा रहा है, और इस प्रतिज्ञप्ति का यह अर्थ नहीं है कि उन परिस्थितियों में कोई दोषयुक्त बात नहीं कही जा सकती।) यदि मूअर स्वघोषित निश्चित प्रतिज्ञप्ति को विलोम अर्थ में प्रयुक्त करते तो ऐसा नहीं है कि हम उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते: हम उन्हें सिरफिरा मानते । | |||
156. भूल सामाजिक नियमों के दायरे में ही सम्भव है। | |||
157. किसी व्यक्ति के अपने दोनों हाथों और हर हाथ में पाँच अंगुलियों के अस्तित्व को भूल जाने पर क्या होगा ? क्या हम उसे समझ पाऐंगे? क्या हम उसकी समझ के विषय में संतुष्ट होंगे? | |||
158. उदाहरणार्थ, क्या मैं हिन्दी भाषा के इस वाक्य में प्रयुक्त शब्दों के अपने अर्थ-ज्ञान के बारे में भूल कर सकता हूँ? | |||
159. शैशव काल में हम तथ्यों को सीखते हैं; उदाहरणार्थ, यह तथ्य कि प्रत्येक मनुष्य के शरीर में मस्तिष्क होता है, और उन पर विश्वास करते हैं । मेरी मान्यता है कि अमुक आकृति वाला एक टापू ऑस्ट्रेलिया कहलाता है, इत्यादि, इत्यादि मैं मानता हूँ कि मेरे दादा-पड़दादा थे, और यह भी मानता हूँ कि मेरे माता-पिता कहलाने वाले व्यक्ति वास्तव में मेरे माता-पिता थे, इत्यादि । संभवत: इस मान्यता को कभी भी अभिव्यक्ति न मिली हो; और ऐसे विचार को कभी सोचा भी न गया हो। | |||
160. शिशु बड़ों पर भरोसा करके सीखता है। संशय तो विश्वास के ''उपरांत'' आता है। | |||
161. बहुत सी बातों को मैंने श्रुति-प्रमाण से ही सीखा और अपनाया और फिर अपने अनुभव से मैंने पाया कि कुछ बातों की पुष्टि हो सकती है और कुछ की नहीं। | |||
162. पाठ्य-पुस्तकों, उदाहरणार्थ, भूगोल की पाठ्य-पुस्तकों, में पायी जाने वाली बातों को मैं सामान्यतः सच मानता हूँ। क्यों? मैं कहता हूँ: इन तथ्यों की अनेक बार पुष्टि की जा चुकी है। किन्तु मैं इसे कैसे जानता हूँ? मेरे पास इसका क्या प्रमाण है? मेरे पास संसार का एक चित्र है। क्या वह प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? फिर भी वह मेरे सभी कथनों और मेरी समस्त जिज्ञासाओं का आधार है। इसका वर्णन करने वाली सभी प्रतिज्ञप्तियों की जाँच तो नहीं की जा सकती। | |||
163. मेज़ की ओर किसी का ध्यान न होने पर भी क्या कभी किसी ने उसके अस्तित्व की जाँच की है ? | |||
हम नेपोलियन की कथाओं की जाँच तो करते हैं किन्तु उनके बारे में दी गई सूचनाओं की भ्रान्त धारणा, जालसाजी इत्यादि की जाँच नहीं करते। क्योंकि जाँच करते समय हम किसी न किसी ऐसी बात की पूर्वकल्पना कर लेते हैं जिसको हम जाँचते नहीं। तो क्या मैं कहूँ कि किसी प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को जाँचने के लिए मैं जो प्रयोग करता हूँ वह प्रयोग इस प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को मान कर चलता है कि जिन उपकरणों के बारे में मेरा विश्वास है कि मैं उनको देख रहा हूँ, उनका वास्तव में अस्तित्व है (इत्यादि)? | |||
164. क्या जाँच-प्रक्रिया का कोई अन्त नहीं होता ? | |||
165. एक शिशु दूसरे से कह सकता है : "मैं जानता हूँ कि पृथ्वी सैंकड़ों वर्ष पुरानी है" उसका अभिप्राय होगा: मैंने ऐसा सीखा है। | |||
166. अपने विश्वास की आधारहीनता का अहसास करना कठिन है। | |||
167. यह तो स्पष्ट है कि सभी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियां एक जैसी नहीं होतीं क्योंकि कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति हो सकती है जिसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति से विवरण देने के प्रतिमान में बदला जा सके। | |||
रासायनिक अनुसंधान पर विचार करें। लेवोइसियर अपनी अनुसंधानशाला में पदार्थ-प्रयोग द्वारा इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि जलने पर अमुक प्रतिक्रिया होती है । वे यह नहीं कहते कि किसी अन्य समय पर इससे उलट भी हो सकता है। उनके मन में संसार का एक विशिष्ट चित्र है – यह चित्र उनकी खोज का परिणाम नहीं है : उन्होंने उस चित्र को शैशवावस्था से सीखा है। मैं यहाँ संसार के चित्र का उल्लेख कर रहा हूँ न कि प्राक्कल्पना का, क्योंकि यह उनके अनुसंधान का ''सहज'' आधार है और इसीलिए इसका उल्लेख भी नहीं होता । | |||
168. किन्तु समान परिस्थितियों में पदार्थ क, पदार्थ ख से सदैव एक सी प्रतिक्रिया करता है, इस प्राक्कल्पना की अब क्या भूमिका है? या फिर, क्या यह पदार्थ की परिभाषा का ही अंग है ? | |||
169. रसायन शास्त्र की ''संभावना'' को अभिव्यक्त करने वाली प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना की जा सकती है। और वे प्राकृतिक-विज्ञान की प्रतिज्ञप्तियां ही होंगी। क्योंकि अनुभव के सिवाय उनका क्या आधार होगा ? | |||
170. लोगों के विशेष लहजे में बात करने पर मुझे उन पर भरोसा होता है । इसी प्रकार मैं भौगोलिक, रासायनिक, ऐतिहासिक इत्यादि तथ्यों पर विश्वास करता हूँ । विज्ञान के विषय को भी मैं इसी प्रकार ''सीखता'' हूँ । सीखने का आधार तो विश्वास ही है। | |||
यदि आपने यह सीखा है कि माँट पर्वत की ऊँचाई 4000 मीटर है, यदि आपने मानचित्र में इसे देखा है, तो आप कहते हैं कि आप इस बारे में ''जानते'' हैं । | |||
तो क्या यह कहा जा सकता है : हम इसे विश्वसनीय मानते हैं क्योंकि इससे हमें लाभ हुआ है? | |||
171. मूअर के कभी चाँद पर न जाने के विश्वास का मुख्य कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति कभी चाँद पर नहीं गया, या कभी भी वहाँ नहीं ''पहुँचा''। यह विश्वास हमारी शिक्षा पर आधारित है । | |||
172. संभवत: कोई कहे कि "किसी बात को विश्वसनीय मानने का हमारा कोई मुख्य आधार तो होगा", किन्तु ऐसे आधार से क्या उपलब्धि होगी? क्या यह 'सत्य मानने' के प्राकृतिक नियम से बेहतर है ? | |||
173. किसी बात पर विश्वास या अटूट विश्वास क्या मेरे बस में है ? | |||
मेरा विश्वास है कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है? क्या मैं भूल नहीं कर सकता ? किन्तु क्या मैं अपनी भूल स्वीकार कर सकता हूँ? या फिर क्या मैं अपने द्वारा भूल किये जाने के बारे में सोच भी सकता हूँ? – और क्या बाद का शिक्षण मेरे विश्वास को डिगा सकता है?! तो क्या मेरे विश्वास का कोई ''आधार'' है? | |||
174. मैं ''पूरी'' निश्चितता के साथ कार्य करता हूँ । किन्तु यह मेरी अपनी निश्चितता है । | |||
175. मैं किसी को कहता हूँ "मैं इसे जानता हूँ"; और ऐसा कहने का कोई औचित्य है । किन्तु मेरे विश्वास का कोई औचित्य नहीं होता । | |||
176. कुछ स्थितियों में "मैं इसे जानता हूँ" कहने के बजाय "यह ऐसा ही है – इस पर विश्वास करो" कहा जा सकता है। कुछ स्थितियों में बेशक यह कहा जा सकता है "बहुत सालों पहले मैंने इसे सीखा था "; और कभी-कभी यह भी कहा जा सकता है: "मैं इस विषय में आश्वस्त हूँ।" | |||
177. मैं जो जानता हूँ, उस पर विश्वास भी करता हूँ । | |||
178. मूअर की "मैं जानता हूँ कि..." प्रतिज्ञप्ति के दोषपूर्ण प्रयोग का कारण यह है कि वे इसे "मैं वेदना-ग्रस्त हूँ" इस कथन के समान संशयरहित समझ लेते हैं। और क्योंकि "मैं इसे जानता हूँ" से "ऐसा ही है" निष्पन्न होता हैं, इसीलिए उस पर भी संशय नहीं किया जा सकता। | |||
179. यह कहना ठीक है: "मेरा विश्वास है कि..." एक मनोगत सत्य है लेकिन; "मैं जानता हूँ कि..." मनोगत सत्य नहीं है। | |||
180. या फिर "मेरा विश्वास है..." एक 'अभिव्यक्ति' है, किन्तु "मैं जानता हूँ कि..." कोई 'अभिव्यक्ति' नहीं है। | |||
181. मान लीजिए कि मूअर "मैं जानता हूँ कि..." कहने के बजाय "मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि..." कहते। | |||
182. इससे भी कच्ची बात तो यह है कि पृथ्वी ''अनादि'' है। किसी भी बालक को यह पूछने का अधिकार नहीं है कि पृथ्वी का अस्तित्व कब से है, क्योंकि सब कुछ तो उसी ''पर'' घटित होता है। यदि पृथ्वी नामक ग्रह का किसी समय – कल्पनातीत समय – उद्भव हुआ हो तो इसके उद्भव-काल को कल्पनातीत मानना होगा । | |||
183. "यह सुनिश्चित है कि ऑस्ट्रलित्ज़ के युद्ध के बाद नेपोलियन...। तो यह भी सुनिश्चित ही है कि उस समय पृथ्वी का अस्तित्व था।" | |||
184. "यह सुनिश्चित है कि एक सौ वर्ष पहले हम इस ग्रह पर किसी अन्य ग्रह से नहीं आए हैं।" यह ऐसी बातों जैसा ही सुनिश्चित है। | |||
185. नेपोलियन के अस्तित्व के बारे में संशय करना भी मुझे हास्यास्पद लगता है; किन्तु यदि कोई पृथ्वी के 150 वर्ष पूर्व के अस्तित्व में शंका व्यक्त करे तो संभवतः मैं उसे गंभीरतापूर्वक सुनूँ क्योंकि ऐसा करना हमारी संपूर्ण प्रमाण-प्रणाली पर ही संशय करना है। मुझे नहीं लगता कि यह प्रणाली अपनी अन्तर्निहित सुनिश्चितता से कहीं अधिक सुनिश्चित है। | |||
186. मैं यह मान सकता हूँ कि नेपोलियन का कभी अस्तित्व ही नहीं था यह एक कपोल-कल्पना है, किन्तु यह नहीं मान सकता कि 150 वर्ष पूर्व ''पृथ्वी'' का अस्तित्व ही न था। | |||
187." क्या आप ''जानते'' हैं कि तब भी पृथ्वी का अस्तित्व था?" – "बेशक, मैं जाता हूँ । मुझे यह जानकारी ऐसे व्यक्ति से मिली है जो इस बारे में पूरी तरह जानता है।" | |||
188. मुझे लगता है कि उस समय पृथ्वी के अस्तित्व पर शंका करने वाला व्यक्ति संपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण को नकारता है । और मैं इस प्रमाण को पूर्णतः ''ठीक'' नहीं कह सकता। | |||
189. कभी तो व्याख्या से वर्णन मात्र पर पहुँचना पड़ता है। | |||
190. जिसे हम ऐतिहासिक साक्ष्य कहते हैं वह बतलाता है कि मेरे जन्म के बहुत पहले से ही पृथ्वी का अस्तित्व है; – विपरीत-कल्पना के समर्थन में ''कुछ भी नहीं'' है। | |||
191. यदि सभी कुछ किसी प्राक्कल्पना के पक्ष में हो और विपक्ष में कुछ भी न कहा जाए – तो क्या वह निश्चित रूप से सत्य होती है? उसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है। – किन्तु क्या वह निश्चित रूप से यथार्थ के, तथ्यों के अनुरूप होती है ? – इस प्रश्न को पूछते ही आप एक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं । | |||
----192. औचित्य सिद्ध किया जा सकता है, किन्तु औचित्य की भी सीमा होती है । | |||
193. इसका क्या अर्थ है : किसी प्रतिज्ञप्ति का सत्य होना तो ''सुनिश्चित'' है ? | |||
194. "सुनिश्चित" शब्द को कहने से हम पूर्ण विश्वास को, संशय के संपूर्ण अभाव को, अभिव्यक्त करते हैं और ऐसा करके हम अन्य व्यक्तियों को आश्वस्त करते हैं । यह ''मनोगत'' निश्चितता है। | |||
