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{{ParPU|11}} औज़ार-बक्स में रखे औज़ारों के बारे में सोचिए: उसमें हथौड़ा है, प्लास है, आरी है, पेचकस है, पट्टिका है, गोंददानी है, गोंद है, कीलें और पेच हैं। — शब्दों के कार्य वैसे ही विभिन्न हैं जैसे कि इन वस्तुओं के कार्य। (और दोनों ही में समानताएं भी हैं।) | {{ParPU|11}} औज़ार-बक्स में रखे औज़ारों के बारे में सोचिए: उसमें हथौड़ा है, प्लास है, आरी है, पेचकस है, पट्टिका है, गोंददानी है, गोंद है, कीलें और पेच हैं। — शब्दों के कार्य वैसे ही विभिन्न हैं जैसे कि इन वस्तुओं के कार्य। (और दोनों ही में समानताएं भी हैं।) | ||
वस्तुतः, हम जिससे भ्रमित होते हैं वह है शब्दों की एकाकृति, जब हम उन्हें सुनते हैं, अथवा लिखित या मुद्रित देखते हैं। क्योंकि इनकी प्रयोगविधि ''हमें स्पष्ट रूप से'' पता नहीं चलती विशेषतः दार्शनिक चिंतन करते समय तो बिल्कुल भी नहीं ! | वस्तुतः, हम जिससे भ्रमित होते हैं वह है शब्दों की एकाकृति, जब हम उन्हें सुनते हैं, अथवा लिखित या मुद्रित देखते हैं। क्योंकि इनकी प्रयोगविधि ''हमें स्पष्ट रूप से'' पता नहीं चलती विशेषतः दार्शनिक चिंतन करते समय तो बिल्कुल भी नहीं! | ||
{{ParPU|12}} यह रेल-इंजन के चालक-कक्ष को देखने जैसा ही है। वहाँ हमें सभी हत्थे लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं। (स्वाभाविकतः, क्योंकि वे सभी पकड़ने के लिए होते हैं।) किन्तु उनमें से एक तो क्रैंक का हत्था है जिसे अविराम चलाया जा सकता है (जो कि वाल्व के खुलने को नियमित करता है); दूसरा हत्था स्विच का है जिसकी केवल दो ही स्थितियां हैं: चालू या बन्द ! तीसरा ब्रेकलिवर का हत्था है जिसे जितना अधिक खींचे उतनी ही अधिक ब्रेक लगती है; चौथा, पंप का हत्थाः जिसे आगे-पीछे चलाने से ही कोई गति होती है। | {{ParPU|12}} यह रेल-इंजन के चालक-कक्ष को देखने जैसा ही है। वहाँ हमें सभी हत्थे लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं। (स्वाभाविकतः, क्योंकि वे सभी पकड़ने के लिए होते हैं।) किन्तु उनमें से एक तो क्रैंक का हत्था है जिसे अविराम चलाया जा सकता है (जो कि वाल्व के खुलने को नियमित करता है); दूसरा हत्था स्विच का है जिसकी केवल दो ही स्थितियां हैं: चालू या बन्द! तीसरा ब्रेकलिवर का हत्था है जिसे जितना अधिक खींचे उतनी ही अधिक ब्रेक लगती है; चौथा, पंप का हत्थाः जिसे आगे-पीछे चलाने से ही कोई गति होती है। | ||
{{ParPU|13}} “भाषा के प्रत्येक शब्द का कुछ न कुछ अर्थ होता है” कहने मात्र से तो हम तब तक ''कुछ भी नहीं'' कह पाते जब तक हम यह व्याख्या नहीं करते कि निश्चित रूप से हम ''कौन'' से भेद करना चाहते हैं। (हाँ, यह तो हो सकता है कि §8 की भाषा के शब्दों का हम ऐसे ‘अर्थहीन’ शब्दों से भेद करना चाहें जैसे कि लुइस राल की कविताओं में आने वाले शब्द, अथवा गानों में आने वाले “डमडम-डिगाडिगा” जैसे शब्द। | {{ParPU|13}} “भाषा के प्रत्येक शब्द का कुछ न कुछ अर्थ होता है” कहने मात्र से तो हम तब तक ''कुछ भी नहीं'' कह पाते जब तक हम यह व्याख्या नहीं करते कि निश्चित रूप से हम ''कौन'' से भेद करना चाहते हैं। (हाँ, यह तो हो सकता है कि §8 की भाषा के शब्दों का हम ऐसे ‘अर्थहीन’ शब्दों से भेद करना चाहें जैसे कि लुइस राल की कविताओं में आने वाले शब्द, अथवा गानों में आने वाले “डमडम-डिगाडिगा” जैसे शब्द। | ||
