फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस: Difference between revisions

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'''1.''' "जब मेरे अग्रज किसी वस्तु का नाम पुकार कर उस वस्तु की ओर चले तो मैंने यह देखा और समझ गया कि उस वस्तु को उस ध्वनि से जाना जाता है जिसे उन्होंने उस वस्तु को इंगित करने के लिए उच्चारित किया। उनकी शारीरिक गतिविधियों, जैसे कि चेहरे के हाव-भाव, आँखों का संचालन, शरीर के दूसरे अंगों की हरकतें और उनके स्वर के आरोह-अवरोह, से उनके आशय का पता चलता है। इन भंगिमाओं और गतिविधियों से हमारी मानसिक अवस्था, जैसे कि किसी वस्तु को खोजने की, उसके मिल जाने की, उसे नकारने की या फिर उस से बचे रहने की भी अभिव्यक्ति होती है। इस प्रकार जब मैंने बार-बार शब्दों को उनके उचित स्थानों पर विविध वाक्यों में प्रयुक्त होते हुए सुना तो मैं शनैः-शनैः सीख गया कि वे किन वस्तुओं के प्रतीक हैं, और जब मैंने अपने मुँह से वैसी ध्वनि निकालना सीख लिया तो मैं भी उनका प्रयोग अपनी इच्छा को व्यक्त करने के लिए करने लगा।" (ऑगस्टीन, ''कन्फैशंस'', 1.8)
'''1.''' “जब मेरे अग्रज किसी वस्तु का नाम पुकार कर उस वस्तु की ओर चले तो मैंने यह देखा और समझ गया कि उस वस्तु को उस ध्वनि से जाना जाता है जिसे उन्होंने उस वस्तु को इंगित करने के लिए उच्चारित किया। उनकी शारीरिक गतिविधियों, जैसे कि चेहरे के हाव-भाव, आँखों का संचालन, शरीर के दूसरे अंगों की हरकतें और उनके स्वर के आरोह-अवरोह, से उनके आशय का पता चलता है। इन भंगिमाओं और गतिविधियों से हमारी मानसिक अवस्था, जैसे कि किसी वस्तु को खोजने की, उसके मिल जाने की, उसे नकारने की या फिर उस से बचे रहने की भी अभिव्यक्ति होती है। इस प्रकार जब मैंने बार-बार शब्दों को उनके उचित स्थानों पर विविध वाक्यों में प्रयुक्त होते हुए सुना तो मैं शनैः-शनैः सीख गया कि वे किन वस्तुओं के प्रतीक हैं, और जब मैंने अपने मुँह से वैसी ध्वनि निकालना सीख लिया तो मैं भी उनका प्रयोग अपनी इच्छा को व्यक्त करने के लिए करने लगा।” (ऑगस्टीन, ''कन्फैशंस'', 1.8)


मुझे ऐसा लगता है कि इन शब्दों में मानव-भाषा के सार का एक विशेष चित्रण है। इसके अनुसार भाषा का प्रत्येक शब्द तो किसी वस्तु का नाम है, तथा वाक्य ऐसे नामों के समूह हैं। — भाषा के इस चित्रण में हमें इस विचार का उद्गम मिलता है कि प्रत्येक शब्द का कोई अर्थ होता है। यह अर्थ उस शब्द से जुड़ा होता है। शब्द तो वस्तु का ही प्रतीक है।
मुझे ऐसा लगता है कि इन शब्दों में मानव-भाषा के सार का एक विशेष चित्रण है। इसके अनुसार भाषा का प्रत्येक शब्द तो किसी वस्तु का नाम है, तथा वाक्य ऐसे नामों के समूह हैं। — भाषा के इस चित्रण में हमें इस विचार का उद्गम मिलता है कि प्रत्येक शब्द का कोई अर्थ होता है। यह अर्थ उस शब्द से जुड़ा होता है। शब्द तो वस्तु का ही प्रतीक है।


विभिन्न शब्द-प्रकारों के अन्तर के अस्तित्व के बारे में तो ऑगस्टीन कुछ कहते ही नहीं। मेरे विचार से यदि आप भाषा को इस प्रकार निरूपित करते हैं तो आप मुख्य रूप से संज्ञा, — जैसे "मेज", "कुर्सी", "रोटी" एवं लोगों के नामों — के बारे में ही सोचते हैं, और केवल अपरोक्ष रूप से ही कुछ विशेष कार्यों एवं गुणों के नामों के बारे में सोचते हैं, और शेष शब्द-प्रकारों के बारे में कुछ भी सोचते ही नहीं।
विभिन्न शब्द-प्रकारों के अन्तर के अस्तित्व के बारे में तो ऑगस्टीन कुछ कहते ही नहीं। मेरे विचार से यदि आप भाषा को इस प्रकार निरूपित करते हैं तो आप मुख्य रूप से संज्ञा, — जैसे “मेज”, “कुर्सी”, “रोटी” एवं लोगों के नामों — के बारे में ही सोचते हैं, और केवल अपरोक्ष रूप से ही कुछ विशेष कार्यों एवं गुणों के नामों के बारे में सोचते हैं, और शेष शब्द-प्रकारों के बारे में कुछ भी सोचते ही नहीं।


अब भाषा के निम्नलिखित प्रयोग के बारे में सोचिए: मैं किसी को खरीददारी के लिए बाजार भेजता हूँ। मैं उसे "पाँच लाल सेब" लिखा हुआ पर्चा देता हूँ। वह उसे लेकर दुकानदार के पास जाता है। दुकानदार "सेब" लिखे हुए खाने को खोलता है; फिर वह सारिणी में "लाल" शब्द को देखता है जिस के सामने एक रंग का नमूना है; और फिर वह "पाँच" शब्द आने तक गिनती गिनता है — मैं मानता हूँ कि उसने गिनती कण्ठस्थ कर रखी है और वह गिनती के प्रत्येक पग पर खाने में से एक सेब रंग वाले नमूने के साथ मिलाकर निकालता है। — इस प्रकार और इससे मिलते जुलते ढंग से ही हम शब्दों से काम चलाते हैं — “लेकिन उसे कैसे पता चलता है कि उसे कहाँ और कैसे 'लाल' शब्द का अर्थ ढूँढना है और उसे 'पाँच' शब्द के साथ क्या करना है?" बहरहाल मैं समझता हूँ कि वह वैसा ही ''करता'' है जैसे मैंने कहा है। व्याख्याओं का कहीं न कहीं तो अन्त होता ही है। — परन्तु "पाँच" शब्द का अर्थ क्या है? — इस प्रकार का कोई प्रश्न यहाँ नहीं उठता, प्रश्न तो यह है कि "पाँच" शब्द का प्रयोग कैसे किया जाता है।
अब भाषा के निम्नलिखित प्रयोग के बारे में सोचिए: मैं किसी को खरीददारी के लिए बाजार भेजता हूँ। मैं उसे “पाँच लाल सेब” लिखा हुआ पर्चा देता हूँ। वह उसे लेकर दुकानदार के पास जाता है। दुकानदार “सेब” लिखे हुए खाने को खोलता है; फिर वह सारिणी में “लाल” शब्द को देखता है जिस के सामने एक रंग का नमूना है; और फिर वह “पाँच” शब्द आने तक गिनती गिनता है — मैं मानता हूँ कि उसने गिनती कण्ठस्थ कर रखी है और वह गिनती के प्रत्येक पग पर खाने में से एक सेब रंग वाले नमूने के साथ मिलाकर निकालता है। — इस प्रकार और इससे मिलते जुलते ढंग से ही हम शब्दों से काम चलाते हैं — “लेकिन उसे कैसे पता चलता है कि उसे कहाँ और कैसे 'लाल' शब्द का अर्थ ढूँढना है और उसे 'पाँच' शब्द के साथ क्या करना है?बहरहाल मैं समझता हूँ कि वह वैसा ही ''करता'' है जैसे मैंने कहा है। व्याख्याओं का कहीं न कहीं तो अन्त होता ही है। — परन्तु ”पाँच“ शब्द का अर्थ क्या है? — इस प्रकार का कोई प्रश्न यहाँ नहीं उठता, प्रश्न तो यह है कि ”पाँच" शब्द का प्रयोग कैसे किया जाता है।


'''2.''' अर्थ का यह दार्शनिक प्रत्यय भाषा के प्रयोग के बारे में किये गए आदिम चिंतन में पाया जाता है। परन्तु यह भी कहा जा सकता है कि भाषा का यह निरूपण हमारी भाषा से भी अधिक आदिम भाषा का है।
'''2.''' अर्थ का यह दार्शनिक प्रत्यय भाषा के प्रयोग के बारे में किये गए आदिम चिंतन में पाया जाता है। परन्तु यह भी कहा जा सकता है कि भाषा का यह निरूपण हमारी भाषा से भी अधिक आदिम भाषा का है।


आइए हम ऐसी भाषा की कल्पना करें जो ऑगस्टीन के विवरण के अनुरूप हो। यह भाषा एक गृहनिर्माण करने वाले राजमिस्त्री '''क''' एवं उसके सहायक '''ख''' के बीच ''संलाप'' के लिए है। '''क''' निर्माण-पत्थरों से निर्माण कर रहा है: उनमें गुटके, खम्बे पट्टियाँ और कड़ियाँ हैं। '''ख''' का काम '''क''' की आवश्यकता के क्रम में, '''क''' को पत्थर देना है। इस हेतु वे एक ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं जिसमें "गुटका", "खम्बा", "पट्टी", "कड़ी" शब्द आते हैं। '''क''' इन शब्दों को बोलता है; — '''ख''' उस पत्थर को ले आता है जो कि उसने उस शब्द के उच्चारण पर लाना सीखा है। — इसे एक संपूर्ण आदिम भाषा समझिए।
आइए हम ऐसी भाषा की कल्पना करें जो ऑगस्टीन के विवरण के अनुरूप हो। यह भाषा एक गृहनिर्माण करने वाले राजमिस्त्री '''क''' एवं उसके सहायक '''ख''' के बीच ''संलाप'' के लिए है। '''क''' निर्माण-पत्थरों से निर्माण कर रहा है: उनमें गुटके, खम्बे पट्टियाँ और कड़ियाँ हैं। '''ख''' का काम '''क''' की आवश्यकता के क्रम में, '''क''' को पत्थर देना है। इस हेतु वे एक ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं जिसमें “गुटका”, “खम्बा”, “पट्टी”, “कड़ी” शब्द आते हैं। '''क''' इन शब्दों को बोलता है; — '''ख''' उस पत्थर को ले आता है जो कि उसने उस शब्द के उच्चारण पर लाना सीखा है। — इसे एक संपूर्ण आदिम भाषा समझिए।


'''3.''' यहाँ हम कह सकते हैं कि ऑगस्टीन किसी संलाप-व्यवस्था का उदाहरण देते हैं; किन्तु भाषा कहलाने वाला प्रत्येक क्रिया-कलाप ऐसी व्यवस्था नहीं होता। और उन बहुत सी स्थितियों में जिनमें यह प्रश्न उठता है: "क्या यह एक उपयुक्त विवरण है या नहीं?" यही कहना पड़ता है: “हाँ यह उपयुक्त है, किन्तु केवल संकीर्ण सीमित क्षेत्र के लिए, न कि उस सारे क्षेत्र के लिए जिसका आप वर्णन करने का दावा कर रहे थे।"
'''3.''' यहाँ हम कह सकते हैं कि ऑगस्टीन किसी संलाप-व्यवस्था का उदाहरण देते हैं; किन्तु भाषा कहलाने वाला प्रत्येक क्रिया-कलाप ऐसी व्यवस्था नहीं होता। और उन बहुत सी स्थितियों में जिनमें यह प्रश्न उठता है: “क्या यह एक उपयुक्त विवरण है या नहीं?यही कहना पड़ता है: “हाँ यह उपयुक्त है, किन्तु केवल संकीर्ण सीमित क्षेत्र के लिए, न कि उस सारे क्षेत्र के लिए जिसका आप वर्णन करने का दावा कर रहे थे।"


यह ऐसा ही होगा जैसे कि कोई कहे: "किसी खेल को खेलना तो कुछ वस्तुओं को नियमानुसार एक पटल पर घुमाना फिराना भर ही होता है......" — और हम उत्तर दें: आप केवल पटल पर खेले जाने वाले खेलों के बारे में ही सोचते जान पड़ते हैं, किन्तु अन्य प्रकार के खेल भी होते हैं। आप अपनी परिभाषा को संशोधित कर सकते हैं, उसे उन्हीं खेलों तक स्पष्टतः सीमित करके जिन पर आपकी परिभाषा लागू होती है।
यह ऐसा ही होगा जैसे कि कोई कहे: “किसी खेल को खेलना तो कुछ वस्तुओं को नियमानुसार एक पटल पर घुमाना फिराना भर ही होता है......— और हम उत्तर दें: आप केवल पटल पर खेले जाने वाले खेलों के बारे में ही सोचते जान पड़ते हैं, किन्तु अन्य प्रकार के खेल भी होते हैं। आप अपनी परिभाषा को संशोधित कर सकते हैं, उसे उन्हीं खेलों तक स्पष्टतः सीमित करके जिन पर आपकी परिभाषा लागू होती है।


'''4.''' किसी ऐसी लिपि की कल्पना कीजिए जिसमें अक्षर ध्वनियों के नाम होने के साथ-साथ विराम-चिह्न एवं जोर देने के चिह्न भी हों। (लिपि को ध्वनि-व्यवस्थाओं का वर्णन देने की भाषा के रूप में भी समझा जा सकता है।) अब कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति यूँ समझे कि यह लिपि अक्षरों एवं ध्वनियों का साहचर्य मात्र है तथा उन अक्षरों का अन्य कोई कार्य ही नहीं है। इस लिपि जैसी अति सरल संकल्पना जैसी ही है ऑगस्टीन की भाषा संबंधी संकल्पना।
'''4.''' किसी ऐसी लिपि की कल्पना कीजिए जिसमें अक्षर ध्वनियों के नाम होने के साथ-साथ विराम-चिह्न एवं जोर देने के चिह्न भी हों। (लिपि को ध्वनि-व्यवस्थाओं का वर्णन देने की भाषा के रूप में भी समझा जा सकता है।) अब कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति यूँ समझे कि यह लिपि अक्षरों एवं ध्वनियों का साहचर्य मात्र है तथा उन अक्षरों का अन्य कोई कार्य ही नहीं है। इस लिपि जैसी अति सरल संकल्पना जैसी ही है ऑगस्टीन की भाषा संबंधी संकल्पना।
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'''6.''' हम कल्पना कर सकते हैं कि §2 में वर्णित भाषा '''क''' एवं '''ख''' की, अपितु किसी जन-जाति की ''सम्पूर्ण'' भाषा है। बच्चों को यही सिखाया जाता है कि ''यही'' कार्य करें, उनको करते हुए ''इन्हीं'' शब्दों का प्रयोग करें, और दूसरे के शब्दों पर ''यही'' प्रतिक्रिया करें।
'''6.''' हम कल्पना कर सकते हैं कि §2 में वर्णित भाषा '''क''' एवं '''ख''' की, अपितु किसी जन-जाति की ''सम्पूर्ण'' भाषा है। बच्चों को यही सिखाया जाता है कि ''यही'' कार्य करें, उनको करते हुए ''इन्हीं'' शब्दों का प्रयोग करें, और दूसरे के शब्दों पर ''यही'' प्रतिक्रिया करें।


अध्यापक का वस्तुओं को इंगित करते हुए, बच्चों का ध्यान उस ओर आकृष्ट करना और ऐसा करते समय किसी शब्द का उच्चारण करना इस प्रशिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है; उदाहरणार्थ "पट्टी" शब्द का उच्चारण करते हुए उचित आकार की ओर इंगित करना। (मैं इसे "निदर्शनात्मक परिभाषा" नहीं कहना चाहता क्योंकि बच्चा अभी यह नहीं पूछ सकता कि इसका नाम क्या है। मैं इसे शब्दों का "निदर्शनात्मक शिक्षण" कहूँगा। — मैं कहता हूँ कि यह प्रशिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है; इसलिए नहीं कि इसके अलावा प्रशिक्षण के किसी अन्य प्रकार की कल्पना नहीं की जा सकती बल्कि इसलिए कि मानव-जाति के साथ होता ऐसा ही है।) यह कहा जा सकता है कि शब्दों का निदर्शनात्मक प्रशिक्षण शब्द और विषय का साहचर्य स्थापित करता है। परन्तु इसका अर्थ क्या है? इसके तो अनेक अर्थ हो सकते हैं; सर्वप्रथम तो हम संभवतः यही सोचेंगे कि किसी शब्द के सुनने पर बच्चे के मानस पटल पर उस विषय का चित्र उभर आता है। किन्तु यदि ऐसा होता भी हो, तो भी — क्या शब्द का प्रयोजन यही है? — हाँ यह प्रयोजन ''भी हो सकता'' है। — मैं शब्दों के (ध्वनियों की एक श्रृंखला के) ऐसे प्रयोग की कल्पना कर सकता हूँ। (शब्द का उच्चारण करना तो कल्पना के स्वर-मण्डल पर स्वर को छेड़ने जैसा ही है। परन्तु §2 की भाषा में शब्दों का प्रयोजन बिम्बोद्दीपन तो नहीं है। (हालांकि संभव है कि हमें आगे चलकर पता चले कि बिम्बोद्दीपन भाषा के वास्तविक प्रयोजन को समझने में सहायक हो सकता है।)
अध्यापक का वस्तुओं को इंगित करते हुए, बच्चों का ध्यान उस ओर आकृष्ट करना और ऐसा करते समय किसी शब्द का उच्चारण करना इस प्रशिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है; उदाहरणार्थ “पट्टी” शब्द का उच्चारण करते हुए उचित आकार की ओर इंगित करना। (मैं इसे “निदर्शनात्मक परिभाषा” नहीं कहना चाहता क्योंकि बच्चा अभी यह नहीं पूछ सकता कि इसका नाम क्या है। मैं इसे शब्दों का “निदर्शनात्मक शिक्षण” कहूँगा। — मैं कहता हूँ कि यह प्रशिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है; इसलिए नहीं कि इसके अलावा प्रशिक्षण के किसी अन्य प्रकार की कल्पना नहीं की जा सकती बल्कि इसलिए कि मानव-जाति के साथ होता ऐसा ही है।) यह कहा जा सकता है कि शब्दों का निदर्शनात्मक प्रशिक्षण शब्द और विषय का साहचर्य स्थापित करता है। परन्तु इसका अर्थ क्या है? इसके तो अनेक अर्थ हो सकते हैं; सर्वप्रथम तो हम संभवतः यही सोचेंगे कि किसी शब्द के सुनने पर बच्चे के मानस पटल पर उस विषय का चित्र उभर आता है। किन्तु यदि ऐसा होता भी हो, तो भी — क्या शब्द का प्रयोजन यही है? — हाँ यह प्रयोजन ''भी हो सकता'' है। — मैं शब्दों के (ध्वनियों की एक श्रृंखला के) ऐसे प्रयोग की कल्पना कर सकता हूँ। (शब्द का उच्चारण करना तो कल्पना के स्वर-मण्डल पर स्वर को छेड़ने जैसा ही है। परन्तु §2 की भाषा में शब्दों का प्रयोजन बिम्बोद्दीपन तो नहीं है। (हालांकि संभव है कि हमें आगे चलकर पता चले कि बिम्बोद्दीपन भाषा के वास्तविक प्रयोजन को समझने में सहायक हो सकता है।)


परन्तु यदि निदर्शनात्मक शिक्षण का ऐसा परिणाम है — तो क्या यह कहना होगा कि इस से शाब्द-बोध प्रभावित होता है? क्या आप "पट्टी", कथन को नहीं समझते जब आप इस कथन को सुनकर अमुक कार्य करने लगते हैं? — बेशक, निदर्शनात्मक शिक्षण ऐसा करने में सहायक तो हुआ, परन्तु विशेष प्रशिक्षण के संयोग के साथ ही। अन्य प्रशिक्षण के साथ, इन्हीं शब्दों का वही निदर्शनात्मक शिक्षण नितान्त भिन्न बोध कराने वाला होता।
परन्तु यदि निदर्शनात्मक शिक्षण का ऐसा परिणाम है — तो क्या यह कहना होगा कि इस से शाब्द-बोध प्रभावित होता है? क्या आप “पट्टी”, कथन को नहीं समझते जब आप इस कथन को सुनकर अमुक कार्य करने लगते हैं? — बेशक, निदर्शनात्मक शिक्षण ऐसा करने में सहायक तो हुआ, परन्तु विशेष प्रशिक्षण के संयोग के साथ ही। अन्य प्रशिक्षण के साथ, इन्हीं शब्दों का वही निदर्शनात्मक शिक्षण नितान्त भिन्न बोध कराने वाला होता।


"मैं छड़ और टेकन को जोड़कर एक ब्रेक बना देता हूँ" — हाँ, तभी जब कि शेष यन्त्र उपलब्ध हों। उस पूरे यन्त्र के साथ तो यह ब्रेक-टेकन है, परन्तु उससे वियुक्त होकर तो वह टेकन भी नहीं। ऐसी अवस्था में तो यह कुछ भी हो सकता है — या फिर कुछ भी नहीं।
“मैं छड़ और टेकन को जोड़कर एक ब्रेक बना देता हूँ” — हाँ, तभी जब कि शेष यन्त्र उपलब्ध हों। उस पूरे यन्त्र के साथ तो यह ब्रेक-टेकन है, परन्तु उससे वियुक्त होकर तो वह टेकन भी नहीं। ऐसी अवस्था में तो यह कुछ भी हो सकता है — या फिर कुछ भी नहीं।


'''7.''' §2 की भाषा के वास्तविक प्रयोग में कोई व्यक्ति तो शब्दों का उच्चारण करता है, और कोई अन्य व्यक्ति उन पर अमल करता है। इस भाषा को सिखाने में इस तरह की प्रक्रिया होगी: शिक्षार्थी विषयों के नाम बोलता है; यानी जब अध्यापक पत्थर की ओर इशारा करता है तो शिक्षार्थी उस शब्द का उच्चारण करता है। — और इससे भी अधिक सरल प्रक्रिया होगी: शिक्षार्थी अध्यापक के शब्दों को दोहराता है — ये दोनों ही भाषा से मिलती-जुलती प्रक्रियाएं हैं।
'''7.''' §2 की भाषा के वास्तविक प्रयोग में कोई व्यक्ति तो शब्दों का उच्चारण करता है, और कोई अन्य व्यक्ति उन पर अमल करता है। इस भाषा को सिखाने में इस तरह की प्रक्रिया होगी: शिक्षार्थी विषयों के नाम बोलता है; यानी जब अध्यापक पत्थर की ओर इशारा करता है तो शिक्षार्थी उस शब्द का उच्चारण करता है। — और इससे भी अधिक सरल प्रक्रिया होगी: शिक्षार्थी अध्यापक के शब्दों को दोहराता है — ये दोनों ही भाषा से मिलती-जुलती प्रक्रियाएं हैं।


हम §2 के शब्दों की प्रयोगविधि की पूर्ण प्रक्रिया को उन खेलों में से एक खेल मान सकते हैं जिनसे बच्चे अपनी मातृभाषा सीखते हैं। मैं इन खेलों को "भाषा-खेल" कहूँगा, और कभी-कभी किसी आदिम भाषा को भी भाषा-खेल कहूँगा।
हम §2 के शब्दों की प्रयोगविधि की पूर्ण प्रक्रिया को उन खेलों में से एक खेल मान सकते हैं जिनसे बच्चे अपनी मातृभाषा सीखते हैं। मैं इन खेलों को “भाषा-खेल” कहूँगा, और कभी-कभी किसी आदिम भाषा को भी भाषा-खेल कहूँगा।


और पत्थरों के नाम बोलने एवं अन्य व्यक्तियों के द्वारा बोले गए शब्दों को दोहराने की प्रक्रियाएं भी भाषा-खेल कही जा सकती हैं। रिंग-ए-रिंग-ए-रोजिज़ जैसे खेलों में शब्दों के प्रयोग के बारे में सोचिए।
और पत्थरों के नाम बोलने एवं अन्य व्यक्तियों के द्वारा बोले गए शब्दों को दोहराने की प्रक्रियाएं भी भाषा-खेल कही जा सकती हैं। रिंग-ए-रिंग-ए-रोजिज़ जैसे खेलों में शब्दों के प्रयोग के बारे में सोचिए।


भाषा और उसके साथ गंथी हुई क्रियाओं के साकल्य को भी मैं "भाषा-खेल" कहूँगा।
भाषा और उसके साथ गंथी हुई क्रियाओं के साकल्य को भी मैं “भाषा-खेल” कहूँगा।


'''8.''' आइए अब हम §2 के किसी भाषा-विस्तार का निरीक्षण करें। मान लीजिए कि उसमें "गुटका", "खम्बा" इत्यादि चार शब्दों के अतिरिक्त अब उन शब्दों की श्रृंखला भी है जिनका प्रयोग वही है जो कि 81 में दुकानदार द्वारा किए गए अंकों का प्रयोग है (यह वर्णमाला के अक्षरों की श्रृंखला भी हो सकती है)। और मान लीजिए कि उसमें संकेत-भंगिमा से जुड़े दो और शब्द हैं जो "यह" एवं "वहाँ" भी हो सकते
'''8.''' आइए अब हम §2 के किसी भाषा-विस्तार का निरीक्षण करें। मान लीजिए कि उसमें “गुटका”, “खम्बा” इत्यादि चार शब्दों के अतिरिक्त अब उन शब्दों की श्रृंखला भी है जिनका प्रयोग वही है जो कि 81 में दुकानदार द्वारा किए गए अंकों का प्रयोग है (यह वर्णमाला के अक्षरों की श्रृंखला भी हो सकती है)। और मान लीजिए कि उसमें संकेत-भंगिमा से जुड़े दो और शब्द हैं जो “यह” एवं “वहाँ” भी हो सकते


हैं (क्योंकि इससे उनका प्रयोग मोटे तौर पर इंगित होता है); और अन्ततः मान लीजिए उसमें रंगों के कई नमूने भी हैं। "'''ई'''-पट्टियाँ-वहाँ" जैसा आदेश '''क''' देता है। इसी के साथ-साथ वह अपने सहायक को रंग का एक नमूना दिखाता है, और जब वह "वहाँ” कहता है तो निर्माण-स्थल के किसी स्थान की ओर संकेत भी करता है। '''ई''' पर्यन्त वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर के लिए '''ख''' पट्टियों के ढेर में से, नमूने के रंग की पट्टियां निकालता है और उन्हें '''क''' के द्वारा दिखाए गए स्थान पर लाता है। — अन्य अवसरों पर क आदेश देता है: "यह वहाँ"। "यह" कहने के साथ-साथ वह किसी निर्माण-पत्थर की ओर संकेत करता है। और इसी प्रकार के कई अन्य आदेश देता है।
हैं (क्योंकि इससे उनका प्रयोग मोटे तौर पर इंगित होता है); और अन्ततः मान लीजिए उसमें रंगों के कई नमूने भी हैं। '''ई'''-पट्टियाँ-वहाँ” जैसा आदेश '''क''' देता है। इसी के साथ-साथ वह अपने सहायक को रंग का एक नमूना दिखाता है, और जब वह “वहाँ” कहता है तो निर्माण-स्थल के किसी स्थान की ओर संकेत भी करता है। '''ई''' पर्यन्त वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर के लिए '''ख''' पट्टियों के ढेर में से, नमूने के रंग की पट्टियां निकालता है और उन्हें '''क''' के द्वारा दिखाए गए स्थान पर लाता है। — अन्य अवसरों पर क आदेश देता है: ”यह वहाँ“। ”यह" कहने के साथ-साथ वह किसी निर्माण-पत्थर की ओर संकेत करता है। और इसी प्रकार के कई अन्य आदेश देता है।


'''9.''' जब कोई बच्चा इस भाषा को सीखता है तो उसे 'अंक' शृंखला '''अ''', '''आ''', '''इ''', '''ई''',... को कंठस्थ करना पड़ता है। और उसे उनका प्रयोग भी सीखना पड़ता है। — क्या इस प्रशिक्षण में इन शब्दों का निदर्शनात्मक प्रशिक्षण सम्मिलित होगा? — उदाहरणार्थ, लोग पट्टियों की ओर संकेत करके गिनेंगेः "अ, आ, इ..." पट्टियां। — गणना के लिए प्रयुक्त होने की बजाय, तत्काल दिखाई देने वाले विषय-समूहों को इंगित करने वाले अंकों का निदर्शनात्मक शिक्षण, "गुटका", "खम्बा" इत्यादि शब्दों के निदर्शनात्मक शिक्षण जैसा ही होता है। बच्चे प्रथम पाँच या छः अंक इसी प्रकार सीखते हैं।
'''9.''' जब कोई बच्चा इस भाषा को सीखता है तो उसे 'अंक' शृंखला '''अ''', '''आ''', '''इ''', '''ई''',... को कंठस्थ करना पड़ता है। और उसे उनका प्रयोग भी सीखना पड़ता है। — क्या इस प्रशिक्षण में इन शब्दों का निदर्शनात्मक प्रशिक्षण सम्मिलित होगा? — उदाहरणार्थ, लोग पट्टियों की ओर संकेत करके गिनेंगेः “अ, आ, इ...पट्टियां। — गणना के लिए प्रयुक्त होने की बजाय, तत्काल दिखाई देने वाले विषय-समूहों को इंगित करने वाले अंकों का निदर्शनात्मक शिक्षण, “गुटका”, “खम्बा” इत्यादि शब्दों के निदर्शनात्मक शिक्षण जैसा ही होता है। बच्चे प्रथम पाँच या छः अंक इसी प्रकार सीखते हैं।


क्या "वहाँ" और "यह" भी निदर्शनात्मक विधि से सिखाए जाते हैं? — सोचिए कि किस प्रकार उनका प्रयोग सिखाया जाता है। संभवतः स्थलों एवं वस्तुओं की ओर संकेत करके ऐसा किया जा सकता है। पर तब यह मानना पड़ेगा कि शब्द द्वारा इंगित करने का काम हम प्रयोग सिखाने में ही नहीं करते, ''प्रयोग'' में भी करते हैं।
क्या “वहाँ” और “यह” भी निदर्शनात्मक विधि से सिखाए जाते हैं? — सोचिए कि किस प्रकार उनका प्रयोग सिखाया जाता है। संभवतः स्थलों एवं वस्तुओं की ओर संकेत करके ऐसा किया जा सकता है। पर तब यह मानना पड़ेगा कि शब्द द्वारा इंगित करने का काम हम प्रयोग सिखाने में ही नहीं करते, ''प्रयोग'' में भी करते हैं।


'''10.''' अब प्रश्न उठता है कि इस भाषा के शब्दों का ''अर्थ'' क्या है? — उनके प्रयोग यदि उनके अर्थों को नहीं दशति तो किसे उनके अर्थ दर्शाने वाला माना जाए? और उसका विवरण तो हम दे ही चुके हैं। तो हमारा कहना है कि "इस शब्द का अर्थ यह है" इस अभिव्यक्ति को उसी विवरण का अंग बनाया जाए। दूसरे शब्दों में इस विवरण का आकार होना चाहिए: "... शब्द का अर्थ है..."I
'''10.''' अब प्रश्न उठता है कि इस भाषा के शब्दों का ''अर्थ'' क्या है? — उनके प्रयोग यदि उनके अर्थों को नहीं दशति तो किसे उनके अर्थ दर्शाने वाला माना जाए? और उसका विवरण तो हम दे ही चुके हैं। तो हमारा कहना है कि “इस शब्द का अर्थ यह है” इस अभिव्यक्ति को उसी विवरण का अंग बनाया जाए। दूसरे शब्दों में इस विवरण का आकार होना चाहिए: ... शब्द का अर्थ है...”I


"पट्टी शब्द के प्रयोग के विवरण का रूपान्तर करके यह कहा जा सकता है कि अमुक शब्द का अर्थ अमुक वस्तु है। उदाहरणार्थ, जब हमें इस भ्रान्ति का निराकरण करना हो कि "पट्टी" शब्द उस निर्माण-पत्थर के आकार का द्योतक है जिस पत्थर को हम वस्तुतः "गुटका" कहते हैं तो ऐसा ही किया जाएगा। किन्तु इस प्रकार का ‘''द्योतन''’, अर्थात् इन शब्दों का शेष सब बातों के लिए प्रयोग, तो पहले से ही ज्ञात है।
“पट्टी शब्द के प्रयोग के विवरण का रूपान्तर करके यह कहा जा सकता है कि अमुक शब्द का अर्थ अमुक वस्तु है। उदाहरणार्थ, जब हमें इस भ्रान्ति का निराकरण करना हो कि ”पट्टी“ शब्द उस निर्माण-पत्थर के आकार का द्योतक है जिस पत्थर को हम वस्तुतः ”गुटका" कहते हैं तो ऐसा ही किया जाएगा। किन्तु इस प्रकार का ‘''द्योतन''’, अर्थात् इन शब्दों का शेष सब बातों के लिए प्रयोग, तो पहले से ही ज्ञात है।


यह कहना भी उतना ही उपयुक्त होगा कि "'''अ'''", "'''आ'''" इत्यादि प्रतीकों का अर्थ अंक है; उदाहरणार्थ, जब यह कथन इस भ्रान्ति का निराकरण करता है कि भाषा में "'''अ'''", "'''आ'''", "'''इ'''" का वही कार्य है जो कि वास्तव में "गुटका", "पट्टी", "खम्बा" का है। और यह भी कहा जा सकता है कि "'''इ'''" का अर्थ यह अंक है, न कि वह अंक उदाहरणार्थ जब इससे यह समझाया जाए कि अक्षरों को '''अ''', '''आ''', '''इ''', '''ई''' इत्यादि क्रम में प्रयोग करना होता है न कि '''अ''', '''आ''', '''ई''', '''इ''' क्रम में।
यह कहना भी उतना ही उपयुक्त होगा कि '''अ''', '''आ'''इत्यादि प्रतीकों का अर्थ अंक है; उदाहरणार्थ, जब यह कथन इस भ्रान्ति का निराकरण करता है कि भाषा में '''अ''', '''आ''', '''इ'''का वही कार्य है जो कि वास्तव में “गुटका”, “पट्टी”, “खम्बा” का है। और यह भी कहा जा सकता है कि '''इ'''का अर्थ यह अंक है, न कि वह अंक उदाहरणार्थ जब इससे यह समझाया जाए कि अक्षरों को '''अ''', '''आ''', '''इ''', '''ई''' इत्यादि क्रम में प्रयोग करना होता है न कि '''अ''', '''आ''', '''ई''', '''इ''' क्रम में।


परन्तु शब्दों के प्रयोगों के विवरणों के इस प्रकार के समीकरण से शब्दों के प्रयोगों सादृश्य नहीं आ जाता। क्योंकि, जैसा कि हमें स्पष्ट है, वे एक दूसरे से नितान्त भिन्न हैं।
परन्तु शब्दों के प्रयोगों के विवरणों के इस प्रकार के समीकरण से शब्दों के प्रयोगों सादृश्य नहीं आ जाता। क्योंकि, जैसा कि हमें स्पष्ट है, वे एक दूसरे से नितान्त भिन्न हैं।
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'''12.''' यह रेल-इंजन के चालक-कक्ष को देखने जैसा ही है। वहाँ हमें सभी हत्थे लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं। (स्वाभाविकतः, क्योंकि वे सभी पकड़ने के लिए होते हैं।) किन्तु उनमें से एक तो क्रैंक का हत्था है जिसे अविराम चलाया जा सकता है (जो कि वाल्व के खुलने को नियमित करता है); दूसरा हत्था स्विच का है जिसकी केवल दो ही स्थितियां हैं: चालू या बन्द ! तीसरा ब्रेकलिवर का हत्था है जिसे जितना अधिक खींचे उतनी ही अधिक ब्रेक लगती है; चौथा, पंप का हत्थाः जिसे आगे-पीछे चलाने से ही कोई गति होती है।
'''12.''' यह रेल-इंजन के चालक-कक्ष को देखने जैसा ही है। वहाँ हमें सभी हत्थे लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं। (स्वाभाविकतः, क्योंकि वे सभी पकड़ने के लिए होते हैं।) किन्तु उनमें से एक तो क्रैंक का हत्था है जिसे अविराम चलाया जा सकता है (जो कि वाल्व के खुलने को नियमित करता है); दूसरा हत्था स्विच का है जिसकी केवल दो ही स्थितियां हैं: चालू या बन्द ! तीसरा ब्रेकलिवर का हत्था है जिसे जितना अधिक खींचे उतनी ही अधिक ब्रेक लगती है; चौथा, पंप का हत्थाः जिसे आगे-पीछे चलाने से ही कोई गति होती है।


'''13.''' "भाषा के प्रत्येक शब्द का कुछ न कुछ अर्थ होता है" कहने मात्र से तो हम तब तक ''कुछ भी नहीं'' कह पाते जब तक हम यह व्याख्या नहीं करते कि निश्चित रूप से हम ''कौन'' से भेद करना चाहते हैं। (हाँ, यह तो हो सकता है कि §8 की भाषा के शब्दों का हम ऐसे 'अर्थहीन' शब्दों से भेद करना चाहें जैसे कि लुइस राल की कविताओं में आने वाले शब्द, अथवा गानों में आने वाले "डमडम-डिगाडिगा " जैसे शब्द |
'''13.''' “भाषा के प्रत्येक शब्द का कुछ न कुछ अर्थ होता है” कहने मात्र से तो हम तब तक ''कुछ भी नहीं'' कह पाते जब तक हम यह व्याख्या नहीं करते कि निश्चित रूप से हम ''कौन'' से भेद करना चाहते हैं। (हाँ, यह तो हो सकता है कि §8 की भाषा के शब्दों का हम ऐसे 'अर्थहीन' शब्दों से भेद करना चाहें जैसे कि लुइस राल की कविताओं में आने वाले शब्द, अथवा गानों में आने वाले “डमडम-डिगाडिगा” जैसे शब्द |


'''14.''' किसी के इस कथन की कल्पना कीजिए: "''सभी'' औजार कुछ न कुछ परिवर्तन करने के लिए होते हैं। जैसे हथौड़ा कील की स्थिति में परिवर्तन करता है, आरी बदलाव लाती है बोर्ड के आकार में; आदि, आदि।" — किन्तु पट्टिका, गोंददानी, कीलों से क्या बदलता है? — "हमारा ज्ञान — वस्तु की लम्बाई का, गोंद के तापमान का, और बक्से के ठोसपन का।" — परन्तु क्या अभिव्यक्तियों के इस समीकरण से कुछ भी उपलब्ध होगा? —
'''14.''' किसी के इस कथन की कल्पना कीजिए: ''सभी'' औजार कुछ न कुछ परिवर्तन करने के लिए होते हैं। जैसे हथौड़ा कील की स्थिति में परिवर्तन करता है, आरी बदलाव लाती है बोर्ड के आकार में; आदि, आदि।” — किन्तु पट्टिका, गोंददानी, कीलों से क्या बदलता है? — “हमारा ज्ञान — वस्तु की लम्बाई का, गोंद के तापमान का, और बक्से के ठोसपन का।” — परन्तु क्या अभिव्यक्तियों के इस समीकरण से कुछ भी उपलब्ध होगा? —


'''15.''' "द्योतक है" शब्द का सबसे सीधा प्रयोग सम्भवतः तभी होता है जब द्योतित वस्तु पर वह प्रतीक अंकित कर दिया जाए जिसका वह द्योतन करता है। मान लीजिए कि '''क''' द्वारा निर्माण कार्य में लाए जाने वाले औजारों पर कुछ चिह्न लगे हुए हैं। जब '''क''' अपने सहायक को अमुक चिह्न दिखाता है, तो वह उस चिह्न वाले औज़ार ले आता है।
'''15.''' “द्योतक है” शब्द का सबसे सीधा प्रयोग सम्भवतः तभी होता है जब द्योतित वस्तु पर वह प्रतीक अंकित कर दिया जाए जिसका वह द्योतन करता है। मान लीजिए कि '''क''' द्वारा निर्माण कार्य में लाए जाने वाले औजारों पर कुछ चिह्न लगे हुए हैं। जब '''क''' अपने सहायक को अमुक चिह्न दिखाता है, तो वह उस चिह्न वाले औज़ार ले आता है।


इस प्रकार तथा इससे बहुत कुछ मिलते-जुलते प्रकारों से ही नाम का अर्थ होता है तथा किसी विषय का नामकरण भी। दार्शनिक चिन्तन में बहुधा अपने आप से यह कहना लाभप्रद सिद्ध होगा: किसी वस्तु का नामकरण तो उस वस्तु पर लेबल लगाने जैसा ही है।
इस प्रकार तथा इससे बहुत कुछ मिलते-जुलते प्रकारों से ही नाम का अर्थ होता है तथा किसी विषय का नामकरण भी। दार्शनिक चिन्तन में बहुधा अपने आप से यह कहना लाभप्रद सिद्ध होगा: किसी वस्तु का नामकरण तो उस वस्तु पर लेबल लगाने जैसा ही है।


'''16.''' उन रंग नमूनों के बारे में क्या कहा जाए जो '''ख''' को '''क''' दिखाता है: क्या वे ''भाषा'' के अंग हैं? आप चाहें तो ऐसा कह सकते हैं। वे शब्द तो नहीं हैं फिर भी जब मैं किसी को कहता हूँ: "'वह' शब्द का उच्चारण करो", तब 'वह' शब्द को तो आप उस वाक्य का एक अंग ही मानेंगे। फिर भी, उसका कार्य तो है, यह कार्य भाषा-खेल §8 में रंग-नमूने जैसा ही है; अर्थात् वह जो अन्य व्यक्ति कहना चाहता है उसका नमूना है।
'''16.''' उन रंग नमूनों के बारे में क्या कहा जाए जो '''ख''' को '''क''' दिखाता है: क्या वे ''भाषा'' के अंग हैं? आप चाहें तो ऐसा कह सकते हैं। वे शब्द तो नहीं हैं फिर भी जब मैं किसी को कहता हूँ: 'वह' शब्द का उच्चारण करो”, तब 'वह' शब्द को तो आप उस वाक्य का एक अंग ही मानेंगे। फिर भी, उसका कार्य तो है, यह कार्य भाषा-खेल §8 में रंग-नमूने जैसा ही है; अर्थात् वह जो अन्य व्यक्ति कहना चाहता है उसका नमूना है।


नमूनों को भाषा के उपकरण मानना सर्वाधिक स्वाभाविक और भ्रान्ति रहित है।
नमूनों को भाषा के उपकरण मानना सर्वाधिक स्वाभाविक और भ्रान्ति रहित है।


((निजवाचक सर्वनाम " ''यह'' वाक्य" पर टिप्पणी।))
((निजवाचक सर्वनाम ''यह'' वाक्य” पर टिप्पणी।))


'''17.''' यह कहना संभव होगा: §8 की भाषा में ''विभिन्न प्रकार के शब्द'' हैं। क्योंकि “पट्टी” शब्द के कार्य और "गुटका" शब्द के कार्य का सादृश्य “पट्टी" शब्द के कार्य और "'''ई'''" शब्द के कार्य के सादृश्य से कहीं अधिक है। परन्तु शब्दों के वर्ग बनाना तो हमारे वर्गीकरण के उद्देश्य पर और हमारे झुकाव पर निर्भर करता है।
'''17.''' यह कहना संभव होगा: §8 की भाषा में ''विभिन्न प्रकार के शब्द'' हैं। क्योंकि “पट्टी” शब्द के कार्य और “गुटका” शब्द के कार्य का सादृश्य “पट्टी“ शब्द के कार्य और '''ई'''" शब्द के कार्य के सादृश्य से कहीं अधिक है। परन्तु शब्दों के वर्ग बनाना तो हमारे वर्गीकरण के उद्देश्य पर और हमारे झुकाव पर निर्भर करता है।


उन विभिन्न दृष्टियों के बारे में सोचिए जिनसे औज़ारों का, या फिर शतरंज के मोहरों का वर्गीकरण किया जा सकता है।
उन विभिन्न दृष्टियों के बारे में सोचिए जिनसे औज़ारों का, या फिर शतरंज के मोहरों का वर्गीकरण किया जा सकता है।
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'''19.''' ऐसी भाषा की कल्पना करना सुगम है जिसमें केवल युद्ध के आदेश एवं विवरण हों — या फिर ऐसी भाषा की कल्पना भी सुगम है जिसमें केवल प्रश्न हों और उनके उत्तर हाँ या ना में देने के लिए अभिव्यक्तियां हों। और अनगिनत अन्य भाषाओं की कल्पना करना भी सुगम है। — और किसी भाषा की कल्पना करने का अर्थ तो एक जीवन-शैली की कल्पना करना है।
'''19.''' ऐसी भाषा की कल्पना करना सुगम है जिसमें केवल युद्ध के आदेश एवं विवरण हों — या फिर ऐसी भाषा की कल्पना भी सुगम है जिसमें केवल प्रश्न हों और उनके उत्तर हाँ या ना में देने के लिए अभिव्यक्तियां हों। और अनगिनत अन्य भाषाओं की कल्पना करना भी सुगम है। — और किसी भाषा की कल्पना करने का अर्थ तो एक जीवन-शैली की कल्पना करना है।


परन्तु इस बारे में क्या कहेंगे: क्या §2 की भाषा में "पट्टी!" शब्द है, या वाक्य? — यदि यह शब्द है तो निश्चय ही इस का अर्थ वही नहीं है जो हमारी लोकभाषा में इसी की ध्वनि वाले शब्द का है, क्योंकि §2 की भाषा में एक बुलावा है। किन्तु यदि यह वाक्य है तो निश्चय ही हमारी भाषा का न्यूनीकृत वाक्य "पट्टी!" तो नहीं हो सकता — जहाँ तक पहले प्रश्न का सम्बन्ध है, आप "पट्टी!" बुलावे को शब्द भी कह सकते हैं और वाक्य भी; शायद इसे अपभ्रंश वाक्य कहना उचित होगा (जैसे हम अपभ्रंश हाइपरबोला कहते हैं); वास्तव में यह हमारा 'न्यूनीकृत' वाक्य ''ही'' है। — परन्तु निश्चय ही यह तो "मुझे पट्टी ला दो" वाक्य का एक लघु रूप मात्र है, और उदाहरण §2 में तो ऐसा कोई वाक्य है ही नहीं। — परन्तु इसके विपरीत मैं यह क्यों न कहूँ कि "मुझे पट्टी ला दो" वाक्य, "पट्टी!" वाक्य का ''विस्तार'' है? क्योंकि जब आप "पट्टी!" कहते हैं तो वास्तव में आपका आशय होता है: "मुझे पट्टी ला दो"। पर आप यह कैसे करते हैं: कैसे ''यह'' अर्थ होता है जब आप "पट्टी!" कहते हैं? क्या आप अपने आप से असंक्षिप्त वाक्य कहते हैं? और यह बताने के लिए कि "पट्टी!" बुलावे से किसी का क्या अर्थ होता है, मैं इस बुलावे का किसी अन्य अभिव्यक्ति में अनुवाद क्यों करूँ? और यदि इन दोनों का अर्थ एक ही है तो मैं क्यों कहूँ: "जब वह 'पट्टी!' कहता है तो उसका अर्थ 'पट्टी!' होता है"? पुनः यदि आपका अर्थ "मुझे पट्टी ला
परन्तु इस बारे में क्या कहेंगे: क्या §2 की भाषा में “पट्टी!शब्द है, या वाक्य? — यदि यह शब्द है तो निश्चय ही इस का अर्थ वही नहीं है जो हमारी लोकभाषा में इसी की ध्वनि वाले शब्द का है, क्योंकि §2 की भाषा में एक बुलावा है। किन्तु यदि यह वाक्य है तो निश्चय ही हमारी भाषा का न्यूनीकृत वाक्य “पट्टी!तो नहीं हो सकता — जहाँ तक पहले प्रश्न का सम्बन्ध है, आप “पट्टी!बुलावे को शब्द भी कह सकते हैं और वाक्य भी; शायद इसे अपभ्रंश वाक्य कहना उचित होगा (जैसे हम अपभ्रंश हाइपरबोला कहते हैं); वास्तव में यह हमारा 'न्यूनीकृत' वाक्य ''ही'' है। — परन्तु निश्चय ही यह तो “मुझे पट्टी ला दो” वाक्य का एक लघु रूप मात्र है, और उदाहरण §2 में तो ऐसा कोई वाक्य है ही नहीं। — परन्तु इसके विपरीत मैं यह क्यों न कहूँ कि “मुझे पट्टी ला दो” वाक्य, “पट्टी!वाक्य का ''विस्तार'' है? क्योंकि जब आप “पट्टी!कहते हैं तो वास्तव में आपका आशय होता है: “मुझे पट्टी ला दो”। पर आप यह कैसे करते हैं: कैसे ''यह'' अर्थ होता है जब आप “पट्टी!कहते हैं? क्या आप अपने आप से असंक्षिप्त वाक्य कहते हैं? और यह बताने के लिए कि “पट्टी!बुलावे से किसी का क्या अर्थ होता है, मैं इस बुलावे का किसी अन्य अभिव्यक्ति में अनुवाद क्यों करूँ? और यदि इन दोनों का अर्थ एक ही है तो मैं क्यों कहूँ: “जब वह 'पट्टी!' कहता है तो उसका अर्थ 'पट्टी!' होता है”? पुनः यदि आपका अर्थ "मुझे पट्टी ला


दो" हो सकता है तो आप का अर्थ "पट्टी!" क्यों नहीं हो सकता? — परन्तु जब मैं "पट्टी!” कहता हूँ तो मैं जो चाहता हूँ वह यह है ''कि वह मुझे पट्टी ला दे''! — निश्चय ही; किन्तु 'यह चाहना' क्या आपके कहे वाक्य से भिन्न किसी वाक्य को किसी न किसी रूप में सोचना है? —
दो“ हो सकता है तो आप का अर्थ ”पट्टी!क्यों नहीं हो सकता? — परन्तु जब मैं ”पट्टी!” कहता हूँ तो मैं जो चाहता हूँ वह यह है ''कि वह मुझे पट्टी ला दे''! — निश्चय ही; किन्तु 'यह चाहना' क्या आपके कहे वाक्य से भिन्न किसी वाक्य को किसी न किसी रूप में सोचना है? —


'''20.''' परन्तु अब ऐसा लगता है कि जब कोई कहता है, "मुझे पट्टी ला दो", तो इस अभिव्यक्ति से उसका अर्थ अकेले शब्द "पट्टी!" के अनुरूप कोई ''एक'' लम्बा शब्द हो सकता है। — तो क्या इससे हमारा अर्थ कभी तो एक शब्द, और कभी चार शब्द हो सकता है? और प्रायः इससे हमारा अर्थ कैसे होता है? — मेरे विचार में हमारी प्रवृत्ति यह कहने की होगी: इस वाक्य से हमारा अर्थ ''चतुश्शब्द'' होता है जब हम इस वाक्य को "मुझे एक पट्टी दो", "उसे एक पट्टी दो", "दो पट्टियां लाओ" इत्यादि वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करते हैं; अर्थात् उन वाक्यों से भेद करते हुए जिनमें हमारे आदेशों में प्रयुक्त अलग-अलग शब्दों के इतर संयोग होते हैं। — किन्तु किसी वाक्य को अन्य वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करने में क्या निहित होता है? क्या अन्य वाक्य संभवत: मन में विचरते रहते हैं? सभी ही? उस वाक्य को कहते हुए ही अथवा उससे पहले या फिर बाद में भी? — नहीं। यह व्याख्या चाहे हमें कुछ लुभावनी भी लगे तो भी यह देखने के लिए कि हम यहाँ पथभ्रष्ट हो रहे हैं, हमें केवल क्षण भर के लिए इतना ही सोचना आवश्यक है कि वास्तव में होता क्या है। हम कहते हैं कि हम आदेशात्मक वाक्य का अन्य वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करते हैं क्योंकि हमारी भाषा में उन अन्य वाक्यों की संभावना निहित है। वह विदेशी जो हमारी भाषा को नहीं समझता, और जिसने कई बार किसी को "मुझे पट्टी ला दो!" आदेश देते हुए सुना है संभवतः यह सोचे कि यह संपूर्ण ध्वनि-श्रृंखला तो 'निर्माण-पत्थर' जैसे उसकी भाषा के शब्द जैसा एक ही शब्द है। यदि उसने यह आदेश दिया होता, तो शायद वह उसका उच्चारण किसी और प्रकार से करता, और हम कहते: उसका उच्चारण इतना विचित्र इसलिए है कि वह इसे एक ही शब्द मानता है। — परन्तु ऐसा उच्चारण करते हुए क्या उसमें कुछ अन्य क्रिया नहीं हो रही होती — ऐसी प्रक्रिया जो इस तथ्य से सम्बद्ध हो कि उसकी इस वाक्य की संकल्पना एक ही शब्द की है? — या तो उसमें वही प्रक्रिया होगी या फिर उससे कुछ भिन्न। जब आप ऐसा आदेश देते हैं तो आप को क्या लगता है? यह आदेश देते हुए क्या आप सजग हैं- कि यह चार शब्दों का समूह है? बेशक, आप इस भाषा — जिसमें अन्य वाक्य भी हैं — में निपुण हैं, किन्तु आपकी यह निपुणता क्या तभी प्रकाशित होती है जब आप वाक्य को बोलते हैं? और यह मैंने मान ही लिया है कि यदि किसी विदेशी की इस वाक्य की संकल्पना भिन्न है, तो उसका उच्चारण भी भिन्न ही होगा। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि जिसे हम उसकी भ्रान्त संकल्पना कहते हैं वह उसके आदेश की किसी सहगामी प्रक्रिया में निहित हो।
'''20.''' परन्तु अब ऐसा लगता है कि जब कोई कहता है, “मुझे पट्टी ला दो”, तो इस अभिव्यक्ति से उसका अर्थ अकेले शब्द “पट्टी!के अनुरूप कोई ''एक'' लम्बा शब्द हो सकता है। — तो क्या इससे हमारा अर्थ कभी तो एक शब्द, और कभी चार शब्द हो सकता है? और प्रायः इससे हमारा अर्थ कैसे होता है? — मेरे विचार में हमारी प्रवृत्ति यह कहने की होगी: इस वाक्य से हमारा अर्थ ''चतुश्शब्द'' होता है जब हम इस वाक्य को “मुझे एक पट्टी दो”, “उसे एक पट्टी दो”, “दो पट्टियां लाओ” इत्यादि वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करते हैं; अर्थात् उन वाक्यों से भेद करते हुए जिनमें हमारे आदेशों में प्रयुक्त अलग-अलग शब्दों के इतर संयोग होते हैं। — किन्तु किसी वाक्य को अन्य वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करने में क्या निहित होता है? क्या अन्य वाक्य संभवत: मन में विचरते रहते हैं? सभी ही? उस वाक्य को कहते हुए ही अथवा उससे पहले या फिर बाद में भी? — नहीं। यह व्याख्या चाहे हमें कुछ लुभावनी भी लगे तो भी यह देखने के लिए कि हम यहाँ पथभ्रष्ट हो रहे हैं, हमें केवल क्षण भर के लिए इतना ही सोचना आवश्यक है कि वास्तव में होता क्या है। हम कहते हैं कि हम आदेशात्मक वाक्य का अन्य वाक्यों से भेद करते हुए प्रयोग करते हैं क्योंकि हमारी भाषा में उन अन्य वाक्यों की संभावना निहित है। वह विदेशी जो हमारी भाषा को नहीं समझता, और जिसने कई बार किसी को “मुझे पट्टी ला दो!आदेश देते हुए सुना है संभवतः यह सोचे कि यह संपूर्ण ध्वनि-श्रृंखला तो 'निर्माण-पत्थर' जैसे उसकी भाषा के शब्द जैसा एक ही शब्द है। यदि उसने यह आदेश दिया होता, तो शायद वह उसका उच्चारण किसी और प्रकार से करता, और हम कहते: उसका उच्चारण इतना विचित्र इसलिए है कि वह इसे एक ही शब्द मानता है। — परन्तु ऐसा उच्चारण करते हुए क्या उसमें कुछ अन्य क्रिया नहीं हो रही होती — ऐसी प्रक्रिया जो इस तथ्य से सम्बद्ध हो कि उसकी इस वाक्य की संकल्पना एक ही शब्द की है? — या तो उसमें वही प्रक्रिया होगी या फिर उससे कुछ भिन्न। जब आप ऐसा आदेश देते हैं तो आप को क्या लगता है? यह आदेश देते हुए क्या आप सजग हैं- कि यह चार शब्दों का समूह है? बेशक, आप इस भाषा — जिसमें अन्य वाक्य भी हैं — में निपुण हैं, किन्तु आपकी यह निपुणता क्या तभी प्रकाशित होती है जब आप वाक्य को बोलते हैं? और यह मैंने मान ही लिया है कि यदि किसी विदेशी की इस वाक्य की संकल्पना भिन्न है, तो उसका उच्चारण भी भिन्न ही होगा। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि जिसे हम उसकी भ्रान्त संकल्पना कहते हैं वह उसके आदेश की किसी सहगामी प्रक्रिया में निहित हो।


यह 'पदलोची' वाक्य है, इसलिए नहीं कि इसको बोलते हुए जो हम सोचते हैं उसमें से कुछ छूट जाता है, परन्तु इसलिए कि हमारी भाषा के विशिष्ट प्रतिमान की तुलना में यह संक्षिप्त है। — बेशक यहाँ कोई टोक सकता है: "आप यह मानते हैं कि संक्षिप्त और असंक्षिप्त वाक्य का अर्थ एक ही है — तो यह अर्थ क्या है? क्या इस अर्थ के लिए कोई भाषाई अभिव्यक्ति नहीं है?" — किन्तु वाक्यों के एक ही अर्थ होने का तथ्य क्या उनके प्रयोग की अभिन्नता में ही निहित नहीं है? — (रूसी भाषा में "पत्थर लाल है" की बजाय "पत्थर लाल" कहते हैं; क्या उन्हें इस के अर्थ में "है" का अभाव खटकता है, या फिर वे उसे अपने विचार में जोड़ लेते हैं?)
यह 'पदलोची' वाक्य है, इसलिए नहीं कि इसको बोलते हुए जो हम सोचते हैं उसमें से कुछ छूट जाता है, परन्तु इसलिए कि हमारी भाषा के विशिष्ट प्रतिमान की तुलना में यह संक्षिप्त है। — बेशक यहाँ कोई टोक सकता है: “आप यह मानते हैं कि संक्षिप्त और असंक्षिप्त वाक्य का अर्थ एक ही है — तो यह अर्थ क्या है? क्या इस अर्थ के लिए कोई भाषाई अभिव्यक्ति नहीं है?— किन्तु वाक्यों के एक ही अर्थ होने का तथ्य क्या उनके प्रयोग की अभिन्नता में ही निहित नहीं है? — (रूसी भाषा में “पत्थर लाल है” की बजाय “पत्थर लाल” कहते हैं; क्या उन्हें इस के अर्थ में “है” का अभाव खटकता है, या फिर वे उसे अपने विचार में जोड़ लेते हैं?)


