ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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583. "मैं जानता हूँ कि... में इसका नाम '...' है।" – आप कैसे जानते हैं? –"मैंने... सीखा है"।
583. "मैं जानता हूँ कि... में इसका नाम '...' है।" – आप कैसे जानते हैं? –"मैंने... सीखा है"।
इस उदाहरण में "... में इसका नाम '...' है" के स्थान पर क्या मैं "जानता हूँ इत्यादि" अभिव्यक्ति का प्रयोग कर सकता हूँ?
584. क्या किसी साधारण कथन के बाद "जानना" क्रिया को "आप कैसे जानते हैं?" प्रश्न में ही प्रयोग करना संभव होगा? – "मैं पहले से ही उसे जानता हूँ" यह कहने के बजाय हम "मैं उससे परिचित हूँ" कहते हैं; और यह उस तथ्य के बताए जाने पर ही होता है। किन्तु<ref>''यह वाक्य बाद में जोड़ा गया।'' (सं.)</ref> "मैं जानता हूँ कि वह क्या है" के बदले हम क्या कहें?
585. किन्तु क्या "मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है" यह अभिव्यक्ति "वह एक पेड़ है" इस अभिव्यक्ति से कोई भिन्न बात नहीं कहती?
586. "मैं जानता हूँ कि वह क्या है" कहने के बजाय हम "मैं बतला सकता हूँ कि वह क्या है" कह सकते हैं। पर इस अभिव्यक्ति के आकार को अपनाने पर "मैं जानता हूँ कि वह एक..." इस अभिव्यक्ति का क्या होगा?
587. पुन: इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या "मैं जानता हूँ कि वह एक..." अभिव्यक्ति "वह एक..." इस अभिव्यक्ति से कुछ भिन्न बात बताती है। पूर्व वाक्य में एक व्यक्ति का उल्लेख है किन्तु उत्तर वाक्य में किसी व्यक्ति का उल्लेख नहीं है । किन्तु इससे यह पता नहीं चलता कि दोनों के अर्थ भिन्न हैं। सभी प्रयोगों में हम पहले वाक्य को दूसरे वाक्य से प्रतिस्थापित कर देते हैं, और उत्तर वाक्य को एक विशेष अन्दाज में कहते हैं। चूँकि अविरोधी कथन और विरोधी कथन को कहने का अन्दाज ही भिन्न होता है।
588. किन्तु, क्या मैं "मैं जानता हूँ कि..." शब्दों का प्रयोग किसी मनःस्थिति को अभिव्यक्त करने के लिए नहीं करता, जबकि "वह एक... है" कथन से वह अभिव्यक्ति नहीं होती? पर फिर भी बहुधा इस कथन का उत्तर यह प्रश्न पूछ कर दिया जाता है "आप कैसे जानते हैं?" – "पर इसका कारण यही है कि मेरी जानकारी की स्थिति मेरे कथन से ज्ञात होती है।" – इस बात को निम्नलिखित ढंग से कहा जा सकता है: चिड़ियाघर में ऐसी सूचना लिखी हो सकती है: "यह एक ज़ेबरा है"; किन्तु ऐसी सूचना कभी नहीं हो सकती "मैं जानता हूँ कि यह एक ज़ेबरा है"।
किसी व्यक्ति द्वारा उच्चारित होने पर ही "मैं जानता हूँ" का अर्थ होता है, किन्तु, तभी जब "मैं जानता हूँ..." अथवा "वह एक... है" के उच्चारण के प्रति
समभाव हो।
589. क्योंकि, कोई व्यक्ति जानकारी की अपनी मनःस्थिति को पहचानना कैसे सीखता है?
