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क्या यह संभव नहीं है कि लोग मेरे कमरे में आयें और इससे विपरीत बात कहें? – और अपनी बात का 'प्रमाण' भी दें, जिससे मैं सामान्य लोगों में अकेला पागल या फिर पागलों में एकाकी सामान्य व्यक्ति दिखाई दूँ? क्या तब मैं उन बातों पर भी संशय नहीं करूँगा जो अभी मुझे संशय से रहित प्रतीत होती हैं? | क्या यह संभव नहीं है कि लोग मेरे कमरे में आयें और इससे विपरीत बात कहें? – और अपनी बात का 'प्रमाण' भी दें, जिससे मैं सामान्य लोगों में अकेला पागल या फिर पागलों में एकाकी सामान्य व्यक्ति दिखाई दूँ? क्या तब मैं उन बातों पर भी संशय नहीं करूँगा जो अभी मुझे संशय से रहित प्रतीत होती हैं? | ||
421. मैं इंगलैण्ड में हूँ। – अपने संपूर्ण परिवेश से मुझे यह पता चलता है; जहाँ भी और जैसे भी मैं इस पर विचार करता हूँ, मेरा परिवेश पूर्णतः इसकी पुष्टि करता<references /> | 421. मैं इंगलैण्ड में हूँ। – अपने संपूर्ण परिवेश से मुझे यह पता चलता है; जहाँ भी और जैसे भी मैं इस पर विचार करता हूँ, मेरा परिवेश पूर्णतः इसकी पुष्टि करता है। – किन्तु, जिसकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने पर क्या मैं स्थिर रह सकूँगा? | ||
422. अतः, मैं उपयोगितावाद जैसी कोई बात कहने का प्रयास कर रहा हूँ। | |||
यहाँ एक प्रकार की ''वेल्टानशाऊँग'' (विश्व-दृष्टि) मेरे आड़े आ रही है। | |||
423. तो मूअर की भाँति मैं यह ही क्यों नहीं कहता कि "मैं ''जानता'' हूँ कि मैं इंगलैण्ड में हूँ"? ऐसा कहना ''विशिष्ट परिस्थितियों में'' सार्थक होता है और मैं उनकी कल्पना कर सकता हूँ। किन्तु, जब मैं इन परिस्थितियों के बिना इस वाक्य को इसलिए उदाहृत करने को कहता हूँ कि मैं इस प्रकार के सत्यों को निश्चितता के साथ जान सकता हूँ, तो यकायक यह मुझे संदिग्ध लगने लगता है। – क्या ऐसा होना चाहिए? | |||
424. "मैं जानता हूँ कि प" ऐसा मैं या तो लोगों को यह बताने के लिए कहता हूँ कि मुझे भी प के सत्य होने के बारे में पता है, या फिर ऐसा मैं। – प सिद्ध है पर बल देने के लिए ही कहता हूँ। हम यह भी कहते हैं "यह मेरा विश्वास नहीं है, मैं इसे जानता हूँ"। और इसे (उदाहरणार्थ) ऐसे भी कहा जा सकता है : "वह एक पेड़ है। कोई कपोल-कल्पना नहीं है।" | |||
किन्तु इसके बारे में क्या कहेंगे: "यदि मैं किसी को कहता कि वह एक पेड़ है तो यह कोई कपोल-कल्पना नहीं होती।" क्या मूअर यही नहीं कहना चाहते? | |||
425. यह कोई कपोल-कल्पना नहीं है, और मैं किसी को भी असंदिग्ध रूप से पूर्ण निश्चितता के साथ यह बता सकता हूँ । किन्तु क्या इसका अर्थ है कि यह पूर्ण सत्य है? क्या यह सम्भव नहीं कि जिसे मैंने जीवन पर्यंत पेड़ के रूप में देखा हो और जिसे पूरी निश्चितता से चीह्ना हो – पता चले कि वह तो कोई भिन्न वस्तु है? क्या इससे मैं हैरान नहीं हो जाऊँगा? | |||
