ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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607. कोई निर्णायक तो यह भी कह सकता है "जहाँ तक मुनष्य इसे जान सकते हैं, मनुष्यों के लिए – यही सत्य है" किन्तु इस संशोधन से क्या मिलेगा? ("उचित संशय से परे")।
607. कोई निर्णायक तो यह भी कह सकता है "जहाँ तक मुनष्य इसे जान सकते हैं, मनुष्यों के लिए – यही सत्य है" किन्तु इस संशोधन से क्या मिलेगा? ("उचित संशय से परे")।
608. भौतिक-शास्त्र की प्रतिज्ञप्तियों द्वारा अपने व्यवहार को संचालित करना क्या मेरी भूल होगी? क्या मुझे कहना होगा कि मेरे पास इसका कोई आधार नहीं है? क्या इसी को हम "उत्तम आधार" नहीं कहते?
609. मान लीजिए कि हम ऐसे लोगों से मिलें जो इसे उचित कारण न मानते हों। पर हम इसकी कल्पना कैसे कर सकते हैं? भौतिक-शास्त्री के बजाए वे किसी साधु-महात्मा से मन्त्रणा करते हैं। (और इसीलिए हम उन्हें आदिम मानते हैं।) क्या उनका सयानों से मन्त्रणा करना और उनकी सलाह पर चलना गलत हैं? – यदि हम उन्हें "गलत" कहते हैं तो क्या हम अपने भाषा-खेल को उनके भाषा-खेल का ''मुकाबला'' करने का आधार नहीं बनाते?
610. और क्या उसका मुकाबला करना सही है या गलत? बेशक हमारी कार्यवाही के समर्थन में अनेक प्रकार की बातें कही जाएंगी।
611. जब भी दो परस्पर विरोधी सिद्धान्तों का वास्तविक टकराव होता है तब दोनों एक दूसरे को बेवकूफ और पागल कहते हैं ।
612. मैंने कहा कि मैं दूसरे व्यक्ति का 'मुकाबला' करूँगा, – किन्तु, क्या मैं उसे ''युक्ति'' नहीं दूँगा? निश्चय ही मैं उसे युक्ति दूँगा; किन्तु उनसे हम कितनी दूर जा सकेंगे? अन्ततोगत्वा युक्ति के बाद ''समझाना'' पड़ता है। (मिशनरियों द्वारा आदिम लोगों के धर्म परिवर्तन की स्थिति पर विचार करें।)
613. यदि अब मैं कहूँ "मैं जानता हूँ कि आँच पर रखी केतली में भरा पानी खौलेगा न कि जमेगा", तो "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति के प्रयोग का औचित्य ''किसी भी'' प्रयोग जैसा होता है। 'यदि मैं कुछ भी जानता हूँ तो मैं इसे जानता हूँ।' – अथवा, क्या इससे भी ''अधिक'' निश्चितता से मैं जानता हूँ कि मेरे सामने बैठा व्यक्ति मेरा अमुक मित्र है? और इसकी तुलना इस बात से कैसे होगी कि मैं दो आँखों से देखता हूँ और दर्पण में देखने पर वे मुझे दिखाई देंगी? – मैं निश्चयपूर्वक इसका उत्तर नहीं दे सकता। – किन्तु फिर भी इन स्थितियों में भेद तो है। आँच पर रखे पानी के जम जाने पर बेशक मैं स्तंभित हो जाऊँगा, किन्तु इसके लिए किसी अनजाने कारण की कल्पना करूँगा और संभवत: इस मामले को भौतिक-शास्त्रियों के निर्णय के लिए छोड़ दूँगा। किन्तु, मेरे सामने बैठा व्यक्ति वर्षों से मेरा परिचित न. न. है इस बात पर मैं क्योंकर संदेह करूँगा? इस पर संदेह करने से सभी बातें संदेहास्पद हो जाएंगी और सब कुछ गड़बड़ा जाएगा।
614. यानी: यदि चारों ओर मेरा विरोध हो और मुझे बताया जाए कि इस व्यक्ति का नाम वह नहीं है जिसे मैं सदा से जानता हूँ (और मैं यहाँ "जानना" शब्द का प्रयोग जान-बूझकर कर रहा हूँ), तो मेरे सभी निर्णयों का आधार ही मुझसे छिन जायेगा।
615. तो क्या इसका अर्थ है: "मैं निर्णय इसीलिए कर पाता हूँ कि वस्तुएँ इस प्रकार व्यवहार करती हैं (मानो वे सम्यग्-व्यवहार करती हैं)"?