किन्तु कोई भी बात वस्तुनिष्ठ रूप से कब सुनिश्चित होती है? जब कोई गलती करना संभव नहीं हो। पर यह किस प्रकार की संभावना है? क्या ''तर्कतः'' गलती की संभावना को ही समाप्त नहीं कर देना चाहिए? | |||
195. अपने कमरे में न होने पर भी मेरा यह विश्वास करना कि मैं अपने कमरे में बैठा हूँ कोई ''भूल'' नहीं होती। किन्तु इसमें और गलती करने की स्थिति में क्या कोई तात्त्विक भेद है ? | |||
196. जिसे हम ''स्वीकार'' करते हैं वही निश्चित प्रमाण होता है, तथा उसी के कारण हम बिना किसी संशय के, सुनिश्चित रूप से, ''कार्य'' करते हैं । | |||
जिसे हम "गलती" कहते हैं उसकी हमारे भाषा-खेल में नितान्त विशिष्ट भूमिका होती है, और यही बात उस पर भी लागू होती है जिसे हम निश्चित साक्ष्य मानते हैं। | |||
197. यह कहना निरर्थक है कि किसी प्रमाण को निश्चित रूप से सत्य होने के कारण ही हम उसे सुनिश्चित साक्ष्य मानते हैं । | |||
198. अच्छा तो यह हो कि किसी प्रतिज्ञप्ति के पक्ष अथवा विपक्ष में निर्णय लेने की भूमिका को ही हम पहले निर्धारित कर लें ।<references /> |
Revision as of 13:56, 3 September 2023
1. यदि आप निश्चित रूप से यह जानते हैं कि यह एक हाथ है[1] तो हम आपके बाकी सारे ज्ञान को स्वीकार कर लेते हैं।
जब हम यह कहते हैं कि अमुक प्रतिज्ञप्ति को सिद्ध नहीं किया जा सकता तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि उसकी अन्य प्रतिज्ञप्तियों से निष्पत्ति नहीं की जा सकती; किसी प्रतिज्ञप्ति की अन्य प्रतिज्ञप्तियों से निष्पत्ति की जा सकती है, किन्तु यह जरूरी नहीं कि वे उस प्रतिज्ञप्ति से अधिक विश्वसनीय हों। (इस पर एच. न्यूमैन की अटपटी टिप्पणी)
2. मुझे या किसी को कोई विषय कैसा दीखता है उस से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि वह वैसा ही है।
हम तो यही पूछ सकते हैं कि क्या उस पर शंका करना सार्थक हो सकता है।
3. उदाहरणार्थ, जब कोई कहता है कि "मैं नहीं जानता कि क्या यह हाथ है या "नहीं" तो उसे बतलाया जा सकता है, "जरा ध्यान से देखो" । — इस प्रकार की आत्मसन्तुष्टि की संभावना भाषा - खेल का एक भाग है, उसका एक विशिष्ट गुण है।
4. "मैं जानता हूँ कि मैं मानव हूँ"। इस प्रतिज्ञप्ति के अर्थ की अस्पष्टता को जानने के लिए इसके निषेध पर विचार करें। अधिकाधिक इसका अर्थ यही हो सकता है "मैं जानता हूँ कि मैं मानव अंगों से रचा गया हूँ।" ("उदाहरणार्थ, मेरे शरीर में मस्तिष्क है, जिसे अब तक किसी ने नहीं देखा । " ) किन्तु ऐसी प्रतिज्ञप्ति का क्या होगा : " मैं जानता हूँ कि मेरे शरीर में एक मस्तिष्क है "? क्या इस पर संशय किया जा सकता है? संशय का आधार तो कोई है नहीं ! इसके पक्ष में सभी कुछ है पर विपक्ष में कुछ भी नहीं । फिर भी यह कल्पना की जा सकती है कि मेरी खोपड़ी को खोलने पर उसमें से कुछ भी न निकले।
5. किसी प्रतिज्ञप्ति के सत्यासत्य का निर्धारण मेरे द्वारा स्वीकृत मानदण्ड के आधार पर ही सम्भव है।
6. तो, क्या (मूअर के समान) हम समस्त ज्ञात-विषयों की सूची बना सकते हैं? मेरी राय में यह सम्भव नहीं – ऐसी स्थिति में "मैं जानता हूँ" इस अभिव्यक्ति का दुरुपयोग होता है। और ऐसे दुरुपयोग से एक विचित्र पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानसिक अवस्था का पता चलता है ।
7. मेरे व्यवहार से यह पता चलता है कि मैं जानता हूँ या आश्वस्त हूँ कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है, या वहाँ दरवाजा इत्यादि है। उदाहरणार्थ मैं किसी मित्र से कहता हूँ " उस कुर्सी को वहाँ ले जाओ", "दरवाज़े को बंद कर दो”, इत्यादि, इत्यादि ।
8. " जानने" और " आश्वस्त होने" के प्रत्ययों में भेद केवल वहीं महत्त्वपूर्ण होता है जहाँ "मैं जानता हूँ" कहने का अर्थ होता है : मैं गलत नहीं हो सकता । उदाहरणार्थ, किसी अदालत में दी जा रही किसी गवाही में "मैं जानता हूँ" को "मैं आश्वस्त हूँ" से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। "मैं जानता हूँ" के प्रयोग पर अदालत में पाबंदी की कल्पना भी की जा सकती है। (विल्हेल्म माइस्टर के एक अनुच्छेद में तथ्यों की गलत जानकारी के बावजूद " आप जानते हैं” अथवा “ आप जानते थे" का प्रयोग " आप आश्वस्त थे" के अर्थ में किया जाता है ।)
9. तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है ?
10. मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि 'मैं यहाँ हूँ ।' तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो " कभी " और न ही 'सदा' – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है । और "मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है" यह प्रतिज्ञप्ति किसी अनुपयुक्त स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि " मैं जानता हूँ कि ..." शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
11. "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते।
12. – क्योंकि "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति का विवरण देती प्रतीत होती है जिसमें ज्ञात विषय की किसी तथ्य के समान गारण्टी दी गई हो । “मैं सोचता था कि मैं जानता हूँ" इस अभिव्यक्ति को हम सर्वदा भूल जाते हैं ।
13. क्योंकि " ऐसा है " प्रतिज्ञप्ति का अनुमान किसी अन्य व्यक्ति के " मैं जानता हूँ कि ऐसा है" कहने से नहीं किया जा सकता न ही इसका अनुमान इसे इस कथन से जोड़कर किया जा सकता है कि यह झूठ नहीं है । – किन्तु " ऐसा है " का अनुमान क्या मैं अपने ही कथन " मैं जानता हूँ" से नहीं कर सकता ? अवश्य; और "वहाँ एक हाथ है " इस प्रतिज्ञप्ति की निष्पत्ति " वह जानता है कि वहाँ एक हाथ है " इस प्रतिज्ञप्ति से की जा सकती है। किन्तु उसके "मैं जानता हूँ कि ..." कहने से यह निष्पन्न नहीं होता कि वह वास्तव में इसको जानता है ।
14. वह वस्तुतः जानता है इस बात को तो सिद्ध करना होगा।
15. यह सिद्ध करना होगा कि कोई भी भूल असंभव है। "मैं जानता हूँ" यह आश्वासन काफी नहीं है। इस आश्वासन से तो इतना ही पता चलता है कि मैं त्रुटि कर ही नहीं सकता, पर यह तो वस्तुनिष्ठापूर्वक सिद्ध करना होगा कि मैं इस बारे में त्रुटि नहीं कर रहा ।
16. "यदि मैं किसी विषय को जानता हूँ तो मुझे यह भी पता होता है कि मैं उसे जानता हूँ, इत्यादि" ऐसा कहने का अर्थ है : "मैं उसे जानता हूँ" का अर्थ है "मैं उसके बारे में त्रुटि नहीं कर सकता" । परन्तु मेरे त्रुटि न करने की क्षमता को वस्तुनिष्ठापूर्वक सिद्ध करना होगा ।
17. मान लीजिए कि किसी वस्तु को इंगित करते हुए मैं कहता हूँ "मैं इस बारे में त्रुटि कर ही नहीं सकता (कि) : वह एक किताब है "। यहाँ पर त्रुटि किस प्रकार की होगी? क्या इसके बारे में मेरी कोई स्पष्ट धारणा है ?
18. प्राय: "मैं जानता हूँ" का यह अर्थ होता है : मेरे पास अपने कथन के लिए उचित आधार हैं। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह मानेगा कि मैं जानता । भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह कल्पना कर सकता है कि उस प्रकार के विषय को कैसे जाना जाता है ।
19. "मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है " इस कथन के आगे तो यह कहा जा सकता है : " क्योंकि मैं अपने हाथ को ही देख रहा हूँ" । फिर कोई भी समझदार व्यक्ति इस पर संशय नहीं करेगा कि मैं जानता हूँ । – न ही कोई प्रत्ययवादी इस पर संशय करेगा; अपितु वह तो यही कहेगा कि यहाँ पर वह उस व्यावहारिक संशय की बात नहीं कर रहा है जिसे निरस्त किया जा रहा है, परन्तु वह उससे भी आगे के संशय की बात कर रहा है। – इस मरीचिका को तो किसी अन्य ढंग से सिद्ध करना होगा ।
20. उदाहरणार्थ, "बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने" का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो । – या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।
21. वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है : 'जानने' के प्रत्यय में और 'विश्वास होने', 'अनुमान करने', 'संशय करने', 'कायल होने' जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि "मैं जानता हूँ कि..." कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ " मैं समझता था कि मैं जानता हूँ" इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है।–किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो कथन में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए – किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह जानता है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता ।
22. यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है "मैं भूल नहीं कर सकता"; या फिर जो कहता है "मैं गलत नहीं हूँ", तो यह बात विचित्र ही होगी।
23. यदि मैं यह नहीं जानता कि किसी के दो हाथ हैं (उदाहरण के रूप में, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके हाथ काट दिए गए हों ); तो किसी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन पर कि उसके दो हाथ हैं, मैं विश्वास कर लूँगा । और यदि वह यह कहे कि वह इस बारे में जानता है तो इससे मुझे यही पता चलता है कि वह इसको सुनिश्चित कर रहा है और इसीलिए उसकी बाँहे अब पट्टियों, या किन्हीं अन्य आवरणों से ढंकी नहीं हैं । विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करने का आधार मेरी इस मान्यता में है कि वह इस बात का निश्चय कर सकता है। किन्तु, संभवतः कोई भौतिक वस्तु है ही नहीं, ऐसा कहने वाला व्यक्ति यह नहीं मानता।
24. प्रत्ययवादी कुछ इस प्रकार का प्रश्न करेगा: "मुझे अपने हाथों के अस्तित्व पर संशय न करने का क्या अधिकार है?" (और उस पर यह उत्तर तो नहीं हो सकता : मैं जानता हूँ कि उनका अस्तित्व है) किन्तु ऐसा प्रश्नकर्ता इस तथ्य को भूल जाता है कि सत्ता विषयक संशय किसी भाषा-खेल में ही कारगर होता है। यानी हमें पहले यह पूछना पड़ेगा: इस प्रकार का संशय कैसा होगा?, पर, हम इसे आसानी से समझ नहीं पाते।
25. "यह हाथ है" इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में भी त्रुटि हो सकती है। केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही यह असंभव है । – "परिकलन में भी भूल हो सकती है – केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही त्रुटि संभव नहीं होती।"
26. किन्तु क्या किसी नियम से ही यह जानना संभव है कि परिकलन-नियम का प्रयोग किन परिस्थितियों में दोषपूर्ण नहीं होगा?
