ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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{{ParUG|1}} यदि आप निश्चित रूप से यह जानते हैं कि ''यह एक हाथ है''<ref>देखें, जी. ई. मूअर “प्रूफ़ ऑव एन एक्सटर्नल वर्ल्ड”, ''प्रोसीडिंग्स ऑव द ब्रिटिश अकेडमी'', खडं xxv, 1930; और “ए डिफेन्स ऑव कॉमन सेन्स”, ''कान्टेम्परेरी ब्रिटिश फ़िलोसॉफ़ी, सेकेंड सिरीज़'', संपादक जे. एच. मयूरहैड, 1925। ये दोनों शोध-पत्र मूअर की पुस्तक ''फ़िलोसॉफ़िकल पेपर्स'', लंदन: जॉर्ज एलन एन्ड अन्विन, 1959 में भी मिलते हैं।</ref> तो हम आपके बाकी सारे ज्ञान को स्वीकार कर लेते हैं।
{{ParUG|1}} यदि आप निश्चित रूप से यह जानते हैं कि ''यह एक हाथ है''<ref>देखें, जी. ई. मूअर “प्रूफ़ ऑव एन एक्सटर्नल वर्ल्ड”, ''प्रोसीडिंग्स ऑव द ब्रिटिश अकेडमी'', खडं xxv, 1930; और “ए डिफेन्स ऑव कॉमन सेन्स”, ''कान्टेम्परेरी ब्रिटिश फ़िलोसॉफ़ी, सेकेंड सिरीज़'', संपादक जे. एच. मयूरहैड, 1925। ये दोनों शोध-पत्र मूअर की पुस्तक ''फ़िलोसॉफ़िकल पेपर्स'', लंदन: जॉर्ज एलन एन्ड अन्विन, 1959 में भी मिलते हैं।</ref> तो हम आपके बाकी सारे ज्ञान को स्वीकार कर लेते हैं।


जब हम यह कहते हैं कि अमुक प्रतिज्ञप्ति को सिद्ध नहीं किया जा सकता तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि उसकी अन्य प्रतिज्ञप्तियों से निष्पत्ति नहीं की जा सकती; किसी प्रतिज्ञप्ति की अन्य प्रतिज्ञप्तियों से निष्पत्ति की जा सकती है, किन्तु यह जरूरी नहीं कि वे उस प्रतिज्ञप्ति से अधिक विश्वसनीय हों। (इस पर एच. न्यूमैन की अटपटी टिप्पणी)
जब हम यह कहते हैं कि अमुक प्रतिज्ञप्ति को सिद्ध नहीं किया जा सकता तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि उसकी अन्य प्रतिज्ञप्तियों से निष्पत्ति नहीं की जा सकती; किसी प्रतिज्ञप्ति की अन्य प्रतिज्ञप्तियों से निष्पत्ति की जा सकती है, किन्तु यह जरूरी नहीं कि वे उस प्रतिज्ञप्ति से अधिक विश्वसनीय हों। (इस पर एच. न्यूमैन की अटपटी टिप्पणी)....


{{ParUG|2}} मुझे या किसी को कोई विषय कैसा ''दीखता'' है उस से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि वह वैसा ही है।
{{ParUG|2}} मुझे या किसी को कोई विषय कैसा ''दीखता'' है उस से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि वह वैसा ही है।