'''21.''' ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जिसमें '''क''' पूछता है और '''ख''' चट्टे में पड़ी हुई पट्टियों या गुटकों की संख्या बताता है, अथवा फिर किसी स्थान पर रखे निर्माण-पत्थरों के रंग और आकार बताता है। ऐसा विवरण यूँ भी हो सकता है: “पाँच पट्टियां"। तो विवरण अथवा कथन "पांच पट्टियां" तथा आदेश "पांच पट्टियां!" में क्या अन्तर है? — यह तो भाषा-खेल में इन शब्दों के उच्चारण के ढंग पर निर्भर करता है। उन्हें बोलते हुए कंठस्वर, भंगिमा तथा अन्य बहुत कुछ भी बेशक भिन्न ही होगा। परन्तु हम कंठ-स्वर की अभिन्नता की भी कल्पना कर सकते हैं-क्योंकि आदेश और विवरण दोनों ही विभिन्न प्रकार के कंठस्वरों और विभिन्न भंगिमाओं के साथ कहे जा सकते हैं-अन्तर तो केवल उनके प्रयोग में है। (निश्चय ही हम "कथन" और "आदेश" शब्दों को वाक्यों के व्याकरण-सम्मत आकारों के रूप में तथा स्वर-शैलियों के रूप में भी प्रयोग कर सकते हैं; हम वास्तव में "क्या आज मौसम लुभावना नहीं?" को प्रश्न कहते हैं यद्यपि इसका कथन के रूप में प्रयोग होता है।) हम ऐसी भाषा की कल्पना कर सकते हैं जिसमें सभी वाक्यों का आकार तथा स्वर आलंकारिक प्रश्नों का सा हो; या फिर प्रत्येक आदेश का आकार "क्या आप चाहेंगे कि...?" प्रश्न रूप हो। संभवत: तब यह कहा जाए: “वह जो कहता है उसका आकार तो प्रश्न रूपी है, परन्तु वास्तव में वह आदेश है" — अर्थात् भाषा के प्रयोग की विधि में उसका प्रयोग आदेश का है। (इसी प्रकार "आप यह करेंगे" कथन भविष्यवाणी के रूप में नहीं, अपितु आदेश के रूप में, कहा जाता है। वह क्या है जो इसे भविष्यवाणी अथवा आदेश का रूप प्रदान करता है?)
'''21.''' ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जिसमें '''क''' पूछता है और '''ख''' चट्टे में पड़ी हुई पट्टियों या गुटकों की संख्या बताता है, अथवा फिर किसी स्थान पर रखे निर्माण-पत्थरों के रंग और आकार बताता है। ऐसा विवरण यूँ भी हो सकता है: “पाँच पट्टियां“। तो विवरण अथवा कथन ”पांच पट्टियां“ तथा आदेश ”पांच पट्टियां!में क्या अन्तर है? — यह तो भाषा-खेल में इन शब्दों के उच्चारण के ढंग पर निर्भर करता है। उन्हें बोलते हुए कंठस्वर, भंगिमा तथा अन्य बहुत कुछ भी बेशक भिन्न ही होगा। परन्तु हम कंठ-स्वर की अभिन्नता की भी कल्पना कर सकते हैं-क्योंकि आदेश और विवरण दोनों ही विभिन्न प्रकार के कंठस्वरों और विभिन्न भंगिमाओं के साथ कहे जा सकते हैं-अन्तर तो केवल उनके प्रयोग में है। (निश्चय ही हम ”कथन“ और ”आदेश“ शब्दों को वाक्यों के व्याकरण-सम्मत आकारों के रूप में तथा स्वर-शैलियों के रूप में भी प्रयोग कर सकते हैं; हम वास्तव में ”क्या आज मौसम लुभावना नहीं?को प्रश्न कहते हैं यद्यपि इसका कथन के रूप में प्रयोग होता है।) हम ऐसी भाषा की कल्पना कर सकते हैं जिसमें सभी वाक्यों का आकार तथा स्वर आलंकारिक प्रश्नों का सा हो; या फिर प्रत्येक आदेश का आकार ”क्या आप चाहेंगे कि...?प्रश्न रूप हो। संभवत: तब यह कहा जाए: “वह जो कहता है उसका आकार तो प्रश्न रूपी है, परन्तु वास्तव में वह आदेश है” — अर्थात् भाषा के प्रयोग की विधि में उसका प्रयोग आदेश का है। (इसी प्रकार “आप यह करेंगे” कथन भविष्यवाणी के रूप में नहीं, अपितु आदेश के रूप में, कहा जाता है। वह क्या है जो इसे भविष्यवाणी अथवा आदेश का रूप प्रदान करता है?)


'''22.''' फ्रेगे की यह धारणा, कि प्रत्येक कथ्य में एक तथ्य निहित होता है, वास्तव में हमारी भाषा में प्रत्येक कथन को "यह अभिकथित है कि अमुक स्थिति है" — रूप में लिखने की संभावना पर आधारित है। किन्तु "अमुक स्थिति है" हमारी भाषा का वाक्य नहीं है — भाषा-खेल में ऐसी तो कोई चाल ही नहीं है। और "यह अभिकथित है कि..." न लिखकर यदि मैं "यह अभिकथित है: अमुक-अमुक स्थिति है" लिखूँ तो "यह अभिकथित है" शब्द निष्प्रयोजन हो जाते हैं।
'''22.''' फ्रेगे की यह धारणा, कि प्रत्येक कथ्य में एक तथ्य निहित होता है, वास्तव में हमारी भाषा में प्रत्येक कथन को “यह अभिकथित है कि अमुक स्थिति है” — रूप में लिखने की संभावना पर आधारित है। किन्तु “अमुक स्थिति है” हमारी भाषा का वाक्य नहीं है — भाषा-खेल में ऐसी तो कोई चाल ही नहीं है। और “यह अभिकथित है कि...न लिखकर यदि मैं “यह अभिकथित है: अमुक-अमुक स्थिति है” लिखूँ तो “यह अभिकथित है” शब्द निष्प्रयोजन हो जाते हैं।


प्रत्येक कथन को एक प्रश्न के रूप में लिखकर फिर "हाँ" जोड़कर भी तो लिखा जा सकता है; उदाहरणार्थ: "क्या वर्षा हो रही है? हाँ!"। क्या इससे यह प्रदर्शित होता है कि प्रत्येक कथन में एक प्रश्न निहित है?
प्रत्येक कथन को एक प्रश्न के रूप में लिखकर फिर “हाँ” जोड़कर भी तो लिखा जा सकता है; उदाहरणार्थ: “क्या वर्षा हो रही है? हाँ!”। क्या इससे यह प्रदर्शित होता है कि प्रत्येक कथन में एक प्रश्न निहित है?


उदाहरणार्थ: प्रश्नवाचक चिह्न से भेद करते हुए अभिकथन चिह्न के प्रयोग का तो हमें बेशक अधिकार है ही, या फिर यदि हम चाहें तो इसका प्रयोग अभिकथन को गल्प अथवा प्राक्कल्पना से भेद करने के लिए भी कर सकते हैं। यह सोचना तो भ्रम ही है कि किसी अभिकथन में दो क्रियाएं होती हैं, ग्रहण करना तथा अभिकथित करना (सत्य/असत्य कहना या कुछ ऐसा ही तय करना), तथा यह कि इन क्रियाओं में हम कथनात्मक चिह्न को उसी प्रकार समझते हैं जैसे कि स्वरलिपि को उसे पढ़कर गाते समय समझते हैं। लिखित वाक्य को ऊँचे अथवा नीचे सुर में पढ़ना तो स्वरलिपि से गाने के समान है, किन्तु यह पढ़े हुए वाक्य का ‘''अर्थ करना''’ (सोचना) नहीं होता।
उदाहरणार्थ: प्रश्नवाचक चिह्न से भेद करते हुए अभिकथन चिह्न के प्रयोग का तो हमें बेशक अधिकार है ही, या फिर यदि हम चाहें तो इसका प्रयोग अभिकथन को गल्प अथवा प्राक्कल्पना से भेद करने के लिए भी कर सकते हैं। यह सोचना तो भ्रम ही है कि किसी अभिकथन में दो क्रियाएं होती हैं, ग्रहण करना तथा अभिकथित करना (सत्य/असत्य कहना या कुछ ऐसा ही तय करना), तथा यह कि इन क्रियाओं में हम कथनात्मक चिह्न को उसी प्रकार समझते हैं जैसे कि स्वरलिपि को उसे पढ़कर गाते समय समझते हैं। लिखित वाक्य को ऊँचे अथवा नीचे सुर में पढ़ना तो स्वरलिपि से गाने के समान है, किन्तु यह पढ़े हुए वाक्य का ‘''अर्थ करना''’ (सोचना) नहीं होता।


फ्रेगे का अभिकथन-चिह्न तो ''वाक्यारंभ'' चिह्न है। तो इसका कार्य पूर्णविराम चिह्न जैसा ही है। यह तो पूर्ण वाक्य का उसके उपवाक्य से भेद करता है। यदि मैं किसी को "वर्षा हो रही है", यह कहते हुए सुनूँ, किन्तु यह न जान पाऊँ कि मैंने वाक्य का आरम्भ तथा अन्त सुना है अथवा नहीं तो मैं इस वाक्य से कुछ भी न जान पाऊँगा।
फ्रेगे का अभिकथन-चिह्न तो ''वाक्यारंभ'' चिह्न है। तो इसका कार्य पूर्णविराम चिह्न जैसा ही है। यह तो पूर्ण वाक्य का उसके उपवाक्य से भेद करता है। यदि मैं किसी को “वर्षा हो रही है”, यह कहते हुए सुनूँ, किन्तु यह न जान पाऊँ कि मैंने वाक्य का आरम्भ तथा अन्त सुना है अथवा नहीं तो मैं इस वाक्य से कुछ भी न जान पाऊँगा।


{{PU box|विशिष्ट मुद्रा में खड़े हुए किसी मुक्केबाज के चित्र की कल्पना कीजिए। इस चित्र का प्रयोग किसी को यह बताने के लिए किया जा सकता है कि उसे कैसे खड़ा होना चाहिए, कैसे अपने आप को बचाना चाहिए: अथवा कैसे उसे अपने आप को नहीं बचाना चाहिए। अथवा यह बताने के लिए कि कोई व्यक्ति अमुक स्थान पर किस मुद्रा में खड़ा इत्यादि था; इस चित्र का प्रयोग किया जा सकता है। (रसायन-शास्त्र की भाषा में) हम इस चित्र को प्रतिज्ञप्ति मूलक कह सकते हैं। फ्रेंगे ने “पूर्वधारणा” की कल्पना इसी प्रकार बनाई होगी।}}
{{PU box|विशिष्ट मुद्रा में खड़े हुए किसी मुक्केबाज के चित्र की कल्पना कीजिए। इस चित्र का प्रयोग किसी को यह बताने के लिए किया जा सकता है कि उसे कैसे खड़ा होना चाहिए, कैसे अपने आप को बचाना चाहिए: अथवा कैसे उसे अपने आप को नहीं बचाना चाहिए। अथवा यह बताने के लिए कि कोई व्यक्ति अमुक स्थान पर किस मुद्रा में खड़ा इत्यादि था; इस चित्र का प्रयोग किया जा सकता है। (रसायन-शास्त्र की भाषा में) हम इस चित्र को प्रतिज्ञप्ति मूलक कह सकते हैं। फ्रेंगे ने “पूर्वधारणा” की कल्पना इसी प्रकार बनाई होगी।}}


'''23.''' परन्तु वाक्य कितने प्रकार के होते हैं? — उदाहरणार्थ: अभिकथन, प्रश्न, और आदेश? — ''अनगिनत'' प्रकार के होते हैं: "प्रतीकों" के "शब्दों" के, "वाक्यों" के ''अनगिनत'' विविध प्रयोग होते हैं। और यह अनेकता सदा के लिए निश्चित नहीं होती; अपितु कहा जा सकता है कि भाषा के नये प्रकारों का, नए भाषा-खेलों का उद्भव होता है, और उनमें से कुछ अप्रचलित हो जाते हैं और इसीलिए विस्मृत हो जाते हैं। (गणित में हुए परिवर्तनों से हमें इसका ''धुंधला चित्र'' मिल सकता है।)
'''23.''' परन्तु वाक्य कितने प्रकार के होते हैं? — उदाहरणार्थ: अभिकथन, प्रश्न, और आदेश? — ''अनगिनत'' प्रकार के होते हैं: “प्रतीकों” के “शब्दों” के, “वाक्यों” के ''अनगिनत'' विविध प्रयोग होते हैं। और यह अनेकता सदा के लिए निश्चित नहीं होती; अपितु कहा जा सकता है कि भाषा के नये प्रकारों का, नए भाषा-खेलों का उद्भव होता है, और उनमें से कुछ अप्रचलित हो जाते हैं और इसीलिए विस्मृत हो जाते हैं। (गणित में हुए परिवर्तनों से हमें इसका ''धुंधला चित्र'' मिल सकता है।)


यहाँ "भाषा-खेल" पद तो इस तथ्य की प्रमुखता दर्शाने के लिए है कि भाषा ''बोलना'' एक क्रिया-कलाप है, या फिर एक जीवन-पद्धति का भाग है।
यहाँ “भाषा-खेल” पद तो इस तथ्य की प्रमुखता दर्शाने के लिए है कि भाषा ''बोलना'' एक क्रिया-कलाप है, या फिर एक जीवन-पद्धति का भाग है।


निम्नलिखित एवं अन्य उदाहरणों में भाषा-खेलों की अनेकता का पुनरवलोकन कीजिए:
निम्नलिखित एवं अन्य उदाहरणों में भाषा-खेलों की अनेकता का पुनरवलोकन कीजिए:
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भाषा के औजारों और उनकी प्रयोग विधियों की अनेकता की, शब्द और वाक्य के अनेक प्रकारों की अनेकताओं की, तार्किकों (''ट्रैक्टेटस लॉजिको-फ़िलॉसफ़िकस'' का लेखक भी) के द्वारा भाषा की संरचना के संबंध में जो कहा गया है उससे तुलना करना दिलचस्प है।
भाषा के औजारों और उनकी प्रयोग विधियों की अनेकता की, शब्द और वाक्य के अनेक प्रकारों की अनेकताओं की, तार्किकों (''ट्रैक्टेटस लॉजिको-फ़िलॉसफ़िकस'' का लेखक भी) के द्वारा भाषा की संरचना के संबंध में जो कहा गया है उससे तुलना करना दिलचस्प है।


'''24.''' यदि आप भाषा-खेलों की अनेकता का ध्यान नहीं रखेंगे तो आप "प्रश्न क्या होता है?" जैसे प्रश्न पूछेंगे। — ऐसा पूछना वास्तव में यह कहना है कि मैं
'''24.''' यदि आप भाषा-खेलों की अनेकता का ध्यान नहीं रखेंगे तो आप “प्रश्न क्या होता है?जैसे प्रश्न पूछेंगे। — ऐसा पूछना वास्तव में यह कहना है कि मैं


अमुक-अमुक विषय को नहीं जानता, अथवा यह कहना है कि मैं चाहता हूँ कि कोई मुझे बताए कि...? — अथवा यह मेरी अनिश्चित मनःस्थिति का विवरण है? — पर "बचाओ!" यह चीत्कार भी क्या ऐसा विवरण है?
अमुक-अमुक विषय को नहीं जानता, अथवा यह कहना है कि मैं चाहता हूँ कि कोई मुझे बताए कि...? — अथवा यह मेरी अनिश्चित मनःस्थिति का विवरण है? — पर “बचाओ!यह चीत्कार भी क्या ऐसा विवरण है?


"विवरण" कहे जाने वाली विभिन्न परिस्थितियों पर विचार कीजिए: किसी वस्तु की स्थिति का उसके स्थानकों द्वारा विवरण; किसी चेहरे की अभिव्यक्ति का विवरण; स्पर्श-संवेदन का विवरण; भावदशा का विवरण।
“विवरण” कहे जाने वाली विभिन्न परिस्थितियों पर विचार कीजिए: किसी वस्तु की स्थिति का उसके स्थानकों द्वारा विवरण; किसी चेहरे की अभिव्यक्ति का विवरण; स्पर्श-संवेदन का विवरण; भावदशा का विवरण।


सामान्यतः प्रयुक्त प्रश्न के आकार को निस्संदेह कथन के इस आकार अथवा विवरण से प्रतिस्थापित किया जा सकता है: "मैं जानना चाहता हूँ कि..." अथवा "मुझे संशय है कि..." — परन्तु इससे विभिन्न भाषा-खेल कोई अधिक निकट तो नहीं आ जाते।
सामान्यतः प्रयुक्त प्रश्न के आकार को निस्संदेह कथन के इस आकार अथवा विवरण से प्रतिस्थापित किया जा सकता है: “मैं जानना चाहता हूँ कि...अथवा “मुझे संशय है कि...— परन्तु इससे विभिन्न भाषा-खेल कोई अधिक निकट तो नहीं आ जाते।


उदाहरणार्थ, सभी कथनों को, "मैं सोचता हूँ", अथवा "मुझे विश्वास है" (मानो वे मेरे आन्तरिक जीवन के विवरण हों) से आरंभ होने वाले वाक्यों में रूपान्तरित करने की संभावनाओं का महत्त्व किसी दूसरी जगह अधिक स्पष्ट होगा। (अहम्मात्रवाद)
उदाहरणार्थ, सभी कथनों को, “मैं सोचता हूँ”, अथवा “मुझे विश्वास है” (मानो वे मेरे आन्तरिक जीवन के विवरण हों) से आरंभ होने वाले वाक्यों में रूपान्तरित करने की संभावनाओं का महत्त्व किसी दूसरी जगह अधिक स्पष्ट होगा। (अहम्मात्रवाद)


'''25.''' कभी-कभी ऐसा कहा जाता है कि पशु नहीं बोलते क्योंकि उनमें मानसिक क्षमता नहीं होती। और इसका अर्थ है: "वे सोचते नहीं हैं और इसलिए वे बोलते भी नहीं।" परन्तु — वे बोलते ही नहीं हैं। अथवा यह कहना बेहतर होगाः वे तो भाषा का प्रयोग ही नहीं करते — यदि सबसे आदिम भाषाओं को हम छोड़ दें तो। — आदेश देना, प्रश्न पूछना, वर्णन करना, बातचीत करना उतना ही हमारे प्राकृतिक इतिहास का अंग है जितना कि चलना, खाना-पीना, खेलना।
'''25.''' कभी-कभी ऐसा कहा जाता है कि पशु नहीं बोलते क्योंकि उनमें मानसिक क्षमता नहीं होती। और इसका अर्थ है: “वे सोचते नहीं हैं और इसलिए वे बोलते भी नहीं।” परन्तु — वे बोलते ही नहीं हैं। अथवा यह कहना बेहतर होगाः वे तो भाषा का प्रयोग ही नहीं करते — यदि सबसे आदिम भाषाओं को हम छोड़ दें तो। — आदेश देना, प्रश्न पूछना, वर्णन करना, बातचीत करना उतना ही हमारे प्राकृतिक इतिहास का अंग है जितना कि चलना, खाना-पीना, खेलना।


'''26.''' साधारणतः ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा को सीखना तो विषयों को नाम देना ही है। जैसे मनुष्यों, रंगों, वेदनाओं, भावदशाओं, संख्याओं आदि को नाम देना। यानि कि — नामकरण तो किसी विषय पर लेबल लगाने जैसा ही है। ऐसा कहा जा सकता है कि यह तो शब्द के प्रयोग की तैयारी है। परन्तु इस तैयारी का ''उद्देश्य क्या'' है?
'''26.''' साधारणतः ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा को सीखना तो विषयों को नाम देना ही है। जैसे मनुष्यों, रंगों, वेदनाओं, भावदशाओं, संख्याओं आदि को नाम देना। यानि कि — नामकरण तो किसी विषय पर लेबल लगाने जैसा ही है। ऐसा कहा जा सकता है कि यह तो शब्द के प्रयोग की तैयारी है। परन्तु इस तैयारी का ''उद्देश्य क्या'' है?


'''27.''' "हम विषयों का नामकरण करते हैं और फिर उनके बारे में बात कर सकते हैं: अपनी बातचीत में उनका उल्लेख कर सकते हैं" — मानो हमारी आगामी क्रिया तो नामकरण मात्र से ही निश्चित हो जाती है। मानो "विषय के बारे में बातचीत" नामक अभिव्यक्ति का केवल एक ही अर्थ हो। जबकि वास्तव में हम अपने वाक्यों के साथ अत्यन्त विभिन्न कार्य करते हैं। नितान्त भिन्न कार्यों वाले केवल विस्मयादिबोधकों के संबंध में विचार कीजिए।
'''27.''' “हम विषयों का नामकरण करते हैं और फिर उनके बारे में बात कर सकते हैं: अपनी बातचीत में उनका उल्लेख कर सकते हैं” — मानो हमारी आगामी क्रिया तो नामकरण मात्र से ही निश्चित हो जाती है। मानो “विषय के बारे में बातचीत” नामक अभिव्यक्ति का केवल एक ही अर्थ हो। जबकि वास्तव में हम अपने वाक्यों के साथ अत्यन्त विभिन्न कार्य करते हैं। नितान्त भिन्न कार्यों वाले केवल विस्मयादिबोधकों के संबंध में विचार कीजिए।


जल!
जल!
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नहीं!
नहीं!


क्या अब भी आप इन शब्दों को "विषयों के नाम" कहना चाहेंगे?
क्या अब भी आप इन शब्दों को “विषयों के नाम” कहना चाहेंगे?


§2 और §8 में वर्णित भाषाओं के विषय के नाम पूछने जैसी कोई बात थी ही नहीं। हम कह सकते हैं कि यह अपनी सहसंबद्ध निदर्शनात्मक परिभाषा के साथ स्वयं में एक भाषा-खेल है। यह तो वास्तव में ऐसा कहना है: हमें यह पूछने का प्रशिक्षण दिया जाता है: "उसे क्या कहते हैं?" — जिस पर नाम बताया जाता है। और किसी विषय के नाम का आविष्कार करने और इस प्रकार "यह... है" कहने और फिर नए नाम का प्रयोग करने वाला भाषा-खेल भी होता है। (उदाहरणार्थ, बच्चे अपनी पुतलिकाओं का नामकरण करते हैं और फिर उनके बारे में स्वयं उनसे बातें करते हैं। इस विषय पर विचार कीजिए कि किसी व्यक्ति के नाम का उसे ''संबोधित'' करने का प्रयोग, कितना विलक्षण है।)
§2 और §8 में वर्णित भाषाओं के विषय के नाम पूछने जैसी कोई बात थी ही नहीं। हम कह सकते हैं कि यह अपनी सहसंबद्ध निदर्शनात्मक परिभाषा के साथ स्वयं में एक भाषा-खेल है। यह तो वास्तव में ऐसा कहना है: हमें यह पूछने का प्रशिक्षण दिया जाता है: “उसे क्या कहते हैं?— जिस पर नाम बताया जाता है। और किसी विषय के नाम का आविष्कार करने और इस प्रकार “यह... है” कहने और फिर नए नाम का प्रयोग करने वाला भाषा-खेल भी होता है। (उदाहरणार्थ, बच्चे अपनी पुतलिकाओं का नामकरण करते हैं और फिर उनके बारे में स्वयं उनसे बातें करते हैं। इस विषय पर विचार कीजिए कि किसी व्यक्ति के नाम का उसे ''संबोधित'' करने का प्रयोग, कितना विलक्षण है।)


'''28.''' किसी नामवाचक संज्ञा, किसी रंग के नाम, किसी पदार्थ के नाम, किसी संख्यांक, कम्पास के किसी बिन्दु के नाम, इत्यादि को निदर्शनात्मक विधि से परिभाषित किया जा सकता है। संख्या '''दो''' की परिभाषा — दो पेचों को इंगित करते हुए — यह कह कर करना कि "उसको '''दो''' कहते हैं" — बिल्कुल ठीक है। — किन्तु '''दो''' को इस प्रकार कैसे परिभाषित किया जा सकता है? जिस व्यक्ति को आप यह परिभाषा देते हैं वह यह नहीं जानता कि आप "'''दो'''" किसे कहते हैं; वह यह समझेगा कि "'''दो'''" तो इस पेच-समूह को दिया गया नाम है! — उसका ऐसा समझना ''संभव'' तो है; किन्तु संभवत: वह ऐसा समझता नहीं। वह इससे बिल्कुल उलट गलती कर सकता है; जब मेरा अभिप्राय इस पेच-समूह को नाम देने का तो यह हो सकता है कि वह उस नाम को संख्यांक समझे। और उसी प्रकार जब मैं उसे निदर्शनात्मक परिभाषा द्वारा किसी व्यक्ति का नाम बताता हूँ तो यह उतना ही संभव है कि वह उस नाम को किसी रंग, किसी जाति, अथवा कम्पास के किसी बिन्दु का ही, नाम समझे। अर्थात् निदर्शनात्मक परिभाषा को तो ''सदैव'' विविध प्रकार से समझा जा सकता है।
'''28.''' किसी नामवाचक संज्ञा, किसी रंग के नाम, किसी पदार्थ के नाम, किसी संख्यांक, कम्पास के किसी बिन्दु के नाम, इत्यादि को निदर्शनात्मक विधि से परिभाषित किया जा सकता है। संख्या '''दो''' की परिभाषा — दो पेचों को इंगित करते हुए — यह कह कर करना कि “उसको '''दो''' कहते हैं” — बिल्कुल ठीक है। — किन्तु '''दो''' को इस प्रकार कैसे परिभाषित किया जा सकता है? जिस व्यक्ति को आप यह परिभाषा देते हैं वह यह नहीं जानता कि आप '''दो'''किसे कहते हैं; वह यह समझेगा कि '''दो'''तो इस पेच-समूह को दिया गया नाम है! — उसका ऐसा समझना ''संभव'' तो है; किन्तु संभवत: वह ऐसा समझता नहीं। वह इससे बिल्कुल उलट गलती कर सकता है; जब मेरा अभिप्राय इस पेच-समूह को नाम देने का तो यह हो सकता है कि वह उस नाम को संख्यांक समझे। और उसी प्रकार जब मैं उसे निदर्शनात्मक परिभाषा द्वारा किसी व्यक्ति का नाम बताता हूँ तो यह उतना ही संभव है कि वह उस नाम को किसी रंग, किसी जाति, अथवा कम्पास के किसी बिन्दु का ही, नाम समझे। अर्थात् निदर्शनात्मक परिभाषा को तो ''सदैव'' विविध प्रकार से समझा जा सकता है।


'''29.''' संभवतः आप कहेंगे: '''दो''' तो निदर्शनात्मक रूप से केवल इस प्रकार ही परिभाषित किया जा सकता है: "यह ''संख्या'' '''दो''' कहलाती है"। क्योंकि "संख्या" शब्द यह दर्शाता है कि भाषा में, व्याकरण में, उस शब्द के लिए हम कौन सा स्थान नियत करते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह हुआ कि निदर्शनात्मक परिभाषा के बोध से पूर्व ही "संख्या" शब्द की व्याख्या करनी होगी। — परिभाषा में "संख्या" शब्द निश्चय ही उस स्थान को दर्शाता है, उस स्थान को बताता है जहाँ हम उस शब्द को रखते हैं। और हम यह कहकर मिथ्याबोधों का निवारण कर सकते हैं; "यह ''रंग'', अमुक-अमुक कहलाता है", "यह ''लम्बाई'', अमुक-अमुक कहलाती है" इत्यादि, इत्यादि। अर्थात्, मिथ्याबोधों का कई बार इस प्रकार निवारण हो जाता है। किन्तु "रंग" या "लम्बाई" शब्द क्या ''एक'' ही रूप में ग्राह्य हैं? — वस्तुतः, उनको परिभाषित करने की आवश्यकता है। — अन्य शब्दों से परिभाषित करने की! और इस श्रृंखला में अंतिम परिभाषा का क्या होगा? (मत कहिए: "'अंतिम' परिभाषा तो होती ही नहीं"। यह तो ऐसा कहने जैसा ही होगा: "इस वीथी में अंतिम गृह है ही नहीं: एक और गृह का निर्माण तो सदैव संभव है"।)
'''29.''' संभवतः आप कहेंगे: '''दो''' तो निदर्शनात्मक रूप से केवल इस प्रकार ही परिभाषित किया जा सकता है: “यह ''संख्या'' '''दो''' कहलाती है”। क्योंकि “संख्या” शब्द यह दर्शाता है कि भाषा में, व्याकरण में, उस शब्द के लिए हम कौन सा स्थान नियत करते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह हुआ कि निदर्शनात्मक परिभाषा के बोध से पूर्व ही “संख्या” शब्द की व्याख्या करनी होगी। — परिभाषा में “संख्या” शब्द निश्चय ही उस स्थान को दर्शाता है, उस स्थान को बताता है जहाँ हम उस शब्द को रखते हैं। और हम यह कहकर मिथ्याबोधों का निवारण कर सकते हैं; “यह ''रंग'', अमुक-अमुक कहलाता है”, “यह ''लम्बाई'', अमुक-अमुक कहलाती है” इत्यादि, इत्यादि। अर्थात्, मिथ्याबोधों का कई बार इस प्रकार निवारण हो जाता है। किन्तु “रंग” या “लम्बाई” शब्द क्या ''एक'' ही रूप में ग्राह्य हैं? — वस्तुतः, उनको परिभाषित करने की आवश्यकता है। — अन्य शब्दों से परिभाषित करने की! और इस श्रृंखला में अंतिम परिभाषा का क्या होगा? (मत कहिए: 'अंतिम' परिभाषा तो होती ही नहीं”। यह तो ऐसा कहने जैसा ही होगा: “इस वीथी में अंतिम गृह है ही नहीं: एक और गृह का निर्माण तो सदैव संभव है”।)


निदर्शनात्मक परिभाषा में "संख्या" शब्द आवश्यक है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसके बिना कोई दूसरा व्यक्ति उस परिभाषा को मेरी इच्छा से विपरीत रूप में ग्रहण करता है या नहीं। और यह निर्भर करता है उन परिस्थितियों पर जिनमें वह परिभाषा दी जा रही है, और उस व्यक्ति पर जिसे मैं यह परिभाषा देता हूँ।
निदर्शनात्मक परिभाषा में “संख्या” शब्द आवश्यक है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसके बिना कोई दूसरा व्यक्ति उस परिभाषा को मेरी इच्छा से विपरीत रूप में ग्रहण करता है या नहीं। और यह निर्भर करता है उन परिस्थितियों पर जिनमें वह परिभाषा दी जा रही है, और उस व्यक्ति पर जिसे मैं यह परिभाषा देता हूँ।


और वह उस परिभाषा को किस रूप में 'ग्रहण' करता है इसका पता उसके परिभाषित शब्द के प्रयोग से चलता है।
और वह उस परिभाषा को किस रूप में 'ग्रहण' करता है इसका पता उसके परिभाषित शब्द के प्रयोग से चलता है।


'''30.''' तो यह कहा जा सकता है: निदर्शनात्मक परिभाषा तभी किसी शब्द के प्रयोग के अर्थ की व्याख्या कर पाती है जब भाषा में उस शब्द का संपूर्ण कार्य स्पष्ट हो जाए। जैसे यदि मुझे यह पता हो कि किसी का तात्पर्य मुझे किसी रंग-शब्द की व्याख्या देना है तो निदर्शनात्मक परिभाषा "उसे भूरा कहते हैं", मुझे शब्द के समझने में सहायक होती है। — और यह आप तब तक ही कह सकते हैं जब तक आप यह न भूल जाएं कि "जानना" या "स्पष्ट होना" शब्दों के साथ कई प्रकार की समस्याएं जुड़ी हुई हैं।
'''30.''' तो यह कहा जा सकता है: निदर्शनात्मक परिभाषा तभी किसी शब्द के प्रयोग के अर्थ की व्याख्या कर पाती है जब भाषा में उस शब्द का संपूर्ण कार्य स्पष्ट हो जाए। जैसे यदि मुझे यह पता हो कि किसी का तात्पर्य मुझे किसी रंग-शब्द की व्याख्या देना है तो निदर्शनात्मक परिभाषा “उसे भूरा कहते हैं”, मुझे शब्द के समझने में सहायक होती है। — और यह आप तब तक ही कह सकते हैं जब तक आप यह न भूल जाएं कि “जानना” या “स्पष्ट होना” शब्दों के साथ कई प्रकार की समस्याएं जुड़ी हुई हैं।


किसी वस्तु का नाम पूछने का सामर्थ्य होने से पूर्व कुछ जानना (या करने योग्य होना) आवश्यक है। परन्तु वह है क्या जिसे जानना होता है?
किसी वस्तु का नाम पूछने का सामर्थ्य होने से पूर्व कुछ जानना (या करने योग्य होना) आवश्यक है। परन्तु वह है क्या जिसे जानना होता है?
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'''31.''' जब कोई किसी को शतरंज के 'राजा' मोहरे को दिखाए और कहे: “यह राजा है" तो इससे उसे उस मोहरे के प्रयोग के बारे में तब तक पता नहीं चलता-जब तक उसे पहले से ही खेल के नियमों की जानकारी इस अन्तिम बात तक न हो कि राजा की आकृति होना क्या होता है। उसका वास्तविक मोहरे देखे बिना ही खेल के नियम सीखना कल्पनीय है। शतरंज के मोहरे की आकृति यहाँ शब्द की ध्वनि अथवा आकृति के तुल्य है।
'''31.''' जब कोई किसी को शतरंज के 'राजा' मोहरे को दिखाए और कहे: “यह राजा है" तो इससे उसे उस मोहरे के प्रयोग के बारे में तब तक पता नहीं चलता-जब तक उसे पहले से ही खेल के नियमों की जानकारी इस अन्तिम बात तक न हो कि राजा की आकृति होना क्या होता है। उसका वास्तविक मोहरे देखे बिना ही खेल के नियम सीखना कल्पनीय है। शतरंज के मोहरे की आकृति यहाँ शब्द की ध्वनि अथवा आकृति के तुल्य है।


नियमों को बिना सीखे अथवा सूत्रबद्ध किए, किसी के द्वारा खेल सीखने की कल्पना संभव है। हो सकता है कि सर्वप्रथम वह पटल-खेलों को देख-देख कर ही सीख गया हो, और फिर उत्तरोत्तर कठिन खेलों की ओर अग्रसर हुआ हो। उसे भी "यह राजा है" कह कर व्याख्या दी जा सकती है — उदाहरणार्थ, जब उसे दिखाए जाने वाले शतरंज के मोहरे ऐसी आकृति के हों जिससे वह परिचित न हो। इस व्याख्या से उसे इस मोहरे के प्रयोग का पता चलता है क्योंकि कहा जा सकता है, उसके लिए स्थान तो पूर्वनिर्मित था। अथवा फिर हम केवल यही कहेंगे कि इससे उसके प्रयोग का पता चलता है, यदि स्थान पूर्वनिर्मित हो। और यहाँ ऐसा इसलिए नहीं है कि जिसे हम व्याख्या दे रहे हैं, वह पहले से ही नियम जानता है, बल्कि ऐसा इसलिए है कि किसी दूसरे अर्थ में वह पहले से ही किसी खेल में दक्ष है।
नियमों को बिना सीखे अथवा सूत्रबद्ध किए, किसी के द्वारा खेल सीखने की कल्पना संभव है। हो सकता है कि सर्वप्रथम वह पटल-खेलों को देख-देख कर ही सीख गया हो, और फिर उत्तरोत्तर कठिन खेलों की ओर अग्रसर हुआ हो। उसे भी “यह राजा है” कह कर व्याख्या दी जा सकती है — उदाहरणार्थ, जब उसे दिखाए जाने वाले शतरंज के मोहरे ऐसी आकृति के हों जिससे वह परिचित न हो। इस व्याख्या से उसे इस मोहरे के प्रयोग का पता चलता है क्योंकि कहा जा सकता है, उसके लिए स्थान तो पूर्वनिर्मित था। अथवा फिर हम केवल यही कहेंगे कि इससे उसके प्रयोग का पता चलता है, यदि स्थान पूर्वनिर्मित हो। और यहाँ ऐसा इसलिए नहीं है कि जिसे हम व्याख्या दे रहे हैं, वह पहले से ही नियम जानता है, बल्कि ऐसा इसलिए है कि किसी दूसरे अर्थ में वह पहले से ही किसी खेल में दक्ष है।


{{PU box|क्या "लाल" शब्द की परिभाषा किसी ऐसी वस्तु को इंगित करके दी जा सकती है जो ''लाल'' न हो? ऐसा करना तो हिन्दी के ज्ञान में कमजोर व्यक्ति को "भद्र" शब्द का अर्थ बताने के लिए किसी घमंडी व्यक्ति को इंगित करके यह कहने के समान है कि "वह व्यक्ति भद्र ''नहीं'' है"। परिभाषा के ऐसे ढंग को अस्पष्ट कहना तो कोई तर्क नहीं है। किसी भी परिभाषा का गलत अर्थ लगाया जा सकता है।
{{PU box|क्या “लाल” शब्द की परिभाषा किसी ऐसी वस्तु को इंगित करके दी जा सकती है जो ''लाल'' न हो? ऐसा करना तो हिन्दी के ज्ञान में कमजोर व्यक्ति को “भद्र” शब्द का अर्थ बताने के लिए किसी घमंडी व्यक्ति को इंगित करके यह कहने के समान है कि “वह व्यक्ति भद्र ''नहीं'' है”। परिभाषा के ऐसे ढंग को अस्पष्ट कहना तो कोई तर्क नहीं है। किसी भी परिभाषा का गलत अर्थ लगाया जा सकता है।


किन्तु यह भी तो पूछा जा सकता है: क्या हम इसे अभी भी "परिभाषा" ही कहेगें, — चाहे इसके एक जैसे ही व्यावहारिक परिणाम निकलते हों, चाहे इसका शिक्षार्थी पर एक जैसा ही ''प्रभाव'' पड़ता हो, तो भी "लाल" शब्द की "निदर्शनात्मक परिभाषा" से इसकी भूमिका भिन्न होगी।}}आगामी स्थिति पर विचार कीजिए: मैं किसी को शतरंज की व्याख्या कर रहा हूँ और मैं आरंभ करता हूँ शतरंज के मोहरे को इंगित करके, और यह कह कर: "यह राजा है; इसकी चाल इस प्रकार होती है..... इत्यादि इत्यादि।" — ऐसी स्थिति में हम कहेंगे: "यह राजा है" (अथवा "इसे 'राजा' कहते हैं") शब्द केवल तभी परिभाषित होते हैं जब सीखने वाला पहले से ही 'जानता हो कि खेल में मोहरा क्या होता है'। अर्थात् यदि उसने पहले अन्य खेल खेले हैं, या फिर अन्य व्यक्तियों को खेलते हुए देखा है 'और समझा' है — और ऐसी ही बातें की हैं। तथा, केवल इन्हीं परिस्थितियों में वह खेल सीखने की प्रक्रिया में सुसंगत रूप से पूछ सकता है: "आप इसे क्या कहते हैं?" अर्थात् खेल में इस मोहरे को।
किन्तु यह भी तो पूछा जा सकता है: क्या हम इसे अभी भी “परिभाषा” ही कहेगें, — चाहे इसके एक जैसे ही व्यावहारिक परिणाम निकलते हों, चाहे इसका शिक्षार्थी पर एक जैसा ही ''प्रभाव'' पड़ता हो, तो भी “लाल” शब्द की “निदर्शनात्मक परिभाषा” से इसकी भूमिका भिन्न होगी।}}आगामी स्थिति पर विचार कीजिए: मैं किसी को शतरंज की व्याख्या कर रहा हूँ और मैं आरंभ करता हूँ शतरंज के मोहरे को इंगित करके, और यह कह कर: “यह राजा है; इसकी चाल इस प्रकार होती है..... इत्यादि इत्यादि।” — ऐसी स्थिति में हम कहेंगे: “यह राजा है” (अथवा “इसे 'राजा' कहते हैं”) शब्द केवल तभी परिभाषित होते हैं जब सीखने वाला पहले से ही 'जानता हो कि खेल में मोहरा क्या होता है'। अर्थात् यदि उसने पहले अन्य खेल खेले हैं, या फिर अन्य व्यक्तियों को खेलते हुए देखा है 'और समझा' है — और ऐसी ही बातें की हैं। तथा, केवल इन्हीं परिस्थितियों में वह खेल सीखने की प्रक्रिया में सुसंगत रूप से पूछ सकता है: “आप इसे क्या कहते हैं?अर्थात् खेल में इस मोहरे को।


हम कह सकते हैं: केवल वही व्यक्ति सार्थक रूप से नाम पूछ सकता है जो उसका उपयोग पहले से ही जानता हो।
हम कह सकते हैं: केवल वही व्यक्ति सार्थक रूप से नाम पूछ सकता है जो उसका उपयोग पहले से ही जानता हो।


और हम कल्पना कर सकते हैं कि जिससे यह प्रश्न पूछा गया हो, उसका उत्तर हो: "नाम स्वयं निर्धारित कर लीजिए" — और अब प्रश्नकर्ता को सब कुछ अपने आप ही संभालना होगा।
और हम कल्पना कर सकते हैं कि जिससे यह प्रश्न पूछा गया हो, उसका उत्तर हो: “नाम स्वयं निर्धारित कर लीजिए” — और अब प्रश्नकर्ता को सब कुछ अपने आप ही संभालना होगा।


'''32.''' अपरिचित देश में आने वाला व्यक्ति वहाँ के निवासियों की भाषा कभी-कभी उनकी दी हुई निदर्शनात्मक परिभाषाओं से सीख जाएगा; पर अधिकतर उसे इन परिभाषाओं के अर्थ का ''अनुमान'' करना होगा; और उसका अनुमान कभी ठीक और कभी गलत होगा।
'''32.''' अपरिचित देश में आने वाला व्यक्ति वहाँ के निवासियों की भाषा कभी-कभी उनकी दी हुई निदर्शनात्मक परिभाषाओं से सीख जाएगा; पर अधिकतर उसे इन परिभाषाओं के अर्थ का ''अनुमान'' करना होगा; और उसका अनुमान कभी ठीक और कभी गलत होगा।


और, अब मैं समझता हूँ, हम कह सकते हैं: ऑगस्टीन का मानव - भाषा सीखने का विवरण कुछ इस प्रकार का है मानो बच्चा किसी अपरिचित देश में आ गया हो और उस देश की भाषा को न समझता हो; अर्थात् मानो वह पहले से ही कोई अन्य भाषा जानता हो, किन्तु इसे नहीं। अथवा फिरः मानो बच्चा पहले से ही ''सोच'' सकता हो, बस अभी बोल न सकता हो। और "सोचना" का अर्थ यहाँ कुछ "अपने आप से बातें करना" जैसा होगा।
और, अब मैं समझता हूँ, हम कह सकते हैं: ऑगस्टीन का मानव - भाषा सीखने का विवरण कुछ इस प्रकार का है मानो बच्चा किसी अपरिचित देश में आ गया हो और उस देश की भाषा को न समझता हो; अर्थात् मानो वह पहले से ही कोई अन्य भाषा जानता हो, किन्तु इसे नहीं। अथवा फिरः मानो बच्चा पहले से ही ''सोच'' सकता हो, बस अभी बोल न सकता हो। और “सोचना” का अर्थ यहाँ कुछ “अपने आप से बातें करना” जैसा होगा।


'''33.''' मान लीजिए कि कोई आपत्ति उठाए: “यह सत्य नहीं कि किसी निदर्शनात्मक परिभाषा को समझने के लिए आपको पहले से ही किसी भाषा में दक्ष होना आवश्यक है: उसे समझने के लिए — निस्संदेह — आपको आवश्यकता है केवल यह जानने या अनुमान लगाने की कि व्याख्या देने वाला व्यक्ति किसको इंगित कर रहा है। वह, उदाहरणार्थ, वस्तु की आकृति को, या उसके रंग को या उसकी संख्या इत्यादि को इंगित कर रहा है"। — और 'आकृति को इंगित करना', 'रंग को इंगित
'''33.''' मान लीजिए कि कोई आपत्ति उठाए: “यह सत्य नहीं कि किसी निदर्शनात्मक परिभाषा को समझने के लिए आपको पहले से ही किसी भाषा में दक्ष होना आवश्यक है: उसे समझने के लिए — निस्संदेह — आपको आवश्यकता है केवल यह जानने या अनुमान लगाने की कि व्याख्या देने वाला व्यक्ति किसको इंगित कर रहा है। वह, उदाहरणार्थ, वस्तु की आकृति को, या उसके रंग को या उसकी संख्या इत्यादि को इंगित कर रहा है"। — और 'आकृति को इंगित करना', 'रंग को इंगित
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करना' क्या होता है? कागज के टुकड़े को इंगित कीजिए — और अब उसकी आकृति को इंगित कीजिए — अब उसके रंग को — अब उसकी संख्या को (यह अटपटा लगता है) — आपने ऐसा क्यों किया? — आप कहेंगे कि आपने जब भी इंगित किया हर बार आपका 'अर्थ' भिन्न था। और यदि मैं पूछूं कि ऐसा कैसे किया जाता है तो आप कहेंगे कि आपने अपना ध्यान रंग पर, आकृति इत्यादि पर केन्द्रित किया। परन्तु मैं फिर पूछता हूँ: ''यह'' कैसे किया जा सकता है?
करना' क्या होता है? कागज के टुकड़े को इंगित कीजिए — और अब उसकी आकृति को इंगित कीजिए — अब उसके रंग को — अब उसकी संख्या को (यह अटपटा लगता है) — आपने ऐसा क्यों किया? — आप कहेंगे कि आपने जब भी इंगित किया हर बार आपका 'अर्थ' भिन्न था। और यदि मैं पूछूं कि ऐसा कैसे किया जाता है तो आप कहेंगे कि आपने अपना ध्यान रंग पर, आकृति इत्यादि पर केन्द्रित किया। परन्तु मैं फिर पूछता हूँ: ''यह'' कैसे किया जा सकता है?


मान लीजिए कि कोई किसी फूलदान को इंगित करता है और कहता है "इस अद्भुत नीले रंग को देखिए — आकृति की बात नहीं" — अथवाः “अद्भुत आकृति को देखिए — रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता।" निस्संदेह इन दो आह्नानों पर आपकी प्रतिक्रिया ''भिन्न'' होगी। परन्तु जब आप रंग पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं तो क्या सदैव आप की क्रिया ''एक'' ही होती है? विभिन्न स्थितियों की कल्पना कीजिए। जैसे कि:
मान लीजिए कि कोई किसी फूलदान को इंगित करता है और कहता है “इस अद्भुत नीले रंग को देखिए — आकृति की बात नहीं” — अथवाः “अद्भुत आकृति को देखिए — रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता।" निस्संदेह इन दो आह्नानों पर आपकी प्रतिक्रिया ''भिन्न'' होगी। परन्तु जब आप रंग पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं तो क्या सदैव आप की क्रिया ''एक'' ही होती है? विभिन्न स्थितियों की कल्पना कीजिए। जैसे कि:


"क्या यह नीला वैसा ही है जैसा वह नीला? क्या आप कोई अन्तर देखते हैं?"
“क्या यह नीला वैसा ही है जैसा वह नीला? क्या आप कोई अन्तर देखते हैं?


रंग-द्रव्य मिलाते हुए आप कहते हैं, "आकाश के इस नीले रंग जैसा रंग बना पाना कठिन है"।
रंग-द्रव्य मिलाते हुए आप कहते हैं, “आकाश के इस नीले रंग जैसा रंग बना पाना कठिन है”।


"मौसम बदल रहा है, अब तो आप फिर से नीला आकाश देख सकते हैं।"
“मौसम बदल रहा है, अब तो आप फिर से नीला आकाश देख सकते हैं।”


"देखिए इन दो नीले रंगों के प्रभाव कितने भिन्न हैं।"
“देखिए इन दो नीले रंगों के प्रभाव कितने भिन्न हैं।”


"क्या आपको वहाँ नीली पुस्तक दिखाई देती है? उसे यहाँ ले आइए।"
“क्या आपको वहाँ नीली पुस्तक दिखाई देती है? उसे यहाँ ले आइए।”


" इस नीले प्रकाश-संकेत का अर्थ है...."
इस नीले प्रकाश-संकेत का अर्थ है....


"यह नीला क्या कहलाता है? – क्या यह 'जामुनी' है?"
“यह नीला क्या कहलाता है? – क्या यह 'जामुनी' है?


कभी-कभी रंग पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए आप अपने हाथों से आकृति ढांप लेते हैं; या फिर आकृति की ओर देखते ही नहीं; कई बार वस्तु की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए यह स्मरण करने की चेष्टा करते हैं कि आपने वह रंग पहले कहाँ देखा था।
कभी-कभी रंग पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए आप अपने हाथों से आकृति ढांप लेते हैं; या फिर आकृति की ओर देखते ही नहीं; कई बार वस्तु की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए यह स्मरण करने की चेष्टा करते हैं कि आपने वह रंग पहले कहाँ देखा था।


आप आकृति पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कभी तो उसका अनुरेखन करके, कभी रंग प्रत्यक्ष से बचने के लिए अपने आँखें मींच-मिंचा कर, या और भी अनेक प्रकार से। मैं यह कहना चाहता हूँ: कुछ ऐसा ही होता है जब कोई 'अपना ध्यान इस पर या उस पर केन्द्रित करता है'। परन्तु इन सब से हमें यह कहने का आधार नहीं मिलता कि कोई व्यक्ति आकृति पर रंग इत्यादि पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है। जैसे शतरंज की कोई चाल न तो किसी मोहरे का शतरंज पटल पर अमुक-अमुक ढंग से चलाना मात्र होता है — और न ही चाल चलते समय चलने वाले व्यक्ति के विचारों या भावों का कोई समूहः बल्कि शतरंज की चाल तो उन परिस्थितियों में ही चाल होती है जिन्हें हम "शतरंज का खेल खेलना", "शतरंज की समस्या का हल" इत्यादि कहते हैं।
आप आकृति पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कभी तो उसका अनुरेखन करके, कभी रंग प्रत्यक्ष से बचने के लिए अपने आँखें मींच-मिंचा कर, या और भी अनेक प्रकार से। मैं यह कहना चाहता हूँ: कुछ ऐसा ही होता है जब कोई 'अपना ध्यान इस पर या उस पर केन्द्रित करता है'। परन्तु इन सब से हमें यह कहने का आधार नहीं मिलता कि कोई व्यक्ति आकृति पर रंग इत्यादि पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है। जैसे शतरंज की कोई चाल न तो किसी मोहरे का शतरंज पटल पर अमुक-अमुक ढंग से चलाना मात्र होता है — और न ही चाल चलते समय चलने वाले व्यक्ति के विचारों या भावों का कोई समूहः बल्कि शतरंज की चाल तो उन परिस्थितियों में ही चाल होती है जिन्हें हम “शतरंज का खेल खेलना”, “शतरंज की समस्या का हल” इत्यादि कहते हैं।


'''34.''' परन्तु यदि कोई कहे "मैं जब भी आकृति पर ध्यान देता हूँ: मेरी आँखें रूपरेखा का अनुगमन करती हैं और मुझे आभास होता है कि...."। और यदि वह व्यक्ति किसी वृत्ताकार वस्तु को इंगित करते हुए और उन सभी अनुभूतियों सहित “उसे 'वृत्त' कहते हैं" ऐसा कहकर निदर्शनात्मक परिभाषा किसी को दे — तो क्या इस परिभाषा को श्रोता इससे अन्यथा नहीं समझ सकता यद्यपि वह उसकी आँखों को रूपरेखा का अनुगमन करते हुए देखता है, और यद्यपि उसकी भी वही अनुभूति है जो दूसरे की है? अर्थात्: इस 'व्याख्या' से यह भी तात्पर्य हो सकता है कि वह इस शब्द को अब कैसे प्रयोग करता है; उदाहरणार्थ "वृत्त को इंगित करो" कहने पर वह किसको इंगित करता है। — क्योंकि न तो "परिभाषा से अमुक ढंग का अभिप्राय होना" यह अभिव्यक्ति और न ही "परिभाषा की अमुक ढंग से व्याख्या करना" यह अभिव्यक्ति किसी ऐसी प्रक्रिया की अभिव्यक्ति है जिस का परिभाषा देने अथवा सुनने के साथ साहचर्य-सम्बन्ध हो।
'''34.''' परन्तु यदि कोई कहे “मैं जब भी आकृति पर ध्यान देता हूँ: मेरी आँखें रूपरेखा का अनुगमन करती हैं और मुझे आभास होता है कि....”। और यदि वह व्यक्ति किसी वृत्ताकार वस्तु को इंगित करते हुए और उन सभी अनुभूतियों सहित “उसे 'वृत्त' कहते हैं“ ऐसा कहकर निदर्शनात्मक परिभाषा किसी को दे — तो क्या इस परिभाषा को श्रोता इससे अन्यथा नहीं समझ सकता यद्यपि वह उसकी आँखों को रूपरेखा का अनुगमन करते हुए देखता है, और यद्यपि उसकी भी वही अनुभूति है जो दूसरे की है? अर्थात्: इस 'व्याख्या' से यह भी तात्पर्य हो सकता है कि वह इस शब्द को अब कैसे प्रयोग करता है; उदाहरणार्थ ”वृत्त को इंगित करो“ कहने पर वह किसको इंगित करता है। — क्योंकि न तो ”परिभाषा से अमुक ढंग का अभिप्राय होना“ यह अभिव्यक्ति और न ही ”परिभाषा की अमुक ढंग से व्याख्या करना" यह अभिव्यक्ति किसी ऐसी प्रक्रिया की अभिव्यक्ति है जिस का परिभाषा देने अथवा सुनने के साथ साहचर्य-सम्बन्ध हो।


'''35.''' निस्संदेह ऐसे अनुभव तो हैं जिन्हें (उदाहरणार्थ) आकृति को इंगित करने "विशिष्ट अनुभव" कहा जा सकता है; उदाहरणार्थ, इंगित करते समय अपनी उंगलियों अथवा नेत्रों से रूपरेखा का अनुगमन करना। — किन्तु न तो सदैव ''ऐसा'' होता है जब 'तात्पर्य वह आकृति होता है' और न ही कोई अन्य विशिष्ट प्रक्रिया इन सभी स्थितियों में घटित होती है। — और यदि सदैव ऐसी पुनरावृत्ति होती भी हो तो भी यह कहना निर्भर करेगा उन परिस्थितियों पर — अर्थात्, इस पर कि इंगित करने से पूर्व और उसके पश्चात क्या हुआ — जिनमें हम कह सकें: "उसने तो आकृति को इंगित किया, रंग को नहीं"।
'''35.''' निस्संदेह ऐसे अनुभव तो हैं जिन्हें (उदाहरणार्थ) आकृति को इंगित करने “विशिष्ट अनुभव” कहा जा सकता है; उदाहरणार्थ, इंगित करते समय अपनी उंगलियों अथवा नेत्रों से रूपरेखा का अनुगमन करना। — किन्तु न तो सदैव ''ऐसा'' होता है जब 'तात्पर्य वह आकृति होता है' और न ही कोई अन्य विशिष्ट प्रक्रिया इन सभी स्थितियों में घटित होती है। — और यदि सदैव ऐसी पुनरावृत्ति होती भी हो तो भी यह कहना निर्भर करेगा उन परिस्थितियों पर — अर्थात्, इस पर कि इंगित करने से पूर्व और उसके पश्चात क्या हुआ — जिनमें हम कह सकें: “उसने तो आकृति को इंगित किया, रंग को नहीं”।


क्योंकि "आकृति को इंगित करना", "आकृति का तात्पर्य होना" इत्यादि शब्दों उसी प्रकार प्रयोग नहीं किया जाता जिस प्रकार ''इनको'': "इस पुस्तक को (न कि उसको) इंगित करना", "कुर्सी को इंगित करना न कि मेज को", इत्यादि। इतना ही सोचिए कि "इस वस्तु को इंगित करना", "उस वस्तु को इंगित करना" शब्दों का प्रयोग सीखने और दूसरी ओर “रंग को, न कि आकृति को इंगित करना", "रंग का तात्पर्य होना", इत्यादि शब्दों का प्रयोग ''सीखने'' में कितनी भिन्नता है।
क्योंकि “आकृति को इंगित करना”, “आकृति का तात्पर्य होना” इत्यादि शब्दों उसी प्रकार प्रयोग नहीं किया जाता जिस प्रकार ''इनको'': “इस पुस्तक को (न कि उसको) इंगित करना”, “कुर्सी को इंगित करना न कि मेज को”, इत्यादि। इतना ही सोचिए कि “इस वस्तु को इंगित करना”, “उस वस्तु को इंगित करना” शब्दों का प्रयोग सीखने और दूसरी ओर “रंग को, न कि आकृति को इंगित करना“, ”रंग का तात्पर्य होना", इत्यादि शब्दों का प्रयोग ''सीखने'' में कितनी भिन्नता है।


यानी: कुछ स्थितियों — विशेषकर जिनमें कोई 'आकृति को', 'संख्या को' इंगित करता है — में विशिष्ट अनुभव तथा इंगित करने के ढंग होते हैं — 'विशिष्ट' इसलिए कि बहुधा (सदा तो नहीं) वे अनुभव बार-बार होते हैं जब हमारा 'तात्पर्य' आकृति अथवा संख्या होता है। परन्तु क्या आप किसी खेल की गोटी को ''खेल की गोटी के रूप'' में इंगित करने का कोई विशिष्ट अनुभव जानते हैं? फिर भी कोई कह सकता है: "मेरा तात्पर्य है कि यह ''मोहरा'', न कि लकड़ी का विशेष टुकड़ा जिसे मैं इंगित कर रहा हूँ, 'राजा' कहलाता है"। (पहचानना, चाहना, स्मरण करना, इत्यादि।)
यानी: कुछ स्थितियों — विशेषकर जिनमें कोई 'आकृति को', 'संख्या को' इंगित करता है — में विशिष्ट अनुभव तथा इंगित करने के ढंग होते हैं — 'विशिष्ट' इसलिए कि बहुधा (सदा तो नहीं) वे अनुभव बार-बार होते हैं जब हमारा 'तात्पर्य' आकृति अथवा संख्या होता है। परन्तु क्या आप किसी खेल की गोटी को ''खेल की गोटी के रूप'' में इंगित करने का कोई विशिष्ट अनुभव जानते हैं? फिर भी कोई कह सकता है: “मेरा तात्पर्य है कि यह ''मोहरा'', न कि लकड़ी का विशेष टुकड़ा जिसे मैं इंगित कर रहा हूँ, 'राजा' कहलाता है”। (पहचानना, चाहना, स्मरण करना, इत्यादि।)


'''36.''' और यहाँ हम वही करते हैं जो अनेक स्थितियों में किया जाता है: क्योंकि जब हम किसी ऐसी ''एक'' दैहिक क्रिया का उल्लेख नहीं कर पाते जिसे हम आकृति (उदाहरणार्थ रंग के विरुद्ध) को इंगित करना कहते हैं, तो हम कहते हैं कि इन शब्दों से कोई आध्यात्मिक (मानसिक, बौद्धिक) क्रिया अभिव्यक्त होती है।
'''36.''' और यहाँ हम वही करते हैं जो अनेक स्थितियों में किया जाता है: क्योंकि जब हम किसी ऐसी ''एक'' दैहिक क्रिया का उल्लेख नहीं कर पाते जिसे हम आकृति (उदाहरणार्थ रंग के विरुद्ध) को इंगित करना कहते हैं, तो हम कहते हैं कि इन शब्दों से कोई आध्यात्मिक (मानसिक, बौद्धिक) क्रिया अभिव्यक्त होती है।
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'''37.''' नाम का उस वस्तु से क्या संबंध है जिसे वह नाम दिया गया है? — हाँ तो, यह है क्या? भाषा-खेल §2 अथवा किसी अन्य भाषा खेल पर दृष्टिपात करें; तब आप यह जान पायेंगे कि यह संबंध क्या है। यह संबंध अनेक अन्य बातों के साथ-साथ इस तथ्य में भी निहित हो सकता है कि किसी नाम को सुनने पर हमारे मन में उस वस्तु का चित्र उभर आता है जिस वस्तु का वह नाम है; और अन्य बातों के साथ-साथ यह इस में भी निहित हो सकता है कि वस्तु पर उसका नाम लिखा होता हो, अथवा उस वस्तु को इंगित करते समय वह नाम उच्चारित किया जाता हो।
'''37.''' नाम का उस वस्तु से क्या संबंध है जिसे वह नाम दिया गया है? — हाँ तो, यह है क्या? भाषा-खेल §2 अथवा किसी अन्य भाषा खेल पर दृष्टिपात करें; तब आप यह जान पायेंगे कि यह संबंध क्या है। यह संबंध अनेक अन्य बातों के साथ-साथ इस तथ्य में भी निहित हो सकता है कि किसी नाम को सुनने पर हमारे मन में उस वस्तु का चित्र उभर आता है जिस वस्तु का वह नाम है; और अन्य बातों के साथ-साथ यह इस में भी निहित हो सकता है कि वस्तु पर उसका नाम लिखा होता हो, अथवा उस वस्तु को इंगित करते समय वह नाम उच्चारित किया जाता हो।


{{PU box|"''वह'' नीला है" शब्दों से कभी तो इंगित वस्तु — और कभी 'नीला' शब्द की व्याख्या, ''अर्थ'' होना कैसे होता है? हाँ, दूसरी स्थिति में हमारा यह तात्पर्य होता है "उसे 'नीला' कहते हैं" — तो क्या कभी "है" शब्द से हमारा तात्पर्य "कहलाता है", और "नीला" शब्द से "'नीला'" हो सकता है, और कभी "है" शब्द से हमारा तात्पर्य 'है' शब्द जैसा वास्तव में होता है, वैसा ही हो सकता है?
{{PU box|''वह'' नीला है” शब्दों से कभी तो इंगित वस्तु — और कभी 'नीला' शब्द की व्याख्या, ''अर्थ'' होना कैसे होता है? हाँ, दूसरी स्थिति में हमारा यह तात्पर्य होता है “उसे 'नीला' कहते हैं” — तो क्या कभी “है” शब्द से हमारा तात्पर्य “कहलाता है”, और “नीला” शब्द से 'नीला'हो सकता है, और कभी “है” शब्द से हमारा तात्पर्य 'है' शब्द जैसा वास्तव में होता है, वैसा ही हो सकता है?