यहाँ नियम का हमारे लिए क्या उपयोग है? क्या हम इसके प्रयोग में त्रुटि नहीं कर सकते?
27. फिर भी, यदि हम यहाँ नियम जैसी कोई चीज बनाना चाहें तो उसमें हमें यह कहना होगा कि वह "सामान्य परिस्थितियों में" ही लागू होता है। सामान्य परिस्थितियों को हम पहचानते तो हैं किन्तु उनका हूबहू विवरण नहीं दे सकते अधिकाधिक हम कुछ असामान्य परिस्थितियों का वर्णन कर सकते हैं।
28. 'नियम सीखने' का क्या अभिप्राय है? यह।
'उस नियम-प्रयोग में भूल' का क्या अभिप्राय है? – यह। और ऐसा कहते समय किसी अनिश्चित विषय को इंगित किया जाता है।
29. नियम प्रयोग के अभ्यास से भी प्रायोगिक-दोष का पता चलता है।
30. किसी विषय के बारे में निश्चित राय बना लेने पर हम कहते हैं: "हाँ, परिकलन बिल्कुल ठीक है", किन्तु इसका अनुमान वह अपनी निश्चित राय से नहीं करता । हम अपनी निश्चित राय से परिस्थितियों का अनुमान नहीं लगाते।
निश्चित राय, तो मानो, परिस्थितियों की अभिव्यक्ति की हमारी शैली होती है, किन्तु उस शैली से ही हमारी बात के ठीक होने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
31. उन्मत्त व्यक्ति की भाँति बारम्बार दोहराए जाने वाले वाक्यों को मैं दार्शनिक-भाषा से बहिष्कृत कर देना चाहता हूँ।
32. यह मूअर के जानने की बात नहीं है कि यह एक हाथ है, अपितु स्थिति तो यह है कि यदि वे कहते "निस्संदेह मैं इस विषय में भूल कर सकता हूँ" तो हम उनकी बात को समझ नहीं पाते। हमें पूछना चाहिए "ऐसी त्रुटि कैसे होगी?"–उदाहरणार्थ, ऐसी त्रुटि का पता कैसे चलेगा?
33. अतः, हम ऐसी प्रतिज्ञप्तियों को बहिष्कृत कर देते हैं जिनसे हमें कोई लाभ नहीं होता।
34. जब हम किसी को परिकलन सिखाते हैं तो क्या हम उसे अपने अध्यापक के परिकलन पर भरोसा करना भी सिखाते हैं? किन्तु इन सभी व्याख्याओं का कहीं तो अन्त होना ही चाहिए। क्या हमें उसे यह भी बतलाना होगा कि वह अपनी इन्द्रियों पर भरोसा कर सकता है – क्योंकि उससे कई बार वस्तुत: यह भी कहा जाता है कि अमुक-अमुक परिस्थिति में वह उन पर भरोसा नहीं कर सकता? –
नियम और अपवाद।
35. किन्तु क्या किसी भी भौतिक पदार्थ के अभाव की कल्पना नहीं की जा सकती? मैं नहीं जानता । पर फिर भी " भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है " ऐसा कहना निरर्थक है । क्या इसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति कहा जा सकता है? –
और क्या यह आनुभविक प्रतिज्ञप्ति है: "ऐसा लगता है कि भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है"?
36. "अ एक भौतिक पदार्थ है" यह एक ऐसे व्यक्ति को दी जाने वाली सीख है जिसे अभी तक या तो यह नहीं पता कि "अ" क्या है, या फिर जो "भौतिक पदार्थ" के अर्थ से अनभिज्ञ है। यानी यह वाक्य तो शब्द प्रयोग को सीखना है, पर "भौतिक पदार्थ" एक तार्किक प्रत्यय है । (जैसे कि रंग, परिमाण, ...) यही कारण है कि "भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है" जैसी कोई प्रतिज्ञप्ति प्रतिपादित नहीं की जा सकती।
फिर भी हमारा सामना ऐसे असफल प्रयासों से हमेशा होता रहता है।
37. "भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है" इस अभिव्यक्ति को निरर्थक कहने से क्या किसी प्रत्ययवादी के सन्देह अथवा किसी यथार्थवादी के विश्वास का समुचित उत्तर दिया जा सकता है । उनके लिए तो यह निरर्थक नहीं है। बेशक ऐसा कहना एक हल . हो सकता है : यह कथन या इस कथन का विलोम किसी ऐसी अनिर्वचनीय बात को कहने का असफल प्रयास है। सिद्ध किया जा सकता है कि यह एक असफल प्रयास है; किन्तु बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। हमें यह समझना चाहिए कि, यह संभव है कि, किसी समस्या या उसके समाधान की हमारी पहली सूझ ठीक से अभिव्यक्त ही न हुई हो। जैसे फिल्म की सम्यक् समीक्षा के लिए समीक्षक सर्वप्रथम सर्वाङ्गीण आलोचना करता है पर बाद में अपनी सर्वाङ्गीण-आलोचना की पड़ताल के बाद ही सही समीक्षा कर पाता है।
38. गणित में ज्ञान: इसमें हमें 'भीतरी प्रक्रिया' अथवा 'स्थिति' की महत्त्वहीनता का निरंतर स्मरण रखना पड़ता है, और निरन्तर यह याद रखना पड़ता है "इसे महत्त्वपूर्ण क्यों होना चाहिए? मुझे इससे क्या लेना-देना?" गणितीय प्रतिज्ञप्तियों का प्रयोग ही महत्त्वपूर्ण होता है ।
39. परिकलन ऐसे ही किये जाते हैं, अमुक परिस्थितियों में परिकलन पूर्णत: विश्वसनीय और बिल्कुल सही माना जा सकता है।
40. "यह मेरा हाथ है" ऐसा कहने पर पूछा जा सकता है "आप कैसे जानते हैं?" और इसके उत्तर की पूर्वमान्यता है कि इसे ऐसे जाना जा सकता है। अतः, "मैं जानता हूँ कि यह मेरा हाथ है" ऐसा कहने के बजाय "यह मेरा हाथ है" ऐसा कहा जा सकता है और साथ ही साथ हम यह भी बतला सकते हैं कि हम इसे कैसे जानते हैं।
41. "मैं जानता हूँ कि मुझे पीड़ा कहाँ हो रही है", "मैं जानता हूँ कि मुझे यहाँ पीड़ा हो रही है" यह कहना उतना ही गलत है जितना "मैं जानता हूँ कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ"। किन्तु " मैं जानता हूँ कि आपने मेरी बाँह को कहाँ छुआ" यह कहना उचित।
42. यह तो कहा जा सकता है कि "वह ऐसा मानता है, पर ऐसा है नहीं"। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि" वह इसे जानता तो है किन्तु, यह ऐसा है नहीं"। क्या इसका कारण मानने और जानने की मानसिक स्थिति के भेद में निहित है? नहीं । उदाहरणार्थ, उच्चारण- शैली, भाव-भंगिमा इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त विषय को "मानसिक स्थिति" कहा जा सकता है। यानी, दृढ़ धारणा की मानसिक स्थिति का 'उल्लेख करना संभव होना चाहिए। वह स्थिति ज्ञान और भ्रान्त धारणा के मामले में एक सी ही होगी। प्रत्ययों की भिन्नता के कारण "जानने" और "मानने" शब्दों के अनुरूप विभिन्न स्थितियां मानना "मैं" और "लुडविग" शब्दों के अनुरूप विभिन्न व्यक्तियों को मानने जैसा होगा।
43. यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: "12 × 12 = 144 परिकलन में हम भूल कर ही नहीं सकते"? यह तार्किक प्रतिज्ञप्ति होनी चाहिए। – किन्तु क्या यह प्रतिज्ञप्ति 12 × 12 = 144 कथन जैसी ही नहीं है?
44. किन्तु यह पूछे जाने पर कि किस नियम से यह पता चलता है कि हम इस बारे में गलती कर ही नहीं सकते, यह उत्तर दिया जा सकता है कि हमें इसका पता किसी नियम से न चलकर परिकलन की विधि से चलता है।
45. परिकलन की विधि सीखने से ही हमें परिकलन के स्वरूप का पता चलता है।
46. तो क्या यह नहीं बतलाया जा सकता कि परिकलन की विश्वसनीयता के बारे में हम स्वयं को कैसे सन्तुष्ट करते हैं? हम कुछ कह तो सकते हैं! किन्तु इससे कोई नियम नहीं बनता। – किन्तु महत्त्वपूर्ण बात तो यह है: नियम की आवश्यकता ही नहीं होती। कोई कमी है भी नहीं । हम नियमानुसार परिकलन करते हैं और यही काफी है।
47. हम परिकलन ऐसे करते हैं। परिकलन ऐसे होता है। जैसा कि, उदाहरणार्थ, हम पाठशाला में सीखते हैं। आत्मा के प्रत्यय से जुड़ी लोकोत्तर असंदिग्धता को भूल जायें।
48. कतिपय परिकलन सर्वदा विश्वसनीय कहे जा सकते हैं, और शेष का निर्धारण करना बाकी है। पर क्या यह तार्किक भेद है?
49. पर याद रखें: परिकलन का निर्धारण किसी व्यावहारिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही होता है।
50. हम कब यह कहते हैं कि ... × ... = ...? जब हमने परिकलन को जाँच लिया होता है।
51. यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: " यहाँ भूल कैसे हो सकती है!”? इसे तो तार्किक प्रतिज्ञप्ति होना चाहिए। किन्तु क्या यह ऐसा तर्क है जिसको प्रतिज्ञप्तियों द्वारा सिखाया न जा सकने के कारण हम प्रयोग में नहीं लाते। – यह एक तार्किक प्रतिज्ञप्ति है; क्योंकि यह प्रत्ययात्मक (भाषिक) परिस्थिति का विवरण देती है।
52. अतः, यह स्थिति "सूर्य से इतनी दूरी पर एक ग्रह है" या फिर "यह एक हाथ है" (उदाहरणार्थ, मेरा हाथ) प्रतिज्ञप्ति जैसी नहीं है। बाद वाले वाक्य को प्राक्कल्पना नहीं कहा जा सकता। फिर भी इन दोनों प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुनिश्चित भेद नहीं है।
53. यानी, कहा जा सकता है कि मूअर ठीक कह रहे हैं, यदि उनके कथन का यह अर्थ लगाया जाए: 'यहाँ एक हाथ है' आशय वाले वाक्य का वही तार्किक स्थान है जो 'यहाँ एक लाल धब्बा है' आशय वाले वाक्य का होता है।
54. क्योंकि यह कहना तो ठीक नहीं है कि जैसे-जैसे हम किसी ग्रह की जानकारी से अपने हाथ की जानकारी की ओर चलते हैं गलती करने की संभावना कम होती जाती है। नहीं : एक बिंदु पर आकर उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
निम्नलिखित से इसका पता चलता है: यदि ऐसा नहीं होता तो भौतिक वस्तुओं संबंधी प्रत्येक कथन के बारे में भूल करने की कल्पना की जा सकती थी; और यह भी कल्पना की जा सकती थी कि भौतिक वस्तुओं के बारे में कहे गए सभी कथन गलत हैं।
55. तो क्या यह प्राक्कल्पना संभव है कि हमारे चारों ओर फैली वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है? क्या यह अपने सभी परिकलनों में गलती कर जाने की प्राक्कल्पना जैसी नहीं होगी?
