ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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484. तो, इन परिस्थितियों में हम "मैं जानता हूँ" कहते हैं और यह उल्लेख भी करते हैं, या कर सकते हैं कि हम कैसे जानते हैं।
484. तो, इन परिस्थितियों में हम "मैं जानता हूँ" कहते हैं और यह उल्लेख भी करते हैं, या कर सकते हैं कि हम कैसे जानते हैं।


485. हम ऐसी स्थिति की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें कोई व्यक्ति प्रतिज्ञप्तियों की सूची पढ़ते हुए यह भी पूछता रहता है "क्या मैं इसे जानता हूँ, या फिर इस पर
485. हम ऐसी स्थिति की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें कोई व्यक्ति प्रतिज्ञप्तियों की सूची पढ़ते हुए यह भी पूछता रहता है "क्या मैं इसे जानता हूँ, या फिर इस पर विश्वास ही करता हूँ?" वह प्रत्येक प्रतिज्ञप्ति की विश्वसनीयता की जाँच करना चाहता है । यह किसी न्यायालय में गवाह के कथन जैसी कोई बात हो सकती है।


9.4.


486. क्या आप जानते हैं या फिर क्या यह केवल आपका विश्वास ही है कि आपका नाम लु. वि. है? क्या यह कोई सार्थक प्रश्न है?
क्या आप जानते हैं, या फिर क्या यह केवल आपका विश्वास ही है कि आप अभी हिन्दी के शब्द लिख रहे हैं? क्या आपका विश्वास है कि "विश्वास" का ''यही'' अर्थ होता है? ''कैसा'' अर्थ?
487. इसका क्या प्रमाण है कि मैं किसी बात को ''जानता'' हूँ? मेरा यह कहना तो कतई नहीं कि मैं उसे जानता हूँ।
488. तो, जब लेखक उन सब बातों को गिनाते हैं जिन्हें वे ''जानते'' हैं तो इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता ।
अतः, भौतिक पदार्थों के ज्ञान की संभावना को ऐसे लोगों के साक्ष्य से सिद्ध नहीं किया जा सकता जिन्हें यह विश्वास है कि उन्हें उनका ज्ञान है।
489. क्योंकि "मेरा विश्वास है कि आपको ऐसा लगता है कि आप जानते हैं" ऐसा कहने वाले व्यक्ति को क्या उत्तर दिया जाएगा?
490. जब मैं पूछता हूँ "क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है कि मेरा नाम...?" तो आत्म-विश्लेषण से कोई लाभ नहीं होता।
किन्तु मैं कह सकता हूँ: मुझे कभी तनिक भी संदेह नहीं हुआ कि मेरा अमुक नाम है, अपितु इस पर संदेह करने पर तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा ।
10.4.
491. "क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है कि मेरा नाम लु.वि. है?" – बेशक, यदि यह प्रश्न होता "क्या मुझे निश्चय है या फिर मैं केवल अनुमान लगा रहा हूँ कि...?" तो मेरे उत्तर पर भरोसा किया जा सकता था।
492. "क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है...?" इसकी यह भी अभिव्यक्ति हो सकती है: जिस बात को हम अभी तक संशयातीत समझते आये हैं यदि वही निर्मूल ''लगने लगे'' तो क्या होगा? तब क्या मेरी वही प्रतिक्रिया होगी जो किसी मान्यता के निर्मूल सिद्ध होने पर होती है? अथवा क्या इससे मेरे समस्त निर्णयों का आधार ही समाप्त हो जायेगा? – बेशक मेरा मन्तव्य कोई ''भविष्यवाणी'' करना नहीं है।
क्या मैं यही कहूँगा कि "मुझे कभी ऐसा सोचना ही नहीं चाहिए था" – या फिर मुझे अपने निर्णय को संशोधित करने से इन्कार कर देना होगा (चाहिए) –  क्योंकि ऐसे 'संशोधन' से सभी मानदण्ड लुप्त हो जाएंगे?
493. तो क्या बात यह है: कोई भी निर्णय लेने के लिए मुझे कुछ मानदण्डों को अपनाना पड़ेगा?
