फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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अथवा: कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जिसमें बाइबल में मोसिस के बारे में वर्णित गुण हो — अथवा: इसी प्रकार का कोई अन्य अर्थ। — हम रॅसेल का अनुगमन करते हुए कह सकते हैं: "मोसिस" नाम को विभिन्न विवरणों द्वारा परिभाषित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, "वह पुरुष जिसने यहूदियों का बियावान में नेतृत्व किया", "वह पुरुष जो अमुक समय और अमुक स्थान पर रहता था, और 'मोसिस' कहलाता था", "वह पुरुष जिसे शैशवास्था में फ़ारोह की पुत्री ने नील नदी से निकाला था" इत्यादि। और हम जिस किसी भी परिभाषा को मानेंगे उसके आधार पर "मोसिस था ही नहीं" प्रतिज्ञप्ति का, और मोसिस के बारे में सभी प्रतिज्ञप्तियों के विभिन्न अर्थ होंगे। — और हम यह बताए जाने पर कि "'''न''' की सत्ता नहीं थी" यह तो नहीं पूछते: "आपका क्या अर्थ है? क्या आप कहना चाहते हैं कि..... अथवा..... इत्यादि?"
अथवा: कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जिसमें बाइबल में मोसिस के बारे में वर्णित गुण हो — अथवा: इसी प्रकार का कोई अन्य अर्थ। — हम रॅसेल का अनुगमन करते हुए कह सकते हैं: "मोसिस" नाम को विभिन्न विवरणों द्वारा परिभाषित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, "वह पुरुष जिसने यहूदियों का बियावान में नेतृत्व किया", "वह पुरुष जो अमुक समय और अमुक स्थान पर रहता था, और 'मोसिस' कहलाता था", "वह पुरुष जिसे शैशवास्था में फ़ारोह की पुत्री ने नील नदी से निकाला था" इत्यादि। और हम जिस किसी भी परिभाषा को मानेंगे उसके आधार पर "मोसिस था ही नहीं" प्रतिज्ञप्ति का, और मोसिस के बारे में सभी प्रतिज्ञप्तियों के विभिन्न अर्थ होंगे। — और हम यह बताए जाने पर कि "'''न''' की सत्ता नहीं थी" यह तो नहीं पूछते: "आपका क्या अर्थ है? क्या आप कहना चाहते हैं कि..... अथवा..... इत्यादि?"