56. जब हम कहते हैं: "शायद इस ग्रह का अस्तित्व नहीं है, और इस प्रकाश-संवृति का कोई अन्य कारण है", तो हमें किसी अस्तित्वयुक्त वस्तु के उदाहरण की आवश्यकता पड़ती है। इसका अस्तित्व नहीं है, – जैसे कि, उदाहरणार्थ, ... का अस्तित्व है।
या फिर हमें कहना होगा कि निश्चितता एक ऐसी कसौटी है जिस पर कुछ चीजें अधिक और कुछ कम खरी उतरती हैं। नहीं। संशय शनै: शनै: अपने अर्थ को खोता है । यह भाषा - खेल ऐसा ही है।
और भाषा-खेल का वर्णन करने वाली हर एक बात तर्क का अंग होती है ।
57. तो क्या "मैं जानता हूँ, न कि इस बात का अनुमान लगाता हूँ, कि यह मेरा हाथ है" इस वाक्य को व्याकरण की प्रतिज्ञप्ति नहीं समझा जा सकता? यानी कि इसे लौकिक नहीं समझा जा सकता। –
किन्तु फिर क्या यह ऐसी नहीं होगी: "मैं जानता हूँ, न कि इस बात का अनुमान लगाता हूँ कि मैं लाल रंग देख रहा हूँ"?
और क्या यह परिणाम कि "अतः, भौतिक वस्तुएं होती हैं" इस परिणाम: "अतः रंग होते हैं" जैसा नहीं होता?
58. यदि "मैं जानता हूँ इत्यादि" को व्याकरणिक प्रतिज्ञप्ति जैसा समझा जाए तो "मैं" महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता। और उसका उचित अर्थ है कि "इस स्थिति में संशय जैसी कोई बात नहीं है" अथवा "इस स्थिति में 'मैं नहीं जानता' का कोई अर्थ ही नहीं होता"। और इससे यह पता चलता है कि "मैं जानता हूँ" का भी कोई अर्थ नहीं होता।
59. यहाँ "मैं जानता हूँ" तो एक तार्किक अन्तर्दृष्टि है। केवल वस्तुवाद ही इससे सिद्ध नहीं होता।
60. यह कहना गलत है कि यह कागज का एक टुकड़ा है और बाद का अनुभव इस प्राक्कल्पना की पुष्टि या खण्डन करेगा, और यह कहना भी गलत है कि "मैं जानता हूँ कि यह कागज का एक टुकड़ा है", इस वाक्य में "मैं जानता हूँ" किसी प्राक्कल्पना या फिर किसी तार्किक संकल्प से संबंधित है।
61. ... किसी शब्द का अर्थ उसका प्रयोग है।
क्योंकि हमारी भाषा में शामिल होने के बाद ही हम उसे जानते हैं।
62. इसी कारण 'नियम' और 'अर्थ' के प्रत्ययों में संवादिता होती है।
63. तथ्यों की विपरीत कल्पना करने पर कुछ भाषा-खेलों की महत्ता कम हो जाती है, और अन्य भाषा-खेलों की महत्ता बढ़ जाती है। और इस प्रकार भाषा के शब्द-प्रयोग धीरे-धीरे बदल जाते हैं।
64. किसी शब्द के अर्थ की तुलना किसी अधिकारी के 'कार्यभार' से कीजिए। और 'विभिन्न अर्थों' की तुलना 'विभिन्न कार्यभारों' से कीजिए।
65. भाषा-खेलों में बदलाव आने पर प्रत्ययों में बदलाव आ जाता है, और प्रत्ययों में बदलाव से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं।
66. वास्तविकता को मैं अलग-अलग ढंग से कहता हूँ, इन कथनों में आश्वस्ति-भेद होता है। इस आश्वस्ति की कोटि का हमें कैसे पता चलता है? इसके क्या परिणाम हैं?
उदाहरणार्थ, हम या तो स्मृति की, या फिर प्रत्यक्ष की बात कर रहे हैं। किसी बात के बारे में मैं आश्वस्त हो सकता हूँ, किन्तु फिर भी मुझे पता होगा कि कौनसी जाँच से मुझे गलती का पता चल सकता है। उदाहरणार्थ, किसी युद्ध की तिथि के बारे में मैं पूर्णत: आश्वस्त हूँ किन्तु इतिहास के किसी प्रामाणिक ग्रन्थ में उस लड़ाई की किसी भिन्न तिथि को देखकर मैं अपने विचार को बदल देता हूँ, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं अपनी निर्णय क्षमता में भरोसा खो बैठा हूँ।
67. क्या हम किसी ऐसे व्यक्ति की कल्पना कर सकते हैं जो ऐसी गलतियां करता रहता है जिन्हें हम कभी कर ही नहीं सकते और जो कभी हमारे सामने नहीं होता?
उदाहरणार्थ, वह कहता है कि वह अमुक स्थान पर रहता है, उसकी अमुक आयु है, वह अमुक शहर का रहने वाला है, और ऐसा वह मेरे जैसी (सभी संकेतों सहित) निश्चितता से करता है, किन्तु वह त्रुटि कर रहा होता है।
पर इस त्रुटि से उसका संबंध कैसा है? मैं क्या समझू?
68. प्रश्न तो यह है: तर्कशास्त्री यहाँ क्या कहेगा?
69. मैं कहना चाहूँगा: "यदि मैं इस बारे में भूल कर रहा हूँ तो अपनी कही किसी भी बात की सत्यता की मुझे गारंटी नहीं है।" किन्तु, न तो अन्य लोग मेरे बारे में ऐसा कहेंगे, न ही मैं उनके बारे में ऐसा कहूँगा।
70. महीनों से मैं अ पते पर रहता आया हूँ, घर के नम्बर और वीथि के नाम को मैंने अनगिनत बार पढ़ा है, इस पते पर मुझे असंख्य पत्र मिले हैं और अनेक लोगों को मैंने यह पता दिया है। यदि मैं इस बारे में भी त्रुटि कर रहा हूँ, तो यह भूल किसी भी तरह इस भूल से कम नहीं है कि मैं (त्रुटि करूँ) सोचूँ कि मैं चीनी भाषा में लिख रहा हूँ, न कि हिन्दी भाषा में।
71. यदि मेरा कोई मित्र यकायक यह समझने लगे कि वह अमुक पते इत्यादि पर एक लंबे समय से रह रहा है, तो मुझे इसे उसकी भूल मानने के बजाए यह मानना चाहिए कि उसका दिमाग, संभवत: कुछ समय के लिए, फिर गया है।
72. इस प्रकार की प्रत्येक दोषयुक्त मान्यता गलती नहीं होती।
73. किन्तु भ्रान्ति तथा मानसिक असन्तुलन में क्या भेद है? या फिर मेरे द्वारा इसे भ्रान्ति के रूप में स्वीकार करने तथा इसे मानसिक असन्तुलन के रूप में स्वीकार करने में क्या अन्तर है?
74. क्या हम कह सकते हैं: भूल का कारण ही नहीं होता, उसका आधार भी होता है ? यानी, हम कह सकते हैं : जब कोई भूल करता है तो हम उसकी भूल की व्याख्या उसके ज्ञात विषयों के संदर्भ में कर सकते हैं।
75. क्या यह मानना उचित होगा: यदि मैं गलती से यह समझँ कि मेरे सामने कोई मेज़ पड़ी है, तो इसे भ्रान्ति कहा जा सकता है; किन्तु जब मैं गलती से यह समझू कि मैंने इस या उस जैसी मेज़ को पिछले कई महीनों से हर रोज़ देखा है, और नियमित रूप से उसका प्रयोग भी किया है तो यह भ्रान्ति नहीं होती?
76. स्वाभाविक रूप से मेरा उद्देश्य ऐसे वचनों को कहना है जिन्हें हम कहना तो चाहते हैं किन्तु सार्थक ढंग से कह नहीं पाते।
77. आश्वासन के लिए या तो मैं किसी परिकलन को दुबारा करता हूँ, या फिर किसी अन्य व्यक्ति से ऐसा करने के लिए कहता हूँ । किन्तु क्या मैं इसे बीसियों बार करूँगा, या फिर इस कार्य में बीसियों व्यक्तियों को लगाऊँगा? और क्या यह किसी प्रकार की लापरवाही है? क्या बीस बार जाँचने से कोई परिकलन वस्तुतः अधिक निश्चयात्मक हो जाता है?
78. और ऐसा न होने का क्या कोई कारण दिया जा सकता है?
79. मैं पुरुष हूँ, स्त्री नहीं, इसकी परीक्षा की जा सकती है। किन्तु यदि मैं कहूँ कि मैं एक स्त्री हूँ और फिर यह कह कर अपनी भूल सुधारने की कोशिश करूँ कि मैंने अपने कथन की जाँच ही नहीं की थी तो इसे कोई नहीं मानेगा।
80. मेरे द्वारा अपने कथनों के समझे जाने की कसौटी उन कथनों का सत्य होना है।
81. यानी : जब मैं असत्य बोलता हूँ, तो यह निश्चित नहीं होता कि मैं अपने कहे को समझता हूँ।
82. किसी कथन की पर्याप्त जाँच तो तर्कशास्त्र का विषय है । यह भाषा-खेल के विवरण से संबंधित है।
83. कई आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों की सत्यता हमारी संदर्भ-प्रणाली का विषय है।
84. मूअर का कहना है कि उन्हें पता है कि पृथ्वी का अस्तित्व उनके जन्म के बहुत पहले से है । और इस प्रकार कहे जाने पर ऐसा लगता है कि यह कथन भौतिक जगत् के बारे में होने के साथ-साथ वैयक्तिक भी है। मूअर इसके, या उसके बारे में कुछ जानते हैं, या नहीं, यह तो दार्शनिक रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं है किन्तु इसे या उसे जानने की विधि को जानना दार्शनिक के लिए महत्त्वपूर्ण है। यदि मूअर हमें बताते कि उन्हें दो सितारों के बीच की दूरी का ज्ञान है तो इससे हम यह निष्कर्ष निकालते कि उन्होंने कोई विशिष्ट अनुसंधान किया है और हम उस अनुसंधान के बारे में जानना भी चाहते । किन्तु मूअर तो वही बात कहते हैं जिसे हम सभी जानते हैं किन्तु यह नहीं बतला सकते कि हम उसे कैसे जानते हैं। उदाहरणार्थ, मेरी यह मान्यता है कि (पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में) मैं भी मूअर जितना ही जानता हूँ, और यदि वे कहते हैं कि वे जानते हैं कि पृथ्वी है तो मुझे भी यह ज्ञात है। क्योंकि ऐसा नहीं है कि वे किसी पूर्व-निर्धारित चिन्तन-विधि का अवलम्बन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हों । जबकि मैं उस विधि को जानते हुए भी बिना उसके प्रयोग के ही इस निष्कर्ष पर पहुँच गया हूँ।
85. और इसे कैसे जाना जाता है? क्या इतिहास-ज्ञान से? उसे इसका अर्थ जानना होगा: अमुक काल से पृथ्वी का अस्तित्व है। क्योंकि किसी भी बुद्धिमान् व्यक्ति को इस बात का पता होना चाहिए। लोगों को मकान बनाते और तोड़ते देखकर हम पूछते हैं: "इस मकान का अस्तित्व यहाँ कब से है?" किन्तु किसी पर्वत के बारे में हम यही प्रश्न कैसे कर सकते हैं? और क्या सभी व्यक्ति पृथ्वी को एक ऐसी वस्तु समझते हैं जो बनती बिगड़ती रहती है? मैं पृथ्वी को (गहराई समेत) अन्तहीन, दिग्दिगन्त विस्तार वाली चपटी वस्तु क्यों नहीं मानता? किन्तु ऐसी स्थिति में भी कहा जा सकता है कि "मैं जानता हूँ कि इस पर्वत का अस्तित्व मेरे जन्म के बहुत पहले से है ।" – पर मान लीजिए कि कोई व्यक्ति ऐसा न मानता हो, तब क्या होगा?
