फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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क्योंकि "आकृति को इंगित करना", "आकृति का तात्पर्य होना" इत्यादि शब्दों उसी प्रकार प्रयोग नहीं किया जाता जिस प्रकार ''इनको'': "इस पुस्तक को (न कि उसको) इंगित करना", "कुर्सी को इंगित करना न कि मेज को", इत्यादि। इतना ही सोचिए कि "इस वस्तु को इंगित करना", "उस वस्तु को इंगित करना" शब्दों का प्रयोग सीखने और दूसरी ओर “रंग को, न कि आकृति को इंगित करना", "रंग का तात्पर्य होना", इत्यादि शब्दों का प्रयोग ''सीखने'' में कितनी भिन्नता है।
क्योंकि "आकृति को इंगित करना", "आकृति का तात्पर्य होना" इत्यादि शब्दों उसी प्रकार प्रयोग नहीं किया जाता जिस प्रकार ''इनको'': "इस पुस्तक को (न कि उसको) इंगित करना", "कुर्सी को इंगित करना न कि मेज को", इत्यादि। इतना ही सोचिए कि "इस वस्तु को इंगित करना", "उस वस्तु को इंगित करना" शब्दों का प्रयोग सीखने और दूसरी ओर “रंग को, न कि आकृति को इंगित करना", "रंग का तात्पर्य होना", इत्यादि शब्दों का प्रयोग ''सीखने'' में कितनी भिन्नता है।


यानी: कुछ स्थितियों — विशेषकर जिनमें कोई 'आकृति को', 'संख्या को' इंगित करता है — में विशिष्ट अनुभव तथा इंगित करने के ढंग होते हैं — 'विशिष्ट' इसलिए
यानी: कुछ स्थितियों — विशेषकर जिनमें कोई 'आकृति को', 'संख्या को' इंगित करता है — में विशिष्ट अनुभव तथा इंगित करने के ढंग होते हैं — 'विशिष्ट' इसलिए कि बहुधा (सदा तो नहीं) वे अनुभव बार-बार होते हैं जब हमारा 'तात्पर्य' आकृति अथवा संख्या होता है। परन्तु क्या आप किसी खेल की गोटी को ''खेल की गोटी के रूप'' में इंगित करने का कोई विशिष्ट अनुभव जानते हैं? फिर भी कोई कह सकता है: "मेरा तात्पर्य है कि यह ''मोहरा'', न कि लकड़ी का विशेष टुकड़ा जिसे मैं इंगित कर रहा हूँ, 'राजा' कहलाता है"। (पहचानना, चाहना, स्मरण करना, इत्यादि।)
 
'''36.''' और यहाँ हम वही करते हैं जो अनेक स्थितियों में किया जाता है: क्योंकि जब हम किसी ऐसी ''एक'' दैहिक क्रिया का उल्लेख नहीं कर पाते जिसे हम आकृति (उदाहरणार्थ रंग के विरुद्ध) को इंगित करना कहते हैं, तो हम कहते हैं कि इन शब्दों से कोई आध्यात्मिक (मानसिक, बौद्धिक) क्रिया अभिव्यक्त होती है।
 
जहाँ हमारी भाषा हमें कोई देह सुझाती है और वहाँ देह कोई होती नहीं: वहाँ हम कहना चाहते हैं कि कोई ''आत्मा'' है।
 
'''37.''' नाम का उस वस्तु से क्या संबंध है जिसे वह नाम दिया गया है? — हाँ तो, यह है क्या? भाषा-खेल §2 अथवा किसी अन्य भाषा खेल पर दृष्टिपात करें; तब आप यह जान पायेंगे कि यह संबंध क्या है। यह संबंध अनेक अन्य बातों के साथ-साथ इस तथ्य में भी निहित हो सकता है कि किसी नाम को सुनने पर हमारे मन में उस वस्तु का चित्र उभर आता है जिस वस्तु का वह नाम है; और अन्य बातों के साथ-साथ यह इस में भी निहित हो सकता है कि वस्तु पर उसका नाम लिखा होता हो, अथवा उस वस्तु को इंगित करते समय वह नाम उच्चारित किया जाता हो ।
 
{{PU box|"''वह'' नीला है" शब्दों से कभी तो इंगित वस्तु — और कभी 'नीला' शब्द की व्याख्या, ''अर्थ'' होना कैसे होता है? हाँ, दूसरी स्थिति में हमारा यह तात्पर्य होता है "उसे 'नीला' कहते हैं" — तो क्या कभी "है" शब्द से हमारा तात्पर्य "कहलाता है", और "नीला" शब्द से "'नीला'" हो सकता है, और कभी "है" शब्द से हमारा तात्पर्य 'है' शब्द जैसा वास्तव में होता है, वैसा ही हो सकता है?
 
ऐसे वाक्यों से, जिनका उद्देश्य सूचित करना हो, भी कोई व्यक्ति शब्दों को समझ सकता है। (हाशियों में टिप्पणी: यहाँ महत्त्वपूर्ण अंधविश्वास है।)
 
क्या बुबुबु कहने से मेरा तात्पर्य "यदि वर्षा नहीं होगी तो मैं सैर को जाऊँगा" हो सकता है? — भाषा में ही मेरा कोई अर्थ हो सकता है। इससे पता चलता है कि "अर्थ होना" अभिव्यक्ति का व्याकरण "कल्पना करना" इत्यादि के व्याकरण जैसा नहीं होता।}}