616. तथ्यों के अत्यधिक उलट-पलट जाने पर भी मेरा अपनी बातों पर अड़े रहना ''अकल्पनीय'' क्यों है?
617. कुछ घटनाएँ मुझे ऐसी परिस्थिति में डाल देती हैं जिसमें मेरा पुराने भाषा-खेल से काम नहीं चल पाता । उस स्थिति में मेरा भाषा की ''निश्चितता'' से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।
वस्तुतः, क्या यह स्पष्ट प्रतीत नहीं होता कि भाषा-खेल की संभावना विशिष्ट तथ्यों पर निर्भर करती है?
618. उस स्थिति में ऐसा लगता है मानो किसी भाषा-खेल को अपने आधार 'प्रदर्शित' करने होंगे। (किन्तु ऐसा नहीं है।)
तो, क्या यह कहा जा सकता है कि घटनाओं की नियमितता ही आगमनात्मक विधि को संभावित बनाती है? बेशक, 'संभावना' को '''तार्किक संभावना''<nowiki/>' होना होगा।
619. क्या मुझे कहना होगा: प्राकृतिक परिस्थितियों की अनियमितता की स्थिति में भी मुझे अपनी बात से ''डिगना'' नहीं पड़ेगा? ऐसा होने पर भी मैं पहले की तरह अनुमान लगा सकता हूँ, किन्तु यह एक अलग बात है कि उसे "आगमनात्मक विधि" कहना उचित होगा या नहीं ।
620. विशिष्ट परिस्थितियों में हम कहते हैं "आप इस पर भरोसा कर सकते हैं"; और हमारी आम भाषा में यह आश्वासन उचित अथवा अनुचित हो सकता है, यहाँ तक कि बताई गई बात के न घटने पर भी इसे उचित कहा जा सकता है। इस आश्वासन के प्रयोग करने वाले ''भाषा-खेल का अस्तित्व'' होता है।
24.4.
621. शरीर-रचना की विवेचना में मैं कहूँगा: "मैं जानता हूँ कि मस्तिष्क से द्वादश-स्नायु-युग्म निकलते हैं।" मैंने कभी भी इन स्नायुओं को नहीं देखा, और विशेषज्ञों ने भी उन्हें कुछ नमूनों में ही देखा होगा। – यहाँ "जानना" शब्द का उचित प्रयोग ऐसे ही किया जाता है।
622 . किन्तु, क्या मूअर द्वारा उल्लेख किए गए संदर्भों में, कम से कम विशिष्ट परिस्थितियों में, भी "मैं जानता हूँ" का प्रयोग उचित है? (वस्तुतः मैं नहीं जानता कि "मैं जानता हूँ कि मैं एक मनुष्य हूँ" अभिव्यक्ति का क्या अर्थ होता है। किन्तु इसे भी सार्थक बनाया जा सकता है।)
क्योंकि मैं ऐसी परिस्थितियों की कल्पना कर सकता हूँ जिनमें इनमें से प्रत्येक वाक्य हमारे भाषा-खेलों में से किसी एक भाषा-खेल का अंग बन जाएगा, और फिर उससे समस्त दार्शनिक-चमत्कार लुप्त हो जाएंगे।
623. यह अटपटी बात ही है कि ऐसी स्थिति में मैं सदैव कहना चाहता हूँ (चाहे यह गलत है): "जहाँ तक इस बात को जानना संभव है – मैं इसे जानता हूँ।" यह गलत है किन्तु इसके पीछे कोई ठीक बात छिपी है।
624. "हिन्दी में इस रंग को 'हरा' कहने में क्या आप गलती कर सकते हैं?" मैं इस प्रश्न का उत्तर "नहीं" में ही दे सकता हूँ । यदि मेरा उत्तर हो: "हाँ, क्योंकि भ्रम की संभावना सदा रहती ही है" तो यह निरर्थक बात होगी।
क्या कोई इस संशोधन से अनभिज्ञ है? और मुझे इसका कैसे पता चलता है?
