फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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'''57.''' "किसी लाल वस्तु को नष्ट किया जा सकता है, किन्तु लाल को नष्ट नहीं किया जा सकता, और इसी कारण 'लाल' का अर्थ लाल वस्तुओं की सत्ता से निरपेक्ष है" — निस्संदेह, यह कहने का कोई अर्थ नहीं होता कि लाल रंग को फाड़ दिया गया है अथवा उसके चीथड़े कर दिए गए हैं। किन्तु क्या हम नहीं कहते: “लाल धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है"? कुछ भी लाल न रहने पर भी अपने मानस पटल पर सदैव लाल लाने की हमारी क्षमता, के विचार से न बंधे रहें। वह तो बिल्कुल आपके यह कहने जैसा ही है कि तब भी लाल ज्वाला को उत्पन्न करने वाली रासायनिक प्रतिक्रिया तो होगी ही। — मान लीजिए कि अब आप रंग का स्मरण ही नहीं कर पाते? जब हम भूल जाते हैं कि यह नाम किस रंग का है, तो हमारे लिए उसका अर्थ लुप्त हो जाता है; अर्थात् अब हम उससे विशेष भाषा खेल नहीं खेल सकते। और तब यह स्थिति उस स्थिति के तुल्य हो जाती है जिसमें हमने ऐसे प्रतिमान को खो दिया हो जो हमारी भाषा का उपकरण था।
'''57.''' "किसी लाल वस्तु को नष्ट किया जा सकता है, किन्तु लाल को नष्ट नहीं किया जा सकता, और इसी कारण 'लाल' का अर्थ लाल वस्तुओं की सत्ता से निरपेक्ष है" — निस्संदेह, यह कहने का कोई अर्थ नहीं होता कि लाल रंग को फाड़ दिया गया है अथवा उसके चीथड़े कर दिए गए हैं। किन्तु क्या हम नहीं कहते: “लाल धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है"? कुछ भी लाल न रहने पर भी अपने मानस पटल पर सदैव लाल लाने की हमारी क्षमता, के विचार से न बंधे रहें। वह तो बिल्कुल आपके यह कहने जैसा ही है कि तब भी लाल ज्वाला को उत्पन्न करने वाली रासायनिक प्रतिक्रिया तो होगी ही। — मान लीजिए कि अब आप रंग का स्मरण ही नहीं कर पाते? जब हम भूल जाते हैं कि यह नाम किस रंग का है, तो हमारे लिए उसका अर्थ लुप्त हो जाता है; अर्थात् अब हम उससे विशेष भाषा खेल नहीं खेल सकते। और तब यह स्थिति उस स्थिति के तुल्य हो जाती है जिसमें हमने ऐसे प्रतिमान को खो दिया हो जो हमारी भाषा का उपकरण था।


'''58.''' "मैं 'नाम' पद को वहाँ तक सीमित करना चाहता हूँ जहाँ वह ‘'''य''' की सत्ता है’ इस संयोजन में नहीं हो सकता। — अतः यह नहीं कहा जा सकता कि 'लाल की सत्ता है' क्योंकि यदि लाल होता ही नहीं तो उसका उल्लेख ही नहीं किया जा सकता था।" — बेहतर ढंग से: यदि "'''य''' की सत्ता है" का अर्थ मात्र यह कहना है: "'''य'''" अर्थपूर्ण है, — तो यह ऐसी प्रतिज्ञप्ति नहीं जो य को अभिव्यक्त करती है, अपितु ऐसी प्रतिज्ञप्ति है जो भाषा के हमारे प्रयोग के बारे में है, अर्थात् "'''य'''" शब्द के प्रयोग के बारे में है।


'''58.''' 
हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो "लाल की सत्ता है" इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं निकलता ऐसा कहने में हम लाल के स्वभाव के बारे में कुछ कह रहे हों। यानी लाल की सत्ता तो 'स्वयंसिद्ध' है। इसी धारणा — कि यह लाल के बारे में एक तात्त्विक कथन है — की पुनः अभिव्यक्ति होती है जब हम कुछ ऐसा कहते हैं कि लाल कालातीत है, और संभवतः इससे भी दृढ़ शब्दों में जब हम कहते हैं कि वह अविनाशी है।