494. इस प्रतिज्ञप्ति पर संशय करने के लिए तो मुझे समस्त निर्णय ताक पर रखने होंगे।
पर यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है? (यह तादात्म्य सिद्धान्त के बारे में फ्रेगे के कथन की याद दिलाती है।<ref>''गुंडगेजेत्ज़े डेर अरिथमेटिक'' I xvii, सं.</ref>) यह आनुभविक प्रतिज्ञप्ति तो कतई नहीं है। इसका मनोविज्ञान से कोई सरोकार नहीं है। यह तो अधिकाधिक नियम जैसी है।
495. संशयातीत प्रतिज्ञप्तियों पर आपत्ति उठाने वाले व्यक्ति को यही कहा जा सकता है "बकवास कर रहे हो!" यानी उत्तर देने की बजाय उसकी भर्त्सना की जाय।
496. यह तो किसी को किसी खेल के सदैव गलत खेले जाने जैसी निरर्थक जानकारी देने जैसा ही होगा।
497. यदि कोई मेरे मन में संदेह उत्पन्न कराना चाहे और यह कहे : यहाँ आपकी स्मृति आपको धोखा दे रही है, उस बार आप धोखा खा गए, और उससे पूर्व भी आपने अपने आपको पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं किया, इत्यादि पर फिर भी यदि मैं अविचलित बना रहूँ और अपने निश्चय पर अड़ा रहूँ – तो मेरा यह व्यवहार गलत नहीं होगा, भले ही इसी से खेल का निर्धारण क्यों न हो ।
11.4.
498. विचित्र बात तो यह है कि किसी व्यक्ति के "बकवास!" कहने को यद्यपि मैं उचित मानता हूँ और मूलभूत बातों पर संशय दर्शा कर उसे भ्रमित करने के प्रयास को अनुचित मानता हूँ – फिर भी (उदाहरणार्थ – "मैं जानता हूँ" शब्दों के प्रयोग द्वारा) उसके बचाव के प्रयास को भी मैं अनुचित मानता हूँ।
499. मैं इसे ऐसे भी कह सकता हूँ: "आगमनात्मक सिद्धान्त" का ''आधार'' और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति का ''आधार'' एक जैसा होता है।
500. किन्तु यह कथन भी मुझे निरर्थक ही लगेगा कि "मैं जानता हूँ कि आगमनात्मक सिद्धान्त सत्य है"|
ऐसे कथन के न्यायालय में कहे जाने की कल्पना कीजिए! "मेरा विश्वास है कि "... सिद्धान्त..." कहना अधिक उचित होगा। यहाँ 'विश्वास' का ''अनुमान'' लगाने से कोई सरोकार नहीं है।
501 . क्या अन्ततोगत्वा मैं यही नहीं कह रहा हूँ कि तर्कशास्त्र वर्णन से परे है? भाषा प्रयोग से आपको इसका पता चलेगा।
502. मेरे हाथ की स्थिति के बारे में दूसरे लोगों के विपरीत साक्ष्य के बावजूद भी क्या मैं कह सकता हूँ कि "मैं आँखें बन्द करने पर भी अपने हाथ की स्थिति बता सकता हूँ"?
503. मैं किसी वस्तु को देखकर कहता हूँ "वह एक पेड़ है" अथवा "मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है"। – अब यदि उसके समीप जाने पर यह पता चले कि वह पेड़ नहीं है तो मैं या "तो वह पेड़ नहीं था" या फिर "यह पेड़ तो ''था'' पर अब नहीं रहा" ऐसा कहता हूँ। किन्तु यदि अन्य सभी लोग मेरा विरोध करें और कहें कि वह कभी पेड़ था ही नहीं और यदि सारे साक्ष्य मेरे विरुद्ध हों – तो "मैं जानता हूँ" कहने पर अड़े रहने से मेरा क्या ''भला'' होगा?
504. साक्ष्य के पक्ष या विपक्ष पर मेरा किसी बात को ''जानना'' निर्भर करता है। क्योंकि अपनी वेदना को जानने जैसी बात का कोई अर्थ नहीं होता।
505. हमें किसी बात का ज्ञान ईश्वर की अनुकंपा के कारण ही होता है।
506. "यदि मेरी स्मृति मुझे ''यहाँ'' धोखा दे रही है तो वह मुझे कहीं भी धोखा दे सकती है।"
यदि मुझे ''यह'' ज्ञात नहीं तो मुझे यह कैसे पता चलेगा कि मेरे शब्दों का मनोनुकूल अर्थ है?
507. "यदि यह मुझे धोखा देता है तो 'धोखा देने' का अर्थ ही क्या होगा?"
508. मैं किस पर भरोसा करूँ?