पर फिर भी, इस वाक्य को अर्थ प्रदान करने वाली परिस्थितियों में यह कहना ठीक है कि "मैं जानता हूँ (यह मेरी कपोल-कल्पना नहीं है कि) वह एक पेड़ है"। यह कहना गलत होगा कि वास्तव में मैं इस पर विश्वास ही करता हूँ। यह कहना पूर्णत: भ्रामक होगा: "मेरा विश्वास है कि मेरा नाम लु. वि. है।" और यह भी ठीक है: इस बारे में मैं कोई गलती नहीं कर सकता। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मैं इसके बारे में कभी भूल कर ही नहीं सकता। | |||
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426. किन्तु हम कैसे दिखा सकते हैं कि हमें केवल इन्द्रिय-प्रदत्तों का ही नहीं, अपितु वस्तुओं के सत्यों का भी ज्ञान होता है। क्योंकि किसी का यह कह देना कि ''उसे'' ज्ञान है अपने आप में पर्याप्त नहीं है । | |||
यह दिखाने के लिए हमें कहाँ से प्रारंभ करना होगा? | |||
22.3. | |||
427. हमें यह दिखलाने की आवश्यकता है कि "मैं जानता हूँ..." अभिव्यक्ति के कभी भी प्रयोग न किए जाने पर भी व्यक्ति के व्यवहार से हमें तत्सम्बन्धी बात का पता चल ही जाता है । | |||
428. मान लीजिए कि साधारण व्यवहार करने वाला कोई व्यक्ति हमें आश्वासन दे कि उसे ''विश्वास'' है कि उसका अमुक नाम है, उसे ''विश्वास'' है कि वह अपने आस-पास रहने वाले लोगों को पहचानता है, उसे विश्वास है कि हाथों और पैरों को न देखने की स्थिति में भी उसके हाथ-पैर होते हैं, इत्यादि। क्या हम उसे दिखा सकते हैं कि उसके क्रिया-कलाप (और उसके कथन) दर्शाते हैं कि ऐसा नहीं है? | |||
23.3.51 | |||
429. अब जब मैं अपनी पैर की अंगुलियों को नहीं देख रहा, तब मेरी इस धारणा का क्या आधार है कि मेरे दोनों पैरों में पाँच-पाँच अंगुलियां हैं? | |||
क्या यह कहना उचित है कि मेरे अभी तक के अनुभव ने मुझे सदा यही सिखाया है ? क्या मैं अपने पूर्वानुभव पर अपनी दस पादांगुलियां होने से भी कहीं अधिक आश्वस्त हूँ? | |||
मेरा पूर्वानुभव मेरी वर्तमान निश्चयात्मकता का ''कारण'' तो हो सकता है; किन्तु क्या यह इसका आधार है? | |||
430. मैं किसी मंगलग्रह वासी से मिलता हूँ और वह मुझसे पूछता है "मनुष्यों की कितनी पादांगुलियां होती हैं? – मैं कहता हूँ "दस। मैं आपको दिखाता हूँ"। यह कहकर मैं अपने जूते उतार देता हूँ। मान लीजिए कि वह इस बात पर हैरान होता है कि पैरों को देखे बिना ही मैं इतना आश्वस्त हूँ तो क्या मुझे कहना चाहिए: पादांगुलियों को देखे बगैर हम मनुष्यों को पता होता है कि हमारी कितनी पादांगुलियां हैं"? | |||
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431. "मैं जानता हूँ कि यह कमरा दूसरी मंजिल पर है, दरवाज़े के पीछे एक संकरा गलियारा सीढ़ियों तक जाता है, इत्यादि, इत्यादि।" ऐसी परिस्थितियों की कल्पना की जा सकती है जिनमें मैं ऐसा कहूँ, किन्तु वे विरल ही होंगी। पर दूसरी ओर मैं दिन-प्रतिदिन अपने व्यवहार और कथनों द्वारा इस ज्ञान को प्रदर्शित करता रहता हूँ। | |||
मेरे ऐसे व्यवहार और शब्दों का कोई अन्य व्यक्ति क्या अर्थ लगाता है? क्या इतना ही नहीं कि मैं अपने आधारों के बारे में आश्वस्त हूँ? – मैं यहाँ कई सप्ताहों से रह रहा हूँ और प्रतिदिन कई बार ऊपर-नीचे आता-जाता रहता हूँ, इस तथ्य से वह यह नहीं जान जाता कि मुझे ''पता'' है कि मेरा कमरा कहाँ है। – "मैं जानता हूँ" कहकर मैं उसे तभी आश्वस्त करता हूँ जब उसे पहले से ही उन बातों के बारे में पता ''नही'' होता जिनसे अनिवार्यतः यह निष्कर्ष निकलता है कि मुझे पता है। | |||