ऐसे वाक्यों से, जिनका उद्देश्य सूचित करना हो, भी कोई व्यक्ति शब्दों को समझ सकता है। (हाशियों में टिप्पणी: यहाँ महत्त्वपूर्ण अंधविश्वास है।)
ऐसे वाक्यों से, जिनका उद्देश्य सूचित करना हो, भी कोई व्यक्ति शब्दों को समझ सकता है। (हाशियों में टिप्पणी: यहाँ महत्त्वपूर्ण अंधविश्वास है।)


क्या बुबुबु कहने से मेरा तात्पर्य "यदि वर्षा नहीं होगी तो मैं सैर को जाऊँगा" हो सकता है? — भाषा में ही मेरा कोई अर्थ हो सकता है। इससे पता चलता है कि "अर्थ होना" अभिव्यक्ति का व्याकरण "कल्पना करना" इत्यादि के व्याकरण जैसा नहीं होता।}}'''38.''' परन्तु, भाषा-खेल §8 में "यह" अथवा "वह.... कहलाता है" जैसी निदर्शनात्मक परिभाषा में "वह" शब्द किसका नाम है? — यदि आप मतिभ्रम उत्पन्न करना नहीं चाहते तो आपके लिए सर्वश्रेष्ठ यही होगा कि इन शब्दों को नाम कहें ही नहीं। — तथापि, आश्चर्य है कि केवल "यह" शब्द को ही ''यथार्थ'' नाम कहा गया है; फिर और किसी शब्द को नाम कहना तो केवल अशुद्ध एवं मिलते-जुलते अर्थ में ही नाम कहना होगा।
क्या बुबुबु कहने से मेरा तात्पर्य “यदि वर्षा नहीं होगी तो मैं सैर को जाऊँगा” हो सकता है? — भाषा में ही मेरा कोई अर्थ हो सकता है। इससे पता चलता है कि “अर्थ होना” अभिव्यक्ति का व्याकरण “कल्पना करना” इत्यादि के व्याकरण जैसा नहीं होता।}}'''38.''' परन्तु, भाषा-खेल §8 में “यह” अथवा “वह.... कहलाता है” जैसी निदर्शनात्मक परिभाषा में “वह” शब्द किसका नाम है? — यदि आप मतिभ्रम उत्पन्न करना नहीं चाहते तो आपके लिए सर्वश्रेष्ठ यही होगा कि इन शब्दों को नाम कहें ही नहीं। — तथापि, आश्चर्य है कि केवल “यह” शब्द को ही ''यथार्थ'' नाम कहा गया है; फिर और किसी शब्द को नाम कहना तो केवल अशुद्ध एवं मिलते-जुलते अर्थ में ही नाम कहना होगा।


यूँ कहिए कि भाषा के तर्क को उदात्त बनाने की हमारी प्रवृत्ति ही इस विचित्र संकल्पना का स्रोत है। इसका उचित उत्तर तो यह है: हम विभिन्न विषयों को "नाम" कहते हैं; "नाम" शब्द का प्रयोग तो शब्द के ऐसे भिन्न प्रयोगों में होता है जो एक दूसरे से विभिन्न प्रकारों से संबंधित हैं; किन्तु जिस प्रकार का प्रयोग "यह" का होता है वह उनमें से नहीं है।
यूँ कहिए कि भाषा के तर्क को उदात्त बनाने की हमारी प्रवृत्ति ही इस विचित्र संकल्पना का स्रोत है। इसका उचित उत्तर तो यह है: हम विभिन्न विषयों को “नाम” कहते हैं; “नाम” शब्द का प्रयोग तो शब्द के ऐसे भिन्न प्रयोगों में होता है जो एक दूसरे से विभिन्न प्रकारों से संबंधित हैं; किन्तु जिस प्रकार का प्रयोग “यह” का होता है वह उनमें से नहीं है।


उदाहरणार्थ, यह तो नितान्त सत्य है कि, निदर्शनात्मक परिभाषा देते हुए हम बहुधा विषय को इंगित करते हुए उस का नाम पुकारते हैं। और उसी प्रकार, निदर्शनात्मक परिभाषा देते हुए हम विषय को इंगित करते हुए "यह" शब्द कहते हैं। वाक्य में "यह" शब्द का और नाम का स्थान भी बहुधा एक ही होता है। परन्तु यह तो नाम की ही विशेषता है कि उसे "वह है" (अथवा "वह न कहलाता है") प्रदर्शनात्मक अभिव्यक्ति द्वारा परिभाषित किया जाता है। किन्तु क्या हम ऐसी परिभाषाएं भी देते हैं: "वह, 'यह' कहलाता है", अथवा "यह 'यह' कहलाता है"?
उदाहरणार्थ, यह तो नितान्त सत्य है कि, निदर्शनात्मक परिभाषा देते हुए हम बहुधा विषय को इंगित करते हुए उस का नाम पुकारते हैं। और उसी प्रकार, निदर्शनात्मक परिभाषा देते हुए हम विषय को इंगित करते हुए “यह” शब्द कहते हैं। वाक्य में “यह” शब्द का और नाम का स्थान भी बहुधा एक ही होता है। परन्तु यह तो नाम की ही विशेषता है कि उसे “वह है” (अथवा “वह न कहलाता है”) प्रदर्शनात्मक अभिव्यक्ति द्वारा परिभाषित किया जाता है। किन्तु क्या हम ऐसी परिभाषाएं भी देते हैं: “वह, 'यह' कहलाता है”, अथवा “यह 'यह' कहलाता है”?


इसका संबंध नामकरण की ऐसी संकल्पना से है जिसमें उसे कोई रहस्यमय प्रक्रिया माना गया है। नामकरण किसी शब्द का किसी वस्तु से एक ''विचित्र'' संबंध प्रतीत होता है। — और आपको वास्तव में ऐसा विचित्र संबंध मिलता है जब नाम और वस्तु के बीच का ही संबंध दार्शनिक प्रस्तुत करता है। ऐसे संबंध को प्रस्तुत करने के लिए वह अपने समक्ष स्थित वस्तु को अपलक निहारता है एवं किसी नाम को अथवा "यह" शब्द को ही अनेक बार दोहराता है। क्योंकि जब ''भाषा विरत हो जाती है'' तब दार्शनिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं और ''यहाँ'' निस्संदेह हम मिथ्या कल्पना कर सकते हैं कि नामकरण मानो किसी वस्तु के ही नाम रखने की कोई असाधारण मानसिक क्रिया हो। और हम वस्तु के तईं भी "यह" शब्द कह सकते हैं, यूँ कहिए कि वस्तु को हम "यह" से ''संबोधित'' कर सकते हैं — निस्संदेह इस शब्द का विचित्र प्रयोग केवल दार्शनिक चिन्तन में होता है।
इसका संबंध नामकरण की ऐसी संकल्पना से है जिसमें उसे कोई रहस्यमय प्रक्रिया माना गया है। नामकरण किसी शब्द का किसी वस्तु से एक ''विचित्र'' संबंध प्रतीत होता है। — और आपको वास्तव में ऐसा विचित्र संबंध मिलता है जब नाम और वस्तु के बीच का ही संबंध दार्शनिक प्रस्तुत करता है। ऐसे संबंध को प्रस्तुत करने के लिए वह अपने समक्ष स्थित वस्तु को अपलक निहारता है एवं किसी नाम को अथवा “यह” शब्द को ही अनेक बार दोहराता है। क्योंकि जब ''भाषा विरत हो जाती है'' तब दार्शनिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं और ''यहाँ'' निस्संदेह हम मिथ्या कल्पना कर सकते हैं कि नामकरण मानो किसी वस्तु के ही नाम रखने की कोई असाधारण मानसिक क्रिया हो। और हम वस्तु के तईं भी “यह” शब्द कह सकते हैं, यूँ कहिए कि वस्तु को हम “यह” से ''संबोधित'' कर सकते हैं — निस्संदेह इस शब्द का विचित्र प्रयोग केवल दार्शनिक चिन्तन में होता है।


'''39.''' परन्तु किसी की इसी शब्द को ही नाम बनाने की इच्छा क्यों होती है, जबकि स्पष्टत: यह नाम ही ''नहीं'' है? — यही तो कारण है। क्योंकि साधारणतः जो नाम कहलाता है उसके विरुद्ध आपत्ति उठाने का हमें प्रलोभन होता है। इसे यूँ कहा जा सकता है: ''नाम से तो वास्तव में सरल विषय ही निर्दिष्ट होना चाहिए''। और इसके लिए संभवत: निम्नलिखित कारण दिए जा सकते हैं: उदाहरणार्थ, “एक्सकालिबर" शब्द साधारण अर्थ में एक समीचीन नाम है। एक्सकालिबर तलवार तो विभिन्न अंशों का विशिष्ट प्रकार का संयोजन है। यदि उसका संयोजन किसी अन्य प्रकार से किया जाए तो वह एक्सकालिबर नहीं होती। परन्तु यह स्पष्ट है कि "एक्सकालिबर का फल पैना है" वाक्य तो अर्थपूर्ण ही है, चाहे एक्सकालिबर अखंड रहे अथवा खंड-खंड हो जाए। किन्तु यदि "एक्सकालिबर" किसी वस्तु का नाम है तब वह वस्तु रहती ही नहीं जब एक्सकालिबर के खंड हो जाते हैं; और तब इस नाम का कोई अर्थ नहीं होगा क्योंकि तब इसके अनुरूप कोई भी वस्तु नहीं होगी। किन्तु फिर तो "एक्सकालिबर का पैना फल है" वाक्य में एक ऐसा शब्द होगा जिसका कोई अर्थ ही नहीं और इसलिए पूर्ण वाक्य ही निरर्थक होगा। परन्तु इसका अर्थ तो है; अतः इस वाक्य के प्रत्येक शब्द के अनुरूप कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए। अतः, अर्थ के विश्लेषण करने पर "एक्सकालिबर" शब्द को अनिवार्यतः लुप्त हो जाना चाहिए और उसका स्थान उन शब्दों को ले लेना चाहिए जो असंयुक्त-खंडों के नाम हों। उन शब्दों को यथार्थ नाम देना उचित ही होगा।
'''39.''' परन्तु किसी की इसी शब्द को ही नाम बनाने की इच्छा क्यों होती है, जबकि स्पष्टत: यह नाम ही ''नहीं'' है? — यही तो कारण है। क्योंकि साधारणतः जो नाम कहलाता है उसके विरुद्ध आपत्ति उठाने का हमें प्रलोभन होता है। इसे यूँ कहा जा सकता है: ''नाम से तो वास्तव में सरल विषय ही निर्दिष्ट होना चाहिए''। और इसके लिए संभवत: निम्नलिखित कारण दिए जा सकते हैं: उदाहरणार्थ, “एक्सकालिबर“ शब्द साधारण अर्थ में एक समीचीन नाम है। एक्सकालिबर तलवार तो विभिन्न अंशों का विशिष्ट प्रकार का संयोजन है। यदि उसका संयोजन किसी अन्य प्रकार से किया जाए तो वह एक्सकालिबर नहीं होती। परन्तु यह स्पष्ट है कि ”एक्सकालिबर का फल पैना है“ वाक्य तो अर्थपूर्ण ही है, चाहे एक्सकालिबर अखंड रहे अथवा खंड-खंड हो जाए। किन्तु यदि ”एक्सकालिबर“ किसी वस्तु का नाम है तब वह वस्तु रहती ही नहीं जब एक्सकालिबर के खंड हो जाते हैं; और तब इस नाम का कोई अर्थ नहीं होगा क्योंकि तब इसके अनुरूप कोई भी वस्तु नहीं होगी। किन्तु फिर तो ”एक्सकालिबर का पैना फल है“ वाक्य में एक ऐसा शब्द होगा जिसका कोई अर्थ ही नहीं और इसलिए पूर्ण वाक्य ही निरर्थक होगा। परन्तु इसका अर्थ तो है; अतः इस वाक्य के प्रत्येक शब्द के अनुरूप कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए। अतः, अर्थ के विश्लेषण करने पर ”एक्सकालिबर" शब्द को अनिवार्यतः लुप्त हो जाना चाहिए और उसका स्थान उन शब्दों को ले लेना चाहिए जो असंयुक्त-खंडों के नाम हों। उन शब्दों को यथार्थ नाम देना उचित ही होगा।


'''40.''' आइए पहले हम युक्ति के इस पक्ष का विवेचन करें: यदि शब्द के अनुरूप कुछ भी न हो तो उसका कोई अर्थ ही नहीं होता। — यह ध्यान देने योग्य बात है कि यदि "अर्थ" शब्द का प्रयोग उसके 'अनुरूप' वस्तु को इंगित करने के लिए किया जाए तो उसका प्रयोग ही अयुक्त है। वह तो नाम के अर्थ को उस नाम के ''वाहक'' के साथ उलझाना है। जब श्री '''न. न.''' की मृत्यु होती है तो कहा जाता है कि उस नाम के वाहक की मृत्यु हो गई है, न कि उस नाम के अर्थ की। परन्तु यह कहना निरर्थक होगा क्योंकि यदि उस नाम का अर्थ नहीं रहा हो तो “श्री '''न. न.''' की मृत्यु हो गई है" कहने का कोई अर्थ ही नहीं होगा।
'''40.''' आइए पहले हम युक्ति के इस पक्ष का विवेचन करें: यदि शब्द के अनुरूप कुछ भी न हो तो उसका कोई अर्थ ही नहीं होता। — यह ध्यान देने योग्य बात है कि यदि “अर्थ” शब्द का प्रयोग उसके 'अनुरूप' वस्तु को इंगित करने के लिए किया जाए तो उसका प्रयोग ही अयुक्त है। वह तो नाम के अर्थ को उस नाम के ''वाहक'' के साथ उलझाना है। जब श्री '''न. न.''' की मृत्यु होती है तो कहा जाता है कि उस नाम के वाहक की मृत्यु हो गई है, न कि उस नाम के अर्थ की। परन्तु यह कहना निरर्थक होगा क्योंकि यदि उस नाम का अर्थ नहीं रहा हो तो “श्री '''न. न.''' की मृत्यु हो गई है" कहने का कोई अर्थ ही नहीं होगा।


'''41.''' §15 में हमने §8 की भाषा में व्यक्तिवाचक नामों का समावेश किया था। अब मान लीजिए कि "'''न'''" नाम वाला उपकरण टूट गया है। इस बात से अनभिज्ञ '''क''' अब '''ख''' को "'''न'''" संकेत देता है। क्या यह संकेत अब अर्थपूर्ण है या नहीं? — '''ख''' क्या करे जब उसे यह संकेत दिया जाए? — इस बारे में हमने कुछ भी निश्चय
'''41.''' §15 में हमने §8 की भाषा में व्यक्तिवाचक नामों का समावेश किया था। अब मान लीजिए कि '''न'''नाम वाला उपकरण टूट गया है। इस बात से अनभिज्ञ '''क''' अब '''ख''' को '''न'''संकेत देता है। क्या यह संकेत अब अर्थपूर्ण है या नहीं? — '''ख''' क्या करे जब उसे यह संकेत दिया जाए? — इस बारे में हमने कुछ भी निश्चय


नहीं किया है। पूछा जा सकता है: वह करेगा क्या? संभवत: वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ा रहेगा, अथवा '''क''' को उसके खंड दिखाएगा। यहाँ कहा जा ''सकता'' है: "'''न'''" अर्थहीन हो गया है; और इस अभिव्यक्ति का अर्थ होगा कि "'''न'''" संकेत का हमारे भाषा-खेल अब कोई प्रयोग नहीं रहा (यदि हम उसे कोई नया प्रयोग न दें तो)। "'''न'''" इसलिए भी अर्थहीन हो सकता है कि किसी भी कारणवश उपकरण को कोई अन्य नाम दे दिया गया हो और "'''न'''" संकेत को अब भाषा-खेल में प्रयोग नहीं किया जाता हो — किन्तु हम ऐसी परिपाटी की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें जब '''ख''' को '''क''' ऐसे उपकरण का संकेत दे जो खंडित हो चुका हो तो '''ख''' को उत्तर में सिर हिलाना होता है। — कहा जा सकता है कि इस प्रकार उपकरण के न रहने पर भी "'''न'''" आदेश को भाषा-खेल में स्थान दिया गया है, और "'''न'''" संकेत का अर्थ उसके वाहक के न रहने पर भी है।
नहीं किया है। पूछा जा सकता है: वह करेगा क्या? संभवत: वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ा रहेगा, अथवा '''क''' को उसके खंड दिखाएगा। यहाँ कहा जा ''सकता'' है: '''न'''अर्थहीन हो गया है; और इस अभिव्यक्ति का अर्थ होगा कि '''न'''संकेत का हमारे भाषा-खेल अब कोई प्रयोग नहीं रहा (यदि हम उसे कोई नया प्रयोग न दें तो)। '''न'''इसलिए भी अर्थहीन हो सकता है कि किसी भी कारणवश उपकरण को कोई अन्य नाम दे दिया गया हो और '''न'''संकेत को अब भाषा-खेल में प्रयोग नहीं किया जाता हो — किन्तु हम ऐसी परिपाटी की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें जब '''ख''' को '''क''' ऐसे उपकरण का संकेत दे जो खंडित हो चुका हो तो '''ख''' को उत्तर में सिर हिलाना होता है। — कहा जा सकता है कि इस प्रकार उपकरण के न रहने पर भी '''न'''आदेश को भाषा-खेल में स्थान दिया गया है, और '''न'''संकेत का अर्थ उसके वाहक के न रहने पर भी है।


'''42.''' किन्तु, क्या उस खेल में, उदाहरणार्थ, ऐसे नाम का भी कोई अर्थ होता है जिसे ''कभी भी'' किसी भी उपकरण के लिए प्रयोग न किया गया हो? — आइए हम मान लें कि "'''X'''" इस प्रकार का संकेत है, और '''क''' यह संकेत '''ख''' को देता है — हाँ इस प्रकार के संकेतों को भी भाषा-खेल में स्थान दिया जा सकता है, और '''ख''' को उनका उत्तर भी, मानो सिर हिलाकर देना हो सकता है (इसकी कल्पना उनके बीच एक प्रकार के परिहास के रूप में की जा सकती है।)
'''42.''' किन्तु, क्या उस खेल में, उदाहरणार्थ, ऐसे नाम का भी कोई अर्थ होता है जिसे ''कभी भी'' किसी भी उपकरण के लिए प्रयोग न किया गया हो? — आइए हम मान लें कि '''X'''इस प्रकार का संकेत है, और '''क''' यह संकेत '''ख''' को देता है — हाँ इस प्रकार के संकेतों को भी भाषा-खेल में स्थान दिया जा सकता है, और '''ख''' को उनका उत्तर भी, मानो सिर हिलाकर देना हो सकता है (इसकी कल्पना उनके बीच एक प्रकार के परिहास के रूप में की जा सकती है।)


'''43.''' ''अधिकांश'' स्थितियों में — यद्यपि सभी में तो नहीं — जिनमें हम 'अर्थ' शब्द का प्रयोग करते हैं, इसकी परिभाषा यूँ की जा सकती है: किसी भी शब्द का अर्थ तो भाषा में उसका प्रयोग है।
'''43.''' ''अधिकांश'' स्थितियों में — यद्यपि सभी में तो नहीं — जिनमें हम 'अर्थ' शब्द का प्रयोग करते हैं, इसकी परिभाषा यूँ की जा सकती है: किसी भी शब्द का अर्थ तो भाषा में उसका प्रयोग है।
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और नाम के ''अर्थ'' की व्याख्या कभी-कभी उसके ''वाहक'' को इंगित करके की जाती है।
और नाम के ''अर्थ'' की व्याख्या कभी-कभी उसके ''वाहक'' को इंगित करके की जाती है।


'''44.''' हमने कहा कि एक्सकालिबर के खंडित हो जाने पर भी "एक्सकालिबर का पैना फल है" वाक्य अर्थपूर्ण होता है। अब ऐसा इसलिए है कि इस भाषा-खेल में नाम का उसके वाहक की अनुपस्थिति में भी प्रयोग किया जाता है। किन्तु हम नामों (अर्थात् ऐसे संकेतों जिन्हें हम निश्चित रूप से नामों में सम्मिलित करेंगे) वाले ऐसे भाषा-खेल की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें उनका प्रयोग उनके वाहक की उपस्थिति में ही किया जा सकता हो; और इसलिए उन्हें प्रदर्शनात्मक सर्वनाम एवं इंगित करने की भंगिमा द्वारा ''सदैव'' प्रतिस्थापित किया जा सकता हो।
'''44.''' हमने कहा कि एक्सकालिबर के खंडित हो जाने पर भी “एक्सकालिबर का पैना फल है” वाक्य अर्थपूर्ण होता है। अब ऐसा इसलिए है कि इस भाषा-खेल में नाम का उसके वाहक की अनुपस्थिति में भी प्रयोग किया जाता है। किन्तु हम नामों (अर्थात् ऐसे संकेतों जिन्हें हम निश्चित रूप से नामों में सम्मिलित करेंगे) वाले ऐसे भाषा-खेल की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें उनका प्रयोग उनके वाहक की उपस्थिति में ही किया जा सकता हो; और इसलिए उन्हें प्रदर्शनात्मक सर्वनाम एवं इंगित करने की भंगिमा द्वारा ''सदैव'' प्रतिस्थापित किया जा सकता हो।


'''45.''' प्रदर्शनात्मक "यह" कभी भी वाहक विहीन नहीं हो सकता। कहा जा सकता है: "जब तक कोई ''यह'' है तब तक 'यह' शब्द अर्थपूर्ण भी है, चाहे ''यह'' असंयुक्त हो अथवा संयुक्त" — किन्तु उससे यह शब्द नाम तो नहीं बन जाता। इसके विपरीत: नाम का प्रयोग इंगित करने की भंगिमा के साथ नहीं किया जाता अपितु उस भंगिमा द्वारा उसकी तो केवल व्याख्या ही की जाती है।
'''45.''' प्रदर्शनात्मक “यह” कभी भी वाहक विहीन नहीं हो सकता। कहा जा सकता है: “जब तक कोई ''यह'' है तब तक 'यह' शब्द अर्थपूर्ण भी है, चाहे ''यह'' असंयुक्त हो अथवा संयुक्त” — किन्तु उससे यह शब्द नाम तो नहीं बन जाता। इसके विपरीत: नाम का प्रयोग इंगित करने की भंगिमा के साथ नहीं किया जाता अपितु उस भंगिमा द्वारा उसकी तो केवल व्याख्या ही की जाती है।


'''46.''' नाम वस्तुत: असंयुक्तों को इंगित करते हैं, इस विचार की पृष्ठभूमि क्या है? —
'''46.''' नाम वस्तुत: असंयुक्तों को इंगित करते हैं, इस विचार की पृष्ठभूमि क्या है? —
''थिएटेटस'' में सुकरात कहते हैं: "यदि मैं कोई भूल नहीं कर रहा तो मैंने कुछ लोगों को यह कहते हुए सुना है: मूल तत्त्वों की, यानि उन तत्त्वों की जिनसे हमारी और अन्य सभी विषयों की संरचना हुई है, कोई परिभाषा नहीं होती; क्योंकि प्रत्येक स्वयंभू विषय का तो ''नामकरण'' ही किया जा सकता है, अन्य निर्धारण संभव ही नहीं, न तो यूँ ही कि वह है, न ही यूँ कि यह नहीं है....। किन्तु जो स्वयंभू है उस का.... नामकरण तो किसी अन्य निर्धारण के बिना ही करना है। परिणामस्वरूप किसी भी मूल तत्त्व का विवरण देना असंभव है; उसके लिए मात्र नाम के अतिरिक्त कुछ भी संभव नहीं, अपना नाम ही उसका सर्वस्व है। किन्तु जिस प्रकार जो भी इन मूल तत्त्वों से संरचित है वह स्वयं संयुक्त होता है, उसी प्रकार संरचना द्वारा तत्त्वों के नाम वर्णनात्मक भाषा बन जाते हैं। क्योंकि वाक् का सार तो नामों का संकलन है।"
''थिएटेटस'' में सुकरात कहते हैं: “यदि मैं कोई भूल नहीं कर रहा तो मैंने कुछ लोगों को यह कहते हुए सुना है: मूल तत्त्वों की, यानि उन तत्त्वों की जिनसे हमारी और अन्य सभी विषयों की संरचना हुई है, कोई परिभाषा नहीं होती; क्योंकि प्रत्येक स्वयंभू विषय का तो ''नामकरण'' ही किया जा सकता है, अन्य निर्धारण संभव ही नहीं, न तो यूँ ही कि वह है, न ही यूँ कि यह नहीं है....। किन्तु जो स्वयंभू है उस का.... नामकरण तो किसी अन्य निर्धारण के बिना ही करना है। परिणामस्वरूप किसी भी मूल तत्त्व का विवरण देना असंभव है; उसके लिए मात्र नाम के अतिरिक्त कुछ भी संभव नहीं, अपना नाम ही उसका सर्वस्व है। किन्तु जिस प्रकार जो भी इन मूल तत्त्वों से संरचित है वह स्वयं संयुक्त होता है, उसी प्रकार संरचना द्वारा तत्त्वों के नाम वर्णनात्मक भाषा बन जाते हैं। क्योंकि वाक् का सार तो नामों का संकलन है।”


रॅसेल के 'विशेष' और मेरे 'विषय' (''ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलॉसफ़िक्स'') दोनों ही ऐसे मूल तत्त्व थे।
रॅसेल के 'विशेष' और मेरे 'विषय' (''ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलॉसफ़िक्स'') दोनों ही ऐसे मूल तत्त्व थे।


'''47.''' किन्तु वे संयुक्त संघटक कौन से हैं जिनसे यथार्थ की संरचना हुई है? — कुर्सी के असंयुक्त संघटक कौन से हैं? — लकड़ी के वे अंश जिनसे वह बनी है? अथवा अणु, या परमाणु? — "असंयुक्त" का अर्थ है: संयुक्त नहीं। और यहाँ विचारणीय है: 'संयुक्त' किस अर्थ में? निरपेक्ष रूप से 'कुर्सी के असंयुक्त भाग' कहने का तो कोई अर्थ ही नहीं होता।
'''47.''' किन्तु वे संयुक्त संघटक कौन से हैं जिनसे यथार्थ की संरचना हुई है? — कुर्सी के असंयुक्त संघटक कौन से हैं? — लकड़ी के वे अंश जिनसे वह बनी है? अथवा अणु, या परमाणु? — “असंयुक्त” का अर्थ है: संयुक्त नहीं। और यहाँ विचारणीय है: 'संयुक्त' किस अर्थ में? निरपेक्ष रूप से 'कुर्सी के असंयुक्त भाग' कहने का तो कोई अर्थ ही नहीं होता।


फिर: क्या इस वृक्ष का मेरा चाक्षुष प्रत्यक्ष घटकों में बंटा है? और इसके असंयुक्त घटक कौन से हैं? बहुरंगी होना एक प्रकार की संयुक्तता है; एक अन्य प्रकार की संयुक्तता का उदाहरण सरल खंडों से रचित खंडित रूपरेखा है। और वक्राकृति को आरोही एवं अवरोही खंडों से संरचित भी कहा जा सकता है।
फिर: क्या इस वृक्ष का मेरा चाक्षुष प्रत्यक्ष घटकों में बंटा है? और इसके असंयुक्त घटक कौन से हैं? बहुरंगी होना एक प्रकार की संयुक्तता है; एक अन्य प्रकार की संयुक्तता का उदाहरण सरल खंडों से रचित खंडित रूपरेखा है। और वक्राकृति को आरोही एवं अवरोही खंडों से संरचित भी कहा जा सकता है।
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यदि मैं बिना किसी और व्याख्या के किसी को कहूँ: अब मैं अपने समक्ष जो देख रहा हूँ वह संयुक्त है, तो उसे यह पूछने का अधिकार होगा: "'संयुक्त' से आपका
यदि मैं बिना किसी और व्याख्या के किसी को कहूँ: अब मैं अपने समक्ष जो देख रहा हूँ वह संयुक्त है, तो उसे यह पूछने का अधिकार होगा: "'संयुक्त' से आपका


क्या अर्थ है? क्योंकि उसका अर्थ अनेक प्रकार के विषय हो सकते हैं!" "जो आप देख रहे हैं क्या वह संयुक्त है?" प्रश्न तो अर्थपूर्ण होता है यदि यह पहले से सुनिश्चित हो कि किस प्रकार की संयुक्तता — अर्थात् शब्द के किस विशिष्ट प्रयोग की बात है। यदि यह नियत हो कि वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष "संयुक्त" कहलाएगा जब हमें एक मात्र तना ही न दिखाई दे अपितु शाखाएं भी दिखाई दें तो "क्या इस वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष असंयुक्त है, अथवा संयुक्त?" प्रश्न और "उसके असंयुक्त घटक कौन से हैं?" प्रश्न का एक स्पष्ट अर्थ, एक स्पष्ट प्रयोग होगा। और निस्संदेह द्वितीय प्रश्न का उत्तर "उसकी शाखाएं " तो नहीं है (वह तो व्याकरण सम्मत प्रश्न — "यहाँ 'असंयुक्त घटक' किसे कहते हैं?" — का उत्तर होगा) अपितु इस प्रश्न का उत्तर उसकी विभिन्न शाखाओं का विवरण होगा।
क्या अर्थ है? क्योंकि उसका अर्थ अनेक प्रकार के विषय हो सकते हैं!”जो आप देख रहे हैं क्या वह संयुक्त है?प्रश्न तो अर्थपूर्ण होता है यदि यह पहले से सुनिश्चित हो कि किस प्रकार की संयुक्तता — अर्थात् शब्द के किस विशिष्ट प्रयोग की बात है। यदि यह नियत हो कि वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष ”संयुक्त“ कहलाएगा जब हमें एक मात्र तना ही न दिखाई दे अपितु शाखाएं भी दिखाई दें तो ”क्या इस वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष असंयुक्त है, अथवा संयुक्त?प्रश्न और ”उसके असंयुक्त घटक कौन से हैं?प्रश्न का एक स्पष्ट अर्थ, एक स्पष्ट प्रयोग होगा। और निस्संदेह द्वितीय प्रश्न का उत्तर ”उसकी शाखाएं तो नहीं है (वह तो व्याकरण सम्मत प्रश्न — ”यहाँ 'असंयुक्त घटक' किसे कहते हैं?" — का उत्तर होगा) अपितु इस प्रश्न का उत्तर उसकी विभिन्न शाखाओं का विवरण होगा।


किन्तु क्या, उदाहरणार्थ, शतरंज की बिसात, स्पष्टतः एवं निरपेक्ष रूप से संयुक्त नहीं है? — संभवतः आप बत्तीस श्वेत और बत्तीस श्याम वर्गों की संरचना के बारे में सोच रहे हैं। किन्तु उदाहरणार्थ, क्या ऐसा नहीं कि आप भी यह कह सकते हैं कि यह श्याम एवं श्वेत रंगों से और वर्गाकृति से संरचित है? और यदि इसके अवलोकन के विभिन्न ढंग हैं तो भी क्या आप कहना चाहेंगे कि शतरंज की बिसात निरपेक्ष रूप से 'संयुक्त' है? — किसी विशिष्ट भाषा-खेल के ''बाहर'' "क्या यह विषय संयुक्त है?" पूछना तो ऐसा है जैसा एक बार एक लड़के ने किया जिसको यह बताना था कि प्रदत्त वाक्यों की क्रियाएं कर्तृवाच्य हैं अथवा कर्मवाच्य और उसने माथापच्ची इस प्रश्न पर की कि क्या "शयन" क्रिया सकर्मक है या अकर्मक|
किन्तु क्या, उदाहरणार्थ, शतरंज की बिसात, स्पष्टतः एवं निरपेक्ष रूप से संयुक्त नहीं है? — संभवतः आप बत्तीस श्वेत और बत्तीस श्याम वर्गों की संरचना के बारे में सोच रहे हैं। किन्तु उदाहरणार्थ, क्या ऐसा नहीं कि आप भी यह कह सकते हैं कि यह श्याम एवं श्वेत रंगों से और वर्गाकृति से संरचित है? और यदि इसके अवलोकन के विभिन्न ढंग हैं तो भी क्या आप कहना चाहेंगे कि शतरंज की बिसात निरपेक्ष रूप से 'संयुक्त' है? — किसी विशिष्ट भाषा-खेल के ''बाहर'' “क्या यह विषय संयुक्त है?पूछना तो ऐसा है जैसा एक बार एक लड़के ने किया जिसको यह बताना था कि प्रदत्त वाक्यों की क्रियाएं कर्तृवाच्य हैं अथवा कर्मवाच्य और उसने माथापच्ची इस प्रश्न पर की कि क्या “शयन” क्रिया सकर्मक है या अकर्मक|


"संयुक्त" शब्द (और इसीलिए "असंयुक्त " शब्द) का प्रयोग हम भिन्न, एवं विभिन्न प्रकार से सम्बन्धित ढंगों से करते हैं। (क्या शतरंज की बिसात के वर्ग का रंग असंयुक्त होता है, अथवा क्या वह इन्द्रधनुष के रंगों से बना है? और क्या श्वेत असंयुक्त है, अथवा क्या वह इन्द्रधनुष के रंगों से बना है? क्या 2 सेंटीमीटर की यह लम्बाई असंयुक्त है, अथवा क्या वह 1 सेंटीमीटर लम्बे दो भागों से बनी है? किन्तु 3 सेंटीमीटर लम्बे एक खंड और विपरीत दिशा में मापे गए 1 सेंटीमीटर के एक खंड से क्यों नहीं बनी हो सकती?)
“संयुक्त” शब्द (और इसीलिए “असंयुक्त ” शब्द) का प्रयोग हम भिन्न, एवं विभिन्न प्रकार से सम्बन्धित ढंगों से करते हैं। (क्या शतरंज की बिसात के वर्ग का रंग असंयुक्त होता है, अथवा क्या वह इन्द्रधनुष के रंगों से बना है? और क्या श्वेत असंयुक्त है, अथवा क्या वह इन्द्रधनुष के रंगों से बना है? क्या 2 सेंटीमीटर की यह लम्बाई असंयुक्त है, अथवा क्या वह 1 सेंटीमीटर लम्बे दो भागों से बनी है? किन्तु 3 सेंटीमीटर लम्बे एक खंड और विपरीत दिशा में मापे गए 1 सेंटीमीटर के एक खंड से क्यों नहीं बनी हो सकती?)


"क्या इस वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष संयुक्त है, और उसके घटक कौन से हैं?" ऐसे ''दार्शनिक'' प्रश्न का उचित उत्तर है: "वह इस पर निर्भर है कि आप 'असंयुक्त' से क्या समझते हैं।" (और निस्संदेह वह उत्तर नहीं अपितु प्रश्न को ही खारिज करना है।)
“क्या इस वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष संयुक्त है, और उसके घटक कौन से हैं?ऐसे ''दार्शनिक'' प्रश्न का उचित उत्तर है: “वह इस पर निर्भर है कि आप 'असंयुक्त' से क्या समझते हैं।” (और निस्संदेह वह उत्तर नहीं अपितु प्रश्न को ही खारिज करना है।)


48. आइए हम §2 की पद्धति से ''थिएटेटस'' के विवरण पर विचार करें। ऐसे भाषा-खेल का विचार करें जिसके लिए यह विवरण वास्तव में वैध हो। यह भाषा है किसी सतह पर रंगीन वर्गों के संयोजनों का विवरण देने की। ये वर्ग शतरंज की बिसात के सदृश एक संकुल बनाते हैं। लाल, हरे, श्वेत और श्याम वर्ग हैं। भाषा के शब्द (तदनुसार) हैं: "'''ला'''", "'''ह'''", "'''श्वे'''", "'''श्या'''", और वाक्य हैं इन शब्दों की कोई श्रृंखला। वे वर्गों के विन्यास का विवरण इस क्रम में देते हैं:
48. आइए हम §2 की पद्धति से ''थिएटेटस'' के विवरण पर विचार करें। ऐसे भाषा-खेल का विचार करें जिसके लिए यह विवरण वास्तव में वैध हो। यह भाषा है किसी सतह पर रंगीन वर्गों के संयोजनों का विवरण देने की। ये वर्ग शतरंज की बिसात के सदृश एक संकुल बनाते हैं। लाल, हरे, श्वेत और श्याम वर्ग हैं। भाषा के शब्द (तदनुसार) हैं: '''ला''', '''ह''', '''श्वे''', '''श्या''', और वाक्य हैं इन शब्दों की कोई श्रृंखला। वे वर्गों के विन्यास का विवरण इस क्रम में देते हैं:


{{PU 48-1}}
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{{PU 48-2}}
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यहाँ वाक्य नामों का एक ऐसा संकुल है जिसके अनुरूप तत्त्वों का संकुल है। मूल तत्त्व हैं रंगीन वर्ग। “किन्तु क्या वे असंयुक्त विषय हैं?" — मुझे नहीं पता कि आप मुझसे और किसे "असंयुक्त" कहलवाएंगे, इस भाषा-खेल में इससे अधिक स्वाभाविक क्या होगा? किन्तु अन्य परिस्थितियों में मुझे इकरंगे वर्ग को "संयुक्त" कहना चाहिए क्योंकि वह संभवतः दो आयतों को, अथवा रंग एवं आकृति के तत्त्वों को मिलाकर बना है। किन्तु संयुक्तता के प्रत्यय का विस्तार इस प्रकार भी किया जा सकता है कि लघु क्षेत्र को बृहत् क्षेत्र से किसी अन्य क्षेत्र को घटाने से 'बना हुआ' कहा जा सके। 'बलों की संहति' की बाह्य बिन्दु द्वारा रेखा के 'विभाजन' से तुलना कीजिए: ये अभिव्यक्तियां दर्शाती हैं कि कभी-कभी हम लघु को बृहत् भागों की संरचना के परिणाम और बृहत् को लघु भागों के विभाजन के परिणाम की धारणा बनाने को प्रवृत्त होते हैं।
यहाँ वाक्य नामों का एक ऐसा संकुल है जिसके अनुरूप तत्त्वों का संकुल है। मूल तत्त्व हैं रंगीन वर्ग। “किन्तु क्या वे असंयुक्त विषय हैं?— मुझे नहीं पता कि आप मुझसे और किसे ”असंयुक्त“ कहलवाएंगे, इस भाषा-खेल में इससे अधिक स्वाभाविक क्या होगा? किन्तु अन्य परिस्थितियों में मुझे इकरंगे वर्ग को ”संयुक्त" कहना चाहिए क्योंकि वह संभवतः दो आयतों को, अथवा रंग एवं आकृति के तत्त्वों को मिलाकर बना है। किन्तु संयुक्तता के प्रत्यय का विस्तार इस प्रकार भी किया जा सकता है कि लघु क्षेत्र को बृहत् क्षेत्र से किसी अन्य क्षेत्र को घटाने से 'बना हुआ' कहा जा सके। 'बलों की संहति' की बाह्य बिन्दु द्वारा रेखा के 'विभाजन' से तुलना कीजिए: ये अभिव्यक्तियां दर्शाती हैं कि कभी-कभी हम लघु को बृहत् भागों की संरचना के परिणाम और बृहत् को लघु भागों के विभाजन के परिणाम की धारणा बनाने को प्रवृत्त होते हैं।


किन्तु मैं नहीं जानता कि हमारे वाक्य द्वारा वर्णित आकृति को चार तत्त्वों से बना हुआ कहा जाए अथवा नौ तत्त्वों से ! अच्छा, क्या यह वाक्य चार अक्षर का है अथवा नौ का? — और ''इसके'' तत्त्व कौन से हैं, अक्षर-प्रारूप, अथवा अक्षर? हम उत्तर में क्या कहते हैं इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि हम परिस्थिति विशेष में भ्रान्तियों से बचे रहें।
किन्तु मैं नहीं जानता कि हमारे वाक्य द्वारा वर्णित आकृति को चार तत्त्वों से बना हुआ कहा जाए अथवा नौ तत्त्वों से ! अच्छा, क्या यह वाक्य चार अक्षर का है अथवा नौ का? — और ''इसके'' तत्त्व कौन से हैं, अक्षर-प्रारूप, अथवा अक्षर? हम उत्तर में क्या कहते हैं इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि हम परिस्थिति विशेष में भ्रान्तियों से बचे रहें।
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'''49.''' किन्तु यह कहने का क्या अर्थ है कि इन तत्त्वों को हम परिभाषित (अर्थात् वर्णित) नहीं कर सकते, अपितु उनका तो हम नामकरण ही कर सकते हैं? उदाहरणार्थ, इसका अर्थ हो सकता है कि जब किसी चरम स्थिति में कोई संकुल केवल ''एक ही'' वर्ग से बना हो तो उसका विवरण उस रंगीन वर्ग का नाम ही होता है।
'''49.''' किन्तु यह कहने का क्या अर्थ है कि इन तत्त्वों को हम परिभाषित (अर्थात् वर्णित) नहीं कर सकते, अपितु उनका तो हम नामकरण ही कर सकते हैं? उदाहरणार्थ, इसका अर्थ हो सकता है कि जब किसी चरम स्थिति में कोई संकुल केवल ''एक ही'' वर्ग से बना हो तो उसका विवरण उस रंगीन वर्ग का नाम ही होता है।


यहाँ हम कह सकते हैं — यद्यपि इससे सभी प्रकार के दार्शनिक अन्धविश्वासों का रास्ता खुल जाता है — कि "'''ला'''" अथवा "'''श्या'''" इत्यादि संकेत कभी तो शब्द और कभी प्रतिज्ञप्ति हो सकते हैं। किन्तु यह 'शब्द है अथवा प्रतिज्ञप्ति' तो उस परिस्थिति पर निर्भर है जिसमें उसे कहा अथवा लिखा गया है। उदाहरणार्थ, यदि '''क''' को '''ख''' के लिए रंगीन वर्गों के संकुल का विवरण देना है और वह केवल '''ला''' शब्द को ''ही'' प्रयोग करता है तो हम कह सकते हैं कि यह शब्द विवरण है — प्रतिज्ञप्ति है। किन्तु यदि वह शब्दों को और उनके अर्थों को कंठस्थ कर रहा है, अथवा यदि वह किसी और को शब्दों का प्रयोग सिखा रहा है और निदर्शनात्मक शिक्षण की प्रक्रिया में उन शब्दों का उच्चारण कर रहा है तो हम यह नहीं कहेंगे कि वे प्रतिज्ञप्तियां हैं। उदाहरणार्थ, इस परिस्थिति में, "'''ला'''" शब्द विवरण नहीं है; वह किसी तत्त्व का ''नाम'' है — किन्तु इस तत्त्व का तो ''केवल'' नामकरण ही किया जा सकता है यह कहने का आधार बनाना तो विचित्र ही होगा। क्योंकि नामकरण और विवरण देना एक जैसा नहीं है: नामकरण तो विवरण की तैयारी है। नामकरण अभी तक भाषा-खेल में कोई चाल नहीं है — उसी प्रकार जैसे कि बिसात पर मोहरे को उसके स्थान पर रखना शतरंज की कोई चाल नहीं होती। हम कह सकते हैं: जब किसी वस्तु का नामकरण भर किया गया है तब
यहाँ हम कह सकते हैं — यद्यपि इससे सभी प्रकार के दार्शनिक अन्धविश्वासों का रास्ता खुल जाता है — कि '''ला'''अथवा '''श्या'''इत्यादि संकेत कभी तो शब्द और कभी प्रतिज्ञप्ति हो सकते हैं। किन्तु यह 'शब्द है अथवा प्रतिज्ञप्ति' तो उस परिस्थिति पर निर्भर है जिसमें उसे कहा अथवा लिखा गया है। उदाहरणार्थ, यदि '''क''' को '''ख''' के लिए रंगीन वर्गों के संकुल का विवरण देना है और वह केवल '''ला''' शब्द को ''ही'' प्रयोग करता है तो हम कह सकते हैं कि यह शब्द विवरण है — प्रतिज्ञप्ति है। किन्तु यदि वह शब्दों को और उनके अर्थों को कंठस्थ कर रहा है, अथवा यदि वह किसी और को शब्दों का प्रयोग सिखा रहा है और निदर्शनात्मक शिक्षण की प्रक्रिया में उन शब्दों का उच्चारण कर रहा है तो हम यह नहीं कहेंगे कि वे प्रतिज्ञप्तियां हैं। उदाहरणार्थ, इस परिस्थिति में, '''ला'''शब्द विवरण नहीं है; वह किसी तत्त्व का ''नाम'' है — किन्तु इस तत्त्व का तो ''केवल'' नामकरण ही किया जा सकता है यह कहने का आधार बनाना तो विचित्र ही होगा। क्योंकि नामकरण और विवरण देना एक जैसा नहीं है: नामकरण तो विवरण की तैयारी है। नामकरण अभी तक भाषा-खेल में कोई चाल नहीं है — उसी प्रकार जैसे कि बिसात पर मोहरे को उसके स्थान पर रखना शतरंज की कोई चाल नहीं होती। हम कह सकते हैं: जब किसी वस्तु का नामकरण भर किया गया है तब


तक कुछ भी ''नहीं'' किया गया। उस भाषा-खेल से परे तो उसे नाम भी नहीं ''मिला''। फ्रेगे का भी यही तात्पर्य था जब उन्होंने कहा कि: वाक्य के अवयव के रूप में ही शब्द अर्थपूर्ण होता है।
तक कुछ भी ''नहीं'' किया गया। उस भाषा-खेल से परे तो उसे नाम भी नहीं ''मिला''। फ्रेगे का भी यही तात्पर्य था जब उन्होंने कहा कि: वाक्य के अवयव के रूप में ही शब्द अर्थपूर्ण होता है।


'''50.''' यह कहने का क्या अर्थ है कि तत्त्वों को न तो हम सत् और न ही असत् कह सकते हैं? — कहा जा सकता है: जिसे भी हम "सत्" और "असत्" कहते हैं यदि वह तत्त्वों के संबंधों के होने एवं न होने में निहित है तो तत्त्व को सत् (असत्) कहने का कोई अर्थ ही नहीं होता; ठीक वैसे ही जैसे कि जिसे भी हम "विनाश" कहते हैं यदि वह तत्त्वों के पृथक्करण में निहित है तो तत्त्व का विनाश कहने का कोई अर्थ ही नहीं होता।
'''50.''' यह कहने का क्या अर्थ है कि तत्त्वों को न तो हम सत् और न ही असत् कह सकते हैं? — कहा जा सकता है: जिसे भी हम “सत्” और “असत्” कहते हैं यदि वह तत्त्वों के संबंधों के होने एवं न होने में निहित है तो तत्त्व को सत् (असत्) कहने का कोई अर्थ ही नहीं होता; ठीक वैसे ही जैसे कि जिसे भी हम “विनाश” कहते हैं यदि वह तत्त्वों के पृथक्करण में निहित है तो तत्त्व का विनाश कहने का कोई अर्थ ही नहीं होता।


फिर भी कोई कहना चाहेगा: तत्त्व पर सत्ता आरोपित नहीं की जा सकती क्योंकि यदि वह तत्त्व ''होता'' ही नहीं तो उसका नामकरण भी नहीं किया जा सकता था, और इसीलिए उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। — किन्तु आइए हम एक समानान्तर स्थिति पर विचार करें। ''एक'' ऐसी वस्तु है जिसके बारे में न तो यह कहा जा सकता है कि वह एक मीटर लम्बी है और न ही यह कि वह एक मीटर लम्बी नहीं है, और वह है पेरिस में रखा मानक मीटर। — किन्तु निस्संदेह यह उस पर कोई साधारण गुण आरोपित करना नहीं है, अपितु मीटर-पैमाने के मापने के भाषा-खेल में उसकी विशिष्ट भूमिका को लक्षित करना मात्र है। — आइए हम मानक मीटर की भांति रंग के नमूनों की पेरिस में परिरक्षित होने की कल्पना करें। हम परिभाषित करते हैं: "सीपिया" का अर्थ है उस मानक सीपिया का रंग जो वहाँ सुरक्षित है। तब यह कहने का कोई अर्थ ही नहीं होगा कि यह नमूना इस रंग का है, अथवा यह इस रंग का नहीं है।
फिर भी कोई कहना चाहेगा: तत्त्व पर सत्ता आरोपित नहीं की जा सकती क्योंकि यदि वह तत्त्व ''होता'' ही नहीं तो उसका नामकरण भी नहीं किया जा सकता था, और इसीलिए उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। — किन्तु आइए हम एक समानान्तर स्थिति पर विचार करें। ''एक'' ऐसी वस्तु है जिसके बारे में न तो यह कहा जा सकता है कि वह एक मीटर लम्बी है और न ही यह कि वह एक मीटर लम्बी नहीं है, और वह है पेरिस में रखा मानक मीटर। — किन्तु निस्संदेह यह उस पर कोई साधारण गुण आरोपित करना नहीं है, अपितु मीटर-पैमाने के मापने के भाषा-खेल में उसकी विशिष्ट भूमिका को लक्षित करना मात्र है। — आइए हम मानक मीटर की भांति रंग के नमूनों की पेरिस में परिरक्षित होने की कल्पना करें। हम परिभाषित करते हैं: “सीपिया” का अर्थ है उस मानक सीपिया का रंग जो वहाँ सुरक्षित है। तब यह कहने का कोई अर्थ ही नहीं होगा कि यह नमूना इस रंग का है, अथवा यह इस रंग का नहीं है।


हम इसे यूँ कह सकते हैं: यह नमूना तो रंग-निर्धारण में प्रयोग की जाने वाली भाषा का उपकरण है। इस भाषा-खेल में किसी विषय का निरूपण नहीं होता, अपितु इसमें तो निरूपित करने के साधन होते हैं। और भाषा — खेल §48 वाले तत्त्व के साथ यही होता है जब "'''ला'''" शब्द को उच्चारित करके हम उसका नामकरण करते हैं: इससे उस विषय को हमारे भाषा-खेल में एक भूमिका मिलती है; वह अब निरूपण का ''साधन'' है। और "यदि इसकी ''सत्ता'' नहीं होती तो इसका नाम भी नहीं होता" कहना तो केवल इतना ही कहना है: यदि इस वस्तु की सत्ता नहीं होती तो अपने भाषा-खेल में हम इसका प्रयोग भी नहीं कर सकते थे। यह आभास कि उसकी सत्ता तो होनी ही ''चाहिए'' भाषा का अंग ही है। यह तो हमारे भाषा-खेल का एक प्रतिमान है; एक ऐसा विषय है जिससे तुलना की जाती है। और यह एक महत्त्वपूर्ण प्रेक्षण हो सकता है; किन्तु फिर भी यह प्रेक्षण हमारे भाषा-खेल से — हमारे निरूपण की विधि से — संबंधित है।
हम इसे यूँ कह सकते हैं: यह नमूना तो रंग-निर्धारण में प्रयोग की जाने वाली भाषा का उपकरण है। इस भाषा-खेल में किसी विषय का निरूपण नहीं होता, अपितु इसमें तो निरूपित करने के साधन होते हैं। और भाषा — खेल §48 वाले तत्त्व के साथ यही होता है जब '''ला'''शब्द को उच्चारित करके हम उसका नामकरण करते हैं: इससे उस विषय को हमारे भाषा-खेल में एक भूमिका मिलती है; वह अब निरूपण का ''साधन'' है। और “यदि इसकी ''सत्ता'' नहीं होती तो इसका नाम भी नहीं होता” कहना तो केवल इतना ही कहना है: यदि इस वस्तु की सत्ता नहीं होती तो अपने भाषा-खेल में हम इसका प्रयोग भी नहीं कर सकते थे। यह आभास कि उसकी सत्ता तो होनी ही ''चाहिए'' भाषा का अंग ही है। यह तो हमारे भाषा-खेल का एक प्रतिमान है; एक ऐसा विषय है जिससे तुलना की जाती है। और यह एक महत्त्वपूर्ण प्रेक्षण हो सकता है; किन्तु फिर भी यह प्रेक्षण हमारे भाषा-खेल से — हमारे निरूपण की विधि से — संबंधित है।


'''51.''' भाषा-खेल §48 का विवरण देते हुए मैंने कहा था कि "'''ला'''", "'''का'''" इत्यादि शब्द वर्गों के रंगों के अनुरूप हैं। किन्तु यह अनुरूपता किस में निहित है; किस अर्थ में कहा जा सकता है कि वर्गों के कुछ विशिष्ट रंग इन संकेतों के अनुरूप हैं? क्योंकि §48 में दिया गया विवरण तो इन संकेतों और हमारी भाषा के कुछ शब्दों (रंगों के नामों) में मात्र संबंध ही स्थापित करता है। — हाँ, यह पूर्वकल्पना तो की गई थी कि भाषा-खेल में इन संकेतों के प्रयोग को भिन्न प्रकार से, विशेषकर प्रतिमानों को इंगित करके सिखाया जाएगा। बिल्कुल ठीक; किन्तु यह कहने का क्या अर्थ है कि ''भाषा को प्रयोग करने की तकनीक में'' कुछ तत्त्व संकेतों के अनुरूप होते हैं। — क्या ऐसा होता है कि रंगीन वर्गों के संकुलों का विवरण देने वाला व्यक्ति जहाँ भी लाल वर्ग होता है वहाँ "'''ला'''" कहता है; जहाँ काला होता है वहाँ "'''का'''" कहता है एवं तथावत्? किन्तु क्या हो यदि वह विवरण देने में भूल कर दे और जहाँ उसे काला वर्ग दिखाई देता है वहाँ वह भूल से "'''ला'''" कह दे — वह कौन सी कसौटी है जिसके अनुसार यह ''भूल'' है? — अथवा क्या "'''ला'''" के लाल वर्ग के स्थान पर होने में यह निहित है कि वे लोग जिनकी यह भाषा है जब "'''ला'''" संकेत को प्रयोग करते हैं तो उनके मन के समक्ष सदैव ही एक लाल वर्ग आ जाता है?
'''51.''' भाषा-खेल §48 का विवरण देते हुए मैंने कहा था कि '''ला''', '''का'''इत्यादि शब्द वर्गों के रंगों के अनुरूप हैं। किन्तु यह अनुरूपता किस में निहित है; किस अर्थ में कहा जा सकता है कि वर्गों के कुछ विशिष्ट रंग इन संकेतों के अनुरूप हैं? क्योंकि §48 में दिया गया विवरण तो इन संकेतों और हमारी भाषा के कुछ शब्दों (रंगों के नामों) में मात्र संबंध ही स्थापित करता है। — हाँ, यह पूर्वकल्पना तो की गई थी कि भाषा-खेल में इन संकेतों के प्रयोग को भिन्न प्रकार से, विशेषकर प्रतिमानों को इंगित करके सिखाया जाएगा। बिल्कुल ठीक; किन्तु यह कहने का क्या अर्थ है कि ''भाषा को प्रयोग करने की तकनीक में'' कुछ तत्त्व संकेतों के अनुरूप होते हैं। — क्या ऐसा होता है कि रंगीन वर्गों के संकुलों का विवरण देने वाला व्यक्ति जहाँ भी लाल वर्ग होता है वहाँ '''ला'''कहता है; जहाँ काला होता है वहाँ '''का'''कहता है एवं तथावत्? किन्तु क्या हो यदि वह विवरण देने में भूल कर दे और जहाँ उसे काला वर्ग दिखाई देता है वहाँ वह भूल से '''ला'''कह दे — वह कौन सी कसौटी है जिसके अनुसार यह ''भूल'' है? — अथवा क्या '''ला'''के लाल वर्ग के स्थान पर होने में यह निहित है कि वे लोग जिनकी यह भाषा है जब '''ला'''संकेत को प्रयोग करते हैं तो उनके मन के समक्ष सदैव ही एक लाल वर्ग आ जाता है?


