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हम तो यही पूछ सकते हैं कि क्या उस पर शंका करना सार्थक हो सकता है। | हम तो यही पूछ सकते हैं कि क्या उस पर शंका करना सार्थक हो सकता है। | ||
{{ParUG|3}} उदाहरणार्थ, जब कोई कहता है कि “मैं नहीं जानता कि क्या यह हाथ है या “नहीं” तो उसे बतलाया जा सकता है, “जरा ध्यान से देखो”। | {{ParUG|3}} उदाहरणार्थ, जब कोई कहता है कि “मैं नहीं जानता कि क्या यह हाथ है या “नहीं” तो उसे बतलाया जा सकता है, “जरा ध्यान से देखो”। – इस प्रकार की आत्मसन्तुष्टि की संभावना भाषा - खेल का एक भाग है, उसका एक विशिष्ट गुण है। | ||
{{ParUG|4}} “मैं जानता हूँ कि मैं मानव हूँ”। इस प्रतिज्ञप्ति के अर्थ की अस्पष्टता को जानने के लिए इसके निषेध पर विचार करें। अधिकाधिक इसका अर्थ यही हो सकता है “मैं जानता हूँ कि मैं मानव अंगों से रचा गया हूँ।” (“उदाहरणार्थ, मेरे शरीर में मस्तिष्क है, जिसे अब तक किसी ने नहीं देखा।”) किन्तु ऐसी प्रतिज्ञप्ति का क्या होगा: “मैं जानता हूँ कि मेरे शरीर में एक मस्तिष्क है”? क्या इस पर संशय किया जा सकता है? ''संशय'' का आधार तो कोई है नहीं! इसके पक्ष में सभी कुछ है पर विपक्ष में कुछ भी नहीं। फिर भी यह कल्पना की जा सकती है कि मेरी खोपड़ी को खोलने पर उसमें से कुछ भी न निकले। | {{ParUG|4}} “मैं जानता हूँ कि मैं मानव हूँ”। इस प्रतिज्ञप्ति के अर्थ की अस्पष्टता को जानने के लिए इसके निषेध पर विचार करें। अधिकाधिक इसका अर्थ यही हो सकता है “मैं जानता हूँ कि मैं मानव अंगों से रचा गया हूँ।” (“उदाहरणार्थ, मेरे शरीर में मस्तिष्क है, जिसे अब तक किसी ने नहीं देखा।”) किन्तु ऐसी प्रतिज्ञप्ति का क्या होगा: “मैं जानता हूँ कि मेरे शरीर में एक मस्तिष्क है”? क्या इस पर संशय किया जा सकता है? ''संशय'' का आधार तो कोई है नहीं! इसके पक्ष में सभी कुछ है पर विपक्ष में कुछ भी नहीं। फिर भी यह कल्पना की जा सकती है कि मेरी खोपड़ी को खोलने पर उसमें से कुछ भी न निकले। |