ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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इसीलिए, आदेश पालन के लिए किसी निर्भ्रान्त आनुभविक तथ्य की आवश्यकता होती है। संदेह, निर्भ्रान्त तथ्य पर आधारित होता है।
इसीलिए, आदेश पालन के लिए किसी निर्भ्रान्त आनुभविक तथ्य की आवश्यकता होती है। संदेह, निर्भ्रान्त तथ्य पर आधारित होता है।
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किन्तु, भाषा-खेल के कालानुरूप नियमों की पुनरावृत्ति में निहित होने के कारण यह कहना असंभव लगता है कि भाषा-खेल के अस्तित्व के लिए किसी ''विशिष्ट'' स्थिति में कौनसी बात संशयातीत होनी चाहिए – यद्यपि यह कहना तो ठीक ही है कि ''साधारणतया'' कोई आनुभविक निर्णय संदेहातीत होना चाहिए।
 
13.4.
 
520. मूअर को यह कहने का पूर्ण अधिकार है कि उन्हें पता है कि उनके समक्ष एक पेड़ विद्यमान है । यह स्वाभाविक है कि वे गलत हो सकते हैं । (क्योंकि यह "मुझे विश्वास है कि वह एक पेड़ है" अभिव्यक्ति जैसा ''नहीं'' है।) किन्तु उनके ठीक या गलत होने का कोई दार्शनिक महत्त्व नहीं है। यदि मूअर उन लोगों पर आक्षेप कर रहें हैं जिनका कहना है कि हमें ऐसी बातों का ज्ञान हो ही नहीं सकता, तो वह उनको यह कहकर आश्वस्त नहीं कर सकते कि उन्हें अमुक-अमुक बात ज्ञात है। मूअर पर विश्वास करना आवश्यक नहीं है। यदि उनके विरोधी यह कहते कि हम अमुक-अमुक बात पर विश्वास नहीं कर सकते तो मूअर यह उत्तर दे सकते थे: "मुझे इस पर विश्वास है।"
 
14.4
 
521. मूअर की गलती यह है कि – वे "हम उसे जान ही नहीं सकते" इस कथन का प्रत्युत्तर "मैं तो इसे जानता हूँ" कहकर देते हैं।
 
522. हम कहते हैं: यदि किसी बच्चे ने भाषा पर – और इसीलिए उसके प्रयोग पर – अधिकार प्राप्त कर लिया है तो उसे शब्दार्थ का ज्ञान होना ही चाहिए। उदाहरणार्थ, उसे निस्संदिग्ध रूप से वस्तुओं के रंग के अनुरूप श्वेत, श्याम, रक्त या नीला कहना आना चाहिए।
 
523. और वस्तुत: यहाँ संदेह का अभाव किसी को भी नहीं खटकता; इस बात से कोई भी चकित नहीं होता कि हम अपने शब्दार्थ के बारे में ''अनुमान'' भी नहीं लगाते।
 
15.4.
 
524. क्या हमारे भाषा-खेलों (उदाहरणार्थ, 'आदेश देना और उसका पालन करना') के लिए यह अनिवार्य है कि किन्हीं विशिष्ट बातों पर संदेह किया ही नहीं जा सकता, या फिर यही काफी है कि संदेह की गुंजाइश रहने पर भी हमें असंदिग्धता की अनुभूति हो?
 
यानी, क्या यही काफी है कि जिन वस्तुओं को मैं अभी ''सीधे-सीधे'' 'श्याम' 'हरित' 'रक्त' कहता हूँ, उन्हें ऐसा न कहकर – यह कहने लगूँ कि "मुझे निश्चय है कि वह रक्त है", जैसे हम कहते हैं कि "मुझे निश्चय है कि वह आज आएगा" (दूसरे शब्दों में 'निश्चयात्मकता' के साथ)?
 
बेशक, जैसे हम सहगामी अनुभूति के प्रति तटस्थ हैं, उसी प्रकार हमें "मुझे निश्चय है" जैसे शब्दों की परवाह करने की आवश्यकता नहीं है। – महत्त्वपूर्ण तो यह है कि उनसे भाषा के ''प्रयोग'' में कोई अन्तर पड़ता है या नहीं।
 
