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'''85.''' नियम तो मार्ग-दर्शक स्तम्भ के समान होता है। — जिस दिशा में मुझे जाना है उसके बारे में मार्ग-दर्शक स्तम्भ क्या कोई दुविधा नहीं छोड़ता? उसे पीछे छोड़ देने के बाद क्या वह दर्शाता रहता है कि मुझे किस दिशा में जाना होगा; सड़क पर, अथवा पटरी पर, अथवा अन्तर-प्रदेशीय मार्ग पर? परन्तु मुझे किस प्रकार उसका अनुगमन करना है यह कहाँ कहा गया है; क्या संकेतक की दिशा में अथवा (उदाहरणार्थ) उससे विपरीत दिशा में? — और यदि एक मार्ग-दर्शक स्तम्भ के स्थान पर संलग्न स्तंभों की शृंखला हो, अथवा भूतल पर खड़िया के संकेत हों — तो क्या उनकी व्याख्या करने का मात्र ''एक'' ही ढंग है? — यानी मैं कह सकता हूँ कि अंततः मार्गदर्शक स्तम्भ संशय के लिए कोई स्थान ही नहीं छोड़ता। या फिर: कभी-कभी वह स्थान छोड़ता है और कभी-कभी नहीं भी। पर अब तो यह दार्शनिक प्रतिज्ञप्ति न रहकर एक आनुभविक प्रतिज्ञप्ति हो गई है। | '''85.''' नियम तो मार्ग-दर्शक स्तम्भ के समान होता है। — जिस दिशा में मुझे जाना है उसके बारे में मार्ग-दर्शक स्तम्भ क्या कोई दुविधा नहीं छोड़ता? उसे पीछे छोड़ देने के बाद क्या वह दर्शाता रहता है कि मुझे किस दिशा में जाना होगा; सड़क पर, अथवा पटरी पर, अथवा अन्तर-प्रदेशीय मार्ग पर? परन्तु मुझे किस प्रकार उसका अनुगमन करना है यह कहाँ कहा गया है; क्या संकेतक की दिशा में अथवा (उदाहरणार्थ) उससे विपरीत दिशा में? — और यदि एक मार्ग-दर्शक स्तम्भ के स्थान पर संलग्न स्तंभों की शृंखला हो, अथवा भूतल पर खड़िया के संकेत हों — तो क्या उनकी व्याख्या करने का मात्र ''एक'' ही ढंग है? — यानी मैं कह सकता हूँ कि अंततः मार्गदर्शक स्तम्भ संशय के लिए कोई स्थान ही नहीं छोड़ता। या फिर: कभी-कभी वह स्थान छोड़ता है और कभी-कभी नहीं भी। पर अब तो यह दार्शनिक प्रतिज्ञप्ति न रहकर एक आनुभविक प्रतिज्ञप्ति हो गई है। | ||
'''86.''' §2 के समान किसी ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जो सारिणी की सहायता से खेला जाता हो। इसमें '''क''' द्वारा '''ख''' को दिए जाने वाले संकेत लिपिबद्ध हैं। '''ख''' के पास एक सारिणी है; सारिणी के पहले खाने में खेल में प्रयुक्त होने वाले संकेत हैं, दूसरे खाने में निर्माण-पत्थरों के चित्र हैं। '''ख''' को '''क''' एक ऐसा लिपिबद्ध संकेत दिखाता है; '''ख''' उसे सारिणी में ढूँढता है, उसके सामने के चित्र को देखता है और ऐसी ही क्रियाएं करता है। अतः सारिणी वह नियम है जिसे वह आदेशों को पालन करने में प्रयोग करता है। — वह प्रशिक्षण द्वारा सारिणी में चित्र देखना सीखता है, संभवतः इस प्रशिक्षण का एक अंश तो शिक्षार्थी द्वारा अपनी उँगली को समरेखा पर बाँए से दाँए चलाना सीखना है; मानो