ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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{{ParUG|9}} तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है?
{{ParUG|9}} तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है?


{{ParUG|10}} मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि 'मैं यहाँ हूँ।' तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो “कभी” और न ही 'सदा' – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है। और “मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है” यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि “मैं जानता हूँ कि...” शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
{{ParUG|10}} मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि ‘मैं यहाँ हूँ।’ तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो “कभी” और न ही ‘सदा’ – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है। और “मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है” यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि “मैं जानता हूँ कि...” शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती।


{{ParUG|11}} “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते।
{{ParUG|11}} “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते।
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{{ParUG|20}} उदाहरणार्थ, “बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने” का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो। – या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।
{{ParUG|20}} उदाहरणार्थ, “बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने” का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो। – या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।


{{ParUG|21}} वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है: 'जानने' के प्रत्यय में और 'विश्वास होने', 'अनुमान करने', 'संशय करने', 'कायल होने' जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि “मैं जानता हूँ कि...” कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ “मैं समझता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है।–किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए – किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता।
{{ParUG|21}} वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है: ‘जानने’ के प्रत्यय में और ‘विश्वास होने’, ‘अनुमान करने’, ‘संशय करने’, ‘कायल होने’ जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि “मैं जानता हूँ कि...” कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ “मैं समझता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है।–किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए – किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता।


{{ParUG|22}} यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है “मैं भूल नहीं कर सकता”; या फिर जो कहता है “मैं गलत नहीं हूँ”, तो यह बात विचित्र ही होगी।
{{ParUG|22}} यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है “मैं भूल नहीं कर सकता”; या फिर जो कहता है “मैं गलत नहीं हूँ”, तो यह बात विचित्र ही होगी।
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{{ParUG|27}} फिर भी, यदि हम यहाँ नियम जैसी कोई चीज बनाना चाहें तो उसमें हमें यह कहना होगा कि वह “सामान्य परिस्थितियों में” ही लागू होता है। सामान्य परिस्थितियों को हम पहचानते तो हैं किन्तु उनका हूबहू विवरण नहीं दे सकते अधिकाधिक हम कुछ असामान्य परिस्थितियों का वर्णन कर सकते हैं।
{{ParUG|27}} फिर भी, यदि हम यहाँ नियम जैसी कोई चीज बनाना चाहें तो उसमें हमें यह कहना होगा कि वह “सामान्य परिस्थितियों में” ही लागू होता है। सामान्य परिस्थितियों को हम पहचानते तो हैं किन्तु उनका हूबहू विवरण नहीं दे सकते अधिकाधिक हम कुछ असामान्य परिस्थितियों का वर्णन कर सकते हैं।


{{ParUG|28}} 'नियम सीखने' का क्या अभिप्राय है? ''यह''।
{{ParUG|28}} ‘नियम सीखने’ का क्या अभिप्राय है? ''यह''।


'उस नियम-प्रयोग में भूल' का क्या अभिप्राय है? – ''यह''। और ऐसा कहते समय किसी अनिश्चित विषय को इंगित किया जाता है।
‘उस नियम-प्रयोग में भूल’ का क्या अभिप्राय है? – ''यह''। और ऐसा कहते समय किसी अनिश्चित विषय को इंगित किया जाता है।


{{ParUG|29}} नियम प्रयोग के अभ्यास से भी प्रायोगिक-दोष का पता चलता है।
{{ParUG|29}} नियम प्रयोग के अभ्यास से भी प्रायोगिक-दोष का पता चलता है।
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{{ParUG|37}} “भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है” इस अभिव्यक्ति को निरर्थक कहने से क्या किसी प्रत्ययवादी के सन्देह अथवा किसी यथार्थवादी के विश्वास का समुचित उत्तर दिया जा सकता है। उनके लिए तो यह निरर्थक नहीं है। बेशक ऐसा कहना एक हल . हो सकता है: यह कथन या इस कथन का विलोम किसी ऐसी अनिर्वचनीय बात को कहने का असफल प्रयास है। सिद्ध किया जा सकता है कि यह एक असफल प्रयास है; किन्तु बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। हमें यह समझना चाहिए कि, यह संभव है कि, किसी समस्या या उसके समाधान की हमारी पहली सूझ ठीक से अभिव्यक्त ही न हुई हो। जैसे फिल्म की सम्यक् समीक्षा के लिए समीक्षक सर्वप्रथम सर्वाङ्गीण आलोचना करता है पर बाद में अपनी सर्वाङ्गीण-आलोचना की ''पड़ताल'' के बाद ही सही समीक्षा कर पाता है।
{{ParUG|37}} “भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है” इस अभिव्यक्ति को निरर्थक कहने से क्या किसी प्रत्ययवादी के सन्देह अथवा किसी यथार्थवादी के विश्वास का समुचित उत्तर दिया जा सकता है। उनके लिए तो यह निरर्थक नहीं है। बेशक ऐसा कहना एक हल . हो सकता है: यह कथन या इस कथन का विलोम किसी ऐसी अनिर्वचनीय बात को कहने का असफल प्रयास है। सिद्ध किया जा सकता है कि यह एक असफल प्रयास है; किन्तु बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। हमें यह समझना चाहिए कि, यह संभव है कि, किसी समस्या या उसके समाधान की हमारी पहली सूझ ठीक से अभिव्यक्त ही न हुई हो। जैसे फिल्म की सम्यक् समीक्षा के लिए समीक्षक सर्वप्रथम सर्वाङ्गीण आलोचना करता है पर बाद में अपनी सर्वाङ्गीण-आलोचना की ''पड़ताल'' के बाद ही सही समीक्षा कर पाता है।


{{ParUG|38}} गणित में ज्ञान: इसमें हमें 'भीतरी प्रक्रिया' अथवा 'स्थिति' की महत्त्वहीनता का निरंतर स्मरण रखना पड़ता है, और निरन्तर यह याद रखना पड़ता है “इसे महत्त्वपूर्ण क्यों होना चाहिए? मुझे इससे क्या लेना-देना?” गणितीय प्रतिज्ञप्तियों का प्रयोग ही महत्त्वपूर्ण होता है।
{{ParUG|38}} गणित में ज्ञान: इसमें हमें ‘भीतरी प्रक्रिया’ अथवा ‘स्थिति’ की महत्त्वहीनता का निरंतर स्मरण रखना पड़ता है, और निरन्तर यह याद रखना पड़ता है “इसे महत्त्वपूर्ण क्यों होना चाहिए? मुझे इससे क्या लेना-देना?” गणितीय प्रतिज्ञप्तियों का प्रयोग ही महत्त्वपूर्ण होता है।


{{ParUG|39}} परिकलन ''ऐसे'' ही किये जाते हैं, अमुक परिस्थितियों में परिकलन पूर्णत: विश्वसनीय और बिल्कुल सही ''माना'' जा सकता है।
{{ParUG|39}} परिकलन ''ऐसे'' ही किये जाते हैं, अमुक परिस्थितियों में परिकलन पूर्णत: विश्वसनीय और बिल्कुल सही ''माना'' जा सकता है।
Line 97: Line 97:
{{ParUG|41}} “मैं जानता हूँ कि मुझे पीड़ा कहाँ हो रही है”, “मैं जानता हूँ कि मुझे ''यहाँ'' पीड़ा हो रही है” यह कहना उतना ही गलत है जितना “मैं जानता हूँ कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ”। किन्तु “मैं जानता हूँ कि आपने मेरी बाँह को कहाँ छुआ” यह कहना उचित।
{{ParUG|41}} “मैं जानता हूँ कि मुझे पीड़ा कहाँ हो रही है”, “मैं जानता हूँ कि मुझे ''यहाँ'' पीड़ा हो रही है” यह कहना उतना ही गलत है जितना “मैं जानता हूँ कि मैं वेदनाग्रस्त हूँ”। किन्तु “मैं जानता हूँ कि आपने मेरी बाँह को कहाँ छुआ” यह कहना उचित।


{{ParUG|42}} यह तो कहा जा सकता है कि “वह ऐसा मानता है, पर ऐसा है नहीं”। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि” वह इसे जानता तो है किन्तु, यह ऐसा है नहीं”। क्या इसका कारण मानने और जानने की मानसिक स्थिति के भेद में निहित है? नहीं। उदाहरणार्थ, उच्चारण- शैली, भाव-भंगिमा इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त विषय को “मानसिक स्थिति” ''कहा जा सकता'' है। यानी, दृढ़ धारणा की मानसिक स्थिति का 'उल्लेख करना संभव होना चाहिए। वह स्थिति ज्ञान और भ्रान्त धारणा के मामले में एक सी ही होगी। प्रत्ययों की भिन्नता के कारण “जानने” और “मानने” शब्दों के अनुरूप विभिन्न स्थितियां मानना “मैं” और “लुडविग” शब्दों के अनुरूप विभिन्न व्यक्तियों को मानने जैसा होगा।
{{ParUG|42}} यह तो कहा जा सकता है कि “वह ऐसा मानता है, पर ऐसा है नहीं”। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि” वह इसे जानता तो है किन्तु, यह ऐसा है नहीं”। क्या इसका कारण मानने और जानने की मानसिक स्थिति के भेद में निहित है? नहीं। उदाहरणार्थ, उच्चारण- शैली, भाव-भंगिमा इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त विषय को “मानसिक स्थिति” ''कहा जा सकता'' है। यानी, दृढ़ धारणा की मानसिक स्थिति का ‘उल्लेख करना संभव होना चाहिए। वह स्थिति ज्ञान और भ्रान्त धारणा के मामले में एक सी ही होगी। प्रत्ययों की भिन्नता के कारण “जानने” और “मानने” शब्दों के अनुरूप विभिन्न स्थितियां मानना “मैं” और “लुडविग” शब्दों के अनुरूप विभिन्न व्यक्तियों को मानने जैसा होगा।


{{ParUG|43}} यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: “12 × 12 = 144 परिकलन में हम भूल कर ही नहीं सकते”? यह तार्किक प्रतिज्ञप्ति होनी चाहिए। – किन्तु क्या यह प्रतिज्ञप्ति 12 × 12 = 144 कथन जैसी ही नहीं है?
{{ParUG|43}} यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: “12 × 12 = 144 परिकलन में हम भूल कर ही नहीं सकते”? यह तार्किक प्रतिज्ञप्ति होनी चाहिए। – किन्तु क्या यह प्रतिज्ञप्ति 12 × 12 = 144 कथन जैसी ही नहीं है?
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{{ParUG|52}} अतः, यह स्थिति “सूर्य से इतनी दूरी पर एक ग्रह है” या फिर “यह एक हाथ है” (उदाहरणार्थ, मेरा हाथ) प्रतिज्ञप्ति जैसी नहीं है। बाद वाले वाक्य को प्राक्कल्पना नहीं कहा जा सकता। फिर भी इन दोनों प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुनिश्चित भेद नहीं है।
{{ParUG|52}} अतः, यह स्थिति “सूर्य से इतनी दूरी पर एक ग्रह है” या फिर “यह एक हाथ है” (उदाहरणार्थ, मेरा हाथ) प्रतिज्ञप्ति जैसी नहीं है। बाद वाले वाक्य को प्राक्कल्पना नहीं कहा जा सकता। फिर भी इन दोनों प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुनिश्चित भेद नहीं है।


{{ParUG|53}} यानी, कहा जा सकता है कि मूअर ठीक कह रहे हैं, यदि उनके कथन का यह अर्थ लगाया जाए: 'यहाँ एक हाथ है' आशय वाले वाक्य का वही तार्किक स्थान है जो 'यहाँ एक लाल धब्बा है' आशय वाले वाक्य का होता है।
{{ParUG|53}} यानी, कहा जा सकता है कि मूअर ठीक कह रहे हैं, यदि उनके कथन का यह अर्थ लगाया जाए: ‘यहाँ एक हाथ है’ आशय वाले वाक्य का वही तार्किक स्थान है जो ‘यहाँ एक लाल धब्बा है’ आशय वाले वाक्य का होता है।


{{ParUG|54}} क्योंकि यह कहना तो ठीक नहीं है कि जैसे-जैसे हम किसी ग्रह की जानकारी से अपने हाथ की जानकारी की ओर चलते हैं गलती करने की संभावना कम होती जाती है। नहीं: एक बिंदु पर आकर उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
{{ParUG|54}} क्योंकि यह कहना तो ठीक नहीं है कि जैसे-जैसे हम किसी ग्रह की जानकारी से अपने हाथ की जानकारी की ओर चलते हैं गलती करने की संभावना कम होती जाती है। नहीं: एक बिंदु पर आकर उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
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और क्या यह परिणाम कि “अतः, भौतिक वस्तुएं होती हैं” इस परिणाम: “अतः रंग होते हैं” जैसा नहीं होता?
और क्या यह परिणाम कि “अतः, भौतिक वस्तुएं होती हैं” इस परिणाम: “अतः रंग होते हैं” जैसा नहीं होता?


{{ParUG|58}} यदि “मैं जानता हूँ इत्यादि” को व्याकरणिक प्रतिज्ञप्ति जैसा समझा जाए तो “मैं” महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता। और उसका उचित अर्थ है कि “इस स्थिति में संशय जैसी कोई बात नहीं है” अथवा “इस स्थिति में 'मैं नहीं जानता' का कोई अर्थ ही नहीं होता”। और इससे यह पता चलता है कि “मैं ''जानता'' हूँ” का भी कोई अर्थ नहीं होता।
{{ParUG|58}} यदि “मैं जानता हूँ इत्यादि” को व्याकरणिक प्रतिज्ञप्ति जैसा समझा जाए तो “मैं” महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता। और उसका उचित अर्थ है कि “इस स्थिति में संशय जैसी कोई बात नहीं है” अथवा “इस स्थिति में ‘मैं नहीं जानता’ का कोई अर्थ ही नहीं होता”। और इससे यह पता चलता है कि “मैं ''जानता'' हूँ” का भी कोई अर्थ नहीं होता।


{{ParUG|59}} यहाँ “मैं जानता हूँ” तो एक ''तार्किक'' अन्तर्दृष्टि है। केवल वस्तुवाद ही इससे सिद्ध नहीं होता।
{{ParUG|59}} यहाँ “मैं जानता हूँ” तो एक ''तार्किक'' अन्तर्दृष्टि है। केवल वस्तुवाद ही इससे सिद्ध नहीं होता।
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क्योंकि हमारी भाषा में शामिल होने के बाद ही हम उसे जानते हैं।
क्योंकि हमारी भाषा में शामिल होने के बाद ही हम उसे जानते हैं।


{{ParUG|62}} इसी कारण 'नियम' और 'अर्थ' के प्रत्ययों में संवादिता होती है।
{{ParUG|62}} इसी कारण ‘नियम’ और ‘अर्थ’ के प्रत्ययों में संवादिता होती है।


{{ParUG|63}} तथ्यों की विपरीत कल्पना करने पर कुछ भाषा-खेलों की महत्ता कम हो जाती है, और अन्य भाषा-खेलों की महत्ता बढ़ जाती है। और इस प्रकार भाषा के शब्द-प्रयोग धीरे-धीरे बदल जाते हैं।
{{ParUG|63}} तथ्यों की विपरीत कल्पना करने पर कुछ भाषा-खेलों की महत्ता कम हो जाती है, और अन्य भाषा-खेलों की महत्ता बढ़ जाती है। और इस प्रकार भाषा के शब्द-प्रयोग धीरे-धीरे बदल जाते हैं।


