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'''12.''' यह रेल-इंजन के चालक-कक्ष को देखने जैसा ही है। वहाँ हमें सभी हत्थे लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं। (स्वाभाविकतः, क्योंकि वे सभी पकड़ने के लिए होते हैं।) किन्तु उनमें से एक तो क्रैंक का हत्था है जिसे अविराम चलाया जा सकता है (जो कि वाल्व के खुलने को नियमित करता है); दूसरा हत्था स्विच का है जिसकी केवल दो ही स्थितियां हैं: चालू या बन्द ! तीसरा ब्रेकलिवर का हत्था है जिसे जितना अधिक खींचे उतनी ही अधिक ब्रेक लगती है; चौथा, पंप का हत्थाः जिसे आगे-पीछे चलाने से ही कोई गति होती है। | '''12.''' यह रेल-इंजन के चालक-कक्ष को देखने जैसा ही है। वहाँ हमें सभी हत्थे लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं। (स्वाभाविकतः, क्योंकि वे सभी पकड़ने के लिए होते हैं।) किन्तु उनमें से एक तो क्रैंक का हत्था है जिसे अविराम चलाया जा सकता है (जो कि वाल्व के खुलने को नियमित करता है); दूसरा हत्था स्विच का है जिसकी केवल दो ही स्थितियां हैं: चालू या बन्द ! तीसरा ब्रेकलिवर का हत्था है जिसे जितना अधिक खींचे उतनी ही अधिक ब्रेक लगती है; चौथा, पंप का हत्थाः जिसे आगे-पीछे चलाने से ही कोई गति होती है। | ||
'''13.''' “भाषा के प्रत्येक शब्द का कुछ न कुछ अर्थ होता है” कहने मात्र से तो हम तब तक ''कुछ भी नहीं'' कह पाते जब तक हम यह व्याख्या नहीं करते कि निश्चित रूप से हम ''कौन'' से भेद करना चाहते हैं। (हाँ, यह तो हो सकता है कि §8 की भाषा के शब्दों का हम ऐसे 'अर्थहीन' शब्दों से भेद करना चाहें जैसे कि लुइस राल की कविताओं में आने वाले शब्द, अथवा गानों में आने वाले “डमडम-डिगाडिगा” जैसे | '''13.''' “भाषा के प्रत्येक शब्द का कुछ न कुछ अर्थ होता है” कहने मात्र से तो हम तब तक ''कुछ भी नहीं'' कह पाते जब तक हम यह व्याख्या नहीं करते कि निश्चित रूप से हम ''कौन'' से भेद करना चाहते हैं। (हाँ, यह तो हो सकता है कि §8 की भाषा के शब्दों का हम ऐसे 'अर्थहीन' शब्दों से भेद करना चाहें जैसे कि लुइस राल की कविताओं में आने वाले शब्द, अथवा गानों में आने वाले “डमडम-डिगाडिगा” जैसे शब्द। | ||
'''14.''' किसी के इस कथन की कल्पना कीजिए: “''सभी'' औजार कुछ न कुछ परिवर्तन करने के लिए होते हैं। जैसे हथौड़ा कील की स्थिति में परिवर्तन करता है, आरी बदलाव लाती है बोर्ड के आकार में; आदि, आदि।” — किन्तु पट्टिका, गोंददानी, कीलों से क्या बदलता है? — “हमारा ज्ञान — वस्तु की लम्बाई का, गोंद के तापमान का, और बक्से के ठोसपन का।” — परन्तु क्या अभिव्यक्तियों के इस समीकरण से कुछ भी उपलब्ध होगा? — | '''14.''' किसी के इस कथन की कल्पना कीजिए: “''सभी'' औजार कुछ न कुछ परिवर्तन करने के लिए होते हैं। जैसे हथौड़ा कील की स्थिति में परिवर्तन करता है, आरी बदलाव लाती है बोर्ड के आकार में; आदि, आदि।” — किन्तु पट्टिका, गोंददानी, कीलों से क्या बदलता है? — “हमारा ज्ञान — वस्तु की लम्बाई का, गोंद के तापमान का, और बक्से के ठोसपन का।” — परन्तु क्या अभिव्यक्तियों के इस समीकरण से कुछ भी उपलब्ध होगा? — | ||
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((निजवाचक सर्वनाम “''यह'' वाक्य” पर टिप्पणी।)) | ((निजवाचक सर्वनाम “''यह'' वाक्य” पर टिप्पणी।)) | ||
'''17.''' यह कहना संभव होगा: §8 की भाषा में ''विभिन्न प्रकार के शब्द'' हैं। क्योंकि “पट्टी” शब्द के कार्य और “गुटका” शब्द के कार्य का सादृश्य | '''17.''' यह कहना संभव होगा: §8 की भाषा में ''विभिन्न प्रकार के शब्द'' हैं। क्योंकि “पट्टी” शब्द के कार्य और “गुटका” शब्द के कार्य का सादृश्य “पट्टी” शब्द के कार्य और “'''ई'''” शब्द के कार्य के सादृश्य से कहीं अधिक है। परन्तु शब्दों के वर्ग बनाना तो हमारे वर्गीकरण के उद्देश्य पर और हमारे झुकाव पर निर्भर करता है। | ||
उन विभिन्न दृष्टियों के बारे में सोचिए जिनसे औज़ारों का, या फिर शतरंज के मोहरों का वर्गीकरण किया जा सकता है। | उन विभिन्न दृष्टियों के बारे में सोचिए जिनसे औज़ारों का, या फिर शतरंज के मोहरों का वर्गीकरण किया जा सकता है। | ||
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'''19.''' ऐसी भाषा की कल्पना करना सुगम है जिसमें केवल युद्ध के आदेश एवं विवरण हों — या फिर ऐसी भाषा की कल्पना भी सुगम है जिसमें केवल प्रश्न हों और उनके उत्तर हाँ या ना में देने के लिए अभिव्यक्तियां हों। और अनगिनत अन्य भाषाओं की कल्पना करना भी सुगम है। — और किसी भाषा की कल्पना करने का अर्थ तो एक जीवन-शैली की कल्पना करना है। | '''19.''' ऐसी भाषा की कल्पना करना सुगम है जिसमें केवल युद्ध के आदेश एवं विवरण हों — या फिर ऐसी भाषा की कल्पना भी सुगम है जिसमें केवल प्रश्न हों और उनके उत्तर हाँ या ना में देने के लिए अभिव्यक्तियां हों। और अनगिनत अन्य भाषाओं की कल्पना करना भी सुगम है। — और किसी भाषा की कल्पना करने का अर्थ तो एक जीवन-शैली की कल्पना करना है। | ||
परन्तु इस बारे में क्या कहेंगे: क्या §2 की भाषा में “पट्टी!” शब्द है, या वाक्य? — यदि यह शब्द है तो निश्चय ही इस का अर्थ वही नहीं है जो हमारी लोकभाषा में इसी की ध्वनि वाले शब्द का है, क्योंकि §2 की भाषा में एक बुलावा है। किन्तु यदि यह वाक्य है तो निश्चय ही हमारी भाषा का न्यूनीकृत वाक्य “पट्टी!” तो नहीं हो सकता — जहाँ तक पहले प्रश्न का सम्बन्ध है, आप “पट्टी!” बुलावे को शब्द भी कह सकते हैं और वाक्य भी; शायद इसे अपभ्रंश वाक्य कहना उचित होगा (जैसे हम अपभ्रंश हाइपरबोला कहते हैं); वास्तव में यह हमारा 'न्यूनीकृत' वाक्य ''ही'' है। — परन्तु निश्चय ही यह तो “मुझे पट्टी ला दो” वाक्य का एक लघु रूप मात्र है, और उदाहरण §2 में तो ऐसा कोई वाक्य है ही नहीं। — परन्तु इसके विपरीत मैं यह क्यों न कहूँ कि “मुझे पट्टी ला दो” वाक्य, “पट्टी!” वाक्य का ''विस्तार'' है? क्योंकि जब आप “पट्टी!” कहते हैं तो वास्तव में आपका आशय होता है: “मुझे पट्टी ला दो”। पर आप यह कैसे करते हैं: कैसे ''यह'' अर्थ होता है जब आप “पट्टी!” कहते हैं? क्या आप