"मैं 'नाम' पद को वहाँ तक सीमित करना चाहता हूँ जहाँ वह '''''' की
किन्तु वास्तव में हम "लाल की सत्ता है" को इस कथन के सदृश ही समझना ''चाहते'' हैं : "लाल" शब्द अर्थपूर्ण है। अथवा संभवतः इससे बेहतर रूप में: "लाल की सत्ता नहीं है" को "'लाल' का कोई अर्थ नहीं है"। हम केवल इतना ही नहीं कहना चाहते कि यह अभिव्यक्ति यह ''कहती'' है, अपितु यह कहते हैं कि इसे ''यही'' कहना चाहिए, ''यदि'' इसका कोई अर्थ है । किन्तु ऐसा कहने के प्रयास में यह — केवल इस कारण कि लाल की सत्ता 'स्वयंसिद्ध' है, स्वयं अपने आप का व्याघात करता है। जबकि व्याघात तो कुछ ऐसी स्थिति में ही होता है: ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रतिज्ञप्ति रंग के बारे में हो जबकि इसे तो "लाल" शब्द के प्रयोग का उल्लेख करने वाली होना चाहिए था। — बहरहाल, वस्तुतः हम स्वभावत: कहते हैं कि किसी विशेष रंग की सत्ता होती है; और वह इतना ही कहना है कि किसी ऐसे विषय की सत्ता है जिसका वह रंग है। और पहली अभिव्यक्ति दूसरी अभिव्यक्ति से कम यथार्थ नहीं है; विशेषतः उन स्थितियों में जिनमें 'जिसका वह रंग है', वह भौतिक विषय नहीं होता।


सत्ता है' इस संयोजन में नहीं हो सकता। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि 'लाल
'''59.''' "''नाम'' केवल उसका ही द्योतन करते हैं जिसमें वास्तविकता का ''तत्त्व'' होता है; जिसको नष्ट नहीं किया जा सकता; जो सभी परिवर्तनों में समान रहता है।" — किन्तु वह है क्या? क्यों, जैसे ही हमने यह वाक्य कहा वह हमारे मन में झूल गया! एक अत्यंत विशिष्ट प्रतिबिंब की: विशिष्ट चित्र की, यही तो ऐसी अभिव्यक्ति थी जिसका हम प्रयोग करना चाहते हैं। क्योंकि निश्चित रूप से, अनुभव तो हमें ऐसे तत्त्व प्रदर्शित नहीं करता। हम किसी संयुक्त विषय के (उदाहरणार्थ, कुर्सी के) ''संघटक'' अंगों को देखते हैं। हम कहते हैं कि कुर्सी की पीठ कुर्सी का अंग है, किन्तु पीठ स्वयं तो लकड़ी के अनेक टुकड़ों से बनी है; जबकि कुर्सी की टांग तो कुर्सी का असंयुक्त संघटक अंग है। हम ऐसे साकल्य को भी जानते हैं जिसमें परिवर्तन होता है (जो नष्ट हो जाता है) जबकि उसके संघटक अंग अपरिवर्तित रहते हैं। यही वे पदार्थ हैं जिनसे हम वास्तविकता के चित्र की रचना करते हैं।


की सत्ता है' क्योंकि यदि लाल होता ही नहीं तो उसका उल्लेख ही नहीं किया जा
'''60.''' जब मैं कहता हूँ: "मेरा लम्बे हत्थे वाला झाडू कोने में रखा है", — तो क्या वास्तव में यह कथन झाडू के हत्थे एवं झाड़ू के बारे में है? हाँ, इसे तो हत्थे की स्थिति एवं झाडू की स्थिति बताने वाले कथन द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है । और यह कथन निस्संदेह पहले वाले का अधिक विश्लेषित रूप है। — किन्तु मैं उसे 'अधिक विश्लेषित' क्यों कहता हूँ? हाँ, यदि झाडू वहाँ है तो उसका निश्चित रूप से अर्थ है कि हत्थे एवं झाडू को भी एक दूसरे से विशेष प्रकार से संबंधित रूप
 
सकता था। — "बेहतर ढंग से : यदि "'''''' की सत्ता है" का अर्थ मात्र यह कहना है:
 
"'''य''' अर्थपूर्ण है, — तो यह ऐसी प्रतिज्ञप्ति नहीं जो य को अभिव्यक्त करती है, अपितु
 
ऐसी प्रतिज्ञप्ति है जो भाषा के हमारे प्रयोग के बारे में है, अर्थात् "य" शब्द के प्रयोग
 
के बारे में है।
 
 
हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो "लाल की सत्ता है" इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं निकलता ऐसा कहने में हम लाल के स्वभाव के बारे में कुछ कह रहे हों। यानी लाल की सत्ता तो 'स्वयंसिद्ध' है। इसी धारणा कि यह लाल के बारे में एक तात्त्विक कथन है — की पुनः अभिव्यक्ति होती है जब हम कुछ ऐसा कहते हैं कि लाल कालातीत