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यहाँ वाक्य नामों का एक ऐसा संकुल है जिसके अनुरूप तत्त्वों का संकुल है। मूल तत्त्व हैं रंगीन वर्ग। “किन्तु क्या वे असंयुक्त विषय हैं?” — मुझे नहीं पता कि आप मुझसे और किसे “असंयुक्त” कहलवाएंगे, इस भाषा-खेल में इससे अधिक स्वाभाविक क्या होगा? किन्तु अन्य परिस्थितियों में मुझे इकरंगे वर्ग को “संयुक्त” कहना चाहिए क्योंकि वह संभवतः दो आयतों को, अथवा रंग एवं आकृति के तत्त्वों को मिलाकर बना है। किन्तु संयुक्तता के प्रत्यय का विस्तार इस प्रकार भी किया जा सकता है कि लघु क्षेत्र को बृहत् क्षेत्र से किसी अन्य क्षेत्र को घटाने से ‘बना हुआ’ कहा जा सके। ‘बलों की संहति’ की बाह्य बिन्दु द्वारा रेखा के ‘विभाजन’ से तुलना कीजिए: ये अभिव्यक्तियां दर्शाती हैं कि कभी-कभी हम लघु को बृहत् भागों की संरचना के परिणाम और बृहत् को लघु भागों के विभाजन के परिणाम की धारणा बनाने को प्रवृत्त होते हैं। | यहाँ वाक्य नामों का एक ऐसा संकुल है जिसके अनुरूप तत्त्वों का संकुल है। मूल तत्त्व हैं रंगीन वर्ग। “किन्तु क्या वे असंयुक्त विषय हैं?” — मुझे नहीं पता कि आप मुझसे और किसे “असंयुक्त” कहलवाएंगे, इस भाषा-खेल में इससे अधिक स्वाभाविक क्या होगा? किन्तु अन्य परिस्थितियों में मुझे इकरंगे वर्ग को “संयुक्त” कहना चाहिए क्योंकि वह संभवतः दो आयतों को, अथवा रंग एवं आकृति के तत्त्वों को मिलाकर बना है। किन्तु संयुक्तता के प्रत्यय का विस्तार इस प्रकार भी किया जा सकता है कि लघु क्षेत्र को बृहत् क्षेत्र से किसी अन्य क्षेत्र को घटाने से ‘बना हुआ’ कहा जा सके। ‘बलों की संहति’ की बाह्य बिन्दु द्वारा रेखा के ‘विभाजन’ से तुलना कीजिए: ये अभिव्यक्तियां दर्शाती हैं कि कभी-कभी हम लघु को बृहत् भागों की संरचना के परिणाम और बृहत् को लघु भागों के विभाजन के परिणाम की धारणा बनाने को प्रवृत्त होते हैं। | ||
किन्तु मैं नहीं जानता कि हमारे वाक्य द्वारा वर्णित आकृति को चार तत्त्वों से बना हुआ कहा जाए अथवा नौ तत्त्वों से ! अच्छा, क्या यह वाक्य चार अक्षर का है अथवा नौ का? — और ''इसके'' तत्त्व कौन से हैं, अक्षर-प्रारूप, अथवा अक्षर? हम उत्तर में क्या कहते हैं इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि हम परिस्थिति विशेष में भ्रान्तियों से बचे रहें। | किन्तु मैं नहीं जानता कि हमारे वाक्य द्वारा वर्णित आकृति को चार तत्त्वों से बना हुआ कहा जाए अथवा नौ तत्त्वों से! अच्छा, क्या यह वाक्य चार अक्षर का है अथवा नौ का? — और ''इसके'' तत्त्व कौन से हैं, अक्षर-प्रारूप, अथवा अक्षर? हम उत्तर में क्या कहते हैं इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि हम परिस्थिति विशेष में भ्रान्तियों से बचे रहें। | ||