अपने आप से असंक्षिप्त वाक्य कहते हैं? और यह बताने के लिए कि “पट्टी!” बुलावे से किसी का क्या अर्थ होता है, मैं इस बुलावे का किसी अन्य अभिव्यक्ति में अनुवाद क्यों करूँ? और यदि इन दोनों का अर्थ एक ही है तो मैं क्यों कहूँ: “जब वह 'पट्टी!' कहता है तो उसका अर्थ 'पट्टी!' होता है”? पुनः यदि आपका अर्थ | परन्तु इस बारे में क्या कहेंगे: क्या §2 की भाषा में “पट्टी!” शब्द है, या वाक्य? — यदि यह शब्द है तो निश्चय ही इस का अर्थ वही नहीं है जो हमारी लोकभाषा में इसी की ध्वनि वाले शब्द का है, क्योंकि §2 की भाषा में एक बुलावा है। किन्तु यदि यह वाक्य है तो निश्चय ही हमारी भाषा का न्यूनीकृत वाक्य “पट्टी!” तो नहीं हो सकता — जहाँ तक पहले प्रश्न का सम्बन्ध है, आप “पट्टी!” बुलावे को शब्द भी कह सकते हैं और वाक्य भी; शायद इसे अपभ्रंश वाक्य कहना उचित होगा (जैसे हम अपभ्रंश हाइपरबोला कहते हैं); वास्तव में यह हमारा 'न्यूनीकृत' वाक्य ''ही'' है। — परन्तु निश्चय ही यह तो “मुझे पट्टी ला दो” वाक्य का एक लघु रूप मात्र है, और उदाहरण §2 में तो ऐसा कोई वाक्य है ही नहीं। — परन्तु इसके विपरीत मैं यह क्यों न कहूँ कि “मुझे पट्टी ला दो” वाक्य, “पट्टी!” वाक्य का ''विस्तार'' है? क्योंकि जब आप “पट्टी!” कहते हैं तो वास्तव में आपका आशय होता है: “मुझे पट्टी ला दो”। पर आप यह कैसे करते हैं: कैसे ''यह'' अर्थ होता है जब आप “पट्टी!” कहते हैं? क्या आप अपने आप से असंक्षिप्त वाक्य कहते हैं? और यह बताने के लिए कि “पट्टी!” बुलावे से किसी का क्या अर्थ होता है, मैं इस बुलावे का किसी अन्य अभिव्यक्ति में अनुवाद क्यों करूँ? और यदि इन दोनों का अर्थ एक ही है तो मैं क्यों कहूँ: “जब वह 'पट्टी!' कहता है तो उसका अर्थ 'पट्टी!' होता है”? पुनः यदि आपका अर्थ “मुझे पट्टी ला दो” हो सकता है तो आप का अर्थ “पट्टी!” क्यों नहीं हो सकता? — परन्तु जब मैं “पट्टी!” कहता हूँ तो मैं जो चाहता हूँ वह यह है ''कि वह मुझे पट्टी ला दे''! — निश्चय ही; किन्तु 'यह चाहना' क्या आपके कहे वाक्य से भिन्न किसी वाक्य को किसी न किसी रूप में सोचना है? — | ||
'''20.''' परन्तु अब ऐसा लगता है कि जब कोई कहता है, “मुझे पट्टी ला दो”, तो इस अभिव्यक्ति से उसका अर्थ अकेले शब्द “पट्टी!” के अनुरूप कोई ''एक'' लम्बा शब्द हो सकता है। — तो क्या इससे हमारा अर्थ कभी तो एक शब्द, और कभी चार शब्द हो सकता है? और प्रायः इससे हमारा अर्थ कैसे होता है? — मेरे विचार में हमारी प्रवृत्ति यह कहने की होगी: इस वाक्य से हमारा अर्थ ''चतुश्शब्द'' होता है जब हम इस वाक्य को “मुझे एक पट्टी दो”, “उसे एक पट्टी दो”, “दो पट्टियां लाओ” इत्यादि वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करते हैं; अर्थात् उन वाक्यों से भेद करते हुए जिनमें हमारे आदेशों में प्रयुक्त अलग-अलग शब्दों के इतर संयोग होते हैं। — किन्तु किसी वाक्य को अन्य वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करने में क्या निहित होता है? क्या अन्य वाक्य संभवत: मन में विचरते रहते हैं? सभी ही? उस वाक्य को कहते हुए ही अथवा उससे पहले या फिर बाद में भी? — नहीं। यह व्याख्या चाहे हमें कुछ लुभावनी भी लगे तो भी यह देखने के लिए कि हम यहाँ पथभ्रष्ट हो रहे हैं, हमें केवल क्षण भर के लिए इतना ही सोचना आवश्यक है कि वास्तव में होता क्या है। हम कहते हैं कि हम आदेशात्मक वाक्य का अन्य वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करते हैं क्योंकि हमारी भाषा में उन अन्य वाक्यों की संभावना निहित है। वह विदेशी जो हमारी भाषा को नहीं समझता, और जिसने कई बार किसी को “मुझे पट्टी ला दो!” आदेश देते हुए सुना है संभवतः यह सोचे कि यह संपूर्ण ध्वनि-श्रृंखला तो 'निर्माण-पत्थर' जैसे उसकी भाषा के शब्द जैसा एक ही शब्द है। यदि उसने यह आदेश दिया होता, तो शायद वह उसका उच्चारण किसी और प्रकार से करता, और हम कहते: उसका उच्चारण इतना विचित्र इसलिए है कि वह इसे एक ही शब्द मानता है। — परन्तु ऐसा उच्चारण करते हुए क्या उसमें कुछ अन्य क्रिया नहीं हो रही होती — ऐसी प्रक्रिया जो इस तथ्य से सम्बद्ध हो कि उसकी इस वाक्य की संकल्पना एक ही शब्द की है? — या तो उसमें वही प्रक्रिया होगी या फिर उससे कुछ भिन्न। जब आप ऐसा आदेश देते हैं तो आप को क्या लगता है? यह आदेश देते हुए क्या आप सजग हैं- कि यह चार शब्दों का समूह है? बेशक, आप इस भाषा — जिसमें अन्य वाक्य भी हैं — में निपुण हैं, किन्तु आपकी यह निपुणता क्या तभी प्रकाशित होती है जब आप वाक्य को बोलते हैं? और यह मैंने मान ही लिया है कि यदि किसी विदेशी की इस वाक्य की संकल्पना भिन्न है, तो उसका उच्चारण भी भिन्न ही होगा। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि जिसे हम उसकी भ्रान्त संकल्पना कहते हैं वह उसके आदेश की किसी सहगामी प्रक्रिया में निहित हो। | '''20.''' परन्तु अब ऐसा लगता है कि जब कोई कहता है, “मुझे पट्टी ला दो”, तो इस अभिव्यक्ति से उसका अर्थ अकेले शब्द “पट्टी!” के अनुरूप कोई ''एक'' लम्बा शब्द हो सकता है। — तो क्या इससे हमारा अर्थ कभी तो एक शब्द, और कभी चार शब्द हो सकता है? और प्रायः इससे हमारा अर्थ कैसे होता है? — मेरे विचार में हमारी प्रवृत्ति यह कहने की होगी: इस वाक्य से हमारा अर्थ ''चतुश्शब्द'' होता है जब हम इस वाक्य को “मुझे एक पट्टी दो”, “उसे एक पट्टी दो”, “दो पट्टियां लाओ” इत्यादि वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करते हैं; अर्थात् उन वाक्यों से भेद करते हुए जिनमें हमारे आदेशों में प्रयुक्त अलग-अलग शब्दों के इतर संयोग होते हैं। — किन्तु किसी वाक्य को अन्य वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करने में क्या निहित होता है? क्या अन्य वाक्य संभवत: मन में विचरते रहते हैं? सभी ही? उस वाक्य को कहते हुए ही अथवा उससे पहले या फिर बाद में भी? — नहीं। यह व्याख्या चाहे हमें कुछ लुभावनी भी लगे तो भी यह देखने के लिए कि हम यहाँ पथभ्रष्ट हो रहे हैं, हमें केवल क्षण भर के लिए इतना ही सोचना आवश्यक है कि वास्तव में होता क्या है। हम कहते हैं