{{ParUG|64}} किसी शब्द के अर्थ की तुलना किसी अधिकारी के 'कार्यभार' से कीजिए। और 'विभिन्न अर्थों' की तुलना 'विभिन्न कार्यभारों' से कीजिए।
{{ParUG|64}} किसी शब्द के अर्थ की तुलना किसी अधिकारी के ‘कार्यभार’ से कीजिए। और ‘विभिन्न अर्थों’ की तुलना ‘विभिन्न कार्यभारों’ से कीजिए।


{{ParUG|65}} भाषा-खेलों में बदलाव आने पर प्रत्ययों में बदलाव आ जाता है, और प्रत्ययों में बदलाव से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं।
{{ParUG|65}} भाषा-खेलों में बदलाव आने पर प्रत्ययों में बदलाव आ जाता है, और प्रत्ययों में बदलाव से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं।
Line 233: Line 233:
{{ParUG|97}} मिथक बदल सकते हैं; विचारधारा की दिशा बदल सकती है। किन्तु मैं नदी के बहाव, नदी की धारा के बदलाव में भेद करता हूँ; यद्यपि दोनों में कोई सुस्पष्ट भेद नहीं है।
{{ParUG|97}} मिथक बदल सकते हैं; विचारधारा की दिशा बदल सकती है। किन्तु मैं नदी के बहाव, नदी की धारा के बदलाव में भेद करता हूँ; यद्यपि दोनों में कोई सुस्पष्ट भेद नहीं है।


{{ParUG|98}} किन्तु, यदि कोई कहता है कि “अतः, तर्कशास्त्र भी आनुभविक-विज्ञान है<nowiki>''</nowiki> तो यह उसकी भूल होगी। फिर भी यह कहना ठीक है: एक ही प्रतिज्ञप्ति कभी तो अनुभव से जाँची जाती है और कभी उसी प्रतिज्ञप्ति को जाँच की कसौटी बना लिया जाता है।
{{ParUG|98}} किन्तु, यदि कोई कहता है कि “अतः, तर्कशास्त्र भी आनुभविक-विज्ञान है” तो यह उसकी भूल होगी। फिर भी यह कहना ठीक है: एक ही प्रतिज्ञप्ति कभी तो अनुभव से जाँची जाती है और कभी उसी प्रतिज्ञप्ति को जाँच की कसौटी बना लिया जाता है।


{{ParUG|99}} और नदी-तट तो उन कठोर चट्टानों, जिनमें या तो कोई परिवर्तन होता ही नहीं या फिर परिवर्तन दिखाई नहीं देता, और बालू के उन ढेरों से बना होता है जो आज यहाँ हैं और कल कहीं और।
{{ParUG|99}} और नदी-तट तो उन कठोर चट्टानों, जिनमें या तो कोई परिवर्तन होता ही नहीं या फिर परिवर्तन दिखाई नहीं देता, और बालू के उन ढेरों से बना होता है जो आज यहाँ हैं और कल कहीं और।
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{{ParUG|149}} मेरे निर्णय ही मेरे निर्णय लेने के स्वरूप के परिचायक हैं, वे ही निर्णय के स्वरूप को लक्षित करते हैं।
{{ParUG|149}} मेरे निर्णय ही मेरे निर्णय लेने के स्वरूप के परिचायक हैं, वे ही निर्णय के स्वरूप को लक्षित करते हैं।


{{ParUG|150}} हम अपने दायें और बायें हाथ का भेद कैसे जानते हैं? मैं कैसे जानता हूँ कि मेरा और अन्य व्यक्ति का निर्णय समान होगा? मैं कैसे जानता हूँ कि यह नीला रंग है? इस बारे में जब मैं ''अपने आप'' पर ही विश्वास नहीं करता तो मैं किसी अन्य व्यक्ति के निर्णय पर विश्वास क्यों करूँ? क्या यहाँ 'क्यों' का प्रश्न उठता है? क्या मुझे कहीं न कहीं विश्वास की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। यानी: कहीं से तो मुझे बिना संशय आरंभ करना होगा; और ऐसा करना जल्दबाज़ी न होकर सामान्यतः ठीक होगा। यह निर्णय प्रक्रिया का अंश है।
{{ParUG|150}} हम अपने दायें और बायें हाथ का भेद कैसे जानते हैं? मैं कैसे जानता हूँ कि मेरा और अन्य व्यक्ति का निर्णय समान होगा? मैं कैसे जानता हूँ कि यह नीला रंग है? इस बारे में जब मैं ''अपने आप'' पर ही विश्वास नहीं करता तो मैं किसी अन्य व्यक्ति के निर्णय पर विश्वास क्यों करूँ? क्या यहाँ ‘क्यों’ का प्रश्न उठता है? क्या मुझे कहीं न कहीं विश्वास की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। यानी: कहीं से तो मुझे बिना संशय आरंभ करना होगा; और ऐसा करना जल्दबाज़ी न होकर सामान्यतः ठीक होगा। यह निर्णय प्रक्रिया का अंश है।


{{ParUG|151}} मैं कहना चाहूँगा: मूअर ऐसे विषयों को नहीं ''जानते'' जिन्हें वे ज्ञात-विषय कहते हैं, यह बात हम दोनों पर समान रूप से लागू होती है; इसे बिल्कुल ठीक मानना हमारी शोध-प्रक्रिया और संशय ''विधि'' का अंग है।
{{ParUG|151}} मैं कहना चाहूँगा: मूअर ऐसे विषयों को नहीं ''जानते'' जिन्हें वे ज्ञात-विषय कहते हैं, यह बात हम दोनों पर समान रूप से लागू होती है; इसे बिल्कुल ठीक मानना हमारी शोध-प्रक्रिया और संशय ''विधि'' का अंग है।
Line 407: Line 407:
{{ParUG|171}} मूअर के कभी चाँद पर न जाने के विश्वास का मुख्य कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति कभी चाँद पर नहीं गया, या कभी भी वहाँ नहीं ''पहुँचा''। यह विश्वास हमारी शिक्षा पर आधारित है।
{{ParUG|171}} मूअर के कभी चाँद पर न जाने के विश्वास का मुख्य कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति कभी चाँद पर नहीं गया, या कभी भी वहाँ नहीं ''पहुँचा''। यह विश्वास हमारी शिक्षा पर आधारित है।


{{ParUG|172}} संभवत: कोई कहे कि “किसी बात को विश्वसनीय मानने का हमारा कोई मुख्य आधार तो होगा”, किन्तु ऐसे आधार से क्या उपलब्धि होगी? क्या यह 'सत्य मानने' के प्राकृतिक नियम से बेहतर है?
{{ParUG|172}} संभवत: कोई कहे कि “किसी बात को विश्वसनीय मानने का हमारा कोई मुख्य आधार तो होगा”, किन्तु ऐसे आधार से क्या उपलब्धि होगी? क्या यह ‘सत्य मानने’ के प्राकृतिक नियम से बेहतर है?


{{ParUG|173}} किसी बात पर विश्वास या अटूट विश्वास क्या मेरे बस में है?
{{ParUG|173}} किसी बात पर विश्वास या अटूट विश्वास क्या मेरे बस में है?
Line 425: Line 425:
{{ParUG|179}} यह कहना ठीक है: “मेरा विश्वास है कि...” एक मनोगत सत्य है लेकिन; “मैं जानता हूँ कि...” मनोगत सत्य नहीं है।
{{ParUG|179}} यह कहना ठीक है: “मेरा विश्वास है कि...” एक मनोगत सत्य है लेकिन; “मैं जानता हूँ कि...” मनोगत सत्य नहीं है।


{{ParUG|180}} या फिर “मेरा विश्वास है...” एक 'अभिव्यक्ति' है, किन्तु “मैं जानता हूँ कि...” कोई 'अभिव्यक्ति' नहीं है।
{{ParUG|180}} या फिर “मेरा विश्वास है...” एक ‘अभिव्यक्ति’ है, किन्तु “मैं जानता हूँ कि...” कोई ‘अभिव्यक्ति’ नहीं है।


{{ParUG|181}} मान लीजिए कि मूअर “मैं जानता हूँ कि...” कहने के बजाय “मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि...” कहते।
{{ParUG|181}} मान लीजिए कि मूअर “मैं जानता हूँ कि...” कहने के बजाय “मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि...” कहते।
Line 509: Line 509:
{{ParUG|214}} ऐसी कल्पना से मुझे कौन रोक सकता है कि किसी के न देखने पर मेज़ लुप्त हो जाती है या फिर उसका रंग-रूप बदल जाता है और फिर जब इसे देखा जाता है तो वह अपने पुराने स्वरूप में लौट आती है। हमारा उत्तर होगा: “किन्तु ऐसी कल्पना करेगा ही कौन!”
{{ParUG|214}} ऐसी कल्पना से मुझे कौन रोक सकता है कि किसी के न देखने पर मेज़ लुप्त हो जाती है या फिर उसका रंग-रूप बदल जाता है और फिर जब इसे देखा जाता है तो वह अपने पुराने स्वरूप में लौट आती है। हमारा उत्तर होगा: “किन्तु ऐसी कल्पना करेगा ही कौन!”


{{ParUG|215}} इससे हमें पता चलता है कि 'यथार्थ के अनुरूप' होने के विचार का कोई स्पष्ट व्यावहारिक प्रयोग नहीं है।
{{ParUG|215}} इससे हमें पता चलता है कि ‘यथार्थ के अनुरूप’ होने के विचार का कोई स्पष्ट व्यावहारिक प्रयोग नहीं है।


{{ParUG|216}} यह वाक्य “यह लिखित है”।
{{ParUG|216}} यह वाक्य “यह लिखित है”।
Line 537: Line 537:
{{ParUG|227}} “''क्या'' यह ऐसी बात है जिसे भुलाया जा सकता हो?!”
{{ParUG|227}} “''क्या'' यह ऐसी बात है जिसे भुलाया जा सकता हो?!”


{{ParUG|228}} “ऐसी परिस्थितियों में लोग 'संभवत: हम भूल गए' जैसी बातें न कहकर यह मानते हैं कि...”।
{{ParUG|228}} “ऐसी परिस्थितियों में लोग ‘संभवत: हम भूल गए’ जैसी बातें न कहकर यह मानते हैं कि...”।


{{ParUG|229}} हमारे संपूर्ण व्यवहार से ही हमारी बातों का अर्थ प्राप्त होता है।
{{ParUG|229}} हमारे संपूर्ण व्यवहार से ही हमारी बातों का अर्थ प्राप्त होता है।
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जब मैं कहता हूँ कि “पहले यहाँ यह पर्वत नहीं था” तो संभवतः मेरा तात्पर्य होता है कि वह बाद में – शायद किसी ज्वालामुखी के द्वारा अस्तित्व में आया है।
जब मैं कहता हूँ कि “पहले यहाँ यह पर्वत नहीं था” तो संभवतः मेरा तात्पर्य होता है कि वह बाद में – शायद किसी ज्वालामुखी के द्वारा अस्तित्व में आया है।


जब मैं कहता हूँ कि “आधा घंटा पहले यह पर्वत नहीं था” तो इस अटपटे कथन से पता ही नहीं चलता कि मेरा तात्पर्य क्या है। उदाहरणार्थ कहीं मैं कोई असत्य किन्तु वैज्ञानिक बात तो नहीं कर रहा। संभवतः आपको लगे कि 'यह पर्वत तब तो नहीं था' कथन सुस्पष्ट है, हालाँकि आपको इसके संदर्भ की कल्पना करनी पड़ती है। किन्तु कल्पना कीजिए कि कोई कहे “क्षण भर पहले यह पर्वत नहीं था अपितु उस समय बिल्कुल ऐसा ही पर्वत मौजूद था”। सुपरिचित संदर्भ से ही तात्पर्य का पता चलेगा।
जब मैं कहता हूँ कि “आधा घंटा पहले यह पर्वत नहीं था” तो इस अटपटे कथन से पता ही नहीं चलता कि मेरा तात्पर्य क्या है। उदाहरणार्थ कहीं मैं कोई असत्य किन्तु वैज्ञानिक बात तो नहीं कर रहा। संभवतः आपको लगे कि ‘यह पर्वत तब तो नहीं था’ कथन सुस्पष्ट है, हालाँकि आपको इसके संदर्भ की कल्पना करनी पड़ती है। किन्तु कल्पना कीजिए कि कोई कहे “क्षण भर पहले यह पर्वत नहीं था अपितु उस समय बिल्कुल ऐसा ही पर्वत मौजूद था”। सुपरिचित संदर्भ से ही तात्पर्य का पता चलेगा।


{{ParUG|238}} मेरे जन्म से पूर्व पृथ्वी का अस्तित्व नहीं था ऐसा कहने वाले व्यक्ति की कौनसी धारणाएं मेरी धारणाओं से मेल नहीं खातीं यह जानने के लिए मुझे उससे पूछताछ करनी पड़ेगी। ''हो सकता'' है कि इस जानकारी के बाद मुझे पता चले कि वह मेरी आधारभूत मान्यताओं का ही विरोध कर रहा है। ऐसी स्थिति में मेरे पास उसके मत को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं होगा।
{{ParUG|238}} मेरे जन्म से पूर्व पृथ्वी का अस्तित्व नहीं था ऐसा कहने वाले व्यक्ति की कौनसी धारणाएं मेरी धारणाओं से मेल नहीं खातीं यह जानने के लिए मुझे उससे पूछताछ करनी पड़ेगी। ''हो सकता'' है कि इस जानकारी के बाद मुझे पता चले कि वह मेरी आधारभूत मान्यताओं का ही विरोध कर रहा है। ऐसी स्थिति में मेरे पास उसके मत को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं होगा।
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{{ParUG|245}} कोई किसे कहता है कि वह कुछ जानता है? अपने आप को या किसी और को। यदि हम अपने आप को यह बताते हैं तो हम वस्तुस्थिति के बारे में ''सुनिश्चित'' हैं, इस कथन से उसका भेद कैसे होगा? मैं किसी बात को जानता हूँ, इसके बारे में कोई मनोगत निश्चितता नहीं होती। आश्वासन मनोगत होता है किन्तु ज्ञान मनोगत नहीं होता। अतः जब मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ कि मेरे दो हाथ हैं” और ऐसा कहते समय अपनी मनोगत निश्चितता को अभिव्यक्त नहीं करता, तब अपने कथन का औचित्य सिद्ध करना होगा। किन्तु मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अपने दो हाथों के अस्तित्व के बारे में मैं उन्हें देखने से पहले, या देखने के बाद बराबर सुनिश्चित होता हूँ। किन्तु मैं कह सकता हूँ: “मेरा अटूट विश्वास है कि मेरे दो हाथ हैं।” इससे यह पता चलता है कि मैं इस प्रतिज्ञप्ति के विरुद्ध किसी भी बात को प्रमाण नहीं मानता।
{{ParUG|245}} कोई किसे कहता है कि वह कुछ जानता है? अपने आप को या किसी और को। यदि हम अपने आप को यह बताते हैं तो हम वस्तुस्थिति के बारे में ''सुनिश्चित'' हैं, इस कथन से उसका भेद कैसे होगा? मैं किसी बात को जानता हूँ, इसके बारे में कोई मनोगत निश्चितता नहीं होती। आश्वासन मनोगत होता है किन्तु ज्ञान मनोगत नहीं होता। अतः जब मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ कि मेरे दो हाथ हैं” और ऐसा कहते समय अपनी मनोगत निश्चितता को अभिव्यक्त नहीं करता, तब अपने कथन का औचित्य सिद्ध करना होगा। किन्तु मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अपने दो हाथों के अस्तित्व के बारे में मैं उन्हें देखने से पहले, या देखने के बाद बराबर सुनिश्चित होता हूँ। किन्तु मैं कह सकता हूँ: “मेरा अटूट विश्वास है कि मेरे दो हाथ हैं।” इससे यह पता चलता है कि मैं इस प्रतिज्ञप्ति के विरुद्ध किसी भी बात को प्रमाण नहीं मानता।


{{ParUG|246}} “अब मैं अपने समस्त विश्वासों के मूल पर पहुँच गया हूँ।” “मैं इस स्थिति पर दृढ़ रहूँगा!” किन्तु मेरा दृढ़ रहना क्या केवल इसलिए नहीं है कि मैं इसका ''कायल'' हूँ। – 'पूरी तरह कायल होना' क्या होता है?
{{ParUG|246}} “अब मैं अपने समस्त विश्वासों के मूल पर पहुँच गया हूँ।” “मैं इस स्थिति पर दृढ़ रहूँगा!” किन्तु मेरा दृढ़ रहना क्या केवल इसलिए नहीं है कि मैं इसका ''कायल'' हूँ। – ‘पूरी तरह कायल होना’ क्या होता है?