{{ParPU|49}} किन्तु यह कहने का क्या अर्थ है कि इन तत्त्वों को हम परिभाषित (अर्थात् वर्णित) नहीं कर सकते, अपितु उनका तो हम नामकरण ही कर सकते हैं? उदाहरणार्थ, इसका अर्थ हो सकता है कि जब किसी चरम स्थिति में कोई संकुल केवल ''एक ही'' वर्ग से बना हो तो उसका विवरण उस रंगीन वर्ग का नाम ही होता है। | {{ParPU|49}} किन्तु यह कहने का क्या अर्थ है कि इन तत्त्वों को हम परिभाषित (अर्थात् वर्णित) नहीं कर सकते, अपितु उनका तो हम नामकरण ही कर सकते हैं? उदाहरणार्थ, इसका अर्थ हो सकता है कि जब किसी चरम स्थिति में कोई संकुल केवल ''एक ही'' वर्ग से बना हो तो उसका विवरण उस रंगीन वर्ग का नाम ही होता है। | ||
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{{ParPU|99}} वाक्य का अर्थ — कोई कह सकता है — बेशक इसे या उसे अनिर्धारित छोड़ सकता है, किन्तु फिर भी वाक्य का कोई निर्धारित अर्थ तो होना ही चाहिए। अनिर्धारित अर्थ — वह तो ''कोई'' अर्थ ही नहीं हुआ। — यह ऐसा है: अनिर्धारित सीमा तो वास्तव में कोई सीमा ही नहीं होती। यहाँ संभवत : कोई विचार करता है: यदि मैं कहता हूँ “मैंने व्यक्ति को कमरे में अच्छी तरह बन्द कर दिया है — केवल एक द्वार ही खुला रख छोड़ा है” — तो मैंने उसे कमरे में बन्द किया ही नहीं; उसका कमरे बन्द होना तो ढोंग है। कोई यहाँ कहना चाहेगा : “आपने तो कुछ किया ही नहीं”। टूटा हुआ अहाता तो अहाता न होने के समान ही है। — किन्तु क्या यह सत्य है? | {{ParPU|99}} वाक्य का अर्थ — कोई कह सकता है — बेशक इसे या उसे अनिर्धारित छोड़ सकता है, किन्तु फिर भी वाक्य का कोई निर्धारित अर्थ तो होना ही चाहिए। अनिर्धारित अर्थ — वह तो ''कोई'' अर्थ ही नहीं हुआ। — यह ऐसा है: अनिर्धारित सीमा तो वास्तव में कोई सीमा ही नहीं होती। यहाँ संभवत : कोई विचार करता है: यदि मैं कहता हूँ “मैंने व्यक्ति को कमरे में अच्छी तरह बन्द कर दिया है — केवल एक द्वार ही खुला रख छोड़ा है” — तो मैंने उसे कमरे में बन्द किया ही नहीं; उसका कमरे बन्द होना तो ढोंग है। कोई यहाँ कहना चाहेगा : “आपने तो कुछ किया ही नहीं”। टूटा हुआ अहाता तो अहाता न होने के समान ही है। — किन्तु क्या यह सत्य है? | ||
{{ParPU|100}} “परन्तु फिर भी, यदि ''नियमों में'' कुछ अस्पष्टता है तो यह खेल नहीं है” — किन्तु ''क्या'' यह उसे खेल होने से रोकता है? — “संभवतः आप इसे खेल कहेंगे, किन्तु निश्चय ही किसी भी प्रकार यह परिपूर्ण खेल नहीं है।” इसका अर्थ है: इसमें अशुद्धियां हैं, और इस समय मेरी रुचि पूर्ण विवरण में है। — किन्तु मैं कहना चाहता हूँ | {{ParPU|100}} “परन्तु फिर भी, यदि ''नियमों में'' कुछ अस्पष्टता है तो यह खेल नहीं है” — किन्तु ''क्या'' यह उसे खेल होने से रोकता है? — “संभवतः आप इसे खेल कहेंगे, किन्तु निश्चय ही किसी भी प्रकार यह परिपूर्ण खेल नहीं है।” इसका अर्थ है: इसमें अशुद्धियां हैं, और इस समय मेरी रुचि पूर्ण विवरण में है। — किन्तु मैं कहना चाहता हूँ: हमारी भाषा में आदर्श की भूमिका को हम गलत ढंग से समझते हैं। अतएव हमें भी इसे खेल ही कहना चाहिए, किन्तु आदर्श ने हमें हतप्रभ कर दिया है और इसलिए हम “खेल” शब्द के वास्तविक प्रयोग को स्पष्टतः देखने में असमर्थ हैं। | ||