कि हम आदेशात्मक वाक्य का अन्य वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करते हैं क्योंकि हमारी भाषा में उन अन्य वाक्यों की संभावना निहित है। वह विदेशी जो हमारी भाषा को नहीं समझता, और जिसने कई बार किसी को “मुझे पट्टी ला दो!” आदेश देते हुए सुना है संभवतः यह सोचे कि यह संपूर्ण ध्वनि-श्रृंखला तो 'निर्माण-पत्थर' जैसे उसकी भाषा के शब्द जैसा एक ही शब्द है। यदि उसने यह आदेश दिया होता, तो शायद वह उसका उच्चारण किसी और प्रकार से करता, और हम कहते: उसका उच्चारण इतना विचित्र इसलिए है कि वह इसे एक ही शब्द मानता है। — परन्तु ऐसा उच्चारण करते हुए क्या उसमें कुछ अन्य क्रिया नहीं हो रही होती — ऐसी प्रक्रिया जो इस तथ्य से सम्बद्ध हो कि उसकी इस वाक्य की संकल्पना एक ही शब्द की है? — या तो उसमें वही प्रक्रिया होगी या फिर उससे कुछ भिन्न। जब आप ऐसा आदेश देते हैं तो आप को क्या लगता है? यह आदेश देते हुए क्या आप सजग हैं- कि यह चार शब्दों का समूह है? बेशक, आप इस भाषा — जिसमें अन्य वाक्य भी हैं — में निपुण हैं, किन्तु आपकी यह निपुणता क्या तभी प्रकाशित होती है जब आप वाक्य को बोलते हैं? और यह मैंने मान ही लिया है कि यदि किसी विदेशी की इस वाक्य की संकल्पना भिन्न है, तो उसका उच्चारण भी भिन्न ही होगा। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि जिसे हम उसकी भ्रान्त संकल्पना कहते हैं वह उसके आदेश की किसी सहगामी प्रक्रिया में निहित हो। | ||
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यह 'पदलोची' वाक्य है, इसलिए नहीं कि इसको बोलते हुए जो हम सोचते हैं उसमें से कुछ छूट जाता है, परन्तु इसलिए कि हमारी भाषा के विशिष्ट प्रतिमान की तुलना में यह संक्षिप्त है। — बेशक यहाँ कोई टोक सकता है: “आप यह मानते हैं कि संक्षिप्त और असंक्षिप्त वाक्य का अर्थ एक ही है — तो यह अर्थ क्या है? क्या इस अर्थ के लिए कोई भाषाई अभिव्यक्ति नहीं है?” — किन्तु वाक्यों के एक ही अर्थ होने का तथ्य क्या उनके प्रयोग की अभिन्नता में ही निहित नहीं है? — (रूसी भाषा में “पत्थर लाल है” की बजाय “पत्थर लाल” कहते हैं; क्या उन्हें इस के अर्थ में “है” का अभाव खटकता है, या फिर वे उसे अपने विचार में जोड़ लेते हैं?) | यह 'पदलोची' वाक्य है, इसलिए नहीं कि इसको बोलते हुए जो हम सोचते हैं उसमें से कुछ छूट जाता है, परन्तु इसलिए कि हमारी भाषा के विशिष्ट प्रतिमान की तुलना में यह संक्षिप्त है। — बेशक यहाँ कोई टोक सकता है: “आप यह मानते हैं कि संक्षिप्त और असंक्षिप्त वाक्य का अर्थ एक ही है — तो यह अर्थ क्या है? क्या इस अर्थ के लिए कोई भाषाई अभिव्यक्ति नहीं है?” — किन्तु वाक्यों के एक ही अर्थ होने का तथ्य क्या उनके प्रयोग की अभिन्नता में ही निहित नहीं है? — (रूसी भाषा में “पत्थर लाल है” की बजाय “पत्थर लाल” कहते हैं; क्या उन्हें इस के अर्थ में “है” का अभाव खटकता है, या फिर वे उसे अपने विचार में जोड़ लेते हैं?) | ||
'''21.''' ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जिसमें '''क''' पूछता है और '''ख''' चट्टे में पड़ी हुई पट्टियों या गुटकों की संख्या बताता है, अथवा फिर किसी स्थान पर रखे निर्माण-पत्थरों के रंग और आकार बताता है। ऐसा विवरण यूँ भी हो सकता है: “पाँच | '''21.''' ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जिसमें '''क''' पूछता है और '''ख''' चट्टे में पड़ी हुई पट्टियों या गुटकों की संख्या बताता है, अथवा फिर किसी स्थान पर रखे निर्माण-पत्थरों के रंग और आकार बताता है। ऐसा विवरण यूँ भी हो सकता है: “पाँच पट्टियां”। तो विवरण अथवा कथन “पांच पट्टियां” तथा आदेश “पांच पट्टियां!” में क्या अन्तर है? — यह तो भाषा-खेल में इन शब्दों के उच्चारण के ढंग पर निर्भर करता है। उन्हें बोलते हुए कंठस्वर, भंगिमा तथा अन्य बहुत कुछ भी बेशक भिन्न ही होगा। परन्तु हम कंठ-स्वर की अभिन्नता की भी कल्पना कर सकते हैं-क्योंकि आदेश और विवरण दोनों ही विभिन्न प्रकार के कंठस्वरों और विभिन्न भंगिमाओं के साथ कहे जा सकते हैं-अन्तर तो केवल उनके प्रयोग में है। (निश्चय ही हम “कथन” और “आदेश” शब्दों को वाक्यों के व्याकरण-सम्मत आकारों के रूप में तथा स्वर-शैलियों के रूप में भी प्रयोग कर सकते हैं; हम वास्तव में “क्या आज मौसम लुभावना नहीं?” को प्रश्न कहते हैं यद्यपि इसका कथन के रूप में प्रयोग होता है।) हम ऐसी भाषा की कल्पना कर सकते हैं जिसमें सभी वाक्यों का आकार तथा स्वर आलंकारिक प्रश्नों का सा हो; या फिर प्रत्येक आदेश का आकार “क्या आप चाहेंगे कि...?” प्रश्न रूप हो। संभवत: तब यह कहा जाए: “वह जो कहता है उसका आकार तो प्रश्न रूपी है, परन्तु वास्तव में वह आदेश है” — अर्थात् भाषा के प्रयोग की विधि में उसका प्रयोग आदेश का है। (इसी प्रकार “आप यह करेंगे” कथन भविष्यवाणी के रूप में नहीं, अपितु आदेश के रूप में, कहा जाता है। वह क्या है जो इसे भविष्यवाणी अथवा आदेश का रूप प्रदान करता है?) | ||
'''22.''' फ्रेगे की यह धारणा, कि प्रत्येक कथ्य में एक तथ्य निहित होता है, वास्तव में हमारी भाषा में प्रत्येक कथन को “यह अभिकथित है कि अमुक स्थिति है” — रूप में लिखने की संभावना पर आधारित है। किन्तु “अमुक स्थिति है” हमारी भाषा का वाक्य नहीं है — भाषा-खेल में ऐसी तो कोई चाल ही नहीं है। और “यह अभिकथित है कि...” न लिखकर यदि मैं “यह अभिकथित है: अमुक-अमुक स्थिति है” लिखूँ तो “यह अभिकथित है” शब्द निष्प्रयोजन हो जाते हैं। | '''22.''' फ्रेगे की यह धारणा, कि प्रत्येक कथ्य में एक तथ्य निहित होता है, वास्तव में हमारी भाषा में प्रत्येक कथन को “यह अभिकथित है कि अमुक स्थिति है” — रूप में लिखने की संभावना पर आधारित है। किन्तु “अमुक स्थिति है” हमारी भाषा का वाक्य नहीं है — भाषा-खेल में ऐसी तो कोई चाल ही नहीं है। और “यह अभिकथित है कि...” न लिखकर यदि मैं “यह अभिकथित है: अमुक-अमुक स्थिति है” लिखूँ तो “यह अभिकथित है” शब्द निष्प्रयोजन हो जाते हैं। | ||
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“क्या आपको वहाँ नीली पुस्तक दिखाई देती है? उसे यहाँ ले आइए।” | “क्या आपको वहाँ नीली पुस्तक दिखाई देती है? उसे यहाँ ले आइए।” | ||
