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{{ParUG|392}} मुझे तो यह दर्शाना है कि संशय की संभावना में भी संशय आवश्यक नहीं है। भाषा-खेल की संभावना इस पर निर्भर नहीं करती कि प्रत्येक संशय-योग्य बात पर संशय किया जाए। (गणित में व्याघात की भूमिका से इसका संबंध है।) | {{ParUG|392}} मुझे तो यह दर्शाना है कि संशय की संभावना में भी संशय आवश्यक नहीं है। भाषा-खेल की संभावना इस पर निर्भर नहीं करती कि प्रत्येक संशय-योग्य बात पर संशय किया जाए। (गणित में व्याघात की भूमिका से इसका संबंध है।) | ||
{{ParUG|393}} यदि भाषा-खेल के बाहर “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” वाक्य को कहा जाए तो यह (संभवत: किसी हिन्दी व्याकरण से) लिया गया उद्धरण हो। — “पर जब मैं इसे सार्थक ढंग से कहता हूँ तो क्या होता है?” ‘अर्थ’ के प्रत्यय के बारे में पुरानी गलतफहमी। | {{ParUG|393}} यदि भाषा-खेल के बाहर “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” वाक्य को कहा जाए तो यह (संभवत: किसी हिन्दी व्याकरण से) लिया गया उद्धरण हो। — “पर जब मैं इसे ''सार्थक'' ढंग से कहता हूँ तो क्या होता है?” ‘अर्थ’ के प्रत्यय के बारे में पुरानी गलतफहमी। | ||
{{ParUG|394}} “यह ऐसी बातों में से है जिन पर मैं संशय नहीं कर सकता।” | {{ParUG|394}} “यह ऐसी बातों में से है जिन पर मैं संशय नहीं कर सकता।” | ||
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{{ParUG|414}} किन्तु दूसरी ओर: मैं कैसे ''जानता'' हूँ कि यह मेरा हाथ है? क्या मुझे इतना भी पूरी तरह पता है कि यहाँ यह मेरा हाथ है कहने का क्या अर्थ है? — जब मैं यह कहता हूँ कि “मुझे कैसे पता है?” तो मेरा अर्थ यह नहीं होता कि इसके बारे में मुझे कोई ''संशय'' है। यह तो मेरे व्यवहार का आधार है। किन्तु मुझे लगता है कि “मैं जानता हूँ” शब्दों द्वारा इसे गलत ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। | {{ParUG|414}} किन्तु दूसरी ओर: मैं कैसे ''जानता'' हूँ कि यह मेरा हाथ है? क्या मुझे इतना भी पूरी तरह पता है कि यहाँ यह मेरा हाथ है कहने का क्या अर्थ है? — जब मैं यह कहता हूँ कि “मुझे कैसे पता है?” तो मेरा अर्थ यह नहीं होता कि इसके बारे में मुझे कोई ''संशय'' है। यह तो मेरे व्यवहार का आधार है। किन्तु मुझे लगता है कि “मैं जानता हूँ” शब्दों द्वारा इसे गलत ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। | ||
{{ParUG|415}} वस्तुतः, “जानना” शब्द का मुख्य रूप से दार्शनिक शब्द के रूप में प्रयोग ही क्या बिल्कुल गलत नहीं है? यदि “जानने” का यह प्रयोग है तो “निश्चित होने” का क्यों नहीं? वस्तुतः इसलिए कि यह अत्यधिक व्यक्ति-सापेक्ष हो जाएगा। किन्तु क्या “जानना” भी ''उतना ही'' मनोगत नहीं होता? कहीं हम इस व्याकरणिक विशिष्टता सेतो भ्रमित नहीं हो जाते कि “मैं जानता हूँ कि | {{ParUG|415}} वस्तुतः, “जानना” शब्द का मुख्य रूप से दार्शनिक शब्द के रूप में प्रयोग ही क्या बिल्कुल गलत नहीं है? यदि “जानने” का यह प्रयोग है तो “निश्चित होने” का क्यों नहीं? वस्तुतः इसलिए कि यह अत्यधिक व्यक्ति-सापेक्ष हो जाएगा। किन्तु क्या “जानना” भी ''उतना ही'' मनोगत नहीं होता? कहीं हम इस व्याकरणिक विशिष्टता सेतो भ्रमित नहीं हो जाते कि “मैं जानता हूँ कि '''प'''” से “'''प'''” निष्पन्न होता है? | ||