590. "मैं जानता हूँ कि वह क्या है" ऐसी स्थितियों के कथन में ही हम मनःस्थिति को पहचानने की बात कर सकते हैं। इनमें हम अपने आपको आश्वस्त कर सकते हैं कि हमें यह ज्ञात है।
591. "मैं जानता हूँ कि वह कौनसा पेड़ है । – वह पाँगर (चेस्टनट) है।"
"मैं जानता हूँ कि वह कौनसा पेड़ है। – मैं जानता हूँ कि वह पाँगर (चेस्टनट) है।"
पूर्व कथन उत्तर कथन से अधिक सहज लगता है। हम दूसरी बार "मैं जानता हूँ" तभी कहते हैं जब हम अपने निश्चित होने पर बल देना चाहते हैं; संभवत: विरोध की प्रत्याशा में पहले "मैं जानता हूँ" का अर्थ कमोबेश होता है: मैं बता सकता हूँ।
किन्तु, किसी अन्य स्थिति में हम आरंभ में कह सकते हैं कि "वह एक है", और इसका विरोध किए जाने पर प्रत्युत्तर यह कह कर दे सकते हैं: "मैं जानता हूँ कि वह कौनसा पेड़ है", और ऐसा करके हम अपने निश्चित होने को रेखांकित कर सकते हैं।
592." मैं आपको बतला सकता हूँ कि वह कौनसा... यानी, इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।"
593. जहाँ हम "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति को "यह एक है" अभिव्यक्ति से प्रतिस्थापित कर सकते हैं वहाँ भी हम एक के निषेध को दूसरे के निषेध से प्रतिस्थापित नहीं कर सकते।
"मैं नहीं जानता कि..." अभिव्यक्ति के आते ही हमारे भाषा-खेल में एक नया घटक प्रवेश कर जाता है।
594. मेरा नाम लु.वि. है । इसके बारे में बखेड़ा खड़ा करने पर मैं इससे संबंधित इतने प्रमाण जुटा दूँगा जिससे इसके बारे में कोई सन्देह नहीं रहेगा ।
595. "किन्तु फिर भी मैं ऐसे व्यक्ति की कल्पना कर सकता हूँ जो इन सब बातों को समझे किन्तु फिर भी वास्तविकता को न समझे। मैं भी ऐसी स्थिति में क्यों नहीं हो सकता?"
ऐसे व्यक्ति की कल्पना करने में मैं एक वास्तविकता की, उसके चारों ओर विद्यमान संसार की भी कल्पना करता हूँ; और मैं यह कल्पना भी करता हूँ कि वह इस संसार के विरुद्ध सोच (और बोल) रहा है ।
596. जब कोई मुझे बताता है कि उसका नाम न. न. है तो मेरा उसे "क्या आप गलती कर सकते हैं?" पूछना सार्थक हो सकता है। भाषा-खेल में यह प्रश्न पूछा जा सकता है । और इसका सकारात्मक अथवा नकारात्मक उत्तर सार्थक होता है। – बेशक, यह उत्तर भी अचूक नहीं होता, यानी, किसी समय इसमें चूक हो सकती है, पर फिर भी इससे "क्या आप... हो सकते हैं" प्रश्न और इसका "निषेधात्मक" उत्तर निरर्थक नहीं हो जाता।
597. "क्या आप गलती कर सकते हैं?" प्रश्न का उत्तर इस कथन को वज़नदार बना देता है। यह भी उत्तर हो सकता है: "मेरे ''विचार'' में गलती नहीं कर सकते।"
598. किन्तु "क्या आप..." प्रश्न का उत्तर यह कहकर नहीं दिया जा सकता: "मैं स्थिति का वर्णन कर देता हूँ, फिर आप स्वयं ही इस संबंध में निर्णय कर लें कि मैं गलती कर सकता हूँ या नहीं"?
उदाहरणार्थ, जब प्रश्न किसी के अपने नाम के बारे में हो तो यह संभव है कि उसने कभी भी इस नाम का प्रयोग न किया हो, किन्तु किन्हीं दस्तावेजों में उसे इस नाम को पढ़ने की स्मृति हो, – दूसरी ओर यह भी उत्तर हो सकता है: "तमाम उम्र मेरा यही नाम रहा है; सभी लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं।" यदि ''यह'' उत्तर "मैं गलती नहीं कर सकता" उत्तर के समकक्ष नहीं है, तो बाद का कथन पूरी तरह निरर्थक हो जाएगा। पर फिर भी यह महत्त्वपूर्ण भेद को इंगित करता है।
599. उदाहरणार्थ, लगभग 100° से. पर पानी खौलता है इस प्रतिज्ञप्ति की निश्चितता का वर्णन किया जा सकता है। यह कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति नहीं है जिसे मैंने सुना हो (कई अन्य प्रतिज्ञप्तियों की तरह जिनका मैं उल्लेख कर सकता हूँ) । पाठशाला में मैंने स्वयं यह प्रयोग किया है। हमारी पाठ्य पुस्तकों की यह एक अत्यधिक प्रारंभिक प्रतिज्ञप्ति है, और ऐसे मामलों में हमें अपनी पाठ्य-पुस्तकों पर विश्वास करना पड़ता है क्योंकि...। – अब हम इससे उलट ऐसे उदाहरण दे सकते हैं जिनसे यह पता चलता है कि मनुष्यों ने कई बातों को सुनिश्चित माना जो बाद में, हमारे अनुसार, गलत सिद्ध हुईं। किन्तु यह युक्ति बेकार<ref>''हाशिये में टिप्पणी।'' क्या यह भी संभव नहीं है कि हम ऐसा मानते हों कि हम अपनी पूर्व त्रुटियों को पहचानकर बाद में यह निष्कर्ष निकालते हों कि हमारी पहली सोच ही उचित थी? इत्यादि।</ref> है। यह कहना तो कुछ भी कहना नहीं है कि: अन्ततोगत्वा ''हम'' उन्हीं आधारों का उल्लेख करते हैं जिन्हें हम आधार मानते हैं।
मेरा मानना है कि हमारे भाषा-खेलों की प्रकृति के बारे में गलतफहमी ही इसका आधार है।
600. प्रयोगात्मक भौतिकी की पाठ्य-पुस्तकों पर विश्वास करने के मेरे आधार किस प्रकार के हैं?