“इस नीले प्रकाश-संकेत का अर्थ है....” | |||
“यह नीला क्या कहलाता है? – क्या यह 'जामुनी' है?” | “यह नीला क्या कहलाता है? – क्या यह 'जामुनी' है?” | ||
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आप आकृति पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कभी तो उसका अनुरेखन करके, कभी रंग प्रत्यक्ष से बचने के लिए अपने आँखें मींच-मिंचा कर, या और भी अनेक प्रकार से। मैं यह कहना चाहता हूँ: कुछ ऐसा ही होता है जब कोई 'अपना ध्यान इस पर या उस पर केन्द्रित करता है'। परन्तु इन सब से हमें यह कहने का आधार नहीं मिलता कि कोई व्यक्ति आकृति पर रंग इत्यादि पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है। जैसे शतरंज की कोई चाल न तो किसी मोहरे का शतरंज पटल पर अमुक-अमुक ढंग से चलाना मात्र होता है — और न ही चाल चलते समय चलने वाले व्यक्ति के विचारों या भावों का कोई समूहः बल्कि शतरंज की चाल तो उन परिस्थितियों में ही चाल होती है जिन्हें हम “शतरंज का खेल खेलना”, “शतरंज की समस्या का हल” इत्यादि कहते हैं। | आप आकृति पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कभी तो उसका अनुरेखन करके, कभी रंग प्रत्यक्ष से बचने के लिए अपने आँखें मींच-मिंचा कर, या और भी अनेक प्रकार से। मैं यह कहना चाहता हूँ: कुछ ऐसा ही होता है जब कोई 'अपना ध्यान इस पर या उस पर केन्द्रित करता है'। परन्तु इन सब से हमें यह कहने का आधार नहीं मिलता कि कोई व्यक्ति आकृति पर रंग इत्यादि पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है। जैसे शतरंज की कोई चाल न तो किसी मोहरे का शतरंज पटल पर अमुक-अमुक ढंग से चलाना मात्र होता है — और न ही चाल चलते समय चलने वाले व्यक्ति के विचारों या भावों का कोई समूहः बल्कि शतरंज की चाल तो उन परिस्थितियों में ही चाल होती है जिन्हें हम “शतरंज का खेल खेलना”, “शतरंज की समस्या का हल” इत्यादि कहते हैं। | ||
'''34.''' परन्तु यदि कोई कहे “मैं जब भी आकृति पर ध्यान देता हूँ: मेरी आँखें रूपरेखा का अनुगमन करती हैं और मुझे आभास होता है कि....”। और यदि वह व्यक्ति किसी वृत्ताकार वस्तु को इंगित करते हुए और उन सभी अनुभूतियों सहित “उसे 'वृत्त' कहते | '''34.''' परन्तु यदि कोई कहे “मैं जब भी आकृति पर ध्यान देता हूँ: मेरी आँखें रूपरेखा का अनुगमन करती हैं और मुझे आभास होता है कि....”। और यदि वह व्यक्ति किसी वृत्ताकार वस्तु को इंगित करते हुए और उन सभी अनुभूतियों सहित “उसे 'वृत्त' कहते हैं” ऐसा कहकर निदर्शनात्मक परिभाषा किसी को दे — तो क्या इस परिभाषा को श्रोता इससे अन्यथा नहीं समझ सकता यद्यपि वह उसकी आँखों को रूपरेखा का अनुगमन करते हुए देखता है, और यद्यपि उसकी भी वही अनुभूति है जो दूसरे की है? अर्थात्: इस 'व्याख्या' से यह भी तात्पर्य हो सकता है कि वह इस शब्द को अब कैसे प्रयोग करता है; उदाहरणार्थ “वृत्त को इंगित करो” कहने पर वह किसको इंगित करता है। — क्योंकि न तो “परिभाषा से अमुक ढंग का अभिप्राय होना” यह अभिव्यक्ति और न ही “परिभाषा की अमुक ढंग से व्याख्या करना” यह अभिव्यक्ति किसी ऐसी प्रक्रिया की अभिव्यक्ति है जिस का परिभाषा देने अथवा सुनने के साथ साहचर्य-सम्बन्ध हो। | ||
'''35.''' निस्संदेह ऐसे अनुभव तो हैं जिन्हें (उदाहरणार्थ) आकृति को इंगित करने “विशिष्ट अनुभव” कहा जा सकता है; उदाहरणार्थ, इंगित करते समय अपनी उंगलियों अथवा नेत्रों से रूपरेखा का अनुगमन करना। — किन्तु न तो सदैव ''ऐसा'' होता है जब 'तात्पर्य वह आकृति होता है' और न ही कोई अन्य विशिष्ट प्रक्रिया इन सभी स्थितियों में घटित होती है। — और यदि सदैव ऐसी पुनरावृत्ति होती भी हो तो भी यह कहना निर्भर करेगा उन परिस्थितियों पर — अर्थात्, इस पर कि इंगित करने से पूर्व और उसके पश्चात क्या हुआ — जिनमें हम कह सकें: “उसने तो आकृति को इंगित किया, रंग को नहीं”। | '''35.''' निस्संदेह ऐसे अनुभव तो हैं जिन्हें (उदाहरणार्थ) आकृति को इंगित करने “विशिष्ट अनुभव” कहा जा सकता है; उदाहरणार्थ, इंगित करते समय अपनी उंगलियों अथवा नेत्रों से रूपरेखा का अनुगमन करना। — किन्तु न तो सदैव ''ऐसा'' होता है जब 'तात्पर्य वह आकृति होता है' और न ही कोई अन्य विशिष्ट प्रक्रिया इन सभी स्थितियों में घटित होती है। — और यदि सदैव ऐसी पुनरावृत्ति होती भी हो तो भी यह कहना निर्भर करेगा उन परिस्थितियों पर — अर्थात्, इस पर कि इंगित करने से पूर्व और उसके पश्चात क्या हुआ — जिनमें हम कह सकें: “उसने तो आकृति को इंगित किया, रंग को नहीं”। | ||
क्योंकि “आकृति को इंगित करना”, “आकृति का तात्पर्य होना” इत्यादि शब्दों उसी प्रकार प्रयोग नहीं किया जाता जिस प्रकार ''इनको'': “इस पुस्तक को (न कि उसको) इंगित करना”, “कुर्सी को इंगित करना न कि मेज को”, इत्यादि। इतना ही सोचिए कि “इस वस्तु को इंगित करना”, “उस वस्तु को इंगित करना” शब्दों का प्रयोग सीखने और दूसरी ओर “रंग को, न कि आकृति को इंगित करना“, | क्योंकि “आकृति को इंगित करना”, “आकृति का तात्पर्य होना” इत्यादि शब्दों उसी प्रकार प्रयोग नहीं किया जाता जिस प्रकार ''इनको'': “इस पुस्तक को (न कि उसको) इंगित करना”, “कुर्सी को इंगित करना न कि मेज को”, इत्यादि। इतना ही सोचिए कि “इस वस्तु को इंगित करना”, “उस वस्तु को इंगित करना” शब्दों का प्रयोग सीखने और दूसरी ओर “रंग को, न कि आकृति को इंगित करना“, “रंग का तात्पर्य होना”, इत्यादि शब्दों का प्रयोग ''सीखने'' में कितनी भिन्नता है। | ||