{{ParUG|247}} अभी अपने दोनों हाथों के अस्तित्व पर संशय करना कैसा होगा? मैं इसकी कल्पना भी क्यों नहीं कर सकता? यदि मैं अपने हाथों के अस्तित्व में विश्वास नहीं करूँ तो मैं किस बात पर विश्वास कर सकता हूँ? अब तक मेरे पास ऐसी कोई प्रणाली नहीं है जिसमें ऐसे संशय को अवकाश मिले।
{{ParUG|247}} अभी अपने दोनों हाथों के अस्तित्व पर संशय करना कैसा होगा? मैं इसकी कल्पना भी क्यों नहीं कर सकता? यदि मैं अपने हाथों के अस्तित्व में विश्वास नहीं करूँ तो मैं किस बात पर विश्वास कर सकता हूँ? अब तक मेरे पास ऐसी कोई प्रणाली नहीं है जिसमें ऐसे संशय को अवकाश मिले।
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{{ParUG|253}} सुदृढ़ विश्वास के मूल में निर्मूल विश्वास होता है।
{{ParUG|253}} सुदृढ़ विश्वास के मूल में निर्मूल विश्वास होता है।


{{ParUG|254}} हर 'समझदार' व्यक्ति ''इसी'' तरह व्यवहार करता है।
{{ParUG|254}} हर ‘समझदार’ व्यक्ति ''इसी'' तरह व्यवहार करता है।


{{ParUG|255}} संशय करने की कुछ विशेषताएं होती हैं, परन्तु ये विशेषताएं केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही होती हैं। यदि कोई कहे कि उसे हाथों के अस्तित्व पर संशय है, पर उन्हें चारों ओर से निहारता रहे, और अपने-आपको भरोसा दिलाता रहे कि यह सब 'शीशे की करामात' तो नहीं है, तो भी क्या उसके संशय को निश्चित रूप से संशय कहा जा सकता है। हम तो यही कह सकते हैं कि वह संशयात्मा की तरह व्यवहार कर रहा है, किन्तु उसका खेल हमसे भिन्न है।
{{ParUG|255}} संशय करने की कुछ विशेषताएं होती हैं, परन्तु ये विशेषताएं केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही होती हैं। यदि कोई कहे कि उसे हाथों के अस्तित्व पर संशय है, पर उन्हें चारों ओर से निहारता रहे, और अपने-आपको भरोसा दिलाता रहे कि यह सब ‘शीशे की करामात’ तो नहीं है, तो भी क्या उसके संशय को निश्चित रूप से संशय कहा जा सकता है। हम तो यही कह सकते हैं कि वह संशयात्मा की तरह व्यवहार कर रहा है, किन्तु उसका खेल हमसे भिन्न है।


{{ParUG|256}} दूसरी ओर समय के साथ-साथ भाषा-खेल परिवर्तित होता रहता है।
{{ParUG|256}} दूसरी ओर समय के साथ-साथ भाषा-खेल परिवर्तित होता रहता है।
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{{ParUG|297}} क्योंकि हम केवल यही नहीं सीखते कि अमुक प्रयोगों के अमुक परिणाम हैं, अपितु उसके निहितार्थ को भी सीखते हैं। और इसमें कोई दोष नहीं है। क्योंकि यह निहितार्थ विशिष्ट प्रयोग का साधन होता है।
{{ParUG|297}} क्योंकि हम केवल यही नहीं सीखते कि अमुक प्रयोगों के अमुक परिणाम हैं, अपितु उसके निहितार्थ को भी सीखते हैं। और इसमें कोई दोष नहीं है। क्योंकि यह निहितार्थ विशिष्ट प्रयोग का साधन होता है।


{{ParUG|298}} 'हम आश्वस्त हैं' का अभिप्राय यह नहीं होता कि प्रत्येक व्यक्ति आश्वस्त है अपितु इसका अर्थ होता है कि हम विज्ञान और शिक्षा के दायरे में रहने वाले एक समुदाय के सदस्य हैं।
{{ParUG|298}} ‘हम आश्वस्त हैं’ का अभिप्राय यह नहीं होता कि प्रत्येक व्यक्ति आश्वस्त है अपितु इसका अर्थ होता है कि हम विज्ञान और शिक्षा के दायरे में रहने वाले एक समुदाय के सदस्य हैं।


{{ParUG|299}} हम आश्वस्त हैं कि पृथ्वी गोल है।
{{ParUG|299}} हम आश्वस्त हैं कि पृथ्वी गोल है।
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{{ParUG|307}} विचित्र बात यह है कि जब मैं शब्द-प्रयोग के बारे में पूर्णतः आश्वस्त रहता हूँ, कोई शंका नहीं रखता, तो भी मैं अपने शब्द-प्रयोग का कोई आधार नहीं दे पाता। प्रयास करने पर मैं हजारों ''आधार'' दे सकता हूँ किन्तु उनमें से कोई भी उस विषयवस्तु जितने सुनिश्चित नहीं होंगे जिसके वे आधार हैं।
{{ParUG|307}} विचित्र बात यह है कि जब मैं शब्द-प्रयोग के बारे में पूर्णतः आश्वस्त रहता हूँ, कोई शंका नहीं रखता, तो भी मैं अपने शब्द-प्रयोग का कोई आधार नहीं दे पाता। प्रयास करने पर मैं हजारों ''आधार'' दे सकता हूँ किन्तु उनमें से कोई भी उस विषयवस्तु जितने सुनिश्चित नहीं होंगे जिसके वे आधार हैं।


{{ParUG|308}} 'ज्ञान' और 'निश्चितता' भिन्न ''कोटियों'' के विषय हैं। वे 'अनुमान' और 'आश्वासन' जैसी दो भिन्न 'मानसिक अवस्थाएँ' नहीं होतीं। (यहाँ मेरी मान्यता है कि “मैं जानता हूँ कि 'संशय' शब्द का (उदाहरणार्थ) क्या अर्थ है” और इस वाक्य से पता चलता है कि ' संशय' शब्द की कोई तार्किक भूमिका होती है।) अभी तो हमारी रुचि निश्चितता में न होकर ज्ञान में है। यानी, हमारी रुचि इस तथ्य में है कि निर्णय को संभव बनाने के लिए कुछ आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित मानना ही पड़ेगा। या फिर: मेरी यह मान्यता है कि आनुभविक प्रतिज्ञप्ति के आकार वाली प्रत्येक प्रतिज्ञप्ति आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं होती|
{{ParUG|308}} ‘ज्ञान’ और ‘निश्चितता’ भिन्न ''कोटियों'' के विषय हैं। वे ‘अनुमान’ और ‘आश्वासन’ जैसी दो भिन्न ‘मानसिक अवस्थाएँ’ नहीं होतीं। (यहाँ मेरी मान्यता है कि “मैं जानता हूँ कि ‘संशय’ शब्द का (उदाहरणार्थ) क्या अर्थ है” और इस वाक्य से पता चलता है कि ‘ संशय’ शब्द की कोई तार्किक भूमिका होती है।) अभी तो हमारी रुचि निश्चितता में न होकर ज्ञान में है। यानी, हमारी रुचि इस तथ्य में है कि निर्णय को संभव बनाने के लिए कुछ आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित मानना ही पड़ेगा। या फिर: मेरी यह मान्यता है कि आनुभविक प्रतिज्ञप्ति के आकार वाली प्रत्येक प्रतिज्ञप्ति आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं होती|


{{ParUG|309}} कहीं ऐसा तो नहीं कि नियम और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति मिल कर एक हो गये हों?
{{ParUG|309}} कहीं ऐसा तो नहीं कि नियम और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति मिल कर एक हो गये हों?
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12.3.51
12.3.51


{{ParUG|318}} 'यह प्रश्न तो पैदा ही नहीं होता।' इसका उत्तर तो कोई ''पद्धति'' ही होगी। किन्तु पद्धति-सम्बन्धी प्रतिज्ञप्तियों और किसी पद्धति में अन्तर्निहित प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुस्पष्ट सीमा नहीं होती।
{{ParUG|318}} ‘यह प्रश्न तो पैदा ही नहीं होता।’ इसका उत्तर तो कोई ''पद्धति'' ही होगी। किन्तु पद्धति-सम्बन्धी प्रतिज्ञप्तियों और किसी पद्धति में अन्तर्निहित प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुस्पष्ट सीमा नहीं होती।


{{ParUG|319}} किन्तु तब क्या हमें यह नहीं कहना पड़ेगा कि तार्किक प्रतिज्ञप्तियों और आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुस्पष्ट सीमा नहीं होती? सुस्पष्टता के अभाव का कारण तो ''नियम'' और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति में कोई सीमा न होना है।
{{ParUG|319}} किन्तु तब क्या हमें यह नहीं कहना पड़ेगा कि तार्किक प्रतिज्ञप्तियों और आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुस्पष्ट सीमा नहीं होती? सुस्पष्टता के अभाव का कारण तो ''नियम'' और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति में कोई सीमा न होना है।


{{ParUG|320}} यहाँ याद रहे कि 'प्रतिज्ञप्ति' का प्रत्यय स्वयं ही सुस्पष्ट प्रत्यय नहीं है।
{{ParUG|320}} यहाँ याद रहे कि ‘प्रतिज्ञप्ति’ का प्रत्यय स्वयं ही सुस्पष्ट प्रत्यय नहीं है।


{{ParUG|321}} क्या मैं यही नहीं कह रहा: किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को प्राक्कल्पना बनाया जा सकता है – और तब वह विवरण का मानदण्ड बन जाती है। किन्तु मुझे इस पर भी शक है। इस वाक्य में अतिव्याप्ति दोष हैं। हम यही कहना चाहते हैं “किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को सिद्धान्ततः ... में परिवर्तित किया जा सकता है”, किन्तु यहाँ “सिद्धान्ततः” का क्या अर्थ है? यह तो ''ट्रैक्टेटस'' की याद दिलाता है।
{{ParUG|321}} क्या मैं यही नहीं कह रहा: किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को प्राक्कल्पना बनाया जा सकता है – और तब वह विवरण का मानदण्ड बन जाती है। किन्तु मुझे इस पर भी शक है। इस वाक्य में अतिव्याप्ति दोष हैं। हम यही कहना चाहते हैं “किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को सिद्धान्ततः ... में परिवर्तित किया जा सकता है”, किन्तु यहाँ “सिद्धान्ततः” का क्या अर्थ है? यह तो ''ट्रैक्टेटस'' की याद दिलाता है।
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{{ParUG|356}} मेरी “मन:स्थिति”, “जानकारी” भविष्य की घटनाओं का आश्वासन नहीं होती। यह तो इसमें निहित है कि न तो मुझे अपने संशय का आधार समझ आए और न ही मुझे यह पता चले कि आगे की जाँच कहाँ सम्भव है।
{{ParUG|356}} मेरी “मन:स्थिति”, “जानकारी” भविष्य की घटनाओं का आश्वासन नहीं होती। यह तो इसमें निहित है कि न तो मुझे अपने संशय का आधार समझ आए और न ही मुझे यह पता चले कि आगे की जाँच कहाँ सम्भव है।


{{ParUG|357}} कहा जा सकता है: “'मैं जानता हूँ' कथन ''सामान्य'' निश्चितता को व्यक्त करता है, न कि संघर्षशील निश्चितता को।'
{{ParUG|357}} कहा जा सकता है: “‘मैं जानता हूँ’ कथन ''सामान्य'' निश्चितता को व्यक्त करता है, न कि संघर्षशील निश्चितता को।’


{{ParUG|358}} मैं ऐसी निश्चितता को त्वरित या सतही न मानकर एक जीवन-शैली जैसी मानता हूँ। यह बात बड़े भोन्डेपन से अभिव्यक्त हुई है और संभवत: ठीक से सोची भी नहीं गई है।
{{ParUG|358}} मैं ऐसी निश्चितता को त्वरित या सतही न मानकर एक जीवन-शैली जैसी मानता हूँ। यह बात बड़े भोन्डेपन से अभिव्यक्त हुई है और संभवत: ठीक से सोची भी नहीं गई है।
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{{ParUG|369}} यदि मैं अपने हाथ के अस्तित्व पर संशय करूँ तो मैं “हाथ” शब्द के अर्थ पर संशय करने से कैसे बच सकता हूँ? यानी, इतना ''ज्ञान'' तो मुझे है ही।
{{ParUG|369}} यदि मैं अपने हाथ के अस्तित्व पर संशय करूँ तो मैं “हाथ” शब्द के अर्थ पर संशय करने से कैसे बच सकता हूँ? यानी, इतना ''ज्ञान'' तो मुझे है ही।


{{ParUG|370}} बेहतर होगा: मैं अपने वाक्य में 'हाथ' या अन्य शब्दों का सहज प्रयोग करता हूँ और उनके अर्थ पर संशय करना रसातल में जाना है – असंदिग्धता भाषा-खेल का सार तत्त्व है, और” मैं कैसे जानता हूँ...” जैसे प्रश्न भाषा-खेल से हमें बहिष्कृत कर देते हैं, या फिर उन खेलों को ही समाप्त कर देते हैं।
{{ParUG|370}} बेहतर होगा: मैं अपने वाक्य में ‘हाथ’ या अन्य शब्दों का सहज प्रयोग करता हूँ और उनके अर्थ पर संशय करना रसातल में जाना है – असंदिग्धता भाषा-खेल का सार तत्त्व है, और” मैं कैसे जानता हूँ...” जैसे प्रश्न भाषा-खेल से हमें बहिष्कृत कर देते हैं, या फिर उन खेलों को ही समाप्त कर देते हैं।


{{ParUG|371}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” क्या इसका मूअर के अनुसार यही या इस जैसा ही अर्थ नहीं है: हाथ के अस्तित्व पर सन्देह न करने वाले भाषा-खेलों में मैं ऐसा कह सकता हूँ, “मेरे इस हाथ में पीड़ा हो रही है” अथवा “यह हाथ अन्य हाथ से कमजोर है” अथवा “एक बार मेरा यह हाथ टूट गया था” इत्यादि।
{{ParUG|371}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” क्या इसका मूअर के अनुसार यही या इस जैसा ही अर्थ नहीं है: हाथ के अस्तित्व पर सन्देह न करने वाले भाषा-खेलों में मैं ऐसा कह सकता हूँ, “मेरे इस हाथ में पीड़ा हो रही है” अथवा “यह हाथ अन्य हाथ से कमजोर है” अथवा “एक बार मेरा यह हाथ टूट गया था” इत्यादि।
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{{ParUG|373}} यदि निश्चित होना संभव ही नहीं है तो किसी बात पर ''विश्वास'' करने का आधार ही क्यों संभव हो?
{{ParUG|373}} यदि निश्चित होना संभव ही नहीं है तो किसी बात पर ''विश्वास'' करने का आधार ही क्यों संभव हो?