509 . वस्तुत: मैं यह कहना चाहता हूँ कि किसी बात पर विश्वास करने पर ही भाषा-खेल संभव होता है (मैंने यह नहीं कहा कि "किसी बात पर विश्वास कर सकने पर")।
510. जब मैं कहता हूँ "बेशक मैं जानता हूँ कि वह एक तौलिया है" तो मैं कुछ ''अभिव्यक्त'' करता हूँ। मेरे मन में उसे प्रमाणित करने का कोई विचार ही नहीं होता। वह तो मेरी अव्यवहित अभिव्यक्ति ही है।
भूत अथवा भविष्य के बारे में तो मैं सोचता ही नहीं। (और बेशक मूअर भी ऐसा ही सोचते हैं।)
यह तो किसी बात को सीधे-सादे ढंग से उसी प्रकार ग्रहण करना है, जैसे मैं बिना किसी शक के अपने तौलिये को पकड़ता हूँ।
511. और अव्यवहित ग्रहण ज्ञान के अनुरूप न होकर ''निश्चितता'' के अनुरूप होता है।
पर क्या मैं किसी वस्तु के नाम को भी इसी प्रकार ग्रहण नहीं करता?
12.4.
512. क्या प्रश्न यह नहीं है: "इन आधारभूत बातों के बारे में भी अपने मत को बदलने पर क्या होगा?" और मेरे अनुसार इसका उत्तर होगा: "उनके बारे में आपको अपने मत को बदलना ही नहीं पड़ेगा। 'आधारभूत' होने का अर्थ ही यही है।"
513. ''अनहोनी'' होने पर क्या होगा? – उदाहरणार्थ, यदि मैं घरों को अकारण ही वाष्पीभूत होते देखूँ, यदि खेतों में पशु अपने सिर के बल खड़े होकर हँसने लगें और सार्थक शब्द बोलने लगें; यदि वृक्ष शनै: शनै: मानव और मानव वृक्षों के रूप में परिवर्तित होने लगें, तो इन समस्त घटनाओं के घटित होने से पहले क्या मेरा यह कहना ठीक था कि "मैं जानता हूँ कि वह एक घर है" इत्यादि, या फिर सिर्फ यह कहना कि "वह एक घर है" इत्यादि, उचित था?
514. मुझे यह आधारभूत कथन लगता था; यदि यही गलत है तो फिर 'सत्य' अथवा 'असत्य' किसे कहेंगे?!
515. यदि मेरा नाम लु. वि. नहीं है तो मैं "सत्य" अथवा "असत्य" पर कैसे विश्वास कर सकता हूँ?
516. ऐसी स्थिति (जैसे कोई मुझे बताये) जिसमें मैं अपने नाम के बारे में ही संदेह करने लगूँ से इस संदेह के आधार भी संदेहास्पद हो जाएंगे, और तब मैं अपने पुराने विश्वास को यथावत् बनाये रख सकता हूँ।
517. किन्तु, क्या किसी तरह मेरे लीक से हटने की संभावना नहीं है? ऐसा साक्ष्य जिससे अतिविश्वसनीय बातें भी अस्वीकार्य हो जायें? या फिर जिसके कारण मैं अपने आधारभूत निर्णयों का भी परित्याग कर दूँ? (यहाँ गलत या सही का प्रश्न तो है ही नहीं।)
518. क्या मैं किसी अन्य व्यक्ति में इसे देखने की कल्पना कर सकता हूँ?
519. यह तो सच है कि "मुझे एक पुस्तक दो" जब आप इस आदेश का पालन करते हैं तो आप इस बात की जाँच कर सकते हैं कि दृश्यमान वस्तु वस्तुत: पुस्तक ही है, किन्तु आप यह तो जानते ही हैं कि "पुस्तक" शब्द से क्या अभिप्राय है; पर यदि आप उसका अर्थ नहीं जानते तो आप उसे जान सकते हैं, – किन्तु, फिर भी आपको किसी अन्य शब्दार्थ का ज्ञान होना ही चाहिए। किसी शब्द का अमुक अर्थ या अमुक ढंग से प्रयोग, दृश्यमान वस्तु के आनुभविक तथ्य होने जैसा है।
इसीलिए, आदेश पालन के लिए किसी निर्भ्रान्त आनुभविक तथ्य की आवश्यकता होती है। संदेह, निर्भ्रान्त तथ्य पर आधारित होता है।
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