यानी: कुछ स्थितियों — विशेषकर जिनमें कोई 'आकृति को', 'संख्या को' इंगित करता है — में विशिष्ट अनुभव तथा इंगित करने के ढंग होते हैं — 'विशिष्ट' इसलिए कि बहुधा (सदा तो नहीं) वे अनुभव बार-बार होते हैं जब हमारा 'तात्पर्य' आकृति अथवा संख्या होता है। परन्तु क्या आप किसी खेल की गोटी को ''खेल की गोटी के रूप'' में इंगित करने का कोई विशिष्ट अनुभव जानते हैं? फिर भी कोई कह सकता है: “मेरा तात्पर्य है कि यह ''मोहरा'', न कि लकड़ी का विशेष टुकड़ा जिसे मैं इंगित कर रहा हूँ, 'राजा' कहलाता है”। (पहचानना, चाहना, स्मरण करना, इत्यादि।) | यानी: कुछ स्थितियों — विशेषकर जिनमें कोई 'आकृति को', 'संख्या को' इंगित करता है — में विशिष्ट अनुभव तथा इंगित करने के ढंग होते हैं — 'विशिष्ट' इसलिए कि बहुधा (सदा तो नहीं) वे अनुभव बार-बार होते हैं जब हमारा 'तात्पर्य' आकृति अथवा संख्या होता है। परन्तु क्या आप किसी खेल की गोटी को ''खेल की गोटी के रूप'' में इंगित करने का कोई विशिष्ट अनुभव जानते हैं? फिर भी कोई कह सकता है: “मेरा तात्पर्य है कि यह ''मोहरा'', न कि लकड़ी का विशेष टुकड़ा जिसे मैं इंगित कर रहा हूँ, 'राजा' कहलाता है”। (पहचानना, चाहना, स्मरण करना, इत्यादि।) | ||
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ऐसे वाक्यों से, जिनका उद्देश्य सूचित करना हो, भी कोई व्यक्ति शब्दों को समझ सकता है। (हाशियों में टिप्पणी: यहाँ महत्त्वपूर्ण अंधविश्वास है।) | ऐसे वाक्यों से, जिनका उद्देश्य सूचित करना हो, भी कोई व्यक्ति शब्दों को समझ सकता है। (हाशियों में टिप्पणी: यहाँ महत्त्वपूर्ण अंधविश्वास है।) | ||
क्या बुबुबु कहने से मेरा तात्पर्य “यदि वर्षा नहीं होगी तो मैं सैर को जाऊँगा” हो सकता है? — भाषा में ही मेरा कोई अर्थ हो सकता है। इससे पता चलता है कि “अर्थ होना” अभिव्यक्ति का व्याकरण “कल्पना करना” इत्यादि के व्याकरण जैसा नहीं होता।}}'''38.''' परन्तु, भाषा-खेल §8 में “यह” अथवा “वह.... कहलाता है” जैसी निदर्शनात्मक परिभाषा में “वह” शब्द किसका नाम है? — यदि आप मतिभ्रम उत्पन्न करना नहीं चाहते तो आपके लिए सर्वश्रेष्ठ यही होगा कि इन शब्दों को नाम कहें ही नहीं। — तथापि, आश्चर्य है कि केवल “यह” शब्द को ही ''यथार्थ'' नाम कहा गया है; फिर और किसी शब्द को नाम कहना तो केवल अशुद्ध एवं मिलते-जुलते अर्थ में ही नाम कहना होगा। | क्या बुबुबु कहने से मेरा तात्पर्य “यदि वर्षा नहीं होगी तो मैं सैर को जाऊँगा” हो सकता है? — भाषा में ही मेरा कोई अर्थ हो सकता है। इससे पता चलता है कि “अर्थ होना” अभिव्यक्ति का व्याकरण “कल्पना करना” इत्यादि के व्याकरण जैसा नहीं होता।}} | ||
'''38.''' परन्तु, भाषा-खेल §8 में “यह” अथवा “वह.... कहलाता है” जैसी निदर्शनात्मक परिभाषा में “वह” शब्द किसका नाम है? — यदि आप मतिभ्रम उत्पन्न करना नहीं चाहते तो आपके लिए सर्वश्रेष्ठ यही होगा कि इन शब्दों को नाम कहें ही नहीं। — तथापि, आश्चर्य है कि केवल “यह” शब्द को ही ''यथार्थ'' नाम कहा गया है; फिर और किसी शब्द को नाम कहना तो केवल अशुद्ध एवं मिलते-जुलते अर्थ में ही नाम कहना होगा। | |||
यूँ कहिए कि भाषा के तर्क को उदात्त बनाने की हमारी प्रवृत्ति ही इस विचित्र संकल्पना का स्रोत है। इसका उचित उत्तर तो यह है: हम विभिन्न विषयों को “नाम” कहते हैं; “नाम” शब्द का प्रयोग तो शब्द के ऐसे भिन्न प्रयोगों में होता है जो एक दूसरे से विभिन्न प्रकारों से संबंधित हैं; किन्तु जिस प्रकार का प्रयोग “यह” का होता है वह उनमें से नहीं है। | यूँ कहिए कि भाषा के तर्क को उदात्त बनाने की हमारी प्रवृत्ति ही इस विचित्र संकल्पना का स्रोत है। इसका उचित उत्तर तो यह है: हम विभिन्न विषयों को “नाम” कहते हैं; “नाम” शब्द का प्रयोग तो शब्द के ऐसे भिन्न प्रयोगों में होता है जो एक दूसरे से विभिन्न प्रकारों से संबंधित हैं; किन्तु जिस प्रकार का प्रयोग “यह” का होता है वह उनमें से नहीं है। | ||
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इसका संबंध नामकरण की ऐसी संकल्पना से है जिसमें उसे कोई रहस्यमय प्रक्रिया माना गया है। नामकरण किसी शब्द का किसी वस्तु से एक ''विचित्र'' संबंध प्रतीत होता है। — और आपको वास्तव में ऐसा विचित्र संबंध मिलता है जब नाम और वस्तु के बीच का ही संबंध दार्शनिक प्रस्तुत करता है। ऐसे संबंध को प्रस्तुत करने के लिए वह अपने समक्ष स्थित वस्तु को अपलक निहारता है एवं किसी नाम को अथवा “यह” शब्द को ही अनेक बार दोहराता है। क्योंकि जब ''भाषा विरत हो जाती है'' तब दार्शनिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं और ''यहाँ'' निस्संदेह हम मिथ्या कल्पना कर सकते हैं कि नामकरण मानो किसी वस्तु के ही नाम रखने की कोई असाधारण मानसिक क्रिया हो। और हम वस्तु के तईं भी “यह” शब्द कह सकते हैं, यूँ कहिए कि वस्तु को हम “यह” से ''संबोधित'' कर सकते हैं — निस्संदेह इस शब्द का विचित्र प्रयोग केवल दार्शनिक चिन्तन में होता है। | इसका संबंध नामकरण की ऐसी संकल्पना से है जिसमें उसे कोई रहस्यमय प्रक्रिया माना गया है। नामकरण किसी शब्द का किसी वस्तु से एक ''विचित्र'' संबंध प्रतीत होता है। — और आपको वास्तव में ऐसा विचित्र संबंध मिलता है जब नाम और वस्तु के बीच का ही संबंध दार्शनिक प्रस्तुत करता है। ऐसे संबंध को प्रस्तुत करने के लिए वह अपने समक्ष स्थित वस्तु को अपलक निहारता है एवं किसी नाम को अथवा “यह” शब्द को ही अनेक बार दोहराता है। क्योंकि जब ''भाषा विरत हो जाती है'' तब दार्शनिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं और ''यहाँ'' निस्संदेह हम मिथ्या कल्पना कर सकते हैं कि नामकरण मानो किसी वस्तु के ही नाम रखने की कोई असाधारण मानसिक क्रिया हो। और हम वस्तु के तईं भी “यह” शब्द कह सकते हैं, यूँ कहिए कि वस्तु को हम “यह” से ''संबोधित'' कर सकते हैं — निस्संदेह इस शब्द का विचित्र प्रयोग केवल दार्शनिक चिन्तन में होता है। | ||