पूछा जा सकता है कि क्या ऐसा कहने वाला व्यक्ति उन सभी परिस्थितियों में (उदाहरणार्थ) जिनमें हमारे वर्णनों में निश्चितता का भाव हो (उदाहरणार्थ, किसी ऐसे प्रयोग, जिसमें, परखनली के माध्यम से देखने पर हमें दिखाई देने वाले रंगों का वर्णन देना हो) सदैव यह कहेगा कि "मैं आश्वस्त हूँ"। ऐसा कहने पर हम तुरन्त उसके कथन की जाँच करना चाहेंगे। किन्तु, उसके पूरी तरह ठीक निकलने पर हमें कहना पड़ेगा कि उसका बात करने का ढंग थोड़ा अटपटा है पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । उदाहरणार्थ, हम यह मान सकते हैं कि उसने संशयवादी दार्शनिकों को हृदयंगम कर लिया है, और उनकी इस बात से आश्वस्त हो गया है कि हमें किसी भी बात का ज्ञान नहीं हो सकता और इसीलिए वह इस ढंग से बातचीत करता है। उसके वार्तालाप के ढंग के आदी होने पर हमारे व्यवहार पर कोई असर नहीं पड़ता।
 
525. उदाहरणार्थ, हमारे और किसी अन्य व्यक्ति के मध्य रंगों और उनके नामों के अन्त:सम्बन्ध को समझने में दृष्टिभेद होने की स्थिति में क्या होगा? यानी, जहाँ उनके रंगों और रंग-नाम-प्रयोग में थोड़े सन्देह, या संदेह की सम्भावना हो ।
 
16.4.
 
526. ब्रिटेन में किसी डाक-पेटी को देखकर यदि कोई कहे "मुझे निश्चय है कि वह लाल रंग की है", तो हमें मानना पड़ेगा कि वह दृष्टिदोष से पीड़ित है, या फिर यह कि उसे हिन्दी का पर्याप्त ज्ञान नहीं है, और वह किसी अन्य भाषा में उस रंग का नाम जानता है।
 
यदि ये दोनों स्थितियां नहीं हैं तो हम उसकी बात समझ ही नहीं पाएंगे।
 
527. इस रंग को "लाल" कहने वाले हिन्दी-भाषी को 'इस बात का निश्चय नहीं है कि उस रंग को हिन्दी में "लाल" कहते हैं'।
 
इस शब्द-प्रयोग में कुशल शिशु को 'इस बात का निश्चय' नहीं होता 'कि उसकी भाषा में यह रंग... कहलाता है'। न ही यह कहा जा सकता है कि बोलना सीखते समय ही वह यह भी सीख जाता है कि उस रंग को हिन्दी में यह कहते हैं; न ही यह कहा जा सकता है: शब्द के प्रयोग को सीखने पर वह इस बात को ''जान जाता'' है।
 
528. तिस पर भी: यह पूछने पर कि इस रंग को हिन्दी भाषा में क्या कहते हैं, यदि मेरे जवाब देने पर वह पूछता है "क्या आप आश्वस्त हैं?" – तो मैं उसे उत्तर देता हूँ "मैं इसे ''जानता'' हूँ; हिन्दी मेरी मातृ-भाषा है"।
 
529. उदाहरणार्थ, एक शिशु किसी अन्य शिशु के बारे में या फिर अपने ही बारे में कहेगा कि उसे पहले से ही ज्ञात है कि अमुक वस्तु का क्या अभिधान है।
 
530. मैं किसी को (उदाहरणार्थ, उसे हिन्दी सिखाते समय) कह सकता हूँ कि "इस रंग को हिन्दी में 'लाल' कहते हैं"। इस स्थिति में मुझे यह नहीं कहना चाहिए कि "मैं जानता हूँ कि इस रंग को..." – संभवतः, मैं ऐसा तभी कहूँगा जब मैंने इसे हाल ही में सीखा हो, या फिर मैं इसे तब कहूँगा जब मुझे उसकी किसी ऐसे रंग के नाम से तुलना करनी हो जिससे मैं अपरिचित हूँ ।
 
531. किन्तु, क्या मेरी वर्तमान स्थिति का उचित विवरण निम्नलिखित नही होगा: मैं ''जानता'' हूँ कि इस रंग को हिन्दी में क्या कहते हैं? और यदि यह ठीक है तो मैं अपनी स्थिति का वर्णन उसके अनुरूप "मैं जानता हूँ इत्यादि" शब्दों द्वारा क्यों नहीं दे सकता?
 
532. अत:, जब मूअर पेड़ के सामने बैठे हुए कह रहे थे "मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है" तो वह उस समय की अपनी स्थिति का ठीक-ठीक विवरण ही दें रहे थे।
 
[अब मेरे दार्शनिक-चिन्तन की स्थिति उस बुढ़िया के समान है जो सदैव वस्तुओं को: कभी ऐनक को, कभी अपनी चाबियों को, गलत स्थान पर रख देती है और फिर उन्हें खोजती रहती है।]
 
533. यदि किसी संदर्भ के बिना उनकी स्थिति का वर्णन करना उचित था, तो सन्दर्भहीन "वह एक पेड़ है" शब्दों को कहना भी उतना ही उचित है।
 
534. किन्तु क्या यह कहना गलत है: "किसी भाषा-खेल में कुशल शिशु को कतिपय विशिष्ट बातें ''पता'' होनी चाहिएं"?
 