“मुझे विश्वास है कि मैं जानता हूँ” इससे कोई कम निश्चितता तो अभिव्यक्त नहीं होती। — यह ठीक है कि हम किसी बड़ी मनोगत निश्चितता को भी अभिव्यक्त करने का प्रयत्न नहीं कर रहे, अपितु हम तो यह कह रहे हैं कि कुछ बातें सभी प्रश्नों एवं सारे विचारों के मूल में प्रतीत होती हैं। | “मुझे विश्वास है कि मैं जानता हूँ” इससे कोई कम निश्चितता तो अभिव्यक्त नहीं होती। — यह ठीक है कि हम किसी बड़ी मनोगत निश्चितता को भी अभिव्यक्त करने का प्रयत्न नहीं कर रहे, अपितु हम तो यह कह रहे हैं कि कुछ बातें सभी प्रश्नों एवं सारे विचारों के मूल में प्रतीत होती हैं। | ||
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{{ParUG|423}} तो मूअर की भाँति मैं यह ही क्यों नहीं कहता कि “मैं ''जानता'' हूँ कि मैं इंगलैण्ड में हूँ”? ऐसा कहना ''विशिष्ट परिस्थितियों में'' सार्थक होता है और मैं उनकी कल्पना कर सकता हूँ। किन्तु, जब मैं इन परिस्थितियों के बिना इस वाक्य को इसलिए उदाहृत करने को कहता हूँ कि मैं इस प्रकार के सत्यों को निश्चितता के साथ जान सकता हूँ, तो यकायक यह मुझे संदिग्ध लगने लगता है। — क्या ऐसा होना चाहिए? | {{ParUG|423}} तो मूअर की भाँति मैं यह ही क्यों नहीं कहता कि “मैं ''जानता'' हूँ कि मैं इंगलैण्ड में हूँ”? ऐसा कहना ''विशिष्ट परिस्थितियों में'' सार्थक होता है और मैं उनकी कल्पना कर सकता हूँ। किन्तु, जब मैं इन परिस्थितियों के बिना इस वाक्य को इसलिए उदाहृत करने को कहता हूँ कि मैं इस प्रकार के सत्यों को निश्चितता के साथ जान सकता हूँ, तो यकायक यह मुझे संदिग्ध लगने लगता है। — क्या ऐसा होना चाहिए? | ||
{{ParUG|424}} “मैं जानता हूँ कि | {{ParUG|424}} “मैं जानता हूँ कि '''प'''” ऐसा मैं या तो लोगों को यह बताने के लिए कहता हूँ कि मुझे भी प के सत्य होने के बारे में पता है, या फिर ऐसा मैं ⊢` '''प''' सिद्ध है पर बल देने के लिए ही कहता हूँ। हम यह भी कहते हैं “यह मेरा विश्वास नहीं है, मैं इसे जानता हूँ”। और इसे (उदाहरणार्थ) ऐसे भी कहा जा सकता है: “वह एक पेड़ है। कोई कपोल-कल्पना नहीं है।” | ||
किन्तु इसके बारे में क्या कहेंगे: “यदि मैं किसी को कहता कि वह एक पेड़ है तो यह कोई कपोल-कल्पना नहीं होती।” क्या मूअर यही नहीं कहना चाहते? | किन्तु इसके बारे में क्या कहेंगे: “यदि मैं किसी को कहता कि वह एक पेड़ है तो यह कोई कपोल-कल्पना नहीं होती।” क्या मूअर यही नहीं कहना चाहते? | ||
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{{ParUG|425}} यह कोई कपोल-कल्पना नहीं है, और मैं किसी को भी असंदिग्ध रूप से पूर्ण निश्चितता के साथ यह बता सकता हूँ। किन्तु क्या इसका अर्थ है कि यह पूर्ण सत्य है? क्या यह सम्भव नहीं कि जिसे मैंने जीवन पर्यंत पेड़ के रूप में देखा हो और जिसे पूरी निश्चितता से चीह्ना हो — पता चले कि वह तो कोई भिन्न वस्तु है? क्या इससे मैं हैरान नहीं हो जाऊँगा? | {{ParUG|425}} यह कोई कपोल-कल्पना नहीं है, और मैं किसी को भी असंदिग्ध रूप से पूर्ण निश्चितता के साथ यह बता सकता हूँ। किन्तु क्या इसका अर्थ है कि यह पूर्ण सत्य है? क्या यह सम्भव नहीं कि जिसे मैंने जीवन पर्यंत पेड़ के रूप में देखा हो और जिसे पूरी निश्चितता से चीह्ना हो — पता चले कि वह तो कोई भिन्न वस्तु है? क्या इससे मैं हैरान नहीं हो जाऊँगा? | ||
पर फिर भी, इस वाक्य को अर्थ प्रदान करने वाली परिस्थितियों में यह कहना ठीक है कि “मैं जानता हूँ (यह मेरी कपोल-कल्पना नहीं है कि) वह एक पेड़ है”। यह कहना गलत होगा कि वास्तव में मैं इस पर विश्वास ही करता हूँ। यह कहना पूर्णत: भ्रामक होगा: “मेरा विश्वास है कि मेरा नाम लु. वि. है।” और यह भी ठीक है: इस बारे में मैं कोई गलती नहीं कर सकता। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मैं इसके बारे में कभी भूल कर ही नहीं सकता। | पर फिर भी, इस वाक्य को अर्थ प्रदान करने वाली परिस्थितियों में यह कहना ठीक है कि “मैं जानता हूँ (यह मेरी कपोल-कल्पना नहीं है कि) वह एक पेड़ है”। यह कहना गलत होगा कि वास्तव में मैं इस पर विश्वास ही करता हूँ। यह कहना पूर्णत: भ्रामक होगा: “मेरा विश्वास है कि मेरा नाम '''लु. वि.''' है।” और यह भी ठीक है: इस बारे में मैं कोई गलती नहीं कर सकता। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मैं इसके बारे में कभी भूल कर ही नहीं सकता। | ||