'''39.''' परन्तु किसी की इसी शब्द को ही नाम बनाने की इच्छा क्यों होती है, जबकि स्पष्टत: यह नाम ही ''नहीं'' है? — यही तो कारण है। क्योंकि साधारणतः जो नाम कहलाता है उसके विरुद्ध आपत्ति उठाने का हमें प्रलोभन होता है। इसे यूँ कहा जा सकता है: ''नाम से तो वास्तव में सरल विषय ही निर्दिष्ट होना चाहिए''। और इसके लिए संभवत: निम्नलिखित कारण दिए जा सकते हैं: उदाहरणार्थ, | '''39.''' परन्तु किसी की इसी शब्द को ही नाम बनाने की इच्छा क्यों होती है, जबकि स्पष्टत: यह नाम ही ''नहीं'' है? — यही तो कारण है। क्योंकि साधारणतः जो नाम कहलाता है उसके विरुद्ध आपत्ति उठाने का हमें प्रलोभन होता है। इसे यूँ कहा जा सकता है: ''नाम से तो वास्तव में सरल विषय ही निर्दिष्ट होना चाहिए''। और इसके लिए संभवत: निम्नलिखित कारण दिए जा सकते हैं: उदाहरणार्थ, “एक्सकालिबर” शब्द साधारण अर्थ में एक समीचीन नाम है। एक्सकालिबर तलवार तो विभिन्न अंशों का विशिष्ट प्रकार का संयोजन है। यदि उसका संयोजन किसी अन्य प्रकार से किया जाए तो वह एक्सकालिबर नहीं होती। परन्तु यह स्पष्ट है कि “एक्सकालिबर का फल पैना है” वाक्य तो अर्थपूर्ण ही है, चाहे एक्सकालिबर अखंड रहे अथवा खंड-खंड हो जाए। किन्तु यदि “एक्सकालिबर” किसी वस्तु का नाम है तब वह वस्तु रहती ही नहीं जब एक्सकालिबर के खंड हो जाते हैं; और तब इस नाम का कोई अर्थ नहीं होगा क्योंकि तब इसके अनुरूप कोई भी वस्तु नहीं होगी। किन्तु फिर तो “एक्सकालिबर का पैना फल है” वाक्य में एक ऐसा शब्द होगा जिसका कोई अर्थ ही नहीं और इसलिए पूर्ण वाक्य ही निरर्थक होगा। परन्तु इसका अर्थ तो है; अतः इस वाक्य के प्रत्येक शब्द के अनुरूप कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए। अतः, अर्थ के विश्लेषण करने पर “एक्सकालिबर” शब्द को अनिवार्यतः लुप्त हो जाना चाहिए और उसका स्थान उन शब्दों को ले लेना चाहिए जो असंयुक्त-खंडों के नाम हों। उन शब्दों को यथार्थ नाम देना उचित ही होगा। | ||
'''40.''' आइए पहले हम युक्ति के इस पक्ष का विवेचन करें: यदि शब्द के अनुरूप कुछ भी न हो तो उसका कोई अर्थ ही नहीं होता। — यह ध्यान देने योग्य बात है कि यदि “अर्थ” शब्द का प्रयोग उसके 'अनुरूप' वस्तु को इंगित करने के लिए किया जाए तो उसका प्रयोग ही अयुक्त है। वह तो नाम के अर्थ को उस नाम के ''वाहक'' के साथ उलझाना है। जब श्री '''न. न.''' की मृत्यु होती है तो कहा जाता है कि उस नाम के वाहक की मृत्यु हो गई है, न कि उस नाम के अर्थ की। परन्तु यह कहना निरर्थक होगा क्योंकि यदि उस नाम का अर्थ नहीं रहा हो तो “श्री '''न. न.''' की मृत्यु हो गई है" कहने का कोई अर्थ ही नहीं होगा। | '''40.''' आइए पहले हम युक्ति के इस पक्ष का विवेचन करें: यदि शब्द के अनुरूप कुछ भी न हो तो उसका कोई अर्थ ही नहीं होता। — यह ध्यान देने योग्य बात है कि यदि “अर्थ” शब्द का प्रयोग उसके 'अनुरूप' वस्तु को इंगित करने के लिए किया जाए तो उसका प्रयोग ही अयुक्त है। वह तो नाम के अर्थ को उस नाम के ''वाहक'' के साथ उलझाना है। जब श्री '''न. न.''' की मृत्यु होती है तो कहा जाता है कि उस नाम के वाहक की मृत्यु हो गई है, न कि उस नाम के अर्थ की। परन्तु यह कहना निरर्थक होगा क्योंकि यदि उस नाम का अर्थ नहीं रहा हो तो “श्री '''न. न.''' की मृत्यु हो गई है" कहने का कोई अर्थ ही नहीं होगा। | ||
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फिर: क्या इस वृक्ष का मेरा चाक्षुष प्रत्यक्ष घटकों में बंटा है? और इसके असंयुक्त घटक कौन से हैं? बहुरंगी होना एक प्रकार की संयुक्तता है; एक अन्य प्रकार की संयुक्तता का उदाहरण सरल खंडों से रचित खंडित रूपरेखा है। और वक्राकृति को आरोही एवं अवरोही खंडों से संरचित भी कहा जा सकता है। | फिर: क्या इस वृक्ष का मेरा चाक्षुष प्रत्यक्ष घटकों में बंटा है? और इसके असंयुक्त घटक कौन से हैं? बहुरंगी होना एक प्रकार की संयुक्तता है; एक अन्य प्रकार की संयुक्तता का उदाहरण सरल खंडों से रचित खंडित रूपरेखा है। और वक्राकृति को आरोही एवं अवरोही खंडों से संरचित भी कहा जा सकता है। | ||
यदि मैं बिना किसी और व्याख्या के किसी को कहूँ: अब मैं अपने समक्ष जो देख रहा हूँ वह संयुक्त है, तो उसे यह पूछने का अधिकार होगा: | यदि मैं बिना किसी और व्याख्या के किसी को कहूँ: अब मैं अपने समक्ष जो देख रहा हूँ वह संयुक्त है, तो उसे यह पूछने का अधिकार होगा: “'संयुक्त' से आपका क्या अर्थ है? क्योंकि उसका अर्थ अनेक प्रकार के विषय हो सकते हैं!” — “जो आप देख रहे हैं क्या वह संयुक्त है?” प्रश्न तो अर्थपूर्ण होता है यदि यह पहले से सुनिश्चित हो कि किस प्रकार की संयुक्तता — अर्थात् शब्द के किस विशिष्ट प्रयोग की बात है। यदि यह नियत हो कि वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष “संयुक्त” कहलाएगा जब हमें एक मात्र तना ही न दिखाई दे अपितु शाखाएं भी दिखाई दें तो “क्या इस वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष असंयुक्त है, अथवा संयुक्त?” प्रश्न और “उसके असंयुक्त घटक कौन से हैं?” प्रश्न का एक स्पष्ट अर्थ, एक स्पष्ट प्रयोग होगा। और निस्संदेह द्वितीय प्रश्न का उत्तर “उसकी शाखाएं” तो नहीं है (वह तो व्याकरण सम्मत प्रश्न — “यहाँ 'असंयुक्त घटक' किसे कहते हैं?” — का उत्तर होगा) अपितु इस प्रश्न का उत्तर उसकी विभिन्न शाखाओं का विवरण होगा। | ||
क्या अर्थ है? क्योंकि उसका अर्थ अनेक प्रकार के विषय हो सकते हैं! | |||
किन्तु क्या, उदाहरणार्थ, शतरंज की बिसात, स्पष्टतः एवं निरपेक्ष रूप से संयुक्त नहीं है? — संभवतः आप बत्तीस श्वेत और बत्तीस श्याम वर्गों की संरचना के बारे में सोच रहे हैं। किन्तु उदाहरणार्थ, क्या ऐसा नहीं कि आप भी यह कह सकते हैं कि यह श्याम एवं श्वेत रंगों से और वर्गाकृति से संरचित है? और यदि इसके अवलोकन के विभिन्न ढंग हैं तो भी क्या आप कहना चाहेंगे कि शतरंज की बिसात निरपेक्ष रूप से 'संयुक्त' है? — किसी विशिष्ट भाषा-खेल के ''बाहर'' “क्या यह विषय संयुक्त है?” पूछना तो ऐसा है जैसा एक बार एक लड़के ने किया जिसको यह बताना था कि प्रदत्त वाक्यों की क्रियाएं कर्तृवाच्य हैं अथवा कर्मवाच्य और उसने माथापच्ची इस प्रश्न पर की कि क्या “शयन” क्रिया सकर्मक है या अकर्मक| | किन्तु क्या, उदाहरणार्थ, शतरंज की बिसात, स्पष्टतः एवं निरपेक्ष रूप से संयुक्त नहीं है? — संभवतः आप बत्तीस श्वेत और बत्तीस श्याम वर्गों की संरचना के बारे में सोच रहे हैं। किन्तु उदाहरणार्थ, क्या ऐसा नहीं कि आप भी यह कह सकते हैं कि यह श्याम एवं श्वेत रंगों से और वर्गाकृति से संरचित है? और यदि इसके अवलोकन के विभिन्न ढंग हैं तो भी क्या आप कहना चाहेंगे कि शतरंज की बिसात निरपेक्ष रूप से 'संयुक्त' है? — किसी विशिष्ट भाषा-खेल के ''बाहर'' “क्या यह विषय संयुक्त है?” पूछना तो ऐसा है जैसा एक बार एक लड़के ने किया जिसको यह बताना था कि प्रदत्त वाक्यों की क्रियाएं कर्तृवाच्य हैं अथवा कर्मवाच्य और उसने माथापच्ची इस प्रश्न पर की कि क्या “शयन” क्रिया सकर्मक है या अकर्मक| | ||
