फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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'''54.''' आइए, हम ऐसी परिस्थितियों पर गौर करें जिनमें हम कह सकते हैं कि खेल निश्चित नियम के अनुसार खेला जाता है।
'''54.''' आइए, हम ऐसी परिस्थितियों पर गौर करें जिनमें हम कह सकते हैं कि खेल निश्चित नियम के अनुसार खेला जाता है।


खेल के प्रशिक्षण में नियम सहायक-साधन हो सकता है। शिक्षार्थी को इसे बताया जाता है और इसे प्रयोग करने का अभ्यास कराया जाता है। — अथवा यह खेल का ही उपकरण है। — अथवा नियम को न तो प्रशिक्षण में और न खेल में ही प्रयुक्त किया जाता है; न ही उसे नियम की तालिका में स्थान दिया जाता है। अन्य लोग कैसे खेल खेलते हैं इस का निरीक्षण कर के ही हम खेल सीखते हैं। किन्तु हम कहते हैं कि यह खेल अमुक नियमों के अनुसार खेला जाता है क्योंकि कोई भी प्रेक्षक खेल के अभ्यास से इन नियमों को — खेल का नियमन करने वाले स्वाभाविक नियमों के
खेल के प्रशिक्षण में नियम सहायक-साधन हो सकता है। शिक्षार्थी को इसे बताया जाता है और इसे प्रयोग करने का अभ्यास कराया जाता है। — अथवा यह खेल का ही उपकरण है। — अथवा नियम को न तो प्रशिक्षण में और न खेल में ही प्रयुक्त किया जाता है; न ही उसे नियम की तालिका में स्थान दिया जाता है। अन्य लोग कैसे खेल खेलते हैं इस का निरीक्षण कर के ही हम खेल सीखते हैं। किन्तु हम कहते हैं कि यह खेल अमुक नियमों के अनुसार खेला जाता है क्योंकि कोई भी प्रेक्षक खेल के अभ्यास से इन नियमों को — खेल का नियमन करने वाले स्वाभाविक नियमों के समान — समझ सकता है। — किन्तु इस स्थिति में प्रेक्षक खिलाड़ियों के अनुचित और उचित खेल में भेद कैसे करता है? इसके तो खिलाड़ियों के व्यवहार में विशिष्ट संकेत होते हैं। जुबान की फिसलन को सुधारने के विशिष्ट व्यवहार पर विचार कीजिए। जब कोई ऐसा करता है तो उसकी भाषा को जाने बिना भी हम यह जान सकते हैं कि वह अपनी भूल सुधार रहा है।
 
'''55.''' “भाषा में नाम जिनका द्योतन करते हैं उनको अविनाशी होना चाहिए; क्योंकि ऐसी परिस्थितियों का विवरण देना संभव होना चाहिए जिनमें प्रत्येक नश्वर वस्तु नष्ट की जा चुकी है। इस विवरण में शब्द होंगे; और इनसे संबद्ध विषयों को तो नष्ट ही नहीं किया जा सकता, अन्यथा उन शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं होगा।" मुझे उस शाखा को काटना नहीं चाहिए जिस पर मैं बैठा हुआ हूँ ।
 
निस्संदेह, कोई छूटते ही कह सकता है कि स्वयं इस विवरण को तो इस विनाश से अछूता रखना होगा । — किन्तु यदि यह सच है कि जो विवरण के भिन्न शब्दों से संबद्ध है और इसीलिए जिसको नष्ट नहीं किया जा सकता, उसकी सत्ता होती है तो वह वही है जो शब्दों को उनका अर्थ प्रदान करता है — और जिसके बिना उनका कोई अर्थ ही नहीं होगा। — बहरहाल, एक अर्थ में यही वह पुरुष है जो अपने नाम से संबद्ध है। किन्तु वह तो नश्वर है और वाहक के मरने के साथ उसका नाम अर्थहीन नहीं हो जाता। — नाम से संबद्ध ऐसे विषय, जिसके बिना नाम का कोई अर्थ नहीं होता, का उदाहरण ऐसा प्रतिमान है जिसे भाषा-खेल में नाम के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है।
 