ऐसा करना मेज पर सम रेखाओं की एक श्रृंखला खींचना | '''86.''' §2 के समान किसी ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जो सारिणी की सहायता से खेला जाता हो। इसमें '''क''' द्वारा '''ख''' को दिए जाने वाले संकेत लिपिबद्ध हैं। '''ख''' के पास एक सारिणी है; सारिणी के पहले खाने में खेल में प्रयुक्त होने वाले संकेत हैं, दूसरे खाने में निर्माण-पत्थरों के चित्र हैं। '''ख''' को '''क''' एक ऐसा लिपिबद्ध संकेत दिखाता है; '''ख''' उसे सारिणी में ढूँढता है, उसके सामने के चित्र को देखता है और ऐसी ही क्रियाएं करता है। अतः सारिणी वह नियम है जिसे वह आदेशों को पालन करने में प्रयोग करता है। — वह प्रशिक्षण द्वारा सारिणी में चित्र देखना सीखता है, संभवतः इस प्रशिक्षण का एक अंश तो शिक्षार्थी द्वारा अपनी उँगली को समरेखा पर बाँए से दाँए चलाना सीखना है; मानो ऐसा करना मेज पर सम रेखाओं की एक श्रृंखला खींचना हो। | ||
मान लीजिए कि अब सारिणी पढ़ने की विभिन्न विधियाँ प्रारंभ की जाती है; ऊपर बताई विधि का पालन करते हुए निम्न योजना के अनुसार: | मान लीजिए कि अब सारिणी पढ़ने की विभिन्न विधियाँ प्रारंभ की जाती है; ऊपर बताई विधि का पालन करते हुए निम्न योजना के अनुसार: | ||
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क्या अब हम इस नियम की व्याख्या के लिए किन्हीं अन्य नियमों की कल्पना नहीं कर सकते? और इससे विपरीत, क्या पहली सारिणी अपने इंगित-चिह्नों के बिना अधूरी थी? और क्या अन्य सारिणियां अपनी नियमावलियों के बिना अधूरी हैं? | क्या अब हम इस नियम की व्याख्या के लिए किन्हीं अन्य नियमों की कल्पना नहीं कर सकते? और इससे विपरीत, क्या पहली सारिणी अपने इंगित-चिह्नों के बिना अधूरी थी? और क्या अन्य सारिणियां अपनी नियमावलियों के बिना अधूरी हैं? | ||
'''87.''' मान लीजिए मैं यह व्याख्या देता हूँ: "'मोसिस' से मेरा तात्पर्य, एक ऐसा पुरुष है, जो यदि रहा हो तो, उसने यहूदियों का मिस्र से बहिर्गमन के समय नेतृत्व किया था, उसे उस समय चाहे जिस नाम से पुकारते हों, और उसने इसके अतिरिक्त चाहे जो कुछ और भी किया हो।" — किन्तु जैसे "मोसिस " के बारे में संशय किया जा सकता है वैसे ही इस व्याख्या के शब्दों के बारे में भी संशय संभव हैं (आप "मित्र" किसे कहते हैं, "यहूदी" किसे कहते हैं?)। न ही "लाल", "श्याम", "मीठा" जैसे शब्दों पर पहुंचने पर इन प्रश्नों का अंत होगा | '''87.''' मान लीजिए मैं यह व्याख्या देता हूँ: "'मोसिस' से मेरा तात्पर्य, एक ऐसा पुरुष है, जो यदि रहा हो तो, उसने यहूदियों का मिस्र से बहिर्गमन के समय नेतृत्व किया था, उसे उस समय चाहे जिस नाम से पुकारते हों, और उसने इसके अतिरिक्त चाहे जो कुछ और भी किया हो।" — किन्तु जैसे "मोसिस " के बारे में संशय किया जा सकता है वैसे ही इस व्याख्या के शब्दों के बारे में भी संशय संभव हैं (आप "मित्र" किसे कहते हैं, "यहूदी" किसे कहते हैं?)