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यहाँ वाक्य नामों का एक ऐसा संकुल है जिसके अनुरूप तत्त्वों का संकुल है। मूल तत्त्व हैं रंगीन वर्ग। “किन्तु क्या वे असंयुक्त विषय हैं? | यहाँ वाक्य नामों का एक ऐसा संकुल है जिसके अनुरूप तत्त्वों का संकुल है। मूल तत्त्व हैं रंगीन वर्ग। “किन्तु क्या वे असंयुक्त विषय हैं?” — मुझे नहीं पता कि आप मुझसे और किसे “असंयुक्त” कहलवाएंगे, इस भाषा-खेल में इससे अधिक स्वाभाविक क्या होगा? किन्तु अन्य परिस्थितियों में मुझे इकरंगे वर्ग को “संयुक्त” कहना चाहिए क्योंकि वह संभवतः दो आयतों को, अथवा रंग एवं आकृति के तत्त्वों को मिलाकर बना है। किन्तु संयुक्तता के प्रत्यय का विस्तार इस प्रकार भी किया जा सकता है कि लघु क्षेत्र को बृहत् क्षेत्र से किसी अन्य क्षेत्र को घटाने से 'बना हुआ' कहा जा सके। 'बलों की संहति' की बाह्य बिन्दु द्वारा रेखा के 'विभाजन' से तुलना कीजिए: ये अभिव्यक्तियां दर्शाती हैं कि कभी-कभी हम लघु को बृहत् भागों की संरचना के परिणाम और बृहत् को लघु भागों के विभाजन के परिणाम की धारणा बनाने को प्रवृत्त होते हैं। | ||
किन्तु मैं नहीं जानता कि हमारे वाक्य द्वारा वर्णित आकृति को चार तत्त्वों से बना हुआ कहा जाए अथवा नौ तत्त्वों से ! अच्छा, क्या यह वाक्य चार अक्षर का है अथवा नौ का? — और ''इसके'' तत्त्व कौन से हैं, अक्षर-प्रारूप, अथवा अक्षर? हम उत्तर में क्या कहते हैं इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि हम परिस्थिति विशेष में भ्रान्तियों से बचे रहें। | किन्तु मैं नहीं जानता कि हमारे वाक्य द्वारा वर्णित आकृति को चार तत्त्वों से बना हुआ कहा जाए अथवा नौ तत्त्वों से ! अच्छा, क्या यह वाक्य चार अक्षर का है अथवा नौ का? — और ''इसके'' तत्त्व कौन से हैं, अक्षर-प्रारूप, अथवा अक्षर? हम उत्तर में क्या कहते हैं इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि हम परिस्थिति विशेष में भ्रान्तियों से बचे रहें। | ||
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'''60.''' जब मैं कहता हूँ: “मेरा लम्बे हत्थे वाला झाडू कोने में रखा है”, — तो क्या वास्तव में यह कथन झाडू के हत्थे एवं झाड़ू के बारे में है? हाँ, इसे तो हत्थे की स्थिति एवं झाडू की स्थिति बताने वाले कथन द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है। और यह कथन निस्संदेह पहले वाले का अधिक विश्लेषित रूप है। — किन्तु मैं उसे 'अधिक विश्लेषित' क्यों कहता हूँ? — हाँ, यदि झाडू वहाँ है तो उसका निश्चित रूप से अर्थ है कि हत्थे एवं झाडू को भी एक दूसरे से विशेष प्रकार से संबंधित रूप | '''60.''' जब मैं कहता हूँ: “मेरा लम्बे हत्थे वाला झाडू कोने में रखा है”, — तो क्या वास्तव में यह कथन झाडू के हत्थे एवं झाड़ू के बारे में है? हाँ, इसे तो हत्थे की स्थिति एवं झाडू की स्थिति बताने वाले कथन द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है। और यह कथन निस्संदेह पहले वाले का अधिक विश्लेषित रूप है। — किन्तु मैं उसे 'अधिक विश्लेषित' क्यों कहता हूँ? — हाँ, यदि झाडू वहाँ है तो उसका निश्चित रूप से अर्थ है कि हत्थे एवं झाडू को भी एक दूसरे से विशेष प्रकार से संबंधित रूप | ||
में वहाँ होना चाहिए। और पहले वाक्य के अर्थ में मानो यह बात छिपी हुई थी, और विश्लेषित वाक्य में स्पष्टतः ''अभिव्यक्त'' हो गई है। तो क्या जब कोई कहता है कि झाडू कोने में पड़ी है तो उसका वास्तव में अर्थ होता है: झाडू का हत्था है, और झाड़ू भी वहाँ पड़ी है, और हत्था झाडू में जुड़ा है? — झाडू यदि हम किसी से पूछें कि क्या उसका यह अर्थ था तो सम्भवतः वह कहेगा कि उसने विशेष रूप से हत्थे के बारे में, विशेष रूप से झाड़ू के बारे में सोचा ही नहीं था। और वह ''सही'' उत्तर होगा, क्योंकि उसका तात्पर्य विशेषतः न तो हत्थे का और न ही झाडू का उल्लेख करना था। मान लीजिए कि “झाडू मेरे पास | में वहाँ होना चाहिए। और पहले वाक्य के अर्थ में मानो यह बात छिपी हुई थी, और विश्लेषित वाक्य में स्पष्टतः ''अभिव्यक्त'' हो गई है। तो क्या जब कोई कहता है कि झाडू कोने में पड़ी है तो उसका वास्तव में अर्थ होता है: झाडू का हत्था है, और झाड़ू भी वहाँ पड़ी है, और हत्था झाडू में जुड़ा है? — झाडू यदि हम किसी से पूछें कि क्या उसका यह अर्थ था तो सम्भवतः वह कहेगा कि उसने विशेष रूप से हत्थे के बारे में, विशेष रूप से झाड़ू के बारे में सोचा ही नहीं था। और वह ''सही'' उत्तर होगा, क्योंकि उसका तात्पर्य विशेषतः न तो हत्थे का और न ही झाडू का उल्लेख करना था। मान लीजिए कि “झाडू मेरे पास लाओ” कहने के स्थान पर आप कहें “झाडू के हत्थे और उस झाडू को जो उससे जुड़ा है मेरे पास लाओ”! — क्या यह उत्तर नहीं है: “क्या आप झाडू माँग रहे हैं? आप इसे इतने अजीब ढंग से क्यों कह रहे हैं?” — क्या वह अधिक विश्लेषित वाक्य को अच्छी प्रकार से समझता है? कहा जा सकता है कि उससे इतना ही पता चलता है जितना कि साधारण वाक्य से, किन्तु यह जानकारी अधिक घुमावदार ढंग से मिलती है। — ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जिसमें किसी को अनेक भागों से बने विशेष विषयों को लाने का, उन्हें घुमाने फिराने का, अथवा इसी प्रकार का कुछ और करने का आदेश दिया जाता है। और उसे खेलने के दो ढंग हैं: (क) एक में §15 के सदृश संयुक्त विषयों (झाडुओं, कुर्सियों, मेजों, इत्यादि) के नाम होते हैं; (ख) दूसरे में केवल भागों का ही नामकरण किया जाता है और उनके द्वारा साकल्य का विवरण दिया जाता है। दूसरे खेल का आदेश किस अर्थ में पहले खेल के आदेश का विश्लेषित रूप है? क्या उत्तरोक्त पूर्वोक्त में छिपा होता है, और विश्लेषण द्वारा इसे अब उजागर किया जा रहा है? यह ठीक है कि जब झाडू को हत्थे को और झाड़ू को अलग किया जाता है तो झाडू को खंडित किया जाता है; किन्तु क्या उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि झाडू लाने के आदेश में इसके सम्बद्ध भागों को लाने का आदेश भी निहित है? | ||