'''56.''' किन्तु क्या हो, यदि ऐसा कोई भी नमूना भाषा का अंग न हो, और शब्द जिस रंग का (उदाहरणार्थ) प्रतिनिधित्व करता है उसको ही हम ''याद'' रखें? — "और यदि हम उसे याद रखते हैं तो जब भी हम उस शब्द का उच्चारण करते हैं वह हमारे मानस पटल पर उपस्थित हो जाता है। अतः, यदि यह मान लिया जाए कि उसे स्मरण रखना हमारे लिए सदैव संभव है तो वह स्वयं अविनाशी होना चाहिए।" — किन्तु उसकी उचित स्मृति होने की कसौटी हम किसे मानते हैं? – जब हम अपनी स्मृति के स्थान पर किसी नमूने से कार्य करते हैं तो ऐसी परिस्थितियां होती हैं जिनमें हम कहते हैं कि नमूने का रंग परिवर्तित हो गया है और हम इसका निर्णय स्मृति द्वारा करते हैं। किन्तु क्या कभी-कभी हम अपने स्मृति-बिंब के धुंधले होने का (उदाहरणार्थ) उल्लेख नहीं कर सकते? क्या हम स्मृति की कृपा पर उतने ही निर्भर नहीं हैं जितने कि नमूने की? (क्योंकि कोई ऐसा कहना चाह सकता है: “यदि हमें स्मृति नहीं रहती तो हम नमूने की कृपा पर ही निर्भर रहते"।) — अथवा संभवतः किसी रासायनिक
 
प्रतिक्रिया पर निर्भर रहते । कल्पना कीजिए कि आपको ऐसा विशेष रंग "'''ग'''" पोतना जो तब दृष्टिगोचर होता है जब रासायनिक द्रव्य '''य''' और '''ल''' को मिलाया जाता है। — मान लीजिए कि दूसरे दिनों की अपेक्षा आपको रंग किसी दिन अधिक चटख प्रतीत होता हो; क्या कभी-कभी आप नहीं कहेंगे: "मैं निश्चय ही भूल कर रहा हूँ, निश्चित रूप से रंग वैसा ही है जैसा कल था"? यह प्रदर्शित करता है कि स्मृति-जन्य बातों के लिए उच्चतम न्यायालय में अपील के निर्णय के समान, हम सदैव स्मृति पर आश्रित नहीं रहते।
 
'''57.''' "किसी लाल वस्तु को नष्ट किया जा सकता है, किन्तु लाल को नष्ट नहीं किया जा सकता, और इसी कारण 'लाल' का अर्थ लाल वस्तुओं की सत्ता से निरपेक्ष है" — निस्संदेह, यह कहने का कोई अर्थ नहीं होता कि लाल रंग को फाड़ दिया गया है अथवा उसके चीथड़े कर दिए गए हैं। किन्तु क्या हम नहीं कहते: “लाल धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है"? कुछ भी लाल न रहने पर भी अपने मानस पटल पर सदैव लाल लाने की हमारी क्षमता, के विचार से न बंधे रहें। वह तो बिल्कुल आपके यह कहने जैसा ही है कि तब भी लाल ज्वाला को उत्पन्न करने वाली रासायनिक प्रतिक्रिया तो होगी ही। — मान लीजिए कि अब आप रंग का स्मरण ही नहीं कर पाते? जब हम भूल जाते हैं कि यह नाम किस रंग का है, तो हमारे लिए उसका अर्थ लुप्त हो जाता है; अर्थात् अब हम उससे विशेष भाषा खेल नहीं खेल सकते। और तब यह स्थिति उस स्थिति के तुल्य हो जाती है जिसमें हमने ऐसे प्रतिमान को खो दिया हो जो हमारी भाषा का उपकरण था।
 
 
'''58.''' 
 
"मैं 'नाम' पद को वहाँ तक सीमित करना चाहता हूँ जहाँ वह '''य''' की
 
सत्ता है' इस संयोजन में नहीं हो सकता। — अतः यह नहीं कहा जा सकता कि 'लाल
 
की सत्ता है' क्योंकि यदि लाल होता ही नहीं तो उसका उल्लेख ही नहीं किया जा
 
सकता था। — "बेहतर ढंग से : यदि "'''य''' की सत्ता है" का अर्थ मात्र यह कहना है:
 
"'''य''' अर्थपूर्ण है, — तो यह ऐसी प्रतिज्ञप्ति नहीं जो य को अभिव्यक्त करती है, अपितु
 
ऐसी प्रतिज्ञप्ति है जो भाषा के हमारे प्रयोग के बारे में है, अर्थात् "य" शब्द के प्रयोग
 
के बारे में है।
 
 
हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो "लाल की सत्ता है" इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं निकलता ऐसा कहने में हम लाल के स्वभाव के बारे में कुछ कह रहे हों। यानी लाल की सत्ता तो 'स्वयंसिद्ध' है। इसी धारणा — कि यह लाल के बारे में एक तात्त्विक कथन है — की पुनः अभिव्यक्ति होती है जब हम कुछ ऐसा कहते हैं कि लाल कालातीत