इस और इसके समान अनगिनत स्थितियों में बातों को अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए जो कुछ वास्तव में घटित होता है उसके विस्तृत विवरण पर हमें अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए; उनका ''सूक्ष्म'' निरीक्षण करना चाहिए।
इस और इसके समान अनगिनत स्थितियों में बातों को अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए जो कुछ वास्तव में घटित होता है उसके विस्तृत विवरण पर हमें अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए; उनका ''सूक्ष्म'' निरीक्षण करना चाहिए।
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'''53.''' हमारे भाषा - खेल §48 में ''अनेक'' संभावनाएं हैं, ऐसी विविध परिस्थितियां हैं जिनमें हमें कहना चाहिए कि उस खेल में प्रयुक्त संकेत अमुक रंग के वर्ग का नाम था। उदाहरणार्थ, हमें ऐसा कहना चाहिए यदि हमें विदित हो कि उन लोगों को, जो इस भाषा का प्रयोग करते हैं, संकेतों का प्रयोग अमुक प्रकार से सिखाया गया है। अथवा यदि उसे लिखित रूप दिया गया हो, उदाहरणार्थ, ऐसी सारिणी के आकार में, जिसमें यह बताया गया हो कि यह तत्त्व इस संकेत से संबद्ध है, और यदि भाषा के प्रशिक्षण में उस सारिणी का प्रयोग किया जाए और विशेष विवादास्पद स्थितियों में उससे निर्देश लिए जाएं।
'''53.''' हमारे भाषा - खेल §48 में ''अनेक'' संभावनाएं हैं, ऐसी विविध परिस्थितियां हैं जिनमें हमें कहना चाहिए कि उस खेल में प्रयुक्त संकेत अमुक रंग के वर्ग का नाम था। उदाहरणार्थ, हमें ऐसा कहना चाहिए यदि हमें विदित हो कि उन लोगों को, जो इस भाषा का प्रयोग करते हैं, संकेतों का प्रयोग अमुक प्रकार से सिखाया गया है। अथवा यदि उसे लिखित रूप दिया गया हो, उदाहरणार्थ, ऐसी सारिणी के आकार में, जिसमें यह बताया गया हो कि यह तत्त्व इस संकेत से संबद्ध है, और यदि भाषा के प्रशिक्षण में उस सारिणी का प्रयोग किया जाए और विशेष विवादास्पद स्थितियों में उससे निर्देश लिए जाएं।


ऐसी सारिणी के भाषा के प्रयोग में उपकरण होने की भी हम कल्पना कर सकते हैं। तो, संकुल का विवरण इस प्रकार दिया जाता है: संकुल का विवरण देने वाले व्यक्ति के पास एक सारिणी है और वह संकुल के प्रत्येक तत्त्व को उसमें खोजता है और इससे संकेत की ओर जाता है (और जिसे विवरण दिया जा रहा है वह भी रंगीन वर्गों के चित्र में उसे परिवर्तित करने के लिए सारिणी का प्रयोग कर सकता है)। कहा जा सकता है कि यह सारिणी यहाँ स्मृति की, और अन्य स्थितियों में सहसम्बन्धन की भूमिका निभाती है। ("मेरे लिए एक लाल फूल लाओ" आदेश का पालन हम प्रायः लाल रंग को रंगों की सारिणी में खोजकर, और फिर उस सारिणी में देखे गए रंग के फूल को लाकर नहीं करते; किन्तु जब लाल रंग की किसी विशेष छटा को चुनना अथवा उसे घोलकर बनाना हो तो कभी-कभी हम नमूने अथवा सारिणी का प्रयोग करते हैं।)
ऐसी सारिणी के भाषा के प्रयोग में उपकरण होने की भी हम कल्पना कर सकते हैं। तो, संकुल का विवरण इस प्रकार दिया जाता है: संकुल का विवरण देने वाले व्यक्ति के पास एक सारिणी है और वह संकुल के प्रत्येक तत्त्व को उसमें खोजता है और इससे संकेत की ओर जाता है (और जिसे विवरण दिया जा रहा है वह भी रंगीन वर्गों के चित्र में उसे परिवर्तित करने के लिए सारिणी का प्रयोग कर सकता है)। कहा जा सकता है कि यह सारिणी यहाँ स्मृति की, और अन्य स्थितियों में सहसम्बन्धन की भूमिका निभाती है। (“मेरे लिए एक लाल फूल लाओ” आदेश का पालन हम प्रायः लाल रंग को रंगों की सारिणी में खोजकर, और फिर उस सारिणी में देखे गए रंग के फूल को लाकर नहीं करते; किन्तु जब लाल रंग की किसी विशेष छटा को चुनना अथवा उसे घोलकर बनाना हो तो कभी-कभी हम नमूने अथवा सारिणी का प्रयोग करते हैं।)


यदि ऐसी सारिणी को हम भाषा-खेल के नियम की अभिव्यक्ति कहें, तो कहा जा सकता है कि जिसे हम भाषा-खेल का नियम कहते हैं उसकी उस खेल में अत्यन्त भिन्न भूमिकाएं हो सकती हैं।
यदि ऐसी सारिणी को हम भाषा-खेल के नियम की अभिव्यक्ति कहें, तो कहा जा सकता है कि जिसे हम भाषा-खेल का नियम कहते हैं उसकी उस खेल में अत्यन्त भिन्न भूमिकाएं हो सकती हैं।
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निस्संदेह, कोई छूटते ही कह सकता है कि स्वयं इस विवरण को तो इस विनाश से अछूता रखना होगा। — किन्तु यदि यह सच है कि जो विवरण के भिन्न शब्दों से संबद्ध है और इसीलिए जिसको नष्ट नहीं किया जा सकता, उसकी सत्ता होती है तो वह वही है जो शब्दों को उनका अर्थ प्रदान करता है — और जिसके बिना उनका कोई अर्थ ही नहीं होगा। — बहरहाल, एक अर्थ में यही वह पुरुष है जो अपने नाम से संबद्ध है। किन्तु वह तो नश्वर है और वाहक के मरने के साथ उसका नाम अर्थहीन नहीं हो जाता। — नाम से संबद्ध ऐसे विषय, जिसके बिना नाम का कोई अर्थ नहीं होता, का उदाहरण ऐसा प्रतिमान है जिसे भाषा-खेल में नाम के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है।
निस्संदेह, कोई छूटते ही कह सकता है कि स्वयं इस विवरण को तो इस विनाश से अछूता रखना होगा। — किन्तु यदि यह सच है कि जो विवरण के भिन्न शब्दों से संबद्ध है और इसीलिए जिसको नष्ट नहीं किया जा सकता, उसकी सत्ता होती है तो वह वही है जो शब्दों को उनका अर्थ प्रदान करता है — और जिसके बिना उनका कोई अर्थ ही नहीं होगा। — बहरहाल, एक अर्थ में यही वह पुरुष है जो अपने नाम से संबद्ध है। किन्तु वह तो नश्वर है और वाहक के मरने के साथ उसका नाम अर्थहीन नहीं हो जाता। — नाम से संबद्ध ऐसे विषय, जिसके बिना नाम का कोई अर्थ नहीं होता, का उदाहरण ऐसा प्रतिमान है जिसे भाषा-खेल में नाम के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है।


'''56.''' किन्तु क्या हो, यदि ऐसा कोई भी नमूना भाषा का अंग न हो, और शब्द जिस रंग का (उदाहरणार्थ) प्रतिनिधित्व करता है उसको ही हम ''याद'' रखें? — "और यदि हम उसे याद रखते हैं तो जब भी हम उस शब्द का उच्चारण करते हैं वह हमारे मानस पटल पर उपस्थित हो जाता है। अतः, यदि यह मान लिया जाए कि उसे स्मरण रखना हमारे लिए सदैव संभव है तो वह स्वयं अविनाशी होना चाहिए।" — किन्तु उसकी उचित स्मृति होने की कसौटी हम किसे मानते हैं? – जब हम अपनी स्मृति के स्थान पर किसी नमूने से कार्य करते हैं तो ऐसी परिस्थितियां होती हैं जिनमें हम कहते हैं कि नमूने का रंग परिवर्तित हो गया है और हम इसका निर्णय स्मृति द्वारा करते हैं। किन्तु क्या कभी-कभी हम अपने स्मृति-बिंब के धुंधले होने का (उदाहरणार्थ) उल्लेख नहीं कर सकते? क्या हम स्मृति की कृपा पर उतने ही निर्भर नहीं हैं जितने कि नमूने की? (क्योंकि कोई ऐसा कहना चाह सकता है: “यदि हमें स्मृति नहीं रहती तो हम नमूने की कृपा पर ही निर्भर रहते"।) — अथवा संभवतः किसी रासायनिक
'''56.''' किन्तु क्या हो, यदि ऐसा कोई भी नमूना भाषा का अंग न हो, और शब्द जिस रंग का (उदाहरणार्थ) प्रतिनिधित्व करता है उसको ही हम ''याद'' रखें? — “और यदि हम उसे याद रखते हैं तो जब भी हम उस शब्द का उच्चारण करते हैं वह हमारे मानस पटल पर उपस्थित हो जाता है। अतः, यदि यह मान लिया जाए कि उसे स्मरण रखना हमारे लिए सदैव संभव है तो वह स्वयं अविनाशी होना चाहिए।” — किन्तु उसकी उचित स्मृति होने की कसौटी हम किसे मानते हैं? – जब हम अपनी स्मृति के स्थान पर किसी नमूने से कार्य करते हैं तो ऐसी परिस्थितियां होती हैं जिनमें हम कहते हैं कि नमूने का रंग परिवर्तित हो गया है और हम इसका निर्णय स्मृति द्वारा करते हैं। किन्तु क्या कभी-कभी हम अपने स्मृति-बिंब के धुंधले होने का (उदाहरणार्थ) उल्लेख नहीं कर सकते? क्या हम स्मृति की कृपा पर उतने ही निर्भर नहीं हैं जितने कि नमूने की? (क्योंकि कोई ऐसा कहना चाह सकता है: “यदि हमें स्मृति नहीं रहती तो हम नमूने की कृपा पर ही निर्भर रहते"।) — अथवा संभवतः किसी रासायनिक


प्रतिक्रिया पर निर्भर रहते। कल्पना कीजिए कि आपको ऐसा विशेष रंग "'''ग'''" पोतना जो तब दृष्टिगोचर होता है जब रासायनिक द्रव्य '''य''' और '''ल''' को मिलाया जाता है। — मान लीजिए कि दूसरे दिनों की अपेक्षा आपको रंग किसी दिन अधिक चटख प्रतीत होता हो; क्या कभी-कभी आप नहीं कहेंगे: "मैं निश्चय ही भूल कर रहा हूँ, निश्चित रूप से रंग वैसा ही है जैसा कल था"? यह प्रदर्शित करता है कि स्मृति-जन्य बातों के लिए उच्चतम न्यायालय में अपील के निर्णय के समान, हम सदैव स्मृति पर आश्रित नहीं रहते।
प्रतिक्रिया पर निर्भर रहते। कल्पना कीजिए कि आपको ऐसा विशेष रंग '''ग'''पोतना जो तब दृष्टिगोचर होता है जब रासायनिक द्रव्य '''य''' और '''ल''' को मिलाया जाता है। — मान लीजिए कि दूसरे दिनों की अपेक्षा आपको रंग किसी दिन अधिक चटख प्रतीत होता हो; क्या कभी-कभी आप नहीं कहेंगे: “मैं निश्चय ही भूल कर रहा हूँ, निश्चित रूप से रंग वैसा ही है जैसा कल था”? यह प्रदर्शित करता है कि स्मृति-जन्य बातों के लिए उच्चतम न्यायालय में अपील के निर्णय के समान, हम सदैव स्मृति पर आश्रित नहीं रहते।


'''57.''' "किसी लाल वस्तु को नष्ट किया जा सकता है, किन्तु लाल को नष्ट नहीं किया जा सकता, और इसी कारण 'लाल' का अर्थ लाल वस्तुओं की सत्ता से निरपेक्ष है" — निस्संदेह, यह कहने का कोई अर्थ नहीं होता कि लाल रंग को फाड़ दिया गया है अथवा उसके चीथड़े कर दिए गए हैं। किन्तु क्या हम नहीं कहते: “लाल धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है"? कुछ भी लाल न रहने पर भी अपने मानस पटल पर सदैव लाल लाने की हमारी क्षमता, के विचार से न बंधे रहें। वह तो बिल्कुल आपके यह कहने जैसा ही है कि तब भी लाल ज्वाला को उत्पन्न करने वाली रासायनिक प्रतिक्रिया तो होगी ही। — मान लीजिए कि अब आप रंग का स्मरण ही नहीं कर पाते? जब हम भूल जाते हैं कि यह नाम किस रंग का है, तो हमारे लिए उसका अर्थ लुप्त हो जाता है; अर्थात् अब हम उससे विशेष भाषा खेल नहीं खेल सकते। और तब यह स्थिति उस स्थिति के तुल्य हो जाती है जिसमें हमने ऐसे प्रतिमान को खो दिया हो जो हमारी भाषा का उपकरण था।
'''57.''' “किसी लाल वस्तु को नष्ट किया जा सकता है, किन्तु लाल को नष्ट नहीं किया जा सकता, और इसी कारण 'लाल' का अर्थ लाल वस्तुओं की सत्ता से निरपेक्ष है” — निस्संदेह, यह कहने का कोई अर्थ नहीं होता कि लाल रंग को फाड़ दिया गया है अथवा उसके चीथड़े कर दिए गए हैं। किन्तु क्या हम नहीं कहते: “लाल धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है"? कुछ भी लाल न रहने पर भी अपने मानस पटल पर सदैव लाल लाने की हमारी क्षमता, के विचार से न बंधे रहें। वह तो बिल्कुल आपके यह कहने जैसा ही है कि तब भी लाल ज्वाला को उत्पन्न करने वाली रासायनिक प्रतिक्रिया तो होगी ही। — मान लीजिए कि अब आप रंग का स्मरण ही नहीं कर पाते? जब हम भूल जाते हैं कि यह नाम किस रंग का है, तो हमारे लिए उसका अर्थ लुप्त हो जाता है; अर्थात् अब हम उससे विशेष भाषा खेल नहीं खेल सकते। और तब यह स्थिति उस स्थिति के तुल्य हो जाती है जिसमें हमने ऐसे प्रतिमान को खो दिया हो जो हमारी भाषा का उपकरण था।


'''58.''' "मैं 'नाम' पद को वहाँ तक सीमित करना चाहता हूँ जहाँ वह ‘'''य''' की सत्ता है’ इस संयोजन में नहीं हो सकता। — अतः यह नहीं कहा जा सकता कि 'लाल की सत्ता है' क्योंकि यदि लाल होता ही नहीं तो उसका उल्लेख ही नहीं किया जा सकता था।" — बेहतर ढंग से: यदि "'''य''' की सत्ता है" का अर्थ मात्र यह कहना है: "'''य'''" अर्थपूर्ण है, — तो यह ऐसी प्रतिज्ञप्ति नहीं जो य को अभिव्यक्त करती है, अपितु ऐसी प्रतिज्ञप्ति है जो भाषा के हमारे प्रयोग के बारे में है, अर्थात् "'''य'''" शब्द के प्रयोग के बारे में है।
'''58.''' “मैं 'नाम' पद को वहाँ तक सीमित करना चाहता हूँ जहाँ वह ‘'''य''' की सत्ता है’ इस संयोजन में नहीं हो सकता। — अतः यह नहीं कहा जा सकता कि 'लाल की सत्ता है' क्योंकि यदि लाल होता ही नहीं तो उसका उल्लेख ही नहीं किया जा सकता था।” — बेहतर ढंग से: यदि '''य''' की सत्ता है” का अर्थ मात्र यह कहना है: '''य'''अर्थपूर्ण है, — तो यह ऐसी प्रतिज्ञप्ति नहीं जो य को अभिव्यक्त करती है, अपितु ऐसी प्रतिज्ञप्ति है जो भाषा के हमारे प्रयोग के बारे में है, अर्थात् '''य'''शब्द के प्रयोग के बारे में है।


हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो "लाल की सत्ता है" इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं निकलता ऐसा कहने में हम लाल के स्वभाव के बारे में कुछ कह रहे हों। यानी लाल की सत्ता तो 'स्वयंसिद्ध' है। इसी धारणा — कि यह लाल के बारे में एक तात्त्विक कथन है — की पुनः अभिव्यक्ति होती है जब हम कुछ ऐसा कहते हैं कि लाल कालातीत है, और संभवतः इससे भी दृढ़ शब्दों में जब हम कहते हैं कि वह अविनाशी है।
हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो “लाल की सत्ता है” इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं निकलता ऐसा कहने में हम लाल के स्वभाव के बारे में कुछ कह रहे हों। यानी लाल की सत्ता तो 'स्वयंसिद्ध' है। इसी धारणा — कि यह लाल के बारे में एक तात्त्विक कथन है — की पुनः अभिव्यक्ति होती है जब हम कुछ ऐसा कहते हैं कि लाल कालातीत है, और संभवतः इससे भी दृढ़ शब्दों में जब हम कहते हैं कि वह अविनाशी है।


किन्तु वास्तव में हम "लाल की सत्ता है" को इस कथन के सदृश ही समझना ''चाहते'' हैं: "लाल" शब्द अर्थपूर्ण है। अथवा संभवतः इससे बेहतर रूप में: "लाल की सत्ता नहीं है" को "'लाल' का कोई अर्थ नहीं है"। हम केवल इतना ही नहीं कहना चाहते कि यह अभिव्यक्ति यह ''कहती'' है, अपितु यह कहते हैं कि इसे ''यही'' कहना चाहिए, ''यदि'' इसका कोई अर्थ है। किन्तु ऐसा कहने के प्रयास में यह — केवल इस कारण कि लाल की सत्ता 'स्वयंसिद्ध' है, स्वयं अपने आप का व्याघात करता है। जबकि व्याघात तो कुछ ऐसी स्थिति में ही होता है: ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रतिज्ञप्ति रंग के बारे में हो जबकि इसे तो "लाल" शब्द के प्रयोग का उल्लेख करने वाली होना चाहिए था। — बहरहाल, वस्तुतः हम स्वभावत: कहते हैं कि किसी विशेष रंग की सत्ता होती है; और वह इतना ही कहना है कि किसी ऐसे विषय की सत्ता है जिसका वह रंग है। और पहली अभिव्यक्ति दूसरी अभिव्यक्ति से कम यथार्थ नहीं है; विशेषतः उन स्थितियों में जिनमें 'जिसका वह रंग है', वह भौतिक विषय नहीं होता।
किन्तु वास्तव में हम “लाल की सत्ता है” को इस कथन के सदृश ही समझना ''चाहते'' हैं: “लाल” शब्द अर्थपूर्ण है। अथवा संभवतः इससे बेहतर रूप में: “लाल की सत्ता नहीं है” को 'लाल' का कोई अर्थ नहीं है”। हम केवल इतना ही नहीं कहना चाहते कि यह अभिव्यक्ति यह ''कहती'' है, अपितु यह कहते हैं कि इसे ''यही'' कहना चाहिए, ''यदि'' इसका कोई अर्थ है। किन्तु ऐसा कहने के प्रयास में यह — केवल इस कारण कि लाल की सत्ता 'स्वयंसिद्ध' है, स्वयं अपने आप का व्याघात करता है। जबकि व्याघात तो कुछ ऐसी स्थिति में ही होता है: ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रतिज्ञप्ति रंग के बारे में हो जबकि इसे तो “लाल” शब्द के प्रयोग का उल्लेख करने वाली होना चाहिए था। — बहरहाल, वस्तुतः हम स्वभावत: कहते हैं कि किसी विशेष रंग की सत्ता होती है; और वह इतना ही कहना है कि किसी ऐसे विषय की सत्ता है जिसका वह रंग है। और पहली अभिव्यक्ति दूसरी अभिव्यक्ति से कम यथार्थ नहीं है; विशेषतः उन स्थितियों में जिनमें 'जिसका वह रंग है', वह भौतिक विषय नहीं होता।


'''59.''' "''नाम'' केवल उसका ही द्योतन करते हैं जिसमें वास्तविकता का ''तत्त्व'' होता है; जिसको नष्ट नहीं किया जा सकता; जो सभी परिवर्तनों में समान रहता है।" — किन्तु वह है क्या? — क्यों, जैसे ही हमने यह वाक्य कहा वह हमारे मन में झूल गया! एक अत्यंत विशिष्ट प्रतिबिंब की: विशिष्ट चित्र की, यही तो ऐसी अभिव्यक्ति थी जिसका हम प्रयोग करना चाहते हैं। क्योंकि निश्चित रूप से, अनुभव तो हमें ऐसे तत्त्व प्रदर्शित नहीं करता। हम किसी संयुक्त विषय के (उदाहरणार्थ, कुर्सी के) ''संघटक'' अंगों को देखते हैं। हम कहते हैं कि कुर्सी की पीठ कुर्सी का अंग है, किन्तु पीठ स्वयं तो लकड़ी के अनेक टुकड़ों से बनी है; जबकि कुर्सी की टांग तो कुर्सी का असंयुक्त संघटक अंग है। हम ऐसे साकल्य को भी जानते हैं जिसमें परिवर्तन होता है (जो नष्ट हो जाता है) जबकि उसके संघटक अंग अपरिवर्तित रहते हैं। यही वे पदार्थ हैं जिनसे हम वास्तविकता के चित्र की रचना करते हैं।
'''59.''' ''नाम'' केवल उसका ही द्योतन करते हैं जिसमें वास्तविकता का ''तत्त्व'' होता है; जिसको नष्ट नहीं किया जा सकता; जो सभी परिवर्तनों में समान रहता है।” — किन्तु वह है क्या? — क्यों, जैसे ही हमने यह वाक्य कहा वह हमारे मन में झूल गया! एक अत्यंत विशिष्ट प्रतिबिंब की: विशिष्ट चित्र की, यही तो ऐसी अभिव्यक्ति थी जिसका हम प्रयोग करना चाहते हैं। क्योंकि निश्चित रूप से, अनुभव तो हमें ऐसे तत्त्व प्रदर्शित नहीं करता। हम किसी संयुक्त विषय के (उदाहरणार्थ, कुर्सी के) ''संघटक'' अंगों को देखते हैं। हम कहते हैं कि कुर्सी की पीठ कुर्सी का अंग है, किन्तु पीठ स्वयं तो लकड़ी के अनेक टुकड़ों से बनी है; जबकि कुर्सी की टांग तो कुर्सी का असंयुक्त संघटक अंग है। हम ऐसे साकल्य को भी जानते हैं जिसमें परिवर्तन होता है (जो नष्ट हो जाता है) जबकि उसके संघटक अंग अपरिवर्तित रहते हैं। यही वे पदार्थ हैं जिनसे हम वास्तविकता के चित्र की रचना करते हैं।


'''60.''' जब मैं कहता हूँ: "मेरा लम्बे हत्थे वाला झाडू कोने में रखा है", — तो क्या वास्तव में यह कथन झाडू के हत्थे एवं झाड़ू के बारे में है? हाँ, इसे तो हत्थे की स्थिति एवं झाडू की स्थिति बताने वाले कथन द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है। और यह कथन निस्संदेह पहले वाले का अधिक विश्लेषित रूप है। — किन्तु मैं उसे 'अधिक विश्लेषित' क्यों कहता हूँ? — हाँ, यदि झाडू वहाँ है तो उसका निश्चित रूप से अर्थ है कि हत्थे एवं झाडू को भी एक दूसरे से विशेष प्रकार से संबंधित रूप
'''60.''' जब मैं कहता हूँ: “मेरा लम्बे हत्थे वाला झाडू कोने में रखा है”, — तो क्या वास्तव में यह कथन झाडू के हत्थे एवं झाड़ू के बारे में है? हाँ, इसे तो हत्थे की स्थिति एवं झाडू की स्थिति बताने वाले कथन द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है। और यह कथन निस्संदेह पहले वाले का अधिक विश्लेषित रूप है। — किन्तु मैं उसे 'अधिक विश्लेषित' क्यों कहता हूँ? — हाँ, यदि झाडू वहाँ है तो उसका निश्चित रूप से अर्थ है कि हत्थे एवं झाडू को भी एक दूसरे से विशेष प्रकार से संबंधित रूप


में वहाँ होना चाहिए। और पहले वाक्य के अर्थ में मानो यह बात छिपी हुई थी, और विश्लेषित वाक्य में स्पष्टतः ''अभिव्यक्त'' हो गई है। तो क्या जब कोई कहता है कि झाडू कोने में पड़ी है तो उसका वास्तव में अर्थ होता है: झाडू का हत्था है, और झाड़ू भी वहाँ पड़ी है, और हत्था झाडू में जुड़ा है? — झाडू यदि हम किसी से पूछें कि क्या उसका यह अर्थ था तो सम्भवतः वह कहेगा कि उसने विशेष रूप से हत्थे के बारे में, विशेष रूप से झाड़ू के बारे में सोचा ही नहीं था। और वह ''सही'' उत्तर होगा, क्योंकि उसका तात्पर्य विशेषतः न तो हत्थे का और न ही झाडू का उल्लेख करना था। मान लीजिए कि “झाडू मेरे पास लाओ" कहने के स्थान पर आप कहें "झाडू के हत्थे और उस झाडू को जो उससे जुड़ा है मेरे पास लाओ"! — क्या यह उत्तर नहीं है: "क्या आप झाडू माँग रहे हैं? आप इसे इतने अजीब ढंग से क्यों कह रहे हैं?" — क्या वह अधिक विश्लेषित वाक्य को अच्छी प्रकार से समझता है? कहा जा सकता है कि उससे इतना ही पता चलता है जितना कि साधारण वाक्य से, किन्तु यह जानकारी अधिक घुमावदार ढंग से मिलती है। — ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जिसमें किसी को अनेक भागों से बने विशेष विषयों को लाने का, उन्हें घुमाने फिराने का, अथवा इसी प्रकार का कुछ और करने का आदेश दिया जाता है। और उसे खेलने के दो ढंग हैं: (क) एक में §15 के सदृश संयुक्त विषयों (झाडुओं, कुर्सियों, मेजों, इत्यादि) के नाम होते हैं; (ख) दूसरे में केवल भागों का ही नामकरण किया जाता है और उनके द्वारा साकल्य का विवरण दिया जाता है। दूसरे खेल का आदेश किस अर्थ में पहले खेल के आदेश का विश्लेषित रूप है? क्या उत्तरोक्त पूर्वोक्त में छिपा होता है, और विश्लेषण द्वारा इसे अब उजागर किया जा रहा है? यह ठीक है कि जब झाडू को हत्थे को और झाड़ू को अलग किया जाता है तो झाडू को खंडित किया जाता है; किन्तु क्या उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि झाडू लाने के आदेश में इसके सम्बद्ध भागों को लाने का आदेश भी निहित है?
में वहाँ होना चाहिए। और पहले वाक्य के अर्थ में मानो यह बात छिपी हुई थी, और विश्लेषित वाक्य में स्पष्टतः ''अभिव्यक्त'' हो गई है। तो क्या जब कोई कहता है कि झाडू कोने में पड़ी है तो उसका वास्तव में अर्थ होता है: झाडू का हत्था है, और झाड़ू भी वहाँ पड़ी है, और हत्था झाडू में जुड़ा है? — झाडू यदि हम किसी से पूछें कि क्या उसका यह अर्थ था तो सम्भवतः वह कहेगा कि उसने विशेष रूप से हत्थे के बारे में, विशेष रूप से झाड़ू के बारे में सोचा ही नहीं था। और वह ''सही'' उत्तर होगा, क्योंकि उसका तात्पर्य विशेषतः न तो हत्थे का और न ही झाडू का उल्लेख करना था। मान लीजिए कि “झाडू मेरे पास लाओ“ कहने के स्थान पर आप कहें ”झाडू के हत्थे और उस झाडू को जो उससे जुड़ा है मेरे पास लाओ“! — क्या यह उत्तर नहीं है: ”क्या आप झाडू माँग रहे हैं? आप इसे इतने अजीब ढंग से क्यों कह रहे हैं?" — क्या वह अधिक विश्लेषित वाक्य को अच्छी प्रकार से समझता है? कहा जा सकता है कि उससे इतना ही पता चलता है जितना कि साधारण वाक्य से, किन्तु यह जानकारी अधिक घुमावदार ढंग से मिलती है। — ऐसे भाषा-खेल की कल्पना कीजिए जिसमें किसी को अनेक भागों से बने विशेष विषयों को लाने का, उन्हें घुमाने फिराने का, अथवा इसी प्रकार का कुछ और करने का आदेश दिया जाता है। और उसे खेलने के दो ढंग हैं: (क) एक में §15 के सदृश संयुक्त विषयों (झाडुओं, कुर्सियों, मेजों, इत्यादि) के नाम होते हैं; (ख) दूसरे में केवल भागों का ही नामकरण किया जाता है और उनके द्वारा साकल्य का विवरण दिया जाता है। दूसरे खेल का आदेश किस अर्थ में पहले खेल के आदेश का विश्लेषित रूप है? क्या उत्तरोक्त पूर्वोक्त में छिपा होता है, और विश्लेषण द्वारा इसे अब उजागर किया जा रहा है? यह ठीक है कि जब झाडू को हत्थे को और झाड़ू को अलग किया जाता है तो झाडू को खंडित किया जाता है; किन्तु क्या उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि झाडू लाने के आदेश में इसके सम्बद्ध भागों को लाने का आदेश भी निहित है?


'''61.''' "किन्तु फिर भी आप इस बात से इन्कार नहीं करेंगे कि (क) में किसी विशेष आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में होता है; और यदि आप दूसरे को पहले का विश्लेषित रूप न कहें तो आप उसे क्या कहेंगे?" — निश्चित रूप से मुझे भी यह कहना चाहिए कि (क) में आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में; अथवा जैसे मैंने पहले कहा था: उनसे एक ही बात का पता चलता है। और इसका अर्थ है कि यदि मुझे (क) में कोई आदेश दिखाया जाए और पूछा जाए: "(ख) में कौन से आदेश का इस के जैसा अर्थ है? अथवा फिर "यह (ख) के किस आदेश का व्याघाती
'''61.''' “किन्तु फिर भी आप इस बात से इन्कार नहीं करेंगे कि (क) में किसी विशेष आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में होता है; और यदि आप दूसरे को पहले का विश्लेषित रूप न कहें तो आप उसे क्या कहेंगे?— निश्चित रूप से मुझे भी यह कहना चाहिए कि (क) में आदेश का वही अर्थ होता है जो (ख) में; अथवा जैसे मैंने पहले कहा था: उनसे एक ही बात का पता चलता है। और इसका अर्थ है कि यदि मुझे (क) में कोई आदेश दिखाया जाए और पूछा जाए: (ख) में कौन से आदेश का इस के जैसा अर्थ है? अथवा फिर ”यह (ख) के किस आदेश का व्याघाती


है?" तो मुझे अमुक उत्तर देना चाहिए। किन्तु वह यह कहना तो नहीं है कि "वही अर्थ होना", अथवा “एक ही बात का पता चलना" अभिव्यक्तियों के प्रयोग के बारे में हम किसी ''सामान्य'' सहमति पर पहुँच गए हैं। क्योंकि यह पूछा जा सकता है कि किन स्थितियों में हम कहते हैं: "यह तो एक खेल के ही दो रूप हैं।"
है?तो मुझे अमुक उत्तर देना चाहिए। किन्तु वह यह कहना तो नहीं है कि ”वही अर्थ होना“, अथवा “एक ही बात का पता चलना” अभिव्यक्तियों के प्रयोग के बारे में हम किसी ''सामान्य'' सहमति पर पहुँच गए हैं। क्योंकि यह पूछा जा सकता है कि किन स्थितियों में हम कहते हैं: “यह तो एक खेल के ही दो रूप हैं।”


'''62.''' उदाहरणार्थ, मान लीजिए कि (क) और (ख) में आदेश दिए जाने वाले व्यक्ति को अभीप्सित वस्तु को लाने से पूर्व नामों और चित्रों का सामंजस्य दिखाने वाली सारिणी का सहारा लेना पड़ता है। क्या वह ''वही'' क्रिया करता है जब वह (ख) उसके अनुरूप आदेश का पालन करता है? — हाँ और नहीं। आप यह भी कह सकते हैं: "दोनों आदेशों का ''विषय'' तो एक ही है"। मुझे भी यही कहना चाहिए। — किन्तु सभी स्थलों पर यह स्पष्ट नहीं है कि आदेश का 'विषय' किसे कहना चाहिए। (इसी प्रकार कुछ वस्तुओं के बारे में भी कहा जा सकता है कि उनका यह, अथवा वह प्रयोजन है। मूल बात तो यह है कि यह एक ''लैम्प'' है, और प्रकाश देने के काम आता है; — यह कमरे का ऐसा अलंकार है जो रिक्त स्थान को भरता है इत्यादि, तो मूलभूत नहीं है। किन्तु मूल और अ-मूल में सदैव सुस्पष्ट भेद नहीं होता।)
'''62.''' उदाहरणार्थ, मान लीजिए कि (क) और (ख) में आदेश दिए जाने वाले व्यक्ति को अभीप्सित वस्तु को लाने से पूर्व नामों और चित्रों का सामंजस्य दिखाने वाली सारिणी का सहारा लेना पड़ता है। क्या वह ''वही'' क्रिया करता है जब वह (ख) उसके अनुरूप आदेश का पालन करता है? — हाँ और नहीं। आप यह भी कह सकते हैं: “दोनों आदेशों का ''विषय'' तो एक ही है”। मुझे भी यही कहना चाहिए। — किन्तु सभी स्थलों पर यह स्पष्ट नहीं है कि आदेश का 'विषय' किसे कहना चाहिए। (इसी प्रकार कुछ वस्तुओं के बारे में भी कहा जा सकता है कि उनका यह, अथवा वह प्रयोजन है। मूल बात तो यह है कि यह एक ''लैम्प'' है, और प्रकाश देने के काम आता है; — यह कमरे का ऐसा अलंकार है जो रिक्त स्थान को भरता है इत्यादि, तो मूलभूत नहीं है। किन्तु मूल और अ-मूल में सदैव सुस्पष्ट भेद नहीं होता।)


'''63.''' बहरहाल यह कहना कि (ख) में (क) के वाक्य का 'विश्लेषित' रूप है हमें यह समझने को लालायित करता है कि पूर्वोक्त अधिक मौलिक रूप है; और उसी से पता चलता है कि दूसरे वाक्य का क्या अर्थ इत्यादि है। उदाहरणार्थ, हम समझते हैं: यदि आप केवल अविश्लेषित रूप को जानते हैं तो आप विश्लेषण से चूक जाते हैं; किन्तु यदि आप विश्लेषित रूप को जानते हैं तो उससे आपको सब कुछ मिल जाता है। — किन्तु क्या मैं नहीं कह सकता कि उत्तरोक्त स्थिति में भी पूर्वोक्त स्थिति के समान बात का कोई पक्ष आप से छूट जाता है?
'''63.''' बहरहाल यह कहना कि (ख) में (क) के वाक्य का 'विश्लेषित' रूप है हमें यह समझने को लालायित करता है कि पूर्वोक्त अधिक मौलिक रूप है; और उसी से पता चलता है कि दूसरे वाक्य का क्या अर्थ इत्यादि है। उदाहरणार्थ, हम समझते हैं: यदि आप केवल अविश्लेषित रूप को जानते हैं तो आप विश्लेषण से चूक जाते हैं; किन्तु यदि आप विश्लेषित रूप को जानते हैं तो उससे आपको सब कुछ मिल जाता है। — किन्तु क्या मैं नहीं कह सकता कि उत्तरोक्त स्थिति में भी पूर्वोक्त स्थिति के समान बात का कोई पक्ष आप से छूट जाता है?


'''64.''' आइए हम §48 के भाषा-खेल के इस प्रकार परिवर्तित होने की कल्पना करें कि नाम एकरंगी वर्गों के द्योतक न हों अपितु ऐसी आयतों के द्योतक हों जो दो एकरंगी वर्गों से बनी हों। आधे लाल एवं आधे हरे रंग वाले आयत को "'''य'''" कहें; आधे हरे आधे श्वेत को "'''व'''" कहे; एवं तथावत्। क्या हम ऐसे लोगों की कल्पना नहीं कर सकते जिन्हें रंगों के संयोजनों के नाम तो पता हों किन्तु एकल रंगों के नाम पता न हों? ऐसी स्थितियों के बारे में सोचिए जिनमें हम कहते हैं: "रंगों के इस विन्यास का (मान लीजिए फ्रांसिसी तिरंगे का) नितान्त विशिष्ट रूप है।"
'''64.''' आइए हम §48 के भाषा-खेल के इस प्रकार परिवर्तित होने की कल्पना करें कि नाम एकरंगी वर्गों के द्योतक न हों अपितु ऐसी आयतों के द्योतक हों जो दो एकरंगी वर्गों से बनी हों। आधे लाल एवं आधे हरे रंग वाले आयत को '''य'''कहें; आधे हरे आधे श्वेत को '''व'''कहे; एवं तथावत्। क्या हम ऐसे लोगों की कल्पना नहीं कर सकते जिन्हें रंगों के संयोजनों के नाम तो पता हों किन्तु एकल रंगों के नाम पता न हों? ऐसी स्थितियों के बारे में सोचिए जिनमें हम कहते हैं: “रंगों के इस विन्यास का (मान लीजिए फ्रांसिसी तिरंगे का) नितान्त विशिष्ट रूप है।”


इस भाषा-खेल के प्रतीकों के विश्लेषण की आवश्यकता किस अर्थ में है? इस भाषा-खेल को §48 के भाषा-खेल द्वारा प्रतिस्थापित करना भी कहाँ तक सम्भव है? — यह तो कोई ''अन्य'' भाषा-खेल है; यद्यपि यह §48 से सम्बन्धित है।
इस भाषा-खेल के प्रतीकों के विश्लेषण की आवश्यकता किस अर्थ में है? इस भाषा-खेल को §48 के भाषा-खेल द्वारा प्रतिस्थापित करना भी कहाँ तक सम्भव है? — यह तो कोई ''अन्य'' भाषा-खेल है; यद्यपि यह §48 से सम्बन्धित है।
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'''65.''' यहाँ हमारे समक्ष वह महत्त्वपूर्ण प्रश्न आ जाता है जो इन सभी विवेचनाओं की पृष्ठभूमि में होता है। — क्योंकि कोई मेरे विरुद्ध आपत्ति उठा सकता है: “आप तो सुगम मार्ग अपनाते हैं! आप अनेक प्रकार के भाषा-खेलों के बारे में बात तो करते हैं किन्तु कहीं भी यह नहीं कहते कि भाषा-खेल का, और इसीलिए भाषा का, सार क्या है इन सभी क्रियाकलापों में साझा क्या है और भाषा अथवा भाषा के अंग किससे बनते हैं। अतः आपने स्वयं को अन्वीक्षा के उसी भाग से — ''प्रतिज्ञप्तियों के सामान्य आकार'' और भाषा से संबंधित भाग से — हटा लिया है जो स्वयं कभी आपके लिए सिरदर्द था।"
'''65.''' यहाँ हमारे समक्ष वह महत्त्वपूर्ण प्रश्न आ जाता है जो इन सभी विवेचनाओं की पृष्ठभूमि में होता है। — क्योंकि कोई मेरे विरुद्ध आपत्ति उठा सकता है: “आप तो सुगम मार्ग अपनाते हैं! आप अनेक प्रकार के भाषा-खेलों के बारे में बात तो करते हैं किन्तु कहीं भी यह नहीं कहते कि भाषा-खेल का, और इसीलिए भाषा का, सार क्या है इन सभी क्रियाकलापों में साझा क्या है और भाषा अथवा भाषा के अंग किससे बनते हैं। अतः आपने स्वयं को अन्वीक्षा के उसी भाग से — ''प्रतिज्ञप्तियों के सामान्य आकार'' और भाषा से संबंधित भाग से — हटा लिया है जो स्वयं कभी आपके लिए सिरदर्द था।"


और यह सच भी है। — जिसे भी हम भाषा कहते हैं उसमें कुछ साझा प्रस्तुत करने के बजाए मैं कह रहा हूँ कि इन संवृत्तियों में कोई भी एक ऐसा साझा विषय नहीं है जिसके कारण हम सब उन सब के लिए एक ही शब्द प्रयोग करते हैं — अपितु कह रहा हूँ कि विविध ढंगों से एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। और इसी सम्बन्ध अथवा इन्हीं सम्बन्धों के कारण इन सभी को "भाषा" कहते हैं। मैं इसकी व्याख्या देने का प्रयत्न करूँगा।
और यह सच भी है। — जिसे भी हम भाषा कहते हैं उसमें कुछ साझा प्रस्तुत करने के बजाए मैं कह रहा हूँ कि इन संवृत्तियों में कोई भी एक ऐसा साझा विषय नहीं है जिसके कारण हम सब उन सब के लिए एक ही शब्द प्रयोग करते हैं — अपितु कह रहा हूँ कि विविध ढंगों से एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। और इसी सम्बन्ध अथवा इन्हीं सम्बन्धों के कारण इन सभी को “भाषा” कहते हैं। मैं इसकी व्याख्या देने का प्रयत्न करूँगा।


'''66.''' उदाहरणार्थ, "खेल" कही जाने वाली गतिविधियों पर विचार कीजिए। मेरा आशय पटल-खेलों, ताश-खेलों, गेंद खेलों, ऑलम्पिक खेलों आदि से है। उन सब में साझा क्या है? ऐसा न कहें: "कुछ तो साझा ''अवश्य'' होना चाहिए, नहीं तो उन्हें 'खेल' नहीं कहा जाता" — किन्तु ''सोचें'' कि क्या उन सब में कुछ भी साझा है। — क्योंकि यदि आप उन पर दृष्टिपात करें तो आप कुछ भी ऐसा नहीं पाएंगे जो ''सब'' में साझा हो, अपितु उनमें आप पायेंगे समानताएँ, कई सम्बन्ध और ऐसी समानताओं और संबन्धों की एक श्रृंखला। अथवा: सोचिये नहीं, बल्कि खोजिए! — उदाहरणार्थ, पटल-खेलों पर उनके विविध सम्बन्धों सहित विचार करें। अब ताश-खेलों की ओर बढ़ें; यहाँ आपको पहले वाले समूह के साथ अनेक समानताएं मिलेंगी, किन्तु अनेक साझे लक्षण छूट जाएंगे, और कई अन्य लक्षण दृष्टिगोचर होंगे। अब जब हम गेंद-खेलों की ओर बढ़ते हैं तो बहुत कुछ जो साझा है वह तो बच जाता है किन्तु बहुत कुछ छूट जाता है। — क्या वे सभी 'मनोरंजक' हैं? शतरंज के खेल की नॉटस एंड क्रॉसिस खेल से तुलना कीजिए। अथवा क्या खेलों में सदैव ही जीत और हार होती है, अथवा खिलाड़ियों में प्रतिस्पर्धा होती है? 'पेशंस' नामक खेल के बारे में सोचिए। गेंद-खेलों
'''66.''' उदाहरणार्थ, “खेल” कही जाने वाली गतिविधियों पर विचार कीजिए। मेरा आशय पटल-खेलों, ताश-खेलों, गेंद खेलों, ऑलम्पिक खेलों आदि से है। उन सब में साझा क्या है? ऐसा न कहें: “कुछ तो साझा ''अवश्य'' होना चाहिए, नहीं तो उन्हें 'खेल' नहीं कहा जाता” — किन्तु ''सोचें'' कि क्या उन सब में कुछ भी साझा है। — क्योंकि यदि आप उन पर दृष्टिपात करें तो आप कुछ भी ऐसा नहीं पाएंगे जो ''सब'' में साझा हो, अपितु उनमें आप पायेंगे समानताएँ, कई सम्बन्ध और ऐसी समानताओं और संबन्धों की एक श्रृंखला। अथवा: सोचिये नहीं, बल्कि खोजिए! — उदाहरणार्थ, पटल-खेलों पर उनके विविध सम्बन्धों सहित विचार करें। अब ताश-खेलों की ओर बढ़ें; यहाँ आपको पहले वाले समूह के साथ अनेक समानताएं मिलेंगी, किन्तु अनेक साझे लक्षण छूट जाएंगे, और कई अन्य लक्षण दृष्टिगोचर होंगे। अब जब हम गेंद-खेलों की ओर बढ़ते हैं तो बहुत कुछ जो साझा है वह तो बच जाता है किन्तु बहुत कुछ छूट जाता है। — क्या वे सभी 'मनोरंजक' हैं? शतरंज के खेल की नॉटस एंड क्रॉसिस खेल से तुलना कीजिए। अथवा क्या खेलों में सदैव ही जीत और हार होती है, अथवा खिलाड़ियों में प्रतिस्पर्धा होती है? 'पेशंस' नामक खेल के बारे में सोचिए। गेंद-खेलों


में जीत और हार होती है; किन्तु जब कोई बालक दीवार पर अपनी गेंद फेंक कर लपकता है तो यह लक्षण लुप्त हो जाता है। भाग्य और कौशल की भूमिका पर दृष्टिपात करें; और शतरंज के कौशल और टेनिस के कौशल के भेद पर भी। अब रिंग-ए-रिंग-ए-रोज़िस जैसे खेलों पर विचार करें; यहाँ मनोरंजन का तत्त्व तो है किन्तु कितने अन्य विशिष्ट लक्षण लुप्त हो गए! और इसी प्रकार के खेलों के अनेकानेक अन्य समूहों पर भी हम विचार कर सकते हैं; यह समझ सकते हैं कि समानताएं किस प्रकार उत्पन्न होती हैं, और लुप्त हो जाती हैं।
में जीत और हार होती है; किन्तु जब कोई बालक दीवार पर अपनी गेंद फेंक कर लपकता है तो यह लक्षण लुप्त हो जाता है। भाग्य और कौशल की भूमिका पर दृष्टिपात करें; और शतरंज के कौशल और टेनिस के कौशल के भेद पर भी। अब रिंग-ए-रिंग-ए-रोज़िस जैसे खेलों पर विचार करें; यहाँ मनोरंजन का तत्त्व तो है किन्तु कितने अन्य विशिष्ट लक्षण लुप्त हो गए! और इसी प्रकार के खेलों के अनेकानेक अन्य समूहों पर भी हम विचार कर सकते हैं; यह समझ सकते हैं कि समानताएं किस प्रकार उत्पन्न होती हैं, और लुप्त हो जाती हैं।
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और इस परीक्षण का परिणाम है: हमें अतिव्यापी एवं मक्कड़जाल के समान समानताओं का जटिल जाल दिखता है: कभी तो समग्र समानता और कभी विस्तारपूर्ण विवरणगत समानता दिखती है।
और इस परीक्षण का परिणाम है: हमें अतिव्यापी एवं मक्कड़जाल के समान समानताओं का जटिल जाल दिखता है: कभी तो समग्र समानता और कभी विस्तारपूर्ण विवरणगत समानता दिखती है।


'''67.''' इन समानताओं को निरूपित करने के लिए मुझे "पारिवारिक सादृश्य" से अधिक उपयुक्त अभिव्यक्ति नहीं सूझती; क्योंकि परिवार के सदस्यों में विविध साम्य: डील-डौल, नाक-नक्श, आँखों का रंग, चाल-ढाल, स्वभाव इत्यादि-इत्यादि के साम्य, इसी प्रकार अतिव्यापी एवं जटिल होते हैं। — और मैं कहूँगा: 'खेल' परिवार बनाते हैं।
'''67.''' इन समानताओं को निरूपित करने के लिए मुझे “पारिवारिक सादृश्य” से अधिक उपयुक्त अभिव्यक्ति नहीं सूझती; क्योंकि परिवार के सदस्यों में विविध साम्य: डील-डौल, नाक-नक्श, आँखों का रंग, चाल-ढाल, स्वभाव इत्यादि-इत्यादि के साम्य, इसी प्रकार अतिव्यापी एवं जटिल होते हैं। — और मैं कहूँगा: 'खेल' परिवार बनाते हैं।


और उदाहरणार्थ, अंक के वर्गों का भी इसी प्रकार परिवार बनता है। हम किसी विषय को "अंक" क्यों कहते हैं? सम्भवतः इसलिए कि इसका उन अनेक विषयों को जिन्हें अब तक अंक कहा गया है, से एक अपरोक्ष सम्बन्ध होता है; और उन अन्य विषयों को, जिन्हें हम उसी नाम से पुकारते हैं, भी यह सम्बन्ध प्रदान करने वाला कहा जा सकता है। और अंक के अपने प्रत्यय का विस्तार हम उसी प्रकार करते हैं जैसे धागे की कताई में हम तंतु-दर-तंतु बटते हैं। और धागे की मजबूती इस तथ्य में निहित नहीं होती कि कोई एक तंतु उसकी सम्पूर्ण लम्बाई में आद्योपांत रहता है, अपितु वह निहित होती है अनेक तंतुओं के परस्पर गुंथे होने में।
और उदाहरणार्थ, अंक के वर्गों का भी इसी प्रकार परिवार बनता है। हम किसी विषय को “अंक” क्यों कहते हैं? सम्भवतः इसलिए कि इसका उन अनेक विषयों को जिन्हें अब तक अंक कहा गया है, से एक अपरोक्ष सम्बन्ध होता है; और उन अन्य विषयों को, जिन्हें हम उसी नाम से पुकारते हैं, भी यह सम्बन्ध प्रदान करने वाला कहा जा सकता है। और अंक के अपने प्रत्यय का विस्तार हम उसी प्रकार करते हैं जैसे धागे की कताई में हम तंतु-दर-तंतु बटते हैं। और धागे की मजबूती इस तथ्य में निहित नहीं होती कि कोई एक तंतु उसकी सम्पूर्ण लम्बाई में आद्योपांत रहता है, अपितु वह निहित होती है अनेक तंतुओं के परस्पर गुंथे होने में।


किन्तु यदि कोई कहना चाहे: "इन सभी संरचनाओं में कुछ साझा है — यानी उनके सभी साझे गुणों का विनियोजन" तो मैं उत्तर दूँगा "आप अब शब्दों से ही खेल रहे हैं। यह भी कहा जा सकता है: सम्पूर्ण धागे में आद्योपांत कुछ है — यानी उन तंतुओं का 'निरंतर' आपस में गुंथे रहना।"
किन्तु यदि कोई कहना चाहे: “इन सभी संरचनाओं में कुछ साझा है — यानी उनके सभी साझे गुणों का विनियोजन” तो मैं उत्तर दूँगा “आप अब शब्दों से ही खेल रहे हैं। यह भी कहा जा सकता है: सम्पूर्ण धागे में आद्योपांत कुछ है — यानी उन तंतुओं का 'निरंतर' आपस में गुंथे रहना।”


'''68.''' "ठीक है: आप तो अंक के प्रत्यय से यह समझ रहे हैं कि वह गणन संख्याओं, परिमेय संख्याओं, वास्तविक संख्याओं जैसे अन्तर्सबन्धित प्रत्ययों का तार्किक संयोजन है। और इसी प्रकार आप खेल के प्रत्यय को खेल के समरूप उप-प्रत्यय समूह
'''68.''' "ठीक है: आप तो अंक के प्रत्यय से यह समझ रहे हैं कि वह गणन संख्याओं, परिमेय संख्याओं, वास्तविक संख्याओं जैसे अन्तर्सबन्धित प्रत्ययों का तार्किक संयोजन है। और इसी प्रकार आप खेल के प्रत्यय को खेल के समरूप उप-प्रत्यय समूह


के तार्किक संयोजन के रूप में समझ रहे हैं।" — यह आवश्यक नहीं कि ऐसा हो। क्योंकि 'अंक' प्रत्यय को मैं इस प्रकार से सीमाबद्ध कर नियत कर ''सकता'' हूँ, अतः "अंक" शब्द को नियत रूप से सीमित किसी प्रत्यय के लिए प्रयुक्त कर सकता हूँ, किन्तु इसका प्रयोग मैं इस प्रकार भी कर सकता हूँ कि प्रत्यय का विस्तार किसी भी सीमा द्वारा प्रतिबन्धित ''न'' हो। और "खेल" शब्द का प्रयोग हम इसी प्रकार करते हैं। क्योंकि खेल का प्रत्यय सीमाबद्ध कैसे हो सकता है? खेलों में अभी भी किसकी गिनती होती है, और किस की नहीं? क्या आप सीमा निश्चित कर सकते हैं? नहीं। आप कोई भी सीमा ''बना'' सकते हैं; क्योंकि अभी तक कोई भी सीमा बनाई ही नहीं गई। (किन्तु इससे पहले तो "खेल" शब्द को प्रयुक्त करते समय आप कभी भी उद्वेलित नहीं हुए।)
के तार्किक संयोजन के रूप में समझ रहे हैं।“ — यह आवश्यक नहीं कि ऐसा हो। क्योंकि 'अंक' प्रत्यय को मैं इस प्रकार से सीमाबद्ध कर नियत कर ''सकता'' हूँ, अतः ”अंक“ शब्द को नियत रूप से सीमित किसी प्रत्यय के लिए प्रयुक्त कर सकता हूँ, किन्तु इसका प्रयोग मैं इस प्रकार भी कर सकता हूँ कि प्रत्यय का विस्तार किसी भी सीमा द्वारा प्रतिबन्धित ''न'' हो। और ”खेल“ शब्द का प्रयोग हम इसी प्रकार करते हैं। क्योंकि खेल का प्रत्यय सीमाबद्ध कैसे हो सकता है? खेलों में अभी भी किसकी गिनती होती है, और किस की नहीं? क्या आप सीमा निश्चित कर सकते हैं? नहीं। आप कोई भी सीमा ''बना'' सकते हैं; क्योंकि अभी तक कोई भी सीमा बनाई ही नहीं गई। (किन्तु इससे पहले तो ”खेल" शब्द को प्रयुक्त करते समय आप कभी भी उद्वेलित नहीं हुए।)


"किन्तु यदि शब्द का प्रयोग अनियमित है, तो वह 'खेल' जो हम उस (शब्द) के साथ खेलते हैं वह भी अनियमित है।" — यह सभी स्थलों पर नियमों से परिमित नहीं है; किन्तु टेनिस में भी ऐसा कोई नियम नहीं होता कि गेंद को कितना ऊँचा उछालना है, अथवा कितनी जोर से मारना है; किन्तु तिस पर भी टेनिस खेल है और उसके नियम भी होते हैं।
“किन्तु यदि शब्द का प्रयोग अनियमित है, तो वह 'खेल' जो हम उस (शब्द) के साथ खेलते हैं वह भी अनियमित है।” — यह सभी स्थलों पर नियमों से परिमित नहीं है; किन्तु टेनिस में भी ऐसा कोई नियम नहीं होता कि गेंद को कितना ऊँचा उछालना है, अथवा कितनी जोर से मारना है; किन्तु तिस पर भी टेनिस खेल है और उसके नियम भी होते हैं।


'''69.''' किसी को हम कैसे समझाएं कि खेल क्या होता है? मैं कल्पना करता हूँ कि हमें उसे खेलों का विवरण देना चाहिए, और हम यह भी कह सकते हैं: "यह और ''इस प्रकार के विषय'' 'खेल' कहलाते हैं"। और क्या हमें स्वयं भी इसके बारे में इससे अधिक कुछ विदित है? या केवल अन्य व्यक्तियों को ही हम यह नहीं बता सकते कि यथार्थतः खेल क्या होता है? — किन्तु इसे अनभिज्ञता तो नहीं कहा जा सकता। हमें सीमाओं का पता नहीं है क्योंकि कोई सीमा बनाई ही नहीं गई। यानी हम — किसी विशेष प्रयोजन हेतु सीमा बना सकते हैं। प्रत्यय को प्रयोग के योग्य बनाने के लिए क्या यही करना होता है? कदापि नहीं! (सिर्फ उस विशेष प्रयोजन को छोड़कर) वैसे ही जैसे 'एक पेस' को लम्बाई के पैमाने के रूप में प्रयोग करने योग्य बनाने के लिए हमें एक पेस = 75 से.मी. ऐसी परिभाषा देनी पड़ी। और यदि आप कहना चाहें, "किन्तु फिर भी इससे पूर्व तो वह यथार्थ पैमाना नहीं था", तो मैं उत्तर दूंगाः ठीक है, यह अयथार्थ ही था। — यद्यपि अभी भी आप को मुझे यथार्थता की परिभाषा देनी है।
'''69.''' किसी को हम कैसे समझाएं कि खेल क्या होता है? मैं कल्पना करता हूँ कि हमें उसे खेलों का विवरण देना चाहिए, और हम यह भी कह सकते हैं: “यह और ''इस प्रकार के विषय'' 'खेल' कहलाते हैं”। और क्या हमें स्वयं भी इसके बारे में इससे अधिक कुछ विदित है? या केवल अन्य व्यक्तियों को ही हम यह नहीं बता सकते कि यथार्थतः खेल क्या होता है? — किन्तु इसे अनभिज्ञता तो नहीं कहा जा सकता। हमें सीमाओं का पता नहीं है क्योंकि कोई सीमा बनाई ही नहीं गई। यानी हम — किसी विशेष प्रयोजन हेतु सीमा बना सकते हैं। प्रत्यय को प्रयोग के योग्य बनाने के लिए क्या यही करना होता है? कदापि नहीं! (सिर्फ उस विशेष प्रयोजन को छोड़कर) वैसे ही जैसे 'एक पेस' को लम्बाई के पैमाने के रूप में प्रयोग करने योग्य बनाने के लिए हमें एक पेस = 75 से.मी. ऐसी परिभाषा देनी पड़ी। और यदि आप कहना चाहें, “किन्तु फिर भी इससे पूर्व तो वह यथार्थ पैमाना नहीं था”, तो मैं उत्तर दूंगाः ठीक है, यह अयथार्थ ही था। — यद्यपि अभी भी आप को मुझे यथार्थता की परिभाषा देनी है।


'''70.''' "किन्तु यदि 'खेल' प्रत्यय का इस प्रकार सीमांकन नहीं हुआ है तो आप वास्तव में नहीं जानते कि आपका 'खेल' से क्या तात्पर्य है।" लेकिन जब मैं यह विवरण देता हूँ: "मैदान पौधों से आच्छादित था" — तो क्या आप कहना चाहेंगे कि जब तक मैं पौधों की परिभाषा नहीं दूँ तब तक मैं नहीं जानता कि मैं क्या कह रहा हूँ?
'''70.''' “किन्तु यदि 'खेल' प्रत्यय का इस प्रकार सीमांकन नहीं हुआ है तो आप वास्तव में नहीं जानते कि आपका 'खेल' से क्या तात्पर्य है।” लेकिन जब मैं यह विवरण देता हूँ: “मैदान पौधों से आच्छादित था” — तो क्या आप कहना चाहेंगे कि जब तक मैं पौधों की परिभाषा नहीं दूँ तब तक मैं नहीं जानता कि मैं क्या कह रहा हूँ?


यूँ कहिये कि मेरे अर्थ की व्याख्या, किसी चित्र या “मैदान लगभग ऐसा प्रतीत हो रहा था" शब्दों द्वारा की जा सकती है। मैं कह सकता हूँ "वह ''यथार्थत'': ऐसा ही प्रतीत होता था।" — तो क्या वहाँ इस घास और इन पत्तियों का बिल्कुल इसी प्रकार विन्यास किया गया था? नहीं, इसका यह अर्थ नहीं है। और मुझे ''इस'' अर्थ में किसी भी चित्र को यथार्थ के रूप में स्वीकारना नहीं चाहिए।
यूँ कहिये कि मेरे अर्थ की व्याख्या, किसी चित्र या “मैदान लगभग ऐसा प्रतीत हो रहा था“ शब्दों द्वारा की जा सकती है। मैं कह सकता हूँ ”वह ''यथार्थत'': ऐसा ही प्रतीत होता था।" — तो क्या वहाँ इस घास और इन पत्तियों का बिल्कुल इसी प्रकार विन्यास किया गया था? नहीं, इसका यह अर्थ नहीं है। और मुझे ''इस'' अर्थ में किसी भी चित्र को यथार्थ के रूप में स्वीकारना नहीं चाहिए।


{{PU box|कोई मुझे कहता है: "बच्चों को कोई खेल खिलाओ।" मैं उन्हें पाँसे से खेला जाने वाला कोई खेल खिलाता हूँ, और दूसरा व्यक्ति कहता है “मेरा आशय उस प्रकार के खेल से नहीं था।" खेल खिलाने का आदेश देते समय क्या उसके मन में पाँसे से खेले जाने वाले खेल थे या नहीं?}}
{{PU box|कोई मुझे कहता है: “बच्चों को कोई खेल खिलाओ।” मैं उन्हें पाँसे से खेला जाने वाला कोई खेल खिलाता हूँ, और दूसरा व्यक्ति कहता है “मेरा आशय उस प्रकार के खेल से नहीं था।" खेल खिलाने का आदेश देते समय क्या उसके मन में पाँसे से खेले जाने वाले खेल थे या नहीं?}}


'''71.''' कहा जा सकता है कि 'खेल' प्रत्यय तो अस्पष्ट छोरों वाला प्रत्यय है। — "किन्तु क्या कोई अस्पष्ट प्रत्यय भी प्रत्यय होता है?” — क्या कोई धुंधला फोटो भी किसी व्यक्ति का चित्र हो सकता है? किसी अस्पष्ट चित्र को स्पष्ट चित्र द्वारा प्रतिस्थापित करना क्या सदैव ही लाभप्रद होता है? अस्पष्ट चित्र ही क्या बहुधा वह चित्र नहीं होता जिसकी यथार्थतः हमें आवश्यकता होती है?
'''71.''' कहा जा सकता है कि 'खेल' प्रत्यय तो अस्पष्ट छोरों वाला प्रत्यय है। — "किन्तु क्या कोई अस्पष्ट प्रत्यय भी प्रत्यय होता है?” — क्या कोई धुंधला फोटो भी किसी व्यक्ति का चित्र हो सकता है? किसी अस्पष्ट चित्र को स्पष्ट चित्र द्वारा प्रतिस्थापित करना क्या सदैव ही लाभप्रद होता है? अस्पष्ट चित्र ही क्या बहुधा वह चित्र नहीं होता जिसकी यथार्थतः हमें आवश्यकता होती है?
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नहीं है। क्योंकि कोई सार्वभौम परिभाषा भी गलत समझी जा सकती है। बात तो यह है कि हम खेल को ''इसी प्रकार'' खेलते हैं। “खेल" से मेरा तात्पर्य भाषा-खेल है।
नहीं है। क्योंकि कोई सार्वभौम परिभाषा भी गलत समझी जा सकती है। बात तो यह है कि हम खेल को ''इसी प्रकार'' खेलते हैं। “खेल" से मेरा तात्पर्य भाषा-खेल है।


'''72.''' ''यह समझना कि साझा क्या है।'' मान लीजिए मैं किसी को अनेक बहुरंगी चित्र दिखाता हूँ और कहता हूँ: "जो रंग आप इन सभी में देख रहे हैं 'पीत गेरुआ' कहलाता है"। — यह एक परिभाषा है और दूसरा व्यक्ति चित्रों का निरीक्षण और अवलोकन करने पर समझ जाता है कि उनमें साझा क्या है। फिर वह साझे विषय का अवलोकन कर सकता है, ''उसे'' इंगित कर सकता है। इसकी तुलना ऐसी स्थिति से करें जिसमें मैं उसे एक ही रंग से पुती भिन्न आकारों वाली आकृतियों को दिखाता हूँ और कहता हूँ: "जो इन सब में साझा है वही 'पीत गेरुआ' कहलाता है"।
'''72.''' ''यह समझना कि साझा क्या है।'' मान लीजिए मैं किसी को अनेक बहुरंगी चित्र दिखाता हूँ और कहता हूँ: “जो रंग आप इन सभी में देख रहे हैं 'पीत गेरुआ' कहलाता है”। — यह एक परिभाषा है और दूसरा व्यक्ति चित्रों का निरीक्षण और अवलोकन करने पर समझ जाता है कि उनमें साझा क्या है। फिर वह साझे विषय का अवलोकन कर सकता है, ''उसे'' इंगित कर सकता है। इसकी तुलना ऐसी स्थिति से करें जिसमें मैं उसे एक ही रंग से पुती भिन्न आकारों वाली आकृतियों को दिखाता हूँ और कहता हूँ: “जो इन सब में साझा है वही 'पीत गेरुआ' कहलाता है”।


और इस स्थिति से तुलना कीजिए: मैं उसे नीले रंग के भिन्न छटाओं के नमूने दिखाता हूँ और कहता हूँ: "वह रंग जो इन सब में साझा है उस को मैं 'नीला' कहता हूँ"।
और इस स्थिति से तुलना कीजिए: मैं उसे नीले रंग के भिन्न छटाओं के नमूने दिखाता हूँ और कहता हूँ: “वह रंग जो इन सब में साझा है उस को मैं 'नीला' कहता हूँ”।


'''73.''' जब कोई मुझे रंगों के नाम उनके नमूनों को इंगित कर के और "यह रंग 'नीला' कहलाता है, यह 'हरा'...." ऐसा कह कर समझाता है, तो अनेक प्रकार से इस स्थिति की तुलना मेरे हाथों में दी हुई ऐसी सारिणी से की जा सकती है जिसमें रंग-नमूनों के नीचे शब्द लिखे हों। — यद्यपि यह तुलना अनेक प्रकार से भ्रमोत्पादक हो सकती है। हम अब इस तुलना का विस्तार करने को प्रवृत्त हैं: परिभाषा को समझने का अर्थ है मन में परिभाषित विषय का धारण हो जाना और वह धारणा होती है नमूने अथवा चित्र की। अतः यदि मुझे विविध पत्तियाँ दिखाई जाएं और कहा जाए "यह 'पत्ती' कहलाती है" तो मुझे पत्ती की आकृति की धारणा हो जाती है, और उसका चित्र मेरे मन में आ जाता है। — किन्तु पत्ती का चित्र कैसा प्रतीत होता है जब वह हमें कोई आकृति विशेष नहीं दर्शाता, अपितु उसे दर्शाता है 'जो पत्ती की सभी आकृतियों में साझा होता है'? 'मेरे मन के हरे रंग के नमूने' की हरे रंग की कौन सी छटा है — वही नमूना जो हरे रंग की सभी छटाओं में साझा है?
'''73.''' जब कोई मुझे रंगों के नाम उनके नमूनों को इंगित कर के और “यह रंग 'नीला' कहलाता है, यह 'हरा'....ऐसा कह कर समझाता है, तो अनेक प्रकार से इस स्थिति की तुलना मेरे हाथों में दी हुई ऐसी सारिणी से की जा सकती है जिसमें रंग-नमूनों के नीचे शब्द लिखे हों। — यद्यपि यह तुलना अनेक प्रकार से भ्रमोत्पादक हो सकती है। हम अब इस तुलना का विस्तार करने को प्रवृत्त हैं: परिभाषा को समझने का अर्थ है मन में परिभाषित विषय का धारण हो जाना और वह धारणा होती है नमूने अथवा चित्र की। अतः यदि मुझे विविध पत्तियाँ दिखाई जाएं और कहा जाए “यह 'पत्ती' कहलाती है” तो मुझे पत्ती की आकृति की धारणा हो जाती है, और उसका चित्र मेरे मन में आ जाता है। — किन्तु पत्ती का चित्र कैसा प्रतीत होता है जब वह हमें कोई आकृति विशेष नहीं दर्शाता, अपितु उसे दर्शाता है 'जो पत्ती की सभी आकृतियों में साझा होता है'? 'मेरे मन के हरे रंग के नमूने' की हरे रंग की कौन सी छटा है — वही नमूना जो हरे रंग की सभी छटाओं में साझा है?