'''61.''' “किन्तु फिर भी आप इस बात से इन्कार नहीं करेंगे कि (क) में किसी विशेष आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में होता है; और यदि आप दूसरे को पहले का विश्लेषित रूप न कहें तो आप उसे क्या कहेंगे?” — निश्चित रूप से मुझे भी यह कहना चाहिए कि (क) में आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में; अथवा जैसे मैंने पहले कहा था: उनसे एक ही बात का पता चलता है। और इसका अर्थ है कि यदि मुझे (क) में कोई आदेश दिखाया जाए और पूछा जाए: “(ख) में कौन से आदेश का इस के जैसा अर्थ है? अथवा फिर | '''61.''' “किन्तु फिर भी आप इस बात से इन्कार नहीं करेंगे कि (क) में किसी विशेष आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में होता है; और यदि आप दूसरे को पहले का विश्लेषित रूप न कहें तो आप उसे क्या कहेंगे?” — निश्चित रूप से मुझे भी यह कहना चाहिए कि (क) में आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में; अथवा जैसे मैंने पहले कहा था: उनसे एक ही बात का पता चलता है। और इसका अर्थ है कि यदि मुझे (क) में कोई आदेश दिखाया जाए और पूछा जाए: “(ख) में कौन से आदेश का इस के जैसा अर्थ है? अथवा फिर “यह (ख) के किस आदेश का व्याघाती है?” तो मुझे अमुक उत्तर देना चाहिए। किन्तु वह यह कहना तो नहीं है कि “वही अर्थ होना”, अथवा “एक ही बात का पता चलना” अभिव्यक्तियों के प्रयोग के बारे में हम किसी ''सामान्य'' सहमति पर पहुँच गए हैं। क्योंकि यह पूछा जा सकता है कि किन स्थितियों में हम कहते हैं: “यह तो एक खेल के ही दो रूप हैं।” | ||
है? | |||
'''62.''' उदाहरणार्थ, मान लीजिए कि (क) और (ख) में आदेश दिए जाने वाले व्यक्ति को अभीप्सित वस्तु को लाने से पूर्व नामों और चित्रों का सामंजस्य दिखाने वाली सारिणी का सहारा लेना पड़ता है। क्या वह ''वही'' क्रिया करता है जब वह (ख) उसके अनुरूप आदेश का पालन करता है? — हाँ और नहीं। आप यह भी कह सकते हैं: “दोनों आदेशों का ''विषय'' तो एक ही है”। मुझे भी यही कहना चाहिए। — किन्तु सभी स्थलों पर यह स्पष्ट नहीं है कि आदेश का 'विषय' किसे कहना चाहिए। (इसी प्रकार कुछ वस्तुओं के बारे में भी कहा जा सकता है कि उनका यह, अथवा वह प्रयोजन है। मूल बात तो यह है कि यह एक ''लैम्प'' है, और प्रकाश देने के काम आता है; — यह कमरे का ऐसा अलंकार है जो रिक्त स्थान को भरता है इत्यादि, तो मूलभूत नहीं है। किन्तु मूल और अ-मूल में सदैव सुस्पष्ट भेद नहीं होता।) | '''62.''' उदाहरणार्थ, मान लीजिए कि (क) और (ख) में आदेश दिए जाने वाले व्यक्ति को अभीप्सित वस्तु को लाने से पूर्व नामों और चित्रों का सामंजस्य दिखाने वाली सारिणी का सहारा लेना पड़ता है। क्या वह ''वही'' क्रिया करता है जब वह (ख) उसके अनुरूप आदेश का पालन करता है? — हाँ और नहीं। आप यह भी कह सकते हैं: “दोनों आदेशों का ''विषय'' तो एक ही है”। मुझे भी यही कहना चाहिए। — किन्तु सभी स्थलों पर यह स्पष्ट नहीं है कि आदेश का 'विषय' किसे कहना चाहिए। (इसी प्रकार कुछ वस्तुओं के बारे में भी कहा जा सकता है कि उनका यह, अथवा वह प्रयोजन है। मूल बात तो यह है कि यह एक ''लैम्प'' है, और प्रकाश देने के काम आता है; — यह कमरे का ऐसा अलंकार है जो रिक्त स्थान को भरता है इत्यादि, तो मूलभूत नहीं है। किन्तु मूल और अ-मूल में सदैव सुस्पष्ट भेद नहीं होता।) | ||
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किन्तु यदि कोई कहना चाहे: “इन सभी संरचनाओं में कुछ साझा है — यानी उनके सभी साझे गुणों का विनियोजन” तो मैं उत्तर दूँगा “आप अब शब्दों से ही खेल रहे हैं। यह भी कहा जा सकता है: सम्पूर्ण धागे में आद्योपांत कुछ है — यानी उन तंतुओं का 'निरंतर' आपस में गुंथे रहना।” | किन्तु यदि कोई कहना चाहे: “इन सभी संरचनाओं में कुछ साझा है — यानी उनके सभी साझे गुणों का विनियोजन” तो मैं उत्तर दूँगा “आप अब शब्दों से ही खेल रहे हैं। यह भी कहा जा सकता है: सम्पूर्ण धागे में आद्योपांत कुछ है — यानी उन तंतुओं का 'निरंतर' आपस में गुंथे रहना।” | ||
'''68.''' | '''68.''' “ठीक है: आप तो अंक के प्रत्यय से यह समझ रहे हैं कि वह गणन संख्याओं, परिमेय संख्याओं, वास्तविक संख्याओं जैसे अन्तर्सबन्धित प्रत्ययों का तार्किक संयोजन है। और इसी प्रकार आप खेल के प्रत्यय को खेल के समरूप उप-प्रत्यय समूह के तार्किक संयोजन के रूप में समझ रहे हैं।” — यह आवश्यक नहीं कि ऐसा हो। क्योंकि 'अंक' प्रत्यय को मैं इस प्रकार से सीमाबद्ध कर नियत कर ''सकता'' हूँ, अतः “अंक” शब्द को नियत रूप से सीमित किसी प्रत्यय के लिए प्रयुक्त कर सकता हूँ, किन्तु इसका प्रयोग मैं इस प्रकार भी कर सकता हूँ कि प्रत्यय का विस्तार किसी भी सीमा द्वारा प्रतिबन्धित ''न'' हो। और “खेल” शब्द का प्रयोग हम इसी प्रकार करते हैं। क्योंकि खेल का प्रत्यय सीमाबद्ध कैसे हो सकता है? खेलों में अभी भी किसकी गिनती होती है, और किस की नहीं? क्या आप सीमा निश्चित कर सकते हैं? नहीं। आप कोई भी सीमा ''बना'' सकते हैं; क्योंकि अभी तक कोई भी सीमा बनाई ही नहीं गई। (किन्तु इससे पहले तो “खेल” शब्द को प्रयुक्त करते समय आप कभी भी उद्वेलित नहीं हुए।) | ||
के तार्किक संयोजन के रूप में समझ रहे | |||
“किन्तु यदि शब्द का प्रयोग अनियमित है, तो वह 'खेल' जो हम उस (शब्द) के साथ खेलते हैं वह भी अनियमित है।” — यह सभी स्थलों पर नियमों से परिमित नहीं है; किन्तु टेनिस में भी ऐसा कोई नियम नहीं होता कि गेंद को कितना ऊँचा उछालना है, अथवा कितनी जोर से मारना है; किन्तु तिस पर भी टेनिस खेल है और उसके नियम भी होते हैं। | “किन्तु यदि शब्द का प्रयोग अनियमित है, तो वह 'खेल' जो हम उस (शब्द) के साथ खेलते हैं वह भी अनियमित है।” — यह सभी स्थलों पर नियमों से परिमित नहीं है; किन्तु टेनिस में भी ऐसा कोई नियम नहीं होता कि गेंद को कितना ऊँचा उछालना है, अथवा कितनी जोर से मारना है; किन्तु तिस पर भी टेनिस खेल है और उसके नियम भी होते हैं। |