फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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यहाँ हम कह सकते हैं — यद्यपि इससे सभी प्रकार के दार्शनिक अन्धविश्वासों का रास्ता खुल जाता है — कि "'''ला'''" अथवा "'''श्या'''" इत्यादि संकेत कभी तो शब्द और कभी प्रतिज्ञप्ति हो सकते हैं। किन्तु यह 'शब्द है अथवा प्रतिज्ञप्ति' तो उस परिस्थिति पर निर्भर है जिसमें उसे कहा अथवा लिखा गया है। उदाहरणार्थ, यदि '''क''' को '''ख''' के लिए रंगीन वर्गों के संकुल का विवरण देना है और वह केवल '''ला''' शब्द को ''ही'' प्रयोग करता है तो हम कह सकते हैं कि यह शब्द विवरण है — प्रतिज्ञप्ति है । किन्तु यदि वह शब्दों को और उनके अर्थों को कंठस्थ कर रहा है, अथवा यदि वह किसी और को शब्दों का प्रयोग सिखा रहा है और निदर्शनात्मक शिक्षण की प्रक्रिया में उन शब्दों का उच्चारण कर रहा है तो हम यह नहीं कहेंगे कि वे प्रतिज्ञप्तियां हैं। उदाहरणार्थ, इस परिस्थिति में, "'''ला'''" शब्द विवरण नहीं है; वह किसी तत्त्व का ''नाम'' है — किन्तु इस तत्त्व का तो ''केवल'' नामकरण ही किया जा सकता है यह कहने का आधार बनाना तो विचित्र ही होगा। क्योंकि नामकरण और विवरण देना एक जैसा नहीं है: नामकरण तो विवरण की तैयारी है। नामकरण अभी तक भाषा-खेल में कोई चाल नहीं है — उसी प्रकार जैसे कि बिसात पर मोहरे को उसके स्थान पर रखना शतरंज की कोई चाल नहीं होती। हम कह सकते हैं: जब किसी वस्तु का नामकरण भर किया गया है तब
यहाँ हम कह सकते हैं — यद्यपि इससे सभी प्रकार के दार्शनिक अन्धविश्वासों का रास्ता खुल जाता है — कि "'''ला'''" अथवा "'''श्या'''" इत्यादि संकेत कभी तो शब्द और कभी प्रतिज्ञप्ति हो सकते हैं। किन्तु यह 'शब्द है अथवा प्रतिज्ञप्ति' तो उस परिस्थिति पर निर्भर है जिसमें उसे कहा अथवा लिखा गया है। उदाहरणार्थ, यदि '''क''' को '''ख''' के लिए रंगीन वर्गों के संकुल का विवरण देना है और वह केवल '''ला''' शब्द को ''ही'' प्रयोग करता है तो हम कह सकते हैं कि यह शब्द विवरण है — प्रतिज्ञप्ति है । किन्तु यदि वह शब्दों को और उनके अर्थों को कंठस्थ कर रहा है, अथवा यदि वह किसी और को शब्दों का प्रयोग सिखा रहा है और निदर्शनात्मक शिक्षण की प्रक्रिया में उन शब्दों का उच्चारण कर रहा है तो हम यह नहीं कहेंगे कि वे प्रतिज्ञप्तियां हैं। उदाहरणार्थ, इस परिस्थिति में, "'''ला'''" शब्द विवरण नहीं है; वह किसी तत्त्व का ''नाम'' है — किन्तु इस तत्त्व का तो ''केवल'' नामकरण ही किया जा सकता है यह कहने का आधार बनाना तो विचित्र ही होगा। क्योंकि नामकरण और विवरण देना एक जैसा नहीं है: नामकरण तो विवरण की तैयारी है। नामकरण अभी तक भाषा-खेल में कोई चाल नहीं है — उसी प्रकार जैसे कि बिसात पर मोहरे को उसके स्थान पर रखना शतरंज की कोई चाल नहीं होती। हम कह सकते हैं: जब किसी वस्तु का नामकरण भर किया गया है तब
तक कुछ भी ''नहीं'' किया गया। उस भाषा-खेल से परे तो उसे नाम भी नहीं ''मिला''। फ्रेगे का भी यही तात्पर्य था जब उन्होंने कहा कि: वाक्य के अवयव के रूप में ही शब्द अर्थपूर्ण होता है।
'''50.''' यह कहने का क्या अर्थ है कि तत्त्वों को न तो हम सत् और न ही असत् कह सकते हैं? — कहा जा सकता है: जिसे भी हम "सत्" और "असत्" कहते हैं यदि वह तत्त्वों के संबंधों के होने एवं न होने में निहित है तो तत्त्व को सत् (असत्) कहने का कोई अर्थ ही नहीं होता; ठीक वैसे ही जैसे कि जिसे भी हम "विनाश" कहते हैं यदि वह तत्त्वों के पृथक्करण में निहित है तो तत्त्व का विनाश कहने का कोई अर्थ ही नहीं होता।
