फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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ऐसे वाक्यों से, जिनका उद्देश्य सूचित करना हो, भी कोई व्यक्ति शब्दों को समझ सकता है। (हाशियों में टिप्पणी: यहाँ महत्त्वपूर्ण अंधविश्वास है।)
ऐसे वाक्यों से, जिनका उद्देश्य सूचित करना हो, भी कोई व्यक्ति शब्दों को समझ सकता है। (हाशियों में टिप्पणी: यहाँ महत्त्वपूर्ण अंधविश्वास है।)


क्या बुबुबु कहने से मेरा तात्पर्य "यदि वर्षा नहीं होगी तो मैं सैर को जाऊँगा" हो सकता है? — भाषा में ही मेरा कोई अर्थ हो सकता है। इससे पता चलता है कि "अर्थ होना" अभिव्यक्ति का व्याकरण "कल्पना करना" इत्यादि के व्याकरण जैसा नहीं होता।}}
क्या बुबुबु कहने से मेरा तात्पर्य "यदि वर्षा नहीं होगी तो मैं सैर को जाऊँगा" हो सकता है? — भाषा में ही मेरा कोई अर्थ हो सकता है। इससे पता चलता है कि "अर्थ होना" अभिव्यक्ति का व्याकरण "कल्पना करना" इत्यादि के व्याकरण जैसा नहीं होता।}}'''38.''' परन्तु, भाषा-खेल §8 में "यह" अथवा "वह.... कहलाता है" जैसी निदर्शनात्मक परिभाषा में "वह" शब्द किसका नाम है? — यदि आप मतिभ्रम उत्पन्न करना नहीं चाहते तो आपके लिए सर्वश्रेष्ठ यही होगा कि इन शब्दों को नाम कहें ही नहीं । — तथापि, आश्चर्य है कि केवल "यह" शब्द को ही ''यथार्थ'' नाम कहा गया है; फिर और किसी शब्द को नाम कहना तो केवल अशुद्ध एवं मिलते-जुलते अर्थ में ही नाम कहना होगा।
 
यूँ कहिए कि भाषा के तर्क को उदात्त बनाने की हमारी प्रवृत्ति ही इस विचित्र संकल्पना का स्रोत है। इसका उचित उत्तर तो यह है: हम विभिन्न विषयों को "नाम" कहते हैं; "नाम" शब्द का प्रयोग तो शब्द के ऐसे भिन्न प्रयोगों में होता है जो एक दूसरे से विभिन्न प्रकारों से संबंधित हैं; किन्तु जिस प्रकार का प्रयोग "यह" का होता है वह उनमें से नहीं है।
 
उदाहरणार्थ, यह तो नितान्त सत्य है कि, निदर्शनात्मक परिभाषा देते हुए हम बहुधा विषय को इंगित करते हुए उस का नाम पुकारते हैं। और उसी प्रकार, निदर्शनात्मक परिभाषा देते हुए हम विषय को इंगित करते हुए "यह" शब्द कहते हैं। वाक्य में "यह" शब्द का और नाम का स्थान भी बहुधा एक ही होता है । परन्तु यह तो नाम की ही विशेषता है कि उसे "वह न है" (अथवा "वह न कहलाता है") प्रदर्शनात्मक अभिव्यक्ति द्वारा परिभाषित किया जाता है। किन्तु क्या हम ऐसी परिभाषाएं भी देते हैं: "वह, 'यह' कहलाता है", अथवा "यह 'यह' कहलाता है"?
 
इसका संबंध नामकरण की ऐसी संकल्पना से है जिसमें उसे कोई रहस्यमय प्रक्रिया माना गया है। नामकरण किसी शब्द का किसी वस्तु से एक ''विचित्र'' संबंध प्रतीत होता है। — और आपको वास्तव में ऐसा विचित्र संबंध मिलता है जब नाम और वस्तु के बीच का ही संबंध दार्शनिक प्रस्तुत करता है। ऐसे संबंध को प्रस्तुत करने के लिए वह अपने समक्ष स्थित वस्तु को अपलक निहारता है एवं किसी नाम को अथवा "यह" शब्द को ही अनेक बार दोहराता है। क्योंकि जब ''भाषा विरत हो जाती है'' तब दार्शनिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं और ''यहाँ'' निस्संदेह हम मिथ्या कल्पना कर सकते हैं कि नामकरण मानो किसी वस्तु के ही नाम रखने की कोई असाधारण मानसिक क्रिया हो। और हम वस्तु के तईं भी "यह" शब्द कह सकते हैं, यूँ कहिए कि वस्तु को हम "यह" से ''संबोधित'' कर सकते हैं — निस्संदेह इस शब्द का विचित्र प्रयोग केवल दार्शनिक चिन्तन में होता है।
 
