ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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329. "यदि कोई ''इस पर'' सन्देह करे – और "सन्देह" का यहाँ चाहे जो भी अर्थ हो – वह इस खेल को सीख ही नहीं पाएगा।
329. "यदि कोई ''इस पर'' सन्देह करे – और "सन्देह" का यहाँ चाहे जो भी अर्थ हो – वह इस खेल को सीख ही नहीं पाएगा।


330. अतः यहाँ "मैं जानता हूँ..." वाक्य किन्हीं विशिष्ट बातों पर विश्वास करने की तत्परता को व्यक्त करता है।<references />
330. अतः यहाँ "मैं जानता हूँ..." वाक्य किन्हीं विशिष्ट बातों पर विश्वास करने की तत्परता को व्यक्त करता है।
 
13.3.
 
331. अपने दृढ़ विश्वास के आधार पर जब भी हम निश्चितता से आचरण करते हैं, तो क्या कभी हम यह सोचते हैं कि अनेक ऐसी बातें हैं जिन पर संशय किया ही नहीं जा सकता ?
 
332. ''दार्शनिक-चिन्तन'' से परे किसी के ऐसे कथन की कल्पना कीजिए, "मैं नहीं जानता कि मैं कभी चाँद पर गया था; मुझे ''याद'' नहीं है कि मैं कभी वहाँ गया होऊँ। (ऐसा व्यक्ति हमसे बिल्कुल भिन्न क्योंकर होगा?)
 
पहले तो – उसे पता ही कैसे चलेगा कि वह चाँद पर है? वह इसकी कल्पना भी कैसे कर पाएगा? तुलना कीजिए: "मुझे ज्ञात नहीं है कि मैं कभी क के गाँव गया था।" किन्तु मैं यह भी नहीं कह सकता कि क तुर्किस्तान में है क्योंकि मैं कभी तुर्किस्तान गया ही नहीं ।
 
333. मैं किसी से पूछता हूँ "क्या आप कभी चीन गए हैं?" वह उत्तर देता है कि "मुझे पता नहीं"। तब यह कहा जाएगा "तुम्हें नहीं ''पता''? वहाँ कभी जाने के तुम्हारे विश्वास का कोई कारण है ? उदाहरणार्थ, तुम कभी चीनी सीमा के पास गए हो? या फिर तुम्हारे जन्म के समय तुम्हारे माता-पिता वहाँ गए थे?" – साधारणत: यूरोप-वासी यह जानते हैं कि वे कभी चीन गए थे या नहीं।
 
334 . यानी: अमुक परिस्थितियों में ही कोई समझदार व्यक्ति ''इस बारे'' में सन्देह करता है।
 
335. न्याय-प्रक्रिया का आधार यह है कि परिस्थितियां ही कथनों को सम्भावना प्रदान करती हैं। उदाहरणार्थ, कोई व्यक्ति इस संसार में माता-पिता के बिना ही आया है ऐसे कथन पर न्यायालयों में कभी भी विचार नहीं किया जाएगा।
 
336. किन्तु उचित तथा अनुचित की हमारी अवधारणा परिवर्तित होती रहती है। जिस बात को एक समय हम उचित समझते हैं उसी बात को किसी अन्य समय पर हम अनुचित मानते हैं । और इससे उलट भी।
 
तो क्या यहाँ कोई भी वस्तुनिष्ठ बात नहीं है?
 
कुछ ''अत्यन्त'' मेधावी और शिक्षित लोग बाइबल में वर्णित सृष्टि की कहानी पर विश्वास करते हैं परन्तु अन्य व्यक्ति इसे सर्वथा असत्य मानते हैं, और बाइबल में विश्वास रखने वाले लोगों को अन्य व्यक्तियों की मान्यताओं के आधार का ज्ञान होता है।
 
337. संशयातीत विषयों पर हमें प्रयोग करने की आवश्यकता ही नहीं होती। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि व्यक्ति कुछ पूर्वकल्पनाओं को मानकर चलता है । पत्र लिखकर डाकपेटी में डालने के बाद मुझे विश्वास रहता है – कि वह गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाएगा।
 
जब मैं कोई प्रयोग करता हूँ तो अपने सामने पड़े उपकरणों के अस्तित्व में सन्देह नहीं करता। मुझे अनेक संदेह हो सकते हैं पर ''ऐसा'' नहीं। जब मैं कोई परिकलन करता हूँ तो निस्संदेह मैं यह मानता हूँ कि कागज पर लिखी हुई संख्याएँ स्वतः परिवर्तित नहीं हो रहीं। साथ-साथ मैं अपनी याददाश्त पर भी पूरा भरोसा करता हूँ। यह भी चाँद पर मेरे कभी भी न जाने जैसा सुनिश्चित है ।
 
338. किन्तु ऐसे लोगों की कल्पना कीजिए जो इन बातों के बारे में कभी भी निश्चिन्त नहीं थे पर यह कहते थे कि वे ''करीब-करीब'' निश्चिन्त थे और यह भी कहते थे कि इन बातों पर संशय करने से कोई लाभ नहीं होता। मेरी परिस्थिति में ऐसा व्यक्ति कहेगा: "मेरा चाँद पर जाना लगभग असंभव है", इत्यादि, इत्यादि। ऐसे लोगों का जीवन हमारे जीवन से ''किस प्रकार'' भिन्न है? क्योंकि ऐसे लोग होते हैं जो यह कहते हैं कि आग पर रखे पानी के उबलने के बजाय जमने की ज्यादह संभावना है और इसीलिए जिन बातों को हम असंभव मानते हैं वे बातें मात्र असंभाव्य ही होती हैं। इससे उनके जीवन में क्या अन्तर पड़ता है? क्या इतनी ही बात नहीं है कि वे कुछ विषयों के बारे में हमसे ज्यादा बातें करते हैं ?
 
339. ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जिसे रेलवे स्टेशन से अपने मित्र को घर लाना हो पर वह समय-सारिणी में गाड़ी के आने के समय को देखकर ठीक समय पर स्टेशन जाने के बजाय यह कहे: "मुझे विश्वास तो ''नहीं'' है कि गाड़ी आएगी पर फिर भी मैं स्टेशन पर जाऊँगा।" वह सामान्य व्यक्ति की तरह आचरण करता है किन्तु ऐसा करते समय वह शंका करता रहता है या फिर झुंझलाता रहता है।
 
<references />