फिर भी कोई कहना चाहेगा: तत्त्व पर सत्ता आरोपित नहीं की जा सकती क्योंकि यदि वह तत्त्व ''होता'' ही नहीं तो उसका नामकरण भी नहीं किया जा सकता था, और इसीलिए उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। — किन्तु आइए हम एक समानान्तर स्थिति पर विचार करें। ''एक'' ऐसी वस्तु है जिसके बारे में न तो यह कहा जा सकता है कि वह एक मीटर लम्बी है और न ही यह कि वह एक मीटर लम्बी नहीं है, और वह है पेरिस में रखा मानक मीटर। — किन्तु निस्संदेह यह उस पर कोई साधारण गुण आरोपित करना नहीं है, अपितु मीटर-पैमाने के मापने के भाषा-खेल में उसकी विशिष्ट भूमिका को लक्षित करना मात्र है। — आइए हम मानक मीटर की भांति रंग के नमूनों की पेरिस में परिरक्षित होने की कल्पना करें। हम परिभाषित करते हैं: "सीपिया" का अर्थ है उस मानक सीपिया का रंग जो वहाँ सुरक्षित है। तब यह कहने का कोई अर्थ ही नहीं होगा कि यह नमूना इस रंग का है, अथवा यह इस रंग का नहीं है।
हम इसे यूँ कह सकते हैं: यह नमूना तो रंग-निर्धारण में प्रयोग की जाने वाली भाषा का उपकरण है। इस भाषा-खेल में किसी विषय का निरूपण नहीं होता, अपितु इसमें तो निरूपित करने के साधन होते हैं। और भाषा — खेल §48 वाले तत्त्व के साथ यही होता है जब "'''ला'''" शब्द को उच्चारित करके हम उसका नामकरण करते हैं: इससे उस विषय को हमारे भाषा-खेल में एक भूमिका मिलती है; वह अब निरूपण का ''साधन'' है। और "यदि इसकी ''सत्ता'' नहीं होती तो इसका नाम भी नहीं होता" कहना तो केवल इतना ही कहना है: यदि इस वस्तु की सत्ता नहीं होती तो अपने भाषा-खेल में हम इसका प्रयोग भी नहीं कर सकते थे। यह आभास कि उसकी सत्ता तो होनी ही ''चाहिए'' भाषा का अंग ही है। यह तो हमारे भाषा-खेल का एक प्रतिमान है; एक ऐसा विषय है जिससे तुलना की जाती है। और यह एक महत्त्वपूर्ण प्रेक्षण हो सकता है; किन्तु फिर भी यह प्रेक्षण हमारे भाषा-खेल से — हमारे निरूपण की विधि से — संबंधित है।
'''51.''' भाषा-खेल §48 का विवरण देते हुए मैंने कहा था कि "'''ला'''", "'''का'''" इत्यादि शब्द वर्गों के रंगों के अनुरूप हैं । किन्तु यह अनुरूपता किस में निहित है; किस अर्थ में कहा जा सकता है कि वर्गों के कुछ विशिष्ट रंग इन संकेतों के अनुरूप हैं? क्योंकि §48 में दिया गया विवरण तो इन संकेतों और हमारी भाषा के कुछ शब्दों (रंगों के नामों) में मात्र संबंध ही स्थापित करता है। — हाँ, यह पूर्वकल्पना तो की गई थी कि भाषा-खेल में इन संकेतों के प्रयोग को भिन्न प्रकार से, विशेषकर प्रतिमानों को इंगित करके सिखाया जाएगा। बिल्कुल ठीक; किन्तु यह कहने का क्या अर्थ है कि ''भाषा को प्रयोग करने की तकनीक में'' कुछ तत्त्व संकेतों के अनुरूप होते हैं। — क्या ऐसा होता है कि रंगीन वर्गों के संकुलों का विवरण देने वाला व्यक्ति जहाँ भी लाल वर्ग होता है वहाँ "'''ला'''" कहता है; जहाँ काला होता है वहाँ "'''का'''" कहता है एवं तथावत्? किन्तु क्या हो यदि वह विवरण देने में भूल कर दे और जहाँ उसे काला वर्ग दिखाई देता है वहाँ वह भूल से "'''ला'''" कह दे — वह कौन सी कसौटी है जिसके अनुसार यह ''भूल'' है? — अथवा क्या "'''ला'''" के लाल वर्ग के स्थान पर होने में यह निहित है कि वे लोग जिनकी यह भाषा है जब "'''ला'''" संकेत को प्रयोग करते हैं तो उनके मन के समक्ष सदैव ही एक लाल वर्ग आ जाता है?