86. मूअर के "मैं जानता हूँ" को "मेरी यह अविचल अवधारणा है" से प्रतिस्थापित करने पर क्या होगा?
87. किसी प्राक्कल्पना के रूप में प्रयुक्त हो सकने की सामर्थ्य वाले प्रकृत वाक्य का क्या हम शोध और व्यवहार के आधार के रूप में प्रयोग नहीं कर सकते? यानी, क्या हम उसे, किसी स्पष्ट नियम के बिना, संशय-रहित नहीं कर सकते ? इसे स्वयंसिद्ध मान लिया जाता है, इस पर कभी कोई प्रश्न नहीं उठाया जाता, संभवतः किसी प्रश्न की कभी कल्पना भी नहीं की जाती।
88. उदाहरणार्थ, ऐसा हो सकता है कि हमारी सारी परीक्षा कुछ अभिव्यक्ति- समर्थ प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित करने के लिए ही हो। वे परीक्षण-विधि के दायरे में नहीं आतीं ।
89. कहा जा सकता है: "... से भी बहुत पहले से पृथ्वी के अस्तित्व के पक्ष में सभी बातें हैं और उसके विपक्ष में कोई भी बात नहीं है।"
फिर भी क्या मैं इससे विपरीत-कल्पना नहीं कर सकता? किन्तु प्रश्न तो यह है: ऐसी मान्यता का व्यवहार पर क्या असर पड़ेगा? – संभवत: कोई कहे: "बात यह नहीं है। मान्यता तो मान्यता है, वह व्यावहारिक हो या नहीं।" कोई सोच सकता है: यह तो मानव-मन को समझाना ही है।
90. "मैं जानता हूँ" का आदिम अर्थ "मैं देखता हूँ" से मिलता-जुलता है। और "मैं जानता था कि वह कमरे में है किन्तु वह कमरे में था नहीं" यह कथन "मैंने उसे कमरे में देखा किन्तु वह वहाँ नहीं था" इस कथन के समान है। "मैं जानता हूँ" यह कथन मेरे और किसी प्रतिज्ञप्ति (जैसे कि "मेरी मान्यता है") के अर्थ-संबंध को अभिव्यक्त न करके, मेरे और तथ्य के बीच संबंध को अभिव्यक्त करता है। ताकि तथ्य मेरी चेतना में समाहित हो जाये। (इसी कारण हम यह कहना चाहते हैं कि बाह्य जगत् में घटित घटनाओं के बारे में हम कुछ भी नहीं जान सकते, किन्तु इन्द्रियगोचर विषय के क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं को ही हम वस्तुत: जान सकते हैं ।) इससे हमें प्रत्यक्ष-ज्ञान की प्रतीति होगी, और वह ज्ञान, मन और इन्द्रिय-सन्निकर्ष से प्राप्त होगा। तभी इस प्रतीति की निश्चितता के बारे में सन्देह उत्पन्न हो जाता है। इस प्रतीति से यह तो पता चल ही जाता है कि हमारी कल्पना ज्ञान को कैसे प्रस्तुत करती है, पर यह पता नहीं चलता कि इस प्रस्तुति का आधार क्या है।
91. यदि मूअर यह कहें कि पृथ्वी के अस्तित्व इत्यादि के बारे में उन्हें पता है तो उनके इस कथन पर लगभग सभी लोग विश्वास कर लेंगे, और इसके बारे में उनकी दृढ़ मान्यता को भी स्वीकार कर लेंगे। किन्तु क्या अपनी दृढ़ मान्यता का उनके पास कोई ठोस आधार है? क्योंकि यदि उनके पास इसका कोई ठोस आधार नहीं है तो उन्हें इसका ज्ञान भी नहीं है (रसेल)।
92. फिर भी हम पूछ सकते हैं: थोड़े दिन पहले से ही, उदाहरणार्थ किसी के जन्म के समय से ही, पृथ्वी का अस्तित्व है । इस कथन का क्या कोई उचित आधार हो सकता है? – मान लीजिए कि किसी को केवल यही बताया गया है, – तो क्या इस पर शंका की जा सकती है? मनुष्य यह मानता रहा है कि वह वर्षा कराने में समर्थ है: किसी राजा में यह संस्कार क्यों नहीं डाला जा सकता कि वह यह सोचने लगे कि इस संसार का प्रादुर्भाव उसके जन्मकाल से ही हुआ है? और यदि मूअर और यह राजा कभी मिलते और वार्तालाप करते तो क्या मूअर उस राजा के समक्ष अपनी मान्यता के औचित्य को सिद्ध कर पाते? मैं यह तो नहीं कहता कि मूअर उस राजा के विचारों में परिवर्तन नहीं ला पाते, अपितु मेरा तो यह कहना है कि यह एक विशेष प्रकार का परिवर्तन होगा; राजा का संसार के बारे में दृष्टिकोण ही बदल जाएगा।
याद रखें कि कभी-कभी हम किसी दृष्टिकोण की सरलता अथवा सहजता के कारण ही उसके औचित्य को मान लेते हैं, यानी, इनके कारण ही हम उस दृष्टि-कोण को अपनाते हैं। उसे अपनाकर हम कुछ ऐसा कहते हैं: "ऐसा ही इसे होना चाहिए।"
93. मूअर द्वारा अपने ज्ञान के बारे में प्रस्तुत सभी प्रतिज्ञप्तियां ऐसी ही हैं कि उन प्रतिज्ञप्तियों से विपरीत की कोई कल्पना भी कैसे कर सकता है। उदाहरणार्थ, इस प्रतिज्ञप्ति पर कि मूअर ने अपना संपूर्ण जीवन पृथ्वी के समीप ही बिताया है। – एक बार फिर मैं यहाँ मूअर के स्थान पर अपने बारे में बात कर सकता हूँ। इससे विपरीत विश्वास करने के मेरे कौनसे कारण हो सकते हैं? या तो स्मृति या फिर सुनी-सुनाई बात। – जो कुछ भी मैंने देखा अथवा सुना है उससे मैं आश्वस्त हुआ हूँ कि कोई भी व्यक्ति पृथ्वी से बहुत दूर नहीं गया है। संसार के मेरे चित्र में ऐसी कोई भी बात नहीं है जो इसके विपरीत है।
94. किन्तु संसार के अपने चित्र को न तो मैंने उसके औचित्य को मान कर बनाया है, न ही मैं इस चित्र को इसके उचित होने के कारण मानता हूँ । नहीं: संस्कारों से ही मैं सत्य और असत्य में भेद करता हूँ।
95. संसार के इस चित्र का विवरण देने वाली प्रतिज्ञप्तियां किसी मिथक का अंग हो सकती हैं। और उनकी भूमिका किसी खेल के नियमों जैसी होती है; और उस खेल को बिना नियम सीखे, नितान्त व्यावहारिक रूप से भी सीखा जा सकता है।
96. आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली ऐसी प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना की जा सकती है जो रूढ़ होने के कारण ऐसी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों का माध्यम बन गई हों जो रूढ़ नहीं हुई हों; और इसकी भी कल्पना की जा सकती है कि समय के साथ-साथ उनका यह संबंध भी इस प्रकार परिवर्तित होता रहे कि रूढ़ प्रतिज्ञप्तियां रूढ़ न रहें और वे प्रतिज्ञप्तियां जो अभी रूढ़ नहीं हैं कालान्तर में वे रूढ़ हो जायें ।
97. मिथक बदल सकते हैं; विचारधारा की दिशा बदल सकती है। किन्तु मैं नदी के बहाव, नदी की धारा के बदलाव में भेद करता हूँ; यद्यपि दोनों में कोई सुस्पष्ट भेद नहीं है।
98. किन्तु, यदि कोई कहता है कि "अतः, तर्कशास्त्र भी आनुभविक-विज्ञान है'' तो यह उसकी भूल होगी। फिर भी यह कहना ठीक है: एक ही प्रतिज्ञप्ति कभी तो अनुभव से जाँची जाती है और कभी उसी प्रतिज्ञप्ति को जाँच की कसौटी बना लिया जाता है।
99. और नदी-तट तो उन कठोर चट्टानों, जिनमें या तो कोई परिवर्तन होता ही नहीं या फिर परिवर्तन दिखाई नहीं देता, और बालू के उन ढेरों से बना होता है जो आज यहाँ हैं और कल कहीं और।
100. जिन प्रतिज्ञप्तियों को मूअर कहते हैं कि वे जानते हैं, वे ऐसी प्रतिज्ञप्तियां हैं जिन्हें यदि मूअर जानते हैं तो कमोबेश हम सभी जानते हैं ।
101. उदाहरणार्थ, "मेरा शरीर लुप्त होने के पश्चात् फिर कभी भी प्रकट नहीं हुआ" एक ऐसी ही प्रतिज्ञप्ति है ।
102. क्या मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि कभी, अनजाने में, शायद बेहोशी की हालत में, मुझे पृथ्वी से बहुत दूर ले जाया गया – यद्यपि दूसरे लोग इस बारे में जानते हैं फिर भी मुझे इस बारे में नहीं बताते ? किन्तु यह बात मेरे अन्य विश्वासों से मेल नहीं खाती। हालांकि मैं अपनी विश्वास-पद्धति का विवरण नहीं दे सकता। फिर भी मेरे विश्वासों की एक व्यवस्था है, एक संरचना है।
103. और अब यदि मैं कहूँ "यह मेरी अविचल धारणा है कि...", तो इसका अर्थ होगा कि इस परिस्थिति में भी मेरा विश्वास किसी विशिष्ट विचारधारा का परिणाम न होकर, मेरे सभी प्रश्नों एवं उत्तरों से कुछ ऐसे जुड़ा है कि मुझे उसका पता नहीं चलता ।
104. उदाहरणार्थ, मेरा यह भी दृढ़ विश्वास है कि आकाश में सूर्य कोई ऐसा छिद्र नहीं है जो स्वर्ग का मार्ग हो ।
105. किसी प्राक्कल्पना की जाँच, उसकी पुष्टि अथवा उसका निराकरण किसी प्रणाली में ही किया जाता है । और वह प्रणाली हमारी तर्क-पद्धति से कमोबेश भिन्न नहीं है। नहीं : अपितु वह तो हमारी युक्तियों का सार है । प्रणाली के कारण भिन्नता नहीं होती बल्कि उसी के कारण युक्तियां जीवन्त होती हैं ।
106. मान लीजिए कि कोई बुजुर्ग किसी शिशु से कहे कि वह चाँद पर जा चुका है। शिशु के मुझे यह बताने पर मैं उसे कहता हूँ कि वह तो एक मज़ाक था, वह व्यक्ति चाँद पर नहीं गया; चाँद बहुत दूर है और वहाँ पर चढ़ पाना, या उड़ जाना असंभव है। – पर यदि अब शिशु जिद करे कि वहाँ जाने का रास्ता तो है किन्तु उस रास्ते का मुझे पता ही नहीं है तो मैं उसे क्या जवाब दूँ? किसी जनजाति के ऐसे बुजुर्गों को जिनकी मान्यता हो कि कभी-कभी लोग चाँद पर चले जाते हैं (संभवत: वे अपने स्वप्नों की व्याख्या ऐसे करते हैं), और जो यह भी मानते हों कि चाँद पर चढ़ जाने, या उस तक उड़ कर जाने का कोई साधारण साधन नहीं है, उनको मैं क्या उत्तर दूँ? – किन्तु, साधारणतः शिशु ऐसी मान्यता से चिपकेगा नहीं और हमारी सीख को मान लेगा ।
107. क्या बिल्कुल इसी तरह किसी शिशु को ईश्वर के अस्तित्व या उसके न होने पर विश्वास करना नहीं सिखाया जा सकता? और फिर तदनुसार वह शिशु ईश्वर के होने या न होने के बारे में विलक्षण युक्तियां प्रस्तुत कर सकता है।
108. "तो क्या वस्तुनिष्ठ सत्य जैसा कुछ होता ही नहीं? कोई व्यक्ति चाँद पर गया है, क्या यह कथन सत्य या असत्य नहीं है? यदि हम अपनी विचार-प्रणाली में ही सोचते हैं तो यह निश्चित है कि कोई भी व्यक्ति कभी भी चाँद पर नहीं गया। इस बारे में न तो हमें कभी किसी आप्तपुरुष ने गंभीरतापूर्वक बताया है और न ही हमारा भौतिक-ज्ञान इस पर विश्वास करने देता है। क्योंकि इस पर विश्वास करने पर हमें, "उसने गुरुत्त्वाकर्षण पर कैसे विजय पायी?", "वह वायु के बिना कैसे जी पाया?" जैसे सैंकड़ों प्रश्नों के उत्तर देने होंगे और हम उनके उत्तर नहीं दे पाते । किन्तु मान लीजिए कि इन उत्तरों के बजाए हमें यह कहा जाए: "हम नहीं जानते कि चाँद पर कैसे पहुँचा जाता है, किन्तु उस पर पहुँचने वालों को पता चल जाता है कि वे चाँद पर हैं; और आप हर बात की व्याख्या तो नहीं कर सकते।" ऐसा कहने वाले व्यक्ति से बात करना हमें कठिन लगता है।
109. (हम कहते हैं कि) "आनुभविक प्रतिज्ञप्ति की जाँच की जा सकती है।" पर कैसे? और किस विधि से?