{{ParUG|374}} हम शिशु को “कदाचित् (या संभवतः) वह तुम्हारा हाथ है” न सिखाकर “वह तुम्हारा हाथ है” सिखाते हैं। शिशु इसी प्रकार अपने हाथ से संबंधित अनगिनत भाषा-खेलों को सीखता है। 'क्या वास्तव में यह हाथ है' जैसे प्रश्न या परीक्षण उसे कभी सूझते ही नहीं। साथ ही वह यह भी नहीं सीखता कि वह ''जानता'' है कि यह एक हाथ है।
{{ParUG|374}} हम शिशु को “कदाचित् (या संभवतः) वह तुम्हारा हाथ है” न सिखाकर “वह तुम्हारा हाथ है” सिखाते हैं। शिशु इसी प्रकार अपने हाथ से संबंधित अनगिनत भाषा-खेलों को सीखता है। ‘क्या वास्तव में यह हाथ है’ जैसे प्रश्न या परीक्षण उसे कभी सूझते ही नहीं। साथ ही वह यह भी नहीं सीखता कि वह ''जानता'' है कि यह एक हाथ है।


{{ParUG|375}} हमें यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी संदर्भ में, ऐसे सन्दर्भों में भी जहाँ उचित संशय का अवकाश हो, संशय का अत्यन्ताभाव भाषा-खेल को झुठला नहीं सकता। क्योंकि इतर गणित जैसा भी कुछ होता है।
{{ParUG|375}} हमें यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी संदर्भ में, ऐसे सन्दर्भों में भी जहाँ उचित संशय का अवकाश हो, संशय का अत्यन्ताभाव भाषा-खेल को झुठला नहीं सकता। क्योंकि इतर गणित जैसा भी कुछ होता है।
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{{ParUG|392}} मुझे तो यह दर्शाना है कि संशय की संभावना में भी संशय आवश्यक नहीं है। भाषा-खेल की संभावना इस पर निर्भर नहीं करती कि प्रत्येक संशय-योग्य बात पर संशय किया जाए। (गणित में व्याघात की भूमिका से इसका संबंध है।)
{{ParUG|392}} मुझे तो यह दर्शाना है कि संशय की संभावना में भी संशय आवश्यक नहीं है। भाषा-खेल की संभावना इस पर निर्भर नहीं करती कि प्रत्येक संशय-योग्य बात पर संशय किया जाए। (गणित में व्याघात की भूमिका से इसका संबंध है।)


{{ParUG|393}} यदि भाषा-खेल के बाहर “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” वाक्य को कहा जाए तो यह (संभवत: किसी हिन्दी व्याकरण से) लिया गया उद्धरण हो। – “पर जब मैं इसे सार्थक ढंग से कहता हूँ तो क्या होता है?” 'अर्थ' के प्रत्यय के बारे में पुरानी गलतफहमी।
{{ParUG|393}} यदि भाषा-खेल के बाहर “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” वाक्य को कहा जाए तो यह (संभवत: किसी हिन्दी व्याकरण से) लिया गया उद्धरण हो। – “पर जब मैं इसे सार्थक ढंग से कहता हूँ तो क्या होता है?” ‘अर्थ’ के प्रत्यय के बारे में पुरानी गलतफहमी।


{{ParUG|394}} “यह ऐसी बातों में से है जिन पर मैं संशय नहीं कर सकता।”
{{ParUG|394}} “यह ऐसी बातों में से है जिन पर मैं संशय नहीं कर सकता।”
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{{ParUG|412}} ऐसी स्थिति (और ऐसी स्थिति विरल ही है) जिसमें हम कह सकते हैं कि “मैं जानता हूँ कि यह मेरा हाथ है” की कल्पना न कर सकने वाला व्यक्ति यह कह सकता है कि ये शब्द निरर्थक हैं। वस्तुतः, वह यह भी कह सकता है “बेशक मैं जानता हूँ – मैं इसे कैसे नहीं जानूँगा?” – पर तब वह संभवतः “यह मेरा हाथ है” इस वाक्य को “मेरा हाथ” शब्दों की ''व्याख्या'' के रूप में लेता है।
{{ParUG|412}} ऐसी स्थिति (और ऐसी स्थिति विरल ही है) जिसमें हम कह सकते हैं कि “मैं जानता हूँ कि यह मेरा हाथ है” की कल्पना न कर सकने वाला व्यक्ति यह कह सकता है कि ये शब्द निरर्थक हैं। वस्तुतः, वह यह भी कह सकता है “बेशक मैं जानता हूँ – मैं इसे कैसे नहीं जानूँगा?” – पर तब वह संभवतः “यह मेरा हाथ है” इस वाक्य को “मेरा हाथ” शब्दों की ''व्याख्या'' के रूप में लेता है।


{{ParUG|413}} मान लीजिए कि आप किसी अंधे का हाथ पकड़ कर उसका मार्गदर्शन करते हुए उसे कहते हैं: “यह मेरा हाथ है'; यदि तब वह कहे “क्या आपको निश्चय है?” अथवा “क्या आप जानते हैं कि यह आपका हाथ है?” तो ये प्रश्न अत्यन्त विशिष्ट परिस्थितियों में ही सार्थक होंगे।
{{ParUG|413}} मान लीजिए कि आप किसी अंधे का हाथ पकड़ कर उसका मार्गदर्शन करते हुए उसे कहते हैं: “यह मेरा हाथ है”; यदि तब वह कहे “क्या आपको निश्चय है?” अथवा “क्या आप जानते हैं कि यह आपका हाथ है?” तो ये प्रश्न अत्यन्त विशिष्ट परिस्थितियों में ही सार्थक होंगे।


{{ParUG|414}} किन्तु दूसरी ओर: मैं कैसे ''जानता'' हूँ कि यह मेरा हाथ है? क्या मुझे इतना भी पूरी तरह पता है कि यहाँ यह मेरा हाथ है कहने का क्या अर्थ है? – जब मैं यह कहता हूँ कि “मुझे कैसे पता है?” तो मेरा अर्थ यह नहीं होता कि इसके बारे में मुझे कोई ''संशय'' है। यह तो मेरे व्यवहार का आधार है। किन्तु मुझे लगता है कि “मैं जानता हूँ” शब्दों द्वारा इसे गलत ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
{{ParUG|414}} किन्तु दूसरी ओर: मैं कैसे ''जानता'' हूँ कि यह मेरा हाथ है? क्या मुझे इतना भी पूरी तरह पता है कि यहाँ यह मेरा हाथ है कहने का क्या अर्थ है? – जब मैं यह कहता हूँ कि “मुझे कैसे पता है?” तो मेरा अर्थ यह नहीं होता कि इसके बारे में मुझे कोई ''संशय'' है। यह तो मेरे व्यवहार का आधार है। किन्तु मुझे लगता है कि “मैं जानता हूँ” शब्दों द्वारा इसे गलत ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
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{{ParUG|420}} मैं आजकल इंगलैण्ड में रहता हूँ इस प्रतिज्ञप्ति के भी दो पक्ष हैं: यह ''गलत'' नहीं है – पर दूसरी ओर मैं इंगलैण्ड के बारे में क्या जानता हूँ? क्या मेरा निर्णय खंड-खंड नहीं हो सकता?
{{ParUG|420}} मैं आजकल इंगलैण्ड में रहता हूँ इस प्रतिज्ञप्ति के भी दो पक्ष हैं: यह ''गलत'' नहीं है – पर दूसरी ओर मैं इंगलैण्ड के बारे में क्या जानता हूँ? क्या मेरा निर्णय खंड-खंड नहीं हो सकता?


क्या यह संभव नहीं है कि लोग मेरे कमरे में आयें और इससे विपरीत बात कहें? – और अपनी बात का 'प्रमाण' भी दें, जिससे मैं सामान्य लोगों में अकेला पागल या फिर पागलों में एकाकी सामान्य व्यक्ति दिखाई दूँ? क्या तब मैं उन बातों पर भी संशय नहीं करूँगा जो अभी मुझे संशय से रहित प्रतीत होती हैं?
क्या यह संभव नहीं है कि लोग मेरे कमरे में आयें और इससे विपरीत बात कहें? – और अपनी बात का ‘प्रमाण’ भी दें, जिससे मैं सामान्य लोगों में अकेला पागल या फिर पागलों में एकाकी सामान्य व्यक्ति दिखाई दूँ? क्या तब मैं उन बातों पर भी संशय नहीं करूँगा जो अभी मुझे संशय से रहित प्रतीत होती हैं?


{{ParUG|421}} मैं इंगलैण्ड में हूँ। – अपने संपूर्ण परिवेश से मुझे यह पता चलता है; जहाँ भी और जैसे भी मैं इस पर विचार करता हूँ, मेरा परिवेश पूर्णतः इसकी पुष्टि करता है। – किन्तु, जिसकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने पर क्या मैं स्थिर रह सकूँगा?
{{ParUG|421}} मैं इंगलैण्ड में हूँ। – अपने संपूर्ण परिवेश से मुझे यह पता चलता है; जहाँ भी और जैसे भी मैं इस पर विचार करता हूँ, मेरा परिवेश पूर्णतः इसकी पुष्टि करता है। – किन्तु, जिसकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने पर क्या मैं स्थिर रह सकूँगा?
Line 1,078: Line 1,078:
मेरे ऐसे व्यवहार और शब्दों का कोई अन्य व्यक्ति क्या अर्थ लगाता है? क्या इतना ही नहीं कि मैं अपने आधारों के बारे में आश्वस्त हूँ? – मैं यहाँ कई सप्ताहों से रह रहा हूँ और प्रतिदिन कई बार ऊपर-नीचे आता-जाता रहता हूँ, इस तथ्य से वह यह नहीं जान जाता कि मुझे ''पता'' है कि मेरा कमरा कहाँ है। – “मैं जानता हूँ” कहकर मैं उसे तभी आश्वस्त करता हूँ जब उसे पहले से ही उन बातों के बारे में पता ''नही'' होता जिनसे अनिवार्यतः यह निष्कर्ष निकलता है कि मुझे पता है।
मेरे ऐसे व्यवहार और शब्दों का कोई अन्य व्यक्ति क्या अर्थ लगाता है? क्या इतना ही नहीं कि मैं अपने आधारों के बारे में आश्वस्त हूँ? – मैं यहाँ कई सप्ताहों से रह रहा हूँ और प्रतिदिन कई बार ऊपर-नीचे आता-जाता रहता हूँ, इस तथ्य से वह यह नहीं जान जाता कि मुझे ''पता'' है कि मेरा कमरा कहाँ है। – “मैं जानता हूँ” कहकर मैं उसे तभी आश्वस्त करता हूँ जब उसे पहले से ही उन बातों के बारे में पता ''नही'' होता जिनसे अनिवार्यतः यह निष्कर्ष निकलता है कि मुझे पता है।


{{ParUG|432}} “मैं जानता हूँ...” कथन का अर्थ मेरे द्वारा 'जानने' के अन्य प्रमाणों से संबद्ध होने पर ही होता है।
{{ParUG|432}} “मैं जानता हूँ...” कथन का अर्थ मेरे द्वारा ‘जानने’ के अन्य प्रमाणों से संबद्ध होने पर ही होता है।


{{ParUG|433}} अत:, जब मैं किसी को कहता हूँ कि “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” तो यह मेरे द्वारा उसे यह कहने जैसा होता है कि “वह एक पेड़ है; आप इस बात पर पूरी तरह विश्वास कर सकते हैं; इसमें कोई संदेह नहीं है”। और कोई दार्शनिक इस कथन का प्रयोग केवल यह प्रदर्शित करने के लिए करता है कि बातचीत में वस्तुतः ऐसा प्रयोग होता है। किन्तु, यदि उसका प्रयोग हिन्दी-व्याकरण पर टिप्पणी नहीं होती, तो उसे इस अभिव्यक्ति के कार्य-व्यापार का ब्योरा देना होगा।
{{ParUG|433}} अत:, जब मैं किसी को कहता हूँ कि “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” तो यह मेरे द्वारा उसे यह कहने जैसा होता है कि “वह एक पेड़ है; आप इस बात पर पूरी तरह विश्वास कर सकते हैं; इसमें कोई संदेह नहीं है”। और कोई दार्शनिक इस कथन का प्रयोग केवल यह प्रदर्शित करने के लिए करता है कि बातचीत में वस्तुतः ऐसा प्रयोग होता है। किन्तु, यदि उसका प्रयोग हिन्दी-व्याकरण पर टिप्पणी नहीं होती, तो उसे इस अभिव्यक्ति के कार्य-व्यापार का ब्योरा देना होगा।
Line 1,104: Line 1,104:
{{ParUG|442}} क्या यह सम्भव नहीं कि मैंने ऐसा ''मान लिया'' है कि मैं किसी बात को जानता हूँ?
{{ParUG|442}} क्या यह सम्भव नहीं कि मैंने ऐसा ''मान लिया'' है कि मैं किसी बात को जानता हूँ?


{{ParUG|443}} मान लीजिए कि किसी भाषा में हमारी भाषा के “जानने” शब्द के अनुरूप कोई शब्द ही न हो। – लोग केवल टिप्पणी ही करते हों। (“वह एक पेड़ है”, इत्यादि)। उनको अपनी त्रुटि की सम्भावना का ज्ञान स्वाभाविक ही है। इसलिए वे वाक्यों के साथ ऐसे संकेत जोड़ देते हैं जिनसे यह पता चलता है कि उन्हें उस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना प्रतीत होती है – या फिर, मैं कह सकता हूँ कि इस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना है? बाद के कथन को विशिष्ट परिस्थितियों का विवरण देकर भी इंगित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, “तब अ ने ब से कहा  '...'। मैं उनके समीप ही खड़ा था और मेरी श्रवण-शक्ति भी ठीक है”, अथवा “कल अ अमुक स्थान पर था। मैंने उसे दूर से देखा था। मेरी दृष्टि बहुत अच्छी नहीं है”, अथवा “वहाँ एक पेड़ है: मैं उसे साफ-साफ देख सकता हूँ और मैंने उसे पहले भी अनेक बार देखा है”।
{{ParUG|443}} मान लीजिए कि किसी भाषा में हमारी भाषा के “जानने” शब्द के अनुरूप कोई शब्द ही न हो। – लोग केवल टिप्पणी ही करते हों। (“वह एक पेड़ है”, इत्यादि)। उनको अपनी त्रुटि की सम्भावना का ज्ञान स्वाभाविक ही है। इसलिए वे वाक्यों के साथ ऐसे संकेत जोड़ देते हैं जिनसे यह पता चलता है कि उन्हें उस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना प्रतीत होती है – या फिर, मैं कह सकता हूँ कि इस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना है? बाद के कथन को विशिष्ट परिस्थितियों का विवरण देकर भी इंगित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, “तब अ ने ब से कहा  ...’। मैं उनके समीप ही खड़ा था और मेरी श्रवण-शक्ति भी ठीक है”, अथवा “कल अ अमुक स्थान पर था। मैंने उसे दूर से देखा था। मेरी दृष्टि बहुत अच्छी नहीं है”, अथवा “वहाँ एक पेड़ है: मैं उसे साफ-साफ देख सकता हूँ और मैंने उसे पहले भी अनेक बार देखा है”।


{{ParUG|444}} “गाड़ी दो बजे छूटती है। पक्की जानकारी के लिए एक बार और पता कर लो”, अथवा “गाड़ी दो बजे छूटती है। मैंने नवीनतम समय-सारिणी में अभी-अभी देखा है”। यह भी कहा जा सकता है “ऐसी बातों के लिए मुझ पर भरोसा किया जा सकता है”। ऐसे कथनों के लाभ स्पष्ट हैं।
{{ParUG|444}} “गाड़ी दो बजे छूटती है। पक्की जानकारी के लिए एक बार और पता कर लो”, अथवा “गाड़ी दो बजे छूटती है। मैंने नवीनतम समय-सारिणी में अभी-अभी देखा है”। यह भी कहा जा सकता है “ऐसी बातों के लिए मुझ पर भरोसा किया जा सकता है”। ऐसे कथनों के लाभ स्पष्ट हैं।
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{{ParUG|446}} किन्तु मुझे इस बात का निश्चय ''क्यों'' है कि यह मेरा हाथ है? क्या संपूर्ण भाषा-खेल ही इस प्रकार की निश्चितता पर आधारित नहीं है?
{{ParUG|446}} किन्तु मुझे इस बात का निश्चय ''क्यों'' है कि यह मेरा हाथ है? क्या संपूर्ण भाषा-खेल ही इस प्रकार की निश्चितता पर आधारित नहीं है?


