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{{ParUG|17}} मान लीजिए कि किसी वस्तु को इंगित करते हुए मैं कहता हूँ “मैं इस बारे में त्रुटि कर ही नहीं सकता (कि): वह एक किताब है “। यहाँ पर त्रुटि किस प्रकार की होगी? क्या इसके बारे में मेरी कोई ''स्पष्ट'' धारणा है? | {{ParUG|17}} मान लीजिए कि किसी वस्तु को इंगित करते हुए मैं कहता हूँ “मैं इस बारे में त्रुटि कर ही नहीं सकता (कि): वह एक किताब है “। यहाँ पर त्रुटि किस प्रकार की होगी? क्या इसके बारे में मेरी कोई ''स्पष्ट'' धारणा है? | ||
{{ParUG|18}} प्राय: “मैं जानता हूँ” का यह अर्थ होता है: मेरे पास अपने कथन के लिए उचित आधार हैं। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह मानेगा कि मैं जानता। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह कल्पना कर सकता है कि उस प्रकार के विषय को कैसे जाना जाता है। | {{ParUG|18}} प्राय: “मैं जानता हूँ” का यह अर्थ होता है: मेरे पास अपने कथन के लिए उचित आधार हैं। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह मानेगा कि मैं जानता। भाषा-खेल से परिचित कोई भी व्यक्ति यह कल्पना कर सकता है कि उस प्रकार के विषय को ''कैसे'' जाना जाता है। | ||
{{ParUG|19}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” इस कथन के आगे तो यह कहा जा सकता है: “क्योंकि मैं ''अपने'' हाथ को ही देख रहा हूँ”। फिर कोई भी समझदार व्यक्ति इस पर संशय नहीं करेगा कि मैं जानता हूँ। – न ही कोई प्रत्ययवादी इस पर संशय करेगा; अपितु वह तो यही कहेगा कि यहाँ पर वह उस व्यावहारिक संशय की बात नहीं कर रहा है जिसे निरस्त किया जा रहा है, परन्तु वह उससे भी ''आगे'' के संशय की बात कर रहा है। – इस ''मरीचिका'' को तो किसी अन्य ढंग से सिद्ध करना होगा। | {{ParUG|19}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” इस कथन के आगे तो यह कहा जा सकता है: “क्योंकि मैं ''अपने'' हाथ को ही देख रहा हूँ”। फिर कोई भी समझदार व्यक्ति इस पर संशय नहीं करेगा कि मैं जानता हूँ। – न ही कोई प्रत्ययवादी इस पर संशय करेगा; अपितु वह तो यही कहेगा कि यहाँ पर वह उस व्यावहारिक संशय की बात नहीं कर रहा है जिसे निरस्त किया जा रहा है, परन्तु वह उससे भी ''आगे'' के संशय की बात कर रहा है। – इस ''मरीचिका'' को तो किसी अन्य ढंग से सिद्ध करना होगा। |