“किन्तु क्या ऐसे 'सार्वभौम' नमूने नहीं हो सकते? जैसे कि पत्ती का प्रारूप अथवा विशुद्ध हरे रंग का नमूना?" — निस्संदेह हो सकते हैं। किन्तु ऐसे प्रारूप को ''प्रारूप'' के समान समझना, न कि किसी पत्ती विशेष की आकृति के समान समझना, और विशुद्ध हरे रंग के नमूने को सभी हरी वस्तुओं का नमूना समझना, न कि विशुद्ध हरे रंग के समान समझना — यह तो नमूनों के प्रयुक्त किए जाने के ढंग में निहित होता है।
“किन्तु क्या ऐसे 'सार्वभौम' नमूने नहीं हो सकते? जैसे कि पत्ती का प्रारूप अथवा विशुद्ध हरे रंग का नमूना?" — निस्संदेह हो सकते हैं। किन्तु ऐसे प्रारूप को ''प्रारूप'' के समान समझना, न कि किसी पत्ती विशेष की आकृति के समान समझना, और विशुद्ध हरे रंग के नमूने को सभी हरी वस्तुओं का नमूना समझना, न कि विशुद्ध हरे रंग के समान समझना — यह तो नमूनों के प्रयुक्त किए जाने के ढंग में निहित होता है।
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अपने आप से पूछें: हरे रंग के नमूने की कौन सी ''आकृति'' होनी चाहिए? क्या उसे आयताकार होना चाहिए? अथवा क्या फिर वह हरे आयत का नमूना होगा? — तो क्या उसकी आकृति 'अनियमित' होनी चाहिए? और तब हमें उसे अनियमित आकृति का नमूना मात्र मानने से — अर्थात् उसका प्रयोग करने से — कौन रोक सकता है?
अपने आप से पूछें: हरे रंग के नमूने की कौन सी ''आकृति'' होनी चाहिए? क्या उसे आयताकार होना चाहिए? अथवा क्या फिर वह हरे आयत का नमूना होगा? — तो क्या उसकी आकृति 'अनियमित' होनी चाहिए? और तब हमें उसे अनियमित आकृति का नमूना मात्र मानने से — अर्थात् उसका प्रयोग करने से — कौन रोक सकता है?


'''74.''' इससे सम्बन्धित विचार यह है कि यदि आप इस पत्ती को 'सार्वभौमिक पत्ती की आकृति' के रूप में देखते हैं तो आप उसे उस व्यक्ति की अपेक्षा भिन्न रूप से समझते हैं जिसकी, यूँ कहिये कि, यह मान्यता है कि यह इस आकृति विशेष का नमूना है। अब हो सकता है कि यह ऐसा ही हो — यद्यपि यह ऐसा नहीं है — क्योंकि यह तो केवल यही कहना होगा कि अनुभवतः यदि आप पत्ती को इस विशेष ढंग से ''देखते'' हैं, तो आप इसका प्रयोग अमुक प्रकार से करते हैं, अथवा अमुक नियमों के अनुसार करते हैं। निस्संदेह ''इस'' अथवा ''उस'' प्रकार से देखना तो होता है; और ऐसी स्थितियां भी होती हैं जिनमें जो भी नमूने को ''इस'' प्रकार देखता है वह उसका प्रयोग किसी विशिष्ट प्रकार से करता है। उदाहरणार्थ, यदि आप घन प्रारूप के रेखांकन को वर्ग एवं दो समचतुर्भुजों से बनी समतल आकृति के रूप में देखते हैं तो सम्भवतः आप "मेरे पास कुछ ऐसा लाओ" आदेश का पालन उससे भिन्न रूप में करेंगे जो चित्र को त्रिविम रूप से देखता है।
'''74.''' इससे सम्बन्धित विचार यह है कि यदि आप इस पत्ती को 'सार्वभौमिक पत्ती की आकृति' के रूप में देखते हैं तो आप उसे उस व्यक्ति की अपेक्षा भिन्न रूप से समझते हैं जिसकी, यूँ कहिये कि, यह मान्यता है कि यह इस आकृति विशेष का नमूना है। अब हो सकता है कि यह ऐसा ही हो — यद्यपि यह ऐसा नहीं है — क्योंकि यह तो केवल यही कहना होगा कि अनुभवतः यदि आप पत्ती को इस विशेष ढंग से ''देखते'' हैं, तो आप इसका प्रयोग अमुक प्रकार से करते हैं, अथवा अमुक नियमों के अनुसार करते हैं। निस्संदेह ''इस'' अथवा ''उस'' प्रकार से देखना तो होता है; और ऐसी स्थितियां भी होती हैं जिनमें जो भी नमूने को ''इस'' प्रकार देखता है वह उसका प्रयोग किसी विशिष्ट प्रकार से करता है। उदाहरणार्थ, यदि आप घन प्रारूप के रेखांकन को वर्ग एवं दो समचतुर्भुजों से बनी समतल आकृति के रूप में देखते हैं तो सम्भवतः आप “मेरे पास कुछ ऐसा लाओ” आदेश का पालन उससे भिन्न रूप में करेंगे जो चित्र को त्रिविम रूप से देखता है।


'''75.''' "खेल क्या होता है" को जानने का क्या अर्थ होता है? उसे जानने और उसे न कह पाने का क्या अर्थ होता है? क्या यह ज्ञान किसी प्रकार भी अनिरूपित परिभाषा के तुल्य है? ताकि, यदि कभी निरूपण हो तो मैं इसे अपने ज्ञान की अभिव्यक्ति के रूप में पहचानने में समर्थ होऊँ? मेरा ज्ञान, खेल का मेरा प्रत्यय क्या उन व्याख्याओं में जो मैं दे सकता हूँ, पूर्णतः अभिव्यक्त नहीं होता? यानी, खेलों के विभिन्न प्रकार के उदाहरणों के मेरे विवरण में; यह दर्शाने में कि इन के सामान्यानुमान पर अनेक प्रकार के खेल किस प्रकार बनाए जा सकते हैं; यह उल्लेख करने में कि मुझे इस अथवा उसको खेलों में कदापि सम्मिलित नहीं करना चाहिए; इत्यादि द्वारा।
'''75.''' “खेल क्या होता है” को जानने का क्या अर्थ होता है? उसे जानने और उसे न कह पाने का क्या अर्थ होता है? क्या यह ज्ञान किसी प्रकार भी अनिरूपित परिभाषा के तुल्य है? ताकि, यदि कभी निरूपण हो तो मैं इसे अपने ज्ञान की अभिव्यक्ति के रूप में पहचानने में समर्थ होऊँ? मेरा ज्ञान, खेल का मेरा प्रत्यय क्या उन व्याख्याओं में जो मैं दे सकता हूँ, पूर्णतः अभिव्यक्त नहीं होता? यानी, खेलों के विभिन्न प्रकार के उदाहरणों के मेरे विवरण में; यह दर्शाने में कि इन के सामान्यानुमान पर अनेक प्रकार के खेल किस प्रकार बनाए जा सकते हैं; यह उल्लेख करने में कि मुझे इस अथवा उसको खेलों में कदापि सम्मिलित नहीं करना चाहिए; इत्यादि द्वारा।


'''76.''' यदि कोई सीमा बनाता है तो मैं कतई स्वीकार नहीं करता कि मैं भी सदैव वैसी ही सीमा बनाना चाहता था, अथवा मैंने भी अपने मन में वैसी ही सीमा बनाई थी। क्योंकि मैं तो कोई सीमा बनाना ही नहीं चाहता था। तब उसके प्रत्यय को मेरे प्रत्यय के समान नहीं कहा जा सकता, अपितु उसका सजातीय कहा जा सकता
'''76.''' यदि कोई सीमा बनाता है तो मैं कतई स्वीकार नहीं करता कि मैं भी सदैव वैसी ही सीमा बनाना चाहता था, अथवा मैंने भी अपने मन में वैसी ही सीमा बनाई थी। क्योंकि मैं तो कोई सीमा बनाना ही नहीं चाहता था। तब उसके प्रत्यय को मेरे प्रत्यय के समान नहीं कहा जा सकता, अपितु उसका सजातीय कहा जा सकता
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है। उनका सम्बन्ध उन दो चित्रों के समान है जिनमें से एक अस्पष्ट किनारों वाले रंगीन धब्बों से बना है और दूसरा उन्हीं के समान आकृतियों और उसी प्रकार संयोजित स्पष्ट किनारों वाले धब्बों से बना है। उनके सम्बन्ध को उसी प्रकार नकारा नहीं जा सकता जिस प्रकार उनके भेद को।
है। उनका सम्बन्ध उन दो चित्रों के समान है जिनमें से एक अस्पष्ट किनारों वाले रंगीन धब्बों से बना है और दूसरा उन्हीं के समान आकृतियों और उसी प्रकार संयोजित स्पष्ट किनारों वाले धब्बों से बना है। उनके सम्बन्ध को उसी प्रकार नकारा नहीं जा सकता जिस प्रकार उनके भेद को।


'''77.''' और उपमा को अधिक गहराई से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सुस्पष्ट चित्र कहाँ तक अस्पष्ट चित्र के समान हो ''सकता'' है यह तो अस्पष्ट चित्र की अस्पष्टता की कोटि पर निर्भर करता है। किसी अस्पष्ट चित्र के 'अनुरूप' एक स्पष्ट चित्र बनाने की कल्पना कीजिए। अस्पष्ट चित्र में एक धुंधले लाल रंग की आयत है: इसके स्थान पर आप एक सुस्पष्ट आयत बनाते हैं। बेशक — इस अस्पष्ट आयत के अनुरूप अनेक सुस्पष्ट आयत बनाये जा सकते हैं। — किन्तु यदि मूल चित्र में रंगों विलयन के कारण रूपरेखा का अता-पता ही न चले तो क्या अस्पष्ट चित्र के अनुरूप स्पष्ट चित्र बनाना असम्भव नहीं हो जाएगा? तब क्या आप को यह नहीं कहना पड़ेगा: "मैं चाहूँ तो वृत्ताकार या हृदयाकार को भी आयत बना सकता हूँ, क्योंकि सभी रंगों का विलयन हो गया है। इनमें कुछ भी — या फिर कुछ भी उचित नहीं।" — और जब आप सौंदर्यशास्त्र या नीतिशास्त्र में हमारे प्रत्ययों के अनुरूप परिभाषाओं को खोजते हैं, तब आप इसी स्थिति में होते हैं।
'''77.''' और उपमा को अधिक गहराई से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सुस्पष्ट चित्र कहाँ तक अस्पष्ट चित्र के समान हो ''सकता'' है यह तो अस्पष्ट चित्र की अस्पष्टता की कोटि पर निर्भर करता है। किसी अस्पष्ट चित्र के 'अनुरूप' एक स्पष्ट चित्र बनाने की कल्पना कीजिए। अस्पष्ट चित्र में एक धुंधले लाल रंग की आयत है: इसके स्थान पर आप एक सुस्पष्ट आयत बनाते हैं। बेशक — इस अस्पष्ट आयत के अनुरूप अनेक सुस्पष्ट आयत बनाये जा सकते हैं। — किन्तु यदि मूल चित्र में रंगों विलयन के कारण रूपरेखा का अता-पता ही न चले तो क्या अस्पष्ट चित्र के अनुरूप स्पष्ट चित्र बनाना असम्भव नहीं हो जाएगा? तब क्या आप को यह नहीं कहना पड़ेगा: “मैं चाहूँ तो वृत्ताकार या हृदयाकार को भी आयत बना सकता हूँ, क्योंकि सभी रंगों का विलयन हो गया है। इनमें कुछ भी — या फिर कुछ भी उचित नहीं।” — और जब आप सौंदर्यशास्त्र या नीतिशास्त्र में हमारे प्रत्ययों के अनुरूप परिभाषाओं को खोजते हैं, तब आप इसी स्थिति में होते हैं।


ऐसी कठिनाई में सदैव स्वयं से पूछिए: हमने अमुक शब्द (उदाहरणार्थ "शुभ") का अर्थ कैसे ''सीखा''? किस तरह के उदाहरणों से? कौन से भाषा खेलों से? तब आप के लिए यह जानना सरल हो जाएगा कि शब्द के अर्थों का परिवार होना ही चाहिए।
ऐसी कठिनाई में सदैव स्वयं से पूछिए: हमने अमुक शब्द (उदाहरणार्थ “शुभ”) का अर्थ कैसे ''सीखा''? किस तरह के उदाहरणों से? कौन से भाषा खेलों से? तब आप के लिए यह जानना सरल हो जाएगा कि शब्द के अर्थों का परिवार होना ही चाहिए।


'''78.''' ''जानने एवं कहने में तुलना कीजिए:''
'''78.''' ''जानने एवं कहने में तुलना कीजिए:''
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मांट ब्लैंक कितने फुट ऊंचा है —
मांट ब्लैंक कितने फुट ऊंचा है —


"खेल" शब्द कैसे प्रयोग होता है —
“खेल” शब्द कैसे प्रयोग होता है —


शहनाई की ध्वनि कैसी होती है।
शहनाई की ध्वनि कैसी होती है।
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यदि आपको किसी के कुछ जानने किन्तु उसे न कह सकने पर अचरज हो रहा है तो आप सम्भवत: पहली स्थिति जैसी किसी स्थिति के बारे में सोच रहे हैं। निश्चय ही तीसरी स्थिति के समान नहीं।
यदि आपको किसी के कुछ जानने किन्तु उसे न कह सकने पर अचरज हो रहा है तो आप सम्भवत: पहली स्थिति जैसी किसी स्थिति के बारे में सोच रहे हैं। निश्चय ही तीसरी स्थिति के समान नहीं।


'''79.''' इस उदाहरण पर विचार कीजिए। "मोसिस था ही नहीं" कहने के विभिन्न अर्थ हो सकते हैं। इसका अर्थ हो सकता है: मिस्र से वापसी के समय यहूदियों का कोई एक नेता नहीं था — अथवा: उनका नेता मोसिस नहीं कहलाता था —
'''79.''' इस उदाहरण पर विचार कीजिए। “मोसिस था ही नहीं” कहने के विभिन्न अर्थ हो सकते हैं। इसका अर्थ हो सकता है: मिस्र से वापसी के समय यहूदियों का कोई एक नेता नहीं था — अथवा: उनका नेता मोसिस नहीं कहलाता था —


अथवा: कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जिसमें बाइबल में मोसिस के बारे में वर्णित गुण हो — अथवा: इसी प्रकार का कोई अन्य अर्थ। — हम रॅसेल का अनुगमन करते हुए कह सकते हैं: "मोसिस" नाम को विभिन्न विवरणों द्वारा परिभाषित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, "वह पुरुष जिसने यहूदियों का बियावान में नेतृत्व किया", "वह पुरुष जो अमुक समय और अमुक स्थान पर रहता था, और 'मोसिस' कहलाता था", "वह पुरुष जिसे शैशवास्था में फ़ारोह की पुत्री ने नील नदी से निकाला था" इत्यादि। और हम जिस किसी भी परिभाषा को मानेंगे उसके आधार पर "मोसिस था ही नहीं" प्रतिज्ञप्ति का, और मोसिस के बारे में सभी प्रतिज्ञप्तियों के विभिन्न अर्थ होंगे। — और हम यह बताए जाने पर कि "'''न''' की सत्ता नहीं थी" यह तो नहीं पूछते: "आपका क्या अर्थ है? क्या आप कहना चाहते हैं कि..... अथवा..... इत्यादि?"
अथवा: कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जिसमें बाइबल में मोसिस के बारे में वर्णित गुण हो — अथवा: इसी प्रकार का कोई अन्य अर्थ। — हम रॅसेल का अनुगमन करते हुए कह सकते हैं: “मोसिस” नाम को विभिन्न विवरणों द्वारा परिभाषित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, “वह पुरुष जिसने यहूदियों का बियावान में नेतृत्व किया”, “वह पुरुष जो अमुक समय और अमुक स्थान पर रहता था, और 'मोसिस' कहलाता था”, “वह पुरुष जिसे शैशवास्था में फ़ारोह की पुत्री ने नील नदी से निकाला था” इत्यादि। और हम जिस किसी भी परिभाषा को मानेंगे उसके आधार पर “मोसिस था ही नहीं” प्रतिज्ञप्ति का, और मोसिस के बारे में सभी प्रतिज्ञप्तियों के विभिन्न अर्थ होंगे। — और हम यह बताए जाने पर कि '''न''' की सत्ता नहीं थी” यह तो नहीं पूछते: “आपका क्या अर्थ है? क्या आप कहना चाहते हैं कि..... अथवा..... इत्यादि?


किन्तु जब मैं मोसिस के बारे में कोई वक्तव्य देता हूँ तो — क्या मैं सदैव इन विवरणों में से किसी ''एक'' को "मोसिस " के स्थान पर प्रतिस्थापित करने को तत्पर रहता हूँ? संभवत: मैं कहूँ: "मोसिस " शब्द से मैं उस पुरुष को समझता हूँ जिसने वे सब कार्य किए, या फिर उनमें से बहुत से कार्य किए जिनका विवरण बाईबल में दिया गया है। किन्तु कितने? क्या मैं निश्चय कर चुका हूँ कि मुझे अपनी प्रतिज्ञप्ति असत्य मानने के लिए कितना कुछ असत्य सिद्ध करना होगा? क्या मेरे लिए "मोसिस" नाम की प्रत्येक संभावना की निश्चित एवं असंदिग्ध उपयोगिता है? — क्या ऐसा नहीं है कि मेरे पास, मानो कि, अनुकूल आलंबनों की एक पूर्ण श्रृंखला है और यदि कोई अन्य आलंबन मेरे नीचे से खिसका दिया जाए तो मैं किसी एक आलंबन का सहारा लेने को तत्पर हूँ और उससे भिन्न (आलंबन) का भी? — एक अन्य स्थिति पर विचार कीजिए। जब मैं कहता हूँ "'''न''' की मृत्यु हो गयी है", तो '''न''' नाम के अर्थ के लिए कुछ ऐसा समझना होगा: मेरा विश्वास है कि वह व्यक्ति जीवित था जिसे मैंने (1) अमुक-अमुक स्थानों पर देखा है, (2) जो देखने में इस (चित्र) के समान दिखता था, (3) जिसने अमुक-अमुक कार्य किए हैं, और (4) जिसका सामाजिक जीवन में "'''न'''" नाम था। — यह पूछे जाने पर कि "'''न'''" से मैं क्या समझता हूँ, मुझे इन सबका या इनमें से कुछ का ब्यौरा देना होगा, और भिन्न अवसरों पर भिन्न बातों का विवरण देना होगा। अतः "'''न'''" की मेरी परिभाषा संभवतः "वह पुरुष जिसके बारे में यह सब सत्य हो" होगी। — किन्तु इनमें से कोई बात यदि अब असत्य हो तो? — क्या मैं "'''न''' की मृत्यु हो गई है" प्रतिज्ञप्ति को असत्य घोषित करने को तत्पर हूँगा — तब भी जब मुझे असत्य होने वाली बात आनुषंगिक प्रतीत हो? किन्तु आनुषंगिकता की सीमाएं कहाँ हैं? — यदि मैंने ऐसी स्थिति में नाम की परिभाषा दी है तो अब मुझे उसे परिवर्तित करने को तत्पर रहना चाहिए।
किन्तु जब मैं मोसिस के बारे में कोई वक्तव्य देता हूँ तो — क्या मैं सदैव इन विवरणों में से किसी ''एक'' को “मोसिस ” के स्थान पर प्रतिस्थापित करने को तत्पर रहता हूँ? संभवत: मैं कहूँ: “मोसिस ” शब्द से मैं उस पुरुष को समझता हूँ जिसने वे सब कार्य किए, या फिर उनमें से बहुत से कार्य किए जिनका विवरण बाईबल में दिया गया है। किन्तु कितने? क्या मैं निश्चय कर चुका हूँ कि मुझे अपनी प्रतिज्ञप्ति असत्य मानने के लिए कितना कुछ असत्य सिद्ध करना होगा? क्या मेरे लिए “मोसिस” नाम की प्रत्येक संभावना की निश्चित एवं असंदिग्ध उपयोगिता है? — क्या ऐसा नहीं है कि मेरे पास, मानो कि, अनुकूल आलंबनों की एक पूर्ण श्रृंखला है और यदि कोई अन्य आलंबन मेरे नीचे से खिसका दिया जाए तो मैं किसी एक आलंबन का सहारा लेने को तत्पर हूँ और उससे भिन्न (आलंबन) का भी? — एक अन्य स्थिति पर विचार कीजिए। जब मैं कहता हूँ '''न''' की मृत्यु हो गयी है”, तो '''न''' नाम के अर्थ के लिए कुछ ऐसा समझना होगा: मेरा विश्वास है कि वह व्यक्ति जीवित था जिसे मैंने (1) अमुक-अमुक स्थानों पर देखा है, (2) जो देखने में इस (चित्र) के समान दिखता था, (3) जिसने अमुक-अमुक कार्य किए हैं, और (4) जिसका सामाजिक जीवन में '''न'''नाम था। — यह पूछे जाने पर कि '''न'''से मैं क्या समझता हूँ, मुझे इन सबका या इनमें से कुछ का ब्यौरा देना होगा, और भिन्न अवसरों पर भिन्न बातों का विवरण देना होगा। अतः '''न'''की मेरी परिभाषा संभवतः “वह पुरुष जिसके बारे में यह सब सत्य हो” होगी। — किन्तु इनमें से कोई बात यदि अब असत्य हो तो? — क्या मैं '''न''' की मृत्यु हो गई है” प्रतिज्ञप्ति को असत्य घोषित करने को तत्पर हूँगा — तब भी जब मुझे असत्य होने वाली बात आनुषंगिक प्रतीत हो? किन्तु आनुषंगिकता की सीमाएं कहाँ हैं? — यदि मैंने ऐसी स्थिति में नाम की परिभाषा दी है तो अब मुझे उसे परिवर्तित करने को तत्पर रहना चाहिए।


और इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है: मैं "'''न'''" नाम का प्रयोग, बिना किसी ''निश्चित'' अर्थ के करता हूँ। (किन्तु इससे उसकी उपयोगिता उतनी सी ही कम होती है जितनी कि चार पैरों में से तीन पैरों पर खड़ी ऐसी मेज की जो कभी-कभी दोलायमान हो जाती है।)
और इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है: मैं '''न'''नाम का प्रयोग, बिना किसी ''निश्चित'' अर्थ के करता हूँ। (किन्तु इससे उसकी उपयोगिता उतनी सी ही कम होती है जितनी कि चार पैरों में से तीन पैरों पर खड़ी ऐसी मेज की जो कभी-कभी दोलायमान हो जाती है।)


क्या यह कहना चाहिए कि मैं ऐसे शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ जिसका अर्थ मैं नहीं जानता, और इसीलिए मैं बकबक कर रहा हूँ? — जो चाहे कहें, तब तक कोई अन्तर नहीं पड़ता, जब तक कि आपको उससे तथ्यों को देखने में बाधा न हो। (और जब आप उन्हें देखेंगे तब आप कई बातें नहीं कहेंगे।)
क्या यह कहना चाहिए कि मैं ऐसे शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ जिसका अर्थ मैं नहीं जानता, और इसीलिए मैं बकबक कर रहा हूँ? — जो चाहे कहें, तब तक कोई अन्तर नहीं पड़ता, जब तक कि आपको उससे तथ्यों को देखने में बाधा न हो। (और जब आप उन्हें देखेंगे तब आप कई बातें नहीं कहेंगे।)
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(वैज्ञानिक परिभाषाओं में उतार-चढ़ाव: आज जिसे हम संवृत्ति का सहगामी कहते हैं, आने वाले समय में उसका ही संवृत्ति को परिभाषित करने में प्रयोग किया जाएगा।)
(वैज्ञानिक परिभाषाओं में उतार-चढ़ाव: आज जिसे हम संवृत्ति का सहगामी कहते हैं, आने वाले समय में उसका ही संवृत्ति को परिभाषित करने में प्रयोग किया जाएगा।)


'''80.''' मैं कहता हूँ "वहाँ एक कुर्सी है"। क्या हो यदि मैं उस तक उसे लाने के लिए जाऊँ और वह यकायक ओझल हो जाए? — "तो वह कुर्सी न होकर किसी प्रकार का मतिभ्रम था"। — किन्तु कुछ ही क्षणों में हम उसे पुनः देख सकते हैं और उसे छू इत्यादि सकते हैं। — "तो कुर्सी तो वहाँ थी किन्तु उसका ओझल होना किसी प्रकार का मतिभ्रम था"। किन्तु मान लीजिए कि कुछ समय बाद वह पुनः ओझल हो जाती है — अथवा ओझल प्रतीत होती है। अब हम क्या कहें? क्या आप के पास ऐसी स्थितियों के लिए पहले से ही तैयार किया हुआ कोई नियम है — ऐसा नियम जो इस बात का निर्धारण कर सके कि "कुर्सी" शब्द का प्रयोग क्या इस प्रकार की वस्तु को भी समाविष्ट करने के लिए किया जा सकता है? किन्तु जब हम "कुर्सी" शब्द का प्रयोग करते हैं तो क्या हम उस नियम को छोड़ जाते हैं; और क्या हमें कहना चाहिए कि हम इस शब्द का कोई अर्थ ही नहीं लगाते क्योंकि हमारे पास इसके प्रत्येक संभाव्य प्रयोग के नियम नहीं हैं?
'''80.''' मैं कहता हूँ “वहाँ एक कुर्सी है”। क्या हो यदि मैं उस तक उसे लाने के लिए जाऊँ और वह यकायक ओझल हो जाए? — “तो वह कुर्सी न होकर किसी प्रकार का मतिभ्रम था”। — किन्तु कुछ ही क्षणों में हम उसे पुनः देख सकते हैं और उसे छू इत्यादि सकते हैं। — “तो कुर्सी तो वहाँ थी किन्तु उसका ओझल होना किसी प्रकार का मतिभ्रम था”। किन्तु मान लीजिए कि कुछ समय बाद वह पुनः ओझल हो जाती है — अथवा ओझल प्रतीत होती है। अब हम क्या कहें? क्या आप के पास ऐसी स्थितियों के लिए पहले से ही तैयार किया हुआ कोई नियम है — ऐसा नियम जो इस बात का निर्धारण कर सके कि “कुर्सी” शब्द का प्रयोग क्या इस प्रकार की वस्तु को भी समाविष्ट करने के लिए किया जा सकता है? किन्तु जब हम “कुर्सी” शब्द का प्रयोग करते हैं तो क्या हम उस नियम को छोड़ जाते हैं; और क्या हमें कहना चाहिए कि हम इस शब्द का कोई अर्थ ही नहीं लगाते क्योंकि हमारे पास इसके प्रत्येक संभाव्य प्रयोग के नियम नहीं हैं?


'''81.''' एक बार वार्तालाप में एफ. पी. रामसे ने मुझे जोर देकर कहा कि तर्कशास्त्र एक 'नियामक विज्ञान' है। मैं यथार्थतः तो नहीं जानता कि उनके मन में क्या था, किन्तु उसका निश्चय ही उससे संबंध है जो बाद में मुझे समझ में आया: अर्थात् दर्शन में, बहुधा हम शब्दों के प्रयोग की ''तुलना'' निश्चित नियमों वाले खेलों से और कलन (कैल्कुलस) से करते हैं, किन्तु हम यह नहीं कह सकते कि भाषा को प्रयोग करने वाला ''अनिवार्यतः'' कोई ऐसा ही खेल खेल रहा है। — किन्तु यदि आप कहते हैं कि हमारी भाषा ऐसे कलन के ''सन्निकट'' ही है तो आप गलतफहमी के शिकार होने वाले हैं। क्योंकि तब ऐसा प्रतीत होगा मानो हम अब तक ''आदर्श'' भाषा के बारे में बातचीत कर रहे हों। यानी हमारा तर्कशास्त्र, मानो किसी शून्य स्थान का तर्कशास्त्र हो। — जबकि तर्कशास्त्र भाषा का — या विचार का विवेचन उसी अर्थ में नहीं करता जिसमें कोई प्राकृतिक विज्ञान किसी प्राकृतिक संवृत्ति का विवेचन करता है, अधिकाधिक यही कहा जा सकता है कि हम आदर्श-भाषाओं का ''निर्माण'' करते हैं। किन्तु यहाँ "आदर्श" शब्द भ्रमित कर सकता है क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है मानो ये भाषाएं हमारी दैनंदिन भाषा से अधिक अच्छी, अधिक निर्दोष हों; और मानो तर्कशास्त्री अन्ततः लोगों को यह दिखा पाया हो कि उचित वाक्य कैसा होता है।
'''81.''' एक बार वार्तालाप में एफ. पी. रामसे ने मुझे जोर देकर कहा कि तर्कशास्त्र एक 'नियामक विज्ञान' है। मैं यथार्थतः तो नहीं जानता कि उनके मन में क्या था, किन्तु उसका निश्चय ही उससे संबंध है जो बाद में मुझे समझ में आया: अर्थात् दर्शन में, बहुधा हम शब्दों के प्रयोग की ''तुलना'' निश्चित नियमों वाले खेलों से और कलन (कैल्कुलस) से करते हैं, किन्तु हम यह नहीं कह सकते कि भाषा को प्रयोग करने वाला ''अनिवार्यतः'' कोई ऐसा ही खेल खेल रहा है। — किन्तु यदि आप कहते हैं कि हमारी भाषा ऐसे कलन के ''सन्निकट'' ही है तो आप गलतफहमी के शिकार होने वाले हैं। क्योंकि तब ऐसा प्रतीत होगा मानो हम अब तक ''आदर्श'' भाषा के बारे में बातचीत कर रहे हों। यानी हमारा तर्कशास्त्र, मानो किसी शून्य स्थान का तर्कशास्त्र हो। — जबकि तर्कशास्त्र भाषा का — या विचार का विवेचन उसी अर्थ में नहीं करता जिसमें कोई प्राकृतिक विज्ञान किसी प्राकृतिक संवृत्ति का विवेचन करता है, अधिकाधिक यही कहा जा सकता है कि हम आदर्श-भाषाओं का ''निर्माण'' करते हैं। किन्तु यहाँ “आदर्श” शब्द भ्रमित कर सकता है क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है मानो ये भाषाएं हमारी दैनंदिन भाषा से अधिक अच्छी, अधिक निर्दोष हों; और मानो तर्कशास्त्री अन्ततः लोगों को यह दिखा पाया हो कि उचित वाक्य कैसा होता है।


बहरहाल, इस सबका सही परिप्रेक्ष्य में तभी पता चल सकेगा जब हममें समझने के, अर्थ के, एवं विचार के प्रत्ययों के बारे में अधिक स्पष्टता आ जायेगी। क्योंकि तब हमें यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि ऐसा क्या होता है जिससे हमें ज्ञात होता है (और जिससे मुझे ज्ञात हुआ) कि जब कोई किसी वाक्य का उच्चारण करता है, और उससे कोई ''अभिप्राय रखता'' है, अथवा उसे ''समझता है'' तो वह निश्चित नियमों के अनुसार कार्य करता है।
बहरहाल, इस सबका सही परिप्रेक्ष्य में तभी पता चल सकेगा जब हममें समझने के, अर्थ के, एवं विचार के प्रत्ययों के बारे में अधिक स्पष्टता आ जायेगी। क्योंकि तब हमें यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि ऐसा क्या होता है जिससे हमें ज्ञात होता है (और जिससे मुझे ज्ञात हुआ) कि जब कोई किसी वाक्य का उच्चारण करता है, और उससे कोई ''अभिप्राय रखता'' है, अथवा उसे ''समझता है'' तो वह निश्चित नियमों के अनुसार कार्य करता है।


'''82.''' "उस नियम को जिसका वह पालन करता है" मैं किस नाम से पुकारूँ? — ऐसी प्राक्कल्पना जो उसके द्वारा प्रयुक्त और हमारे द्वारा निरीक्षित शब्दों का संतोषजनक विवरण दे; अथवा ऐसा नियम जिसको वह चिह्नों का प्रयोग करते समय ध्यान में रखता है; अथवा मैं उसे वह नियम कहूँ जो हमारे यह पूछने पर कि उसने किस नियम का पालन किया है वह हमें बताता है? — किन्तु क्या हो जब निरीक्षण करने पर हमें किसी भी स्पष्ट नियम का पता न चल सके, और प्रश्न करने पर भी कुछ भी पता न चले? — क्योंकि मेरे यह पूछने पर कि "'''न'''" से वह क्या समझता है उसने वास्तव में मुझे एक परिभाषा दी थी, किन्तु वह उसे वापिस लेने को और उसे बदलने को तत्पर था। — तो मैं यह कैसे निर्धारित करूँ कि वह किस नियम के अनुसार चल रहा है? उसे तो स्वयं भी नहीं पता। — अथवा, बेहतर ढंग से पूछें: "नियम, जिसका वह पालन करता है" इस अभिव्यक्ति का यहाँ क्या अर्थ रह गया है?
'''82.''' “उस नियम को जिसका वह पालन करता है” मैं किस नाम से पुकारूँ? — ऐसी प्राक्कल्पना जो उसके द्वारा प्रयुक्त और हमारे द्वारा निरीक्षित शब्दों का संतोषजनक विवरण दे; अथवा ऐसा नियम जिसको वह चिह्नों का प्रयोग करते समय ध्यान में रखता है; अथवा मैं उसे वह नियम कहूँ जो हमारे यह पूछने पर कि उसने किस नियम का पालन किया है वह हमें बताता है? — किन्तु क्या हो जब निरीक्षण करने पर हमें किसी भी स्पष्ट नियम का पता न चल सके, और प्रश्न करने पर भी कुछ भी पता न चले? — क्योंकि मेरे यह पूछने पर कि '''न'''से वह क्या समझता है उसने वास्तव में मुझे एक परिभाषा दी थी, किन्तु वह उसे वापिस लेने को और उसे बदलने को तत्पर था। — तो मैं यह कैसे निर्धारित करूँ कि वह किस नियम के अनुसार चल रहा है? उसे तो स्वयं भी नहीं पता। — अथवा, बेहतर ढंग से पूछें: “नियम, जिसका वह पालन करता है” इस अभिव्यक्ति का यहाँ क्या अर्थ रह गया है?


'''83.''' क्या भाषा एवं खेलों की उपमा से यहाँ कुछ पता नहीं चलता। हम आसानी से कल्पना कर सकते हैं कि खेल के मैदान में लोग मनोरंजन के लिए गेंद से इस प्रकार खेल रहे हैं जिससे मौजूदा विभिन्न खेल शुरू तो हो जाते हैं, किन्तु खत्म नहीं होते और बीच-बीच में वे गेंद को निरुद्देश्य हवा में उछालते हैं और उसे लेकर एक-दूसरे का पीछा करते हैं, आपस में गाली-गलौज करते हुए हंसी मजाक करते हैं, इत्यादि। पर अब कोई कहता है: पूरे समय वे गेंद का खेल खेल रहे हैं और प्रत्येक बार गेंद फेंकने में वे निश्चित नियमों का पालन कर रहे हैं।
'''83.''' क्या भाषा एवं खेलों की उपमा से यहाँ कुछ पता नहीं चलता। हम आसानी से कल्पना कर सकते हैं कि खेल के मैदान में लोग मनोरंजन के लिए गेंद से इस प्रकार खेल रहे हैं जिससे मौजूदा विभिन्न खेल शुरू तो हो जाते हैं, किन्तु खत्म नहीं होते और बीच-बीच में वे गेंद को निरुद्देश्य हवा में उछालते हैं और उसे लेकर एक-दूसरे का पीछा करते हैं, आपस में गाली-गलौज करते हुए हंसी मजाक करते हैं, इत्यादि। पर अब कोई कहता है: पूरे समय वे गेंद का खेल खेल रहे हैं और प्रत्येक बार गेंद फेंकने में वे निश्चित नियमों का पालन कर रहे हैं।
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क्या अब हम इस नियम की व्याख्या के लिए किन्हीं अन्य नियमों की कल्पना नहीं कर सकते? और इससे विपरीत, क्या पहली सारिणी अपने इंगित-चिह्नों के बिना अधूरी थी? और क्या अन्य सारिणियां अपनी नियमावलियों के बिना अधूरी हैं?
क्या अब हम इस नियम की व्याख्या के लिए किन्हीं अन्य नियमों की कल्पना नहीं कर सकते? और इससे विपरीत, क्या पहली सारिणी अपने इंगित-चिह्नों के बिना अधूरी थी? और क्या अन्य सारिणियां अपनी नियमावलियों के बिना अधूरी हैं?


'''87.''' मान लीजिए मैं यह व्याख्या देता हूँ: "'मोसिस' से मेरा तात्पर्य, एक ऐसा पुरुष है, जो यदि रहा हो तो, उसने यहूदियों का मिस्र से बहिर्गमन के समय नेतृत्व किया था, उसे उस समय चाहे जिस नाम से पुकारते हों, और उसने इसके अतिरिक्त चाहे जो कुछ और भी किया हो।" — किन्तु जैसे "मोसिस " के बारे में संशय किया जा सकता है वैसे ही इस व्याख्या के शब्दों के बारे में भी संशय संभव हैं (आप "मित्र" किसे कहते हैं, "यहूदी" किसे कहते हैं?)। न ही "लाल", "श्याम", "मीठा" जैसे शब्दों पर पहुंचने पर इन प्रश्नों का अंत होगा. — "जब कोई व्याख्या अन्तिम व्याख्या ही नहीं है, तो वह किसी बात को समझने में कैसे सहायक हो सकती है? उस स्थिति में तो व्याख्या कभी पूर्ण होती ही नहीं; अतः मैं अभी भी उसका अर्थ नहीं समझता और न ही कभी समझ पाऊँगा!" — व्याख्या मानो हवा में तब तक लटकी रहेगी जब तक उसे किसी अन्य व्याख्या का सहारा न मिले। जबकि वस्तुतः यह सम्भव है कि कोई व्याख्या किसी पूर्व-व्याख्या पर अवलंबित हो, किन्तु व्याख्या को किसी अन्य व्याख्या की आवश्यकता तब तक नहीं होती — जब तक ''हम'' उसका प्रयोग भ्रम की रोकथाम के लिए न करें। कहा जा सकता है: व्याख्या तो भ्रम को मिटाने अथवा उसकी रोकथाम में सहायक होती है — यानी उसी भ्रम को जो व्याख्या की अनुपस्थिति में हो सकता है, न कि उन सब भ्रमों को (मिटाने या रोकने में) जिनकी कल्पना मैं कर सकता हूँ।
'''87.''' मान लीजिए मैं यह व्याख्या देता हूँ: 'मोसिस' से मेरा तात्पर्य, एक ऐसा पुरुष है, जो यदि रहा हो तो, उसने यहूदियों का मिस्र से बहिर्गमन के समय नेतृत्व किया था, उसे उस समय चाहे जिस नाम से पुकारते हों, और उसने इसके अतिरिक्त चाहे जो कुछ और भी किया हो।” — किन्तु जैसे “मोसिस ” के बारे में संशय किया जा सकता है वैसे ही इस व्याख्या के शब्दों के बारे में भी संशय संभव हैं (आप “मित्र” किसे कहते हैं, “यहूदी” किसे कहते हैं?)। न ही “लाल”, “श्याम”, “मीठा” जैसे शब्दों पर पहुंचने पर इन प्रश्नों का अंत होगा. — “जब कोई व्याख्या अन्तिम व्याख्या ही नहीं है, तो वह किसी बात को समझने में कैसे सहायक हो सकती है? उस स्थिति में तो व्याख्या कभी पूर्ण होती ही नहीं; अतः मैं अभी भी उसका अर्थ नहीं समझता और न ही कभी समझ पाऊँगा!— व्याख्या मानो हवा में तब तक लटकी रहेगी जब तक उसे किसी अन्य व्याख्या का सहारा न मिले। जबकि वस्तुतः यह सम्भव है कि कोई व्याख्या किसी पूर्व-व्याख्या पर अवलंबित हो, किन्तु व्याख्या को किसी अन्य व्याख्या की आवश्यकता तब तक नहीं होती — जब तक ''हम'' उसका प्रयोग भ्रम की रोकथाम के लिए न करें। कहा जा सकता है: व्याख्या तो भ्रम को मिटाने अथवा उसकी रोकथाम में सहायक होती है — यानी उसी भ्रम को जो व्याख्या की अनुपस्थिति में हो सकता है, न कि उन सब भ्रमों को (मिटाने या रोकने में) जिनकी कल्पना मैं कर सकता हूँ।


ऐसा प्रतीत होना आसान है कि प्रत्येक संशय मानो नींव की दरारों को, ''दर्शाता'' हो; ताकि पक्की समझ तो केवल तभी संभव हो सकती है जब हम पहले उन सभी विषयों जिनके बारे में शंकित होना संभव हो ''सकता'' है, के बारे में शंका करें और फिर उन सब शंकाओं को दूर करें।
ऐसा प्रतीत होना आसान है कि प्रत्येक संशय मानो नींव की दरारों को, ''दर्शाता'' हो; ताकि पक्की समझ तो केवल तभी संभव हो सकती है जब हम पहले उन सभी विषयों जिनके बारे में शंकित होना संभव हो ''सकता'' है, के बारे में शंका करें और फिर उन सब शंकाओं को दूर करें।
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मार्ग-दर्शक स्तम्भ तो ठीक ही है — यदि सामान्य स्थितियों में वह अपना प्रयोजन पूरा करता है।
मार्ग-दर्शक स्तम्भ तो ठीक ही है — यदि सामान्य स्थितियों में वह अपना प्रयोजन पूरा करता है।


'''88.''' यदि मैं किसी से कहूँ "इस स्थान के आसपास खड़े रहना" — क्या यह व्याख्या संपूर्ण रूप से सार्थक नहीं होगी? और, क्या, कोई अन्य व्याख्या निरर्थक नहीं हो सकती?
'''88.''' यदि मैं किसी से कहूँ “इस स्थान के आसपास खड़े रहना” — क्या यह व्याख्या संपूर्ण रूप से सार्थक नहीं होगी? और, क्या, कोई अन्य व्याख्या निरर्थक नहीं हो सकती?


किन्तु क्या यह अयथार्थ व्याख्या नहीं है? — हाँ; हम इसे "अयथार्थ" क्यों न कहें? आइए हम "अयथार्थ " के अर्थ को ही समझें। क्योंकि इसका अर्थ "अनुपयोगी" तो नहीं है। और आइए इसकी तुलना हम उससे करें जिसे हम "यथार्थ" कहते हैं: संभवत: किसी क्षेत्र के चारों ओर खड़िया से एक रेखा खींचने जैसा। यहाँ हमें तुरन्त यह प्रतीत होता है कि रेखा की तो चौड़ाई भी होती है। अतः रंग का किनारा अधिक यथार्थ होगा। किन्तु इस यथार्थता का क्या यहाँ अभी भी कोई अर्थ है; क्या इंजन निष्प्रयोजन नहीं चल रहा? और यह भी ध्यान रहे कि हमने अभी तक इस यथार्थ सीमा के उल्लंघन की भी परिभाषा नहीं दी है; यह उल्लंघन कैसे और किन उपकरणों से सिद्ध किया जाएगा? और ऐसे ही अन्य प्रश्न यहाँ उठते हैं।
किन्तु क्या यह अयथार्थ व्याख्या नहीं है? — हाँ; हम इसे “अयथार्थ” क्यों न कहें? आइए हम “अयथार्थ ” के अर्थ को ही समझें। क्योंकि इसका अर्थ “अनुपयोगी” तो नहीं है। और आइए इसकी तुलना हम उससे करें जिसे हम “यथार्थ” कहते हैं: संभवत: किसी क्षेत्र के चारों ओर खड़िया से एक रेखा खींचने जैसा। यहाँ हमें तुरन्त यह प्रतीत होता है कि रेखा की तो चौड़ाई भी होती है। अतः रंग का किनारा अधिक यथार्थ होगा। किन्तु इस यथार्थता का क्या यहाँ अभी भी कोई अर्थ है; क्या इंजन निष्प्रयोजन नहीं चल रहा? और यह भी ध्यान रहे कि हमने अभी तक इस यथार्थ सीमा के उल्लंघन की भी परिभाषा नहीं दी है; यह उल्लंघन कैसे और किन उपकरणों से सिद्ध किया जाएगा? और ऐसे ही अन्य प्रश्न यहाँ उठते हैं।


हम जानते हैं कि जेब-घड़ी के सन्दर्भ में यथार्थ समय मिलाने का, अथवा उसे यथार्थ समय दिखाने के लिए नियंत्रित करने का क्या अर्थ होता है। किन्तु क्या होगा, यदि पूछा जाए: क्या यह यथार्थता आदर्श यथार्थता है, अथवा यह आदर्श के कितने समीप है? — बेशक, हम समय-मापन के अन्य प्रकारों का भी उल्लेख कर सकते हैं, जिनमें जेब-घड़ी के समय-मापन से भिन्न यथार्थता, यानी उससे अधिक यथार्थता, होती है: उनमें "घड़ी को यथार्थ समय से मिलाना" शब्दों की क्रिया इत्यादि भी भिन्न होती है। — अब यदि मैं किसी को कहूँ: "आपको रात्रिभोज पर ठीक समय पर आना चाहिए; आप को पता है कि भोज ठीक एक बजे आरम्भ होता है" — वास्तव में यहाँ पर ''यथार्थता'' का क्या कोई प्रश्न ही नहीं होता? यह कहना तो संभव है: "प्रयोगशाला अथवा वेधशाला में समय-निर्धारण के बारे में विचार कीजिए; ''इससे'' आप को 'यथार्थता' के अर्थ का पता चलेगा"?
हम जानते हैं कि जेब-घड़ी के सन्दर्भ में यथार्थ समय मिलाने का, अथवा उसे यथार्थ समय दिखाने के लिए नियंत्रित करने का क्या अर्थ होता है। किन्तु क्या होगा, यदि पूछा जाए: क्या यह यथार्थता आदर्श यथार्थता है, अथवा यह आदर्श के कितने समीप है? — बेशक, हम समय-मापन के अन्य प्रकारों का भी उल्लेख कर सकते हैं, जिनमें जेब-घड़ी के समय-मापन से भिन्न यथार्थता, यानी उससे अधिक यथार्थता, होती है: उनमें “घड़ी को यथार्थ समय से मिलाना” शब्दों की क्रिया इत्यादि भी भिन्न होती है। — अब यदि मैं किसी को कहूँ: “आपको रात्रिभोज पर ठीक समय पर आना चाहिए; आप को पता है कि भोज ठीक एक बजे आरम्भ होता है” — वास्तव में यहाँ पर ''यथार्थता'' का क्या कोई प्रश्न ही नहीं होता? यह कहना तो संभव है: “प्रयोगशाला अथवा वेधशाला में समय-निर्धारण के बारे में विचार कीजिए; ''इससे'' आप को 'यथार्थता' के अर्थ का पता चलेगा”?


वास्तव में “अयथार्थ” अपमानसूचक है और "यथार्थ" सम्मानसूचक। अतएव यथार्थ की तुलना में अयथार्थ अपने ध्येय को कहीं कम पूर्णता से प्राप्त करता है। यानी बात तो यहाँ यह है कि हम "ध्येय" किसे कहते हैं। जब मैं सूर्य से हमारी दूरी समीपस्थ फुट तक नहीं बताता, अथवा बढ़ई को मेज की चौड़ाई इंच के हजारवें भाग तक नहीं बताता तो क्या मैं यथातथ्य नहीं होता?
वास्तव में “अयथार्थ” अपमानसूचक है और “यथार्थ” सम्मानसूचक। अतएव यथार्थ की तुलना में अयथार्थ अपने ध्येय को कहीं कम पूर्णता से प्राप्त करता है। यानी बात तो यहाँ यह है कि हम “ध्येय” किसे कहते हैं। जब मैं सूर्य से हमारी दूरी समीपस्थ फुट तक नहीं बताता, अथवा बढ़ई को मेज की चौड़ाई इंच के हजारवें भाग तक नहीं बताता तो क्या मैं यथातथ्य नहीं होता?


यथार्थता का कोई ''एक'' मानदण्ड निर्धारित नहीं किया गया है; हमें नहीं पता कि इस बात से हमसे किसकी कल्पना करने की आशा की जाती है — यदि हम स्वयं यह निर्धारित न करें कि मानदण्ड किसे कहना है। किन्तु ऐसी परिपाटी, कमोबेश कोई ऐसी परिपाटी जो आपको सन्तुष्ट कर सके, को समझना आपके लिए कठिन है।
यथार्थता का कोई ''एक'' मानदण्ड निर्धारित नहीं किया गया है; हमें नहीं पता कि इस बात से हमसे किसकी कल्पना करने की आशा की जाती है — यदि हम स्वयं यह निर्धारित न करें कि मानदण्ड किसे कहना है। किन्तु ऐसी परिपाटी, कमोबेश कोई ऐसी परिपाटी जो आपको सन्तुष्ट कर सके, को समझना आपके लिए कठिन है।
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क्योंकि तर्कशास्त्र के साथ एक विशेष गहराई — सार्वभौमिक सार्थकता जुड़ी प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि तर्कशास्त्र सभी विज्ञानों का आधार है। — क्योंकि तार्किक अन्वीक्षणा सभी पदार्थों की प्रकृति का अन्वेषण करती है। वह पदार्थों के आधार को देखने का प्रयत्न करती है और यह परवाह नहीं करती कि वास्तव यह घटित होता है अथवा वह। — इसके विकास का कारण, न तो प्राकृतिक तथ्यों की अभिरुचि में है, न ही कारणात्मक संबंधों को समझाने की आवश्यकता में: किन्तु इसके विकास का कारण तो प्रत्येक आनुभविक पदार्थ के आधार अथवा सार को समझने की अन्त: प्रेरणा में निहित है। बहरहाल ऐसा नहीं है कि इस हेतु हमें नये तथ्यों की खोज करनी पड़ती हो; बल्कि हमारी अन्वेक्षणा का सार तो यह है कि हम उससे कुछ ''नया'' सीखने का प्रयत्न ही नहीं करते। हम तो उसे ही ''समझना'' चाहते हैं जो पहले से ही हमें दृष्टिगोचर है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि उसे ही हम किसी विशिष्ट अर्थ में, समझ नहीं पाते।
क्योंकि तर्कशास्त्र के साथ एक विशेष गहराई — सार्वभौमिक सार्थकता जुड़ी प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि तर्कशास्त्र सभी विज्ञानों का आधार है। — क्योंकि तार्किक अन्वीक्षणा सभी पदार्थों की प्रकृति का अन्वेषण करती है। वह पदार्थों के आधार को देखने का प्रयत्न करती है और यह परवाह नहीं करती कि वास्तव यह घटित होता है अथवा वह। — इसके विकास का कारण, न तो प्राकृतिक तथ्यों की अभिरुचि में है, न ही कारणात्मक संबंधों को समझाने की आवश्यकता में: किन्तु इसके विकास का कारण तो प्रत्येक आनुभविक पदार्थ के आधार अथवा सार को समझने की अन्त: प्रेरणा में निहित है। बहरहाल ऐसा नहीं है कि इस हेतु हमें नये तथ्यों की खोज करनी पड़ती हो; बल्कि हमारी अन्वेक्षणा का सार तो यह है कि हम उससे कुछ ''नया'' सीखने का प्रयत्न ही नहीं करते। हम तो उसे ही ''समझना'' चाहते हैं जो पहले से ही हमें दृष्टिगोचर है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि उसे ही हम किसी विशिष्ट अर्थ में, समझ नहीं पाते।


''कन्फैशन्स'' में ऑगस्टीन कहते हैं: "समय क्या है? जब तक इस प्रश्न को मुझ से नहीं पूछा जाता, तब तक मैं इसका उत्तर जानता हूँ; किन्तु प्रश्न पूछे जाने पर मुझे उसका उत्तर नहीं सूझता।" — प्राकृतिक विज्ञान के प्रश्न के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता (उदाहरणार्थ, "हाइड्रोजन का आपेक्षिक गुरुत्त्व क्या है?")। किसी ऐसी बात को हमें ''स्मरण रखने की'' आवश्यकता है जिसे हम तब तो जानते हैं जब हमसे उसके बारे में कोई नहीं पूछता; किन्तु जब हमसे उसके विवरण की अपेक्षा की जाती है तब हम उसे नहीं जानते। (और स्पष्टतः यह कोई ऐसी बात है जिसको किसी कारणवश याद रखना कठिन है।)
''कन्फैशन्स'' में ऑगस्टीन कहते हैं: “समय क्या है? जब तक इस प्रश्न को मुझ से नहीं पूछा जाता, तब तक मैं इसका उत्तर जानता हूँ; किन्तु प्रश्न पूछे जाने पर मुझे उसका उत्तर नहीं सूझता।” — प्राकृतिक विज्ञान के प्रश्न के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता (उदाहरणार्थ, “हाइड्रोजन का आपेक्षिक गुरुत्त्व क्या है?)। किसी ऐसी बात को हमें ''स्मरण रखने की'' आवश्यकता है जिसे हम तब तो जानते हैं जब हमसे उसके बारे में कोई नहीं पूछता; किन्तु जब हमसे उसके विवरण की अपेक्षा की जाती है तब हम उसे नहीं जानते। (और स्पष्टतः यह कोई ऐसी बात है जिसको किसी कारणवश याद रखना कठिन है।)


'''90.''' ऐसा प्रतीत होता है मानो हमें संवृत्तियों को ''भेदना'' पड़ेगा: बहरहाल हमारे अन्वेषण की दिशा तो संवृत्ति की ओर न होकर, यूँ कहिये कि संवृत्ति की <nowiki>'</nowiki>''संभावनाओं''<nowiki>'</nowiki> की ओर है। अतः हम स्वयं संवृत्ति के बारे में अपने ''वक्तव्य के प्रकार'' का स्मरण करते हैं। अतः ऑगस्टीन घटनाओं की अवधि, उनके भूत, वर्तमान अथवा भविष्य के बारे में दिए गए विभिन्न वक्तव्यों का स्मरण करते हैं। (बेशक ये वक्तव्य भूत, वर्तमान एवं भविष्य काल के बारे में ''दार्शनिक'' वक्तव्य नहीं हैं।)
'''90.''' ऐसा प्रतीत होता है मानो हमें संवृत्तियों को ''भेदना'' पड़ेगा: बहरहाल हमारे अन्वेषण की दिशा तो संवृत्ति की ओर न होकर, यूँ कहिये कि संवृत्ति की <nowiki>'</nowiki>''संभावनाओं''<nowiki>'</nowiki> की ओर है। अतः हम स्वयं संवृत्ति के बारे में अपने ''वक्तव्य के प्रकार'' का स्मरण करते हैं। अतः ऑगस्टीन घटनाओं की अवधि, उनके भूत, वर्तमान अथवा भविष्य के बारे में दिए गए विभिन्न वक्तव्यों का स्मरण करते हैं। (बेशक ये वक्तव्य भूत, वर्तमान एवं भविष्य काल के बारे में ''दार्शनिक'' वक्तव्य नहीं हैं।)


अतः हमारा अन्वेषण तो व्याकरणपरक है। ऐसा अन्वेषण भ्रम को दूर कर हमारी समस्या पर प्रकाश डालता है। शब्द प्रयोग संबंधी भ्रम अन्य कारणों के साथ-साथ विभिन्न भाषा क्षेत्रों की अभिव्यक्ति-प्रकारों में पाई जाने वाली विशिष्ट समानताओं के कारण होते हैं। — उनमें से कुछ भ्रम तो किसी अभिव्यक्ति के एक प्रकार को दूसरे प्रकार से प्रतिस्थापित कर दूर किए जा सकते हैं; इसे हम अभिव्यक्ति-प्रकार का "विश्लेषण" कह सकते हैं क्योंकि यह प्रक्रिया किसी वस्तु को विच्छिन्न करने के समान है।
अतः हमारा अन्वेषण तो व्याकरणपरक है। ऐसा अन्वेषण भ्रम को दूर कर हमारी समस्या पर प्रकाश डालता है। शब्द प्रयोग संबंधी भ्रम अन्य कारणों के साथ-साथ विभिन्न भाषा क्षेत्रों की अभिव्यक्ति-प्रकारों में पाई जाने वाली विशिष्ट समानताओं के कारण होते हैं। — उनमें से कुछ भ्रम तो किसी अभिव्यक्ति के एक प्रकार को दूसरे प्रकार से प्रतिस्थापित कर दूर किए जा सकते हैं; इसे हम अभिव्यक्ति-प्रकार का “विश्लेषण” कह सकते हैं क्योंकि यह प्रक्रिया किसी वस्तु को विच्छिन्न करने के समान है।


'''91.''' किन्तु अब ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हमारी भाषा के प्रकारों का कोई अन्तिम विश्लेषण हो, और इसीलिए प्रत्येक अभिव्यक्ति का पूर्णतः वियोजित ''एक'' आकार हो। अतएव मानो हमारे साधारण अभिव्यक्ति-आकार तो अनिवार्यतः अविश्लेषित ही हों; अथवा उनमें कुछ अदृश्य हो और उसे प्रकाश में लाना हो। ऐसा किए जाने पर अभिव्यक्ति पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है और हमारी समस्या सुलझ जाती है।
'''91.''' किन्तु अब ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हमारी भाषा के प्रकारों का कोई अन्तिम विश्लेषण हो, और इसीलिए प्रत्येक अभिव्यक्ति का पूर्णतः वियोजित ''एक'' आकार हो। अतएव मानो हमारे साधारण अभिव्यक्ति-आकार तो अनिवार्यतः अविश्लेषित ही हों; अथवा उनमें कुछ अदृश्य हो और उसे प्रकाश में लाना हो। ऐसा किए जाने पर अभिव्यक्ति पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है और हमारी समस्या सुलझ जाती है।
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'''92.''' भाषा के, प्रतिज्ञप्तियों के विचार के, सार संबंधी प्रश्नों में इसकी अभिव्यक्ति होती है। — क्योंकि इन अन्वेषणों में यद्यपि हम भी भाषा के सार — उसके कार्यों, उसकी संरचना को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं — फिर भी इन प्रश्नों का यह उद्देश्य नहीं है। क्योंकि सार से वे कुछ ऐसा नहीं समझते जो पहले से ही दृश्यमान हो और जिसका पुनर्विन्यास किए जाने पर सर्वेक्षण किया जा सकता हो, अपितु उसे वे कुछ ऐसा समझते हैं जो सतह के नीचे स्थित हो। कुछ ऐसा जो अन्तर्भाग में रहता है, जिसे हम पदार्थ का निरीक्षण करने पर देखते हैं, और जिसे विश्लेषण खोद कर बाहर निकालता है।
'''92.''' भाषा के, प्रतिज्ञप्तियों के विचार के, सार संबंधी प्रश्नों में इसकी अभिव्यक्ति होती है। — क्योंकि इन अन्वेषणों में यद्यपि हम भी भाषा के सार — उसके कार्यों, उसकी संरचना को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं — फिर भी इन प्रश्नों का यह उद्देश्य नहीं है। क्योंकि सार से वे कुछ ऐसा नहीं समझते जो पहले से ही दृश्यमान हो और जिसका पुनर्विन्यास किए जाने पर सर्वेक्षण किया जा सकता हो, अपितु उसे वे कुछ ऐसा समझते हैं जो सतह के नीचे स्थित हो। कुछ ऐसा जो अन्तर्भाग में रहता है, जिसे हम पदार्थ का निरीक्षण करने पर देखते हैं, और जिसे विश्लेषण खोद कर बाहर निकालता है।


‘''सार तो हमसे छुपा हुआ है''’&nbsp;: अब हमारी समस्या का यह आकार हो सकता है। हम पूछते हैं: "भाषा ''क्या है?''", "प्रतिज्ञप्ति क्या है?" और इन प्रश्नों का उत्तर किसी भी भावी अनुभव पर विचार किये बिना हमेशा-हमेशा के लिए दिया जाना है।
‘''सार तो हमसे छुपा हुआ है''’&nbsp;: अब हमारी समस्या का यह आकार हो सकता है। हम पूछते हैं: “भाषा ''क्या है?'', “प्रतिज्ञप्ति क्या है?और इन प्रश्नों का उत्तर किसी भी भावी अनुभव पर विचार किये बिना हमेशा-हमेशा के लिए दिया जाना है।


'''93.''' कोई व्यक्ति कह सकता है "प्रतिज्ञप्ति तो संसार की सर्वाधिक साधारण वस्तु है" और दूसरा व्यक्ति कह सकता है: “प्रतिज्ञप्ति — क्या ही विलक्षण विषय!" — और कोई अन्य व्यक्ति यह देखने में बिल्कुल असमर्थ है कि प्रतिज्ञप्ति वास्तव में कैसे कार्य करती है। प्रतिज्ञप्तियों एवं विचार को अभिव्यक्त करने में प्रयुक्त हमारे आकार उस व्यक्ति के आड़े आते हैं।
'''93.''' कोई व्यक्ति कह सकता है “प्रतिज्ञप्ति तो संसार की सर्वाधिक साधारण वस्तु है” और दूसरा व्यक्ति कह सकता है: “प्रतिज्ञप्ति — क्या ही विलक्षण विषय!" — और कोई अन्य व्यक्ति यह देखने में बिल्कुल असमर्थ है कि प्रतिज्ञप्ति वास्तव में कैसे कार्य करती है। प्रतिज्ञप्तियों एवं विचार को अभिव्यक्त करने में प्रयुक्त हमारे आकार उस व्यक्ति के आड़े आते हैं।


