6,407
edits
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 201: | Line 201: | ||
{{PU box|क्या "लाल" शब्द की परिभाषा किसी ऐसी वस्तु को इंगित करके दी जा सकती है जो ''लाल'' न हो? ऐसा करना तो हिन्दी के ज्ञान में कमजोर व्यक्ति को "भद्र" शब्द का अर्थ बताने के लिए किसी घमंडी व्यक्ति को इंगित करके यह कहने के समान है कि "वह व्यक्ति भद्र ''नहीं'' है" । परिभाषा के ऐसे ढंग को अस्पष्ट कहना तो कोई तर्क नहीं है। किसी भी परिभाषा का गलत अर्थ लगाया जा सकता है। | {{PU box|क्या "लाल" शब्द की परिभाषा किसी ऐसी वस्तु को इंगित करके दी जा सकती है जो ''लाल'' न हो? ऐसा करना तो हिन्दी के ज्ञान में कमजोर व्यक्ति को "भद्र" शब्द का अर्थ बताने के लिए किसी घमंडी व्यक्ति को इंगित करके यह कहने के समान है कि "वह व्यक्ति भद्र ''नहीं'' है" । परिभाषा के ऐसे ढंग को अस्पष्ट कहना तो कोई तर्क नहीं है। किसी भी परिभाषा का गलत अर्थ लगाया जा सकता है। | ||
किन्तु यह भी तो पूछा जा सकता है: क्या हम इसे अभी भी "परिभाषा" ही कहेगें, — चाहे इसके एक जैसे ही व्यावहारिक परिणाम निकलते हों, चाहे इसका शिक्षार्थी पर एक जैसा ही ''प्रभाव'' पड़ता हो, तो भी "लाल" शब्द की "निदर्शनात्मक परिभाषा" से इसकी भूमिका भिन्न होगी।}} | किन्तु यह भी तो पूछा जा सकता है: क्या हम इसे अभी भी "परिभाषा" ही कहेगें, — चाहे इसके एक जैसे ही व्यावहारिक परिणाम निकलते हों, चाहे इसका शिक्षार्थी पर एक जैसा ही ''प्रभाव'' पड़ता हो, तो भी "लाल" शब्द की "निदर्शनात्मक परिभाषा" से इसकी भूमिका भिन्न होगी।}}आगामी स्थिति पर विचार कीजिए: मैं किसी को शतरंज की व्याख्या कर रहा हूँ और मैं आरंभ करता हूँ शतरंज के मोहरे को इंगित करके, और यह कह कर: "यह राजा है; इसकी चाल इस प्रकार होती है..... इत्यादि इत्यादि।" — ऐसी स्थिति में हम कहेंगे: "यह राजा है" (अथवा "इसे 'राजा' कहते हैं") शब्द केवल तभी परिभाषित होते हैं जब सीखने वाला पहले से ही 'जानता हो कि खेल में मोहरा क्या होता है'। अर्थात् यदि उसने पहले अन्य खेल खेले हैं, या फिर अन्य व्यक्तियों को खेलते हुए देखा है 'और समझा' है — और ऐसी ही बातें की हैं। तथा, केवल इन्हीं परिस्थितियों में वह खेल सीखने की प्रक्रिया में सुसंगत रूप से पूछ सकता है: "आप इसे क्या कहते हैं?" अर्थात् खेल में इस मोहरे को। | ||
हम कह सकते हैं: केवल वही व्यक्ति सार्थक रूप से नाम पूछ सकता है जो उसका उपयोग पहले से ही जानता हो। | |||
और हम कल्पना कर सकते हैं कि जिससे यह प्रश्न पूछा गया हो, उसका उत्तर हो: "नाम स्वयं निर्धारित कर लीजिए" — और अब प्रश्नकर्ता को सब कुछ अपने आप ही संभालना होगा। | |||
'''32.''' अपरिचित देश में आने वाला व्यक्ति वहाँ के निवासियों की भाषा कभी-कभी उनकी दी हुई निदर्शनात्मक परिभाषाओं से सीख जाएगा; पर अधिकतर उसे इन परिभाषाओं के अर्थ का ''अनुमान'' करना होगा; और उसका अनुमान कभी ठीक और कभी गलत होगा । | |||