किन्तु जब मैं मोसिस के बारे में कोई वक्तव्य देता हूँ तो — क्या मैं सदैव इन विवरणों में से किसी ''एक'' को "मोसिस " के स्थान पर प्रतिस्थापित करने को तत्पर रहता हूँ? संभवत: मैं कहूँ: "मोसिस " शब्द से मैं उस पुरुष को समझता हूँ जिसने वे सब कार्य किए, या फिर उनमें से बहुत से कार्य किए जिनका विवरण बाईबल में दिया गया है। किन्तु कितने? क्या मैं निश्चय कर चुका हूँ कि मुझे अपनी प्रतिज्ञप्ति असत्य मानने के लिए कितना कुछ असत्य सिद्ध करना होगा? क्या मेरे लिए "मोसिस" नाम की प्रत्येक संभावना की निश्चित एवं असंदिग्ध उपयोगिता है? — क्या ऐसा नहीं है कि मेरे पास, मानो कि, अनुकूल आलंबनों की एक पूर्ण श्रृंखला है और यदि कोई अन्य आलंबन मेरे नीचे से खिसका दिया जाए तो मैं किसी एक आलंबन का सहारा लेने को तत्पर हूँ और उससे भिन्न (आलंबन) का भी? — एक अन्य स्थिति पर विचार कीजिए। जब मैं कहता हूँ "'''न''' की मृत्यु हो गयी है", तो '''न''' नाम के अर्थ के लिए कुछ ऐसा समझना होगा: मेरा विश्वास है कि वह व्यक्ति जीवित था जिसे मैंने (1) अमुक-अमुक स्थानों पर देखा है, (2) जो देखने में इस (चित्र) के समान दिखता था, (3) जिसने अमुक-अमुक कार्य किए हैं, और (4) जिसका सामाजिक जीवन में "'''न'''" नाम था। — यह पूछे जाने पर कि "'''न'''" से मैं क्या समझता हूँ, मुझे इन सबका या इनमें से कुछ का ब्यौरा देना होगा, और भिन्न अवसरों पर भिन्न बातों का विवरण देना होगा । अतः "'''न'''" की मेरी परिभाषा संभवतः "वह पुरुष जिसके बारे में यह सब सत्य हो" होगी। — किन्तु इनमें से कोई बात यदि अब असत्य हो तो? — क्या मैं "'''न''' की मृत्यु हो गई है" प्रतिज्ञप्ति को असत्य घोषित करने को तत्पर हूँगा — तब भी जब मुझे असत्य होने वाली बात आनुषंगिक प्रतीत हो? किन्तु आनुषंगिकता की सीमाएं कहाँ हैं? — यदि मैंने ऐसी स्थिति में नाम की परिभाषा दी है तो अब मुझे उसे परिवर्तित
किन्तु जब मैं मोसिस के बारे में कोई वक्तव्य देता हूँ तो — क्या मैं सदैव इन विवरणों में से किसी ''एक'' को "मोसिस " के स्थान पर प्रतिस्थापित करने को तत्पर रहता हूँ? संभवत: मैं कहूँ: "मोसिस " शब्द से मैं उस पुरुष को समझता हूँ जिसने वे सब कार्य किए, या फिर उनमें से बहुत से कार्य किए जिनका विवरण बाईबल में दिया गया है। किन्तु कितने? क्या मैं निश्चय कर चुका हूँ कि मुझे अपनी प्रतिज्ञप्ति असत्य मानने के लिए कितना कुछ असत्य सिद्ध करना होगा? क्या मेरे लिए "मोसिस" नाम की प्रत्येक संभावना की निश्चित एवं असंदिग्ध उपयोगिता है? — क्या ऐसा नहीं है कि मेरे पास, मानो कि, अनुकूल आलंबनों की एक पूर्ण श्रृंखला है और यदि कोई अन्य आलंबन मेरे नीचे से खिसका दिया जाए तो मैं किसी एक आलंबन का सहारा लेने को तत्पर हूँ और उससे भिन्न (आलंबन) का भी? — एक अन्य स्थिति पर विचार कीजिए। जब मैं कहता हूँ "'''न''' की मृत्यु हो गयी है", तो '''न''' नाम के अर्थ के लिए कुछ ऐसा समझना होगा: मेरा विश्वास है कि वह व्यक्ति जीवित था जिसे मैंने (1) अमुक-अमुक स्थानों पर देखा है, (2) जो देखने में इस (चित्र) के समान दिखता था, (3) जिसने अमुक-अमुक कार्य किए हैं, और (4) जिसका सामाजिक जीवन में "'''न'''" नाम था। — यह पूछे जाने पर कि "'''न'''" से मैं क्या समझता हूँ, मुझे इन सबका या इनमें से कुछ का ब्यौरा देना होगा, और भिन्न अवसरों पर भिन्न बातों का विवरण देना होगा । अतः "'''न'''" की मेरी परिभाषा संभवतः "वह पुरुष जिसके बारे में यह सब सत्य हो" होगी। — किन्तु इनमें से कोई बात यदि अब असत्य हो तो? — क्या मैं "'''न''' की मृत्यु हो गई है" प्रतिज्ञप्ति को असत्य घोषित करने को तत्पर हूँगा — तब भी जब मुझे असत्य होने वाली बात आनुषंगिक प्रतीत हो? किन्तु आनुषंगिकता की सीमाएं कहाँ हैं? — यदि मैंने ऐसी स्थिति में नाम की परिभाषा दी है तो अब मुझे उसे परिवर्तित करने को तत्पर रहना चाहिए।
 
और इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है: मैं "'''न'''" नाम का प्रयोग, बिना किसी ''निश्चित'' अर्थ के करता हूँ। (किन्तु इससे उसकी उपयोगिता उतनी सी ही कम होती है जितनी कि चार पैरों में से तीन पैरों पर खड़ी ऐसी मेज की जो कभी-कभी दोलायमान हो जाती है।)
 