हम क्यों कहते हैं कि प्रतिज्ञप्ति तो विशिष्ट होती है? एक तो इसलिए कि इसकी अत्यधिक महत्ता है। (और यह उचित ही है)। दूसरी ओर भाषा के तर्क की गलतफहमी के साथ मिलकर यह महत्ता हमें प्रतिज्ञप्ति द्वारा अवश्य ही कुछ असाधारण, कुछ अप्रतिम निष्पादित किया जाएगा — ऐसा सोचने का प्रलोभन देती है। ''गलतफहमी'' के कारण हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रतिज्ञप्ति विलक्षण है।
हम क्यों कहते हैं कि प्रतिज्ञप्ति तो विशिष्ट होती है? एक तो इसलिए कि इसकी अत्यधिक महत्ता है। (और यह उचित ही है)। दूसरी ओर भाषा के तर्क की गलतफहमी के साथ मिलकर यह महत्ता हमें प्रतिज्ञप्ति द्वारा अवश्य ही कुछ असाधारण, कुछ अप्रतिम निष्पादित किया जाएगा — ऐसा सोचने का प्रलोभन देती है। ''गलतफहमी'' के कारण हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रतिज्ञप्ति विलक्षण है।
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'''94.''' 'प्रतिज्ञप्ति एक विलक्षण विषय है!' इसमें तर्कशास्त्र के हमारे संपूर्ण विवरण को उत्कृष्ट समझने का बीज है। प्रतिज्ञप्ति संबंधी ''संकेतों'' एवं तथ्यों के बीच विशुद्ध मध्यस्थता अपनाने की प्रवृत्ति अथवा संकेतों के शुद्धीकरण, उदात्तीकरण का प्रयास भी इसमें निहित है। — क्योंकि हमें मृग-मरीचिका की खोज में लगाकर हमारी अभिव्यक्ति के आकार अनेक ढंगों से हमें यह समझने से बचाते हैं कि इस खोज में कुछ भी असाधारण नहीं है।
'''94.''' 'प्रतिज्ञप्ति एक विलक्षण विषय है!' इसमें तर्कशास्त्र के हमारे संपूर्ण विवरण को उत्कृष्ट समझने का बीज है। प्रतिज्ञप्ति संबंधी ''संकेतों'' एवं तथ्यों के बीच विशुद्ध मध्यस्थता अपनाने की प्रवृत्ति अथवा संकेतों के शुद्धीकरण, उदात्तीकरण का प्रयास भी इसमें निहित है। — क्योंकि हमें मृग-मरीचिका की खोज में लगाकर हमारी अभिव्यक्ति के आकार अनेक ढंगों से हमें यह समझने से बचाते हैं कि इस खोज में कुछ भी असाधारण नहीं है।


'''95.''' "विचार को तो अपूर्व होना ही चाहिए"। जब हम अमुक-अमुक स्थिति है, ऐसा कहते हैं और इससे यही हमारा ''अभिप्राय'' होता है तो हम — और हमारा अभिप्राय — तथ्य को जाने बिना कभी नहीं रुकते; किन्तु हमारा अभिप्राय है: ''यह'' — ऐसा — है। किन्तु इस विरोधाभास (जो यथातथ्यता के आकार वाला है) को इस प्रकार भी अभिव्यक्त किया जा सकता है: जो स्थिति ''नहीं'' है, उस की भी ''धारणा'' बनाई जा सकती है।
'''95.''' “विचार को तो अपूर्व होना ही चाहिए”। जब हम अमुक-अमुक स्थिति है, ऐसा कहते हैं और इससे यही हमारा ''अभिप्राय'' होता है तो हम — और हमारा अभिप्राय — तथ्य को जाने बिना कभी नहीं रुकते; किन्तु हमारा अभिप्राय है: ''यह'' — ऐसा — है। किन्तु इस विरोधाभास (जो यथातथ्यता के आकार वाला है) को इस प्रकार भी अभिव्यक्त किया जा सकता है: जो स्थिति ''नहीं'' है, उस की भी ''धारणा'' बनाई जा सकती है।


'''96.''' यहाँ उल्लिखित विशिष्ट भ्रांति के साथ विभिन्न स्थितियों में पाई जाने वाली अन्य भ्रान्तियां भी जुड़ जाती हैं। अब हमें विचार और भाषा, संसार के सहसंबद्ध अपूर्व चित्र प्रतीत होते हैं। ये प्रत्यय प्रतिज्ञप्ति, भाषा, विचार, संसार, एक दूसरे के पीछे पंक्तिबद्ध खड़े हैं, इनमें से हर एक दूसरे का समानार्थी है। (किन्तु अब इन शब्दों का किसके लिए प्रयोग करें? जिस भाषा-खेल में इनका प्रयोग करना है वह तो यहाँ है ही नहीं।)
'''96.''' यहाँ उल्लिखित विशिष्ट भ्रांति के साथ विभिन्न स्थितियों में पाई जाने वाली अन्य भ्रान्तियां भी जुड़ जाती हैं। अब हमें विचार और भाषा, संसार के सहसंबद्ध अपूर्व चित्र प्रतीत होते हैं। ये प्रत्यय प्रतिज्ञप्ति, भाषा, विचार, संसार, एक दूसरे के पीछे पंक्तिबद्ध खड़े हैं, इनमें से हर एक दूसरे का समानार्थी है। (किन्तु अब इन शब्दों का किसके लिए प्रयोग करें? जिस भाषा-खेल में इनका प्रयोग करना है वह तो यहाँ है ही नहीं।)
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'''97.''' विचार के चारों ओर एक प्रभामण्डल होता है। — इसका सार, अतः तर्क, एक व्यवस्था, वस्तुतः संसार की प्रागनुभव व्यवस्था, प्रस्तुत करता है: अतः ''संभावनाओं'' की व्यवस्था जो संसार और विचार दोनों में ही साझी होंगी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यवस्था ''पूर्णतः सरल'' होनी चाहिए। यह समस्त अनुभव से पूर्ववर्ती है, इसे समस्त अनुभव में आद्योपांत रहना चाहिए; इस पर किसी भी आनुभविक भटकाव अथवा अनिश्चितता का प्रभाव नहीं पड़ने देना चाहिए — बल्कि इसे तो सर्वाधिक शुद्ध स्फटिक होना चाहिए। किन्तु यह स्फटिक अमूर्त तो प्रतीत नहीं होता; बल्कि यह तो मूर्त, वास्तव में सर्वाधिक मूर्त, प्रतीत होता है मानो सत्तावान पदार्थों में यह सर्वाधिक कठोर पदार्थ हो (''ट्रेकटेटस लॉजिको-फिलोसफ़िकस'' न. 5.5563)।
'''97.''' विचार के चारों ओर एक प्रभामण्डल होता है। — इसका सार, अतः तर्क, एक व्यवस्था, वस्तुतः संसार की प्रागनुभव व्यवस्था, प्रस्तुत करता है: अतः ''संभावनाओं'' की व्यवस्था जो संसार और विचार दोनों में ही साझी होंगी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यवस्था ''पूर्णतः सरल'' होनी चाहिए। यह समस्त अनुभव से पूर्ववर्ती है, इसे समस्त अनुभव में आद्योपांत रहना चाहिए; इस पर किसी भी आनुभविक भटकाव अथवा अनिश्चितता का प्रभाव नहीं पड़ने देना चाहिए — बल्कि इसे तो सर्वाधिक शुद्ध स्फटिक होना चाहिए। किन्तु यह स्फटिक अमूर्त तो प्रतीत नहीं होता; बल्कि यह तो मूर्त, वास्तव में सर्वाधिक मूर्त, प्रतीत होता है मानो सत्तावान पदार्थों में यह सर्वाधिक कठोर पदार्थ हो (''ट्रेकटेटस लॉजिको-फिलोसफ़िकस'' न. 5.5563)।


हमें यह भ्रम है कि हमारी अन्वेषणा की विशिष्टता, गहनता, एवं अपरिहार्यता भाषा के अनुपमेय सार को ग्रहण करने के प्रयत्न में निहित है; यानी प्रतिज्ञप्ति, शब्द, प्रमाण, सत्य, अनुभव इत्यादि के प्रत्ययों में पाई जाने वाली व्यवस्था में। यह व्यवस्था तो — यूँ कहिये कि — ''परा''-प्रत्ययों के मध्य ''परा''-व्यवस्था है। "भाषा", "अनुभव", "संसार" शब्दों का यदि प्रयोग है तो बेशक वह "मेज", "दीपक", "द्वार", शब्दों के समान ही साधारण होना चाहिए।
हमें यह भ्रम है कि हमारी अन्वेषणा की विशिष्टता, गहनता, एवं अपरिहार्यता भाषा के अनुपमेय सार को ग्रहण करने के प्रयत्न में निहित है; यानी प्रतिज्ञप्ति, शब्द, प्रमाण, सत्य, अनुभव इत्यादि के प्रत्ययों में पाई जाने वाली व्यवस्था में। यह व्यवस्था तो — यूँ कहिये कि — ''परा''-प्रत्ययों के मध्य ''परा''-व्यवस्था है। “भाषा”, “अनुभव”, “संसार” शब्दों का यदि प्रयोग है तो बेशक वह “मेज”, “दीपक”, “द्वार”, शब्दों के समान ही साधारण होना चाहिए।


'''98.''' एक ओर तो यह स्पष्ट है कि हमारी भाषा का प्रत्येक वाक्य 'जैसे भी है ठीक है'। यानी हम किसी आदर्श के ''पीछे'' नहीं ''पड़े हैं'', मानो हमारे साधारण अस्पष्ट वाक्यों को अभी पूर्णतः असाधारण अर्थ नहीं मिले हों और एक परिपूर्ण भाषा को हमारे द्वारा रचे जाने की प्रतीक्षा हो। — दूसरी ओर, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि जहाँ अर्थ होता है वहाँ परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए। — अतः अत्यन्त अस्पष्ट वाक्यों में भी परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए।
'''98.''' एक ओर तो यह स्पष्ट है कि हमारी भाषा का प्रत्येक वाक्य 'जैसे भी है ठीक है'। यानी हम किसी आदर्श के ''पीछे'' नहीं ''पड़े हैं'', मानो हमारे साधारण अस्पष्ट वाक्यों को अभी पूर्णतः असाधारण अर्थ नहीं मिले हों और एक परिपूर्ण भाषा को हमारे द्वारा रचे जाने की प्रतीक्षा हो। — दूसरी ओर, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि जहाँ अर्थ होता है वहाँ परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए। — अतः अत्यन्त अस्पष्ट वाक्यों में भी परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए।


'''99.''' वाक्य का अर्थ — कोई कह सकता है — बेशक इसे या उसे अनिर्धारित छोड़ सकता है, किन्तु फिर भी वाक्य का कोई निर्धारित अर्थ तो होना ही चाहिए। अनिर्धारित अर्थ — वह तो ''कोई'' अर्थ ही नहीं हुआ। — यह ऐसा है: अनिर्धारित सीमा तो वास्तव में कोई सीमा ही नहीं होती। यहाँ संभवत&nbsp;: कोई विचार करता है: यदि मैं कहता हूँ "मैंने व्यक्ति को कमरे में अच्छी तरह बन्द कर दिया है — केवल एक द्वार ही खुला रख छोड़ा है" — तो मैंने उसे कमरे में बन्द किया ही नहीं; उसका कमरे बन्द होना तो ढोंग है। कोई यहाँ कहना चाहेगा&nbsp;: "आपने तो कुछ किया ही नहीं"। टूटा हुआ अहाता तो अहाता न होने के समान ही है। — किन्तु क्या यह सत्य है?
'''99.''' वाक्य का अर्थ — कोई कह सकता है — बेशक इसे या उसे अनिर्धारित छोड़ सकता है, किन्तु फिर भी वाक्य का कोई निर्धारित अर्थ तो होना ही चाहिए। अनिर्धारित अर्थ — वह तो ''कोई'' अर्थ ही नहीं हुआ। — यह ऐसा है: अनिर्धारित सीमा तो वास्तव में कोई सीमा ही नहीं होती। यहाँ संभवत&nbsp;: कोई विचार करता है: यदि मैं कहता हूँ “मैंने व्यक्ति को कमरे में अच्छी तरह बन्द कर दिया है — केवल एक द्वार ही खुला रख छोड़ा है” — तो मैंने उसे कमरे में बन्द किया ही नहीं; उसका कमरे बन्द होना तो ढोंग है। कोई यहाँ कहना चाहेगा&nbsp;: “आपने तो कुछ किया ही नहीं”। टूटा हुआ अहाता तो अहाता न होने के समान ही है। — किन्तु क्या यह सत्य है?


'''100.''' "परन्तु फिर भी, यदि ''नियमों में'' कुछ अस्पष्टता है तो यह खेल नहीं है" — किन्तु ''क्या'' यह उसे खेल होने से रोकता है? — "संभवतः आप इसे खेल कहेंगे, किन्तु निश्चय ही किसी भी प्रकार यह परिपूर्ण खेल नहीं है।" इसका अर्थ है: इसमें अशुद्धियां हैं, और इस समय मेरी रुचि पूर्ण विवरण में है। — किन्तु मैं कहना चाहता हूँ&nbsp;: हमारी भाषा में आदर्श की भूमिका को हम गलत ढंग से समझते हैं। अतएव हमें भी इसे खेल ही कहना चाहिए, किन्तु आदर्श ने हमें हतप्रभ कर दिया है और इसलिए हम "खेल" शब्द के वास्तविक प्रयोग को स्पष्टतः देखने में असमर्थ हैं।
'''100.''' “परन्तु फिर भी, यदि ''नियमों में'' कुछ अस्पष्टता है तो यह खेल नहीं है” — किन्तु ''क्या'' यह उसे खेल होने से रोकता है? — “संभवतः आप इसे खेल कहेंगे, किन्तु निश्चय ही किसी भी प्रकार यह परिपूर्ण खेल नहीं है।” इसका अर्थ है: इसमें अशुद्धियां हैं, और इस समय मेरी रुचि पूर्ण विवरण में है। — किन्तु मैं कहना चाहता हूँ&nbsp;: हमारी भाषा में आदर्श की भूमिका को हम गलत ढंग से समझते हैं। अतएव हमें भी इसे खेल ही कहना चाहिए, किन्तु आदर्श ने हमें हतप्रभ कर दिया है और इसलिए हम “खेल” शब्द के वास्तविक प्रयोग को स्पष्टतः देखने में असमर्थ हैं।


{{ParPU|101}} हम कहना चाहते हैं कि तर्कशास्त्र में तो कोई अस्पष्टता हो ही नहीं सकती। अब हम इस विचार में मग्न रहते हैं कि आदर्श तो ‘''अनिवार्यतः''’ वास्तविकता में ही मिलना चाहिए। इस बीच, हमें यह नहीं पता चलता कि यह वहाँ ''कैसे'' पाया जाता है, न ही हम इस "अनिवार्यतः" के स्वभाव को समझते हैं। हम सोचते हैं कि इस अनिवार्यतः को वास्तविकता में होना चाहिए; क्योंकि हमें लगता है कि हम उसे पहले से ही वहाँ देख रहे हैं।
{{ParPU|101}} हम कहना चाहते हैं कि तर्कशास्त्र में तो कोई अस्पष्टता हो ही नहीं सकती। अब हम इस विचार में मग्न रहते हैं कि आदर्श तो ‘''अनिवार्यतः''’ वास्तविकता में ही मिलना चाहिए। इस बीच, हमें यह नहीं पता चलता कि यह वहाँ ''कैसे'' पाया जाता है, न ही हम इस “अनिवार्यतः” के स्वभाव को समझते हैं। हम सोचते हैं कि इस अनिवार्यतः को वास्तविकता में होना चाहिए; क्योंकि हमें लगता है कि हम उसे पहले से ही वहाँ देख रहे हैं।


{{ParPU|102}} प्रतिज्ञप्तियों की तार्किक संरचना के सुनिश्चित एवं स्पष्ट नियम हमें पृष्ठभूमि में विवेक के माध्यम द्वारा छुपाये हुए से प्रतीत होते हैं। मैं पहले से ही उन्हें देख सकता हूँ (यद्यपि किसी माध्यम के द्वारा)&nbsp;: क्योंकि मैं प्रतिज्ञप्ति-संकेत को समझता हूँ मैं उसका प्रयोग कुछ कहने के लिए करता हूँ।
{{ParPU|102}} प्रतिज्ञप्तियों की तार्किक संरचना के सुनिश्चित एवं स्पष्ट नियम हमें पृष्ठभूमि में विवेक के माध्यम द्वारा छुपाये हुए से प्रतीत होते हैं। मैं पहले से ही उन्हें देख सकता हूँ (यद्यपि किसी माध्यम के द्वारा)&nbsp;: क्योंकि मैं प्रतिज्ञप्ति-संकेत को समझता हूँ मैं उसका प्रयोग कुछ कहने के लिए करता हूँ।
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{{ParPU|104}} किसी पदार्थ को निरूपित करने वाली पद्धति को ही हम विधेय कहते हैं। तुलना की सम्भावना से प्रभावित होकर हम सोचते हैं कि हम अत्यन्त व्यापकता की स्थिति को देख रहे हैं।
{{ParPU|104}} किसी पदार्थ को निरूपित करने वाली पद्धति को ही हम विधेय कहते हैं। तुलना की सम्भावना से प्रभावित होकर हम सोचते हैं कि हम अत्यन्त व्यापकता की स्थिति को देख रहे हैं।


{{ParPU|105}} जब हम यह समझते हैं कि हमें अपनी वास्तविक भाषा में उस व्यवस्था को, आदर्श को, अनिवार्यतः ढूँढना ही चाहिए तो सामान्यतः हम "प्रतिज्ञप्तियां", "शब्द", "संकेत" कहे जाने वाले विषयों से असन्तुष्ट हो जाते हैं।
{{ParPU|105}} जब हम यह समझते हैं कि हमें अपनी वास्तविक भाषा में उस व्यवस्था को, आदर्श को, अनिवार्यतः ढूँढना ही चाहिए तो सामान्यतः हम “प्रतिज्ञप्तियां”, “शब्द”, “संकेत” कहे जाने वाले विषयों से असन्तुष्ट हो जाते हैं।


ऐसा माना जाता है कि तर्कशास्त्र द्वारा व्यवहृत प्रतिज्ञप्ति एवं शब्द शुद्ध एवं स्पष्ट होते हैं। और हम ''वास्तविक'' संकेत के स्वभाव के बारे में ही मगज़पच्ची करते रहते हैं। — सम्भवतः यह संकेत का ''विचार'' है? अथवा इस क्षण होने वाला यह विचार है?
ऐसा माना जाता है कि तर्कशास्त्र द्वारा व्यवहृत प्रतिज्ञप्ति एवं शब्द शुद्ध एवं स्पष्ट होते हैं। और हम ''वास्तविक'' संकेत के स्वभाव के बारे में ही मगज़पच्ची करते रहते हैं। — सम्भवतः यह संकेत का ''विचार'' है? अथवा इस क्षण होने वाला यह विचार है?
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{{ParPU|107}} जितनी अधिक सूक्ष्मता से हम अपनी वास्तविक भाषा का परीक्षण करते हैं उतना ही उसमें, और हमारी आवश्यकता में, विरोध स्पष्ट होता जाता है। (क्योंकि तर्कशास्त्र की स्फुटिक शुद्धता बेशक अन्वेषण ''का फल'' तो नहीं थी&nbsp;: यह तो एक आवश्यकता थी।) यह विरोध असहनीय हो जाता है; आवश्यकता के तो अब निरर्थक हो जाने का अंदेशा है। — हम तो अब ऐसी फिसलनी बर्फ पर पहुँच चुके हैं जहाँ घर्षण ही नहीं है, और इसलिए किसी विशिष्ट अर्थ में यह एक आदर्श परिस्थिति है, किन्तु इसी कारण हम चलने में असमर्थ भी हैं। हम चलना चाहते हैं: इसलिए हमें ''घर्षण'' की आवश्यकता है। अब असमतल भूमि पर लौटिये।
{{ParPU|107}} जितनी अधिक सूक्ष्मता से हम अपनी वास्तविक भाषा का परीक्षण करते हैं उतना ही उसमें, और हमारी आवश्यकता में, विरोध स्पष्ट होता जाता है। (क्योंकि तर्कशास्त्र की स्फुटिक शुद्धता बेशक अन्वेषण ''का फल'' तो नहीं थी&nbsp;: यह तो एक आवश्यकता थी।) यह विरोध असहनीय हो जाता है; आवश्यकता के तो अब निरर्थक हो जाने का अंदेशा है। — हम तो अब ऐसी फिसलनी बर्फ पर पहुँच चुके हैं जहाँ घर्षण ही नहीं है, और इसलिए किसी विशिष्ट अर्थ में यह एक आदर्श परिस्थिति है, किन्तु इसी कारण हम चलने में असमर्थ भी हैं। हम चलना चाहते हैं: इसलिए हमें ''घर्षण'' की आवश्यकता है। अब असमतल भूमि पर लौटिये।


{{ParPU|108}} हम देखते हैं कि जिन्हें हम "वाक्य" एवं "भाषा" कहते हैं उन में वैसी आकारिक एकता नहीं है जिसकी मैंने कल्पना की थी, अपितु वह तो एक दूसरे से
{{ParPU|108}} हम देखते हैं कि जिन्हें हम “वाक्य” एवं “भाषा” कहते हैं उन में वैसी आकारिक एकता नहीं है जिसकी मैंने कल्पना की थी, अपितु वह तो एक दूसरे से


{{PU box|द ''कैमिकल हिस्ट्री ऑफ ए कैंडल'' में फैराडे ने लिखा&nbsp;: "जल एक ऐसी वस्तु है जो कभी भी परिवर्तित नहीं होती।"}}
{{PU box|द ''कैमिकल हिस्ट्री ऑफ ए कैंडल'' में फैराडे ने लिखा&nbsp;: “जल एक ऐसी वस्तु है जो कभी भी परिवर्तित नहीं होती।”}}


न्यूनाधिक सम्बद्ध संरचनाओं का परिवार है। — किन्तु अब तर्कशास्त्र का क्या होगा? इसकी दृढ़ता तो यहाँ कमजोर पड़ गई प्रतीत होती है। — किन्तु क्या उस परिस्थिति में तर्कशास्त्र पूर्णतः लुप्त नहीं हो जाएगा? — क्योंकि वह अपनी दृढ़ता कैसे खो सकता है ? बेशक अपनी दृढ़ता की कीमत पर तो नहीं  — स्फुटिक शुद्धता के ''पूर्वकल्पित विचार'' को तो अपने सम्पूर्ण परीक्षण को पूरी तरह उलट कर ही दूर किया जा सकता है। (कहा जा सकता है: अपने परीक्षण के संदर्भ की धुरी को तो हमें घुमाना ही चाहिए, किन्तु अपनी वास्तविक आवश्यकता के केन्द्रबिन्दु के इर्द-गिर्द ही।)
न्यूनाधिक सम्बद्ध संरचनाओं का परिवार है। — किन्तु अब तर्कशास्त्र का क्या होगा? इसकी दृढ़ता तो यहाँ कमजोर पड़ गई प्रतीत होती है। — किन्तु क्या उस परिस्थिति में तर्कशास्त्र पूर्णतः लुप्त नहीं हो जाएगा? — क्योंकि वह अपनी दृढ़ता कैसे खो सकता है ? बेशक अपनी दृढ़ता की कीमत पर तो नहीं  — स्फुटिक शुद्धता के ''पूर्वकल्पित विचार'' को तो अपने सम्पूर्ण परीक्षण को पूरी तरह उलट कर ही दूर किया जा सकता है। (कहा जा सकता है: अपने परीक्षण के संदर्भ की धुरी को तो हमें घुमाना ही चाहिए, किन्तु अपनी वास्तविक आवश्यकता के केन्द्रबिन्दु के इर्द-गिर्द ही।)


वाक्यों और शब्दों के बारे में तर्कशास्त्र का दर्शन बिल्कुल उसी अर्थ में उल्लेख करता है जिसमें हम अपने दैनिक जीवन में उनका उल्लेख करते हैं, उदाहरणार्थ, जब हम कहते हैं, "यह एक चीनी वाक्य है" अथवा "नहीं वह तो लिपि प्रतीत भर होती है; वास्तव में तो वह अलंकृति है"।
वाक्यों और शब्दों के बारे में तर्कशास्त्र का दर्शन बिल्कुल उसी अर्थ में उल्लेख करता है जिसमें हम अपने दैनिक जीवन में उनका उल्लेख करते हैं, उदाहरणार्थ, जब हम कहते हैं, “यह एक चीनी वाक्य है” अथवा “नहीं वह तो लिपि प्रतीत भर होती है; वास्तव में तो वह अलंकृति है”।


और हम बातें कर रहे हैं भाषा की दिक् एवं काल संबंधी संवृत्ति के बारे में, न कि दिक्कालरहित किसी फंतासी के बारी में। (हाशिये पर टिप्पणी&nbsp;: किसी संवृत्ति में अनेक प्रकार से रुचि ली जा सकती है।) किन्तु हम इसके बारे में उसी प्रकार बात करते हैं जैसे कि हम शतरंज के खेल के नियमों का उल्लेख करते हुए शतरंज के मोहरों के बारे में बात करते हैं। किन्तु ऐसा करते समय उनके भौतिक गुणों का विवरण नहीं देते।
और हम बातें कर रहे हैं भाषा की दिक् एवं काल संबंधी संवृत्ति के बारे में, न कि दिक्कालरहित किसी फंतासी के बारी में। (हाशिये पर टिप्पणी&nbsp;: किसी संवृत्ति में अनेक प्रकार से रुचि ली जा सकती है।) किन्तु हम इसके बारे में उसी प्रकार बात करते हैं जैसे कि हम शतरंज के खेल के नियमों का उल्लेख करते हुए शतरंज के मोहरों के बारे में बात करते हैं। किन्तु ऐसा करते समय उनके भौतिक गुणों का विवरण नहीं देते।


"वास्तव में शब्द क्या है?" यह प्रश्न, "शतरंज में मोहरा क्या है?" इस प्रश्न के समान है।
“वास्तव में शब्द क्या है?यह प्रश्न, “शतरंज में मोहरा क्या है?इस प्रश्न के समान है।


{{ParPU|109}} यह कहना सही था कि हमारी समीक्षाएं तो वैज्ञानिक हो ही नहीं सकती थीं। 'हमारे पूर्वकल्पित विचारों के विपरीत अमुक-अमुक सोचना सम्भव है' इसके परीक्षण में — चाहे उसका जो कुछ भी अर्थ हो, हमारी कोई भी रुचि नहीं थी। (गैस जैसा माध्यम होने जैसी विवेक की धारणा) और मनमर्जी सिद्धान्त प्रस्तुत न करें। हमारी समीक्षाओं में कुछ भी परिकल्पित नहीं होना चाहिए। हमें ''व्याख्या'' को सम्पूर्णतः हटा देना चाहिए और मात्र विवरण को उसका स्थान दे देना चाहिए। और यह विवरण अपना अर्थ अतएव अपना उद्देश्य, दार्शनिक समस्याओं से प्राप्त करता है। बेशक ये आनुभविक समस्याएं नहीं हैं; वस्तुतः उनका समाधान हमारी भाषा की कार्यपद्धति का निरीक्षण करने से हो जाता है, और वह भी इस प्रकार से कि हम इन कार्यपद्धतियों को स्वीकार कर लें&nbsp;: उनको गलत अर्थ में लेने की उत्कट इच्छा ''होते हुए भी''। समस्याओं का समाधान नई सूचना देने से नहीं होता, अपितु समाधान सदैव पूर्वज्ञात सूचनाओं को व्यवस्थित करने से होता है। दर्शन तो भाषा द्वारा हमारी बुद्धि के वशीकरण के विरुद्ध संघर्ष है।
{{ParPU|109}} यह कहना सही था कि हमारी समीक्षाएं तो वैज्ञानिक हो ही नहीं सकती थीं। 'हमारे पूर्वकल्पित विचारों के विपरीत अमुक-अमुक सोचना सम्भव है' इसके परीक्षण में — चाहे उसका जो कुछ भी अर्थ हो, हमारी कोई भी रुचि नहीं थी। (गैस जैसा माध्यम होने जैसी विवेक की धारणा) और मनमर्जी सिद्धान्त प्रस्तुत न करें। हमारी समीक्षाओं में कुछ भी परिकल्पित नहीं होना चाहिए। हमें ''व्याख्या'' को सम्पूर्णतः हटा देना चाहिए और मात्र विवरण को उसका स्थान दे देना चाहिए। और यह विवरण अपना अर्थ अतएव अपना उद्देश्य, दार्शनिक समस्याओं से प्राप्त करता है। बेशक ये आनुभविक समस्याएं नहीं हैं; वस्तुतः उनका समाधान हमारी भाषा की कार्यपद्धति का निरीक्षण करने से हो जाता है, और वह भी इस प्रकार से कि हम इन कार्यपद्धतियों को स्वीकार कर लें&nbsp;: उनको गलत अर्थ में लेने की उत्कट इच्छा ''होते हुए भी''। समस्याओं का समाधान नई सूचना देने से नहीं होता, अपितु समाधान सदैव पूर्वज्ञात सूचनाओं को व्यवस्थित करने से होता है। दर्शन तो भाषा द्वारा हमारी बुद्धि के वशीकरण के विरुद्ध संघर्ष है।


{{ParPU|110}} "भाषा (अथवा विचार) तो कुछ अपूर्व है" — यह तो एक अंधविश्वास (न कि भ्रान्ति) सिद्ध होता है, जो स्वयं ही व्याकरण सम्बन्धी भ्रान्तियों की उपज है। और यह अपूर्वता अब, इन भ्रान्तियों, इन समस्याओं में छुप जाती है।
{{ParPU|110}} “भाषा (अथवा विचार) तो कुछ अपूर्व है” — यह तो एक अंधविश्वास (न कि भ्रान्ति) सिद्ध होता है, जो स्वयं ही व्याकरण सम्बन्धी भ्रान्तियों की उपज है। और यह अपूर्वता अब, इन भ्रान्तियों, इन समस्याओं में छुप जाती है।


{{ParPU|111}} हमारी भाषा के आकारों की गलत व्याख्या से उत्पन्न समस्याओं में ''गहनता'' होता है। वे उग्र व्यग्रताएं होती हैं; भाषा-आकारों की भांति हमारे भीतर उनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। और वे हमारी भाषा के समान ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। — आइए हम अपने आप से पूछें&nbsp;: हमें व्याकरण-सम्बन्धी चुटकुला ''गहन'' क्यों प्रतीत होता है? (और इसे ही दर्शन की गहनता कहा जाता है।)
{{ParPU|111}} हमारी भाषा के आकारों की गलत व्याख्या से उत्पन्न समस्याओं में ''गहनता'' होता है। वे उग्र व्यग्रताएं होती हैं; भाषा-आकारों की भांति हमारे भीतर उनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। और वे हमारी भाषा के समान ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। — आइए हम अपने आप से पूछें&nbsp;: हमें व्याकरण-सम्बन्धी चुटकुला ''गहन'' क्यों प्रतीत होता है? (और इसे ही दर्शन की गहनता कहा जाता है।)


{{ParPU|112}} हमारे भाषा-आकारों में आत्मसात् हुई उपमाएं मिथ्या आभास उत्पन्न करती हैं, और इससे हम व्याकुल हो जाते हैं। "किन्तु यह ''ऐसा'' तो नहीं है!" — हम कहते हैं "तथापि इसे ''ऐसा'' ही होना चाहिए!"
{{ParPU|112}} हमारे भाषा-आकारों में आत्मसात् हुई उपमाएं मिथ्या आभास उत्पन्न करती हैं, और इससे हम व्याकुल हो जाते हैं। “किन्तु यह ''ऐसा'' तो नहीं है!— हम कहते हैं “तथापि इसे ''ऐसा'' ही होना चाहिए!


{{ParPU|113}} "किन्तु यह ''ऐसा'' है" — मैं अपने आप बार-बार कहता हूँ। मुझे प्रतीत होता है मानो यदि मैं इस तथ्य पर गौर कर पाता, इस पर ध्यान केन्द्रित कर पाता, तो मैं निश्चय ही इसके सार को ग्रहण कर पाता।
{{ParPU|113}} “किन्तु यह ''ऐसा'' है” — मैं अपने आप बार-बार कहता हूँ। मुझे प्रतीत होता है मानो यदि मैं इस तथ्य पर गौर कर पाता, इस पर ध्यान केन्द्रित कर पाता, तो मैं निश्चय ही इसके सार को ग्रहण कर पाता।


{{ParPU|114}} (''ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलोसॅफिक्स'', 4.5) "प्रतिज्ञप्ति का साधारण आकार है: पदार्थ ऐसे होते हैं।" — इस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति को कोई अनेक बार दोहराता है। वह ऐसा सोचता है कि पदार्थ के स्वभाव की रूपरेखा को वह बार-बार बना रहा है, किन्तु वस्तुतः वह उस आकार को ही रेखांकित कर रहा होता है जिसके माध्यम से हम उसे देखते हैं।
{{ParPU|114}} (''ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलोसॅफिक्स'', 4.5) “प्रतिज्ञप्ति का साधारण आकार है: पदार्थ ऐसे होते हैं।” — इस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति को कोई अनेक बार दोहराता है। वह ऐसा सोचता है कि पदार्थ के स्वभाव की रूपरेखा को वह बार-बार बना रहा है, किन्तु वस्तुतः वह उस आकार को ही रेखांकित कर रहा होता है जिसके माध्यम से हम उसे देखते हैं।


{{ParPU|115}} ''चित्र'' ने हमें बाँध लिया है। और हम उससे बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि वह हमारी भाषा में ही था और हमें ऐसा लगता है कि भाषा इसे निरपवाद रूप से दोहराती रहती है।
{{ParPU|115}} ''चित्र'' ने हमें बाँध लिया है। और हम उससे बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि वह हमारी भाषा में ही था और हमें ऐसा लगता है कि भाषा इसे निरपवाद रूप से दोहराती रहती है।


{{ParPU|116}} जब दार्शनिक — "ज्ञान", "सत्ता", "वस्तु", "मैं", "प्रतिज्ञप्ति”, "नाम" जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं — और पदार्थ के ''सार'' को ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं तो हमें प्रश्न करना चाहिए&nbsp;: इस शब्द के मौलिक निवास-स्थान, भाषा-खेल में क्या कभी इसे इस ढंग से प्रयोग किया जाता है? —
{{ParPU|116}} जब दार्शनिक — “ज्ञान”, “सत्ता”, “वस्तु”, “मैं”, “प्रतिज्ञप्ति”, ”नाम" जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं — और पदार्थ के ''सार'' को ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं तो हमें प्रश्न करना चाहिए&nbsp;: इस शब्द के मौलिक निवास-स्थान, भाषा-खेल में क्या कभी इसे इस ढंग से प्रयोग किया जाता है? —


इससे ''हम'' शब्दों को उनके परा-भौतिक प्रयोग से वापिस दैनन्दिन प्रयोग में लौटा लाते हैं।
इससे ''हम'' शब्दों को उनके परा-भौतिक प्रयोग से वापिस दैनन्दिन प्रयोग में लौटा लाते हैं।


{{ParPU|117}} आप मुझे कहते हैं: "आप इस अभिव्यक्ति को समझते हैं, क्या आप नहीं समझते? ठीक है, तब तो — मैं इसका उसी अर्थ में प्रयोग कर रहा हूँ जिससे आप परिचित हैं।" — मानो अर्थ शब्द से संलग्न ऐसा वातावरण हो जो उसके हर प्रकार के प्रयोग का सहगामी हो।
{{ParPU|117}} आप मुझे कहते हैं: “आप इस अभिव्यक्ति को समझते हैं, क्या आप नहीं समझते? ठीक है, तब तो — मैं इसका उसी अर्थ में प्रयोग कर रहा हूँ जिससे आप परिचित हैं।” — मानो अर्थ शब्द से संलग्न ऐसा वातावरण हो जो उसके हर प्रकार के प्रयोग का सहगामी हो।


उदाहरणार्थ, यदि कोई कहे कि "यह यहाँ है" (और इस वाक्य को कहने के साथ-साथ वह अपने समक्ष रखी किसी वस्तु को इंगित करे) का अर्थ वह समझता है तो उसे स्वयं से पूछना चाहिए कि वास्तव में इस वाक्य का प्रयोग किन विशिष्ट परिस्थितियों में किया जाता है। उन्हीं परिस्थितियों में उसका अर्थ होता है।
उदाहरणार्थ, यदि कोई कहे कि “यह यहाँ है” (और इस वाक्य को कहने के साथ-साथ वह अपने समक्ष रखी किसी वस्तु को इंगित करे) का अर्थ वह समझता है तो उसे स्वयं से पूछना चाहिए कि वास्तव में इस वाक्य का प्रयोग किन विशिष्ट परिस्थितियों में किया जाता है। उन्हीं परिस्थितियों में उसका अर्थ होता है।


{{ParPU|118}} हमारा अन्वेषण महत्त्वपूर्ण क्योंकर होता है, क्योंकि यह तो सभी रुचिकर विषयों&nbsp;: अतः उन सब का जो महान एवं महत्त्वपूर्ण हैं, विनाश ही करना प्रतीत होता है? (मानो सभी भवनों का विनाश, और बचे रहते हैं केवल टूटे पत्थर और उनका मलबा।) हम जिसका विनाश कर रहे हैं वह ताश के पत्तों से बने घरों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, और हम भाषा के उसी आधार को खत्म कर रहे हैं जिस पर वे बने हैं।
{{ParPU|118}} हमारा अन्वेषण महत्त्वपूर्ण क्योंकर होता है, क्योंकि यह तो सभी रुचिकर विषयों&nbsp;: अतः उन सब का जो महान एवं महत्त्वपूर्ण हैं, विनाश ही करना प्रतीत होता है? (मानो सभी भवनों का विनाश, और बचे रहते हैं केवल टूटे पत्थर और उनका मलबा।) हम जिसका विनाश कर रहे हैं वह ताश के पत्तों से बने घरों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, और हम भाषा के उसी आधार को खत्म कर रहे हैं जिस पर वे बने हैं।
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आप कहते हैं: बात शब्द की नहीं अपितु उसके अर्थ की है, और अर्थ को आप शब्द के समान ही समझते हैं; यद्यपि उससे भिन्न भी। यह शब्द, और उसका वह अर्थ। धन, और इस धन से खरीदी जा सकने वाली गाय। (किन्तु तुलना कीजिए&nbsp;: धन, और उसके प्रयोग की।)
आप कहते हैं: बात शब्द की नहीं अपितु उसके अर्थ की है, और अर्थ को आप शब्द के समान ही समझते हैं; यद्यपि उससे भिन्न भी। यह शब्द, और उसका वह अर्थ। धन, और इस धन से खरीदी जा सकने वाली गाय। (किन्तु तुलना कीजिए&nbsp;: धन, और उसके प्रयोग की।)


{{ParPU|121}} कोई समझ सकता है: यदि दर्शन "दर्शन" शब्द के प्रयोग का उल्लेख करता है तो दर्शन का कोई अवर-क्रम (सैकण्ड-ऑर्डर) भी होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं है; वस्तुत&nbsp;: यह वर्तनी-विचार के समान है जो यद्यपि अन्य शब्दों के साथ-साथ "वर्तनी-विचार" शब्द की भी व्याख्या देता है, तो भी उसका अवर-क्रम नहीं होता।
{{ParPU|121}} कोई समझ सकता है: यदि दर्शन “दर्शन” शब्द के प्रयोग का उल्लेख करता है तो दर्शन का कोई अवर-क्रम (सैकण्ड-ऑर्डर) भी होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं है; वस्तुत&nbsp;: यह वर्तनी-विचार के समान है जो यद्यपि अन्य शब्दों के साथ-साथ “वर्तनी-विचार” शब्द की भी व्याख्या देता है, तो भी उसका अवर-क्रम नहीं होता।


{{ParPU|122}} किसी विषय को समझने की हमारी असफलता का मुख्य कारण तो यह है कि हमें अपने-शब्द प्रयोग का कोई ''स्पष्ट-विचार'' नहीं होता। — हमारे व्याकरण में इस प्रकार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की कमी है। सुस्पष्ट निरूपण 'सम्बन्धों को देखने' वाली समझ ही उत्पन्न करता है। अतः ''मध्यवर्ती स्थितियों'' को पाने एवं खोजने का महत्त्व होता है।
{{ParPU|122}} किसी विषय को समझने की हमारी असफलता का मुख्य कारण तो यह है कि हमें अपने-शब्द प्रयोग का कोई ''स्पष्ट-विचार'' नहीं होता। — हमारे व्याकरण में इस प्रकार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की कमी है। सुस्पष्ट निरूपण 'सम्बन्धों को देखने' वाली समझ ही उत्पन्न करता है। अतः ''मध्यवर्ती स्थितियों'' को पाने एवं खोजने का महत्त्व होता है।
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सुस्पष्ट निरूपण का प्रत्यय हमारे लिए मौलिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। यह हमारे द्वारा दिए गए विवरण के आकार को, पदार्थों को, समझने के हमारे ढंग को, निर्धारित करता है। (क्या यह ‘''वेल्टनश्युआंग''’ है?)
सुस्पष्ट निरूपण का प्रत्यय हमारे लिए मौलिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। यह हमारे द्वारा दिए गए विवरण के आकार को, पदार्थों को, समझने के हमारे ढंग को, निर्धारित करता है। (क्या यह ‘''वेल्टनश्युआंग''’ है?)


{{ParPU|123}} दार्शनिक समस्या का रूप यह है: "मुझे नहीं मालूम कि मेरा मार्ग कौन सा है?"
{{ParPU|123}} दार्शनिक समस्या का रूप यह है: “मुझे नहीं मालूम कि मेरा मार्ग कौन सा है?


{{ParPU|124}} भाषा के वास्तविक प्रयोग में दर्शन किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करे; अन्ततः तो वह उसका विवरण ही दे सकता है।
{{ParPU|124}} भाषा के वास्तविक प्रयोग में दर्शन किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करे; अन्ततः तो वह उसका विवरण ही दे सकता है।
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क्योंकि वह उसे कोई आधार भी नहीं दे सकता। वह तो प्रत्येक विषय को जस-का-तस छोड़ देता है।
क्योंकि वह उसे कोई आधार भी नहीं दे सकता। वह तो प्रत्येक विषय को जस-का-तस छोड़ देता है।


वह गणित को भी जस-का-तस छोड़ देता है, और कोई भी गणितीय खोज उसे आगे नहीं बढ़ा सकती। हमारे लिए "गणितीय तर्कशास्त्र की प्रमुख समस्या" गणित की अन्य किसी समस्या के समान ही होती है।
वह गणित को भी जस-का-तस छोड़ देता है, और कोई भी गणितीय खोज उसे आगे नहीं बढ़ा सकती। हमारे लिए “गणितीय तर्कशास्त्र की प्रमुख समस्या” गणित की अन्य किसी समस्या के समान ही होती है।


{{ParPU|125}} दर्शन का कार्य गणितीय अथवा तर्क-गणितीय खोजों द्वारा व्याघातों का समाधान देना नहीं है, अपितु इसका कार्य हमें बेचैन करने वाली गणित की अवस्था, व्याघात-समाधान से ''पूर्व-अवस्था'', को स्पष्ट कर सकना है। (पर इसका अर्थ कठिनाइयों से बचना नहीं है।)
{{ParPU|125}} दर्शन का कार्य गणितीय अथवा तर्क-गणितीय खोजों द्वारा व्याघातों का समाधान देना नहीं है, अपितु इसका कार्य हमें बेचैन करने वाली गणित की अवस्था, व्याघात-समाधान से ''पूर्व-अवस्था'', को स्पष्ट कर सकना है। (पर इसका अर्थ कठिनाइयों से बचना नहीं है।)
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अपने नियमों में इस उलझाव को ही हम समझना (अतः उसे स्पष्टतः देखना) चाहते हैं।
अपने नियमों में इस उलझाव को ही हम समझना (अतः उसे स्पष्टतः देखना) चाहते हैं।


यह हमारे किसी ''अर्थ'' होने के प्रत्यय पर प्रकाश डालता है। क्योंकि तब स्थितियां हमारे पूर्वाभास से उलट निकलती हैं। उदाहरणार्थ, जब भी कोई व्याघात प्रकट होता है हम यही कहते हैं: "मेरा वह अर्थ तो नहीं था। "
यह हमारे किसी ''अर्थ'' होने के प्रत्यय पर प्रकाश डालता है। क्योंकि तब स्थितियां हमारे पूर्वाभास से उलट निकलती हैं। उदाहरणार्थ, जब भी कोई व्याघात प्रकट होता है हम यही कहते हैं: “मेरा वह अर्थ तो नहीं था।


व्याघात की शिष्ट स्थिति अथवा शिष्ट जनों में उसकी स्थिति&nbsp;: यही तो दार्शनिक समस्या है।
व्याघात की शिष्ट स्थिति अथवा शिष्ट जनों में उसकी स्थिति&nbsp;: यही तो दार्शनिक समस्या है।
Line 663: Line 663:
{{ParPU|126}} दर्शन तो हमारे सामने सब कुछ रखता भर है, वह न तो कोई व्याख्या देता है और न ही कोई निर्गमन करता है। — क्योंकि सब कुछ हमारी आँखों के सामने खुला होता है, व्याख्या के लिए कुछ बचता ही नहीं। क्योंकि छुपे हुए विषय में हमारी कोई रुचि नहीं होती।
{{ParPU|126}} दर्शन तो हमारे सामने सब कुछ रखता भर है, वह न तो कोई व्याख्या देता है और न ही कोई निर्गमन करता है। — क्योंकि सब कुछ हमारी आँखों के सामने खुला होता है, व्याख्या के लिए कुछ बचता ही नहीं। क्योंकि छुपे हुए विषय में हमारी कोई रुचि नहीं होती।


सभी नई खोजों एवं अन्वेषणों से ''पूर्व'' सम्भव विषयों को भी "दर्शन" नाम दिया जा सकता है।
सभी नई खोजों एवं अन्वेषणों से ''पूर्व'' सम्भव विषयों को भी “दर्शन” नाम दिया जा सकता है।


{{ParPU|127}} दार्शनिक का कार्य तो किसी विशेष प्रयोजन के लिए अनुस्मारक एकत्र करना होता है।
{{ParPU|127}} दार्शनिक का कार्य तो किसी विशेष प्रयोजन के लिए अनुस्मारक एकत्र करना होता है।
Line 687: Line 687:
यद्यपि कोई ''एक'' दार्शनिक पद्धति नहीं होती, तथापि विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियों के समान दार्शनिक पद्धतियां तो होती हैं।
यद्यपि कोई ''एक'' दार्शनिक पद्धति नहीं होती, तथापि विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियों के समान दार्शनिक पद्धतियां तो होती हैं।


{{ParPU|134}} आइए हम इस प्रतिज्ञप्ति का परीक्षण करें&nbsp;: "पदार्थ ऐसे होते हैं।" — मैं कैसे कह सकता हूँ कि यह प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार है? मुख्य रूप से यह ''स्वयं'' ही एक प्रतिज्ञप्ति, एक हिन्दी वाक्य है, क्योंकि इसमें एक विषय एवं एक विधेय है। किन्तु इस वाक्य का प्रयोग हमारे दैनिक जीवन में कैसे किया जाता है? क्योंकि वह मुझे वहीं से मिला है, कहीं और से नहीं।
{{ParPU|134}} आइए हम इस प्रतिज्ञप्ति का परीक्षण करें&nbsp;: “पदार्थ ऐसे होते हैं।” — मैं कैसे कह सकता हूँ कि यह प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार है? मुख्य रूप से यह ''स्वयं'' ही एक प्रतिज्ञप्ति, एक हिन्दी वाक्य है, क्योंकि इसमें एक विषय एवं एक विधेय है। किन्तु इस वाक्य का प्रयोग हमारे दैनिक जीवन में कैसे किया जाता है? क्योंकि वह मुझे वहीं से मिला है, कहीं और से नहीं।


उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं: "उसने मुझे अपनी स्थिति बतलाई, अपनी कठिनाई बतलाई और यह कहा कि इसीलिए उसे पेशगी की जरूरत थी।" अब तो यह कहा जा सकता है कि वाक्य किसी अन्य कथन का पर्याय है। इसका प्रतिज्ञप्ति सम्बन्धी आकृति-कल्प के समान प्रयोग करने का कारण केवल यह है कि इसकी संरचना हिन्दी वाक्य वाली है। विकल्प में यह कहना सम्भव है कि "अमुक-अमुक स्थिति है", "यह स्थिति है", और तथावत्। यहाँ पर प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र में होने वाले प्रयोग के समान मात्र एक अक्षर, एक चर, का प्रयोग भी सम्भव है। किन्तु कोई भी "प" अक्षर को प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार नहीं कहेगा। यानी "पदार्थ ऐसे होते हैं" उसकी इस स्थिति का कारण हिन्दी का वाक्य होना है। पर यद्यपि यह एक प्रतिज्ञप्ति है, तो भी यह वाक्य प्रतिज्ञप्ति सम्बन्धी चर के समान प्रयुक्त होता है। यह कहना, कि यह प्रतिज्ञप्ति वास्तविकता के अनुरूप (अथवा उसके अनुरूप नहीं है, तो स्पष्टतः कोरी बकवास होगी। अतः इससे पता चलता है कि ''प्रतिज्ञप्ति के समान प्रतीत होना'' तो प्रतिज्ञप्ति के हमारे प्रत्यय का ''एक'' लक्षण है।
उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं: “उसने मुझे अपनी स्थिति बतलाई, अपनी कठिनाई बतलाई और यह कहा कि इसीलिए उसे पेशगी की जरूरत थी।” अब तो यह कहा जा सकता है कि वाक्य किसी अन्य कथन का पर्याय है। इसका प्रतिज्ञप्ति सम्बन्धी आकृति-कल्प के समान प्रयोग करने का कारण केवल यह है कि इसकी संरचना हिन्दी वाक्य वाली है। विकल्प में यह कहना सम्भव है कि “अमुक-अमुक स्थिति है”, “यह स्थिति है”, और तथावत्। यहाँ पर प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र में होने वाले प्रयोग के समान मात्र एक अक्षर, एक चर, का प्रयोग भी सम्भव है। किन्तु कोई भी “प” अक्षर को प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार नहीं कहेगा। यानी “पदार्थ ऐसे होते हैं” उसकी इस स्थिति का कारण हिन्दी का वाक्य होना है। पर यद्यपि यह एक प्रतिज्ञप्ति है, तो भी यह वाक्य प्रतिज्ञप्ति सम्बन्धी चर के समान प्रयुक्त होता है। यह कहना, कि यह प्रतिज्ञप्ति वास्तविकता के अनुरूप (अथवा उसके अनुरूप नहीं है, तो स्पष्टतः कोरी बकवास होगी। अतः इससे पता चलता है कि ''प्रतिज्ञप्ति के समान प्रतीत होना'' तो प्रतिज्ञप्ति के हमारे प्रत्यय का ''एक'' लक्षण है।


{{ParPU|135}} किन्तु हमारे पास प्रतिज्ञप्ति क्या होती है, "प्रतिज्ञप्ति" से हम क्या समझते हैं — इनका क्या कोई प्रत्यय नहीं होता? — हाँ, उसी तरह जैसे कि हमारे पास "खेल" से हमारा क्या अर्थ है इस का प्रत्यय होता है। प्रतिज्ञप्ति क्या होती है यह पूछे जाने पर — चाहे इसका उत्तर हमें किसी अन्य व्यक्ति को अथवा अपने आप को देना हो — हम उदाहरण देंगे, और इनमें आगमनात्मक विधि से परिभाषित की जाने वाली प्रतिज्ञप्तियों की श्रृंखला भी होगी। इस प्रकार के ढंग से ही हम 'प्रतिज्ञप्ति' जैसे प्रत्यय को जानते हैं। (प्रतिज्ञप्ति के प्रत्यय की, अंक के प्रत्यय से तुलना कीजिए।)
{{ParPU|135}} किन्तु हमारे पास प्रतिज्ञप्ति क्या होती है, “प्रतिज्ञप्ति” से हम क्या समझते हैं — इनका क्या कोई प्रत्यय नहीं होता? — हाँ, उसी तरह जैसे कि हमारे पास “खेल” से हमारा क्या अर्थ है इस का प्रत्यय होता है। प्रतिज्ञप्ति क्या होती है यह पूछे जाने पर — चाहे इसका उत्तर हमें किसी अन्य व्यक्ति को अथवा अपने आप को देना हो — हम उदाहरण देंगे, और इनमें आगमनात्मक विधि से परिभाषित की जाने वाली प्रतिज्ञप्तियों की श्रृंखला भी होगी। इस प्रकार के ढंग से ही हम 'प्रतिज्ञप्ति' जैसे प्रत्यय को जानते हैं। (प्रतिज्ञप्ति के प्रत्यय की, अंक के प्रत्यय से तुलना कीजिए।)


{{ParPU|136}} अंतत&nbsp;: "पदार्थ ऐसे होते हैं" इसको प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार कहना
{{ParPU|136}} अंतत&nbsp;: “पदार्थ ऐसे होते हैं” इसको प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार कहना


यह परिभाषा देने के समान है कि जो भी सत्य अथवा असत्य हो सकती है वह प्रतिज्ञप्ति है। क्योंकि "पदार्थ ऐसे होते हैं" के बदले मैं कह सकता था "यह सत्य है"। (या फिर "यह असत्य है"।) किन्तु हमारे लिए&nbsp;:
यह परिभाषा देने के समान है कि जो भी सत्य अथवा असत्य हो सकती है वह प्रतिज्ञप्ति है। क्योंकि “पदार्थ ऐसे होते हैं” के बदले मैं कह सकता था “यह सत्य है”। (या फिर “यह असत्य है”।) किन्तु हमारे लिए&nbsp;:


‘'''प'''’ सत्य है = '''प'''
‘'''प'''’ सत्य है = '''प'''
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अब ऐसा प्रतीत होता है मानो — जो भी सत्य अथवा असत्य हो सकता है प्रतिज्ञप्ति होता है — इस परिभाषा ने प्रतिज्ञप्ति का निर्धारण यह कह कर किया&nbsp;: जो 'सत्य' के प्रत्यय के अनुकूल है, अथवा 'सत्य' का प्रत्यय जिसके अनुकूल होता है उसे प्रतिज्ञप्ति कहते हैं। यानी यह तो ऐसा ही हुआ जैसे हमारे पास सत्य अथवा असत्य का प्रत्यय था जिसे हम प्रतिज्ञप्ति क्या है अथवा क्या नहीं है इसका निर्धारण करने के लिए प्रयोग कर सकते थे। जो (दांतेदार पहिये के समान) सत्य के प्रत्यय के साथ ''सम्बद्ध'' हो जाता है, वही प्रतिज्ञप्ति कहलाता है।
अब ऐसा प्रतीत होता है मानो — जो भी सत्य अथवा असत्य हो सकता है प्रतिज्ञप्ति होता है — इस परिभाषा ने प्रतिज्ञप्ति का निर्धारण यह कह कर किया&nbsp;: जो 'सत्य' के प्रत्यय के अनुकूल है, अथवा 'सत्य' का प्रत्यय जिसके अनुकूल होता है उसे प्रतिज्ञप्ति कहते हैं। यानी यह तो ऐसा ही हुआ जैसे हमारे पास सत्य अथवा असत्य का प्रत्यय था जिसे हम प्रतिज्ञप्ति क्या है अथवा क्या नहीं है इसका निर्धारण करने के लिए प्रयोग कर सकते थे। जो (दांतेदार पहिये के समान) सत्य के प्रत्यय के साथ ''सम्बद्ध'' हो जाता है, वही प्रतिज्ञप्ति कहलाता है।


किन्तु यह कोई अच्छी तस्वीर नहीं है। यह तो ऐसा हुआ जैसे शतरंज में राजा "वह मोहरा होता है जिसे शह दी जा सके।" किन्तु इसका अर्थ केवल यही हुआ कि शतरंज के खेल में हम केवल राजा को ही शह दे सकते हैं। उसी प्रकार यह प्रतिज्ञप्ति कि केवल ''प्रतिज्ञप्ति'' ही सत्य अथवा असत्य हो सकती है, का अर्थ इससे अधिक कुछ नहीं हो सकता कि केवल प्रतिज्ञप्ति कहलाने वाले विषय के लिए ही हम "सत्य" अथवा "असत्य" का विधान करते हैं। और प्रतिज्ञप्ति क्या होती है इसका निर्धारण एक अर्थ में तो वाक्य-रचना के नियमों (उदाहरणार्थ, हिन्दी भाषा के नियमों) द्वारा होता है, और एक अन्य अर्थ में भाषा-खेल में संकेतों के प्रयोग द्वारा भी। और "सत्य" एवं "असत्य" शब्दों का प्रयोग तो इस भाषा के संघटक भागों में से एक भाग हो सकता है; और यदि ऐसा है तो यह 'प्रतिज्ञप्ति' के हमारे प्रत्यय से सम्बन्धित तो है किन्तु उसके ‘''अनुकूल''’ नहीं है। जैसे हम कह सकते हैं कि शह देना शतरंज के राजा के हमारे प्रत्यय से सम्बन्धित है ( मानो वह उसका संघटक भाग हो)। शह देना प्यादों के हमारे प्रत्यय के ''अनुकूल'' नहीं है ऐसा कहने का अर्थ होगा कि ऐसा खेल जिसमें प्यादों को शह दी जाती हो, जिसमें अपने प्यादों को खो देने वाले खिलाड़ी हार जाते हों, अरुचिकर अथवा, मूर्खतापूर्ण, अथवा अत्यधिक जटिल, अथवा कुछ इसी प्रकार का होगा।
किन्तु यह कोई अच्छी तस्वीर नहीं है। यह तो ऐसा हुआ जैसे शतरंज में राजा “वह मोहरा होता है जिसे शह दी जा सके।” किन्तु इसका अर्थ केवल यही हुआ कि शतरंज के खेल में हम केवल राजा को ही शह दे सकते हैं। उसी प्रकार यह प्रतिज्ञप्ति कि केवल ''प्रतिज्ञप्ति'' ही सत्य अथवा असत्य हो सकती है, का अर्थ इससे अधिक कुछ नहीं हो सकता कि केवल प्रतिज्ञप्ति कहलाने वाले विषय के लिए ही हम “सत्य” अथवा “असत्य” का विधान करते हैं। और प्रतिज्ञप्ति क्या होती है इसका निर्धारण एक अर्थ में तो वाक्य-रचना के नियमों (उदाहरणार्थ, हिन्दी भाषा के नियमों) द्वारा होता है, और एक अन्य अर्थ में भाषा-खेल में संकेतों के प्रयोग द्वारा भी। और “सत्य” एवं “असत्य” शब्दों का प्रयोग तो इस भाषा के संघटक भागों में से एक भाग हो सकता है; और यदि ऐसा है तो यह 'प्रतिज्ञप्ति' के हमारे प्रत्यय से सम्बन्धित तो है किन्तु उसके ‘''अनुकूल''’ नहीं है। जैसे हम कह सकते हैं कि शह देना शतरंज के राजा के हमारे प्रत्यय से सम्बन्धित है ( मानो वह उसका संघटक भाग हो)। शह देना प्यादों के हमारे प्रत्यय के ''अनुकूल'' नहीं है ऐसा कहने का अर्थ होगा कि ऐसा खेल जिसमें प्यादों को शह दी जाती हो, जिसमें अपने प्यादों को खो देने वाले खिलाड़ी हार जाते हों, अरुचिकर अथवा, मूर्खतापूर्ण, अथवा अत्यधिक जटिल, अथवा कुछ इसी प्रकार का होगा।


{{ParPU|137}} "क्यों अथवा क्या....?" प्रश्न द्वारा वाक्य के विषय को जानना सीखने के बारे में क्या कहें? — निश्चित रूप से यहाँ विषय का इस प्रश्न के 'अनुकूल' होने जैसा कुछ है; क्योंकि अन्यथा हमें प्रश्न द्वारा विषय क्या था इसका पता कैसे चलेगा? हमें इसका पता उसी प्रकार से चलता है जैसे हमें 'र' अक्षर के बाद कौन सा अक्षर आता है इस का पता 'र' अक्षर तक वर्णमाला के अक्षरों को याद करने पर चलता है। अब 'ल' शब्द किस अर्थ में इस अक्षर-श्रृंखला में फिट बैठता है। उसी अर्थ में "सत्य" एवं "असत्य" को प्रतिज्ञप्तियों के अनुकूल कहा जा सकता है; और शिशु को प्रतिज्ञप्तियों एवं अन्य अभिव्यक्तियों में भेद करना यह कहकर सिखाया जा सकता है "स्वयं से पूछो कि क्या तुम इसके पश्चात् 'सत्य है' कह सकते हो। यदि ये शब्द ऐसा कह सकने के अनुकूल हैं तो यह प्रतिज्ञप्ति है।" (और इसी प्रकार कहा जा सकता है कि स्वयं से पूछो कि क्या तुम “पदार्थ ''ऐसे'' होते हैं:" इन शब्दों को प्रतिज्ञप्ति के पहले रख सकते हो।)
{{ParPU|137}} “क्यों अथवा क्या....?प्रश्न द्वारा वाक्य के विषय को जानना सीखने के बारे में क्या कहें? — निश्चित रूप से यहाँ विषय का इस प्रश्न के 'अनुकूल' होने जैसा कुछ है; क्योंकि अन्यथा हमें प्रश्न द्वारा विषय क्या था इसका पता कैसे चलेगा? हमें इसका पता उसी प्रकार से चलता है जैसे हमें 'र' अक्षर के बाद कौन सा अक्षर आता है इस का पता 'र' अक्षर तक वर्णमाला के अक्षरों को याद करने पर चलता है। अब 'ल' शब्द किस अर्थ में इस अक्षर-श्रृंखला में फिट बैठता है। उसी अर्थ में “सत्य” एवं “असत्य” को प्रतिज्ञप्तियों के अनुकूल कहा जा सकता है; और शिशु को प्रतिज्ञप्तियों एवं अन्य अभिव्यक्तियों में भेद करना यह कहकर सिखाया जा सकता है “स्वयं से पूछो कि क्या तुम इसके पश्चात् 'सत्य है' कह सकते हो। यदि ये शब्द ऐसा कह सकने के अनुकूल हैं तो यह प्रतिज्ञप्ति है।” (और इसी प्रकार कहा जा सकता है कि स्वयं से पूछो कि क्या तुम “पदार्थ ''ऐसे'' होते हैं:" इन शब्दों को प्रतिज्ञप्ति के पहले रख सकते हो।)


{{ParPU|138}} किन्तु क्या मुझे समझ आने वाले शब्द का अर्थ मुझे समझ आने वाले वाक्य के अर्थ के अनुकूल नहीं हो सकता? अथवा एक शब्द का अर्थ दूसरे के अनुकूल नहीं हो सकता? — बेशक, यदि अर्थ हमारे द्वारा किये गये शब्द का ''प्रयोग'' है तो ऐसी 'अनुकूलता' के उल्लेख का कोई अर्थ ही नहीं होता। किन्तु जब हम शब्द को सुनते अथवा कहते हैं तो हम अर्थ को समझते हैं; हम उसे एकाएक ग्रहण कर लेते हैं, और इस प्रकार जिसे हम ग्रहण करते हैं उसे तो काल के परिमाण में होने वाले प्रयोग से भिन्न होना चाहिए !
{{ParPU|138}} किन्तु क्या मुझे समझ आने वाले शब्द का अर्थ मुझे समझ आने वाले वाक्य के अर्थ के अनुकूल नहीं हो सकता? अथवा एक शब्द का अर्थ दूसरे के अनुकूल नहीं हो सकता? — बेशक, यदि अर्थ हमारे द्वारा किये गये शब्द का ''प्रयोग'' है तो ऐसी 'अनुकूलता' के उल्लेख का कोई अर्थ ही नहीं होता। किन्तु जब हम शब्द को सुनते अथवा कहते हैं तो हम अर्थ को समझते हैं; हम उसे एकाएक ग्रहण कर लेते हैं, और इस प्रकार जिसे हम ग्रहण करते हैं उसे तो काल के परिमाण में होने वाले प्रयोग से भिन्न होना चाहिए !


