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352." मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है" किसी के ऐसा कहने पर मैं उसे प्रत्युत्तर दे सकता हूँ: "हाँ, यह एक वाक्य है, हिन्दी भाषा का एक वाक्य । किन्तु इसका क्या प्रयोजन है?" मान लीजिए वह कहे: "मैं तो स्वयं को यह याद दिलाना चाहता था कि मैं इस प्रकार की वस्तुओं को जानता हूँ"? – | 352." मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है" किसी के ऐसा कहने पर मैं उसे प्रत्युत्तर दे सकता हूँ: "हाँ, यह एक वाक्य है, हिन्दी भाषा का एक वाक्य । किन्तु इसका क्या प्रयोजन है?" मान लीजिए वह कहे: "मैं तो स्वयं को यह याद दिलाना चाहता था कि मैं इस प्रकार की वस्तुओं को जानता हूँ"? – | ||
353. पर मान लीजिए कि वह कहता "मैं एक तार्किक बात कहना चाहता था?" – मान लीजिए कि कोई वनपाल अपने मातहतों के साथ वन में जाता है और कहता है "''अमुक'', ''अमुक'' और ''अमुक'' पेड़ को काटना है" – और फिर यह कहता है कि "मैं ''जानता'' हूँ कि यह एक पेड़ है" तो क्या होगा? किन्तु क्या मैं वनपाल के बारे में यह नहीं कह सकता कि "वह ''जानता'' है कि वह एक पेड़ है – वह न तो स्वयं इस बात की जाँच करता है और न ही मातहतों से इसकी जाँच करवाता है"?<references /> | 353. पर मान लीजिए कि वह कहता "मैं एक तार्किक बात कहना चाहता था?" – मान लीजिए कि कोई वनपाल अपने मातहतों के साथ वन में जाता है और कहता है "''अमुक'', ''अमुक'' और ''अमुक'' पेड़ को काटना है" – और फिर यह कहता है कि "मैं ''जानता'' हूँ कि यह एक पेड़ है" तो क्या होगा? किन्तु क्या मैं वनपाल के बारे में यह नहीं कह सकता कि "वह ''जानता'' है कि वह एक पेड़ है – वह न तो स्वयं इस बात की जाँच करता है और न ही मातहतों से इसकी जाँच करवाता है"? | ||
354. संदिग्ध और असंदिग्ध व्यवहार । असंदिग्ध व्यवहार, संदिग्ध व्यवहार की पूर्व शर्त है। | |||
355. किसी मन:चिकित्सक के (संभवतः) इस सवाल का "क्या आप जानते हैं कि वह क्या है?" मैं यह जवाब दूँ "मैं जानता हूँ कि वह एक आराम-कुर्सी है; मैं इसे पहचानता हूँ यह सदा से मेरे कमरे में है"। संभवत: वह मुझसे यह प्रश्न मेरी नज़र जाँचने की बजाय यह जानने के लिए पूछता है कि मुझमें वस्तुओं को पहचानने, उनके नाम और उनके प्रयोग जानने की क्षमता है। यहाँ तो व्यवहार-ज्ञान का प्रश्न है। "मेरा विश्वास है कि वह एक कुर्सी है" मेरा यह कथन गलत होगा क्योंकि इससे तो ऐसा पता चलेगा कि मैं अपने कथन की परीक्षा करवाना चाहता हूँ। जबकि वस्तुत: "मैं जानता हूँ कि" कथन की पुष्टि के अभाव में मैं ''हक्का-बक्का'' रह जाता हूँ। | |||
356. मेरी " मन:स्थिति", "जानकारी" भविष्य की घटनाओं का आश्वासन नहीं होती। यह तो इसमें निहित है कि न तो मुझे अपने संशय का आधार समझ आए और न ही मुझे यह पता चले कि आगे की जाँच कहाँ सम्भव है । | |||
357. कहा जा सकता है: "'मैं जानता हूँ' कथन ''सामान्य'' निश्चितता को व्यक्त करता है, न कि संघर्षशील निश्चितता को।' | |||
358. मैं ऐसी निश्चितता को त्वरित या सतही न मानकर एक जीवन-शैली जैसी मानता हूँ। यह बात बड़े भोन्डेपन से अभिव्यक्त हुई है और संभवत: ठीक से सोची भी नहीं गई है। | |||
359. यानी मैं इसकी किसी पाशविक प्रवृत्ति की भाँति, औचित्य-अनौचित्य से परे होने की कल्पना करना चाहता हूँ। | |||
360. मैं ''जानता'' हूँ कि यह मेरा पैर है । मेरा कोई भी अनुभव इसे नकार नहीं सकता। | |||
यह विस्मय बोधक हो सकता है; किन्तु इससे किस बात की ''निष्पत्ति'' होती है? कम-से-कम यह निष्पत्ति तो होती ही है कि मैं असंदिग्ध रूप से अपने विश्वासानुसार कार्य करता हूँ । | |||