और, अब मैं समझता हूँ, हम कह सकते हैं: ऑगस्टीन का मानव - भाषा सीखने का विवरण कुछ इस प्रकार का है मानो बच्चा किसी अपरिचित देश में आ गया हो और उस देश की भाषा को न समझता हो; अर्थात् मानो वह पहले से ही कोई अन्य भाषा जानता हो, किन्तु इसे नहीं । अथवा फिरः मानो बच्चा पहले से ही ''सोच'' सकता हो, बस अभी बोल न सकता हो। और "सोचना" का अर्थ यहाँ कुछ "अपने आप से बातें करना" जैसा होगा। | |||
'''33.''' मान लीजिए कि कोई आपत्ति उठाए: “यह सत्य नहीं कि किसी निदर्शनात्मक परिभाषा को समझने के लिए आपको पहले से ही किसी भाषा में दक्ष होना आवश्यक है: उसे समझने के लिए — निस्संदेह — आपको आवश्यकता है केवल यह जानने या अनुमान लगाने की कि व्याख्या देने वाला व्यक्ति किसको इंगित कर रहा है । वह, उदाहरणार्थ, वस्तु की आकृति को, या उसके रंग को या उसकी संख्या इत्यादि को इंगित कर रहा है"। — और 'आकृति को इंगित करना', 'रंग को इंगित | |||
करना' क्या होता है? कागज के टुकड़े को इंगित कीजिए — और अब उसकी आकृति को इंगित कीजिए — अब उसके रंग को — अब उसकी संख्या को (यह अटपटा लगता है) — आपने ऐसा क्यों किया? — आप कहेंगे कि आपने जब भी इंगित किया हर बार आपका 'अर्थ' भिन्न था। और यदि मैं पूछूं कि ऐसा कैसे किया जाता है तो आप कहेंगे कि आपने अपना ध्यान रंग पर, आकृति इत्यादि पर केन्द्रित किया। परन्तु मैं फिर पूछता हूँ: ''यह'' कैसे किया जा सकता है? | |||
मान लीजिए कि कोई किसी फूलदान को इंगित करता है और कहता है "इस अद्भुत नीले रंग को देखिए — आकृति की बात नहीं" — अथवाः “अद्भुत आकृति को देखिए — रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता।" निस्संदेह इन दो आह्नानों पर आपकी प्रतिक्रिया ''भिन्न'' होगी। परन्तु जब आप रंग पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं तो क्या सदैव आप की क्रिया ''एक'' ही होती है? विभिन्न स्थितियों की कल्पना कीजिए। जैसे कि: | |||
"क्या यह नीला वैसा ही है जैसा वह नीला? क्या आप कोई अन्तर देखते हैं?" — | |||
रंग-द्रव्य मिलाते हुए आप कहते हैं, "आकाश के इस नीले रंग जैसा रंग बना पाना कठिन है"। | |||
"मौसम बदल रहा है, अब तो आप फिर से नीला आकाश देख सकते हैं।" | |||
"देखिए इन दो नीले रंगों के प्रभाव कितने भिन्न हैं।" | |||
"क्या आपको वहाँ नीली पुस्तक दिखाई देती है? उसे यहाँ ले आइए।" | |||
" इस नीले प्रकाश-संकेत का अर्थ है...." | |||
"यह नीला क्या कहलाता है? – क्या यह 'जामुनी' है?" | |||
कभी-कभी रंग पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए आप अपने हाथों से आकृति ढांप लेते हैं; या फिर आकृति की ओर देखते ही नहीं; कई बार वस्तु की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए यह स्मरण करने की चेष्टा करते हैं कि आपने वह रंग पहले कहाँ देखा था। | |||