{{PU box|क्या मुझे यह ''विदित'' होना चाहिए कि मैं शब्द को समझता हूँ? कभी-कभी क्या मैं शब्द को समझने की कल्पना नहीं करता। (जैसे मैं एक प्रकार के परिकलन को समझने की कल्पना कर सकता हूँ) और फिर अनुभव करता हूँ कि मैं उसे नहीं समझता? ("मैं समझता था कि मुझे 'सापेक्ष' एवं 'निरपेक्ष' गति के अर्थ का ज्ञान है, किन्तु मैं पाता हूँ कि मुझे उसका ज्ञान नहीं है।")}}
{{PU box|क्या मुझे यह ''विदित'' होना चाहिए कि मैं शब्द को समझता हूँ? कभी-कभी क्या मैं शब्द को समझने की कल्पना नहीं करता। (जैसे मैं एक प्रकार के परिकलन को समझने की कल्पना कर सकता हूँ) और फिर अनुभव करता हूँ कि मैं उसे नहीं समझता? (“मैं समझता था कि मुझे 'सापेक्ष' एवं 'निरपेक्ष' गति के अर्थ का ज्ञान है, किन्तु मैं पाता हूँ कि मुझे उसका ज्ञान नहीं है।”)}}


{{ParPU|139}} उदाहरणार्थ, जब कोई मेरे सामने "घन" शब्द का उल्लेख करता है तो मैं जानता हूँ कि इसका क्या अर्थ है। किन्तु जब मैं उसे इस ढंग से ''समझता'' हूँ तो क्या उस शब्द के सम्पूर्ण ''प्रयोग'' मेरे समक्ष आ जाते हैं?
{{ParPU|139}} उदाहरणार्थ, जब कोई मेरे सामने “घन” शब्द का उल्लेख करता है तो मैं जानता हूँ कि इसका क्या अर्थ है। किन्तु जब मैं उसे इस ढंग से ''समझता'' हूँ तो क्या उस शब्द के सम्पूर्ण ''प्रयोग'' मेरे समक्ष आ जाते हैं?


किन्तु दूसरी ओर क्या शब्द का अर्थ निर्धारित करने के इन ढंगों में कोई विरोध नहीं हो सकता? क्या जिसे हम ''यकायक'' ग्रहण करते हैं उसका किसी प्रयोग से तालमेल हो सकता है, — क्या वह उसके अनुकूल है अथवा उसके प्रतिकूल ? और जो क्षण-भर में हमारे समक्ष, हमारे मन के समक्ष आ जाता है, वह किसी ''प्रयोग'' के अनुकूल कैसे हो सकता है?
किन्तु दूसरी ओर क्या शब्द का अर्थ निर्धारित करने के इन ढंगों में कोई विरोध नहीं हो सकता? क्या जिसे हम ''यकायक'' ग्रहण करते हैं उसका किसी प्रयोग से तालमेल हो सकता है, — क्या वह उसके अनुकूल है अथवा उसके प्रतिकूल ? और जो क्षण-भर में हमारे समक्ष, हमारे मन के समक्ष आ जाता है, वह किसी ''प्रयोग'' के अनुकूल कैसे हो सकता है?
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जब हम किसी शब्द को ''समझते'' हैं तो हमारे मन के समक्ष क्या आता है? — क्या वह चित्र जैसा ही कुछ नहीं होता? क्या वह चित्र नहीं हो ''सकता''?
जब हम किसी शब्द को ''समझते'' हैं तो हमारे मन के समक्ष क्या आता है? — क्या वह चित्र जैसा ही कुछ नहीं होता? क्या वह चित्र नहीं हो ''सकता''?


हाँ तो मान लें कि जब आप "घन" शब्द सुनते हैं तो आपके मन के समक्ष एक चित्र, यानी किसी घन का रेखांकन, आता ही है। किन अर्थों में यह चित्र "घन" शब्द प्रयोग के अनुकूल अथवा प्रतिकूल हो सकता है। — सम्भवतः आप कहें&nbsp;: "यह तो नितान्त सरल है; — यदि मेरे ध्यान में वह चित्र आता है और उदाहरणार्थ, मैं एक तिकोने प्रिज्म को इंगित करता हूँ और कहता हूँ कि वह एक घन है, तो इस शब्द का यह प्रयोग चित्र के अनुकूल नहीं होता।" — किन्तु क्या यह अनुकूल नहीं है? मैंने जानबूझ
हाँ तो मान लें कि जब आप “घन” शब्द सुनते हैं तो आपके मन के समक्ष एक चित्र, यानी किसी घन का रेखांकन, आता ही है। किन अर्थों में यह चित्र “घन” शब्द प्रयोग के अनुकूल अथवा प्रतिकूल हो सकता है। — सम्भवतः आप कहें&nbsp;: “यह तो नितान्त सरल है; — यदि मेरे ध्यान में वह चित्र आता है और उदाहरणार्थ, मैं एक तिकोने प्रिज्म को इंगित करता हूँ और कहता हूँ कि वह एक घन है, तो इस शब्द का यह प्रयोग चित्र के अनुकूल नहीं होता।” — किन्तु क्या यह अनुकूल नहीं है? मैंने जानबूझ


कर ऐसा उदाहरण चुना है ताकि ''प्रक्षेपण की ऐसी पद्धति'' — जिसके अनुसार अन्ततः चित्र अनुकूल हो जाता है — की कल्पना नितान्त सुगम हो जाये।
कर ऐसा उदाहरण चुना है ताकि ''प्रक्षेपण की ऐसी पद्धति'' — जिसके अनुसार अन्ततः चित्र अनुकूल हो जाता है — की कल्पना नितान्त सुगम हो जाये।
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वास्तव में घन का चित्र एक विशेष प्रयोग सुझाता है, किन्तु मैं उसका प्रयोग विभिन्न ढंगों से कर सकता था।
वास्तव में घन का चित्र एक विशेष प्रयोग सुझाता है, किन्तु मैं उसका प्रयोग विभिन्न ढंगों से कर सकता था।


{{PU box|(क) "इस स्थिति में मेरा विश्वास है कि... उचित शब्द है"। क्या यह नहीं दर्शाता कि शब्द का अर्थ वह है जो हमारे मन के समक्ष आता है, जो कि, मानो एक निश्चित चित्र है जिसे यहाँ हम प्रयोग करना चाहते हैं? मान लीजिए मुझे "प्रभावशाली", "अभिजात", "गौरवान्वित", "श्रद्धेय" शब्दों में चुनाव करना है; क्या यह पोर्टफोलियो में से किसी एक चित्र को चुनने के समान नहीं है? — नहीं; हम ''उचित'' शब्द का प्रयोग करते हैं इस तथ्य से यह ''पता'' नहीं लगता कि उस प्रकार के विषय का कोई अस्तित्व है। क्योंकि हमें कोई शब्द उचित शब्द लगता है; क्योंकि हम मिलते-जुलते किन्तु असमान चित्रों में चुनाव के समान शब्दों का चुनाव करते हैं; क्योंकि हम बहुधा शब्दों के स्थान पर चित्रों का प्रयोग करते हैं, अथवा शब्दों का उदाहरण देने के लिए चित्रों का प्रयोग करते हैं एवं इसी प्रकार की अन्य क्रियाएं करते हैं, इसीलिए हम चित्र के समान विषय का उल्लेख करने को प्रवृत्त होते हैं।
{{PU box|(क) “इस स्थिति में मेरा विश्वास है कि... उचित शब्द है”। क्या यह नहीं दर्शाता कि शब्द का अर्थ वह है जो हमारे मन के समक्ष आता है, जो कि, मानो एक निश्चित चित्र है जिसे यहाँ हम प्रयोग करना चाहते हैं? मान लीजिए मुझे “प्रभावशाली”, “अभिजात”, “गौरवान्वित”, “श्रद्धेय” शब्दों में चुनाव करना है; क्या यह पोर्टफोलियो में से किसी एक चित्र को चुनने के समान नहीं है? — नहीं; हम ''उचित'' शब्द का प्रयोग करते हैं इस तथ्य से यह ''पता'' नहीं लगता कि उस प्रकार के विषय का कोई अस्तित्व है। क्योंकि हमें कोई शब्द उचित शब्द लगता है; क्योंकि हम मिलते-जुलते किन्तु असमान चित्रों में चुनाव के समान शब्दों का चुनाव करते हैं; क्योंकि हम बहुधा शब्दों के स्थान पर चित्रों का प्रयोग करते हैं, अथवा शब्दों का उदाहरण देने के लिए चित्रों का प्रयोग करते हैं एवं इसी प्रकार की अन्य क्रियाएं करते हैं, इसीलिए हम चित्र के समान विषय का उल्लेख करने को प्रवृत्त होते हैं।


(ख) मैं एक चित्र देखता हूँ; जिसमें छड़ी पर झुके एक वृद्ध व्यक्ति को दुर्गम मार्ग पर चलते हुए दिखाया गया है। — कैसे? क्या वह बिल्कुल वैसा ही नहीं दिखता यदि वह उस स्थिति में नीचे फिसल रहा होता? सम्भवतः कोई मंगलग्रहवासी चित्र की ऐसी ही व्याख्या करे। ''हम'' उसका विवरण ऐसे क्यों नहीं देते यह व्याख्या करना मेरे लिए आवश्यक नहीं है।}}
(ख) मैं एक चित्र देखता हूँ; जिसमें छड़ी पर झुके एक वृद्ध व्यक्ति को दुर्गम मार्ग पर चलते हुए दिखाया गया है। — कैसे? क्या वह बिल्कुल वैसा ही नहीं दिखता यदि वह उस स्थिति में नीचे फिसल रहा होता? सम्भवतः कोई मंगलग्रहवासी चित्र की ऐसी ही व्याख्या करे। ''हम'' उसका विवरण ऐसे क्यों नहीं देते यह व्याख्या करना मेरे लिए आवश्यक नहीं है।}}
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{{ParPU|140}} तो मैंने किस प्रकार की भूल की; क्या हम उसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार करेंगे&nbsp;: मुझे यह समझना चाहिए था कि चित्र ने मुझपर एक विशेष प्रयोग आरोपित किया? मैं यह कैसे समझ सकता था? मैंने क्या ''समझा''? क्या चित्र जैसी कोई वस्तु होती है, अथवा चित्र के समान कुछ होता है जो हम पर एक विशेष प्रयोग आरोपित करता है; यानी मेरी भूल का कारण तो मेरे द्वारा एक चित्र को किसी अन्य चित्र के समान समझ लेना था? — क्योंकि हम ऐसा भी कह सकते हैं: हमें तार्किक मजबूरी की बजाय ज्यादा से ज्यादा मनोवैज्ञानिक मजबूरी ही है। और अब हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो हमें स्थिति के दो प्रकारों का ज्ञान हो।
{{ParPU|140}} तो मैंने किस प्रकार की भूल की; क्या हम उसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार करेंगे&nbsp;: मुझे यह समझना चाहिए था कि चित्र ने मुझपर एक विशेष प्रयोग आरोपित किया? मैं यह कैसे समझ सकता था? मैंने क्या ''समझा''? क्या चित्र जैसी कोई वस्तु होती है, अथवा चित्र के समान कुछ होता है जो हम पर एक विशेष प्रयोग आरोपित करता है; यानी मेरी भूल का कारण तो मेरे द्वारा एक चित्र को किसी अन्य चित्र के समान समझ लेना था? — क्योंकि हम ऐसा भी कह सकते हैं: हमें तार्किक मजबूरी की बजाय ज्यादा से ज्यादा मनोवैज्ञानिक मजबूरी ही है। और अब हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो हमें स्थिति के दो प्रकारों का ज्ञान हो।


मेरे तर्क का परिणाम क्या था? उसने हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया (हमें याद दिलाया) कि आरम्भ में जिस प्रक्रिया के बारे में हमने सोचा था, उससे भिन्न कई अन्य प्रतिक्रियाएं भी होती हैं जिन्हें हमें "घन के चित्र का प्रयोग" कहने को तत्पर रहना चाहिए। अतः हमारा 'विश्वास कि चित्र ने हम पर एक विशेष प्रयोग आरोपित किया' इस तथ्य में निहित है कि हमें केवल एक ही बात सूझी। "कोई अन्य समाधान भी होता है" इसका अर्थ है: मैं किसी अन्य को भी "समाधान" कहने के लिए तत्पर हूँ; जिसके लिए मैं अमुक-अमुक चित्र अमुक-अमुक उपमा आदि का प्रयोग करने के लिए तैयार हूँ।
मेरे तर्क का परिणाम क्या था? उसने हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया (हमें याद दिलाया) कि आरम्भ में जिस प्रक्रिया के बारे में हमने सोचा था, उससे भिन्न कई अन्य प्रतिक्रियाएं भी होती हैं जिन्हें हमें “घन के चित्र का प्रयोग” कहने को तत्पर रहना चाहिए। अतः हमारा 'विश्वास कि चित्र ने हम पर एक विशेष प्रयोग आरोपित किया' इस तथ्य में निहित है कि हमें केवल एक ही बात सूझी। “कोई अन्य समाधान भी होता है” इसका अर्थ है: मैं किसी अन्य को भी “समाधान” कहने के लिए तत्पर हूँ; जिसके लिए मैं अमुक-अमुक चित्र अमुक-अमुक उपमा आदि का प्रयोग करने के लिए तैयार हूँ।


आवश्यक तो यह समझना है कि जब हम शब्द चुनते हैं तो हमारे मन के समक्ष एक ही विषय आ सकता है, किन्तु फिर भी उस शब्द के प्रयोग भिन्न हो सकते हैं। क्या दोनों बार उसका ''एक-ही'' अर्थ होता है? मैं समझता हूँ कि हम कहेंगे, नहीं।
आवश्यक तो यह समझना है कि जब हम शब्द चुनते हैं तो हमारे मन के समक्ष एक ही विषय आ सकता है, किन्तु फिर भी उस शब्द के प्रयोग भिन्न हो सकते हैं। क्या दोनों बार उसका ''एक-ही'' अर्थ होता है? मैं समझता हूँ कि हम कहेंगे, नहीं।
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{{ParPU|143}} आइए अब हम निम्नलिखित प्रकार के भाषा-खेल का परीक्षण करें&nbsp;: जब क आदेश दे तो ख को एक विशिष्ट संरचना-नियमावली के अनुसार संकेत-श्रृंखला लिखनी पड़ेगी।
{{ParPU|143}} आइए अब हम निम्नलिखित प्रकार के भाषा-खेल का परीक्षण करें&nbsp;: जब क आदेश दे तो ख को एक विशिष्ट संरचना-नियमावली के अनुसार संकेत-श्रृंखला लिखनी पड़ेगी।


इनमें से प्रथम श्रृंखला दशमलव अंकन पद्धति के घन पूर्णांकों की है। — वह इस अंकन-पद्धति को कैसे समझता है? — सर्वप्रथम उसके लिए अंकों की श्रृंखला को लिखा जाएगा और उनकी नकल करनी होगी। ("अंकों की शृंखला" इस अभिव्यक्ति पर अचकचाने की आवश्यकता नहीं है; यहाँ इसका प्रयोग अनुचित नहीं है।) और यहाँ पर पहले से ही सामान्य एवं असामान्य शिक्षार्थी की प्रतिक्रिया होती है। — सम्भवतः, सर्वप्रथम हम उसका हाथ पकड़ कर 0 से 9 श्रृंखला लिखने में मदद करते हैं; परन्तु फिर ''उसकी समझ में आने की सम्भावना'' इस बात पर निर्भर करती है कि वह बिना किसी सहायता के लिखता चला जाये। — और यहाँ हम कल्पना कर सकते हैं कि वह अपने-आप अंकों की नकल तो करता है, किन्तु उनके उचित क्रम में नहीं; वह अपनी मनमर्जी से कभी एक और कभी किसी अन्य अंक को लिखता है। और ''उस'' बिन्दु पर संवाद थम जाता है। अथवा पुनः, वह क्रम में ‘''त्रुटियां''’ करता है। बेशक, इसमें और प्रथम स्थिति में मात्र आवृत्ति का अन्तर है। — अथवा वह ''नियमित'' गलती करता है; उदाहरणार्थ वह एक अंक छोड़कर दूसरे अंक को नकल करता है, यानी वह 0, 1, 2, 3, 4, 5.... श्रृंखला की इस प्रकार नकल करता है: 1, 0, 3, 2, 5, 4....। यहाँ हम यह कहना चाहेंगे कि उसने ''गलत'' समझा है।
इनमें से प्रथम श्रृंखला दशमलव अंकन पद्धति के घन पूर्णांकों की है। — वह इस अंकन-पद्धति को कैसे समझता है? — सर्वप्रथम उसके लिए अंकों की श्रृंखला को लिखा जाएगा और उनकी नकल करनी होगी। (“अंकों की शृंखला” इस अभिव्यक्ति पर अचकचाने की आवश्यकता नहीं है; यहाँ इसका प्रयोग अनुचित नहीं है।) और यहाँ पर पहले से ही सामान्य एवं असामान्य शिक्षार्थी की प्रतिक्रिया होती है। — सम्भवतः, सर्वप्रथम हम उसका हाथ पकड़ कर 0 से 9 श्रृंखला लिखने में मदद करते हैं; परन्तु फिर ''उसकी समझ में आने की सम्भावना'' इस बात पर निर्भर करती है कि वह बिना किसी सहायता के लिखता चला जाये। — और यहाँ हम कल्पना कर सकते हैं कि वह अपने-आप अंकों की नकल तो करता है, किन्तु उनके उचित क्रम में नहीं; वह अपनी मनमर्जी से कभी एक और कभी किसी अन्य अंक को लिखता है। और ''उस'' बिन्दु पर संवाद थम जाता है। अथवा पुनः, वह क्रम में ‘''त्रुटियां''’ करता है। बेशक, इसमें और प्रथम स्थिति में मात्र आवृत्ति का अन्तर है। — अथवा वह ''नियमित'' गलती करता है; उदाहरणार्थ वह एक अंक छोड़कर दूसरे अंक को नकल करता है, यानी वह 0, 1, 2, 3, 4, 5.... श्रृंखला की इस प्रकार नकल करता है: 1, 0, 3, 2, 5, 4....। यहाँ हम यह कहना चाहेंगे कि उसने ''गलत'' समझा है।


बहरहाल गौर कीजिए कि मनमानी त्रुटि और नियमित त्रुटि में स्पष्ट भेद नहीं है। यानी उनमें जिन्हें आप "मनमानी" और "नियमित" त्रुटि कहना चाहते हैं।
बहरहाल गौर कीजिए कि मनमानी त्रुटि और नियमित त्रुटि में स्पष्ट भेद नहीं है। यानी उनमें जिन्हें आप “मनमानी” और “नियमित” त्रुटि कहना चाहते हैं।


यह सम्भव है कि उसे नियमित त्रुटि से प्रयत्नपूर्वक बचाया जा सके (जैसे किसी गंदी आदत से किसी को बचाया जाता है)। अथवा सम्भवतः हम उसके नकल करने के ढंग को स्वीकार कर लें और उसे अपना ढंग उसके ढंग से व्युत्पन्न ढंग के समान, उसके ढंग के परिवर्तित ढंग के रूप में सिखाने का प्रयत्न करें। — और यहाँ भी हमारे शिष्य के सीखने की क्षमता समाप्त हो सकती है।
यह सम्भव है कि उसे नियमित त्रुटि से प्रयत्नपूर्वक बचाया जा सके (जैसे किसी गंदी आदत से किसी को बचाया जाता है)। अथवा सम्भवतः हम उसके नकल करने के ढंग को स्वीकार कर लें और उसे अपना ढंग उसके ढंग से व्युत्पन्न ढंग के समान, उसके ढंग के परिवर्तित ढंग के रूप में सिखाने का प्रयत्न करें। — और यहाँ भी हमारे शिष्य के सीखने की क्षमता समाप्त हो सकती है।


{{ParPU|144}} "यहाँ शिष्य के सीखने की क्षमता ''समाप्त हो सकती'' है" यह कहने से मेरा क्या तात्पर्य है? क्या मैं ऐसा अपने अनुभव से कहता हूँ? बेशक नहीं। (चाहे मुझे ऐसा अनुभव हुआ भी हो।) तो, मैं उस प्रतिज्ञप्ति का क्या कर रहा हूँ? बेशक, मैं चाहता हूँ कि आप कहें&nbsp;: "हाँ यह सत्य है, आप इसकी कल्पना भी कर सकते हैं, ऐसा हो भी सकता है!" — किन्तु क्या मैं इस तथ्य की ओर किसी का ध्यान दिलाना चाहता था कि उसमें यह क्षमता है कि वह इसकी कल्पना कर सके? — मैं उस चित्र को उसके समक्ष रखना चाहता था, और चित्र की उसकी ''समझ'' उस प्रदत्त स्थिति को भिन्न प्रकार से समझ सकने में निहित है: यानी इस स्थिति की तुलना चित्रों के ''इस'' समूह से, न कि ''उस'' समूह से कर सकने में। मैंने ''विषयों सम्बन्धी उसकी दृष्टि'' में परिवर्तन कर दिया है। (भारतीय गणितज्ञ&nbsp;: "इस पर विचार करें")
{{ParPU|144}} “यहाँ शिष्य के सीखने की क्षमता ''समाप्त हो सकती'' है” यह कहने से मेरा क्या तात्पर्य है? क्या मैं ऐसा अपने अनुभव से कहता हूँ? बेशक नहीं। (चाहे मुझे ऐसा अनुभव हुआ भी हो।) तो, मैं उस प्रतिज्ञप्ति का क्या कर रहा हूँ? बेशक, मैं चाहता हूँ कि आप कहें&nbsp;: “हाँ यह सत्य है, आप इसकी कल्पना भी कर सकते हैं, ऐसा हो भी सकता है!— किन्तु क्या मैं इस तथ्य की ओर किसी का ध्यान दिलाना चाहता था कि उसमें यह क्षमता है कि वह इसकी कल्पना कर सके? — मैं उस चित्र को उसके समक्ष रखना चाहता था, और चित्र की उसकी ''समझ'' उस प्रदत्त स्थिति को भिन्न प्रकार से समझ सकने में निहित है: यानी इस स्थिति की तुलना चित्रों के ''इस'' समूह से, न कि ''उस'' समूह से कर सकने में। मैंने ''विषयों सम्बन्धी उसकी दृष्टि'' में परिवर्तन कर दिया है। (भारतीय गणितज्ञ&nbsp;: “इस पर विचार करें”)


{{ParPU|145}} मान लीजिए अब शिष्य द्वारा 0 से 9 तक अंक-श्रृंखला लिखने से हम संतुष्ट हैं। — और यह संतुष्टि उसके बहुधा सफल होने पर ही होगी न कि उसके सौ बार में से एक बार ठीक होने पर। अब मैं श्रृंखला को आगे बढ़ाता हूँ और इकाई की प्रथम श्रृंखला में पुनरावृत्ति की ओर उसका ध्यान आकर्षित करता हूँ, और फिर दहाई की पुनरावृत्ति की ओर। (इसका अर्थ मात्र यह है कि मैं एक विशिष्ट बलाघात का प्रयोग करता हूँ, अंकों को रेखांकित करता उनको अमुक-अमुक ढंग से एक के बाद दूसरा अंक लिखता हूँ, और इस समान ही कुछ और करता हूँ।) — और अब कुछ समय बाद वह श्रृंखला को स्वाधीनतापूर्वक आगे बढ़ाता है — अथवा नहीं बढ़ाता। — किन्तु आप ऐसा क्यों कहते हैं? ''इतना'' तो स्पष्ट ही है! — बेशक; मैं तो यही कहना चाहता था&nbsp;: किसी भी आगामी ''व्याख्या'' का परिणाम तो शिक्षार्थी की ''प्रतिक्रिया'' पर निर्भर करता है।
{{ParPU|145}} मान लीजिए अब शिष्य द्वारा 0 से 9 तक अंक-श्रृंखला लिखने से हम संतुष्ट हैं। — और यह संतुष्टि उसके बहुधा सफल होने पर ही होगी न कि उसके सौ बार में से एक बार ठीक होने पर। अब मैं श्रृंखला को आगे बढ़ाता हूँ और इकाई की प्रथम श्रृंखला में पुनरावृत्ति की ओर उसका ध्यान आकर्षित करता हूँ, और फिर दहाई की पुनरावृत्ति की ओर। (इसका अर्थ मात्र यह है कि मैं एक विशिष्ट बलाघात का प्रयोग करता हूँ, अंकों को रेखांकित करता उनको अमुक-अमुक ढंग से एक के बाद दूसरा अंक लिखता हूँ, और इस समान ही कुछ और करता हूँ।) — और अब कुछ समय बाद वह श्रृंखला को स्वाधीनतापूर्वक आगे बढ़ाता है — अथवा नहीं बढ़ाता। — किन्तु आप ऐसा क्यों कहते हैं? ''इतना'' तो स्पष्ट ही है! — बेशक; मैं तो यही कहना चाहता था&nbsp;: किसी भी आगामी ''व्याख्या'' का परिणाम तो शिक्षार्थी की ''प्रतिक्रिया'' पर निर्भर करता है।
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को कहाँ तक बढ़ाना पड़ेगा ताकि हम ऐसा कह सकें? स्पष्ट है कि यहाँ आप कोई सीमा तय नहीं कर सकते।
को कहाँ तक बढ़ाना पड़ेगा ताकि हम ऐसा कह सकें? स्पष्ट है कि यहाँ आप कोई सीमा तय नहीं कर सकते।


{{ParPU|146}} मान लीजिए कि अब मैं पूछता हूँ&nbsp;: "जब वह सौवें स्थान तक श्रृंखला को आगे बढ़ाता है, क्या तब वह प्रणाली को समझ जाता है?" अथवा — क्या मुझे हमारी आदिम भाषा-खेल के सम्बन्ध में 'समझने' का उल्लेख ही नहीं करना चाहिए&nbsp;: यदि वह श्रृंखला को उचित रूप से यहाँ तक आगे बढ़ा लेता है, तो क्या वह प्रणाली को समझ जाता है? — सम्भवतः, यहाँ आप कहेंगे&nbsp;: प्रणाली को जानना (अथवा, फिर, उसे समझना) श्रृंखला को ''इस'' या ''उस'' संख्या तक आगे बढ़ाने में निहित नहीं हो सकता&nbsp;: ''वह'' तो अपनी समझ के प्रयोग में निहित है। समझना तो स्वयं ही एक स्थिति है जो उचित प्रयोग का स्रोत है।
{{ParPU|146}} मान लीजिए कि अब मैं पूछता हूँ&nbsp;: “जब वह सौवें स्थान तक श्रृंखला को आगे बढ़ाता है, क्या तब वह प्रणाली को समझ जाता है?अथवा — क्या मुझे हमारी आदिम भाषा-खेल के सम्बन्ध में 'समझने' का उल्लेख ही नहीं करना चाहिए&nbsp;: यदि वह श्रृंखला को उचित रूप से यहाँ तक आगे बढ़ा लेता है, तो क्या वह प्रणाली को समझ जाता है? — सम्भवतः, यहाँ आप कहेंगे&nbsp;: प्रणाली को जानना (अथवा, फिर, उसे समझना) श्रृंखला को ''इस'' या ''उस'' संख्या तक आगे बढ़ाने में निहित नहीं हो सकता&nbsp;: ''वह'' तो अपनी समझ के प्रयोग में निहित है। समझना तो स्वयं ही एक स्थिति है जो उचित प्रयोग का स्रोत है।


वास्तव में हम यहाँ क्या सोच रहे हैं? क्या हम श्रृंखला को बीजगणितीय सिद्धान्त से व्युत्पत्ति के बारे में नहीं सोच रहे? अथवा कमोबेश इसी जैसे किसी विषय के बारे में? — किन्तु यही बात तो हम पहले भी कह रहे थे। बात यह है कि बीजगणितीय सिद्धान्त के ''एक'' से अधिक प्रयोग के बारे में हम सोच सकते हैं; और हर प्रकार के प्रयोग का बीजगणितीय सूत्रीकरण भी किया जा सकता है; किन्तु निश्चित रूप से यह हमें कुछ आगे नहीं बढ़ाता। — अब भी समझने की कसौटी तो प्रयोग ही है।
वास्तव में हम यहाँ क्या सोच रहे हैं? क्या हम श्रृंखला को बीजगणितीय सिद्धान्त से व्युत्पत्ति के बारे में नहीं सोच रहे? अथवा कमोबेश इसी जैसे किसी विषय के बारे में? — किन्तु यही बात तो हम पहले भी कह रहे थे। बात यह है कि बीजगणितीय सिद्धान्त के ''एक'' से अधिक प्रयोग के बारे में हम सोच सकते हैं; और हर प्रकार के प्रयोग का बीजगणितीय सूत्रीकरण भी किया जा सकता है; किन्तु निश्चित रूप से यह हमें कुछ आगे नहीं बढ़ाता। — अब भी समझने की कसौटी तो प्रयोग ही है।


{{ParPU|147}} "किन्तु ऐसा कैसे हो सकता है? जब मैं कहता हूँ कि मैं श्रृंखला के नियम को समझ गया हूँ तो मैं निश्चयपूर्वक ऐसा इसलिए नहीं कहता कि मुझे ''ज्ञात हो गया है'' कि मैंने अब तक बीजगणितीय सिद्धान्त को अमुक-अमुक ढंग से प्रयोग किया है! मेरी अपनी स्थिति में, प्रत्येक अवस्था में, मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि मेरा तात्पर्य अमुक-अमुक श्रृंखला है; इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि मैंने उसे कहाँ तक विकसित किया है।"
{{ParPU|147}} “किन्तु ऐसा कैसे हो सकता है? जब मैं कहता हूँ कि मैं श्रृंखला के नियम को समझ गया हूँ तो मैं निश्चयपूर्वक ऐसा इसलिए नहीं कहता कि मुझे ''ज्ञात हो गया है'' कि मैंने अब तक बीजगणितीय सिद्धान्त को अमुक-अमुक ढंग से प्रयोग किया है! मेरी अपनी स्थिति में, प्रत्येक अवस्था में, मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि मेरा तात्पर्य अमुक-अमुक श्रृंखला है; इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि मैंने उसे कहाँ तक विकसित किया है।”


तो आपका विचार है कि विशेष अंकों पर वास्तविक प्रयोगों को पूरी तरह भुलाकर आप शृंखला-नियम प्रयोग के बारे में पूरी तरह जानते हैं? और सम्भवतः आप कहें&nbsp;: "बेशक! क्योंकि शृंखला तो अपरिमित है और जिस खंड को मैं विकसित कर सकता हूँ वह तो सीमित होती है।"
तो आपका विचार है कि विशेष अंकों पर वास्तविक प्रयोगों को पूरी तरह भुलाकर आप शृंखला-नियम प्रयोग के बारे में पूरी तरह जानते हैं? और सम्भवतः आप कहें&nbsp;: “बेशक! क्योंकि शृंखला तो अपरिमित है और जिस खंड को मैं विकसित कर सकता हूँ वह तो सीमित होती है।”


{{ParPU|148}} किन्तु इस ज्ञान में क्या निहित है? मैं पूछना चाहता हूँ! आपको उस प्रयोग का ज्ञान कब होता है? सदैव? दिन-रात? अथवा केवल तब जब आप वास्तव में नियम के बारे में सोचते हैं? क्या आप उसे जानते हैं, यानी, उसी प्रकार जैसे आप वर्णमाला को एवं पहाड़े को जानते हैं? अथवा जिसे आप "ज्ञान" कहते हैं क्या वह चेतना की अथवा किसी प्रक्रिया की अवस्था है — यानी किसी विषय अथवा उसके समान किसी विचार की?
{{ParPU|148}} किन्तु इस ज्ञान में क्या निहित है? मैं पूछना चाहता हूँ! आपको उस प्रयोग का ज्ञान कब होता है? सदैव? दिन-रात? अथवा केवल तब जब आप वास्तव में नियम के बारे में सोचते हैं? क्या आप उसे जानते हैं, यानी, उसी प्रकार जैसे आप वर्णमाला को एवं पहाड़े को जानते हैं? अथवा जिसे आप “ज्ञान” कहते हैं क्या वह चेतना की अथवा किसी प्रक्रिया की अवस्था है — यानी किसी विषय अथवा उसके समान किसी विचार की?


{{ParPU|149}} यदि कोई कहे कि क ख ग जानना तो मन की एक स्थिति है, तो वह हमारे द्वारा ज्ञान की ''अभिव्यक्तियों'' की व्याख्या देने वाले मानसिक उपकरण की (सम्भवतः मस्तिष्क की) स्थिति के बारे में सोचता है। ऐसी स्थिति आदत कहलाती है। किन्तु मन की स्थिति के उल्लेख पर आपत्तियां हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति की दो भिन्न-भिन्न कसौटियां होनी चाहिए&nbsp;: उपकरण की क्रिया से नितान्त भिन्न उसकी संरचना का ज्ञान। (यहाँ चेतना की अवस्था और आदत में तुलना के लिए "चेतन" और "अचेतन" शब्दों के प्रयोग से अधिक भ्रमित करने वाला कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि पदों का यह युग्म व्याकरणगत भेद को छिपा देता है।)
{{ParPU|149}} यदि कोई कहे कि क ख ग जानना तो मन की एक स्थिति है, तो वह हमारे द्वारा ज्ञान की ''अभिव्यक्तियों'' की व्याख्या देने वाले मानसिक उपकरण की (सम्भवतः मस्तिष्क की) स्थिति के बारे में सोचता है। ऐसी स्थिति आदत कहलाती है। किन्तु मन की स्थिति के उल्लेख पर आपत्तियां हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति की दो भिन्न-भिन्न कसौटियां होनी चाहिए&nbsp;: उपकरण की क्रिया से नितान्त भिन्न उसकी संरचना का ज्ञान। (यहाँ चेतना की अवस्था और आदत में तुलना के लिए “चेतन” और “अचेतन” शब्दों के प्रयोग से अधिक भ्रमित करने वाला कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि पदों का यह युग्म व्याकरणगत भेद को छिपा देता है।)


{{PU box|(क) “शब्द को समझना”&nbsp;: एक स्थिति। किन्तु एक ''मानसिक'' स्थिति? — विषाद, उत्तेजना, वेदना मानसिक स्थितियां कहलाती हैं। निम्नलिखित व्याकरणिक अन्वेषण कीजिए&nbsp;: हम कहते हैं,
{{PU box|(क) “शब्द को समझना”&nbsp;: एक स्थिति। किन्तु एक ''मानसिक'' स्थिति? — विषाद, उत्तेजना, वेदना मानसिक स्थितियां कहलाती हैं। निम्नलिखित व्याकरणिक अन्वेषण कीजिए&nbsp;: हम कहते हैं,


"सारे दिन वह उदास रहा।"
“सारे दिन वह उदास रहा।”


"सारे दिन वह उत्तेजित रहा।"
“सारे दिन वह उत्तेजित रहा।”


"उसे कल से निरन्तर वेदना हो रही है।"
“उसे कल से निरन्तर वेदना हो रही है।”


हम यह भी कहते हैं "इस शब्द को मैं कल ही समझ पाया।" यद्यपि क्या उसके बाद मैं "''निरन्तर''" उस शब्द को समझता रहा? — वस्तुतः समझ में रुकावट आने के बारे में तो हम कह सकते हैं। किन्तु कौनसी स्थितियों में? तुलना कीजिए&nbsp;: "आपका दर्द कब कम हुआ?" इस अभिव्यक्ति और "आपने इस शब्द को समझना कब छोड़ दिया?" अभिव्यक्ति में।
हम यह भी कहते हैं “इस शब्द को मैं कल ही समझ पाया।” यद्यपि क्या उसके बाद मैं ''निरन्तर''उस शब्द को समझता रहा? — वस्तुतः समझ में रुकावट आने के बारे में तो हम कह सकते हैं। किन्तु कौनसी स्थितियों में? तुलना कीजिए&nbsp;: “आपका दर्द कब कम हुआ?इस अभिव्यक्ति और “आपने इस शब्द को समझना कब छोड़ दिया?अभिव्यक्ति में।


(ख) मान लीजिए कि कोई पूछे&nbsp;: "आप ''कब'' कहते हैं कि आपको शतरंज खेलना आता है? हर समय? या फिर चाल चलते समय ही? और हर चाल के दौरान ''पूरे'' शतरंज के खेल के बारे में? — कितनी विचित्र बात है कि शतरंज का खेल खेलना आने में इतना कम समय लगता है और इसको खेलने में इतनी देर!"}}
(ख) मान लीजिए कि कोई पूछे&nbsp;: “आप ''कब'' कहते हैं कि आपको शतरंज खेलना आता है? हर समय? या फिर चाल चलते समय ही? और हर चाल के दौरान ''पूरे'' शतरंज के खेल के बारे में? — कितनी विचित्र बात है कि शतरंज का खेल खेलना आने में इतना कम समय लगता है और इसको खेलने में इतनी देर!}}


{{ParPU|150}} "विदित होना" शब्द के व्याकरण का तो "सकने", "समर्थ होना" शब्दों व्याकरण से गहरा सम्बन्ध है। किन्तु उसका "समझना" के व्याकरण से भी गहरा सम्बन्ध है। (किसी तकनीक में निपुणता।)
{{ParPU|150}} “विदित होना” शब्द के व्याकरण का तो “सकने”, “समर्थ होना” शब्दों व्याकरण से गहरा सम्बन्ध है। किन्तु उसका “समझना” के व्याकरण से भी गहरा सम्बन्ध है। (किसी तकनीक में निपुणता।)


{{ParPU|151}} किन्तु "विदित होना" शब्द का ''यह'' प्रयोग भी है: हम कहते हैं "अब मैं इसे जानता हूँ!" — और उसी प्रकार "अब मैं इसे कर सकता हूँ!" और "अब मैं इसे समझता हूँ!"
{{ParPU|151}} किन्तु “विदित होना” शब्द का ''यह'' प्रयोग भी है: हम कहते हैं “अब मैं इसे जानता हूँ!— और उसी प्रकार “अब मैं इसे कर सकता हूँ!और “अब मैं इसे समझता हूँ!


मुझे निम्नलिखित उदाहरण की कल्पना करने दें&nbsp;: क अंकों की शृंखला को लिखता है; ख उसे देखता है और अंकों के अनुक्रम के नियम को खोजने का प्रयत्न करता है। यदि वह सफल हो जाता है तो वह खुशी से चीख उठता है "अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ!" अतः यह क्षमता, यह बोध कुछ ऐसा है जो क्षण में ही प्रकट हो जाता है। तो आइए हम विचार करें कि क्या प्रकट होता है। — क ने 1, 5, 11, 19, 20 संख्याएं लिखीं हैं; इस क्षण ख कहता है कि वह जानता है कि आगे कैसे बढ़ना है। यहाँ क्या हुआ? विभिन्न बातें हो सकती हैं; उदाहरणार्थ, जब क धीरे-धीरे एक के बाद दूसरी संख्या लिख रहा था, तो ख लिखित संख्याओं पर विभिन्न बीजगणितीय सिद्धान्तों का परीक्षण करने में व्यस्त था। जब क ''19'' संख्या लिख चुका तो ख ने अ<sub>न</sub> = न<sup>2</sup> + न − 1 सिद्धान्त का परीक्षण किया; और क द्वारा लिखित उससे आगामी संख्या ने ख की परिकल्पना की पुष्टि कर दी।
मुझे निम्नलिखित उदाहरण की कल्पना करने दें&nbsp;: क अंकों की शृंखला को लिखता है; ख उसे देखता है और अंकों के अनुक्रम के नियम को खोजने का प्रयत्न करता है। यदि वह सफल हो जाता है तो वह खुशी से चीख उठता है “अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ!अतः यह क्षमता, यह बोध कुछ ऐसा है जो क्षण में ही प्रकट हो जाता है। तो आइए हम विचार करें कि क्या प्रकट होता है। — क ने 1, 5, 11, 19, 20 संख्याएं लिखीं हैं; इस क्षण ख कहता है कि वह जानता है कि आगे कैसे बढ़ना है। यहाँ क्या हुआ? विभिन्न बातें हो सकती हैं; उदाहरणार्थ, जब क धीरे-धीरे एक के बाद दूसरी संख्या लिख रहा था, तो ख लिखित संख्याओं पर विभिन्न बीजगणितीय सिद्धान्तों का परीक्षण करने में व्यस्त था। जब क ''19'' संख्या लिख चुका तो ख ने अ<sub>न</sub> = न<sup>2</sup> + न − 1 सिद्धान्त का परीक्षण किया; और क द्वारा लिखित उससे आगामी संख्या ने ख की परिकल्पना की पुष्टि कर दी।


अथवा फिर ख सिद्धान्तों के बारे में सोचता ही नहीं। वह क को तनावपूर्ण स्थिति में संख्याएं लिखते हुए देखता है, और उसके मन में अनेक संकल्प-विकल्प उठते हैं। अन्ततः वह अपने आप से पूछता है: "व्यतिरेक श्रृंखला क्या होती है? वह 4, 6, 8, 10 श्रृंखला को खोज लेता है और कहता है: अब मैं श्रृंखला को आगे बढ़ा सकता हूँ।
अथवा फिर ख सिद्धान्तों के बारे में सोचता ही नहीं। वह क को तनावपूर्ण स्थिति में संख्याएं लिखते हुए देखता है, और उसके मन में अनेक संकल्प-विकल्प उठते हैं। अन्ततः वह अपने आप से पूछता है: "व्यतिरेक श्रृंखला क्या होती है? वह 4, 6, 8, 10 श्रृंखला को खोज लेता है और कहता है: अब मैं श्रृंखला को आगे बढ़ा सकता हूँ।


अथवा वह निरीक्षण करता है और कहता है "हाँ मैं उस श्रृंखला को जानता हूँ" — और उसे वैसे आगे बढ़ाता है जैसे वह क द्वारा लिखी गई 1, 3, 5, 7, 9 श्रृंखला को आगे बढ़ाता। — अथवा वह कुछ भी नहीं कहता और श्रृंखला को आगे बढ़ाता चला जाता है। सम्भवतः, उसे "यह तो सरल है!" ऐसी अनुभूति होती है। (उदाहरणार्थ, स्तम्भित होने पर लंबी सांस लेना एक ऐसी ही अनुभूति है।)
अथवा वह निरीक्षण करता है और कहता है “हाँ मैं उस श्रृंखला को जानता हूँ” — और उसे वैसे आगे बढ़ाता है जैसे वह क द्वारा लिखी गई 1, 3, 5, 7, 9 श्रृंखला को आगे बढ़ाता। — अथवा वह कुछ भी नहीं कहता और श्रृंखला को आगे बढ़ाता चला जाता है। सम्भवतः, उसे “यह तो सरल है!ऐसी अनुभूति होती है। (उदाहरणार्थ, स्तम्भित होने पर लंबी सांस लेना एक ऐसी ही अनुभूति है।)


{{ParPU|152}} किन्तु क्या मेरे द्वारा व्याख्यायित प्रक्रियाओं को ''समझ'' कहा जा सकता है?
{{ParPU|152}} किन्तु क्या मेरे द्वारा व्याख्यायित प्रक्रियाओं को ''समझ'' कहा जा सकता है?


"ख श्रृंखला-सिद्धान्त को समझाता है" इसका निश्चित रूप से यह अर्थ तो नहीं है: ख को "अ<sub>न</sub> = ...." सिद्धान्त सूझता है। क्योंकि इसकी कल्पना तो की जा सकती है कि उसे वह सिद्धान्त सूझता है किन्तु वह उसे समझ नहीं आता। "वह समझता है" इसमें सिद्धान्त उसे सूझता है, इससे अधिक कुछ निहित होना चाहिए। और इसी प्रकार कमोबेश उसके ''सहगामी'' गुणों अथवा समझ की अभिव्यक्तियों से अधिक कुछ।
“ख श्रृंखला-सिद्धान्त को समझाता है” इसका निश्चित रूप से यह अर्थ तो नहीं है: ख को “अ<sub>न</sub> = ....सिद्धान्त सूझता है। क्योंकि इसकी कल्पना तो की जा सकती है कि उसे वह सिद्धान्त सूझता है किन्तु वह उसे समझ नहीं आता। “वह समझता है” इसमें सिद्धान्त उसे सूझता है, इससे अधिक कुछ निहित होना चाहिए। और इसी प्रकार कमोबेश उसके ''सहगामी'' गुणों अथवा समझ की अभिव्यक्तियों से अधिक कुछ।


{{ParPU|153}} हम समझ की ऐसी मानसिक प्रक्रियाओं को पाने का प्रयत्न कर रहे हैं स्थूल और इसीलिए उससे जुड़े सरलता से दिखाई दी जाने वाले संलग्नी विषयों के पीछे छिपी हुई प्रतीत होती हैं। किन्तु हम सफल नहीं होते; अथवा, वस्तुतः वह वास्तविक प्रयत्न के पास भी नहीं पहुँचता। क्योंकि यदि हम मान भी लें कि समझ की इन सभी स्थितियों में होने वाला विषय मुझे मिल भी गया हो, — तो भी ''वह'' समझ क्योंकर हो? और समझ की प्रक्रिया छिपी हुई कैसे हो सकती है जब मैं कहता हूँ, "अब मैं समझता हूँ" ''क्योंकि'' मैं समझ गया हूँ! और यदि मैं कहता हूँ कि वह छिपी हुई है — तो मैं कैसे जानता हूँ कि मुझे क्या खोजना है? मैं दलदल में फँसा हूँ।
{{ParPU|153}} हम समझ की ऐसी मानसिक प्रक्रियाओं को पाने का प्रयत्न कर रहे हैं स्थूल और इसीलिए उससे जुड़े सरलता से दिखाई दी जाने वाले संलग्नी विषयों के पीछे छिपी हुई प्रतीत होती हैं। किन्तु हम सफल नहीं होते; अथवा, वस्तुतः वह वास्तविक प्रयत्न के पास भी नहीं पहुँचता। क्योंकि यदि हम मान भी लें कि समझ की इन सभी स्थितियों में होने वाला विषय मुझे मिल भी गया हो, — तो भी ''वह'' समझ क्योंकर हो? और समझ की प्रक्रिया छिपी हुई कैसे हो सकती है जब मैं कहता हूँ, “अब मैं समझता हूँ” ''क्योंकि'' मैं समझ गया हूँ! और यदि मैं कहता हूँ कि वह छिपी हुई है — तो मैं कैसे जानता हूँ कि मुझे क्या खोजना है? मैं दलदल में फँसा हूँ।


{{ParPU|154}} किन्तु थोड़ी प्रतीक्षा करें — यदि "अब मैं सिद्धान्त को समझता हूँ" का अर्थ "... सिद्धान्त मेरे ध्यान में आता है" (अथवा "मैं सिद्धान्त का उल्लेख करता हूँ", "मैं उसे लिखता हूँ", इत्यादि) के समान नहीं है — तो क्या उससे यह परिणाम निकलता है कि "अब मैं समझता हूँ....." अथवा "अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ" इन वाक्यों का प्रयोग उस सिद्धान्त के उल्लेख की अनुवर्ती अथवा सहवर्ती प्रक्रिया के विवरण के रूप में करता हूँ?
{{ParPU|154}} किन्तु थोड़ी प्रतीक्षा करें — यदि “अब मैं सिद्धान्त को समझता हूँ” का अर्थ ... सिद्धान्त मेरे ध्यान में आता है” (अथवा “मैं सिद्धान्त का उल्लेख करता हूँ”, “मैं उसे लिखता हूँ”, इत्यादि) के समान नहीं है — तो क्या उससे यह परिणाम निकलता है कि “अब मैं समझता हूँ.....अथवा “अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ” इन वाक्यों का प्रयोग उस सिद्धान्त के उल्लेख की अनुवर्ती अथवा सहवर्ती प्रक्रिया के विवरण के रूप में करता हूँ?


यदि 'सिद्धान्त के उच्चारण के पीछे' कुछ होना जरूरी है तो वह हैं कुछ विशिष्ट परिस्थितियाँ — जो सिद्धान्त का स्मरण करते समय मेरे आगे बढ़ सकने के कथन का औचित्य बताती हैं।
यदि 'सिद्धान्त के उच्चारण के पीछे' कुछ होना जरूरी है तो वह हैं कुछ विशिष्ट परिस्थितियाँ — जो सिद्धान्त का स्मरण करते समय मेरे आगे बढ़ सकने के कथन का औचित्य बताती हैं।


समझ को 'मानसिक प्रक्रिया' जैसा समझने का प्रयत्न बिल्कुल न करें — क्योंकि ''वह'' अभिव्यक्ति ही आपको भ्रमित करती है। किन्तु अपने आप से पूछें&nbsp;: किस प्रकार की स्थिति में, किस प्रकार की परिस्थितियों में हम कहते हैं "अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है", यानी उस समय जब सिद्धान्त मेरे ध्यान में आ ''गया'' हो? —
समझ को 'मानसिक प्रक्रिया' जैसा समझने का प्रयत्न बिल्कुल न करें — क्योंकि ''वह'' अभिव्यक्ति ही आपको भ्रमित करती है। किन्तु अपने आप से पूछें&nbsp;: किस प्रकार की स्थिति में, किस प्रकार की परिस्थितियों में हम कहते हैं “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है”, यानी उस समय जब सिद्धान्त मेरे ध्यान में आ ''गया'' हो? —


उस अर्थ में जिसमें समझ की विशिष्ट प्रक्रियाएं (मानसिक प्रक्रियाओं को सम्मिलित करके) होती हैं, समझ मानसिक प्रक्रिया नहीं है।
उस अर्थ में जिसमें समझ की विशिष्ट प्रक्रियाएं (मानसिक प्रक्रियाओं को सम्मिलित करके) होती हैं, समझ मानसिक प्रक्रिया नहीं है।
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(वेदना कम या अधिक हो रही है; गाने की धुन अथवा वाक्य को सुनना&nbsp;: ये मानसिक प्रक्रियाएं हैं।)
(वेदना कम या अधिक हो रही है; गाने की धुन अथवा वाक्य को सुनना&nbsp;: ये मानसिक प्रक्रियाएं हैं।)


{{ParPU|155}} अतः मैं जो कहना चाहता था&nbsp;: जब उसने यकायक जाना कि आगे कैसे बढ़ना है, जब उसने सिद्धान्त को समझा, तो संभवतः उसे कोई विशेष अनुभव हुआ — और यदि उससे पूछा जाए&nbsp;: "वह क्या था?, जब तुमने सिद्धान्त को यकायक समझ लिया तो क्या घटित हुआ?" संभवतः वह इसका विवरण हमारे उपर्युक्त विवरण के समान ही देगा — किन्तु हमारे लिए तो ''ऐसी परिस्थितियां'' — जिनमें उसको इस प्रकार का अनुभव हुआ हो कि वह कह सके कि वह समझता है, वह जानता है कि आगे कैसे बढ़ना है — ही उसके ऐसा कहने का औचित्य सिद्ध करती हैं।
{{ParPU|155}} अतः मैं जो कहना चाहता था&nbsp;: जब उसने यकायक जाना कि आगे कैसे बढ़ना है, जब उसने सिद्धान्त को समझा, तो संभवतः उसे कोई विशेष अनुभव हुआ — और यदि उससे पूछा जाए&nbsp;: “वह क्या था?, जब तुमने सिद्धान्त को यकायक समझ लिया तो क्या घटित हुआ?संभवतः वह इसका विवरण हमारे उपर्युक्त विवरण के समान ही देगा — किन्तु हमारे लिए तो ''ऐसी परिस्थितियां'' — जिनमें उसको इस प्रकार का अनुभव हुआ हो कि वह कह सके कि वह समझता है, वह जानता है कि आगे कैसे बढ़ना है — ही उसके ऐसा कहने का औचित्य सिद्ध करती हैं।


{{ParPU|156}} एक अन्य शब्द, उदाहरणार्थ, "पठन" शब्द की समीक्षा को यदि हम समाविष्ट कर लें तो यह अधिक स्पष्ट हो जाएगा। मुझे यह टिप्पणी करने की आवश्यकता है कि इस अन्वेषण के लिए मैं, पठन की समझ को, 'पठन' का भाग नहीं मानता&nbsp;: यहाँ पठन से तात्पर्य लिखित अथवा मुद्रित सामग्री को उच्चस्वर में अभिव्यक्त करना, इमला से लिखना, मुद्रित सामग्री को लिखना और स्वरलिपि से गायन आदि है।
{{ParPU|156}} एक अन्य शब्द, उदाहरणार्थ, “पठन” शब्द की समीक्षा को यदि हम समाविष्ट कर लें तो यह अधिक स्पष्ट हो जाएगा। मुझे यह टिप्पणी करने की आवश्यकता है कि इस अन्वेषण के लिए मैं, पठन की समझ को, 'पठन' का भाग नहीं मानता&nbsp;: यहाँ पठन से तात्पर्य लिखित अथवा मुद्रित सामग्री को उच्चस्वर में अभिव्यक्त करना, इमला से लिखना, मुद्रित सामग्री को लिखना और स्वरलिपि से गायन आदि है।


हमारे जीवन की साधारण परिस्थितियों में इस शब्द के प्रयोग से बेशक हम बेहद परिचित हैं। किन्तु हमारे जीवन में और इसीलिए उस भाषा-खेल में जिसमें हम उस शब्दको प्रयुक्त करते हैं इस शब्द की भूमिका की अस्पष्ट व्याख्या करना भी कठिन होगा। किसी व्यक्ति ने, मान लीजिए किसी अंग्रेज़ ने, पाठशाला में अथवा अपने घर पर, प्रचलित शिक्षा प्राप्त की है, और उस अवधि में अपनी मातृभाषा भी सीख ली है। इसके बाद वह पुस्तकें, पत्र, समाचार-पत्र आदि पढ़ता है।
हमारे जीवन की साधारण परिस्थितियों में इस शब्द के प्रयोग से बेशक हम बेहद परिचित हैं। किन्तु हमारे जीवन में और इसीलिए उस भाषा-खेल में जिसमें हम उस शब्दको प्रयुक्त करते हैं इस शब्द की भूमिका की अस्पष्ट व्याख्या करना भी कठिन होगा। किसी व्यक्ति ने, मान लीजिए किसी अंग्रेज़ ने, पाठशाला में अथवा अपने घर पर, प्रचलित शिक्षा प्राप्त की है, और उस अवधि में अपनी मातृभाषा भी सीख ली है। इसके बाद वह पुस्तकें, पत्र, समाचार-पत्र आदि पढ़ता है।
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यदि हम ''इस'' प्रकार के पढ़ने को नौसिखिए का पढ़ना समझें और अपने आप से पूछें कि ''पठन'' में क्या निहित है, तो हम कहना चाहेंगे&nbsp;: यह मन की एक चेतन क्रिया है।
यदि हम ''इस'' प्रकार के पढ़ने को नौसिखिए का पढ़ना समझें और अपने आप से पूछें कि ''पठन'' में क्या निहित है, तो हम कहना चाहेंगे&nbsp;: यह मन की एक चेतन क्रिया है।


हम शिष्य के बारे में भी यही कहते हैं: "बेशक, वही जानता है कि वह वास्तव में पढ़ रहा है अथवा शब्दों को स्मृति से बोल रहा है"। (अभी हमें इन प्रतिज्ञप्तियों का विवेचन करना है: "वही जानता है कि....."।)
हम शिष्य के बारे में भी यही कहते हैं: “बेशक, वही जानता है कि वह वास्तव में पढ़ रहा है अथवा शब्दों को स्मृति से बोल रहा है”। (अभी हमें इन प्रतिज्ञप्तियों का विवेचन करना है: “वही जानता है कि.....”।)


किन्तु मैं कहना चाहता हूँ हमें यह मानना पड़ेगा कि — जहाँ तक मुद्रित शब्दों के उच्चारण का प्रश्न है — पढ़ने का 'नाटक करने' वाले शिष्य की चेतना में और वस्तुतः 'पढ़ने' वाले अनुभवी पाठक की चेतना में एक ही प्रक्रिया होती है। जब हम नौसिखिए और अनुभवी पाठक का उल्लेख करते हैं तो हम "पठन" शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार से करते हैं। — बेशक अब हम कहना चाहेंगे&nbsp;: शब्द का उच्चारण करते हुए नौसिखिए और अनुभवी पाठक में समान प्रक्रिया नहीं हो ''सकती''। और यदि जिसके प्रति वे सचेत होते हैं में कोई भेद न हो, तो उनके अचेतन मन में अथवा फिर उनके मस्तिष्क में कोई भेद अवश्य होना चाहिए। — अतः हम कहना चाहेंगे&nbsp;: यहाँ सभी परिस्थितियों में दो भिन्न प्रणालियां कार्यरत हैं। इन्हीं प्रणालियों द्वारा पठन और अपठन का भेद करना चाहिए — किन्तु ये प्रणालियां तो मात्र परिकल्पनाएं हैं, वे तो आपके प्रेक्षणों के संकलन और उनकी व्याख्या के लिए बनाये गये नमूने हैं।
किन्तु मैं कहना चाहता हूँ हमें यह मानना पड़ेगा कि — जहाँ तक मुद्रित शब्दों के उच्चारण का प्रश्न है — पढ़ने का 'नाटक करने' वाले शिष्य की चेतना में और वस्तुतः 'पढ़ने' वाले अनुभवी पाठक की चेतना में एक ही प्रक्रिया होती है। जब हम नौसिखिए और अनुभवी पाठक का उल्लेख करते हैं तो हम “पठन” शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार से करते हैं। — बेशक अब हम कहना चाहेंगे&nbsp;: शब्द का उच्चारण करते हुए नौसिखिए और अनुभवी पाठक में समान प्रक्रिया नहीं हो ''सकती''। और यदि जिसके प्रति वे सचेत होते हैं में कोई भेद न हो, तो उनके अचेतन मन में अथवा फिर उनके मस्तिष्क में कोई भेद अवश्य होना चाहिए। — अतः हम कहना चाहेंगे&nbsp;: यहाँ सभी परिस्थितियों में दो भिन्न प्रणालियां कार्यरत हैं। इन्हीं प्रणालियों द्वारा पठन और अपठन का भेद करना चाहिए — किन्तु ये प्रणालियां तो मात्र परिकल्पनाएं हैं, वे तो आपके प्रेक्षणों के संकलन और उनकी व्याख्या के लिए बनाये गये नमूने हैं।