361. मैं यह भी कह सकता हूँ: मुझे ऐसा इलहाम हुआ है। ईश्वर ने मुझे सिखाया है कि यह मेरा पैर है । अत: एतत्-ज्ञान-विरोधी ''किसी भी बात'' को मैं भ्रान्ति ही समझता हूँ। | |||
362. किन्तु क्या इससे यह पता नहीं चलता कि ज्ञान किसी निर्णय से सम्बन्धित है ? | |||
363. और यहाँ विस्मयबोधक अभिव्यक्ति और तदनुकूल व्यवहार के बीच संक्रमण को जानना कठिन होगा | |||
364. यह भी पूछा जा सकता है: "यदि आप जानते हैं कि यह आपका पैर है, – तो क्या आप यह भी जानते हैं या फिर क्या यह आपका विश्वास ही है कि कोई भविष्यत्कालीन अनुभव आपके इस ज्ञान को खण्डित करता प्रतीत नहीं होगा?" (यानी, कोई भी बात ''आपको'' ऐसी प्रतीति नहीं करा सकती।) | |||
365. यदि कोई उत्तर दे: "मैं यह भी जानता हूँ कि इस ज्ञान को खण्डित करने वाली कोई बात मुझे कभी भी प्रतीत नहीं होगी", – इस विषय में उसकी असंदिग्धता के अतिरिक्त हमें और क्या पता चलेगा? | |||
366. मान लीजिए कि हमारी "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति का निषेध हो, और हमें "मेरा विश्वास है कि मैं जानता हूँ" कहने की ही अनुमति हो? | |||
367. " जानने" जैसे शब्द का अर्थ "विश्वास करने" जैसा लगने का क्या यही कारण नहीं है कि "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति का गलत प्रयोग करने वाला तिरस्कार का पात्र होता है? | |||
परिणामस्वरूप, भूल निषिद्ध हो जाती है। | |||
368. किसी भी अनुभव को अपने मत के खण्डन का प्रमाण न मानना भी तो एक ''निर्णय'' ही है। संभव है कि वह इस निर्णय के विरुद्ध आचरण करे । | |||
16.3.51 | |||
369. यदि मैं अपने हाथ के अस्तित्व पर संशय करूँ तो मैं "हाथ" शब्द के अर्थ पर संशय करने से कैसे बच सकता हूँ? यानी, इतना ''ज्ञान'' तो मुझे है ही । | |||
370. बेहतर होगा: मैं अपने वाक्य में 'हाथ' या अन्य शब्दों का सहज प्रयोग करता हूँ और उनके अर्थ पर संशय करना रसातल में जाना है – असंदिग्धता भाषा-खेल का सार तत्त्व है, और" मैं कैसे जानता हूँ..." जैसे प्रश्न भाषा-खेल से हमें बहिष्कृत कर देते हैं, या फिर उन खेलों को ही समाप्त कर देते हैं। | |||
371. "मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है" क्या इसका मूअर के अनुसार यही या इस जैसा ही अर्थ नहीं है: हाथ के अस्तित्व पर सन्देह न करने वाले भाषा-खेलों में मैं ऐसा कह सकता हूँ, "मेरे इस हाथ में पीड़ा हो रही है" अथवा "यह हाथ अन्य हाथ से कमजोर है" अथवा "एक बार मेरा यह हाथ टूट गया था" इत्यादि। | |||
372. "क्या यह वास्तव में हाथ है?" (या "मेरा हाथ है") इसे विशिष्ट परिस्थितियों में ही जाँचा जा सकता है। क्योंकि "मुझे संशय है कि यह वास्तव में मेरा (या एक) हाथ है" कथन किसी अन्य आधार के बिना निरर्थक है। इन शब्दों से संशय – या उसके प्रकार के बारे में पता नहीं चलता है। | |||
373. यदि निश्चित होना संभव ही नहीं है तो किसी बात पर ''विश्वास'' करने का आधार ही क्यों संभव हो? | |||
374. हम शिशु को “कदाचित् (या संभवतः) वह तुम्हारा हाथ है" न सिखाकर "वह तुम्हारा हाथ है" सिखाते हैं। शिशु इसी प्रकार अपने हाथ से संबंधित अनगिनत भाषा-खेलों को सीखता है। 'क्या वास्तव में यह हाथ है' जैसे प्रश्न या परीक्षण उसे कभी सूझते ही नहीं। साथ ही वह यह भी नहीं सीखता कि वह ''जानता'' है कि यह एक हाथ है। | |||
375. हमें यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी संदर्भ में, ऐसे सन्दर्भों में भी जहाँ उचित संशय का अवकाश हो, संशय का अत्यन्ताभाव भाषा-खेल को झुठला नहीं सकता। क्योंकि इतर गणित जैसा भी कुछ होता है । | |||