'''39.''' परन्तु किसी की इसी शब्द को ही नाम बनाने की इच्छा क्यों होती है, जबकि स्पष्टत: यह नाम ही ''नहीं'' है? — यही तो कारण है। क्योंकि साधारणतः जो नाम कहलाता है उसके विरुद्ध आपत्ति उठाने का हमें प्रलोभन होता है। इसे यूँ कहा जा सकता है: ''नाम से तो वास्तव में सरल विषय ही निर्दिष्ट होना चाहिए''। और इसके लिए संभवत: निम्नलिखित कारण दिए जा सकते हैं: उदाहरणार्थ, “एक्सकालिबर" शब्द साधारण अर्थ में एक समीचीन नाम है। एक्सकालिबर तलवार तो विभिन्न अंशों का विशिष्ट प्रकार का संयोजन है। यदि उसका संयोजन किसी अन्य प्रकार से किया जाए तो वह एक्सकालिबर नहीं होती। परन्तु यह स्पष्ट है कि "एक्सकालिबर का फल पैना है" वाक्य तो अर्थपूर्ण ही है, चाहे एक्सकालिबर अखंड रहे अथवा खंड-खंड हो जाए। किन्तु यदि "एक्सकालिबर" किसी वस्तु का नाम है तब वह वस्तु रहती ही नहीं जब एक्सकालिबर के खंड हो जाते हैं; और तब इस नाम का कोई अर्थ नहीं होगा क्योंकि तब इसके अनुरूप कोई भी वस्तु नहीं होगी। किन्तु फिर तो "एक्सकालिबर का पैना फल है" वाक्य में एक ऐसा शब्द होगा जिसका कोई अर्थ ही नहीं और इसलिए पूर्ण वाक्य ही निरर्थक होगा। परन्तु इसका अर्थ तो है; अतः इस वाक्य के प्रत्येक शब्द के अनुरूप कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए । अतः, अर्थ के विश्लेषण करने पर "एक्सकालिबर" शब्द को अनिवार्यतः लुप्त हो जाना चाहिए और उसका स्थान उन शब्दों को ले लेना चाहिए जो असंयुक्त-खंडों के नाम हों। उन शब्दों को यथार्थ नाम देना उचित ही होगा।
 
'''40.''' आइए पहले हम युक्ति के इस पक्ष का विवेचन करें: यदि शब्द के अनुरूप कुछ भी न हो तो उसका कोई अर्थ ही नहीं होता। — यह ध्यान देने योग्य बात है कि यदि "अर्थ" शब्द का प्रयोग उसके 'अनुरूप' वस्तु को इंगित करने के लिए किया जाए तो उसका प्रयोग ही अयुक्त है। वह तो नाम के अर्थ को उस नाम के ''वाहक'' के साथ उलझाना है । जब श्री '''न. न.''' की मृत्यु होती है तो कहा जाता है कि उस नाम के वाहक की मृत्यु हो गई है, न कि उस नाम के अर्थ की। परन्तु यह कहना निरर्थक होगा क्योंकि यदि उस नाम का अर्थ नहीं रहा हो तो “श्री '''न. न.''' की मृत्यु हो गई है" कहने का कोई अर्थ ही नहीं होगा।
 
'''41.''' §15 में हमने §8 की भाषा में व्यक्तिवाचक नामों का समावेश किया था। अब मान लीजिए कि "'''न'''" नाम वाला उपकरण टूट गया है। इस बात से अनभिज्ञ '''क''' अब '''ख''' को "'''न'''" संकेत देता है। क्या यह संकेत अब अर्थपूर्ण है या नहीं? — '''ख''' क्या करे जब उसे यह संकेत दिया जाए? — इस बारे में हमने कुछ भी निश्चय
 
नहीं किया है। पूछा जा सकता है: वह करेगा क्या? संभवत: वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ा रहेगा, अथवा '''क''' को उसके खंड दिखाएगा। यहाँ कहा जा ''सकता'' है: "'''न'''" अर्थहीन हो गया है; और इस अभिव्यक्ति का अर्थ होगा कि "'''न'''" संकेत का हमारे भाषा-खेल अब कोई प्रयोग नहीं रहा (यदि हम उसे कोई नया प्रयोग न दें तो)। "'''न'''" इसलिए भी अर्थहीन हो सकता है कि किसी भी कारणवश उपकरण को कोई अन्य नाम दे दिया गया हो और "'''न'''" संकेत को अब भाषा-खेल में प्रयोग नहीं किया जाता हो — किन्तु हम ऐसी परिपाटी की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें जब '''ख''' को '''क''' ऐसे उपकरण का संकेत दे जो खंडित हो चुका हो तो '''ख''' को उत्तर में सिर हिलाना होता है। — कहा जा सकता है कि इस प्रकार उपकरण के न रहने पर भी "'''न'''" आदेश को भाषा-खेल में स्थान दिया गया है, और "'''न'''" संकेत का अर्थ उसके वाहक के न रहने पर भी है।
 