क्या यह कहना चाहिए कि मैं ऐसे शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ जिसका अर्थ मैं नहीं जानता, और इसीलिए मैं बकबक कर रहा हूँ? — जो चाहे कहें, तब तक कोई अन्तर नहीं पड़ता, जब तक कि आपको उससे तथ्यों को देखने में बाधा न हो। (और जब आप उन्हें देखेंगे तब आप कई बातें नहीं कहेंगे।)
 
(वैज्ञानिक परिभाषाओं में उतार-चढ़ाव: आज जिसे हम संवृत्ति का सहगामी कहते हैं, आने वाले समय में उसका ही संवृत्ति को परिभाषित करने में प्रयोग किया जाएगा।)
 
'''80.''' मैं कहता हूँ "वहाँ एक कुर्सी है"। क्या हो यदि मैं उस तक उसे लाने के लिए जाऊँ और वह यकायक ओझल हो जाए? — "तो वह कुर्सी न होकर किसी प्रकार का मतिभ्रम था"। — किन्तु कुछ ही क्षणों में हम उसे पुनः देख सकते हैं और उसे छू इत्यादि सकते हैं। — "तो कुर्सी तो वहाँ थी किन्तु उसका ओझल होना किसी प्रकार का मतिभ्रम था"। किन्तु मान लीजिए कि कुछ समय बाद वह पुनः ओझल हो जाती है — अथवा ओझल प्रतीत होती है। अब हम क्या कहें? क्या आप के पास ऐसी स्थितियों के लिए पहले से ही तैयार किया हुआ कोई नियम है — ऐसा नियम जो इस बात का निर्धारण कर सके कि "कुर्सी" शब्द का प्रयोग क्या इस प्रकार की वस्तु को भी समाविष्ट करने के लिए किया जा सकता है? किन्तु जब हम "कुर्सी" शब्द का प्रयोग करते हैं तो क्या हम उस नियम को छोड़ जाते हैं; और क्या हमें कहना चाहिए कि हम इस शब्द का कोई अर्थ ही नहीं लगाते क्योंकि हमारे पास इसके प्रत्येक संभाव्य प्रयोग के नियम नहीं हैं?
 
'''81.''' एक बार वार्तालाप में एफ. पी. रामसे ने मुझे जोर देकर कहा कि तर्कशास्त्र एक 'नियामक विज्ञान' है। मैं यथार्थतः तो नहीं जानता कि उनके मन में क्या था, किन्तु उसका निश्चय ही उससे संबंध है जो बाद में मुझे समझ में आया: अर्थात् दर्शन में, बहुधा हम शब्दों के प्रयोग की ''तुलना'' निश्चित नियमों वाले खेलों से और कलन (कैल्कुलस) से करते हैं, किन्तु हम यह नहीं कह सकते कि भाषा को प्रयोग करने वाला ''अनिवार्यतः'' कोई ऐसा ही खेल खेल रहा है। — किन्तु यदि आप कहते हैं कि हमारी भाषा ऐसे कलन के ''सन्निकट'' ही है तो आप गलतफहमी के शिकार होने वाले हैं। क्योंकि तब ऐसा प्रतीत होगा मानो हम अब तक ''आदर्श'' भाषा के बारे में बातचीत कर रहे हों। यानी हमारा तर्कशास्त्र, मानो किसी शून्य स्थान का तर्कशास्त्र हो। — जबकि तर्कशास्त्र भाषा का — या विचार का विवेचन उसी अर्थ में नहीं करता जिसमें कोई प्राकृतिक विज्ञान किसी प्राकृतिक संवृत्ति का विवेचन करता है, अधिकाधिक यही कहा जा सकता है कि हम आदर्श-भाषाओं का ''निर्माण'' करते हैं। किन्तु यहाँ "आदर्श" शब्द भ्रमित कर सकता है क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है मानो ये भाषाएं हमारी दैनंदिन भाषा से अधिक अच्छी, अधिक निर्दोष हों; और मानो तर्कशास्त्री अन्ततः लोगों को यह दिखा पाया हो कि उचित वाक्य कैसा होता है।
 