मेरा मत है कि तर्कशास्त्र की किसी भी समझ के मूल में ऐसी स्वीकारोक्ति होनी चाहिए। | |||
17.3. | |||
376. मैं जोश के साथ यह दावा कर सकता हूँ कि (उदाहरणार्थ) यह मेरा पैर है। | |||
377. किन्तु यह जोश (बहुत) विरल है और इस पैर के बारे में साधारण रूप में बात करते समय यह कहीं दिखाई भी नहीं देता । | |||
378. ज्ञान अन्ततः स्वीकृति पर ही आधारित है। | |||
379. मैं जोश के साथ कहता हूँ "मैं ''जानता'' हूँ कि यह पैर है" – किन्तु इसका क्या ''अर्थ'' है? | |||
380. फिर मैं कह सकता हूँ: "इससे विपरीत संसार की कोई भी बात मुझे स्वीकार्य नहीं है!" क्योंकि मैं इस तथ्य को संपूर्ण ज्ञान का आधार मानता हूँ। मैं सब कुछ छोड़ सकता हूँ, पर इसे नहीं। | |||
381. "संसार की कोई भी बात" अभिव्यक्ति वस्तुतः एक ऐसी अभिवृत्ति है जिसके दायरे में हमारी समस्त-विश्वस्त अथवा सुनिश्चित बातें नहीं आतीं। | |||
382. इसका अर्थ यह नहीं है कि संसार की कोई भी बात मुझे किसी अन्य बात का काल नहीं बनाएगी। | |||
383. "मैं स्वप्न ले रहा हूँ" इसलिए अर्थहीन है क्योंकि: स्वप्नावस्था में की गई टिप्पणी भी तो स्वप्न ही है – और वस्तुतः इन शब्दों के सार्थक होने की बात भी स्वप्न ही है। | |||
384. "संसार की कोई भी बात..." यह किस प्रकार का वाक्य है? | |||
385. इसका आकार भावी कथन का है, किन्तु (स्पष्टतः) यह अनुभव पर आधारित नहीं है। | |||
386. मूअर के साथ जो भी यह कहता है कि वह जानता है कि ऐसा, ऐसा और ऐसा है... – वह अपनी निश्चितता की कोटि प्रस्तुत करता है। और यह महत्त्वपूर्ण है कि उस कोटि का अधिकतम महत्त्व है। | |||
387. कोई मुझसे पूछ सकता है: "आप कितनी निश्चितता से कह सकते हैं कि वहाँ एक पेड़ है; कि आपकी जेब में पैसे हैं; कि यह आपका पाँव है?" और पहले का उत्तर हो सकता है "पक्का नहीं पता", दूसरे का "लगभग निश्चित हूँ", और तीसरे का "मैं इस पर सन्देह नहीं कर सकता"। और बिना किसी आधार के भी ये उत्तर सार्थक होंगे। उदाहरणार्थ, मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी: "उसके पेड़ होने के बारे में मैं सुनिश्चित नहीं हो सकता क्योंकि मेरी नज़र तेज नहीं है"। मैं कहना चाहता हूँ: विशिष्ट अर्थ की अपेक्षा से ही मूअर का "मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है" कथन सार्थक होता है। | |||
[मेरा मानना है कि मेरी टिप्पणियाँ चिन्तनशील दार्शनिक को रोचक लगेंगी। भले ही मैं कभी-कभार ही अपने लक्ष्य तक पहुँच पाता हूँ, तो भी उसे यह तो पता चल जाएगा कि मैं निरंतर किस लक्ष्य को पाना चाहता था।] | |||
388. हम सभी ऐसे वाक्य का प्रयोग करते हैं और इसमें सन्देह नहीं कि वह सार्थक होता है। परन्तु क्या इससे किसी दार्शनिक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है? "मैं नहीं जानता कि यह सोना है या पीतल" की अपेक्षा "मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है" यह वाक्य बाह्य जगत् के अस्तित्व की सिद्धि में क्या कहीं अधिक सहायक है? | |||
18.3. | |||
389. मूअर ऐसा उदाहरण देना चाहते थे जिससे यह पता चले कि हमें भौतिक वस्तुओं के बारे में प्रतिज्ञप्तियों का वास्तविक ''ज्ञान'' हो सकता है। – यदि शरीर के किसी अंग की वेदना के बारे में विवाद हो, तो जिसके अंग में उस समय पीड़ा हो रही हो वह कह सकता है: "मैं तुम्हें निश्चित रूप से कहता हूँ कि अभी मुझे वहाँ पीड़ा हो रही है।" किन्तु यदि मूअर कहते: "मैं तुम्हें निश्चित रूप से कहता हूँ कि वह एक पेड़ है" तो यह अटपटा लगता। यहाँ किसी के व्यक्तिगत अनुभव में हमारी कोई रुचि नहीं है। | |||