अथवा: क्या यह 'निश्चितता' (पहले से ही) भाषा-खेल में पूर्वकल्पित तथ्य नहीं है? उदाहरणार्थ, इस तथ्य से कि जब हमें वस्तुओं की पक्की पहचान नहीं होती, तब या तो हम खेल को खेल ही नहीं रहे होते, या फिर उसे गलत खेल रहे होते हैं।
अथवा: क्या यह ‘निश्चितता’ (पहले से ही) भाषा-खेल में पूर्वकल्पित तथ्य नहीं है? उदाहरणार्थ, इस तथ्य से कि जब हमें वस्तुओं की पक्की पहचान नहीं होती, तब या तो हम खेल को खेल ही नहीं रहे होते, या फिर उसे गलत खेल रहे होते हैं।


28.3.
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मैं कहना चाहता हूँ: भौतिक खेल गणितीय खेल की तरह ही सुनिश्चित है। किन्तु इसे समझने में भूल हो सकती है। मेरी टिप्पणी मनोवैज्ञानिक न होकर तार्किक है।
मैं कहना चाहता हूँ: भौतिक खेल गणितीय खेल की तरह ही सुनिश्चित है। किन्तु इसे समझने में भूल हो सकती है। मेरी टिप्पणी मनोवैज्ञानिक न होकर तार्किक है।


{{ParUG|448}} मैं कहना चाहता हूँ: जब हम गणित की प्रतिज्ञप्तियों (उदाहरणार्थ, पहाड़ों) के 'पूर्णत: सुनिश्चित' होने पर चकित नहीं होते तो हम “यह मेरा हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति के उतना ही सुनिश्चित होने पर आश्चर्य क्यों करें?
{{ParUG|448}} मैं कहना चाहता हूँ: जब हम गणित की प्रतिज्ञप्तियों (उदाहरणार्थ, पहाड़ों) के ‘पूर्णत: सुनिश्चित’ होने पर चकित नहीं होते तो हम “यह मेरा हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति के उतना ही सुनिश्चित होने पर आश्चर्य क्यों करें?


{{ParUG|449}} कोई बात तो हमें आधार के रूप में सिखाई जानी चाहिए।
{{ParUG|449}} कोई बात तो हमें आधार के रूप में सिखाई जानी चाहिए।


{{ParUG|450}} मैं कहना चाहता हूँ: हमें इस तरह सिखाया जाता है “वह एक जामुनी वस्तु है”, “वह एक मेज है”। यह सम्भव है कि शिशु ने प्रथम बार ही 'जामुनी' शब्द को “संभवत: वह एक जामुनी वस्तु है” वाक्य में सुना हो किन्तु फिर भी वह “जामुनी क्या होता है?” प्रश्न को पूछ सकता है। शायद उसे किसी चित्र को दिखा कर इसका उत्तर दिया जा सकता है। यदि उसे चित्र दिखाते हुए ही हम कहें “वह एक...” पर अन्य स्थितियों में हम “संभवत: वह एक...” कहने के सिवाय कुछ भी न कहें, तो क्या होगा – इसके व्यावहारिक परिणाम क्या होंगे?
{{ParUG|450}} मैं कहना चाहता हूँ: हमें इस तरह सिखाया जाता है “वह एक जामुनी वस्तु है”, “वह एक मेज है”। यह सम्भव है कि शिशु ने प्रथम बार ही ‘जामुनी’ शब्द को “संभवत: वह एक जामुनी वस्तु है” वाक्य में सुना हो किन्तु फिर भी वह “जामुनी क्या होता है?” प्रश्न को पूछ सकता है। शायद उसे किसी चित्र को दिखा कर इसका उत्तर दिया जा सकता है। यदि उसे चित्र दिखाते हुए ही हम कहें “वह एक...” पर अन्य स्थितियों में हम “संभवत: वह एक...” कहने के सिवाय कुछ भी न कहें, तो क्या होगा – इसके व्यावहारिक परिणाम क्या होंगे?


सभी विषयों पर संशय करना कोई संशय नहीं होता।
सभी विषयों पर संशय करना कोई संशय नहीं होता।
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{{ParUG|458}} संशय का विशिष्ट आधार होता है। प्रश्न तो यह है: भाषा-खेल में संशय का प्रवेश कैसे होता है?
{{ParUG|458}} संशय का विशिष्ट आधार होता है। प्रश्न तो यह है: भाषा-खेल में संशय का प्रवेश कैसे होता है?


{{ParUG|459}} यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय 'धार्मिक विश्वास' जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है।
{{ParUG|459}} यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय ‘धार्मिक विश्वास’ जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है।


{{ParUG|460}} मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ “यह एक हाथ है न कि...; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।” क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि “यह एक हाथ है” ये शब्द कोई जानकारी देते तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते? वस्तुत:, 'इसके हाथ होने' पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? – किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं – चाहे वे विरल ही क्यों न हों – जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता।
{{ParUG|460}} मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ “यह एक हाथ है न कि...; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।” क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि “यह एक हाथ है” ये शब्द कोई जानकारी देते तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते? वस्तुत:, ‘इसके हाथ होने’ पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? – किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं – चाहे वे विरल ही क्यों न हों – जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता।


{{ParUG|461}} मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: “हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर – वास्तव में एक हाथ है” और फिर अपनी चोट के बारे में बताए – तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है।
{{ParUG|461}} मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: “हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर – वास्तव में एक हाथ है” और फिर अपनी चोट के बारे में बताए – तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है।
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8.4.
8.4.


{{ParUG|480}} “पेड़” शब्द के प्रयोग को सीखने वाला शिशु। उसके साथ पेड़ के समक्ष खड़े होकर हम कहते हैं “''प्यारा'' पेड़!” स्पष्टतः, इस भाषा-खेल में पेड़ के अस्तित्व में कोई संशय उपस्थित ही नहीं होता। किन्तु क्या यह कहा जा सकता है कि शिशु ''जानता'' है: 'कि पेड़ का अस्तित्व है'? यह तो ठीक है कि 'किसी वस्तु को जानने के लिए उसके बारे में ''चिन्तन'' करने की आवश्यकता नहीं होती – किन्तु, क्या ज्ञाता में संशय करने की क्षमता नहीं होनी चाहिए? और संशय करने का अभिप्राय है चिन्तन करना।
{{ParUG|480}} “पेड़” शब्द के प्रयोग को सीखने वाला शिशु। उसके साथ पेड़ के समक्ष खड़े होकर हम कहते हैं “''प्यारा'' पेड़!” स्पष्टतः, इस भाषा-खेल में पेड़ के अस्तित्व में कोई संशय उपस्थित ही नहीं होता। किन्तु क्या यह कहा जा सकता है कि शिशु ''जानता'' है: ‘कि पेड़ का अस्तित्व है’? यह तो ठीक है कि ‘किसी वस्तु को जानने के लिए उसके बारे में ''चिन्तन'' करने की आवश्यकता नहीं होती – किन्तु, क्या ज्ञाता में संशय करने की क्षमता नहीं होनी चाहिए? और संशय करने का अभिप्राय है चिन्तन करना।


{{ParUG|481}} जब हम मूअर को यह कहते हुए सुनते हैं कि “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” तो हमें यकायक उन लोगों की बात समझ आ जाती है जो सोचते हैं कि यह बात अभी तय नहीं हुई है।
{{ParUG|481}} जब हम मूअर को यह कहते हुए सुनते हैं कि “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” तो हमें यकायक उन लोगों की बात समझ आ जाती है जो सोचते हैं कि यह बात अभी तय नहीं हुई है।
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{{ParUG|492}} “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है...?” इसकी यह भी अभिव्यक्ति हो सकती है: जिस बात को हम अभी तक संशयातीत समझते आये हैं यदि वही निर्मूल ''लगने लगे'' तो क्या होगा? तब क्या मेरी वही प्रतिक्रिया होगी जो किसी मान्यता के निर्मूल सिद्ध होने पर होती है? अथवा क्या इससे मेरे समस्त निर्णयों का आधार ही समाप्त हो जायेगा? – बेशक मेरा मन्तव्य कोई ''भविष्यवाणी'' करना नहीं है।
{{ParUG|492}} “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है...?” इसकी यह भी अभिव्यक्ति हो सकती है: जिस बात को हम अभी तक संशयातीत समझते आये हैं यदि वही निर्मूल ''लगने लगे'' तो क्या होगा? तब क्या मेरी वही प्रतिक्रिया होगी जो किसी मान्यता के निर्मूल सिद्ध होने पर होती है? अथवा क्या इससे मेरे समस्त निर्णयों का आधार ही समाप्त हो जायेगा? – बेशक मेरा मन्तव्य कोई ''भविष्यवाणी'' करना नहीं है।


क्या मैं यही कहूँगा कि “मुझे कभी ऐसा सोचना ही नहीं चाहिए था” – या फिर मुझे अपने निर्णय को संशोधित करने से इन्कार कर देना होगा (चाहिए) –  क्योंकि ऐसे 'संशोधन' से सभी मानदण्ड लुप्त हो जाएंगे?
क्या मैं यही कहूँगा कि “मुझे कभी ऐसा सोचना ही नहीं चाहिए था” – या फिर मुझे अपने निर्णय को संशोधित करने से इन्कार कर देना होगा (चाहिए) –  क्योंकि ऐसे ‘संशोधन’ से सभी मानदण्ड लुप्त हो जाएंगे?


{{ParUG|493}} तो क्या बात यह है: कोई भी निर्णय लेने के लिए मुझे कुछ मानदण्डों को अपनाना पड़ेगा?
{{ParUG|493}} तो क्या बात यह है: कोई भी निर्णय लेने के लिए मुझे कुछ मानदण्डों को अपनाना पड़ेगा?
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{{ParUG|500}} किन्तु यह कथन भी मुझे निरर्थक ही लगेगा कि “मैं जानता हूँ कि आगमनात्मक सिद्धान्त सत्य है”।
{{ParUG|500}} किन्तु यह कथन भी मुझे निरर्थक ही लगेगा कि “मैं जानता हूँ कि आगमनात्मक सिद्धान्त सत्य है”।


ऐसे कथन के न्यायालय में कहे जाने की कल्पना कीजिए! “मेरा विश्वास है कि “... सिद्धान्त...” कहना अधिक उचित होगा। यहाँ 'विश्वास' का ''अनुमान'' लगाने से कोई सरोकार नहीं है।
ऐसे कथन के न्यायालय में कहे जाने की कल्पना कीजिए! “मेरा विश्वास है कि “... सिद्धान्त...” कहना अधिक उचित होगा। यहाँ ‘विश्वास’ का ''अनुमान'' लगाने से कोई सरोकार नहीं है।


{{ParUG|501}} क्या अन्ततोगत्वा मैं यही नहीं कह रहा हूँ कि तर्कशास्त्र वर्णन से परे है? भाषा प्रयोग से आपको इसका पता चलेगा।
{{ParUG|501}} क्या अन्ततोगत्वा मैं यही नहीं कह रहा हूँ कि तर्कशास्त्र वर्णन से परे है? भाषा प्रयोग से आपको इसका पता चलेगा।
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यदि मुझे ''यह'' ज्ञात नहीं तो मुझे यह कैसे पता चलेगा कि मेरे शब्दों का मनोनुकूल अर्थ है?
यदि मुझे ''यह'' ज्ञात नहीं तो मुझे यह कैसे पता चलेगा कि मेरे शब्दों का मनोनुकूल अर्थ है?


{{ParUG|507}} “यदि यह मुझे धोखा देता है तो 'धोखा देने' का अर्थ ही क्या होगा?”
{{ParUG|507}} “यदि यह मुझे धोखा देता है तो ‘धोखा देने’ का अर्थ ही क्या होगा?”


{{ParUG|508}} मैं किस पर भरोसा करूँ?
{{ParUG|508}} मैं किस पर भरोसा करूँ?
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12.4.
12.4.


{{ParUG|512}} क्या प्रश्न यह नहीं है: “इन आधारभूत बातों के बारे में भी अपने मत को बदलने पर क्या होगा?” और मेरे अनुसार इसका उत्तर होगा: “उनके बारे में आपको अपने मत को बदलना ही नहीं पड़ेगा। 'आधारभूत' होने का अर्थ ही यही है।”
{{ParUG|512}} क्या प्रश्न यह नहीं है: “इन आधारभूत बातों के बारे में भी अपने मत को बदलने पर क्या होगा?” और मेरे अनुसार इसका उत्तर होगा: “उनके बारे में आपको अपने मत को बदलना ही नहीं पड़ेगा। ‘आधारभूत’ होने का अर्थ ही यही है।”


{{ParUG|513}} ''अनहोनी'' होने पर क्या होगा? – उदाहरणार्थ, यदि मैं घरों को अकारण ही वाष्पीभूत होते देखूँ, यदि खेतों में पशु अपने सिर के बल खड़े होकर हँसने लगें और सार्थक शब्द बोलने लगें; यदि वृक्ष शनै: शनै: मानव और मानव वृक्षों के रूप में परिवर्तित होने लगें, तो इन समस्त घटनाओं के घटित होने से पहले क्या मेरा यह कहना ठीक था कि “मैं जानता हूँ कि वह एक घर है” इत्यादि, या फिर सिर्फ यह कहना कि “वह एक घर है” इत्यादि, उचित था?
{{ParUG|513}} ''अनहोनी'' होने पर क्या होगा? – उदाहरणार्थ, यदि मैं घरों को अकारण ही वाष्पीभूत होते देखूँ, यदि खेतों में पशु अपने सिर के बल खड़े होकर हँसने लगें और सार्थक शब्द बोलने लगें; यदि वृक्ष शनै: शनै: मानव और मानव वृक्षों के रूप में परिवर्तित होने लगें, तो इन समस्त घटनाओं के घटित होने से पहले क्या मेरा यह कहना ठीक था कि “मैं जानता हूँ कि वह एक घर है” इत्यादि, या फिर सिर्फ यह कहना कि “वह एक घर है” इत्यादि, उचित था?