{{ParPU|101}} हम कहना चाहते हैं कि तर्कशास्त्र में तो कोई अस्पष्टता हो ही नहीं सकती। अब हम इस विचार में मग्न रहते हैं कि आदर्श तो ‘''अनिवार्यतः''’ वास्तविकता में ही मिलना चाहिए। इस बीच, हमें यह नहीं पता चलता कि यह वहाँ ''कैसे'' पाया जाता है, न ही हम इस “अनिवार्यतः” के स्वभाव को समझते हैं। हम सोचते हैं कि इस अनिवार्यतः को वास्तविकता में होना चाहिए; क्योंकि हमें लगता है कि हम उसे पहले से ही वहाँ देख रहे हैं। | {{ParPU|101}} हम कहना चाहते हैं कि तर्कशास्त्र में तो कोई अस्पष्टता हो ही नहीं सकती। अब हम इस विचार में मग्न रहते हैं कि आदर्श तो ‘''अनिवार्यतः''’ वास्तविकता में ही मिलना चाहिए। इस बीच, हमें यह नहीं पता चलता कि यह वहाँ ''कैसे'' पाया जाता है, न ही हम इस “अनिवार्यतः” के स्वभाव को समझते हैं। हम सोचते हैं कि इस अनिवार्यतः को वास्तविकता में होना चाहिए; क्योंकि हमें लगता है कि हम उसे पहले से ही वहाँ देख रहे हैं। | ||
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{{ParPU|137}} “क्यों अथवा क्या....?” प्रश्न द्वारा वाक्य के विषय को जानना सीखने के बारे में क्या कहें? — निश्चित रूप से यहाँ विषय का इस प्रश्न के ‘अनुकूल’ होने जैसा कुछ है; क्योंकि अन्यथा हमें प्रश्न द्वारा विषय क्या था इसका पता कैसे चलेगा? हमें इसका पता उसी प्रकार से चलता है जैसे हमें ‘र’ अक्षर के बाद कौन सा अक्षर आता है इस का पता ‘र’ अक्षर तक वर्णमाला के अक्षरों को याद करने पर चलता है। अब ‘ल’ शब्द किस अर्थ में इस अक्षर-श्रृंखला में फिट बैठता है। उसी अर्थ में “सत्य” एवं “असत्य” को प्रतिज्ञप्तियों के अनुकूल कहा जा सकता है; और शिशु को प्रतिज्ञप्तियों एवं अन्य अभिव्यक्तियों में भेद करना यह कहकर सिखाया जा सकता है “स्वयं से पूछो कि क्या तुम इसके पश्चात् ‘सत्य है’ कह सकते हो। यदि ये शब्द ऐसा कह सकने के अनुकूल हैं तो यह प्रतिज्ञप्ति है।” (और इसी प्रकार कहा जा सकता है कि स्वयं से पूछो कि क्या तुम “पदार्थ ''ऐसे'' होते हैं:” इन शब्दों को प्रतिज्ञप्ति के पहले रख सकते हो।) | {{ParPU|137}} “क्यों अथवा क्या....?” प्रश्न द्वारा वाक्य के विषय को जानना सीखने के बारे में क्या कहें? — निश्चित रूप से यहाँ विषय का इस प्रश्न के ‘अनुकूल’ होने जैसा कुछ है; क्योंकि अन्यथा हमें प्रश्न द्वारा विषय क्या था इसका पता कैसे चलेगा? हमें इसका पता उसी प्रकार से चलता है जैसे हमें ‘र’ अक्षर के बाद कौन सा अक्षर आता है इस का पता ‘र’ अक्षर तक वर्णमाला के अक्षरों को याद करने पर चलता है। अब ‘ल’ शब्द किस अर्थ में इस अक्षर-श्रृंखला में फिट बैठता है। उसी अर्थ में “सत्य” एवं “असत्य” को प्रतिज्ञप्तियों के अनुकूल कहा जा सकता है; और शिशु को प्रतिज्ञप्तियों एवं अन्य अभिव्यक्तियों में भेद करना यह कहकर सिखाया जा सकता है “स्वयं से पूछो कि क्या तुम इसके पश्चात् ‘सत्य है’ कह सकते हो। यदि ये शब्द ऐसा कह सकने के अनुकूल हैं तो यह प्रतिज्ञप्ति है।” (और इसी प्रकार कहा जा सकता है कि स्वयं से पूछो कि क्या तुम “पदार्थ ''ऐसे'' होते हैं:” इन शब्दों को प्रतिज्ञप्ति के पहले रख सकते हो।) | ||