आप आकृति पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कभी तो उसका अनुरेखन करके, कभी रंग प्रत्यक्ष से बचने के लिए अपने आँखें मींच-मिंचा कर, या और भी अनेक प्रकार से। मैं यह कहना चाहता हूँ: कुछ ऐसा ही होता है जब कोई 'अपना ध्यान इस पर या उस पर केन्द्रित करता है'। परन्तु इन सब से हमें यह कहने का आधार नहीं मिलता कि कोई व्यक्ति आकृति पर रंग इत्यादि पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है। जैसे शतरंज की कोई चाल न तो किसी मोहरे का शतरंज पटल पर अमुक-अमुक ढंग से चलाना मात्र होता है — और न ही चाल चलते समय चलने वाले व्यक्ति के विचारों या भावों का कोई समूहः बल्कि शतरंज की चाल तो उन परिस्थितियों में ही चाल होती है जिन्हें हम "शतरंज का खेल खेलना", "शतरंज की समस्या का हल" इत्यादि कहते हैं। | |||
'''34.''' परन्तु यदि कोई कहे "मैं जब भी आकृति पर ध्यान देता हूँ: मेरी आँखें रूपरेखा का अनुगमन करती हैं और मुझे आभास होता है कि...."। और यदि वह व्यक्ति किसी वृत्ताकार वस्तु को इंगित करते हुए और उन सभी अनुभूतियों सहित “उसे 'वृत्त' कहते हैं" ऐसा कहकर निदर्शनात्मक परिभाषा किसी को दे — तो क्या इस परिभाषा को श्रोता इससे अन्यथा नहीं समझ सकता यद्यपि वह उसकी आँखों को रूपरेखा का अनुगमन करते हुए देखता है, और यद्यपि उसकी भी वही अनुभूति है जो दूसरे की है? अर्थात् : इस 'व्याख्या' से यह भी तात्पर्य हो सकता है कि वह इस शब्द को अब कैसे प्रयोग करता है; उदाहरणार्थ "वृत्त को इंगित करो" कहने पर वह किसको इंगित करता है। — क्योंकि न तो "परिभाषा से अमुक ढंग का अभिप्राय होना" यह अभिव्यक्ति और न ही "परिभाषा की अमुक ढंग से व्याख्या करना" यह अभिव्यक्ति किसी ऐसी प्रक्रिया की अभिव्यक्ति है जिस का परिभाषा देने अथवा सुनने के साथ साहचर्य-सम्बन्ध हो। | |||
'''35.''' निस्संदेह ऐसे अनुभव तो हैं जिन्हें (उदाहरणार्थ) आकृति को इंगित करने "विशिष्ट अनुभव" कहा जा सकता है; उदाहरणार्थ, इंगित करते समय अपनी उंगलियों अथवा नेत्रों से रूपरेखा का अनुगमन करना। — किन्तु न तो सदैव ''ऐसा'' होता है जब 'तात्पर्य वह आकृति होता है' और न ही कोई अन्य विशिष्ट प्रक्रिया इन सभी स्थितियों में घटित होती है। — और यदि सदैव ऐसी पुनरावृत्ति होती भी हो तो भी यह कहना निर्भर करेगा उन परिस्थितियों पर — अर्थात्, इस पर कि इंगित करने से पूर्व और उसके पश्चात क्या हुआ — जिनमें हम कह सकें: "उसने तो आकृति को इंगित किया, रंग को नहीं"। | |||
क्योंकि "आकृति को इंगित करना", "आकृति का तात्पर्य होना" इत्यादि शब्दों उसी प्रकार प्रयोग नहीं किया जाता जिस प्रकार ''इनको'': "इस पुस्तक को (न कि उसको) इंगित करना", "कुर्सी को इंगित करना न कि मेज को", इत्यादि। इतना ही सोचिए कि "इस वस्तु को इंगित करना", "उस वस्तु को इंगित करना" शब्दों का प्रयोग सीखने और दूसरी ओर “रंग को, न कि आकृति को इंगित करना", "रंग का तात्पर्य होना", इत्यादि शब्दों का प्रयोग ''सीखने'' में कितनी भिन्नता है। | |||
यानी: कुछ स्थितियों — विशेषकर जिनमें कोई 'आकृति को', 'संख्या को' इंगित करता है — में विशिष्ट अनुभव तथा इंगित करने के ढंग होते हैं — 'विशिष्ट' इसलिए |