110. जाँच से क्या अभिप्राय है? – "किन्तु क्या यह जाँच पर्याप्त है? और यदि यह पर्याप्त है तो क्या इसे तर्कशास्त्र से मान्यता नहीं मिलनी चाहिए?" – मानो आधारों का कोई अन्त ही नहीं होता । किन्तु अन्त आधारहीन प्राक्कल्पना तो नहीं होता : वह तो व्यवहार का आधारहीन ढंग होता है।
111. "मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया।" सामयिक परिस्थितियों में यह कहना एक बात है और यदि बहुत से लोग, जिन में से कई बिना यह जाने कि वे चाँद पर गए हैं, चाँद पर गए होते तो यह कहना दूसरी बात होती। इस परिस्थिति में अपने इस ज्ञान के आधार दिए जा सकते थे। क्या इन दोनों बातों का संबंध परिकलन के साधारण नियमों और वास्तविक परिकलन जैसा नहीं है?
मैं कहना चाहता हूँ: चाँद पर मेरे न जाने के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त हूँ जितना कि इसकी पुष्टि में दिए गए किसी भी आधार के बारे में।
112. जब मूअर कहते हैं कि वे इन सब बातों को जानते हैं तो क्या वे भी यही बात नहीं कहते? – किन्तु उनके इन बातों को जानने के बारे में क्या कोई शंका है या फिर इनमें से कुछ प्रतिज्ञप्तियों को हमारे द्वारा संशय-रहित मानने में कोई दुविधा है?
113. कोई हमें गणित यह कहकर नहीं सिखाता कि वह जानता है कि क + ख = ख + क ।
114. यदि आप किसी तथ्य के बारे में आश्वस्त नहीं हैं तो आप अपने शब्दों के अर्थ के बारे में भी आश्वस्त नहीं हो सकते ।
115. यदि आप हर बात पर संदेह करें तो आप किसी भी बात पर संदेह नहीं कर पाऐंगे। आश्वासन संदेह के खेल की पूर्वमान्यता है।
116. "मैं जानता हूँ कि..." कहने के बदले क्या मूअर यह नहीं कह सकते थे: "मैं इस बारे में आश्वस्त हूँ कि..."? और फिर यह कहते : "मैं और अनेक अन्य लोग इस बारे में आश्वस्त हैं कि...।"
117. इस बात के बारे में मैं शंकित क्यों नहीं हो सकता कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ? और इस पर मैं संदेह कैसे करूँ?
सबसे बड़ी बात तो यह है कि चाँद पर अपने जाने की अपनी प्राक्कल्पना मुझे बेकार लगती है। न तो इसका कोई परिणाम है और न ही इससे किसी चीज की व्याख्या होती है। यह मेरे जीवन की किसी भी बात से मेल नहीं खाती।
जब मैं कहता हूँ कि "इसके पक्ष में कुछ भी नहीं है और विपक्ष में सब कुछ है" तो मेरी यह पूर्वधारणा होती है कि इसके पक्ष अथवा विपक्ष में कोई न कोई सिद्धान्त है। यानी मैं कह सकता हूँ कि इसके पक्ष में क्या है।
118. तो क्या यह कहना ठीक होगा: अभी तक किसी ने भी मेरी खोपड़ी खोलकर उसमें मस्तिष्क को नहीं देखा; किन्तु मेरी खोपड़ी को खोलने पर उन्हें जो मिलेगा उसके पक्ष में सब कुछ है और विपक्ष में कुछ भी नहीं?
119. किन्तु क्या यह भी कहा जा सकता है: किसी के द्वारा न देखे जाने पर भी मेज़ के वहीं रखे रहने के पक्ष में सब कुछ है और विपक्ष में कुछ भी नहीं? क्योंकि उसके पक्ष में क्या होगा?
120. किन्तु यदि कोई इस बारे में सन्देह करता तो व्यवहार में वह उसे कैसे दिखा पाता? और हम उसे इस बात पर सन्देह करने से क्यों रोकें, चूँकि इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता?
121. क्या यह कहा जा सकता है: "जहाँ सन्देह नहीं होता वहाँ ज्ञान भी नहीं होता"?
122. क्या सन्देह के लिए आधार की आवश्यकता नहीं है?
123. मुझे तो कहीं भी... इस बात पर सन्देह करने का आधार दिखलाई नहीं देता।
124. मैं कहना चाहता हूँ: हम विवेक के सिद्धान्त के रूप में विवेक का ही प्रयोग करते हैं।
125. किसी अंधे व्यक्ति द्वारा यह पूछे जाने पर कि "क्या तुम्हारे दो हाथ हैं?" मैं अपने हाथों को देखकर आश्वस्त नहीं होता। यदि मुझे इस पर संदेह है तो मैं नहीं जानता कि मुझे अपनी आँखों की जाँच भी अपने दोनों हाथों को देखकर क्यों नहीं करनी चाहिए? किसकी जाँच किससे करें? (औचित्य-निर्धारण कैसे होता है?)
और यह कहने का क्या अर्थ है कि यही ठीक है?
126. अपने शब्दों के अर्थ के बारे में मैं उतना ही आश्वस्त होता हूँ जितना विशिष्ट निर्णयों के बारे में। क्या मैं इस बात पर संदेह कर सकता हूँ कि इस रंग को "नीला" कहते हैं?
(मेरे) संशय एक प्रणाली बनाते हैं।
127. मैं कैसे जानता हूँ कि कोई दुविधा में है? मैं कैसे जानता हूँ कि "मुझे सन्देह है" इन शब्दों का प्रयोग अन्य व्यक्ति भी मेरी तरह ही करते हैं?
128. बचपन से ही मैंने इस प्रकार निर्णय लेना सीखा हैं। इसे ही निर्णय लेना कहते हैं।
129. मैंने निर्णय लेना ऐसे सीखा; इसे ही मैंने निर्णय के रूप में जाना।
130. किन्तु क्या अनुभव हमें नहीं सिखाता कि निर्णय ऐसे लेना होता है, यानी, इस प्रकार निर्णय लेना ठीक है? किन्तु अनुभव हमें कैसे सिखाता है? अनुभव से हम यह परिणाम निकाल सकते हैं किन्तु अनुभव हमें इसकी इजाज़त नहीं देता। यदि इस प्रकार के हमारे निर्णय का यह आधार है, किन्तु उसका कारण नहीं है तो भी उसे आधार · के रूप में समझने का हमारा कोई कारण नहीं है।
131. नहीं, निर्णय के खेल में अनुभव कोई आधार नहीं होता। न ही उसकी सार्वत्रिक सफलता इसका आधार होती है।
132. मनुष्यों की यह अवधारणा रही है कि राजा वर्षा करा सकते हैं; हम कहते हैं कि यह हमारे समस्त अनुभवों के विरुद्ध है। आज उनकी यह अवधारणा है कि वायुयान और रेडियो इत्यादि लोगों से निकट सम्पर्क स्थापित करने में और संस्कृति के प्रसार में सहायक हैं।
133. साधारणतया मैं अपने दोनों हाथों को देखकर उनके अस्तित्व के बारे में आश्वस्त नहीं होता। क्यों नहीं? क्या मुझे अनुभव से पता चला है कि यह व्यर्थ है ? या (फिर): क्या हमने पहले किसी सार्वभौमिक आगमनात्मक नियम को सीखकर यहाँ भी उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया? – किन्तु हमें विशिष्ट नियम की बजाय सार्वभौमिक नियम का पता पहले क्यों चलता है?
134. किसी पुस्तक को मेज़ की दराज़ में रखकर मैं उसके वहीं रखे रहने की कल्पना करता हूँ जब तक कि...। "अनुभव सदा मुझे ठीक सिद्ध करता है। पुस्तक के (यकायक) लुप्त होने का कोई प्रामाणिक अनुभव नहीं है।" किसी विशेष स्थान पर पुस्तक के होने का पक्का अनुमान होने पर भी कभी-कभी पुस्तक वहाँ उपलब्ध नहीं होती। – किन्तु अनुभव से ही हमें वास्तव में यह पता चलता है कि कोई पुस्तक लुप्त नहीं हो जाती। (उदाहरणार्थ, वह भाप बन कर शनै: शनै: उड़ नहीं जाती।) किन्तु क्या पुस्तकों इत्यादि के इस अनुभव के कारण हम यह मान लेते हैं कि पुस्तक लुप्त नहीं हुई है ? – क्या हमें अपनी प्राक्कल्पना को बदल नहीं देना चाहिए? क्या हम प्राक्कल्पना-प्रणाली पर पड़े अपने अनुभव के प्रभाव को झुठला सकते हैं?