बहरहाल, इस सबका सही परिप्रेक्ष्य में तभी पता चल सकेगा जब हममें समझने के, अर्थ के, एवं विचार के प्रत्ययों के बारे में अधिक स्पष्टता आ जायेगी। क्योंकि तब हमें यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि ऐसा क्या होता है जिससे हमें ज्ञात होता है (और जिससे मुझे ज्ञात हुआ) कि जब कोई किसी वाक्य का उच्चारण करता है, और उससे कोई ''अभिप्राय रखता'' है, अथवा उसे ''समझता है'' तो वह निश्चित नियमों के अनुसार कार्य करता है।
 
'''82.''' "उस नियम को जिसका वह पालन करता है" मैं किस नाम से पुकारूँ? — ऐसी प्राक्कल्पना जो उसके द्वारा प्रयुक्त और हमारे द्वारा निरीक्षित शब्दों का संतोषजनक विवरण दे; अथवा ऐसा नियम जिसको वह चिह्नों का प्रयोग करते समय ध्यान में रखता है; अथवा मैं उसे वह नियम कहूँ जो हमारे यह पूछने पर कि उसने किस नियम का पालन किया है वह हमें बताता है? — किन्तु क्या हो जब निरीक्षण करने पर हमें किसी भी स्पष्ट नियम का पता न चल सके, और प्रश्न करने पर भी कुछ भी पता न चले? — क्योंकि मेरे यह पूछने पर कि "'''न'''" से वह क्या समझता है उसने वास्तव में मुझे एक परिभाषा दी थी, किन्तु वह उसे वापिस लेने को और उसे बदलने को तत्पर था। — तो मैं यह कैसे निर्धारित करूँ कि वह किस नियम के अनुसार चल रहा है? उसे तो स्वयं भी नहीं पता। — अथवा, बेहतर ढंग से पूछें: "नियम, जिसका वह पालन करता है" इस अभिव्यक्ति का यहाँ क्या अर्थ रह गया है?
 
'''83.''' क्या भाषा एवं खेलों की उपमा से यहाँ कुछ पता नहीं चलता। हम आसानी से कल्पना कर सकते हैं कि खेल के मैदान में लोग मनोरंजन के लिए गेंद से इस प्रकार खेल रहे हैं जिससे मौजूदा विभिन्न खेल शुरू तो हो जाते हैं, किन्तु खत्म नहीं होते और बीच-बीच में वे गेंद को निरुद्देश्य हवा में उछालते हैं और उसे लेकर एक-दूसरे का पीछा करते हैं, आपस में गाली-गलौज करते हुए हंसी मजाक करते हैं, इत्यादि। पर अब कोई कहता है: पूरे समय वे गेंद का खेल खेल रहे हैं और प्रत्येक बार गेंद फेंकने में वे निश्चित नियमों का पालन कर रहे हैं।
 
पर क्या ऐसी स्थिति होती ही नहीं जिसमें हम खेलते हैं और — खेलते समय ही नियमों को बनाते हैं? और ऐसी स्थिति तो होती ही है जिसमें हम उन्हें — खेल खेलते हुए ही बदलते रहते हैं।
 
'''84.''' मैंने कहा कि शब्द का प्रयोग सभी स्थानों पर नियम-बद्ध नहीं होता । किन्तु पूर्णरूपेण नियम-बद्ध खेल कैसा लगेगा? ऐसा खेल जिसके नियम संशय को उत्पन्न ही नहीं होने देंगे अपितु समस्त शंकाओं का निराकरण कर देंगे? — क्या हम नियम के प्रयोग को निर्धारित करने वाले नियम, और ''उसके'' द्वारा हटाये जाने वाले संशय — इत्यादि की कल्पना नहीं कर सकते?
 
किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें संशय है क्योंकि हमारे लिए संशय की ''कल्पना'' करना संभव है। मैं सरलता से ऐसी कल्पना कर सकता हूँ कि कोई द्वार खोलने से पहले सदैव सशंक रहे कि कहीं द्वार के पीछे कोई खाई तो नहीं है, और द्वार से निकलने से पहले स्वयं को इस बारे में आश्वस्त कर ले (और कुछ मौकों पर तो वह ठीक भी हो सकता है) — किन्तु इस कारण उस स्थिति में मैं शंकित नहीं होता ।
 
