ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

no edit summary
No edit summary
No edit summary
Line 978: Line 978:
402. इस टिप्पणी में "आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां" अभिव्यक्ति अपने-आप में बेहूदा है; प्रसंग तो भौतिक वस्तुओं के कथन का है। जैसे किसी प्राक्कल्पना के असिद्ध हो जाने पर किसी अन्य प्रतिज्ञप्ति को आधार बनाया जा सकता है वैसे ही इन प्रतिज्ञप्तियों को आधार के रूप में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।<blockquote>... और विश्वास से लिखें
402. इस टिप्पणी में "आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां" अभिव्यक्ति अपने-आप में बेहूदा है; प्रसंग तो भौतिक वस्तुओं के कथन का है। जैसे किसी प्राक्कल्पना के असिद्ध हो जाने पर किसी अन्य प्रतिज्ञप्ति को आधार बनाया जा सकता है वैसे ही इन प्रतिज्ञप्तियों को आधार के रूप में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।<blockquote>... और विश्वास से लिखें


"आरम्भ में तो कर्म ही था।"<ref>देखें गेटे, ''फ़ाउस्ट'' I</ref></blockquote>403. मूअर के अनुसार किसी व्यक्ति के बारे में यह कहना कि उसे कुछ ''पता'' है; इसीलिए उसका कथन सर्वथा सत्य है, मुझे मिथ्या लगता है। – इस बात के सत्य होने का कारण तो इसका उस भाषा-खेल का अविचल आधार होना ही है।<references />
"आरम्भ में तो कर्म ही था।"<ref>देखें गेटे, ''फ़ाउस्ट'' I</ref></blockquote>403. मूअर के अनुसार किसी व्यक्ति के बारे में यह कहना कि उसे कुछ ''पता'' है; इसीलिए उसका कथन सर्वथा सत्य है, मुझे मिथ्या लगता है। – इस बात के सत्य होने का कारण तो इसका उस भाषा-खेल का अविचल आधार होना ही है।
 
404. मैं कहना चाहता हूँ: ऐसा नहीं है कि कुछ बातों के सत्य होने के बारे में मनुष्य असंदिग्ध रूप से जानते हैं। नहीं: असंदिग्धता तो उनकी मनोवृत्ति पर निर्भर करती है ।
 
405. बहरहाल यहाँ भी कोई गलती है।
 
406. साधारण रूप से की गई आकस्मिक टिप्पणी "मैं जानता हूँ कि वह एक..." और दार्शनिक की इसी टिप्पणी के भेद से भी लक्ष्य का पता चलता है।
 
407. क्योंकि मूअर के "मैं जानता हूँ कि वह..." कहने पर मैं उत्तर देता हूँ "आप कुछ भी नहीं ''जानते''!" – पर फिर भी दार्शनिक-प्रवृत्ति से रहित व्यक्ति को मैं यह उत्तर नहीं दूँगा। यानी, मुझे लगता है (ठीक ही?) कि ये दोनों व्यक्ति कोई अलग-अलग बात कहते हैं।
 
408. क्योंकि यदि कोई कहता है कि उसे अमुक बात ज्ञात है, और यह उसके दर्शन का एक भाग है – तो इस कथन के त्रुटिपूर्ण होने पर उसका दर्शन असत्य हो जाता है।
 
409. जब मैं कहता हूँ "मैं जानता हूँ कि वह पैर है" – तो वास्तव में मैं क्या कहता हूँ? क्या सारी बात यह नहीं है कि मैं इसके परिणामों के बारे में सुनिश्चित हूँ – और यह भी कि अन्य व्यक्ति के शंका करने पर मैं उसे कहता "देखो – मैंने तुम्हें ऐसा कहा था"? यदि मेरा ज्ञान व्यावहारिक कार्य में कोई सहायता नहीं करता तो क्या उसका कोई महत्त्व है? और क्या वह मुझे धोखा ''नहीं दे सकता''?
 
20.3.
 
410. हमारा ज्ञान एक बृहत् तन्त्र है। तन्त्र में ही हम किसी विशिष्ट भाग को महत्त्व प्रदान करते हैं।
 
411. यदि मैं यह (या फिर ऐसा ही कुछ और) कहता हूँ "''हम मानते'' हैं कि पिछले कई वर्षों से पृथ्वी का अस्तित्व है" तो यह अटपटा लगता है कि हम ऐसी बात को ''मानते'' हैं। किन्तु भाषा-खेलों के संपूर्ण तन्त्र में यह आधारभूत है। कहा जा सकता है कि यह मान्यता हमारे व्यवहार का, और इसीलिए स्वभावत: हमारे विचार का आधार है।
 
412. ऐसी स्थिति (और ऐसी स्थिति विरल ही है) जिसमें हम कह सकते हैं कि "मैं जानता हूँ कि यह मेरा हाथ है" की कल्पना न कर सकने वाला व्यक्ति यह कह सकता है कि ये शब्द निरर्थक हैं । वस्तुतः, वह यह भी कह सकता है "बेशक मैं जानता हूँ – मैं इसे कैसे नहीं जानूँगा?" – पर तब वह संभवतः "यह मेरा हाथ है" इस वाक्य को "मेरा हाथ" शब्दों की ''व्याख्या'' के रूप में लेता है।
 