{{ParUG|514}} मुझे यह आधारभूत कथन लगता था; यदि यही गलत है तो फिर 'सत्य' अथवा 'असत्य' किसे कहेंगे?!
{{ParUG|514}} मुझे यह आधारभूत कथन लगता था; यदि यही गलत है तो फिर ‘सत्य’ अथवा ‘असत्य’ किसे कहेंगे?!


{{ParUG|515}} यदि मेरा नाम लु. वि. नहीं है तो मैं “सत्य” अथवा “असत्य” पर कैसे विश्वास कर सकता हूँ?
{{ParUG|515}} यदि मेरा नाम लु. वि. नहीं है तो मैं “सत्य” अथवा “असत्य” पर कैसे विश्वास कर सकता हूँ?
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15.4.
15.4.


{{ParUG|524}} क्या हमारे भाषा-खेलों (उदाहरणार्थ, 'आदेश देना और उसका पालन करना') के लिए यह अनिवार्य है कि किन्हीं विशिष्ट बातों पर संदेह किया ही नहीं जा सकता, या फिर यही काफी है कि संदेह की गुंजाइश रहने पर भी हमें असंदिग्धता की अनुभूति हो?
{{ParUG|524}} क्या हमारे भाषा-खेलों (उदाहरणार्थ, ‘आदेश देना और उसका पालन करना’) के लिए यह अनिवार्य है कि किन्हीं विशिष्ट बातों पर संदेह किया ही नहीं जा सकता, या फिर यही काफी है कि संदेह की गुंजाइश रहने पर भी हमें असंदिग्धता की अनुभूति हो?


यानी, क्या यही काफी है कि जिन वस्तुओं को मैं अभी ''सीधे-सीधे'' 'श्याम' 'हरित' 'रक्त' कहता हूँ, उन्हें ऐसा न कहकर – यह कहने लगूँ कि “मुझे निश्चय है कि वह रक्त है”, जैसे हम कहते हैं कि “मुझे निश्चय है कि वह आज आएगा” (दूसरे शब्दों में 'निश्चयात्मकता' के साथ)?
यानी, क्या यही काफी है कि जिन वस्तुओं को मैं अभी ''सीधे-सीधे'' ‘श्याम’ ‘हरित’ ‘रक्त’ कहता हूँ, उन्हें ऐसा न कहकर – यह कहने लगूँ कि “मुझे निश्चय है कि वह रक्त है”, जैसे हम कहते हैं कि “मुझे निश्चय है कि वह आज आएगा” (दूसरे शब्दों में ‘निश्चयात्मकता’ के साथ)?


बेशक, जैसे हम सहगामी अनुभूति के प्रति तटस्थ हैं, उसी प्रकार हमें “मुझे निश्चय है” जैसे शब्दों की परवाह करने की आवश्यकता नहीं है। – महत्त्वपूर्ण तो यह है कि उनसे भाषा के ''प्रयोग'' में कोई अन्तर पड़ता है या नहीं।
बेशक, जैसे हम सहगामी अनुभूति के प्रति तटस्थ हैं, उसी प्रकार हमें “मुझे निश्चय है” जैसे शब्दों की परवाह करने की आवश्यकता नहीं है। – महत्त्वपूर्ण तो यह है कि उनसे भाषा के ''प्रयोग'' में कोई अन्तर पड़ता है या नहीं।
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यदि ये दोनों स्थितियां नहीं हैं तो हम उसकी बात समझ ही नहीं पाएंगे।
यदि ये दोनों स्थितियां नहीं हैं तो हम उसकी बात समझ ही नहीं पाएंगे।


{{ParUG|527}} इस रंग को “लाल” कहने वाले हिन्दी-भाषी को 'इस बात का निश्चय नहीं है कि उस रंग को हिन्दी में “लाल” कहते हैं'।
{{ParUG|527}} इस रंग को “लाल” कहने वाले हिन्दी-भाषी को ‘इस बात का निश्चय नहीं है कि उस रंग को हिन्दी में “लाल” कहते हैं’।


इस शब्द-प्रयोग में कुशल शिशु को 'इस बात का निश्चय' नहीं होता 'कि उसकी भाषा में यह रंग... कहलाता है'। न ही यह कहा जा सकता है कि बोलना सीखते समय ही वह यह भी सीख जाता है कि उस रंग को हिन्दी में यह कहते हैं; न ही यह कहा जा सकता है: शब्द के प्रयोग को सीखने पर वह इस बात को ''जान जाता'' है।
इस शब्द-प्रयोग में कुशल शिशु को ‘इस बात का निश्चय’ नहीं होता ‘कि उसकी भाषा में यह रंग... कहलाता है’। न ही यह कहा जा सकता है कि बोलना सीखते समय ही वह यह भी सीख जाता है कि उस रंग को हिन्दी में यह कहते हैं; न ही यह कहा जा सकता है: शब्द के प्रयोग को सीखने पर वह इस बात को ''जान जाता'' है।


{{ParUG|528}} तिस पर भी: यह पूछने पर कि इस रंग को हिन्दी भाषा में क्या कहते हैं, यदि मेरे जवाब देने पर वह पूछता है “क्या आप आश्वस्त हैं?” – तो मैं उसे उत्तर देता हूँ “मैं इसे ''जानता'' हूँ; हिन्दी मेरी मातृ-भाषा है”।
{{ParUG|528}} तिस पर भी: यह पूछने पर कि इस रंग को हिन्दी भाषा में क्या कहते हैं, यदि मेरे जवाब देने पर वह पूछता है “क्या आप आश्वस्त हैं?” – तो मैं उसे उत्तर देता हूँ “मैं इसे ''जानता'' हूँ; हिन्दी मेरी मातृ-भाषा है”।
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{{ParUG|529}} उदाहरणार्थ, एक शिशु किसी अन्य शिशु के बारे में या फिर अपने ही बारे में कहेगा कि उसे पहले से ही ज्ञात है कि अमुक वस्तु का क्या अभिधान है।
{{ParUG|529}} उदाहरणार्थ, एक शिशु किसी अन्य शिशु के बारे में या फिर अपने ही बारे में कहेगा कि उसे पहले से ही ज्ञात है कि अमुक वस्तु का क्या अभिधान है।


{{ParUG|530}} मैं किसी को (उदाहरणार्थ, उसे हिन्दी सिखाते समय) कह सकता हूँ कि “इस रंग को हिन्दी में 'लाल' कहते हैं”। इस स्थिति में मुझे यह नहीं कहना चाहिए कि “मैं जानता हूँ कि इस रंग को...” – संभवतः, मैं ऐसा तभी कहूँगा जब मैंने इसे हाल ही में सीखा हो, या फिर मैं इसे तब कहूँगा जब मुझे उसकी किसी ऐसे रंग के नाम से तुलना करनी हो जिससे मैं अपरिचित हूँ।
{{ParUG|530}} मैं किसी को (उदाहरणार्थ, उसे हिन्दी सिखाते समय) कह सकता हूँ कि “इस रंग को हिन्दी में ‘लाल’ कहते हैं”। इस स्थिति में मुझे यह नहीं कहना चाहिए कि “मैं जानता हूँ कि इस रंग को...” – संभवतः, मैं ऐसा तभी कहूँगा जब मैंने इसे हाल ही में सीखा हो, या फिर मैं इसे तब कहूँगा जब मुझे उसकी किसी ऐसे रंग के नाम से तुलना करनी हो जिससे मैं अपरिचित हूँ।


{{ParUG|531}} किन्तु, क्या मेरी वर्तमान स्थिति का उचित विवरण निम्नलिखित नही होगा: मैं ''जानता'' हूँ कि इस रंग को हिन्दी में क्या कहते हैं? और यदि यह ठीक है तो मैं अपनी स्थिति का वर्णन उसके अनुरूप “मैं जानता हूँ इत्यादि” शब्दों द्वारा क्यों नहीं दे सकता?
{{ParUG|531}} किन्तु, क्या मेरी वर्तमान स्थिति का उचित विवरण निम्नलिखित नही होगा: मैं ''जानता'' हूँ कि इस रंग को हिन्दी में क्या कहते हैं? और यदि यह ठीक है तो मैं अपनी स्थिति का वर्णन उसके अनुरूप “मैं जानता हूँ इत्यादि” शब्दों द्वारा क्यों नहीं दे सकता?
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{{ParUG|541}} “वह इस व्यक्ति के नाम को तो जानता है – परन्तु उस व्यक्ति के नाम को नहीं”। यह बात हम उस व्यक्ति के बारे में तो कह ही नहीं सकते जो अभिधान के प्रत्यय से अनभिज्ञ है।
{{ParUG|541}} “वह इस व्यक्ति के नाम को तो जानता है – परन्तु उस व्यक्ति के नाम को नहीं”। यह बात हम उस व्यक्ति के बारे में तो कह ही नहीं सकते जो अभिधान के प्रत्यय से अनभिज्ञ है।


{{ParUG|542}} “यह जाने बिना कि इस रंग को 'लाल' कहते हैं मैं इस फूल का वर्णन नहीं: दे सकता।”
{{ParUG|542}} “यह जाने बिना कि इस रंग को ‘लाल’ कहते हैं मैं इस फूल का वर्णन नहीं: दे सकता।”


{{ParUG|543}} “मैं इसका नाम जानता हूँ; मैं अभी तक उसका नाम नहीं जानता” यह कह सकने की स्थिति से पूर्व शिशु लोगों के नामों का प्रयोग कर सकता है।
{{ParUG|543}} “मैं इसका नाम जानता हूँ; मैं अभी तक उसका नाम नहीं जानता” यह कह सकने की स्थिति से पूर्व शिशु लोगों के नामों का प्रयोग कर सकता है।
Line 1,404: Line 1,404:
17.4.
17.4.


{{ParUG|545}} 'शिशु जानता है कि “नीला” शब्द किस रंग का द्योतक है।' उसकी जानकारी इतनी सरल नहीं है।
{{ParUG|545}} ‘शिशु जानता है कि “नीला” शब्द किस रंग का द्योतक है।’ उसकी जानकारी इतनी सरल नहीं है।


{{ParUG|546}} यदि, उदाहरणार्थ, प्रश्न किसी ऐसे रंग का हो जिसका नाम सभी नहीं जानते, तो मुझे कहना चाहिए कि “मैं इस रंग का नाम जानता हूँ”।
{{ParUG|546}} यदि, उदाहरणार्थ, प्रश्न किसी ऐसे रंग का हो जिसका नाम सभी नहीं जानते, तो मुझे कहना चाहिए कि “मैं इस रंग का नाम जानता हूँ”।
Line 1,418: Line 1,418:
18.4.
18.4.


{{ParUG|550}} जब कोई किसी बात पर विश्वास करता है तब हम सदैव इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते 'वह उस पर विश्वास क्यों करता है?'; किन्तु यदि वह किसी बात को जानता है तो इस प्रश्न का उत्तर होना ही चाहिए कि “वह कैसे जानता है?”।
{{ParUG|550}} जब कोई किसी बात पर विश्वास करता है तब हम सदैव इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते ‘वह उस पर विश्वास क्यों करता है?; किन्तु यदि वह किसी बात को जानता है तो इस प्रश्न का उत्तर होना ही चाहिए कि “वह कैसे जानता है?”।


{{ParUG|551}} इस प्रश्न के उत्तर की स्थिति में वह उत्तर सामान्य रूप में स्वीकृत मान्यताओं के अनुकूल होना चाहिए। ''ऐसी'' बात को ऐसे ही जाना जाता है।
{{ParUG|551}} इस प्रश्न के उत्तर की स्थिति में वह उत्तर सामान्य रूप में स्वीकृत मान्यताओं के अनुकूल होना चाहिए। ''ऐसी'' बात को ऐसे ही जाना जाता है।
Line 1,458: Line 1,458:
{{ParUG|561}} “मैं जानता हूँ” और “आप इस पर भरोसा कर सकते हैं”। किन्तु उत्तर कथन को पूर्वकथन से बदला नहीं जा सकता।
{{ParUG|561}} “मैं जानता हूँ” और “आप इस पर भरोसा कर सकते हैं”। किन्तु उत्तर कथन को पूर्वकथन से बदला नहीं जा सकता।


{{ParUG|562}} किसी ऐसी भाषा की कल्पना तो करनी ही होगी जिसमें 'ज्ञान' का ''हमारा'' प्रत्यय न हो।
{{ParUG|562}} किसी ऐसी भाषा की कल्पना तो करनी ही होगी जिसमें ‘ज्ञान’ का ''हमारा'' प्रत्यय न हो।


{{ParUG|563}} ठोस आधारों के अभाव में भी हम कहते हैं “मैं जानता हूँ कि वह वेदना-ग्रस्त है”। – क्या यह ऐसा कहना है “मुझे निश्चय है कि वह...”? – नहीं। “मुझे निश्चय है” कहने से आपको मेरी मनोगत निश्चयात्मकता का पता चलता है। “मैं जानता हूँ” कहने का अभिप्राय यह है कि जानकार मैं और गैरजानकार अन्य व्यक्ति में (संभवत: अनुभव की कोटि में भेद पर आधारित) भिन्नता का कारण जानकारी का भेद है।
{{ParUG|563}} ठोस आधारों के अभाव में भी हम कहते हैं “मैं जानता हूँ कि वह वेदना-ग्रस्त है”। – क्या यह ऐसा कहना है “मुझे निश्चय है कि वह...”? – नहीं। “मुझे निश्चय है” कहने से आपको मेरी मनोगत निश्चयात्मकता का पता चलता है। “मैं जानता हूँ” कहने का अभिप्राय यह है कि जानकार मैं और गैरजानकार अन्य व्यक्ति में (संभवत: अनुभव की कोटि में भेद पर आधारित) भिन्नता का कारण जानकारी का भेद है।
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{{ParUG|564}} कोई भाषा खेल: ईंटों को लाना, उपलब्ध ईंटों की संख्या बताना। इस संख्या का कभी तो हिसाब लगाया जाता है, और कभी गिन कर बताया जाता है। फिर प्रश्न उठता है: “क्या आपकी मान्यता है कि ईंटें इतनी हैं?” और इसका उत्तर होता है “मैं जानता हूँ कि ईंटें इतनी हैं – मैंने उन्हें हाल ही में गिना है”। किन्तु यहाँ “मैं जानता हूँ” कथन का परित्याग किया जा सकता है। बहरहाल, यदि किसी बात को सुनिश्चित करने के अनेक तरीके हों, जैसे गिनना, तौलना, चट्टे की नपाई करना, तो “मैं जानता हूँ” कथन को हम ''कैसे'' जानते हैं से प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
{{ParUG|564}} कोई भाषा खेल: ईंटों को लाना, उपलब्ध ईंटों की संख्या बताना। इस संख्या का कभी तो हिसाब लगाया जाता है, और कभी गिन कर बताया जाता है। फिर प्रश्न उठता है: “क्या आपकी मान्यता है कि ईंटें इतनी हैं?” और इसका उत्तर होता है “मैं जानता हूँ कि ईंटें इतनी हैं – मैंने उन्हें हाल ही में गिना है”। किन्तु यहाँ “मैं जानता हूँ” कथन का परित्याग किया जा सकता है। बहरहाल, यदि किसी बात को सुनिश्चित करने के अनेक तरीके हों, जैसे गिनना, तौलना, चट्टे की नपाई करना, तो “मैं जानता हूँ” कथन को हम ''कैसे'' जानते हैं से प्रतिस्थापित किया जा सकता है।