{{ParPU|138}} किन्तु क्या मुझे समझ आने वाले शब्द का अर्थ मुझे समझ आने वाले वाक्य के अर्थ के अनुकूल नहीं हो सकता? अथवा एक शब्द का अर्थ दूसरे के अनुकूल नहीं हो सकता? — बेशक, यदि अर्थ हमारे द्वारा किये गये शब्द का ''प्रयोग'' है तो ऐसी ‘अनुकूलता’ के उल्लेख का कोई अर्थ ही नहीं होता। किन्तु जब हम शब्द को सुनते अथवा कहते हैं तो हम अर्थ को समझते हैं; हम उसे एकाएक ग्रहण कर लेते हैं, और इस प्रकार जिसे हम ग्रहण करते हैं उसे तो काल के परिमाण में होने वाले प्रयोग से भिन्न होना चाहिए ! | {{ParPU|138}} किन्तु क्या मुझे समझ आने वाले शब्द का अर्थ मुझे समझ आने वाले वाक्य के अर्थ के अनुकूल नहीं हो सकता? अथवा एक शब्द का अर्थ दूसरे के अनुकूल नहीं हो सकता? — बेशक, यदि अर्थ हमारे द्वारा किये गये शब्द का ''प्रयोग'' है तो ऐसी ‘अनुकूलता’ के उल्लेख का कोई अर्थ ही नहीं होता। किन्तु जब हम शब्द को सुनते अथवा कहते हैं तो हम अर्थ को समझते हैं; हम उसे एकाएक ग्रहण कर लेते हैं, और इस प्रकार जिसे हम ग्रहण करते हैं उसे तो काल के परिमाण में होने वाले प्रयोग से भिन्न होना चाहिए! | ||
{{PU box|क्या मुझे यह ''विदित'' होना चाहिए कि मैं शब्द को समझता हूँ? कभी-कभी क्या मैं शब्द को समझने की कल्पना नहीं करता। (जैसे मैं एक प्रकार के परिकलन को समझने की कल्पना कर सकता हूँ) और फिर अनुभव करता हूँ कि मैं उसे नहीं समझता? (“मैं समझता था कि मुझे 'सापेक्ष' एवं 'निरपेक्ष' गति के अर्थ का ज्ञान है, किन्तु मैं पाता हूँ कि मुझे उसका ज्ञान नहीं है।”)}} | {{PU box|क्या मुझे यह ''विदित'' होना चाहिए कि मैं शब्द को समझता हूँ? कभी-कभी क्या मैं शब्द को समझने की कल्पना नहीं करता। (जैसे मैं एक प्रकार के परिकलन को समझने की कल्पना कर सकता हूँ) और फिर अनुभव करता हूँ कि मैं उसे नहीं समझता? (“मैं समझता था कि मुझे 'सापेक्ष' एवं 'निरपेक्ष' गति के अर्थ का ज्ञान है, किन्तु मैं पाता हूँ कि मुझे उसका ज्ञान नहीं है।”)}} | ||
Line 731: | Line 731: | ||
क्या चित्र और प्रयोग में भिड़न्त हो सकती है? बिल्कुल हो सकती है, क्योंकि चित्र से हमें किसी भिन्न प्रयोग की अपेक्षा रहती है, क्योंकि सामान्यतः, लोग ''इस'' चित्र को इस प्रकार प्रयोग करते हैं। | क्या चित्र और प्रयोग में भिड़न्त हो सकती है? बिल्कुल हो सकती है, क्योंकि चित्र से हमें किसी भिन्न प्रयोग की अपेक्षा रहती है, क्योंकि सामान्यतः, लोग ''इस'' चित्र को इस प्रकार प्रयोग करते हैं। | ||
मैं कहना चाहता हूँ | मैं कहना चाहता हूँ: हमारे पास यहाँ एक सामान्य स्थिति और अनेक असामान्य स्थितियां हैं। | ||
{{ParPU|142}} शब्द का प्रयोग सामान्य स्थितियों में ही निर्धारित होता है; हमें इस अथवा उस स्थिति में क्या कहना है इसके बारे में हम जानते हैं, हमें कोई संदेह नहीं होता। स्थिति जितनी अधिक असामान्य होती है उतनी ही अपनी अभिव्यक्ति के बारे में हमारी संदिग्धता बढ़ती जाती है। और यदि विषय अपनी वस्तुस्थिति से अत्यन्त भिन्न होते — उदाहरणार्थ, यदि वेदना की, भय की, हर्ष की, कोई विशेष अभिव्यक्ति न होती; यदि नियम अपवाद बन जाते, और अपवाद नियम; अथवा दोनों लगभग समान आवृत्ति वाली संवृत्तियां बन जातीं — तो हमारे सामान्य भाषा-खेलों की विशेषता लुप्त हो जाती। — यदि पनीर के टुकड़े अनायास घट-बढ़ जाते तो उन्हें तोलने और दाम लगाने की पद्धति की विशेषता लुप्त हो जाती। यह टिप्पणी तब और भी अधिक स्पष्ट हो जाएगी जब हम अनुभूति का अभिव्यक्ति से सम्बन्ध जैसे विषयों, और वैसे ही अन्य विषयों की व्याख्या करेंगे। | {{ParPU|142}} शब्द का प्रयोग सामान्य स्थितियों में ही निर्धारित होता है; हमें