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{{ParUG|435}} बहुधा कोई शब्द हमें सम्मोहित कर लेता है। उदाहरणार्थ, “जानना” शब्द। | {{ParUG|435}} बहुधा कोई शब्द हमें सम्मोहित कर लेता है। उदाहरणार्थ, “जानना” शब्द। | ||
{{ParUG|436}} क्या ईश्वर हमारे ज्ञान से बंधा हुआ है? क्या हमारे अनेक कथन झूठे नहीं हो सकते? क्योंकि हम यही कहना चाहते हैं। | {{ParUG|436}} क्या ईश्वर हमारे ज्ञान से बंधा हुआ है? क्या हमारे अनेक कथन झूठे ''नहीं हो सकते''? क्योंकि हम यही कहना चाहते हैं। | ||
{{ParUG|437}} मैं कहना चाहता हूँ: “यह झूठ ''नहीं हो सकता''।” यह महत्त्वपूर्ण है; किन्तु इसके परिणाम क्या हैं? | {{ParUG|437}} मैं कहना चाहता हूँ: “यह झूठ ''नहीं हो सकता''।” यह महत्त्वपूर्ण है; किन्तु इसके परिणाम क्या हैं? | ||
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अपने ही हाथ को देखते हुए “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” यह आश्वासन भी तब तक विश्वसनीय नहीं होता जब तक हमें उन परिस्थितियों का पता न हो जिनमें ऐसा कहा गया हो। ऐसी जानकारी होने पर ही यह निश्चय होता है कि वक्ता इस लिहाज़ से सामान्य है। | अपने ही हाथ को देखते हुए “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” यह आश्वासन भी तब तक विश्वसनीय नहीं होता जब तक हमें उन परिस्थितियों का पता न हो जिनमें ऐसा कहा गया हो। ऐसी जानकारी होने पर ही यह निश्चय होता है कि वक्ता इस लिहाज़ से सामान्य है। | ||
{{ParUG|442}} क्या यह सम्भव नहीं कि मैंने ऐसा ''मान लिया'' है कि मैं किसी बात को जानता हूँ? | {{ParUG|442}} क्या यह सम्भव नहीं कि मैंने ऐसा ''मान लिया'' है कि मैं किसी बात को ''जानता'' हूँ? | ||
{{ParUG|443}} मान लीजिए कि किसी भाषा में हमारी भाषा के “जानने” शब्द के अनुरूप कोई शब्द ही न हो। — लोग केवल टिप्पणी ही करते हों। (“वह एक पेड़ है”, इत्यादि)। उनको अपनी त्रुटि की सम्भावना का ज्ञान स्वाभाविक ही है। इसलिए वे वाक्यों के साथ ऐसे संकेत जोड़ देते हैं जिनसे यह पता चलता है कि उन्हें उस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना प्रतीत होती है — या फिर, मैं कह सकता हूँ कि इस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना है? बाद के कथन को विशिष्ट परिस्थितियों का विवरण देकर भी इंगित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, “तब अ ने ब से कहा ‘....’। मैं उनके समीप ही खड़ा था और मेरी श्रवण-शक्ति भी ठीक है”, अथवा “कल अ अमुक स्थान पर था। मैंने उसे दूर से देखा था। मेरी दृष्टि बहुत अच्छी नहीं है”, अथवा “वहाँ एक पेड़ है: मैं उसे साफ-साफ देख सकता हूँ और मैंने उसे पहले भी अनेक बार देखा है”। | {{ParUG|443}} मान लीजिए कि किसी भाषा में हमारी भाषा के “जानने” शब्द के अनुरूप कोई शब्द ही न हो। — लोग केवल टिप्पणी ही करते हों। (“वह एक पेड़ है”, इत्यादि)। उनको अपनी त्रुटि की सम्भावना का ज्ञान स्वाभाविक ही है। इसलिए वे वाक्यों के साथ ऐसे संकेत जोड़ देते हैं जिनसे यह पता चलता है कि उन्हें उस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना प्रतीत होती है — या फिर, मैं कह सकता हूँ कि इस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना है? बाद के कथन को विशिष्ट परिस्थितियों का विवरण देकर भी इंगित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, “तब '''अ''' ने '''ब''' से कहा ‘....’