390. यहाँ तो इतना ही महत्त्वपूर्ण है कि इस बात को कहने का कोई अर्थ है कि हम इस तरह की किसी चीज को जानते हैं साथ ही साथ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि ऐसी बात कहने से कुछ हासिल नहीं होता। | |||
391. ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जिसमें "मेरे पुकारने पर आप द्वार के रास्ते प्रवेश करते हैं।" सामान्यतः ऐसी स्थिति में द्वार के अस्तित्व में संशय करना असंभव है। | |||
392. मुझे तो यह दर्शाना है कि संशय की संभावना में भी संशय आवश्यक नहीं है। भाषा-खेल की संभावना इस पर निर्भर नहीं करती कि प्रत्येक संशय-योग्य बात पर संशय किया जाए। (गणित में व्याघात की भूमिका से इसका संबंध है।) | |||
393. यदि भाषा-खेल के बाहर "मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है" वाक्य को कहा जाए तो यह (संभवत: किसी हिन्दी व्याकरण से) लिया गया उद्धरण हो। – "पर जब मैं इसे सार्थक ढंग से कहता हूँ तो क्या होता है?" 'अर्थ' के प्रत्यय के बारे में पुरानी गलतफहमी। | |||
394. "यह ऐसी बातों में से है जिन पर मैं संशय नहीं कर सकता।" | |||
395. "मैं वह सब जानता हूँ।" और मेरे वार्तालाप और आचरण से इसका पता चलता है। | |||
396. (2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' I §2. (संपादक)</ref> के भाषा-खेल में क्या वह कह सकता है कि वह जानता है कि उन्हें ईंट कहते हैं? – "नहीं, पर उसे यह पता ''होता'' है।" | |||
397. क्या मैं गलत, और मूअर पूर्णत: सही हैं? क्या मैंने विचार को ज्ञान समझने जैसी साधारण भूल नहीं कर दी है? बहरहाल, यह ठीक है कि मैं अपने आप यह नहीं सोचता कि "पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से कुछ ही समय पहले से है" किन्तु इससे क्या मेरी ''जानकारी'' कम हो जाती है? क्या मैं यह नहीं जताता कि मैं इसे सर्वदा इसके परिणामों द्वारा ही जानता हूँ। | |||
398. क्या मैं बिना विचारे यह नहीं जानता कि इस घर में कोई भी सीढ़ी जमीन से नीचे छठे तल की गहराई तक नहीं जाती? | |||
399. किन्तु क्या मेरे परिणाम निकालने से केवल यही पता नहीं चलता कि मैं इस प्राक्कल्पना को स्वीकार करता हूँ? | |||
19.3. | |||
400. यहाँ मैं हवा में तलवार चला रहा हूँ क्योंकि जो बात मैं कहना चाहता हूँ उसे अभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ। | |||
401. मैं कहना चाहता हूँ: न केवल तर्कशास्त्रीय अपितु आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां भी विचारों (भाषा) का आधार होती हैं। – "मैं जानता हूँ..." इस टिप्पणी का आकार नहीं है। "मैं जानता हूँ..." अभिव्यक्ति मेरी जानकारी को अभिव्यक्त करती है, पर उसका कोई तार्किक महत्त्व नहीं है। | |||
402. इस टिप्पणी में "आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां" अभिव्यक्ति अपने-आप में बेहूदा है; प्रसंग तो भौतिक वस्तुओं के कथन का है। जैसे किसी प्राक्कल्पना के असिद्ध हो जाने पर किसी अन्य प्रतिज्ञप्ति को आधार बनाया जा सकता है वैसे ही इन प्रतिज्ञप्तियों को आधार के रूप में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।<blockquote>... और विश्वास से लिखें | |||
"आरम्भ में तो कर्म ही था।"<ref>देखें गेटे, ''फ़ाउस्ट'' I</ref></blockquote>403. मूअर के अनुसार किसी व्यक्ति के बारे में यह कहना कि उसे कुछ ''पता'' है; इसीलिए उसका कथन सर्वथा सत्य है, मुझे मिथ्या लगता है। – इस बात के सत्य होने का कारण तो इसका उस भाषा-खेल का अविचल आधार होना ही है।<references /> |