उन पर विश्वास न करने के मेरे पास कोई आधार नहीं हैं। और मैं उन पर विश्वास करता हूँ। मैं जानता हूँ – या फिर यह मेरा विश्वास ही है कि मैं जानता हूँ कि उन पुस्तकों को कैसे लिखा जाता है। मेरे पास कुछ छिटपुट प्रमाण हैं, पर उनसे यह पूर्णत: सिद्ध नहीं होता। मैंने अनेक बातों को देखा, सुना और पढ़ा है।
22.4.
601. किसी अभिव्यक्ति के अर्थ की जिज्ञासा में, उसकी प्रयोग प्रणाली पर सदैव विचार करने के बजाय उसी अभिव्यक्ति और उसके प्रयोग के समय की मन:स्थिति पर ध्यान केन्द्रित करने का खतरा सदैव बना रहता है । यही कारण है कि हम अभिव्यक्ति को बारम्बार दोहराते हैं, मानो इससे हमें पता चल जाएगा कि अभिव्यक्ति में तथा उस अनुभूति में जो हमें उससे होती है हम क्या खोज रहे हैं।
23.4.
602. मुझे क्या कहना चाहिए "मैं भौतिक-शास्त्र पर विश्वास करता हूँ", अथवा "मैं जानता हूँ कि भौतिक-शास्त्र प्रामाणिक है"?
603. मुझे सिखाया गया है कि ''अमुक'' परिस्थितियों में ''ऐसा'' घटता है। अनेक प्रयोगों से यह ज्ञात हुआ है। यदि यह अनुभव दूसरे अनुभवों से इस प्रकार जुड़ा न हो जिससे एक तन्त्र बनता हो, तो उस अवस्था में कुछ सिद्ध नहीं होगा। इस प्रकार वैज्ञानिकों ने केवल नीचे गिरती हुई वस्तुओं के बारे में ही प्रयोग नहीं किए अपितु वायु-प्रतिरोध संबंधी, और अनेक अन्य बातों से सम्बन्धित प्रयोग भी किए।
पर अन्ततोगत्वा मैं इन अनुभवों पर या उनकी रिपोर्ट पर भरोसा करता हूँ, और अपनी गतिविधियों को उनके अनुरूप ढालने में मुझे कोई संकोच नहीं होता। – किन्तु क्या मेरा ऐसा विश्वास स्वयंसिद्ध नहीं है ? जहाँ तक मैं सोचता हूँ – हाँ।
604. भौतिक-शास्त्री के इस कथन को कि पानी लगभग 100° से. पर खौलता है न्यायालय निरुपाधिक सत्य मानेगा ।
यदि मैं इस कथन पर विश्वास न करूँ तो मुझे इसे छोड़ने के लिए क्या करना होगा? स्वयं प्रयोग करूँ? उनसे क्या सिद्ध होगा?
605. किन्तु, यदि भौतिक-शास्त्री का कथन अंधविश्वास निकले तथा निर्णय पर पहुँचने के लिए उसे कसौटी मानना बेतुका हो तो क्या हो?
606. मेरे विचार में किसी अन्य व्यक्ति के गलती करते रहने से मेरे अब तक के गलत व्यवहार को आधार नहीं मिल जाता। – किन्तु क्या यह इस मान्यता का आधार नहीं होता कि मैं गलती कर ''सकता'' हूँ? मेरे किसी निर्णय का अथवा मेरे क्रियाकलापों की ''अनिश्चितता'' का कोई आधार ''नहीं'' हो सकता।
607. कोई निर्णायक तो यह भी कह सकता है "जहाँ तक मुनष्य इसे जान सकते हैं, मनुष्यों के लिए – यही सत्य है" किन्तु इस संशोधन से क्या मिलेगा? ("उचित संशय से परे")।


<references />
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