625. किन्तु, क्या यह अकल्पनीय है कि यहाँ पर "हरा" शब्द जुबान फिसलने अथवा क्षणिक भ्रांति के कारण कहा गया है ? क्या हम ऐसी स्थितियों से अनभिज्ञ हैं? – हम किसी को कह सकते हैं कि "कहीं आप भूल तो नहीं कर रहे?" इसका अर्थ है: "इस पर पुनर्विचार कीजिए"। –
किन्तु सावधानी बरतने के ये नियम अपनी सीमा में ही सार्थक होते हैं ।
अन्तहीन संशय, संशय होता ही नहीं ।
626. यह कहने का भी कोई अर्थ नहीं होता: "यदि मेरी जुबान फिसल न गई हो, या मैं भ्रान्त न होऊँ तो हिन्दी में इस रंग का नाम ''निश्चित रूप से'' 'हरा' होता है।"
627. क्या हमें ''सभी'' भाषा-खेलों में इस शर्त को स्थान नहीं देना होगा? (जिससे इसकी निरर्थकता का पता चलता है।)
628. जब हम कहते हैं कि "कुछ प्रतिज्ञप्तियों को संशय से परे रखना चाहिए" तो ऐसा लगता है कि मुझे लु. वि. कहते हैं जैसी प्रतिज्ञप्तियों को तर्क-शास्त्र की पुस्तक में ही रखना होगा। क्योंकि यदि यह भाषा-खेल के विवरण से संबंधित है, तो यह तर्क-शास्त्र का विषय है । किन्तु मुझे लु. वि. कहते हैं इसका किसी भी ऐसे विवरण से सम्बन्ध नहीं है । अपने नाम के बारे में मेरे गलती करने पर भी, लोगों के नामों पर लागू होने वाला भाषा-खेल निश्चित रूप से संभव है, – किन्तु इसकी पूर्वमान्यता है कि यह कहना निरर्थक है कि अधिकांश लोग अपने नामों के संबंध में भूल करते. हैं।
629. दूसरी ओर, अपने बारे में मेरा यह कथन बेशक ठीक है कि "मैं अपने नाम सम्बन्ध में भूल नहीं कर सकता", और यह कहना गलत है कि "संभवत: मैं भूल कर रहा हूँ"। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिसे मैं सुनिश्चित कहता हूँ उस पर अन्य व्यक्तियों द्वारा संशय करना निरर्थक है।
630. यह तो सामान्य तथ्य है कि अपनी मातृ-भाषा में हम कुछ वस्तुओं के नामों की भूल कर ही नहीं सकते।
631. "मैं इसके बारे में भूल कर ही नहीं सकता" यह एक प्रकार का कथन ही है।
632. सुनिश्चित एवं अनिश्चित स्मृति । यदि साधारणत: सुनिश्चित स्मृति अनिश्चित स्मृति से अधिक विश्वसनीय न होती, यानी, यदि उसकी अनिश्चित स्मृति की तरह ही जाँच द्वारा बहुधा पुष्टि न होती, तो भाषाभिव्यक्ति में निश्चितता और अनिश्चितता की वर्तमान भूमिका नहीं रहती ।
633. "मैं भूल कर ही नहीं सकता" – किन्तु ऐसा कहने पर भी जब मैं भूल करता हूँ तो क्या होता है? क्या ऐसा संभव नहीं है? किन्तु क्या इससे "मैं... कर ही नहीं सकता", अभिव्यक्ति निरर्थक हो जाती है? अथवा क्या इसके बजाए यह कहना उचित होगा कि "मेरे द्वारा भूल करने की संभावना बहुत कम है"? नहीं; क्योंकि उसका कोई और ही अभिप्राय है?
634. "मैं भूल कर भूल कर ही नहीं सकता; और अधिक से अधिक बुरा यही होगा कि मैं अपनी प्रतिज्ञप्ति को प्रतिमान में बदल दूँगा।"
635. "इस बारे में मैं भूल कर ही नहीं सकता; आज मैं उसके साथ था।"
636. "मैं भूल कर ही नहीं सकता; किन्तु फिर भी अपनी प्रतिज्ञप्ति के विरुद्ध प्रतीत होने वाली किसी भी बात के बावजूद मैं उससे चिपका रहूँगा।"
637. "मैं भूल कर ही नहीं सकता" अभिव्यक्ति खेल में मेरे कथन को उसका स्थान दिखाती है। किन्तु मूलतः यह खेल के बजाय ''मुझसे'' सम्बन्धित है।
कथन-विषयक मेरी भूल से भाषा-खेल की उपयोगिता कम नहीं हो जाती।
25.4.
638. "मैं भूल कर ही नहीं सकता" यह एक ऐसा साधारण वाक्य है जो किसी कथन की निश्चितता बतलाने में सहायक होता है। और अपने दैनंदिन प्रयोग में ही इसका औचित्य है।
639. किन्तु क्या यह विचित्र नहीं है कि मैं इसके बारे में और इसीलिए इसके द्वारा समर्थित प्रतिज्ञप्ति के प्रयोग में भी – जैसा कि सभी मानते हैं – भूल कर सकता हूँ?
640. या फिर क्या मैं यह कहूँ: यह वाक्य ''एक प्रकार'' की चूक को नकार देता है।


<references />
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