इस अथवा उस स्थिति में क्या कहना है इसके बारे में हम जानते हैं, हमें कोई संदेह नहीं होता। स्थिति जितनी अधिक असामान्य होती है उतनी ही अपनी अभिव्यक्ति के बारे में हमारी संदिग्धता बढ़ती जाती है। और यदि विषय अपनी वस्तुस्थिति से अत्यन्त भिन्न होते — उदाहरणार्थ, यदि वेदना की, भय की, हर्ष की, कोई विशेष अभिव्यक्ति न होती; यदि नियम अपवाद बन जाते, और अपवाद नियम; अथवा दोनों लगभग समान आवृत्ति वाली संवृत्तियां बन जातीं — तो हमारे सामान्य भाषा-खेलों की विशेषता लुप्त हो जाती। — यदि पनीर के टुकड़े अनायास घट-बढ़ जाते तो उन्हें तोलने और दाम लगाने की पद्धति की विशेषता लुप्त हो जाती। यह टिप्पणी तब और भी अधिक स्पष्ट हो जाएगी जब हम अनुभूति का अभिव्यक्ति से सम्बन्ध जैसे विषयों, और वैसे ही अन्य विषयों की व्याख्या करेंगे। | ||
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को कहाँ तक बढ़ाना पड़ेगा ताकि हम ऐसा कह सकें? स्पष्ट है कि यहाँ आप कोई सीमा तय नहीं कर सकते। | को कहाँ तक बढ़ाना पड़ेगा ताकि हम ऐसा कह सकें? स्पष्ट है कि यहाँ आप कोई सीमा तय नहीं कर सकते। | ||
{{ParPU|146}} मान लीजिए कि अब मैं पूछता हूँ | {{ParPU|146}} मान लीजिए कि अब मैं पूछता हूँ: “जब वह सौवें स्थान तक श्रृंखला को आगे बढ़ाता है, क्या तब वह प्रणाली को समझ जाता है?” अथवा — क्या मुझे हमारी आदिम भाषा-खेल के सम्बन्ध में ‘समझने’ का उल्लेख ही नहीं करना चाहिए : यदि वह श्रृंखला को उचित रूप से यहाँ तक आगे बढ़ा लेता है, तो क्या वह प्रणाली को समझ जाता है? — सम्भवतः, यहाँ आप कहेंगे : प्रणाली को जानना (अथवा, फिर, उसे समझना) श्रृंखला को ''इस'' या ''उस'' संख्या तक आगे बढ़ाने में निहित नहीं हो सकता : ''वह'' तो अपनी समझ के प्रयोग में निहित है। समझना तो स्वयं ही एक स्थिति है जो उचित प्रयोग का स्रोत है। | ||
वास्तव में हम यहाँ क्या सोच रहे हैं? क्या हम श्रृंखला को बीजगणितीय सिद्धान्त से व्युत्पत्ति के बारे में नहीं सोच रहे? अथवा कमोबेश इसी जैसे किसी विषय के बारे में? — किन्तु यही बात तो हम पहले भी कह रहे थे। बात यह है कि बीजगणितीय सिद्धान्त के ''एक'' से अधिक प्रयोग के बारे में हम सोच सकते हैं; और हर प्रकार के प्रयोग का बीजगणितीय सूत्रीकरण भी किया जा सकता है; किन्तु निश्चित रूप से यह हमें कुछ आगे नहीं बढ़ाता। — अब भी समझने की कसौटी तो प्रयोग ही है। | वास्तव में हम यहाँ क्या सोच रहे हैं? क्या हम श्रृंखला को बीजगणितीय सिद्धान्त से व्युत्पत्ति के बारे में नहीं सोच रहे? अथवा कमोबेश इसी जैसे किसी विषय के बारे में? — किन्तु यही बात तो हम पहले भी कह रहे थे। बात यह है कि बीजगणितीय सिद्धान्त के ''एक'' से अधिक प्रयोग के बारे में हम सोच सकते हैं; और हर प्रकार के प्रयोग का बीजगणितीय सूत्रीकरण भी किया जा सकता है; किन्तु निश्चित रूप से यह हमें कुछ आगे नहीं बढ़ाता। — अब भी समझने की कसौटी तो प्रयोग ही है। | ||
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{{ParPU|173}} “किन्तु निश्चय ही नियंत्रित होना तो एक विशेष अनुभव है!” — इसका उत्तर है: अब आप नियंत्रित होने के किसी विशेष अनुभव के बारे में ''सोच रहे हैं''। | {{ParPU|173}} “किन्तु निश्चय ही नियंत्रित होना तो एक विशेष अनुभव है!” — इसका उत्तर है: अब आप नियंत्रित होने के किसी विशेष अनुभव के बारे में ''सोच रहे हैं''। | ||