'''85.''' नियम तो मार्ग-दर्शक स्तम्भ के समान होता है। — जिस दिशा में मुझे जाना है उसके बारे में मार्ग-दर्शक स्तम्भ क्या कोई दुविधा नहीं छोड़ता? उसे पीछे छोड़ देने के बाद क्या वह दर्शाता रहता है कि मुझे किस दिशा में जाना होगा; सड़क पर, अथवा पटरी पर, अथवा अन्तर-प्रदेशीय मार्ग पर? परन्तु मुझे किस प्रकार उसका अनुगमन करना है यह कहाँ कहा गया है; क्या संकेतक की दिशा में अथवा (उदाहरणार्थ) उससे विपरीत दिशा में? — और यदि एक मार्ग-दर्शक स्तम्भ के स्थान पर संलग्न स्तंभों की शृंखला हो, अथवा भूतल पर खड़िया के संकेत हों — तो क्या उनकी व्याख्या करने का मात्र ''एक'' ही ढंग है? — यानी मैं कह सकता हूँ कि अंततः मार्गदर्शक स्तम्भ संशय के लिए कोई स्थान ही नहीं छोड़ता। या फिर: कभी-कभी वह स्थान छोड़ता है और कभी-कभी नहीं भी। पर अब तो यह दार्शनिक प्रतिज्ञप्ति न रहकर एक आनुभविक प्रतिज्ञप्ति हो गई है।
 
'''86.''' §2 के समान किसी ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जो सारिणी की सहायता से खेला जाता हो। इसमें '''क''' द्वारा '''ख''' को दिए जाने वाले संकेत लिपिबद्ध हैं। '''ख''' के पास एक सारिणी है; सारिणी के पहले खाने में खेल में प्रयुक्त होने वाले संकेत हैं, दूसरे खाने में निर्माण-पत्थरों के चित्र हैं। '''ख''' को '''क''' एक ऐसा लिपिबद्ध संकेत दिखाता है; '''ख''' उसे सारिणी में ढूँढता है, उसके सामने के चित्र को देखता है और ऐसी ही क्रियाएं करता है। अतः सारिणी वह नियम है जिसे वह आदेशों को पालन करने में प्रयोग करता है। — वह प्रशिक्षण द्वारा सारिणी में चित्र देखना सीखता है, संभवतः इस प्रशिक्षण का एक अंश तो शिक्षार्थी द्वारा अपनी उँगली को समरेखा पर बाँए से दाँए चलाना सीखना है; मानो ऐसा करना मेज पर सम रेखाओं की एक श्रृंखला खींचना
 
मान लीजिए कि अब सारिणी पढ़ने की विभिन्न विधियाँ प्रारंभ की जाती है; ऊपर बताई विधि का पालन करते हुए निम्न योजना के अनुसार:
 
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किसी और समय इस प्रकार:
 
[[File:Par. 86b.png|250px|center|link=]]
 
अथवा किसी अन्य विधि से। — सारिणी के साथ ही उसके नियमों के प्रयोगों को जानने के लिए ऐसी योजना दी जाती है।
 
क्या अब हम इस नियम की व्याख्या के लिए किन्हीं अन्य नियमों की कल्पना नहीं कर सकते? और इससे विपरीत, क्या पहली सारिणी अपने इंगित-चिह्नों के बिना अधूरी थी? और क्या अन्य सारिणियां अपनी नियमावलियों के बिना अधूरी हैं?
 
'''87.''' मान लीजिए मैं यह व्याख्या देता हूँ: "'मोसिस' से मेरा तात्पर्य, एक ऐसा पुरुष है, जो यदि रहा हो तो, उसने यहूदियों का मिस्र से बहिर्गमन के समय नेतृत्व किया था, उसे उस समय चाहे जिस नाम से पुकारते हों, और उसने इसके अतिरिक्त चाहे जो कुछ और भी किया हो।" — किन्तु जैसे "मोसिस " के बारे में संशय किया जा सकता है वैसे ही इस व्याख्या के शब्दों के बारे में भी संशय संभव हैं (आप "मित्र" किसे कहते हैं, "यहूदी" किसे कहते हैं?)। न ही "लाल", "श्याम", "मीठा" जैसे शब्दों पर पहुंचने पर इन प्रश्नों का अंत होगा, — जब कोई व्याख्या अन्तिम व्याख्या ही नहीं है, तो वह किसी बात को समझने में कैसे सहायक हो सकती है? उस स्थिति