। मैं उनके समीप ही खड़ा था और मेरी श्रवण-शक्ति भी ठीक है”, अथवा “कल '''अ''' अमुक स्थान पर था। मैंने उसे दूर से देखा था। मेरी दृष्टि बहुत अच्छी नहीं है”, अथवा “वहाँ एक पेड़ है: मैं उसे साफ-साफ देख सकता हूँ और मैंने उसे पहले भी अनेक बार देखा है”। | ||
{{ParUG|444}} “गाड़ी दो बजे छूटती है। पक्की जानकारी के लिए एक बार और पता कर लो”, अथवा “गाड़ी दो बजे छूटती है। मैंने नवीनतम समय-सारिणी में अभी-अभी देखा है”। यह भी कहा जा सकता है “ऐसी बातों के लिए मुझ पर भरोसा किया जा सकता है”। ऐसे कथनों के लाभ स्पष्ट हैं। | {{ParUG|444}} “गाड़ी दो बजे छूटती है। पक्की जानकारी के लिए एक बार और पता कर लो”, अथवा “गाड़ी दो बजे छूटती है। मैंने नवीनतम समय-सारिणी में अभी-अभी देखा है”। यह भी कहा जा सकता है “ऐसी बातों के लिए मुझ पर भरोसा किया जा सकता है”। ऐसे कथनों के लाभ स्पष्ट हैं। | ||
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{{ParUG|451}} मूअर के विरोध में मेरी यह आपत्ति — “वह एक पेड़ है” इस एकल वाक्य का अर्थ अनिश्चित है क्योंकि जिसे पेड़ कहा जा रहा है उसके बारे में “''वह''” कहना ही अनिश्चित है — उपयोगी नहीं है क्योंकि इसके अर्थ को उदाहरणार्थ यह कहकर अधिक सुनिश्चित किया जा सकता है: पेड़ के समान दिखाई देने वाली वह वस्तु किसी पेड़ की कृत्रिम नकल न होकर वास्तविक पेड़ ही है।” | {{ParUG|451}} मूअर के विरोध में मेरी यह आपत्ति — “वह एक पेड़ है” इस एकल वाक्य का अर्थ अनिश्चित है क्योंकि जिसे पेड़ कहा जा रहा है उसके बारे में “''वह''” कहना ही अनिश्चित है — उपयोगी नहीं है क्योंकि इसके अर्थ को उदाहरणार्थ यह कहकर अधिक सुनिश्चित किया जा सकता है: पेड़ के समान दिखाई देने वाली वह वस्तु किसी पेड़ की कृत्रिम नकल न होकर वास्तविक पेड़ ही है।” | ||
{{ParUG|452}} उसके वास्तविक पेड़ होने या फिर होगा.... होने पर शक करना समुचित | {{ParUG|452}} उसके वास्तविक पेड़ होने या फिर होगा.... होने पर शक करना समुचित नहीं होगा। | ||
मेरा इसे संशयातीत समझना महत्त्वपूर्ण नहीं है। किसी संशय के समुचित न होने का पता केवल मेरी जानकारी से तो नहीं चलता। अतः कोई ऐसा नियम होना चाहिए जिससे यह पता चले कि इस पर संशय करना समुचित नहीं है। किन्तु ऐसा नियम भी तो नहीं है। | मेरा इसे संशयातीत समझना महत्त्वपूर्ण नहीं है। किसी संशय के समुचित न होने का पता केवल मेरी जानकारी से तो नहीं चलता। अतः कोई ऐसा नियम होना चाहिए जिससे यह पता चले कि इस पर संशय करना समुचित नहीं है। किन्तु ऐसा नियम भी तो नहीं है। | ||
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{{ParUG|459}} यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय ‘धार्मिक विश्वास’ जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है। | {{ParUG|459}} यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय ‘धार्मिक विश्वास’ जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है। | ||