{{ParUG|565}} किन्तु यहाँ ''इसे'' “पट्टिका” ''इसे'' “स्तम्भ” इत्यादि कहते हैं इस 'ज्ञान' का प्रश्न ही नहीं उठता।
{{ParUG|565}} किन्तु यहाँ ''इसे'' “पट्टिका” ''इसे'' “स्तम्भ” इत्यादि कहते हैं इस ‘ज्ञान’ का प्रश्न ही नहीं उठता।


{{ParUG|566}} न ही मेरा भाषा-खेल (नम्बर 2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' §2. सं.</ref> सीखने वाला शिशु यह कहना सीखता है कि “मैं जानता हूँ कि इसे 'पट्टिका' कहते हैं।”
{{ParUG|566}} न ही मेरा भाषा-खेल (नम्बर 2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' §2. सं.</ref> सीखने वाला शिशु यह कहना सीखता है कि “मैं जानता हूँ कि इसे ‘पट्टिका’ कहते हैं।”


बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे “इस रंग को... कहते हैं”।) – अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं “और इस ईंट को '...' कहते हैं”, और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।
बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे “इस रंग को... कहते हैं”।) – अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं “और इस ईंट को ...कहते हैं”, और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।


{{ParUG|567}} और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे लु.वि. कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।
{{ParUG|567}} और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे लु.वि. कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।
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{{ParUG|582}} “मैं जानता हूँ” का यह अर्थ हो सकता है: मैं इससे पहले से परिचित हूँ – या फिर: ऐसा ही है।
{{ParUG|582}} “मैं जानता हूँ” का यह अर्थ हो सकता है: मैं इससे पहले से परिचित हूँ – या फिर: ऐसा ही है।


{{ParUG|583}} “मैं जानता हूँ कि... में इसका नाम '...' है।” – आप कैसे जानते हैं? – “मैंने... सीखा है”।
{{ParUG|583}} “मैं जानता हूँ कि... में इसका नाम ...है।” – आप कैसे जानते हैं? – “मैंने... सीखा है”।


इस उदाहरण में “... में इसका नाम '...' है” के स्थान पर क्या मैं “जानता हूँ इत्यादि” अभिव्यक्ति का प्रयोग कर सकता हूँ?
इस उदाहरण में “... में इसका नाम ...है” के स्थान पर क्या मैं “जानता हूँ इत्यादि” अभिव्यक्ति का प्रयोग कर सकता हूँ?


{{ParUG|584}} क्या किसी साधारण कथन के बाद “जानना” क्रिया को “आप कैसे जानते हैं?” प्रश्न में ही प्रयोग करना संभव होगा? – “मैं पहले से ही उसे जानता हूँ” यह कहने के बजाय हम “मैं उससे परिचित हूँ” कहते हैं; और यह उस तथ्य के बताए जाने पर ही होता है। किन्तु<ref>''यह वाक्य बाद में जोड़ा गया।'' (सं.)</ref> “मैं जानता हूँ कि वह क्या है” के बदले हम क्या कहें?
{{ParUG|584}} क्या किसी साधारण कथन के बाद “जानना” क्रिया को “आप कैसे जानते हैं?” प्रश्न में ही प्रयोग करना संभव होगा? – “मैं पहले से ही उसे जानता हूँ” यह कहने के बजाय हम “मैं उससे परिचित हूँ” कहते हैं; और यह उस तथ्य के बताए जाने पर ही होता है। किन्तु<ref>''यह वाक्य बाद में जोड़ा गया।'' (सं.)</ref> “मैं जानता हूँ कि वह क्या है” के बदले हम क्या कहें?
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{{ParUG|611}} जब भी दो परस्पर विरोधी सिद्धान्तों का वास्तविक टकराव होता है तब दोनों एक दूसरे को बेवकूफ और पागल कहते हैं।
{{ParUG|611}} जब भी दो परस्पर विरोधी सिद्धान्तों का वास्तविक टकराव होता है तब दोनों एक दूसरे को बेवकूफ और पागल कहते हैं।


{{ParUG|612}} मैंने कहा कि मैं दूसरे व्यक्ति का 'मुकाबला' करूँगा, – किन्तु, क्या मैं उसे ''युक्ति'' नहीं दूँगा? निश्चय ही मैं उसे युक्ति दूँगा; किन्तु उनसे हम कितनी दूर जा सकेंगे? अन्ततोगत्वा युक्ति के बाद ''समझाना'' पड़ता है। (मिशनरियों द्वारा आदिम लोगों के धर्म परिवर्तन की स्थिति पर विचार करें।)
{{ParUG|612}} मैंने कहा कि मैं दूसरे व्यक्ति का ‘मुकाबला’ करूँगा, – किन्तु, क्या मैं उसे ''युक्ति'' नहीं दूँगा? निश्चय ही मैं उसे युक्ति दूँगा; किन्तु उनसे हम कितनी दूर जा सकेंगे? अन्ततोगत्वा युक्ति के बाद ''समझाना'' पड़ता है। (मिशनरियों द्वारा आदिम लोगों के धर्म परिवर्तन की स्थिति पर विचार करें।)


{{ParUG|613}} यदि अब मैं कहूँ “मैं जानता हूँ कि आँच पर रखी केतली में भरा पानी खौलेगा न कि जमेगा”, तो “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का औचित्य ''किसी भी'' प्रयोग जैसा होता है। 'यदि मैं कुछ भी जानता हूँ तो मैं इसे जानता हूँ।' – अथवा, क्या इससे भी ''अधिक'' निश्चितता से मैं जानता हूँ कि मेरे सामने बैठा व्यक्ति मेरा अमुक मित्र है? और इसकी तुलना इस बात से कैसे होगी कि मैं दो आँखों से देखता हूँ और दर्पण में देखने पर वे मुझे दिखाई देंगी? – मैं निश्चयपूर्वक इसका उत्तर नहीं दे सकता। – किन्तु फिर भी इन स्थितियों में भेद तो है। आँच पर रखे पानी के जम जाने पर बेशक मैं स्तंभित हो जाऊँगा, किन्तु इसके लिए किसी अनजाने कारण की कल्पना करूँगा और संभवत: इस मामले को भौतिक-शास्त्रियों के निर्णय के लिए छोड़ दूँगा। किन्तु, मेरे सामने बैठा व्यक्ति वर्षों से मेरा परिचित न. न. है इस बात पर मैं क्योंकर संदेह करूँगा? इस पर संदेह करने से सभी बातें संदेहास्पद हो जाएंगी और सब कुछ गड़बड़ा जाएगा।
{{ParUG|613}} यदि अब मैं कहूँ “मैं जानता हूँ कि आँच पर रखी केतली में भरा पानी खौलेगा न कि जमेगा”, तो “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का औचित्य ''किसी भी'' प्रयोग जैसा होता है। ‘यदि मैं कुछ भी जानता हूँ तो मैं इसे जानता हूँ।’ – अथवा, क्या इससे भी ''अधिक'' निश्चितता से मैं जानता हूँ कि मेरे सामने बैठा व्यक्ति मेरा अमुक मित्र है? और इसकी तुलना इस बात से कैसे होगी कि मैं दो आँखों से देखता हूँ और दर्पण में देखने पर वे मुझे दिखाई देंगी? – मैं निश्चयपूर्वक इसका उत्तर नहीं दे सकता। – किन्तु फिर भी इन स्थितियों में भेद तो है। आँच पर रखे पानी के जम जाने पर बेशक मैं स्तंभित हो जाऊँगा, किन्तु इसके लिए किसी अनजाने कारण की कल्पना करूँगा और संभवत: इस मामले को भौतिक-शास्त्रियों के निर्णय के लिए छोड़ दूँगा। किन्तु, मेरे सामने बैठा व्यक्ति वर्षों से मेरा परिचित न. न. है इस बात पर मैं क्योंकर संदेह करूँगा? इस पर संदेह करने से सभी बातें संदेहास्पद हो जाएंगी और सब कुछ गड़बड़ा जाएगा।


{{ParUG|614}} यानी: यदि चारों ओर मेरा विरोध हो और मुझे बताया जाए कि इस व्यक्ति का नाम वह नहीं है जिसे मैं सदा से जानता हूँ (और मैं यहाँ “जानना” शब्द का प्रयोग जान-बूझकर कर रहा हूँ), तो मेरे सभी निर्णयों का आधार ही मुझसे छिन जायेगा।
{{ParUG|614}} यानी: यदि चारों ओर मेरा विरोध हो और मुझे बताया जाए कि इस व्यक्ति का नाम वह नहीं है जिसे मैं सदा से जानता हूँ (और मैं यहाँ “जानना” शब्द का प्रयोग जान-बूझकर कर रहा हूँ), तो मेरे सभी निर्णयों का आधार ही मुझसे छिन जायेगा।
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वस्तुतः, क्या यह स्पष्ट प्रतीत नहीं होता कि भाषा-खेल की संभावना विशिष्ट तथ्यों पर निर्भर करती है?
वस्तुतः, क्या यह स्पष्ट प्रतीत नहीं होता कि भाषा-खेल की संभावना विशिष्ट तथ्यों पर निर्भर करती है?


{{ParUG|618}} उस स्थिति में ऐसा लगता है मानो किसी भाषा-खेल को अपने आधार 'प्रदर्शित' करने होंगे। (किन्तु ऐसा नहीं है।)
{{ParUG|618}} उस स्थिति में ऐसा लगता है मानो किसी भाषा-खेल को अपने आधार ‘प्रदर्शित’ करने होंगे। (किन्तु ऐसा नहीं है।)


तो, क्या यह कहा जा सकता है कि घटनाओं की नियमितता ही आगमनात्मक विधि को संभावित बनाती है? बेशक, 'संभावना' को '''तार्किक संभावना''<nowiki/>' होना होगा।
तो, क्या यह कहा जा सकता है कि घटनाओं की नियमितता ही आगमनात्मक विधि को संभावित बनाती है? बेशक, ‘संभावना’ को ''तार्किक संभावना''होना होगा।


{{ParUG|619}} क्या मुझे कहना होगा: प्राकृतिक परिस्थितियों की अनियमितता की स्थिति में भी मुझे अपनी बात से ''डिगना'' नहीं पड़ेगा? ऐसा होने पर भी मैं पहले की तरह अनुमान लगा सकता हूँ, किन्तु यह एक अलग बात है कि उसे “आगमनात्मक विधि” कहना उचित होगा या नहीं।
{{ParUG|619}} क्या मुझे कहना होगा: प्राकृतिक परिस्थितियों की अनियमितता की स्थिति में भी मुझे अपनी बात से ''डिगना'' नहीं पड़ेगा? ऐसा होने पर भी मैं पहले की तरह अनुमान लगा सकता हूँ, किन्तु यह एक अलग बात है कि उसे “आगमनात्मक विधि” कहना उचित होगा या नहीं।
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{{ParUG|623}} यह अटपटी बात ही है कि ऐसी स्थिति में मैं सदैव कहना चाहता हूँ (चाहे यह गलत है): “जहाँ तक इस बात को जानना संभव है – मैं इसे जानता हूँ।” यह गलत है किन्तु इसके पीछे कोई ठीक बात छिपी है।
{{ParUG|623}} यह अटपटी बात ही है कि ऐसी स्थिति में मैं सदैव कहना चाहता हूँ (चाहे यह गलत है): “जहाँ तक इस बात को जानना संभव है – मैं इसे जानता हूँ।” यह गलत है किन्तु इसके पीछे कोई ठीक बात छिपी है।


{{ParUG|624}} “हिन्दी में इस रंग को 'हरा' कहने में क्या आप गलती कर सकते हैं?” मैं इस प्रश्न का उत्तर “नहीं” में ही दे सकता हूँ। यदि मेरा उत्तर हो: “हाँ, क्योंकि भ्रम की संभावना सदा रहती ही है” तो यह निरर्थक बात होगी।
{{ParUG|624}} “हिन्दी में इस रंग को ‘हरा’ कहने में क्या आप गलती कर सकते हैं?” मैं इस प्रश्न का उत्तर “नहीं” में ही दे सकता हूँ। यदि मेरा उत्तर हो: “हाँ, क्योंकि भ्रम की संभावना सदा रहती ही है” तो यह निरर्थक बात होगी।


क्या कोई इस संशोधन से अनभिज्ञ है? और मुझे इसका कैसे पता चलता है?
क्या कोई इस संशोधन से अनभिज्ञ है? और मुझे इसका कैसे पता चलता है?
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अन्तहीन संशय, संशय होता ही नहीं।
अन्तहीन संशय, संशय होता ही नहीं।


{{ParUG|626}} यह कहने का भी कोई अर्थ नहीं होता: “यदि मेरी जुबान फिसल न गई हो, या मैं भ्रान्त न होऊँ तो हिन्दी में इस रंग का नाम ''निश्चित रूप से'' 'हरा' होता है।”
{{ParUG|626}} यह कहने का भी कोई अर्थ नहीं होता: “यदि मेरी जुबान फिसल न गई हो, या मैं भ्रान्त न होऊँ तो हिन्दी में इस रंग का नाम ''निश्चित रूप से'' ‘हरा’ होता है।”


{{ParUG|627}} क्या हमें ''सभी'' भाषा-खेलों में इस शर्त को स्थान नहीं देना होगा? (जिससे इसकी निरर्थकता का पता चलता है।)
{{ParUG|627}} क्या हमें ''सभी'' भाषा-खेलों में इस शर्त को स्थान नहीं देना होगा? (जिससे इसकी निरर्थकता का पता चलता है।)
Line 1,684: Line 1,684:
{{ParUG|640}} या फिर क्या मैं यह कहूँ: यह वाक्य ''एक प्रकार'' की चूक को नकार देता है।
{{ParUG|640}} या फिर क्या मैं यह कहूँ: यह वाक्य ''एक प्रकार'' की चूक को नकार देता है।


{{ParUG|641}} “उसने आज ही मुझे इस बारे में बताया है – मैं इस बारे में भूल कर ही नहीं सकता।” – किन्तु इसके गलत निकलने पर क्या होगा?! – किसी बात के 'गलत निकलने' के ढंगों में क्या हमें भेद नहीं करना होगा? – अपने कथन की भूल को कैसे ''प्रदर्शित'' किया जा ''सकता'' है? यहाँ प्रमाण के सामने प्रमाण है, और यह ''निर्णय लेना होगा'' कि कौनसा प्रमाण रहे और कौनसा न रहे।
{{ParUG|641}} “उसने आज ही मुझे इस बारे में बताया है – मैं इस बारे में भूल कर ही नहीं सकता।” – किन्तु इसके गलत निकलने पर क्या होगा?! – किसी बात के ‘गलत निकलने’ के ढंगों में क्या हमें भेद नहीं करना होगा? – अपने कथन की भूल को कैसे ''प्रदर्शित'' किया जा ''सकता'' है? यहाँ प्रमाण के सामने प्रमाण है, और यह ''निर्णय लेना होगा'' कि कौनसा प्रमाण रहे और कौनसा न रहे।


{{ParUG|642}} पर मान लो कोई झिझकते हुए कहे: क्या होगा यदि मैं अचानक जागूँ और कहूँ कि “जरा रुकिए, मैं कल्पना कर रहा था कि मुझे लु. वि. कहते हैं!” – बेशक, किन्तु कौन जानता है कि मैं पुनः न जागूँ और इसे विचित्र कल्पना न कहूँ, इत्यादि, इत्यादि?
{{ParUG|642}} पर मान लो कोई झिझकते हुए कहे: क्या होगा यदि मैं अचानक जागूँ और कहूँ कि “जरा रुकिए, मैं कल्पना कर रहा था कि मुझे लु. वि. कहते हैं!” – बेशक, किन्तु कौन जानता है कि मैं पुनः न जागूँ और इसे विचित्र कल्पना न कहूँ, इत्यादि, इत्यादि?