'''42.''' किन्तु, क्या उस खेल में, उदाहरणार्थ, ऐसे नाम का भी कोई अर्थ होता है जिसे ''कभी भी'' किसी भी उपकरण के लिए प्रयोग न किया गया हो? — आइए हम मान लें कि "X" इस प्रकार का संकेत है, और '''क''' यह संकेत '''ख''' को देता है — हाँ इस प्रकार के संकेतों को भी भाषा-खेल में स्थान दिया जा सकता है, और '''ख''' को उनका उत्तर भी, मानो सिर हिलाकर देना हो सकता है (इसकी कल्पना उनके बीच एक प्रकार के परिहास के रूप में की जा सकती है।)
 
'''43.''' ''अधिकांश'' स्थितियों में — यद्यपि सभी में तो नहीं — जिनमें हम 'अर्थ' शब्द का प्रयोग करते हैं, इसकी परिभाषा यूँ की जा सकती है: किसी भी शब्द का अर्थ तो भाषा में उसका प्रयोग है।
 
और नाम के ''अर्थ'' की व्याख्या कभी-कभी उसके ''वाहक'' को इंगित करके की जाती है।
 
'''44.''' हमने कहा कि एक्सकालिबर के खंडित हो जाने पर भी "एक्सकालिबर का पैना फल है" वाक्य अर्थपूर्ण होता है। अब ऐसा इसलिए है कि इस भाषा-खेल में नाम का उसके वाहक की अनुपस्थिति में भी प्रयोग किया जाता है। किन्तु हम नामों (अर्थात् ऐसे संकेतों जिन्हें हम निश्चित रूप से नामों में सम्मिलित करेंगे) वाले ऐसे भाषा-खेल की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें उनका प्रयोग उनके वाहक की उपस्थिति में ही किया जा सकता हो; और इसलिए उन्हें प्रदर्शनात्मक सर्वनाम एवं इंगित करने की भंगिमा द्वारा ''सदैव'' प्रतिस्थापित किया जा सकता हो।
 
'''45.''' प्रदर्शनात्मक "यह" कभी भी वाहक विहीन नहीं हो सकता। कहा जा सकता है: "जब तक कोई ''यह'' है तब तक 'यह' शब्द अर्थपूर्ण भी है, चाहे ''यह'' असंयुक्त हो अथवा संयुक्त" — किन्तु उससे यह शब्द नाम तो नहीं बन जाता। इसके विपरीत: नाम का प्रयोग इंगित करने की भंगिमा के साथ नहीं किया जाता अपितु उस भंगिमा द्वारा उसकी तो केवल व्याख्या ही की जाती है।
'''46.''' नाम वस्तुत: असंयुक्तों को इंगित करते हैं, इस विचार की पृष्ठभूमि क्या है? —
''थिएटेटस'' में सुकरात कहते हैं: "यदि मैं कोई भूल नहीं कर रहा तो मैंने कुछ लोगों को यह कहते हुए सुना है: मूल तत्त्वों की, यानि उन तत्त्वों की जिनसे हमारी और अन्य सभी विषयों की संरचना हुई है, कोई परिभाषा नहीं होती; क्योंकि प्रत्येक स्वयंभू विषय का तो ''नामकरण'' ही किया जा सकता है, अन्य निर्धारण संभव ही नहीं, न तो यूँ ही कि वह है, न ही यूँ कि यह नहीं है....। किन्तु जो स्वयंभू है उस का.... नामकरण तो किसी अन्य निर्धारण के बिना ही करना है। परिणामस्वरूप किसी भी मूल तत्त्व का विवरण देना असंभव है; उसके लिए मात्र नाम के अतिरिक्त कुछ भी संभव नहीं, अपना नाम ही उसका सर्वस्व है। किन्तु जिस प्रकार जो भी इन मूल तत्त्वों से संरचित है वह स्वयं संयुक्त होता है, उसी प्रकार संरचना द्वारा तत्त्वों के नाम वर्णनात्मक भाषा बन जाते हैं। क्योंकि वाक् का सार तो नामों का संकलन है।"
 
रॅसेल के 'विशेष' और मेरे 'विषय' (''ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलॉसफ़िक्स'') दोनों ही ऐसे मूल तत्त्व थे ।
 