यदि मैं पूर्वोदाहरणों में से ही किसी ऐसे व्यक्ति के अनुभव को समझना चाहूँ जिसका लेखन मुद्रित पाठ एवं सारिणी से नियंत्रित हो तो मैं उसके द्वारा ‘विवेकपूर्ण’ अवलोकन इत्यादि की कल्पना करता हूँ। ऐसा करते समय मेरे चेहरे पर एक विशेष भाव (मानो कि विवेकशील मुनीम का भाव) आता है। ''सतर्कता'' इस चित्र का अनिवार्य अंग है; किसी अन्य चित्र में अपने संकल्पों, समस्त इच्छाओं का निवारण अनिवार्य होगा। (किन्तु सामान्य लोगों द्वारा नितान्त तटस्थ रूप से की जाने वाली क्रिया पर ध्यान दें और कल्पना करें कि कोई उसे बेहद सतर्कता की अभिव्यक्ति के साथ — और संवेदनाओं के साथ भी क्यों नहीं? — करता है। — क्या इसका अर्थ होगा कि वह सतर्क है? बाहरी रूप से सतर्क दिखने वाले किसी नौकर द्वारा सामान सहित चाय की ट्रे को गिराने की कल्पना कीजिए।) यदि मैं ऐसे विशिष्ट अनुभव की कल्पना करता हूँ तो वह मुझे नियंत्रित होने (अथवा पढ़ने) का अनुभव प्रतीत होता है। किन्तु अब मैं अपने आप से पूछता हूँ | यदि मैं पूर्वोदाहरणों में से ही किसी ऐसे व्यक्ति के अनुभव को समझना चाहूँ जिसका लेखन मुद्रित पाठ एवं सारिणी से नियंत्रित हो तो मैं उसके द्वारा ‘विवेकपूर्ण’ अवलोकन इत्यादि की कल्पना करता हूँ। ऐसा करते समय मेरे चेहरे पर एक विशेष भाव (मानो कि विवेकशील मुनीम का भाव) आता है। ''सतर्कता'' इस चित्र का अनिवार्य अंग है; किसी अन्य चित्र में अपने संकल्पों, समस्त इच्छाओं का निवारण अनिवार्य होगा। (किन्तु सामान्य लोगों द्वारा नितान्त तटस्थ रूप से की जाने वाली क्रिया पर ध्यान दें और कल्पना करें कि कोई उसे बेहद सतर्कता की अभिव्यक्ति के साथ — और संवेदनाओं के साथ भी क्यों नहीं? — करता है। — क्या इसका अर्थ होगा कि वह सतर्क है? बाहरी रूप से सतर्क दिखने वाले किसी नौकर द्वारा सामान सहित चाय की ट्रे को गिराने की कल्पना कीजिए।) यदि मैं ऐसे विशिष्ट अनुभव की कल्पना करता हूँ तो वह मुझे नियंत्रित होने (अथवा पढ़ने) का अनुभव प्रतीत होता है। किन्तु अब मैं अपने आप से पूछता हूँ: आप क्या कर रहे हैं? — आप प्रत्येक अक्षर को देख रहे हैं, आप ऐसी मुखाकृति बना रहे आप अक्षरों को सतर्कतापूर्वक लिख रहे हैं। (इत्यादि)। — तो नियंत्रित होना ऐसा अनुभव है? — यहाँ मैं कहना चाहूंगा : “नहीं वह ऐसा नहीं है; वह तो अधिक अंतर्वर्ती, अधिक मूलभूत है।” — मानो शुरू में ये सभी न्यूनाधिक अनावश्यक प्रक्रियाएँ ऐसे कोहरे से आच्छादित हैं जो मेरे सूक्ष्म निरीक्षण करने पर छूट जाता है। | ||
{{ParPU|174}} अपने आप से पूछें कि आप ‘सतर्कतापूर्वक’ किसी रेखा के समानान्तर — और किसी अन्य समय सतर्कतापूर्वक उससे कोण बनाते हुए, रेखा कैसे खींचते हैं। सतर्कतापूर्ण होने का अनुभव कैसा होता है? यहाँ आपको यकायक एक विशिष्ट दृष्टि, विशिष्ट भंगिमा ध्यान आती है — और फिर आप कहना चाहेंगे : “पर यही तो एक ''विशिष्ट'' आंतरिक अनुभव होता है”। (पर यह तो कुछ भी नया कहना नहीं है।) | {{ParPU|174}} अपने आप से पूछें कि आप ‘सतर्कतापूर्वक’ किसी रेखा के समानान्तर — और किसी अन्य समय सतर्कतापूर्वक उससे कोण बनाते हुए, रेखा कैसे खींचते हैं। सतर्कतापूर्ण होने का अनुभव कैसा होता है? यहाँ आपको यकायक एक विशिष्ट दृष्टि, विशिष्ट भंगिमा ध्यान आती है — और फिर आप कहना चाहेंगे : “पर यही तो एक ''विशिष्ट'' आंतरिक अनुभव होता है”। (पर यह तो कुछ भी नया कहना नहीं है।) | ||