135. क्या हम सदैव इस (या ऐसे) सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करते कि जो हमेशा से होता चला आया है वह पुनः घटित होगा? इस सिद्धान्त के अनुसरण का क्या अभिप्राय है? क्या हम इसे अपनी युक्तियों में शामिल करते हैं? या फिर, क्या यह कोई ऐसा प्राकृतिक नियम है जिसका अनुमान-प्रक्रिया सहज ही पालन करती है? यह तो सम्भव है। यह हमारे विचार का विषय नहीं है।
136. जब मूअर कहते हैं कि वे अमुक बात जानते हैं, तो वे ऐसी अनेक आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को गिनाते हैं जिन्हें हम बिना विशेष जाँच के ही स्वीकार कर लेते हैं; यानी, ये ऐसी प्रतिज्ञप्तियां हैं जिनकी हमारी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों की प्रणाली में एक विशिष्ट तार्किक भूमिका है।
137. किसी विश्वसनीय व्यक्ति के द्वारा अपने किसी विषय के ज्ञान के बारे में मुझे भरोसा देने पर भी जरूरी नहीं कि मैं उसके ज्ञान के बारे में संतुष्ट हो जाऊँ। इससे तो उसके ज्ञान के विश्वास का पता चलता है। इसी कारण मूअर के इस आश्वासन में कि उन्हें पता है कि... हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है । फिर भी उन्हें ज्ञात सत्य प्रतिज्ञप्तियों के उदाहरण निस्संदेह रोचक हैं। इन प्रतिज्ञप्तियों के रोचक होने का कारण उनका सार्वभौमिक सत्य होना या सार्वजनिक रूप में स्वीकृत होना न होकर, हमारे आनुभविक निर्णयों की प्रणाली में उनकी समान भूमिका होना है।
138. उदाहरणार्थ, हमें अन्वेषण से उनमें से किसी का भी पता नहीं चलता ।
पृथ्वी के उद्भव, उसकी आकृति और उसके इतिहास संबंधी अन्वेषण तो किए जाते हैं किन्तु इस बात का कोई अन्वेषण नहीं होता कि पृथ्वी का अस्तित्व पिछले सौ सालों से है । इस काल की जानकारी हमें अपने माता-पिता या अपने दादा-दादी से मिलती है; किन्तु क्या वे भूल नहीं कर सकते? – "बकवास!" हम कहेंगे। "ये सभी कैसे त्रुटि कर सकते हैं?" – किन्तु यह कौनसी युक्ति हुई? क्या यह विचार की ही अस्वीकृति नहीं है? और संभवत: किसी प्रत्यय के निर्धारण की भी? क्योंकि यहाँ किसी संभावित भूल का उल्लेख करने पर हमारे जीवन में "भूल" और "सत्य" प्रत्ययों की भूमिका भी बदल जाती है।
139. किसी परिपाटी की स्थापना के लिए नियमों के साथ-साथ उदाहरणों की भी आवश्यकता होती है। हमारे नियमों से कई बातें छूट जाती हैं, परिपाटी को ही उन्हें पूरा करना पड़ता है।
140. नियम सीखने से हम आनुभविक निर्णय की परिपाटी नहीं सीखते: हमें निर्णय और अन्य निर्णयों के साथ उनके संबंधों के बारे में सिखाया जाता है। निर्णयों का कोई समुच्चय हमें युक्तियुक्त लगने लगता है।
141. पहले-पहल जब हम किसी बात पर विश्वास करने लगते हैं तो हम किसी प्रतिज्ञप्ति पर विश्वास न करके, प्रतिज्ञप्तियों के एक सम्पूर्ण तन्त्र पर विश्वास करते हैं। (सम्पूर्ण तन्त्र ही उद्भासित हो जाता है।)
142. कोई स्वयंसिद्ध सिद्धान्त ही मुझे उजागर नहीं होता अपितु एक ऐसी प्रणाली स्पष्ट हो जाती है जिसमें आधार-वाक्य और परिणाम एक दूसरे के पूरक हों।
143. उदाहरणार्थ, कोई मुझे बतलाये कि बहुत पहले कोई इस पर्वत पर चढ़ा था । क्या मैं हमेशा वार्ताकार की विश्वसनीयता के बारे में संदिग्ध रहता हूँ, और क्या मैं वर्षों पहले पहाड़ के अस्तित्व के बारे में भी संशय करता हूँ? शिशु विश्वसनीय और अविश्वसनीय वार्ताकारों के बारे में जानने से बहुत पहले ही अपने तथ्यों को सीख लेता है । पर्वत के दीर्घकालीन अस्तित्व के बारे में वह कभी भी नहीं सीखता: यानी, यहाँ संशय का कोई अवकाश ही नहीं। सिखाए गए पाठ के साथ-साथ वह, इस परिणाम को भी, मानो, आत्मसात् कर लेता है।
144. शिशु अनेक बातों पर विश्वास करना सीखता है। यानी, वह इन विश्वासों के अनुसार व्यवहार करना सीखता है। धीरे-धीरे इन विश्वासों की एक प्रणाली बन जाती है, और उस प्रणाली में कई बातें तो स्थिर हो जाती हैं और कुछ बातें कमोबेश बदलती रहती हैं। स्थिर हो जाने वाली बातों का कारण उनकी मूलभूत स्पष्टता या विश्वसनीयता न होकर, उनका परिवेश ही है ।
145. हम कहना चाहते हैं "मेरा समस्त अनुभव ऐसा बताता है"। किन्तु इन अनुभवों द्वारा यह करना कैसे सम्भव है? अनुभवों द्वारा ज्ञापित प्रतिज्ञप्ति उन्हीं अनुभवों की ही एक विशिष्ट व्याख्या है।
"इस प्रतिज्ञप्ति को निश्चित रूप से सत्य मानना भी अनुभव की मेरी व्याख्या ही है।"
146. आकाश में पृथ्वी का एक तैरता हुआ गेंद जैसा हमारा चित्र विगत सौ सालों में भी नहीं बदला है। मैंने कहा "हमारे द्वारा निर्मित पृथ्वी का चित्र इत्यादि" और अब यह चित्र अनेक समस्याओं के समाधान में हमारी सहायता करता है।
किसी पुल की लम्बाई-चौड़ाई-ऊँचाई के बारे में मैं हिसाब कर सकता हूँ, कभी- कभी यह भी हिसाब लगा सकता हूँ कि यहाँ पर पुल बनाना नाव चलाने से बेहतर होगा इत्यादि, इत्यादि – किन्तु कहीं न कहीं तो मुझे किसी प्राक्कल्पना या किसी निर्णय से आरंभ करना होगा।
147. गेंद के समान पृथ्वी का चित्र एक अच्छा चित्र है, यह सभी जगह मान्य है, यह एक सरल चित्र भी है – संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस चित्र का असंदिग्ध रूप से उपयोग किया जा सकता है।
148. कुर्सी छोड़ने से पहले मैं अपने दो पैरों के अस्तित्व के बारे में अपने-आपको आश्वस्त क्यों नहीं करता? यहाँ क्यों का प्रश्न ही नहीं है? मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करता। मैं इसी प्रकार व्यवहार करता हूँ।
149. मेरे निर्णय ही मेरे निर्णय लेने के स्वरूप के परिचायक हैं, वे ही निर्णय के स्वरूप को लक्षित करते हैं ।
150. हम अपने दायें और बायें हाथ का भेद कैसे जानते हैं? मैं कैसे जानता हूँ कि मेरा और अन्य व्यक्ति का निर्णय समान होगा? मैं कैसे जानता हूँ कि यह नीला रंग है? इस बारे में जब मैं अपने आप पर ही विश्वास नहीं करता तो मैं किसी अन्य व्यक्ति के निर्णय पर विश्वास क्यों करूँ? क्या यहाँ 'क्यों' का प्रश्न उठता है? क्या मुझे कहीं न कहीं विश्वास की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। यानी: कहीं से तो मुझे बिना संशय आरंभ करना होगा; और ऐसा करना जल्दबाज़ी न होकर सामान्यतः ठीक होगा। यह निर्णय प्रक्रिया का अंश है।
151. मैं कहना चाहूँगा: मूअर ऐसे विषयों को नहीं जानते जिन्हें वे ज्ञात-विषय कहते हैं, यह बात हम दोनों पर समान रूप से लागू होती है; इसे बिल्कुल ठीक मानना हमारी शोध-प्रक्रिया और संशय विधि का अंग है।
152. जिन प्रतिज्ञप्तियों को मैं सदा सही मानता हूँ उन्हें मैं किसी नियोजित ढंग से नहीं सीखता । मैं उन्हें कालान्तर में, किसी वस्तु की धुरी के समान, खोज निकालता हूँ। इस धुरी की स्थिरता नियत नहीं होती, अपितु उसके चारों ओर होने वाली गतिविधि ही उसकी स्थिरता का निर्धारण करती है ।
153. मुझे कभी यह नहीं सिखाया गया कि जब मैं अपने हाथों पर ध्यान नहीं देता तो वे लुप्त नहीं हो जाते हैं । न ही मैं अपने कथनों, इत्यादि में इस प्रतिज्ञप्ति की सत्यता की कल्पना करता हूँ (मानो वे इसी पर निर्भर हों)। सच तो यह है कि इसका अर्थ हमारी समग्र-कथन-पद्धति से ही निकलता है।
154. संशय-रहित परिस्थितियों में भी संशय के संकेत मिलने पर हम उन संकेतों को संशय के संकेत ही नहीं मानते।
यानी: उन संकेतों को संशय के संकेतों जैसा समझने के लिए उनका विशिष्ट परिस्थितियों में ही प्रयोग करना चाहिए, सभी स्थितियों में नहीं ।
155. किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में भूल हो ही नहीं सकती। ("सकती" शब्द को यहाँ तार्किक रूप में प्रयोग किया जा रहा है, और इस प्रतिज्ञप्ति का यह अर्थ नहीं है कि उन परिस्थितियों में कोई दोषयुक्त बात नहीं कही जा सकती।) यदि मूअर स्वघोषित निश्चित प्रतिज्ञप्ति को विलोम अर्थ में प्रयुक्त करते तो ऐसा नहीं है कि हम उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते: हम उन्हें सिरफिरा मानते ।
156. भूल सामाजिक नियमों के दायरे में ही सम्भव है।
157. किसी व्यक्ति के अपने दोनों हाथों और हर हाथ में पाँच अंगुलियों के अस्तित्व को भूल जाने पर क्या होगा ? क्या हम उसे समझ पाऐंगे? क्या हम उसकी समझ के विषय में संतुष्ट होंगे?
158. उदाहरणार्थ, क्या मैं हिन्दी भाषा के इस वाक्य में प्रयुक्त शब्दों के अपने अर्थ-ज्ञान के बारे में भूल कर सकता हूँ?
159. शैशव काल में हम तथ्यों को सीखते हैं; उदाहरणार्थ, यह तथ्य कि प्रत्येक मनुष्य के शरीर में मस्तिष्क होता है, और उन पर विश्वास करते हैं । मेरी मान्यता है कि अमुक आकृति वाला एक टापू ऑस्ट्रेलिया कहलाता है, इत्यादि, इत्यादि मैं मानता हूँ कि मेरे दादा-पड़दादा थे, और यह भी मानता हूँ कि मेरे माता-पिता कहलाने वाले व्यक्ति वास्तव में मेरे माता-पिता थे, इत्यादि । संभवत: इस मान्यता को कभी भी अभिव्यक्ति न मिली हो; और ऐसे विचार को कभी सोचा भी न गया हो।
160. शिशु बड़ों पर भरोसा करके सीखता है। संशय तो विश्वास के उपरांत आता है।
161. बहुत सी बातों को मैंने श्रुति-प्रमाण से ही सीखा और अपनाया और फिर अपने अनुभव से मैंने पाया कि कुछ बातों की पुष्टि हो सकती है और कुछ की नहीं।
162. पाठ्य-पुस्तकों, उदाहरणार्थ, भूगोल की पाठ्य-पुस्तकों, में पायी जाने वाली बातों को मैं सामान्यतः सच मानता हूँ। क्यों? मैं कहता हूँ: इन तथ्यों की अनेक बार पुष्टि की जा चुकी है। किन्तु मैं इसे कैसे जानता हूँ? मेरे पास इसका क्या प्रमाण है? मेरे पास संसार का एक चित्र है। क्या वह प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? फिर भी वह मेरे सभी कथनों और मेरी समस्त जिज्ञासाओं का आधार है। इसका वर्णन करने वाली सभी प्रतिज्ञप्तियों की जाँच तो नहीं की जा सकती।
163. मेज़ की ओर किसी का ध्यान न होने पर भी क्या कभी किसी ने उसके अस्तित्व की जाँच की है ?