432. "मैं जानता हूँ..." कथन का अर्थ मेरे द्वारा 'जानने' के अन्य प्रमाणों से संबद्ध होने पर ही होता है। | |||
433. अत:, जब मैं किसी को कहता हूँ कि "मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है" तो यह मेरे द्वारा उसे यह कहने जैसा होता है कि "वह एक पेड़ है; आप इस बात पर पूरी तरह विश्वास कर सकते हैं; इसमें कोई संदेह नहीं है"। और कोई दार्शनिक इस कथन का प्रयोग केवल यह प्रदर्शित करने के लिए करता है कि बातचीत में वस्तुतः ऐसा प्रयोग होता है। किन्तु, यदि उसका प्रयोग हिन्दी-व्याकरण पर टिप्पणी नहीं होती, तो उसे इस अभिव्यक्ति के कार्य-व्यापार का ब्योरा देना होगा। | |||
434. क्या हमें ''अनुभव'' से पता चलता है कि अमुक-अमुक परिस्थितियों में लोगों को अमुक-अमुक बात का पता चलता है? यकीनन, अनुभव हमें बतलाता है कि, किसी घर में अमुक समय तक रहने के बाद, साधारणतः, मनुष्य को घर के बारे में पता चल जाता है। या फिर: अनुभव से हमें पता चलता है कि अमुक समय के प्रशिक्षण के बाद, प्रशिक्षणार्थी की राय पर विश्वास किया जा सकता है। अनुभव से हमें पता चलता है कि अमुक समय के प्रशिक्षण के बाद ही वह ठीक विश्लेषण कर सकता है। किन्तु – – – । | |||
27.3. | |||
435. बहुधा कोई शब्द हमें सम्मोहित कर लेता है। उदाहरणार्थ, "जानना" शब्द। | |||
436. क्या ईश्वर हमारे ज्ञान से बंधा हुआ है? क्या हमारे अनेक कथन झूठे नहीं हो सकते? क्योंकि हम यही कहना चाहते हैं। | |||
437. मैं कहना चाहता हूँ: "यह झूठ ''नहीं हो सकता''।" यह महत्त्वपूर्ण है; किन्तु इसके परिणाम क्या हैं? | |||
438. अपनी जानने की स्थिति के आधारों के बारे में उसे सन्तुष्ट किये बिना केवल यह कहने से कोई आश्वस्त नहीं होगा कि मैं जानता हूँ कि अमुक स्थान पर क्या हो रहा है? | |||
439." मैं जानता हूँ कि इस दरवाज़े के पीछे एक गलियारा है और भूतल पर जाने वाली सीढ़ी है" इस कथन की विश्वसनीयता का कारण यही है कि सभी को पता है कि मैं इस बात को जानता हूँ। | |||
440. यहाँ व्यक्तिगत बात न होकर कोई सार्वभौमिक बात है । | |||
441. न्यायालय में किसी साक्षी के केवल "मैं जानता हूँ..." कहने से कोई भी आश्वस्त नहीं होता। यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि वह जानने की स्थिति में था । | |||
अपने ही हाथ को देखते हुए "मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है" यह आश्वासन भी तब तक विश्वसनीय नहीं होता जब तक हमें उन परिस्थितियों का पता न हो जिनमें ऐसा कहा गया हो। ऐसी जानकारी होने पर ही यह निश्चय होता है कि वक्ता इस लिहाज़ से सामान्य है। | |||
442. क्या यह सम्भव नहीं कि मैंने ऐसा ''मान लिया'' है कि मैं किसी बात को जानता हूँ? | |||
443. मान लीजिए कि किसी भाषा में हमारी भाषा के "जानने" शब्द के अनुरूप कोई शब्द ही न हो। – लोग केवल टिप्पणी ही करते हों। ("वह एक पेड़ है",<references /> |