{{ParUG|460}} मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ “यह एक हाथ है न कि....; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।” क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि “यह एक हाथ है” ये शब्द कोई जानकारी देते तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते? वस्तुत:, ‘इसके हाथ होने’ पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? — किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं — चाहे वे विरल ही क्यों न हों — जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता। | {{ParUG|460}} मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ “यह एक हाथ है न कि....; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।” क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि “यह एक हाथ है” ये शब्द कोई जानकारी ''देते'' तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते? वस्तुत:, ‘इसके हाथ होने’ पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? — किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं — चाहे वे विरल ही क्यों न हों — जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता। | ||
{{ParUG|461}} मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: “हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर — वास्तव में एक हाथ है” और फिर अपनी चोट के बारे में बताए — तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है। | {{ParUG|461}} मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: “हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर — वास्तव में एक हाथ है” और फिर अपनी चोट के बारे में बताए — तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है। | ||
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4.4. | 4.4. | ||
{{ParUG|468}} बिना किसी संदर्भ के कोई कहता है, “वह एक पेड़ है”। वह इस वाक्य को बोल सकता है क्योंकि उसने ऐसी ही स्थिति में ऐसा सुना है; या फिर वह पेड़ की सुंदरता को देखकर स्तब्ध हो गया और यह वाक्य उसकी स्तब्धता की अभिव्यक्ति थी; या फिर वह इस वाक्य को किसी व्याकरण के उदाहरण के रूप में उच्चरित करता है; इत्यादि, इत्यादि। जब मैं उससे पूछता हूँ, “आपका क्या आशय था?” तो | {{ParUG|468}} बिना किसी संदर्भ के कोई कहता है, “वह एक पेड़ है”। वह इस वाक्य को बोल सकता है क्योंकि उसने ऐसी ही स्थिति में ऐसा सुना है; या फिर वह पेड़ की सुंदरता को देखकर स्तब्ध हो गया और यह वाक्य उसकी स्तब्धता की अभिव्यक्ति थी; या फिर वह इस वाक्य को किसी व्याकरण के उदाहरण के रूप में उच्चरित करता है; इत्यादि, इत्यादि। जब मैं उससे पूछता हूँ, “आपका क्या आशय था?” तो वह उत्तर देता है, “यह आपको जानकारी देने के लिए था”। तो क्या मैं यह मानने के लिए स्वतन्त्र नहीं हूँ कि यदि वह मुझे यह जानकारी देना चाहता है तो वह पागल है क्योंकि वह अपने कथन का अर्थ नहीं जानता? | ||
{{ParUG|469}} वार्तालाप के मध्य में कोई अचानक मुझे कहता है कि “आपको मेरी शुभकामनाएं”। मैं स्तब्ध रह जाता हूँ; किन्तु बाद में मुझे इन शब्दों से अपने प्रति उसकी भावनाओं का पता चलता है। और तब वे मुझे निरर्थक नहीं लगते। | {{ParUG|469}} वार्तालाप के मध्य में कोई अचानक मुझे कहता है कि “आपको मेरी शुभकामनाएं”। मैं स्तब्ध रह जाता हूँ; किन्तु बाद में मुझे इन शब्दों से अपने प्रति उसकी भावनाओं का पता चलता है। और तब वे मुझे निरर्थक नहीं लगते। | ||
{{ParUG|470}} मेरे लु.वि. सम्बोधन के बारे में कोई संशय क्यों नहीं है? यह कोई निर्भ्रान्त प्राक्कल्पना तो नहीं है। यह अकाट्य सत्य भी नहीं लगता। | {{ParUG|470}} मेरे '''लु.वि.''' सम्बोधन के बारे में कोई संशय क्यों नहीं है? यह कोई निर्भ्रान्त प्राक्कल्पना तो नहीं है। यह अकाट्य सत्य भी नहीं लगता। | ||
5.4. | 5.4. |