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{{ParPU|178}} हम यह भी कहते हैं: “आप समझ सकते हैं कि मैं इससे नियंत्रित हूँ” — और यदि आप इसे समझते हैं तो आप क्या समझते हैं? | {{ParPU|178}} हम यह भी कहते हैं: “आप समझ सकते हैं कि मैं इससे नियंत्रित हूँ” — और यदि आप इसे समझते हैं तो आप क्या समझते हैं? | ||
जब मैं अपने आप से कहता हूँ | जब मैं अपने आप से कहता हूँ: “किन्तु मैं तो नियंत्रित हूँ” — सम्भवत : मैं अपने हाथ को कुछ इस तरह हिलाता हूँ जिससे नियन्त्रित किये जाने का पता चले। — हाथ को ऐसे ढंग से हिलायें, मानो, आप किसी को नियंत्रित कर रहे हों, और फिर अपने आप से पूछें कि इस गतिविधि में ''नियंत्रित'' करने वाला गुण किसमें निहित है। क्योंकि आप तो किसी का भी मार्गदर्शन नहीं कर रहे थे। किन्तु आप अब भी इस गतिविधि को ‘नियंत्रण’ करने वाली गतिविधि कहना चाहते हैं। इस गतिविधि एवं संवेदना में नियंत्रित करने का सार निहित नहीं है, तो भी यह शब्द आप पर हावी रहता है। नियंत्रित करने का ''एकल आकार'' ही हम पर अभिव्यक्ति को लादता है। | ||
{{ParPU|179}} आइए हम §151 की स्थिति पर लौटें। यह तो स्पष्ट है कि हमें तब तक यह नहीं कहना चाहिए कि '''ख''' को केवल सूत्र सोचने के कारण “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है” इन शब्दों का कहने का अधिकार है, — जब तक कि अनुभव ने यह प्रदर्शित न किया हो कि सूत्र को सोचने — उसका उल्लेख करने, उसे लिखने — और श्रृंखला को वस्तुतः आगे बढ़ाने में कोई संबंध होता है। और स्पष्ट रूप से ऐसा संबंध होता है। — और अब कोई समझ सकता है कि “मैं आगे बढ़ सकता हूँ” वाक्य का अर्थ होता है कि मुझे ऐसा अनुभव है जिस के बारे में मैं प्रयोग-ज्ञान से जानता हूँ कि वह श्रृंखला को आगे बढ़ाता है”। किन्तु जब '''ख''' कहता है कि वह आगे बढ़ सकता है तो क्या उसका यह तात्पर्य होता है? क्या वह वाक्य उसके मन में आता है, अथवा क्या वह उसे अपने तात्पर्य की व्याख्या करते समय देने को तत्पर है? | {{ParPU|179}} आइए हम §151 की स्थिति पर लौटें। यह तो स्पष्ट है कि हमें तब तक यह नहीं कहना चाहिए कि '''ख''' को केवल सूत्र सोचने के कारण “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है” इन शब्दों का कहने का अधिकार है, — जब तक कि अनुभव ने यह प्रदर्शित न किया हो कि सूत्र को सोचने — उसका उल्लेख करने, उसे लिखने — और श्रृंखला को वस्तुतः आगे बढ़ाने में कोई संबंध होता है। और स्पष्ट रूप से ऐसा संबंध होता है। — और अब कोई समझ सकता है कि “मैं आगे बढ़ सकता हूँ” वाक्य का अर्थ होता है कि मुझे ऐसा अनुभव है जिस के बारे में मैं प्रयोग-ज्ञान से जानता हूँ कि वह श्रृंखला को आगे बढ़ाता है”। किन्तु जब '''ख''' कहता है कि वह आगे बढ़ सकता है तो क्या उसका यह तात्पर्य होता है? क्या वह वाक्य उसके मन में आता है, अथवा क्या वह उसे अपने तात्पर्य की व्याख्या करते समय देने को तत्पर है? |