{{ParUG|643}} हम ऐसी स्थिति की कल्पना तो कर ही सकते हैं – और ऐसी स्थितियाँ होती भी हैं – जिनमें 'जागने' के बाद कोई संदेह ही नहीं रहे कि कौनसी कल्पना थी और कौनसी वास्तविकता। किन्तु, ऐसी स्थिति या उसकी संभावना से “मैं भूल कर ही नहीं सकता” प्रतिज्ञप्ति की साख कम नहीं हो जाती।
{{ParUG|643}} हम ऐसी स्थिति की कल्पना तो कर ही सकते हैं – और ऐसी स्थितियाँ होती भी हैं – जिनमें ‘जागने’ के बाद कोई संदेह ही नहीं रहे कि कौनसी कल्पना थी और कौनसी वास्तविकता। किन्तु, ऐसी स्थिति या उसकी संभावना से “मैं भूल कर ही नहीं सकता” प्रतिज्ञप्ति की साख कम नहीं हो जाती।


{{ParUG|644}} अन्यथा, क्या सभी कथनों की साख इस प्रकार कम नहीं हो जाएगी?
{{ParUG|644}} अन्यथा, क्या सभी कथनों की साख इस प्रकार कम नहीं हो जाएगी?
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{{ParUG|647}} भाषा-खेल में स्वीकृत भूल और अपवाद स्वरूप होने वाली पूर्ण-अनियमितता में भेद होता है।
{{ParUG|647}} भाषा-खेल में स्वीकृत भूल और अपवाद स्वरूप होने वाली पूर्ण-अनियमितता में भेद होता है।


{{ParUG|648}} किसी अन्य व्यक्ति को मैं भरोसा दिला सकता हूँ कि मैं 'भूल कर ही नहीं सकता'।
{{ParUG|648}} किसी अन्य व्यक्ति को मैं भरोसा दिला सकता हूँ कि मैं ‘भूल कर ही नहीं सकता’।


मैं किसी को कहता हूँ कि “अमुक व्यक्ति सुबह मेरे साथ था और उसने मुझे अमुक बात बताई”। यदि यह चकित करने वाली बात हो तो वह मुझसे पूछ सकता है: “आप इस बारे में भूल कर ही नही सकते?” उसका आशय हो सकता है: “क्या यह वास्तव में ''आज सुबह'' ही घटित हुआ?” या फिर: “क्या आपको उसे ठीक-ठीक समझने का भरोसा है?” समय और कथन सम्बन्धी अपनी निर्दोषता को प्रदर्शित करने के लिए मुझे जिन बातों का विवरण देना होगा वे तो सर्वविदित है। उन सब विवरणों से यह तो पता ''नहीं'' चलता कि मैंने पूरे प्रकरण को सपने में देखा हैं, या फिर उसकी केवल कल्पना की है। न ही उनसे यह पता चलता है कि आद्योपांत मेरी ''ज़बान फिसलती'' रही है। (ऐसा भी होता है।)
मैं किसी को कहता हूँ कि “अमुक व्यक्ति सुबह मेरे साथ था और उसने मुझे अमुक बात बताई”। यदि यह चकित करने वाली बात हो तो वह मुझसे पूछ सकता है: “आप इस बारे में भूल कर ही नही सकते?” उसका आशय हो सकता है: “क्या यह वास्तव में ''आज सुबह'' ही घटित हुआ?” या फिर: “क्या आपको उसे ठीक-ठीक समझने का भरोसा है?” समय और कथन सम्बन्धी अपनी निर्दोषता को प्रदर्शित करने के लिए मुझे जिन बातों का विवरण देना होगा वे तो सर्वविदित है। उन सब विवरणों से यह तो पता ''नहीं'' चलता कि मैंने पूरे प्रकरण को सपने में देखा हैं, या फिर उसकी केवल कल्पना की है। न ही उनसे यह पता चलता है कि आद्योपांत मेरी ''ज़बान फिसलती'' रही है। (ऐसा भी होता है।)


{{ParUG|649}} (एक बार मैंने किसी को – अंग्रेजी भाषा में – कहा कि यह टहनी एल्म (चिराबेल का अंग्रेजी नाम) की टहनी की आकृति जैसी है, पर मेरे साथी ने मेरी बात से असहमति जताई। थोड़ी देर बाद ऐसे स्थान पर पहुँचने पर जहाँ ऐश (अंगू का अंग्रेजी नाम) के पेड़ थे मैंने कहा “देखो, ये वैसी टहनियाँ हैं जिनके बारे में मैं बात कर रहा था<nowiki>''</nowiki>। यह सुनकर उसने कहा “किन्तु ये तो ऐश के पेड़ हैं” – फिर मैंने कहा “एल्म शब्द से मेरा तात्पर्य ऐश से था”।)
{{ParUG|649}} (एक बार मैंने किसी को – अंग्रेजी भाषा में – कहा कि यह टहनी एल्म (चिराबेल का अंग्रेजी नाम) की टहनी की आकृति जैसी है, पर मेरे साथी ने मेरी बात से असहमति जताई। थोड़ी देर बाद ऐसे स्थान पर पहुँचने पर जहाँ ऐश (अंगू का अंग्रेजी नाम) के पेड़ थे मैंने कहा “देखो, ये वैसी टहनियाँ हैं जिनके बारे में मैं बात कर रहा था”। यह सुनकर उसने कहा “किन्तु ये तो ऐश के पेड़ हैं” – फिर मैंने कहा “एल्म शब्द से मेरा तात्पर्य ऐश से था”।)


{{ParUG|650}} निश्चित रूप से इसका अर्थ है: कई (अनेक) स्थितियों में ''भूल'' की संभावना को दूर किया जा सकता है। – हिसाब में भूल ऐसे ही सुधारी जाती है। किसी हिसाब की बार-बार जाँच करने के बाद हम यह नहीं कह सकते कि “फिलहाल यह ''अत्यन्त सम्भावित'' परिणाम ही है क्योंकि अभी भी कोई चूक हो सकती है”। किसी चूक के मिल जाने पर भी – हम ऐसा क्यों न समझें कि यह किसी नई चूक का परिणाम है।
{{ParUG|650}} निश्चित रूप से इसका अर्थ है: कई (अनेक) स्थितियों में ''भूल'' की संभावना को दूर किया जा सकता है। – हिसाब में भूल ऐसे ही सुधारी जाती है। किसी हिसाब की बार-बार जाँच करने के बाद हम यह नहीं कह सकते कि “फिलहाल यह ''अत्यन्त सम्भावित'' परिणाम ही है क्योंकि अभी भी कोई चूक हो सकती है”। किसी चूक के मिल जाने पर भी – हम ऐसा क्यों न समझें कि यह किसी नई चूक का परिणाम है।
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26.4.51
26.4.51


{{ParUG|654}} किन्तु इसके विरोध में अनेक आपत्तियाँ हैं। – प्रथमतः “12 × 12 इत्यादि” प्रतिज्ञप्ति एक ''गणितीय'' प्रतिज्ञप्ति है और इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसी स्थिति में केवल गणितीय प्रतिज्ञप्तियाँ ही होती हैं। और यदि यह अनुमान उचित न हो तो कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति होनी चाहिए जो इस प्रतिज्ञप्ति के समान सुनि-श्चित हो और जो इस परिकलन-पद्धति से संबंधित होने के बावजूद गणितीय न हो। मैं किसी ऐसी प्रतिज्ञप्ति के बारे में सोच रहा हूँ: “जब परिकलन जानने वाले लोग '12 × 12' को गुणा करते हैं, तो अधिकांश लोगों का गुणनफल '144' होता है।” इस प्रतिज्ञप्ति का कोई भी विरोध नहीं करेगा और यह गणितीय है भी नहीं है। किन्तु क्या यह गणितीय प्रतिज्ञप्ति के समान सुनिश्चित है?
{{ParUG|654}} किन्तु इसके विरोध में अनेक आपत्तियाँ हैं। – प्रथमतः “12 × 12 इत्यादि” प्रतिज्ञप्ति एक ''गणितीय'' प्रतिज्ञप्ति है और इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसी स्थिति में केवल गणितीय प्रतिज्ञप्तियाँ ही होती हैं। और यदि यह अनुमान उचित न हो तो कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति होनी चाहिए जो इस प्रतिज्ञप्ति के समान सुनि-श्चित हो और जो इस परिकलन-पद्धति से संबंधित होने के बावजूद गणितीय न हो। मैं किसी ऐसी प्रतिज्ञप्ति के बारे में सोच रहा हूँ: “जब परिकलन जानने वाले लोग ‘12 × 12’ को गुणा करते हैं, तो अधिकांश लोगों का गुणनफल ‘144’ होता है।” इस प्रतिज्ञप्ति का कोई भी विरोध नहीं करेगा और यह गणितीय है भी नहीं है। किन्तु क्या यह गणितीय प्रतिज्ञप्ति के समान सुनिश्चित है?


{{ParUG|655}} गणितीय प्रतिज्ञप्ति पर तो, मानो आधिकारिक रूप से, अकाट्यता की मुहर लगा दी गई है। यानी: “अन्य बातों के बारे में विवाद कीजिए; ''यह'' तो ध्रुव है – यह तो ऐसी धुरी है जिसके चारों ओर आपके विवाद घूमते हैं।”
{{ParUG|655}} गणितीय प्रतिज्ञप्ति पर तो, मानो आधिकारिक रूप से, अकाट्यता की मुहर लगा दी गई है। यानी: “अन्य बातों के बारे में विवाद कीजिए; ''यह'' तो ध्रुव है – यह तो ऐसी धुरी है जिसके चारों ओर आपके विवाद घूमते हैं।”
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(बल्कि मैं यह भी जोड़ सकता हूँ: “जैसे मैं अपना नाम लु. वि. होने के बारे में भूल नहीं कर सकता, वैसे ही इसके बारे में भी भूल नहीं कर सकता।”)
(बल्कि मैं यह भी जोड़ सकता हूँ: “जैसे मैं अपना नाम लु. वि. होने के बारे में भूल नहीं कर सकता, वैसे ही इसके बारे में भी भूल नहीं कर सकता।”)


फिर भी कोई अन्य व्यक्ति मेरे कथन पर संशय प्रकट कर सकता है। किन्तु, मुझ 'पर भरोसा करने पर वह न केवल मेरी सूचना को स्वीकार करता है अपितु वह मेरी धारणा से मेरे आगामी व्यवहार का भी निश्चित अनुमान लगा लेता है।
फिर भी कोई अन्य व्यक्ति मेरे कथन पर संशय प्रकट कर सकता है। किन्तु, मुझ ‘पर भरोसा करने पर वह न केवल मेरी सूचना को स्वीकार करता है अपितु वह मेरी धारणा से मेरे आगामी व्यवहार का भी निश्चित अनुमान लगा लेता है।


{{ParUG|669}} “मैं भूल कर ही नहीं सकता” यह वाक्य व्यवहार में प्रयुक्त होता है। किन्तु हम पूछ सकते हैं कि क्या हमें इसे इसके संकीर्ण अर्थ में समझना है या फिर यह एक प्रकार की अतिशयोक्ति है जिसका प्रयोग संभवतः किसी को मनाने के लिए किया जाता है।
{{ParUG|669}} “मैं भूल कर ही नहीं सकता” यह वाक्य व्यवहार में प्रयुक्त होता है। किन्तु हम पूछ सकते हैं कि क्या हमें इसे इसके संकीर्ण अर्थ में समझना है या फिर यह एक प्रकार की अतिशयोक्ति है जिसका प्रयोग संभवतः किसी को मनाने के लिए किया जाता है।
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{{ParUG|671}} मैं यहाँ से संसार के उस भाग में उड़ कर जाता हूँ जहाँ के लोगों ने उड़ने की संभावना के बारे में या तो बहुत कम या फिर कुछ भी न सुना हो। मैं उन्हें बताता हूँ कि मैं अभी-अभी... से उड़ कर आया हूँ। वे मुझसे पूछते हैं कि कहीं मैं भूल तो नहीं कर रहा। – स्पष्टतः उड़ने के बारे में उनके दोषपूर्ण विचार हैं। (संदूक में बन्द होकर यात्रा करने पर अपनी यात्रा के साधन के बारे में मुझसे भूल होने की संभावना है।) मेरे मात्र यह कहने से कि मैं गलती नहीं कर सकता संभवत: वे सन्तुष्ट नहीं होंगे; किन्तु वास्तविक विधि के विवरण से वे सन्तुष्ट हो जाएंगे। फिर वे ''भूल'' करने की संभावना की बात ही नहीं करेंगे। किन्तु इतना होने पर – मुझ पर भरोसा करने पर भी – वे सोच सकते हैं कि मैं स्वप्नावस्था में था, या जादू के वशीभूत मैं इसकी कल्पना कर रहा हूँ।
{{ParUG|671}} मैं यहाँ से संसार के उस भाग में उड़ कर जाता हूँ जहाँ के लोगों ने उड़ने की संभावना के बारे में या तो बहुत कम या फिर कुछ भी न सुना हो। मैं उन्हें बताता हूँ कि मैं अभी-अभी... से उड़ कर आया हूँ। वे मुझसे पूछते हैं कि कहीं मैं भूल तो नहीं कर रहा। – स्पष्टतः उड़ने के बारे में उनके दोषपूर्ण विचार हैं। (संदूक में बन्द होकर यात्रा करने पर अपनी यात्रा के साधन के बारे में मुझसे भूल होने की संभावना है।) मेरे मात्र यह कहने से कि मैं गलती नहीं कर सकता संभवत: वे सन्तुष्ट नहीं होंगे; किन्तु वास्तविक विधि के विवरण से वे सन्तुष्ट हो जाएंगे। फिर वे ''भूल'' करने की संभावना की बात ही नहीं करेंगे। किन्तु इतना होने पर – मुझ पर भरोसा करने पर भी – वे सोच सकते हैं कि मैं स्वप्नावस्था में था, या जादू के वशीभूत मैं इसकी कल्पना कर रहा हूँ।


{{ParUG|672}} 'जब मैं ''इस'' साक्ष्य पर भरोसा नहीं करता तो मैं किसी अन्य साक्ष्य पर भरोसा क्यों करूँ?'
{{ParUG|672}} ‘जब मैं ''इस'' साक्ष्य पर भरोसा नहीं करता तो मैं किसी अन्य साक्ष्य पर भरोसा क्यों करूँ?


{{ParUG|673}} क्या मेरे द्वारा कतई गलती न कर सकने, और ''न के बराबर'' गलती करने की संभावना वाली स्थितियों में भेद करना कठिन नहीं है? स्थिति के प्रकार के बारे में क्या हम सदा सुस्पष्ट होते हैं? मेरे विचार में तो नहीं।
{{ParUG|673}} क्या मेरे द्वारा कतई गलती न कर सकने, और ''न के बराबर'' गलती करने की संभावना वाली स्थितियों में भेद करना कठिन नहीं है? स्थिति के प्रकार के बारे में क्या हम सदा सुस्पष्ट होते हैं? मेरे विचार में तो नहीं।