। न ही "लाल", "श्याम", "मीठा" जैसे शब्दों पर पहुंचने पर इन प्रश्नों का अंत होगा. — "जब कोई व्याख्या अन्तिम व्याख्या ही नहीं है, तो वह किसी बात को समझने में कैसे सहायक हो सकती है? उस स्थिति में तो व्याख्या कभी पूर्ण होती ही नहीं; अतः मैं अभी भी उसका अर्थ नहीं समझता और न ही कभी समझ पाऊँगा!" — व्याख्या मानो हवा में तब तक लटकी रहेगी जब तक उसे किसी अन्य व्याख्या का सहारा न मिले। जबकि वस्तुतः यह सम्भव है कि कोई व्याख्या किसी पूर्व-व्याख्या पर अवलंबित हो, किन्तु व्याख्या को किसी अन्य व्याख्या की आवश्यकता तब तक नहीं होती — जब तक ''हम'' उसका प्रयोग भ्रम की रोकथाम के लिए न करें। कहा जा सकता है: व्याख्या तो भ्रम को मिटाने अथवा उसकी रोकथाम में सहायक होती है — यानी उसी भ्रम को जो व्याख्या की अनुपस्थिति में हो सकता है, न कि उन सब भ्रमों को (मिटाने या रोकने में) जिनकी कल्पना मैं कर सकता हूँ। | ||
ऐसा प्रतीत होना आसान है कि प्रत्येक संशय मानो नींव की दरारों को, ''दर्शाता'' हो; ताकि पक्की समझ तो केवल तभी संभव हो सकती है जब हम पहले उन सभी विषयों जिनके बारे में शंकित होना संभव हो ''सकता'' है, के बारे में शंका करें और फिर उन सब शंकाओं को दूर करें। | |||
मार्ग-दर्शक स्तम्भ तो ठीक ही है — यदि सामान्य स्थितियों में वह अपना प्रयोजन पूरा करता है। | |||
'''88.''' यदि मैं किसी से कहूँ "इस स्थान के आसपास खड़े रहना" — क्या यह व्याख्या संपूर्ण रूप से सार्थक नहीं होगी? और, क्या, कोई अन्य व्याख्या निरर्थक नहीं हो सकती? | |||
किन्तु क्या यह अयथार्थ व्याख्या नहीं है? — हाँ; हम इसे "अयथार्थ" क्यों न कहें? आइए हम "अयथार्थ " के अर्थ को ही समझें। क्योंकि इसका अर्थ "अनुपयोगी" तो नहीं है। और आइए इसकी तुलना हम उससे करें जिसे हम "यथार्थ" कहते हैं: संभवत: किसी क्षेत्र के चारों ओर खड़िया से एक रेखा खींचने जैसा। यहाँ हमें तुरन्त यह प्रतीत होता है कि रेखा की तो चौड़ाई भी होती है। अतः रंग का किनारा अधिक यथार्थ होगा। किन्तु इस यथार्थता का क्या यहाँ अभी भी कोई अर्थ है; क्या इंजन निष्प्रयोजन नहीं चल रहा? और यह भी ध्यान रहे कि हमने अभी तक इस यथार्थ सीमा के उल्लंघन की भी परिभाषा नहीं दी है; यह उल्लंघन कैसे और किन उपकरणों से सिद्ध किया जाएगा? और ऐसे ही अन्य प्रश्न यहाँ उठते हैं। | |||
हम जानते हैं कि जेब-घड़ी के सन्दर्भ में यथार्थ समय मिलाने का, अथवा उसे यथार्थ समय दिखाने के लिए नियंत्रित करने का क्या अर्थ होता है। किन्तु क्या होगा, यदि पूछा जाए: क्या यह यथार्थता आदर्श यथार्थता है, अथवा यह आदर्श के कितने |