'''47.''' किन्तु वे संयुक्त संघटक कौन से हैं जिनसे यथार्थ की संरचना हुई है? — कुर्सी के असंयुक्त संघटक कौन से हैं? — लकड़ी के वे अंश जिनसे वह बनी है? अथवा अणु, या परमाणु? — "असंयुक्त" का अर्थ है: संयुक्त नहीं। और यहाँ विचारणीय है: 'संयुक्त' किस अर्थ में? निरपेक्ष रूप से 'कुर्सी के असंयुक्त भाग' कहने का तो कोई अर्थ ही नहीं होता।
 
फिर: क्या इस वृक्ष का मेरा चाक्षुष प्रत्यक्ष घटकों में बंटा है? और इसके असंयुक्त घटक कौन से हैं? बहुरंगी होना एक प्रकार की संयुक्तता है; एक अन्य प्रकार की संयुक्तता का उदाहरण सरल खंडों से रचित खंडित रूपरेखा है। और वक्राकृति को आरोही एवं अवरोही खंडों से संरचित भी कहा जा सकता है।
 
यदि मैं बिना किसी और व्याख्या के किसी को कहूँ: अब मैं अपने समक्ष जो देख रहा हूँ वह संयुक्त है, तो उसे यह पूछने का अधिकार होगा: "'संयुक्त' से आपका
 
क्या अर्थ है? क्योंकि उसका अर्थ अनेक प्रकार के विषय हो सकते हैं!" — "जो आप देख रहे हैं क्या वह संयुक्त है?" प्रश्न तो अर्थपूर्ण होता है यदि यह पहले से सुनिश्चित हो कि किस प्रकार की संयुक्तता — अर्थात् शब्द के किस विशिष्ट प्रयोग की बात है। यदि यह नियत हो कि वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष "संयुक्त" कहलाएगा जब हमें एक मात्र तना ही न दिखाई दे अपितु शाखाएं भी दिखाई दें तो "क्या इस वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष असंयुक्त है, अथवा संयुक्त?" प्रश्न और "उसके असंयुक्त घटक कौन से हैं?" प्रश्न का एक स्पष्ट अर्थ, एक स्पष्ट प्रयोग होगा। और निस्संदेह द्वितीय प्रश्न का उत्तर "उसकी शाखाएं " तो नहीं है (वह तो व्याकरण सम्मत प्रश्न — "यहाँ 'असंयुक्त घटक' किसे कहते हैं?" — का उत्तर होगा) अपितु इस प्रश्न का उत्तर उसकी विभिन्न शाखाओं का विवरण होगा।
 
किन्तु क्या, उदाहरणार्थ, शतरंज की बिसात, स्पष्टतः एवं निरपेक्ष रूप से संयुक्त नहीं है? — संभवतः आप बत्तीस श्वेत और बत्तीस श्याम वर्गों की संरचना के बारे में सोच रहे हैं। किन्तु उदाहरणार्थ, क्या ऐसा नहीं कि आप भी यह कह सकते हैं कि यह श्याम एवं श्वेत रंगों से और वर्गाकृति से संरचित है? और यदि इसके अवलोकन के विभिन्न ढंग हैं तो भी क्या आप कहना चाहेंगे कि शतरंज की बिसात निरपेक्ष रूप से 'संयुक्त' है? — किसी विशिष्ट भाषा-खेल के ''बाहर'' "क्या यह विषय संयुक्त है?" पूछना तो ऐसा है जैसा एक बार एक लड़के ने किया जिसको यह बताना था कि प्रदत्त वाक्यों की क्रियाएं कर्तृवाच्य हैं अथवा कर्मवाच्य और उसने माथापच्ची इस प्रश्न पर की कि क्या "शयन" क्रिया सकर्मक है या अकर्मक|
 
"संयुक्त" शब्द (और इसीलिए "असंयुक्त " शब्द) का प्रयोग हम भिन्न, एवं विभिन्न प्रकार से सम्बन्धित ढंगों से करते हैं। (क्या शतरंज की बिसात के वर्ग का रंग असंयुक्त होता है, अथवा क्या वह इन्द्रधनुष के रंगों से बना है? और क्या श्वेत असंयुक्त है, अथवा क्या वह इन्द्रधनुष के रंगों से बना है? क्या 2 सेंटीमीटर की यह लम्बाई असंयुक्त है, अथवा क्या वह 1 सेंटीमीटर लम्बे दो भागों से बनी है? किन्तु 3 सेंटीमीटर लम्बे एक खंड और विपरीत दिशा में मापे गए 1 सेंटीमीटर के एक खंड से क्यों नहीं बनी हो सकती?)
 
"क्या इस वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष संयुक्त है, और उसके घटक कौन से हैं?" ऐसे ''दार्शनिक'' प्रश्न का उचित उत्तर है: "वह इस पर निर्भर है कि आप 'असंयुक्त' से क्या समझते हैं।" (और निस्संदेह वह उत्तर नहीं अपितु प्रश्न को ही खारिज करना है।)