413. मान लीजिए कि आप किसी अंधे का हाथ पकड़ कर उसका मार्गदर्शन करते हुए उसे कहते हैं: "यह मेरा हाथ है'; यदि तब वह कहे "क्या आपको निश्चय है?" अथवा "क्या आप जानते हैं कि यह आपका हाथ है?" तो ये प्रश्न अत्यन्त विशिष्ट परिस्थितियों में ही सार्थक होंगे।
 
414. किन्तु दूसरी ओर: मैं कैसे ''जानता'' हूँ कि यह मेरा हाथ है? क्या मुझे इतना भी पूरी तरह पता है कि यहाँ यह मेरा हाथ है कहने का क्या अर्थ है? – जब मैं यह कहता हूँ कि "मुझे कैसे पता है?" तो मेरा अर्थ यह नहीं होता कि इसके बारे में मुझे कोई ''संशय'' है। यह तो मेरे व्यवहार का आधार है। किन्तु मुझे लगता है कि "मैं जानता हूँ" शब्दों द्वारा इसे गलत ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
 
415. वस्तुतः, "जानना" शब्द का मुख्य रूप से दार्शनिक शब्द के रूप में प्रयोग ही क्या बिल्कुल गलत नहीं है? यदि "जानने" का यह प्रयोग है तो "निश्चित होने" का क्यों नहीं? वस्तुतः इसलिए कि यह अत्यधिक व्यक्ति-सापेक्ष हो जाएगा। किन्तु क्या "जानना" भी ''उतना ही'' मनोगत नहीं होता? कहीं हम इस व्याकरणिक विशिष्टता सेतो भ्रमित नहीं हो जाते कि "मैं जानता हूँ कि प" से "प" निष्पन्न होता है?
 
"मुझे विश्वास है कि मैं जानता हूँ" इससे कोई कम निश्चितता तो अभिव्यक्त नहीं होती। – यह ठीक है कि हम किसी बड़ी मनोगत निश्चितता को भी अभिव्यक्त करने का प्रयत्न नहीं कर रहे, अपितु हम तो यह कह रहे हैं कि कुछ बातें सभी प्रश्नों एवं सारे विचारों के मूल में प्रतीत होती हैं।
 
416. यह बात कि मैं पिछले कई सप्ताहों से इस कमरे में रह रहा हूँ और यहाँ मेरी स्मृति मुझे धोखा नहीं दे रही क्या इस बात का उदाहरण नहीं है?
 
– "सारे युक्तियुक्त संशयों से रहित असंदिग्ध" –
 
21.3.
 
417. "मैं जानता हूँ कि पिछले एक महीने से मैं प्रतिदिन स्नान कर रहा हूँ।" मैं किस चीज का स्मरण कर रहा हूँ? प्रतिदिन को और प्रात: के प्रति स्नान को? नहीं। मैं ''जानता'' हूँ कि मैंने प्रतिदिन स्नान किया पर मैं इसे किसी अन्य तात्कालिक बात से निष्पादित नहीं करता। इसी प्रकार अपने मन में (उदाहरणार्थ किसी बिम्ब के द्वारा) देह के किसी भाग को लाए बिना मैं कहता हूँ कि "मुझे अपनी बाँह में पीड़ा हुई"।
 
418. क्या मेरी समझ अपनी समझ की कमी पर पर्दा डाल देती है? मुझे अक्सर ऐसा लगता है।
 
419. जब मैं कहता हूँ कि "मैं कभी भी एशिया माइनर नहीं गया हूँ" तो मुझे इसका कैसे पता चलता है? न तो मैंने इसे सीखा है और न ही किसी ने मुझे इसके बारे में बताया है; मेरी स्मृति मुझे यह बताती है। – अतः, मैं इस बारे में भूल नहीं कर सकता? क्या इसमें कोई ऐसी सच्चाई है जिसे मैं ''जानता'' हूँ? – इस निर्णय को निरस्त करने के लिए मुझे अन्य सभी निर्णयों को निरस्त करना होगा।
 
420. मैं आजकल इंगलैण्ड में रहता हूँ इस प्रतिज्ञप्ति के भी दो पक्ष हैं: यह ''गलत'' नहीं है – पर दूसरी ओर मैं इंगलैण्ड के बारे में क्या जानता हूँ? क्या मेरा निर्णय खंड-खंड नहीं हो सकता?
 
क्या यह संभव नहीं है कि लोग मेरे कमरे में आयें और इससे विपरीत बात कहें? – और अपनी बात का 'प्रमाण' भी दें, जिससे मैं सामान्य लोगों में अकेला पागल या फिर पागलों में एकाकी सामान्य व्यक्ति दिखाई दूँ? क्या तब मैं उन बातों पर भी संशय नहीं करूँगा जो अभी मुझे संशय से रहित प्रतीत होती हैं?
 
421. मैं इंगलैण्ड में हूँ। – अपने संपूर्ण परिवेश से मुझे यह पता चलता है; जहाँ भी और जैसे भी मैं इस पर विचार करता हूँ, मेरा परिवेश पूर्णतः इसकी पुष्टि करता<references />