यदि इसके विपरीत कोई कहे "कुछ विशिष्ट बातें ''करने योग्य'' होना ही चाहिए" तो चाहे यह पुनरुक्ति ही हो, फिर भी मैं पहले वाले वाक्य का इससे प्रतिकार करना चाहूँगा। – किन्तु: "शिशु प्राकृतिक इतिहास का ज्ञान प्राप्त करता है"। इसकी पूर्वमान्यता यह है कि वह पूछ सकता है कि अमुक पौधे का क्या नाम है।
 
535. शिशु तभी किसी वस्तु का नाम जानता है जब वह इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर दे सके कि "उसे क्या कहते हैं?"।
 
536. यह स्वाभाविक ही है कि हाल ही में बोलना सीखने वाले शिशु को ''अभिधान'' प्रत्यय की समझ होती ही नहीं।
 
537. इस प्रत्यय को न समझने वाले व्यक्ति के बारे में क्या यह कहा जा सकता है कि वह ''जानता'' है कि अमुक वस्तु का क्या नाम है?
 
538. मैं कहना चाहूँगा कि शिशु अमुक-अमुक ढंग से प्रतिक्रिया करना सीखता है; और इस प्रकार की प्रतिक्रिया करते हुए वह कुछ भी नहीं जानता। जानना तो बाद की स्थिति है।
 
539. क्या जानना संग्रह करने जैसा है?
 
540. कुत्ता "न" की और "म" की आवाजें सुन कर न और म के पास जाना सीख जाता है, परन्तु इसका यह तो अभिप्राय नहीं कि कुत्ता उनके नाम जानता है?
 
541. "वह इस व्यक्ति के नाम को तो जानता है – परन्तु उस व्यक्ति के नाम को नहीं"। यह बात हम उस व्यक्ति के बारे में तो कह ही नहीं सकते जो अभिधान के प्रत्यय से अनभिज्ञ है।
 
542. "यह जाने बिना कि इस रंग को 'लाल' कहते हैं मैं इस फूल का वर्णन नहीं: दे सकता।"
 
543. "मैं इसका नाम जानता हूँ; मैं अभी तक उसका नाम नहीं जानता" यह कह सकने की स्थिति से पूर्व शिशु लोगों के नामों का प्रयोग कर सकता है।
 
544. बेशक (उदाहरणार्थ), ताज़े खून को इंगित करते हुए मैं सच्चाई से कह सकता हूँ कि "मैं जानता हूँ कि इस रंग को हिन्दी में क्या कहते हैं"। किन्तु – – –
 
17.4.
 
545. 'शिशु जानता है कि "नीला" शब्द किस रंग का द्योतक है।' उसकी जानकारी इतनी सरल नहीं है।
 
546. यदि, उदाहरणार्थ, प्रश्न किसी ऐसे रंग का हो जिसका नाम सभी नहीं जानते, तो मुझे कहना चाहिए कि "मैं इस रंग का नाम जानता हूँ"।
 
547. "लाल" और "नीला" शब्दों को हाल ही में बोलना और प्रयोग करना आरम्भ करने वाले शिशु को हम यह नहीं कह सकते: "बताओ, तुम तो इस रंग का नाम जानते हो!"।
 
548. किसी रंग का नाम पूछने से पहले शिशु को रंग-शब्दों के प्रयोग को सीखना पड़ता है।
 
549. यह कहना गलत होगा कि किसी आराम-कुर्सी के विद्यमान रहने पर ही मैं यह कह सकता हूँ कि "मैं जानता हूँ कि वह एक आराम-कुर्सी है"। बेशक आराम-कुर्सी की अविद्यमानता में मेरा यह कहना सत्य नहीं होगा, किन्तु यदि मैं ''निश्चित'' हूँ कि वह एक कुर्सी है तो चाहे मैं गलती पर भी क्यों न होऊँ मुझे ऐसा कहने का अधिकार है।
 
[दार्शनिक की चिन्तन-क्षमता में उसकी महत्त्वाकांक्षा बाधक है।]
 
18.4.
 
550. जब कोई किसी बात पर विश्वास करता है तब हम सदैव इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते 'वह उस पर विश्वास क्यों करता है?'; किन्तु यदि वह किसी बात को जानता है तो इस प्रश्न का उत्तर होना ही चाहिए कि "वह कैसे जानता है?"।<references />