इस और इसके समान अनगिनत स्थितियों में बातों को अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए जो कुछ वास्तव में घटित होता है उसके विस्तृत विवरण पर हमें अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए; उनका ''सूक्ष्म'' निरीक्षण करना चाहिए।
'''52.''' यदि मैं यह मानने को प्रवृत्त हूँ, कि पुराने चीथड़ों एवं धूल में से चूहे की स्वतः उत्पत्ति हुई है तो यह जानने के लिए कि चूहा उनमें कैसे छिप सकता है, कैसे वहाँ पहुँच सकता है इत्यादि, मेरा उन चीथड़ों का अति सूक्ष्म निरीक्षण करना उचित ही होगा । किन्तु यदि मैं विश्वस्त हूँ कि इन वस्तुओं से चूहा अस्तित्व में नहीं आ सकता, तो यह अन्वेषण संभवत: अनावश्यक होगा।
किन्तु पहले हमें यह समझना चाहिए कि ऐसा क्या है जो दर्शन में विस्तृत विवरण के ऐसे परीक्षण का विरोध करता है।
'''53.''' हमारे भाषा - खेल §48 में ''अनेक'' संभावनाएं हैं, ऐसी विविध परिस्थितियां हैं जिनमें हमें कहना चाहिए कि उस खेल में प्रयुक्त संकेत अमुक रंग के वर्ग का नाम था । उदाहरणार्थ, हमें ऐसा कहना चाहिए यदि हमें विदित हो कि उन लोगों को, जो इस भाषा का प्रयोग करते हैं, संकेतों का प्रयोग अमुक प्रकार से सिखाया गया है। अथवा यदि उसे लिखित रूप दिया गया हो, उदाहरणार्थ, ऐसी सारिणी के आकार में, जिसमें यह बताया गया हो कि यह तत्त्व इस संकेत से संबद्ध है, और यदि भाषा के प्रशिक्षण में उस सारिणी का प्रयोग किया जाए और विशेष विवादास्पद स्थितियों में उससे निर्देश लिए जाएं।
ऐसी सारिणी के भाषा के प्रयोग में उपकरण होने की भी हम कल्पना कर सकते हैं। तो, संकुल का विवरण इस प्रकार दिया जाता है: संकुल का विवरण देने वाले व्यक्ति के पास एक सारिणी है और वह संकुल के प्रत्येक तत्त्व को उसमें खोजता है और इससे संकेत की ओर जाता है (और जिसे विवरण दिया जा रहा है वह भी रंगीन वर्गों के चित्र में उसे परिवर्तित करने के लिए सारिणी का प्रयोग कर सकता है)। कहा जा सकता है कि यह सारिणी यहाँ स्मृति की, और अन्य स्थितियों में सहसम्बन्धन की भूमिका निभाती है। ("मेरे लिए एक लाल फूल लाओ" आदेश का पालन हम प्रायः लाल रंग को रंगों की सारिणी में खोजकर, और फिर उस सारिणी में देखे गए रंग के फूल को लाकर नहीं करते; किन्तु जब लाल रंग की किसी विशेष छटा को चुनना अथवा उसे घोलकर बनाना हो तो कभी-कभी हम नमूने अथवा सारिणी का प्रयोग करते हैं।)
यदि ऐसी सारिणी को हम भाषा-खेल के नियम की अभिव्यक्ति कहें, तो कहा जा सकता है कि जिसे हम भाषा-खेल का नियम कहते हैं उसकी उस खेल में अत्यन्त भिन्न भूमिकाएं हो सकती हैं।
'''54.''' आइए, हम ऐसी परिस्थितियों पर गौर करें जिनमें हम कह सकते हैं कि खेल निश्चित नियम के अनुसार खेला जाता है।
खेल के प्रशिक्षण में नियम सहायक-साधन हो सकता है। शिक्षार्थी को इसे बताया जाता है और इसे प्रयोग करने का अभ्यास कराया जाता है। — अथवा यह खेल का ही उपकरण है। — अथवा नियम को न तो प्रशिक्षण में और न खेल में ही प्रयुक्त किया जाता है; न ही उसे नियम की तालिका में स्थान दिया जाता है। अन्य लोग कैसे खेल खेलते हैं इस का निरीक्षण कर के ही हम खेल सीखते हैं। किन्तु हम कहते हैं कि यह खेल अमुक नियमों के अनुसार खेला जाता है क्योंकि कोई भी प्रेक्षक खेल के अभ्यास से इन नियमों को — खेल का नियमन करने वाले स्वाभाविक नियमों के