हम नेपोलियन की कथाओं की जाँच तो करते हैं किन्तु उनके बारे में दी गई सूचनाओं की भ्रान्त धारणा, जालसाजी इत्यादि की जाँच नहीं करते। क्योंकि जाँच करते समय हम किसी न किसी ऐसी बात की पूर्वकल्पना कर लेते हैं जिसको हम जाँचते नहीं। तो क्या मैं कहूँ कि किसी प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को जाँचने के लिए मैं जो प्रयोग करता हूँ वह प्रयोग इस प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को मान कर चलता है कि जिन उपकरणों के बारे में मेरा विश्वास है कि मैं उनको देख रहा हूँ, उनका वास्तव में अस्तित्व है (इत्यादि)?
164. क्या जाँच-प्रक्रिया का कोई अन्त नहीं होता ?
165. एक शिशु दूसरे से कह सकता है : "मैं जानता हूँ कि पृथ्वी सैंकड़ों वर्ष पुरानी है" उसका अभिप्राय होगा: मैंने ऐसा सीखा है।
166. अपने विश्वास की आधारहीनता का अहसास करना कठिन है।
167. यह तो स्पष्ट है कि सभी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियां एक जैसी नहीं होतीं क्योंकि कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति हो सकती है जिसे आनुभविक प्रतिज्ञप्ति से विवरण देने के प्रतिमान में बदला जा सके।
रासायनिक अनुसंधान पर विचार करें। लेवोइसियर अपनी अनुसंधानशाला में पदार्थ-प्रयोग द्वारा इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि जलने पर अमुक प्रतिक्रिया होती है । वे यह नहीं कहते कि किसी अन्य समय पर इससे उलट भी हो सकता है। उनके मन में संसार का एक विशिष्ट चित्र है – यह चित्र उनकी खोज का परिणाम नहीं है : उन्होंने उस चित्र को शैशवावस्था से सीखा है। मैं यहाँ संसार के चित्र का उल्लेख कर रहा हूँ न कि प्राक्कल्पना का, क्योंकि यह उनके अनुसंधान का सहज आधार है और इसीलिए इसका उल्लेख भी नहीं होता ।
168. किन्तु समान परिस्थितियों में पदार्थ क, पदार्थ ख से सदैव एक सी प्रतिक्रिया करता है, इस प्राक्कल्पना की अब क्या भूमिका है? या फिर, क्या यह पदार्थ की परिभाषा का ही अंग है ?
169. रसायन शास्त्र की संभावना को अभिव्यक्त करने वाली प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना की जा सकती है। और वे प्राकृतिक-विज्ञान की प्रतिज्ञप्तियां ही होंगी। क्योंकि अनुभव के सिवाय उनका क्या आधार होगा ?
170. लोगों के विशेष लहजे में बात करने पर मुझे उन पर भरोसा होता है । इसी प्रकार मैं भौगोलिक, रासायनिक, ऐतिहासिक इत्यादि तथ्यों पर विश्वास करता हूँ । विज्ञान के विषय को भी मैं इसी प्रकार सीखता हूँ । सीखने का आधार तो विश्वास ही है।
यदि आपने यह सीखा है कि माँट पर्वत की ऊँचाई 4000 मीटर है, यदि आपने मानचित्र में इसे देखा है, तो आप कहते हैं कि आप इस बारे में जानते हैं ।
तो क्या यह कहा जा सकता है : हम इसे विश्वसनीय मानते हैं क्योंकि इससे हमें लाभ हुआ है?
171. मूअर के कभी चाँद पर न जाने के विश्वास का मुख्य कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति कभी चाँद पर नहीं गया, या कभी भी वहाँ नहीं पहुँचा। यह विश्वास हमारी शिक्षा पर आधारित है ।
172. संभवत: कोई कहे कि "किसी बात को विश्वसनीय मानने का हमारा कोई मुख्य आधार तो होगा", किन्तु ऐसे आधार से क्या उपलब्धि होगी? क्या यह 'सत्य मानने' के प्राकृतिक नियम से बेहतर है ?
173. किसी बात पर विश्वास या अटूट विश्वास क्या मेरे बस में है ?
मेरा विश्वास है कि वहाँ एक कुर्सी पड़ी है? क्या मैं भूल नहीं कर सकता ? किन्तु क्या मैं अपनी भूल स्वीकार कर सकता हूँ? या फिर क्या मैं अपने द्वारा भूल किये जाने के बारे में सोच भी सकता हूँ? – और क्या बाद का शिक्षण मेरे विश्वास को डिगा सकता है?! तो क्या मेरे विश्वास का कोई आधार है?
174. मैं पूरी निश्चितता के साथ कार्य करता हूँ । किन्तु यह मेरी अपनी निश्चितता है ।
175. मैं किसी को कहता हूँ "मैं इसे जानता हूँ"; और ऐसा कहने का कोई औचित्य है । किन्तु मेरे विश्वास का कोई औचित्य नहीं होता ।
176. कुछ स्थितियों में "मैं इसे जानता हूँ" कहने के बजाय "यह ऐसा ही है – इस पर विश्वास करो" कहा जा सकता है। कुछ स्थितियों में बेशक यह कहा जा सकता है "बहुत सालों पहले मैंने इसे सीखा था "; और कभी-कभी यह भी कहा जा सकता है: "मैं इस विषय में आश्वस्त हूँ।"
177. मैं जो जानता हूँ, उस पर विश्वास भी करता हूँ ।
178. मूअर की "मैं जानता हूँ कि..." प्रतिज्ञप्ति के दोषपूर्ण प्रयोग का कारण यह है कि वे इसे "मैं वेदना-ग्रस्त हूँ" इस कथन के समान संशयरहित समझ लेते हैं। और क्योंकि "मैं इसे जानता हूँ" से "ऐसा ही है" निष्पन्न होता हैं, इसीलिए उस पर भी संशय नहीं किया जा सकता।
179. यह कहना ठीक है: "मेरा विश्वास है कि..." एक मनोगत सत्य है लेकिन; "मैं जानता हूँ कि..." मनोगत सत्य नहीं है।
180. या फिर "मेरा विश्वास है..." एक 'अभिव्यक्ति' है, किन्तु "मैं जानता हूँ कि..." कोई 'अभिव्यक्ति' नहीं है।
181. मान लीजिए कि मूअर "मैं जानता हूँ कि..." कहने के बजाय "मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि..." कहते।
182. इससे भी कच्ची बात तो यह है कि पृथ्वी अनादि है। किसी भी बालक को यह पूछने का अधिकार नहीं है कि पृथ्वी का अस्तित्व कब से है, क्योंकि सब कुछ तो उसी पर घटित होता है। यदि पृथ्वी नामक ग्रह का किसी समय – कल्पनातीत समय – उद्भव हुआ हो तो इसके उद्भव-काल को कल्पनातीत मानना होगा ।
183. "यह सुनिश्चित है कि ऑस्ट्रलित्ज़ के युद्ध के बाद नेपोलियन...। तो यह भी सुनिश्चित ही है कि उस समय पृथ्वी का अस्तित्व था।"
184. "यह सुनिश्चित है कि एक सौ वर्ष पहले हम इस ग्रह पर किसी अन्य ग्रह से नहीं आए हैं।" यह ऐसी बातों जैसा ही सुनिश्चित है।
185. नेपोलियन के अस्तित्व के बारे में संशय करना भी मुझे हास्यास्पद लगता है; किन्तु यदि कोई पृथ्वी के 150 वर्ष पूर्व के अस्तित्व में शंका व्यक्त करे तो संभवतः मैं उसे गंभीरतापूर्वक सुनूँ क्योंकि ऐसा करना हमारी संपूर्ण प्रमाण-प्रणाली पर ही संशय करना है। मुझे नहीं लगता कि यह प्रणाली अपनी अन्तर्निहित सुनिश्चितता से कहीं अधिक सुनिश्चित है।
186. मैं यह मान सकता हूँ कि नेपोलियन का कभी अस्तित्व ही नहीं था यह एक कपोल-कल्पना है, किन्तु यह नहीं मान सकता कि 150 वर्ष पूर्व पृथ्वी का अस्तित्व ही न था।
187." क्या आप जानते हैं कि तब भी पृथ्वी का अस्तित्व था?" – "बेशक, मैं जाता हूँ । मुझे यह जानकारी ऐसे व्यक्ति से मिली है जो इस बारे में पूरी तरह जानता है।"
188. मुझे लगता है कि उस समय पृथ्वी के अस्तित्व पर शंका करने वाला व्यक्ति संपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण को नकारता है । और मैं इस प्रमाण को पूर्णतः ठीक नहीं कह सकता।
189. कभी तो व्याख्या से वर्णन मात्र पर पहुँचना पड़ता है।
190. जिसे हम ऐतिहासिक साक्ष्य कहते हैं वह बतलाता है कि मेरे जन्म के बहुत पहले से ही पृथ्वी का अस्तित्व है; – विपरीत-कल्पना के समर्थन में कुछ भी नहीं है।
191. यदि सभी कुछ किसी प्राक्कल्पना के पक्ष में हो और विपक्ष में कुछ भी न कहा जाए – तो क्या वह निश्चित रूप से सत्य होती है? उसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है। – किन्तु क्या वह निश्चित रूप से यथार्थ के, तथ्यों के अनुरूप होती है ? – इस प्रश्न को पूछते ही आप एक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं ।
192. औचित्य सिद्ध किया जा सकता है, किन्तु औचित्य की भी सीमा होती है ।
193. इसका क्या अर्थ है : किसी प्रतिज्ञप्ति का सत्य होना तो सुनिश्चित है ?
194. "सुनिश्चित" शब्द को कहने से हम पूर्ण विश्वास को, संशय के संपूर्ण अभाव को, अभिव्यक्त करते हैं और ऐसा करके हम अन्य व्यक्तियों को आश्वस्त करते हैं । यह मनोगत निश्चितता है।
किन्तु कोई भी बात वस्तुनिष्ठ रूप से कब सुनिश्चित होती है? जब कोई गलती करना संभव नहीं हो। पर यह किस प्रकार की संभावना है? क्या तर्कतः गलती की संभावना को ही समाप्त नहीं कर देना चाहिए?
195. अपने कमरे में न होने पर भी मेरा यह विश्वास करना कि मैं अपने कमरे में बैठा हूँ कोई भूल नहीं होती। किन्तु इसमें और गलती करने की स्थिति में क्या कोई तात्त्विक भेद है ?
196. जिसे हम स्वीकार करते हैं वही निश्चित प्रमाण होता है, तथा उसी के कारण हम बिना किसी संशय के, सुनिश्चित रूप से, कार्य करते हैं ।
जिसे हम "गलती" कहते हैं उसकी हमारे भाषा-खेल में नितान्त विशिष्ट भूमिका होती है, और यही बात उस पर भी लागू होती है जिसे हम निश्चित साक्ष्य मानते हैं।
197. यह कहना निरर्थक है कि किसी प्रमाण को निश्चित रूप से सत्य होने के कारण ही हम उसे सुनिश्चित साक्ष्य मानते हैं ।
198. अच्छा तो यह हो कि किसी प्रतिज्ञप्ति के पक्ष अथवा विपक्ष में निर्णय लेने की भूमिका को ही हम पहले निर्धारित कर लें ।
- ↑ देखें, जी. ई. मूअर "प्रूफ़ ऑव एन एक्सटर्नल वर्ल्ड", प्रोसीडिंग्स ऑव द ब्रिटिश अकेडमी, खडं xxv, 1930; और "ए डिफेन्स ऑव कॉमन सेन्स", कान्टेम्परेरी ब्रिटिश फ़िलोसॉफ़ी, सेकेंड सिरीज़, संपादक जे. एच. मयूरहैड, 1925। ये दोनों शोध-पत्र मूअर की पुस्तक फ़िलोसॉफ़िकल पेपर्स, लंदन: जॉर्ज एलन एन्ड अन्विन, 1959 में भी मिलते हैं।