{{ParPU|157}} निम्नलिखित स्थिति पर ध्यान दीजिए। हम मनुष्यों को अथवा किसी अन्य प्रकार के प्राणियों को पठन-यंत्रों के समान प्रयुक्त करते हैं। उन्हें इस उद्देश्य से प्रशिक्षित करते हैं। उनमें से कुछ के बारे में प्रशिक्षक कहता है कि वे पहले से ही पढ़ सकते हैं, दूसरों के बारे में वह कहता है कि वे अभी नहीं पढ़ सकते। अब ऐसी स्थिति को लें जिसमें शिक्षार्थी ने अभी तक प्रशिक्षण में भाग न लिया हो&nbsp;: यदि उसे कोई लिखित शब्द दिखाया जाए तो कभी-कभी वह कोई ध्वनि निकालेगा, और वह ध्वनि 'कभी कभी संयोगवश' लगभग ठीक भी हो सकती है। कोई अन्य व्यक्ति ऐसे अवसर पर शिक्षार्थी को सुनता है, और कहता है: "वह पढ़ रहा है"। किन्तु अध्यापक कहता है: "नहीं वह पढ़ नहीं रहा; वह तो मात्र एक संयोग था"। — किन्तु आइए हम मान लें कि शिक्षार्थी उसके सामने आने वाले आगामी शब्दों पर सही प्रतिक्रिया करता रहता है। कुछ समय बाद अध्यापक कहता है: "अब वह पढ़ सकता है!" — किन्तु अब उसके पहले कथन का क्या हो? क्या अध्यापक को कहना पड़ेगा&nbsp;: "मेरी भूल थी, उसने ''तो'' इसे पढ़ा था" — अथवा&nbsp;: "वास्तव में उसने उसके पश्चात् ही पढ़ना आरम्भ किया?" — कौन सा पहला शब्द उसने ''पढ़ा''? इस प्रश्न का यहाँ कोई अर्थ ही नहीं है। जब तक वस्तुतः हम यह परिभाषा न दें&nbsp;: "व्यक्ति द्वारा 'पढ़े' जाने वाला प्रथम शब्द तो उसके द्वारा उचित रूप से पढ़े जाने वाले 50 शब्दों की प्रथम श्रृंखला का प्रथम शब्द होता है" (अथवा इसी प्रकार का कुछ)।
{{ParPU|157}} निम्नलिखित स्थिति पर ध्यान दीजिए। हम मनुष्यों को अथवा किसी अन्य प्रकार के प्राणियों को पठन-यंत्रों के समान प्रयुक्त करते हैं। उन्हें इस उद्देश्य से प्रशिक्षित करते हैं। उनमें से कुछ के बारे में प्रशिक्षक कहता है कि वे पहले से ही पढ़ सकते हैं, दूसरों के बारे में वह कहता है कि वे अभी नहीं पढ़ सकते। अब ऐसी स्थिति को लें जिसमें शिक्षार्थी ने अभी तक प्रशिक्षण में भाग न लिया हो&nbsp;: यदि उसे कोई लिखित शब्द दिखाया जाए तो कभी-कभी वह कोई ध्वनि निकालेगा, और वह ध्वनि 'कभी कभी संयोगवश' लगभग ठीक भी हो सकती है। कोई अन्य व्यक्ति ऐसे अवसर पर शिक्षार्थी को सुनता है, और कहता है: “वह पढ़ रहा है”। किन्तु अध्यापक कहता है: “नहीं वह पढ़ नहीं रहा; वह तो मात्र एक संयोग था”। — किन्तु आइए हम मान लें कि शिक्षार्थी उसके सामने आने वाले आगामी शब्दों पर सही प्रतिक्रिया करता रहता है। कुछ समय बाद अध्यापक कहता है: “अब वह पढ़ सकता है!— किन्तु अब उसके पहले कथन का क्या हो? क्या अध्यापक को कहना पड़ेगा&nbsp;: “मेरी भूल थी, उसने ''तो'' इसे पढ़ा था” — अथवा&nbsp;: “वास्तव में उसने उसके पश्चात् ही पढ़ना आरम्भ किया?— कौन सा पहला शब्द उसने ''पढ़ा''? इस प्रश्न का यहाँ कोई अर्थ ही नहीं है। जब तक वस्तुतः हम यह परिभाषा न दें&nbsp;: “व्यक्ति द्वारा 'पढ़े' जाने वाला प्रथम शब्द तो उसके द्वारा उचित रूप से पढ़े जाने वाले 50 शब्दों की प्रथम श्रृंखला का प्रथम शब्द होता है” (अथवा इसी प्रकार का कुछ)।


दूसरी ओर, यदि "पठन" का प्रयोग हम संकेतों को ध्वनियों में परिवर्तित करने के विशिष्ट अनुभव के लिए करते हैं तो निस्संदेह शिक्षार्थी द्वारा पढ़े जाने वाले ''प्रथम'' शब्द के बारे में बात करने का अर्थ होता है। उदाहरणार्थ, तब वह कह सकता है, "इस शब्द पर मुझे पहली बार यह अनुभूति हुई&nbsp;: 'अब मैं पढ़ सकता हूँ'।"
दूसरी ओर, यदि “पठन” का प्रयोग हम संकेतों को ध्वनियों में परिवर्तित करने के विशिष्ट अनुभव के लिए करते हैं तो निस्संदेह शिक्षार्थी द्वारा पढ़े जाने वाले ''प्रथम'' शब्द के बारे में बात करने का अर्थ होता है। उदाहरणार्थ, तब वह कह सकता है, “इस शब्द पर मुझे पहली बार यह अनुभूति हुई&nbsp;: 'अब मैं पढ़ सकता हूँ'।”


या फिर पियानोला ध्वनि-यंत्र के समान, चिन्हों को ध्वनियों में अनूदित करने वाले पठन-यंत्रों के बारे में यह कहना संभव होगा&nbsp;: "यंत्र ने अमुक-अमुक घटित होने के बाद ही पढ़ा — अमुक-अमुक भागों को तारों से जोड़ने के पश्चात्; यंत्र के द्वारा पढ़े जाने वाला पहला शब्द........ था।"
या फिर पियानोला ध्वनि-यंत्र के समान, चिन्हों को ध्वनियों में अनूदित करने वाले पठन-यंत्रों के बारे में यह कहना संभव होगा&nbsp;: “यंत्र ने अमुक-अमुक घटित होने के बाद ही पढ़ा — अमुक-अमुक भागों को तारों से जोड़ने के पश्चात्; यंत्र के द्वारा पढ़े जाने वाला पहला शब्द........ था।”


किंतु जीवंत पठन-यंत्र की स्थिति में, "पठन" का अर्थ लिखित संकेतों पर अमुक-अमुक ढंग की प्रतिक्रिया करना होता है। यानी यह प्रत्यय मानसिक अथवा अन्य प्रणालियों से नितान्त भिन्न प्रत्यय है। — न तो यहाँ अध्यापक शिक्षार्थी के बारे में कह सकता है: "जब उसने वह शब्द उच्चारित किया तो संभवतः वह पहले से ही पढ़ रहा था"। क्योंकि उसकी क्रिया के बारे में कोई संदेह ही नहीं है। — पढ़ना आरम्भ करने पर शिक्षार्थी में हुआ परिवर्तन तो उसके ''व्यवहार'' में हुआ परिवर्तन है; और यहाँ 'उसकी नवीन अवस्था में प्रथम शब्द' के उल्लेख का कोई अर्थ नहीं होता।
किंतु जीवंत पठन-यंत्र की स्थिति में, “पठन” का अर्थ लिखित संकेतों पर अमुक-अमुक ढंग की प्रतिक्रिया करना होता है। यानी यह प्रत्यय मानसिक अथवा अन्य प्रणालियों से नितान्त भिन्न प्रत्यय है। — न तो यहाँ अध्यापक शिक्षार्थी के बारे में कह सकता है: “जब उसने वह शब्द उच्चारित किया तो संभवतः वह पहले से ही पढ़ रहा था”। क्योंकि उसकी क्रिया के बारे में कोई संदेह ही नहीं है। — पढ़ना आरम्भ करने पर शिक्षार्थी में हुआ परिवर्तन तो उसके ''व्यवहार'' में हुआ परिवर्तन है; और यहाँ 'उसकी नवीन अवस्था में प्रथम शब्द' के उल्लेख का कोई अर्थ नहीं होता।


{{ParPU|158}} किन्तु मस्तिष्क एवं स्नायु यंत्र में होने वाली प्रक्रियाओं के बारे में हमारा अत्यधिक अल्प ज्ञान क्या इसका एकमात्र कारण नहीं है? यदि इन विषयों के बारे हमारा ज्ञान अधिक यथार्थ होता तो प्रशिक्षण द्वारा स्थापित संबंधों को हम समझ जाते, और फिर शिक्षार्थी के मस्तिष्क के भीतर झाँक कर हम कह सकते&nbsp;: "अब उसने शब्द को ''पढ़'' लिया है, अब पठन-संबंध स्थापित हो चुका है"। — और सम्भवत&nbsp;: इसे ऐसा ''ही'' होना चाहिए — अन्यथा, हमें कैसे पता चलता कि ऐसा संबंध होता है? ऐसा होता ही है कहना तो सम्भवत&nbsp;: प्रागनुभव है — अथवा क्या यह सम्भावना मात्र है? और इसकी कितनी सम्भावना है? अब अपने आप से पूछें&nbsp;: आप इन विषयों के बारे में क्या ''जानते'' हैं? — किन्तु यदि यह प्रागनुभव है तो उसका अर्थ है कि यह हमें अत्यंत विश्वसनीय लगनेवाला विवरण है।
{{ParPU|158}} किन्तु मस्तिष्क एवं स्नायु यंत्र में होने वाली प्रक्रियाओं के बारे में हमारा अत्यधिक अल्प ज्ञान क्या इसका एकमात्र कारण नहीं है? यदि इन विषयों के बारे हमारा ज्ञान अधिक यथार्थ होता तो प्रशिक्षण द्वारा स्थापित संबंधों को हम समझ जाते, और फिर शिक्षार्थी के मस्तिष्क के भीतर झाँक कर हम कह सकते&nbsp;: “अब उसने शब्द को ''पढ़'' लिया है, अब पठन-संबंध स्थापित हो चुका है”। — और सम्भवत&nbsp;: इसे ऐसा ''ही'' होना चाहिए — अन्यथा, हमें कैसे पता चलता कि ऐसा संबंध होता है? ऐसा होता ही है कहना तो सम्भवत&nbsp;: प्रागनुभव है — अथवा क्या यह सम्भावना मात्र है? और इसकी कितनी सम्भावना है? अब अपने आप से पूछें&nbsp;: आप इन विषयों के बारे में क्या ''जानते'' हैं? — किन्तु यदि यह प्रागनुभव है तो उसका अर्थ है कि यह हमें अत्यंत विश्वसनीय लगनेवाला विवरण है।


{{ParPU|159}} किन्तु जब हम इस विषय पर विचार करते हैं तो हम यह कहना चाहते हैं: ''पठन'' की वास्तविक कसौटी को पढ़ने की सचेत क्रिया, अक्षरों से ध्वनियों को पढ़ने की क्रिया है। "निश्चय ही हर व्यक्ति जानता है कि वह पढ़ सकता है अथवा
{{ParPU|159}} किन्तु जब हम इस विषय पर विचार करते हैं तो हम यह कहना चाहते हैं: ''पठन'' की वास्तविक कसौटी को पढ़ने की सचेत क्रिया, अक्षरों से ध्वनियों को पढ़ने की क्रिया है। "निश्चय ही हर व्यक्ति जानता है कि वह पढ़ सकता है अथवा
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{{ParPU|160}} किन्तु निम्नलिखित स्थिति की कल्पना कीजिए&nbsp;: हम धाराप्रवाह पढ़ सकने वाले किसी व्यक्ति को एक ऐसा मजमून देते हैं जिसे उसने पहले कभी न देखा हो। वह उसे हमें पढ़ कर सुनाता है — किन्तु उसमें किसी कंठस्थ मजमून के पठन की अनुभूति होती है (यह किसी दवा का प्रभाव हो सकता है)। क्या ऐसी स्थिति में हमें कहना चाहिए कि वह वास्तव में मजमून को पढ़ रहा है? क्या हमें यहाँ उसकी संवेदनाओं को, उसके पढ़ने अथवा न पढ़ने की कसौटी नहीं मानना चाहिए?
{{ParPU|160}} किन्तु निम्नलिखित स्थिति की कल्पना कीजिए&nbsp;: हम धाराप्रवाह पढ़ सकने वाले किसी व्यक्ति को एक ऐसा मजमून देते हैं जिसे उसने पहले कभी न देखा हो। वह उसे हमें पढ़ कर सुनाता है — किन्तु उसमें किसी कंठस्थ मजमून के पठन की अनुभूति होती है (यह किसी दवा का प्रभाव हो सकता है)। क्या ऐसी स्थिति में हमें कहना चाहिए कि वह वास्तव में मजमून को पढ़ रहा है? क्या हमें यहाँ उसकी संवेदनाओं को, उसके पढ़ने अथवा न पढ़ने की कसौटी नहीं मानना चाहिए?


अथवा फिर मान लीजिए कि किसी विशेष दवा से प्रभावित किसी मनुष्य के प्रत्यक्ष, संतों की एक श्रृंखला है (यह आवश्यक नहीं कि वे संकेत किसी वर्तमान वर्णमाला के हो)। वह संकेतों के अनुरूप शब्द उच्चारित करता है, मानो वे अक्षर हों और ऐसा करते समय उसमें पठन के सभी बाह्य संकेत, तथा संवेदनाएं होती हैं (हमें स्वप्नों इस प्रकार के अनुभव होते हैं; ऐसी स्थिति में जागने पर हम संभवतः कहते हैं: "मुझे प्रतीत हुआ मानो मैं किसी लिपि को पढ़ रहा हूँ, यद्यपि वह लिपि तो थी ही नहीं।") ऐसी स्थिति में कुछ लोग ऐसा कहना चाहेंगे कि व्यक्ति उन संकेतों को ''पढ़'' रहा था। दूसरे लोग कहेंगे, नहीं। — मान लीजिए कि उसने इस प्रकार पाँच चिन्हों के ऐसे समूह '''उ प र्यु क??? त''' को पढ़ा (अथवा उनकी व्याख्या की) — और अब हम उसे वही संकेत विपरीत क्रम में दिखाते हैं और वह उन्हें '''त क??? र्यु प उ''' पढ़ता है; और आगामी परीक्षणों में भी उसे संकेतों की यही व्याख्या याद रहती है: यहाँ निश्चय ही हम यह कहना चाहेंगे कि वह अपने प्रयोग के लिए किसी संदर्भ का निर्माण करता है और तदनुसार उसे पढ़ता है।
अथवा फिर मान लीजिए कि किसी विशेष दवा से प्रभावित किसी मनुष्य के प्रत्यक्ष, संतों की एक श्रृंखला है (यह आवश्यक नहीं कि वे संकेत किसी वर्तमान वर्णमाला के हो)। वह संकेतों के अनुरूप शब्द उच्चारित करता है, मानो वे अक्षर हों और ऐसा करते समय उसमें पठन के सभी बाह्य संकेत, तथा संवेदनाएं होती हैं (हमें स्वप्नों इस प्रकार के अनुभव होते हैं; ऐसी स्थिति में जागने पर हम संभवतः कहते हैं: “मुझे प्रतीत हुआ मानो मैं किसी लिपि को पढ़ रहा हूँ, यद्यपि वह लिपि तो थी ही नहीं।”) ऐसी स्थिति में कुछ लोग ऐसा कहना चाहेंगे कि व्यक्ति उन संकेतों को ''पढ़'' रहा था। दूसरे लोग कहेंगे, नहीं। — मान लीजिए कि उसने इस प्रकार पाँच चिन्हों के ऐसे समूह '''उ प र्यु क??? त''' को पढ़ा (अथवा उनकी व्याख्या की) — और अब हम उसे वही संकेत विपरीत क्रम में दिखाते हैं और वह उन्हें '''त क??? र्यु प उ''' पढ़ता है; और आगामी परीक्षणों में भी उसे संकेतों की यही व्याख्या याद रहती है: यहाँ निश्चय ही हम यह कहना चाहेंगे कि वह अपने प्रयोग के लिए किसी संदर्भ का निर्माण करता है और तदनुसार उसे पढ़ता है।


{{ParPU|161}} और यह भी याद रहे कि उन दोनों स्थितियों में जिनमें यह माना जा रहा हो कि कोई व्यक्ति पढ़कर बोल रहा है — पहली, एक जिसमें वह कंठस्थ विषय को कहता है, दूसरी, जिसमें वह न तो सन्दर्भ से और न ही स्मृति से बल्कि वास्तव में एक-एक अक्षर पढ़कर बोलता है — एक अनवरत संक्रमण शृंखला होती है।
{{ParPU|161}} और यह भी याद रहे कि उन दोनों स्थितियों में जिनमें यह माना जा रहा हो कि कोई व्यक्ति पढ़कर बोल रहा है — पहली, एक जिसमें वह कंठस्थ विषय को कहता है, दूसरी, जिसमें वह न तो सन्दर्भ से और न ही स्मृति से बल्कि वास्तव में एक-एक अक्षर पढ़कर बोलता है — एक अनवरत संक्रमण शृंखला होती है।


यह प्रयोग करके देखें&nbsp;: 1 से 12 तक अंक बोलें। अब घड़ी के डायल को देखें और उन अंकों को ''पढ़ें''। — उपरोक्त स्थिति में ऐसा क्या था जिसे आपने "पढ़ना" कहा? यानी आप ने उसे ''पढ़ना'' संभव बनाने के लिए क्या किया?
यह प्रयोग करके देखें&nbsp;: 1 से 12 तक अंक बोलें। अब घड़ी के डायल को देखें और उन अंकों को ''पढ़ें''। — उपरोक्त स्थिति में ऐसा क्या था जिसे आपने “पढ़ना” कहा? यानी आप ने उसे ''पढ़ना'' संभव बनाने के लिए क्या किया?


{{ParPU|162}} आइए हम निम्नलिखित परिभाषा का परीक्षण करें&nbsp;: जब आप मूल की नकल ''करते हैं'' तो आप पठन-क्रिया करते हैं। और "मूल" से मेरा तात्पर्य वह पाठ है जिसे आप पढ़ते हैं अथवा जिसकी आप नकल करते हैं; वह इमला है जिसे आप लिखते हैं; वह स्वरलिपि है जिससे आप गाते-बजाते हैं; इत्यादि, इत्यादि। — उदाहरणार्थ, अब मान लीजिए कि हमने किसी को स्लाव वर्णमाला सिखाई है और उसे प्रत्येक अक्षर का उच्चारण सिखाया है। फिर हम उसे एक गद्यांश देते हैं और वह उसके प्रत्येक अक्षर का हमारी सिखाई विधि के अनुसार उच्चारण करते हुए उसे पढ़ता है। इस स्थिति में हमारे यह कहने की अत्यधिक संभावना है कि वह हमारे द्वारा सिखाए नियमानुसार लिखित-संरूप से शब्द-ध्वनि की नकल करता है। और यह भी ''पठन'' की स्पष्ट स्थिति है। (हम कह सकते हैं कि हमने उसे 'वर्णमाला नियम' सिखाया था।)
{{ParPU|162}} आइए हम निम्नलिखित परिभाषा का परीक्षण करें&nbsp;: जब आप मूल की नकल ''करते हैं'' तो आप पठन-क्रिया करते हैं। और “मूल” से मेरा तात्पर्य वह पाठ है जिसे आप पढ़ते हैं अथवा जिसकी आप नकल करते हैं; वह इमला है जिसे आप लिखते हैं; वह स्वरलिपि है जिससे आप गाते-बजाते हैं; इत्यादि, इत्यादि। — उदाहरणार्थ, अब मान लीजिए कि हमने किसी को स्लाव वर्णमाला सिखाई है और उसे प्रत्येक अक्षर का उच्चारण सिखाया है। फिर हम उसे एक गद्यांश देते हैं और वह उसके प्रत्येक अक्षर का हमारी सिखाई विधि के अनुसार उच्चारण करते हुए उसे पढ़ता है। इस स्थिति में हमारे यह कहने की अत्यधिक संभावना है कि वह हमारे द्वारा सिखाए नियमानुसार लिखित-संरूप से शब्द-ध्वनि की नकल करता है। और यह भी ''पठन'' की स्पष्ट स्थिति है। (हम कह सकते हैं कि हमने उसे 'वर्णमाला नियम' सिखाया था।)


किन्तु हम ऐसा क्यों कहते हैं कि उसने मुद्रित शब्दों से उच्चारित शब्दों की व्युत्पत्ति की? क्या हम इससे अधिक कुछ जानते हैं कि हमने उसे सिखाया कि प्रत्येक अक्षर को कैसे उच्चारित किया जाना चाहिए और फिर उसने शब्दों का उच्चारण किया? संभवतः हमारा उत्तर होगा&nbsp;: शिक्षार्थी यह प्रदर्शित करता है कि वह हमारे द्वारा बनाये गये मुद्रित से उच्चारित शब्दों पर जाने के नियम का प्रयोग कर रहा है। — यह अधिक स्पष्टता से तब ''प्रदर्शित'' होता है जब हम अपने उदाहरण को ऐसे उदाहरण में परिवर्तित करते हैं जिसमें शिक्षार्थी पाठ को हमें पढ़ कर नहीं सुनाता अपितु उसे लिखता है, उसे मुद्रित-सामग्री को हस्तलेख में परिवर्तित करना होता है। क्योंकि ऐसी स्थिति में हम उसे नियम एक ऐसी सारिणी के रूप में दे सकते हैं जिसमें एक खाने में तो मुद्रित अक्षर हैं और दूसरे में घसीट-लेख। और वह प्रदर्शित करता है कि वह मुद्रित शब्दों को सारिणी की सहायता से हस्तलेख में परिवर्तित करता है।
किन्तु हम ऐसा क्यों कहते हैं कि उसने मुद्रित शब्दों से उच्चारित शब्दों की व्युत्पत्ति की? क्या हम इससे अधिक कुछ जानते हैं कि हमने उसे सिखाया कि प्रत्येक अक्षर को कैसे उच्चारित किया जाना चाहिए और फिर उसने शब्दों का उच्चारण किया? संभवतः हमारा उत्तर होगा&nbsp;: शिक्षार्थी यह प्रदर्शित करता है कि वह हमारे द्वारा बनाये गये मुद्रित से उच्चारित शब्दों पर जाने के नियम का प्रयोग कर रहा है। — यह अधिक स्पष्टता से तब ''प्रदर्शित'' होता है जब हम अपने उदाहरण को ऐसे उदाहरण में परिवर्तित करते हैं जिसमें शिक्षार्थी पाठ को हमें पढ़ कर नहीं सुनाता अपितु उसे लिखता है, उसे मुद्रित-सामग्री को हस्तलेख में परिवर्तित करना होता है। क्योंकि ऐसी स्थिति में हम उसे नियम एक ऐसी सारिणी के रूप में दे सकते हैं जिसमें एक खाने में तो मुद्रित अक्षर हैं और दूसरे में घसीट-लेख। और वह प्रदर्शित करता है कि वह मुद्रित शब्दों को सारिणी की सहायता से हस्तलेख में परिवर्तित करता है।
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बहरहाल, मान लीजिए कि वह प्रतिलेखन की किसी ''एक'' विधि का पालन नहीं करता, अपितु अपनी विधि को किसी सरल नियम के अनुसार परिवर्तित करता रहता है: यदि उसने '''अ''' के स्थान पर एक बार '''न''' लिखा है, तो वह आगामी '''अ''' के स्थान पर '''प''' लिखता है, उससे आगामी के स्थान पर '''क''' और तथावत्। — किन्तु इस प्रक्रिया और मनमानी प्रक्रिया में फर्क ही कहाँ है?
बहरहाल, मान लीजिए कि वह प्रतिलेखन की किसी ''एक'' विधि का पालन नहीं करता, अपितु अपनी विधि को किसी सरल नियम के अनुसार परिवर्तित करता रहता है: यदि उसने '''अ''' के स्थान पर एक बार '''न''' लिखा है, तो वह आगामी '''अ''' के स्थान पर '''प''' लिखता है, उससे आगामी के स्थान पर '''क''' और तथावत्। — किन्तु इस प्रक्रिया और मनमानी प्रक्रिया में फर्क ही कहाँ है?


किन्तु क्या इसका अर्थ है कि "व्युत्पन्न करना" शब्द का वास्तव में कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि जब हम उसके अर्थ को समझने का प्रयास करते हैं तो उस अर्थ का विघटन हो जाता है।
किन्तु क्या इसका अर्थ है कि “व्युत्पन्न करना” शब्द का वास्तव में कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि जब हम उसके अर्थ को समझने का प्रयास करते हैं तो उस अर्थ का विघटन हो जाता है।


{{ParPU|164}} §162 की स्थिति में "व्युत्पन्न करना" का अर्थ स्पष्ट था। किन्तु हमने अपने-आप से कहा क यह व्युत्पत्ति की अति विशिष्ट स्थिति थी; वहाँ (???व्युत्पत्ति तो घूँघट में छिपी थी, और उसका सार जानने के लिये हमें घूँघट हटाना होगा। अतः हमने उस घूँघट हो हटा दिया; किंतु घूँघट हटाते ही स्वयं व्युत्पत्ति ही लुप्त हो गई। — हाथीचक (एक प्रकार का केले जैसा पौधा) की वास्तविकता को जानने के लिए हमने उसके पत्ते हटा दिये, यानी उसकी सतह हमने हटा दी। क्योंकि, निश्चित रूप से §162 की स्थिति व्युत्पत्ति की विशिष्ट स्थिति थी; बहरहाल, इस स्थिति में व्युत्पत्ति का सार सतह के नीचे छुपा हुआ न था, अपितु उसकी 'सतह' तो व्युत्पत्ति के उदाहरण-समूहों में से एक उदाहरण था।
{{ParPU|164}} §162 की स्थिति में “व्युत्पन्न करना” का अर्थ स्पष्ट था। किन्तु हमने अपने-आप से कहा क यह व्युत्पत्ति की अति विशिष्ट स्थिति थी; वहाँ (???व्युत्पत्ति तो घूँघट में छिपी थी, और उसका सार जानने के लिये हमें घूँघट हटाना होगा। अतः हमने उस घूँघट हो हटा दिया; किंतु घूँघट हटाते ही स्वयं व्युत्पत्ति ही लुप्त हो गई। — हाथीचक (एक प्रकार का केले जैसा पौधा) की वास्तविकता को जानने के लिए हमने उसके पत्ते हटा दिये, यानी उसकी सतह हमने हटा दी। क्योंकि, निश्चित रूप से §162 की स्थिति व्युत्पत्ति की विशिष्ट स्थिति थी; बहरहाल, इस स्थिति में व्युत्पत्ति का सार सतह के नीचे छुपा हुआ न था, अपितु उसकी 'सतह' तो व्युत्पत्ति के उदाहरण-समूहों में से एक उदाहरण था।


और इसी प्रकार हम "पढ़ना" शब्द का प्रयोग भी स्थितियों के समूह के लिए करते हैं। और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में यह निर्धारित करने के लिए कि कोई पढ़ रहा है, हम विभिन्न कसौटियों का प्रयोग करते हैं।
और इसी प्रकार हम “पढ़ना” शब्द का प्रयोग भी स्थितियों के समूह के लिए करते हैं। और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में यह निर्धारित करने के लिए कि कोई पढ़ रहा है, हम विभिन्न कसौटियों का प्रयोग करते हैं।


{{ParPU|165}} किन्तु निश्चय ही — हम कहना चाहेंगे — पढ़ना तो अति विशिष्ट प्रक्रिया होती है! मुद्रित पृष्ठ को पढ़िए और आप समझ जाऐंगे कि कुछ विशिष्ट, कुछ अत्यन्त विशिष्ट घटित हो रहा है। — तो क्या घटित होता है जब मैं पृष्ठ को पढ़ता हूँ? मैं मुद्रित शब्दों को देखता हूँ और शब्दों को उच्चारित करता हूँ। किन्तु बेशक, यही सब कुछ नहीं है, क्योंकि यह सम्भव है कि मैं मुद्रित शब्दों को देखूँ और शब्दों का उच्चारण करूँ किन्तु फिर भी उन्हें पढ़ न रहा होऊँ। चाहे वे शब्द वही हों जिन्हें वर्तमान नियमानुसार मुद्रित शब्दों से पढ़ा जाना चाहिए। — और यदि आप कहते हैं कि पढ़ना तो विशिष्ट अनुभव होता है, तो यह नितान्त महत्त्वहीन हो जाता है कि आप किसी सामान्य-स्वीकृत वर्णमाला-नियम के अनुसार पढ़ते हैं, अथवा उसके अनुसार नहीं पढ़ते। — और पठनानुभव की विशिष्टता किसमें निहित है? — मैं यहाँ कहना चाहूंगा&nbsp;: "मेरे द्वारा उच्चारित शब्द विशेष ढंग से मेरी जुबान पर आते हैं।" वे वैसे नहीं आते जैसे कि, उदाहरणार्थ, वे मेरे द्वारा गढ़े जाने पर आते। वे तो अपने आप आते हैं। — किन्तु यह पर्याप्त नहीं है; क्योंकि हो सकता है कि जब मैं मुद्रित शब्दों का अवलोकन कर रहा होऊँ तो शब्दों की ध्वनियां मुझे ''सुनाई'' दें, किन्तु उसका अर्थ यह तो नहीं कि मैंने उन्हें पढ़ा। उदाहरणार्थ, मैं यह नहीं कहना चाहूँगा&nbsp;: मुद्रित शब्द "शून्य" मुझे सदैव "शून्य" ध्वनि की याद दिलाता है — किन्तु पढ़ते समय उच्चारित शब्द तो मानो फिसल जाते हैं। और यदि मैं जर्मन भाषा के मुद्रित शब्द को देख भर लूं तो मेरे अन्तर्मन में उसकी ध्वनि सुनने की एक विशिष्ट प्रक्रिया होती है।
{{ParPU|165}} किन्तु निश्चय ही — हम कहना चाहेंगे — पढ़ना तो अति विशिष्ट प्रक्रिया होती है! मुद्रित पृष्ठ को पढ़िए और आप समझ जाऐंगे कि कुछ विशिष्ट, कुछ अत्यन्त विशिष्ट घटित हो रहा है। — तो क्या घटित होता है जब मैं पृष्ठ को पढ़ता हूँ? मैं मुद्रित शब्दों को देखता हूँ और शब्दों को उच्चारित करता हूँ। किन्तु बेशक, यही सब कुछ नहीं है, क्योंकि यह सम्भव है कि मैं मुद्रित शब्दों को देखूँ और शब्दों का उच्चारण करूँ किन्तु फिर भी उन्हें पढ़ न रहा होऊँ। चाहे वे शब्द वही हों जिन्हें वर्तमान नियमानुसार मुद्रित शब्दों से पढ़ा जाना चाहिए। — और यदि आप कहते हैं कि पढ़ना तो विशिष्ट अनुभव होता है, तो यह नितान्त महत्त्वहीन हो जाता है कि आप किसी सामान्य-स्वीकृत वर्णमाला-नियम के अनुसार पढ़ते हैं, अथवा उसके अनुसार नहीं पढ़ते। — और पठनानुभव की विशिष्टता किसमें निहित है? — मैं यहाँ कहना चाहूंगा&nbsp;: “मेरे द्वारा उच्चारित शब्द विशेष ढंग से मेरी जुबान पर आते हैं।” वे वैसे नहीं आते जैसे कि, उदाहरणार्थ, वे मेरे द्वारा गढ़े जाने पर आते। वे तो अपने आप आते हैं। — किन्तु यह पर्याप्त नहीं है; क्योंकि हो सकता है कि जब मैं मुद्रित शब्दों का अवलोकन कर रहा होऊँ तो शब्दों की ध्वनियां मुझे ''सुनाई'' दें, किन्तु उसका अर्थ यह तो नहीं कि मैंने उन्हें पढ़ा। उदाहरणार्थ, मैं यह नहीं कहना चाहूँगा&nbsp;: मुद्रित शब्द “शून्य” मुझे सदैव “शून्य” ध्वनि की याद दिलाता है — किन्तु पढ़ते समय उच्चारित शब्द तो मानो फिसल जाते हैं। और यदि मैं जर्मन भाषा के मुद्रित शब्द को देख भर लूं तो मेरे अन्तर्मन में उसकी ध्वनि सुनने की एक विशिष्ट प्रक्रिया होती है।


{{PU box|"नितान्त विशिष्ट" (परिवेश) अभिव्यक्ति का व्याकरण। हम "इस मुख पर ''विशिष्ट'' अभिव्यक्ति है" कहते हैं, और उसके लक्षणों के विवरण के लिए शब्द खोजते हैं।}}
{{PU box|“नितान्त विशिष्ट” (परिवेश) अभिव्यक्ति का व्याकरण। हम “इस मुख पर ''विशिष्ट'' अभिव्यक्ति है” कहते हैं, और उसके लक्षणों के विवरण के लिए शब्द खोजते हैं।}}


{{ParPU|166}} मैंने कहा कि जब कोई पढ़ता है तो उच्चारित शब्द 'एक विशेष ढंग से' उसकी जुबान पर आते हैं: किन्तु किस ढंग से? क्या यह गल्प नहीं है? आइए हम एक-एक अक्षर को देखें और उसके ध्वनित होने के ढंग पर ध्यान दें। '''A''' अक्षर को पढ़ें। — अब, यह कैसे ध्वनित हुआ? — हम नहीं जानते कि इस बारे में क्या कहें — अब छोटा रोमन '''a''' लिखें — लिखते समय आपके हाथ ने कैसे हरकत की? पूर्ववर्ती प्रयोग में शब्द के ध्वनित होने के भिन्न ढंग से? — मैं तो केवल यह जानता हूँ कि मैंने मुद्रित अक्षर को देखा और हाथ से लिखा। — अब [[File:Par. 166.png|30px|link=]] चिह्न को देखें और ऐसा करते समय किसी ध्वनि को सुनें — उसका उच्चारण करें। मुझे '''‘U’''' ध्वनि सुनाई दी; किन्तु मैं नहीं कह सकता कि जिस ढंग से वह ध्वनि ''आई'' उस में और पहली स्थिति में कोई अनिवार्य भिन्नता थी। भिन्नता तो स्थिति की भिन्नता में है। मैंने पहले ही अपने आप सोच रखा था कि मुझे किसी ध्वनि को सुनना है; ध्वनि आने से पहले विशेष तनाव विद्यमान था। और मैंने '''‘U’''' को उसी प्रकार सहज ढंग से नहीं कहा जैसे मैं '''U''' अक्षर को देखने पर कहता हूँ। इसके अतिरिक्त इस चिह्न से मैं उस प्रकार सुपरिचित नहीं था जिस प्रकार कि मैं वर्णमाला के अक्षरों से होता हूँ। मैंने वस्तुतः उसे गौर से, और उसकी आकृति में विशेष रुचि लेकर देखा; उसे देखते ही मेरे मन में ग्रीक उल्टे सिग्मा (ग्रीक वर्णमाला का अक्षर) का विचार आया — इस चिह्न की नियमित रूप से एक अक्षर के समान प्रयोग किए जाने की कल्पना कीजिए; ताकि आप को इसे देखने पर एक विशेष ध्वनि, कहिए कि 'श' ध्वनि, उच्चारण करने की आदत पड़ जाए। क्या हम इसके अतिरिक्त कुछ कह सकते हैं कि कुछ समय उपरान्त जब हम चिह्न को देखते हैं तो हमें यह ध्वनि सहज ही आ जाती है? यानी मैं उसे देखने पर अब अपने-आप से नहीं पूछता "यह किस प्रकार का अक्षर है?" — न ही मैं अपने-आप को कहता हूँ "यह चिह्न मुझसे 'श' की ध्वनि उच्चारित करवाना चाहता है", और न ही "किसी प्रकार से यह चिह्न मुझे 'श' ध्वनि की याद दिलाता है"।
{{ParPU|166}} मैंने कहा कि जब कोई पढ़ता है तो उच्चारित शब्द 'एक विशेष ढंग से' उसकी जुबान पर आते हैं: किन्तु किस ढंग से? क्या यह गल्प नहीं है? आइए हम एक-एक अक्षर को देखें और उसके ध्वनित होने के ढंग पर ध्यान दें। '''A''' अक्षर को पढ़ें। — अब, यह कैसे ध्वनित हुआ? — हम नहीं जानते कि इस बारे में क्या कहें — अब छोटा रोमन '''a''' लिखें — लिखते समय आपके हाथ ने कैसे हरकत की? पूर्ववर्ती प्रयोग में शब्द के ध्वनित होने के भिन्न ढंग से? — मैं तो केवल यह जानता हूँ कि मैंने मुद्रित अक्षर को देखा और हाथ से लिखा। — अब [[File:Par. 166.png|30px|link=]] चिह्न को देखें और ऐसा करते समय किसी ध्वनि को सुनें — उसका उच्चारण करें। मुझे '''‘U’''' ध्वनि सुनाई दी; किन्तु मैं नहीं कह सकता कि जिस ढंग से वह ध्वनि ''आई'' उस में और पहली स्थिति में कोई अनिवार्य भिन्नता थी। भिन्नता तो स्थिति की भिन्नता में है। मैंने पहले ही अपने आप सोच रखा था कि मुझे किसी ध्वनि को सुनना है; ध्वनि आने से पहले विशेष तनाव विद्यमान था। और मैंने '''‘U’''' को उसी प्रकार सहज ढंग से नहीं कहा जैसे मैं '''U''' अक्षर को देखने पर कहता हूँ। इसके अतिरिक्त इस चिह्न से मैं उस प्रकार सुपरिचित नहीं था जिस प्रकार कि मैं वर्णमाला के अक्षरों से होता हूँ। मैंने वस्तुतः उसे गौर से, और उसकी आकृति में विशेष रुचि लेकर देखा; उसे देखते ही मेरे मन में ग्रीक उल्टे सिग्मा (ग्रीक वर्णमाला का अक्षर) का विचार आया — इस चिह्न की नियमित रूप से एक अक्षर के समान प्रयोग किए जाने की कल्पना कीजिए; ताकि आप को इसे देखने पर एक विशेष ध्वनि, कहिए कि 'श' ध्वनि, उच्चारण करने की आदत पड़ जाए। क्या हम इसके अतिरिक्त कुछ कह सकते हैं कि कुछ समय उपरान्त जब हम चिह्न को देखते हैं तो हमें यह ध्वनि सहज ही आ जाती है? यानी मैं उसे देखने पर अब अपने-आप से नहीं पूछता “यह किस प्रकार का अक्षर है?— न ही मैं अपने-आप को कहता हूँ “यह चिह्न मुझसे 'श' की ध्वनि उच्चारित करवाना चाहता है”, और न ही “किसी प्रकार से यह चिह्न मुझे 'श' ध्वनि की याद दिलाता है”।


(स्मृति-प्रतिबिम्बों की अन्य मानसिक प्रतिबिम्बों से भिन्नता, कुछ विशेष गुणों द्वारा की जाती है इस विचार की उपर्युक्त स्थिति से तुलना कीजिए। )
(स्मृति-प्रतिबिम्बों की अन्य मानसिक प्रतिबिम्बों से भिन्नता, कुछ विशेष गुणों द्वारा की जाती है इस विचार की उपर्युक्त स्थिति से तुलना कीजिए। )
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और ऐसा करते समय कोई वाक्य बोलें। क्या हमें ऐसा प्रतीत नहीं हो सकता कि प्रथम स्थिति में तो उच्चारण का सम्बन्ध संकेतों को देखने के साथ था, और दूसरी स्थिति में उच्चारण बिना किसी सम्बन्ध को देखे हुआ?
और ऐसा करते समय कोई वाक्य बोलें। क्या हमें ऐसा प्रतीत नहीं हो सकता कि प्रथम स्थिति में तो उच्चारण का सम्बन्ध संकेतों को देखने के साथ था, और दूसरी स्थिति में उच्चारण बिना किसी सम्बन्ध को देखे हुआ?


किन्तु आप क्यों कहते हैं कि हमें हेतु-सम्बन्ध प्रतीत हुआ? कार्य-कारणवाद तो निश्चय ही प्रयोगों द्वारा, उदाहरणार्थ, घटनाओं के नियमित सहवर्तन के निरीक्षण द्वारा, सिद्ध किया जाता है। अतः मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि मुझे वही प्रतीत हुआ, जो प्रयोग द्वारा सिद्ध किया गया है। (सच्चाई तो यह है कि केवल नियमित सहवर्तन का निरीक्षण ही वह ढंग नहीं है जिससे हम कार्य-कारण सिद्धान्त को स्थापित करते हैं।) वस्तुतः हम कह सकते हैं, कि मुझे प्रतीत होता है, कि मेरे अमुक-अमुक पढ़ने का ''कारण'' तो अक्षर ही हैं। क्योंकि यदि कोई मुझसे पूछता है "आप अमुक-अमुक क्यों पढ़ते हैं?" — मैं अपने पढ़ने का औचित्य वहाँ उपस्थित अक्षरों द्वारा देता हूँ।
किन्तु आप क्यों कहते हैं कि हमें हेतु-सम्बन्ध प्रतीत हुआ? कार्य-कारणवाद तो निश्चय ही प्रयोगों द्वारा, उदाहरणार्थ, घटनाओं के नियमित सहवर्तन के निरीक्षण द्वारा, सिद्ध किया जाता है। अतः मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि मुझे वही प्रतीत हुआ, जो प्रयोग द्वारा सिद्ध किया गया है। (सच्चाई तो यह है कि केवल नियमित सहवर्तन का निरीक्षण ही वह ढंग नहीं है जिससे हम कार्य-कारण सिद्धान्त को स्थापित करते हैं।) वस्तुतः हम कह सकते हैं, कि मुझे प्रतीत होता है, कि मेरे अमुक-अमुक पढ़ने का ''कारण'' तो अक्षर ही हैं। क्योंकि यदि कोई मुझसे पूछता है “आप अमुक-अमुक क्यों पढ़ते हैं?— मैं अपने पढ़ने का औचित्य वहाँ उपस्थित अक्षरों द्वारा देता हूँ।


बहरहाल, यह औचित्य तो मेरे कुछ कहने अथवा समझने में था&nbsp;: यह कहने का क्या अर्थ है कि मैं इसे ''अनुभव'' करता हूँ? मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: जब मैं पढ़ता हूँ तो
बहरहाल, यह औचित्य तो मेरे कुछ कहने अथवा समझने में था&nbsp;: यह कहने का क्या अर्थ है कि मैं इसे ''अनुभव'' करता हूँ? मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: जब मैं पढ़ता हूँ तो


मुझे प्रतीत होता है कि मैं अक्षरों के किसी प्रभाव से संचालित हो रहा हूँ — किन्तु मेरे द्वारा कही गई यादृच्छिक अलंकृत अभिव्यक्तियों की श्रृंखलाओं का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आइए, एक बार फिर हम किसी एक अक्षर की ऐसी अलंकृति से तुलना करें। क्या मुझे यह भी कहना चाहिए कि जब मैं "''मैं''" को पढ़ता हूँ तो क्या मुझ पर उसका प्रभाव पड़ता है? बेशक, मेरे "मैं" को देखने पर "मैं" कहने में, अथवा 8 चिह्न देखने पर "मैं" कहने में अन्तर होता है। अन्तर, उदाहरणार्थ, यह है कि "मैं" अक्षर को देखने पर स्वतः अपने अन्तर्मन में "मैं" ध्वनि सुनाई देती है, ऐसा मेरी इच्छा के विरुद्ध भी होता है; और "§" देखने पर "मैं" उच्चारण करने की अपेक्षा "मैं" अक्षर को देखकर "मैं" का उच्चारण मैं कहीं अधिक सरलता से करता हूँ। यानी ऐसा ही होता है जब मैं कोई प्रयोग करता हूँ; किन्तु बेशक, ऐसा नहीं होता जब मैं § चिह्न को देख रहा होता हूँ और उसके साथ-साथ "मैं" ध्वनि वाले शब्द को उच्चारित करता हूँ।
मुझे प्रतीत होता है कि मैं अक्षरों के किसी प्रभाव से संचालित हो रहा हूँ — किन्तु मेरे द्वारा कही गई यादृच्छिक अलंकृत अभिव्यक्तियों की श्रृंखलाओं का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आइए, एक बार फिर हम किसी एक अक्षर की ऐसी अलंकृति से तुलना करें। क्या मुझे यह भी कहना चाहिए कि जब मैं ''मैं''को पढ़ता हूँ तो क्या मुझ पर उसका प्रभाव पड़ता है? बेशक, मेरे “मैं” को देखने पर “मैं” कहने में, अथवा 8 चिह्न देखने पर “मैं” कहने में अन्तर होता है। अन्तर, उदाहरणार्थ, यह है कि “मैं” अक्षर को देखने पर स्वतः अपने अन्तर्मन में “मैं” ध्वनि सुनाई देती है, ऐसा मेरी इच्छा के विरुद्ध भी होता है; और “§” देखने पर “मैं” उच्चारण करने की अपेक्षा “मैं” अक्षर को देखकर “मैं” का उच्चारण मैं कहीं अधिक सरलता से करता हूँ। यानी ऐसा ही होता है जब मैं कोई प्रयोग करता हूँ; किन्तु बेशक, ऐसा नहीं होता जब मैं § चिह्न को देख रहा होता हूँ और उसके साथ-साथ “मैं” ध्वनि वाले शब्द को उच्चारित करता हूँ।


{{ParPU|170}} यदि हमने अक्षरों की यादृच्छिक चिह्नों से तुलना न की होती तो हमें पढ़ते समय अक्षरों के ''प्रभाव'' के ''अनुभव'' पर विचार करने के बारे में सूझता ही नहीं। और यहाँ हम ''भिन्नता'' तो देख ही रहे हैं। और इसकी व्याख्या हम प्रभावित होने और प्रभावित न होने में भेद के समान कर रहे हैं।
{{ParPU|170}} यदि हमने अक्षरों की यादृच्छिक चिह्नों से तुलना न की होती तो हमें पढ़ते समय अक्षरों के ''प्रभाव'' के ''अनुभव'' पर विचार करने के बारे में सूझता ही नहीं। और यहाँ हम ''भिन्नता'' तो देख ही रहे हैं। और इसकी व्याख्या हम प्रभावित होने और प्रभावित न होने में भेद के समान कर रहे हैं।
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अथवा&nbsp;: आप किसी पगडंडी पर टहल रहे हैं, मात्र उसका अनुसरण करते हुए। ये सभी स्थितियां एक दूसरे के सदृश हैं; किन्तु इन सभी अनुभवों में साझा क्या है?
अथवा&nbsp;: आप किसी पगडंडी पर टहल रहे हैं, मात्र उसका अनुसरण करते हुए। ये सभी स्थितियां एक दूसरे के सदृश हैं; किन्तु इन सभी अनुभवों में साझा क्या है?


{{ParPU|173}} "किन्तु निश्चय ही नियंत्रित होना तो एक विशेष अनुभव है!" — इसका उत्तर है: अब आप नियंत्रित होने के किसी विशेष अनुभव के बारे में ''सोच रहे हैं''।
{{ParPU|173}} “किन्तु निश्चय ही नियंत्रित होना तो एक विशेष अनुभव है!— इसका उत्तर है: अब आप नियंत्रित होने के किसी विशेष अनुभव के बारे में ''सोच रहे हैं''।


यदि मैं पूर्वोदाहरणों में से ही किसी ऐसे व्यक्ति के अनुभव को समझना चाहूँ जिसका लेखन मुद्रित पाठ एवं सारिणी से नियंत्रित हो तो मैं उसके द्वारा 'विवेकपूर्ण' अवलोकन इत्यादि की कल्पना करता हूँ। ऐसा करते समय मेरे चेहरे पर एक विशेष भाव (मानो कि विवेकशील मुनीम का भाव) आता है। ''सतर्कता'' इस चित्र का अनिवार्य अंग है; किसी अन्य चित्र में अपने संकल्पों, समस्त इच्छाओं का निवारण अनिवार्य होगा। (किन्तु सामान्य लोगों द्वारा नितान्त तटस्थ रूप से की जाने वाली क्रिया पर ध्यान दें और कल्पना करें कि कोई उसे बेहद सतर्कता की अभिव्यक्ति के साथ — और संवेदनाओं के साथ भी क्यों नहीं? — करता है। — क्या इसका अर्थ होगा कि वह सतर्क है? बाहरी रूप से सतर्क दिखने वाले किसी नौकर द्वारा सामान सहित चाय की ट्रे को गिराने की कल्पना कीजिए।) यदि मैं ऐसे विशिष्ट अनुभव की कल्पना करता हूँ तो वह मुझे नियंत्रित होने (अथवा पढ़ने) का अनुभव प्रतीत होता है। किन्तु अब मैं अपने आप से पूछता हूँ&nbsp;: आप क्या कर रहे हैं? — आप प्रत्येक अक्षर को देख रहे हैं, आप ऐसी मुखाकृति बना रहे आप अक्षरों को सतर्कतापूर्वक लिख रहे हैं। (इत्यादि)। — तो नियंत्रित होना ऐसा अनुभव है? — यहाँ मैं कहना चाहूंगा&nbsp;: "नहीं वह ऐसा नहीं है; वह तो अधिक अंतर्वर्ती, अधिक मूलभूत है।" — मानो शुरू में ये सभी न्यूनाधिक अनावश्यक प्रक्रियाएँ ऐसे कोहरे से आच्छादित हैं जो मेरे सूक्ष्म निरीक्षण करने पर छूट जाता है।
यदि मैं पूर्वोदाहरणों में से ही किसी ऐसे व्यक्ति के अनुभव को समझना चाहूँ जिसका लेखन मुद्रित पाठ एवं सारिणी से नियंत्रित हो तो मैं उसके द्वारा 'विवेकपूर्ण' अवलोकन इत्यादि की कल्पना करता हूँ। ऐसा करते समय मेरे चेहरे पर एक विशेष भाव (मानो कि विवेकशील मुनीम का भाव) आता है। ''सतर्कता'' इस चित्र का अनिवार्य अंग है; किसी अन्य चित्र में अपने संकल्पों, समस्त इच्छाओं का निवारण अनिवार्य होगा। (किन्तु सामान्य लोगों द्वारा नितान्त तटस्थ रूप से की जाने वाली क्रिया पर ध्यान दें और कल्पना करें कि कोई उसे बेहद सतर्कता की अभिव्यक्ति के साथ — और संवेदनाओं के साथ भी क्यों नहीं? — करता है। — क्या इसका अर्थ होगा कि वह सतर्क है? बाहरी रूप से सतर्क दिखने वाले किसी नौकर द्वारा सामान सहित चाय की ट्रे को गिराने की कल्पना कीजिए।) यदि मैं ऐसे विशिष्ट अनुभव की कल्पना करता हूँ तो वह मुझे नियंत्रित होने (अथवा पढ़ने) का अनुभव प्रतीत होता है। किन्तु अब मैं अपने आप से पूछता हूँ&nbsp;: आप क्या कर रहे हैं? — आप प्रत्येक अक्षर को देख रहे हैं, आप ऐसी मुखाकृति बना रहे आप अक्षरों को सतर्कतापूर्वक लिख रहे हैं। (इत्यादि)। — तो नियंत्रित होना ऐसा अनुभव है? — यहाँ मैं कहना चाहूंगा&nbsp;: “नहीं वह ऐसा नहीं है; वह तो अधिक अंतर्वर्ती, अधिक मूलभूत है।” — मानो शुरू में ये सभी न्यूनाधिक अनावश्यक प्रक्रियाएँ ऐसे कोहरे से आच्छादित हैं जो मेरे सूक्ष्म निरीक्षण करने पर छूट जाता है।


{{ParPU|174}} अपने आप से पूछें कि आप 'सतर्कतापूर्वक' किसी रेखा के समानान्तर — और किसी अन्य समय सतर्कतापूर्वक उससे कोण बनाते हुए, रेखा कैसे खींचते हैं। सतर्कतापूर्ण होने का अनुभव कैसा होता है? यहाँ आपको यकायक एक विशिष्ट दृष्टि, विशिष्ट भंगिमा ध्यान आती है — और फिर आप कहना चाहेंगे&nbsp;: "पर यही तो एक ''विशिष्ट'' आंतरिक अनुभव होता है"। (पर यह तो कुछ भी नया कहना नहीं है।)
{{ParPU|174}} अपने आप से पूछें कि आप 'सतर्कतापूर्वक' किसी रेखा के समानान्तर — और किसी अन्य समय सतर्कतापूर्वक उससे कोण बनाते हुए, रेखा कैसे खींचते हैं। सतर्कतापूर्ण होने का अनुभव कैसा होता है? यहाँ आपको यकायक एक विशिष्ट दृष्टि, विशिष्ट भंगिमा ध्यान आती है — और फिर आप कहना चाहेंगे&nbsp;: “पर यही तो एक ''विशिष्ट'' आंतरिक अनुभव होता है”। (पर यह तो कुछ भी नया कहना नहीं है।)


(इसका सम्बन्ध अभिप्राय और संकल्प की प्रकृति की समस्या से है।)
(इसका सम्बन्ध अभिप्राय और संकल्प की प्रकृति की समस्या से है।)


{{ParPU|175}} कागज के टुकड़े पर कोई यादृच्छिक डिज़ाइन बनाएं। — और अब उसके पास ही उसकी प्रतिकृति बनाएं ऐसा करते समय आप अपने आपको उससे नियंत्रित होने दें। — मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: "निश्चय ही, मैं यहाँ नियंत्रित था। किन्तु जहाँ तक घटित — यदि मैं उसे घटित होना कहूँ तो — में वैशिष्ट्य का प्रश्न है, वह अब मुझे विशिष्ट नहीं लगता।"
{{ParPU|175}} कागज के टुकड़े पर कोई यादृच्छिक डिज़ाइन बनाएं। — और अब उसके पास ही उसकी प्रतिकृति बनाएं ऐसा करते समय आप अपने आपको उससे नियंत्रित होने दें। — मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: “निश्चय ही, मैं यहाँ नियंत्रित था। किन्तु जहाँ तक घटित — यदि मैं उसे घटित होना कहूँ तो — में वैशिष्ट्य का प्रश्न है, वह अब मुझे विशिष्ट नहीं लगता।”


किन्तु अब इस पर ध्यान दें&nbsp;: ''जब तक'' मैं नियंत्रित होता हूँ तब तक सब कुछ बिल्कुल सामान्य रहता है, कुछ भी ''विशेष'' नहीं लगता; किन्तु बाद में जब मैं अपने आप से पूछता हूँ कि क्या हुआ था, तो वह मुझे अनिर्वचनीय प्रतीत होता है। ''बाद'' में कोई भी विवरण मुझे संतुष्ट नहीं करता। मानो मुझे विश्वास नहीं होता कि मैंने मात्र अवलोकन किया था, अमुक मुखाकृति बनाई थी, और अमुक रेखा खींची थी। — किन्तु क्या मुझे कुछ और ''स्मरण'' नहीं है? नहीं; और फिर भी मुझे प्रतीत होता है कि कुछ और अवश्य होना चाहिए; विशेषत&nbsp;: तब जब मैं स्वयं "''नियंत्रित'' होने", " ''प्रभावित'' होने" और अन्य ऐसे शब्दों का उल्लेख करता हूँ। "क्योंकि निश्चय ही" मैं अपने आप से कहता हूँ "मैं ''नियंत्रित'' था।" — केवल तभी उस सूक्ष्म, अमूर्त प्रभाव का विचार उठता है।
किन्तु अब इस पर ध्यान दें&nbsp;: ''जब तक'' मैं नियंत्रित होता हूँ तब तक सब कुछ बिल्कुल सामान्य रहता है, कुछ भी ''विशेष'' नहीं लगता; किन्तु बाद में जब मैं अपने आप से पूछता हूँ कि क्या हुआ था, तो वह मुझे अनिर्वचनीय प्रतीत होता है। ''बाद'' में कोई भी विवरण मुझे संतुष्ट नहीं करता। मानो मुझे विश्वास नहीं होता कि मैंने मात्र अवलोकन किया था, अमुक मुखाकृति बनाई थी, और अमुक रेखा खींची थी। — किन्तु क्या मुझे कुछ और ''स्मरण'' नहीं है? नहीं; और फिर भी मुझे प्रतीत होता है कि कुछ और अवश्य होना चाहिए; विशेषत&nbsp;: तब जब मैं स्वयं ''नियंत्रित'' होने”, ''प्रभावित'' होने” और अन्य ऐसे शब्दों का उल्लेख करता हूँ। “क्योंकि निश्चय ही” मैं अपने आप से कहता हूँ “मैं ''नियंत्रित'' था।” — केवल तभी उस सूक्ष्म, अमूर्त प्रभाव का विचार उठता है।


{{ParPU|176}} जब मैं अपने अनुभव का सिंहावलोकन करता हूँ तो मुझे प्रतीत होता है। कि इसके बारे में अनिवार्य बात तो यह है कि यह संवृत्तियों की समकालीनता का नहीं, अपितु उनके संबंधों से 'प्रभावित होने का अनुभव' है। किन्तु इसके साथ ही मैं किसी भी अनुभव की हुई संवृत्ति को "प्रभावित होने का अनुभव" नहीं कहना चाहूँगा। (इच्छा करना ''संवृत्ति'' तो नहीं होता, इस विचार का इसमें बीजाणु है।) मैं कहना चाहूँगा कि मुझे ‘''क्योंकि''’ का अनुभव हुआ पर फिर भी मैं किसी भी संवृत्ति को "क्योंकि का अनुभव" नहीं कहना चाहता।
{{ParPU|176}} जब मैं अपने अनुभव का सिंहावलोकन करता हूँ तो मुझे प्रतीत होता है। कि इसके बारे में अनिवार्य बात तो यह है कि यह संवृत्तियों की समकालीनता का नहीं, अपितु उनके संबंधों से 'प्रभावित होने का अनुभव' है। किन्तु इसके साथ ही मैं किसी भी अनुभव की हुई संवृत्ति को “प्रभावित होने का अनुभव” नहीं कहना चाहूँगा। (इच्छा करना ''संवृत्ति'' तो नहीं होता, इस विचार का इसमें बीजाणु है।) मैं कहना चाहूँगा कि मुझे ‘''क्योंकि''’ का अनुभव हुआ पर फिर भी मैं किसी भी संवृत्ति को “क्योंकि का अनुभव” नहीं कहना चाहता।


{{ParPU|177}} मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: "मैं क्योंकि का अनुभव करता हूँ"। इसलिए नहीं कि मुझे ऐसे अनुभव की स्मृति है, अपितु इसलिए कि जब मैं ऐसी स्थिति में हुए अनुभव के बारे में विचार करता हूँ तो मैं उसे 'क्योंकि' (अथवा 'प्रभाव' अथवा 'कारण', अथवा 'सम्बन्ध') प्रत्यय के माध्यम से देखता हूँ — क्योंकि निस्संदेह यह कहना उचित है कि मैंने मूल से प्रभावित होकर रेखा खींची&nbsp;: बहरहाल, यह प्रभाव रेखा खींचते समय मुझे होने वाली संवेदनाओं में निहित नहीं होता — किन्हीं विशेष परिस्थितियों में यह समानान्तर रेखा खींचने में निहित हो सकता है — यद्यपि यह भी साधारणतः नियंत्रित होने में अनिवार्य नहीं होता। —
{{ParPU|177}} मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: “मैं क्योंकि का अनुभव करता हूँ”। इसलिए नहीं कि मुझे ऐसे अनुभव की स्मृति है, अपितु इसलिए कि जब मैं ऐसी स्थिति में हुए अनुभव के बारे में विचार करता हूँ तो मैं उसे 'क्योंकि' (अथवा 'प्रभाव' अथवा 'कारण', अथवा 'सम्बन्ध') प्रत्यय के माध्यम से देखता हूँ — क्योंकि निस्संदेह यह कहना उचित है कि मैंने मूल से प्रभावित होकर रेखा खींची&nbsp;: बहरहाल, यह प्रभाव रेखा खींचते समय मुझे होने वाली संवेदनाओं में निहित नहीं होता — किन्हीं विशेष परिस्थितियों में यह समानान्तर रेखा खींचने में निहित हो सकता है — यद्यपि यह भी साधारणतः नियंत्रित होने में अनिवार्य नहीं होता। —


{{ParPU|178}} हम यह भी कहते हैं: "आप समझ सकते हैं कि मैं इससे नियंत्रित हूँ" — और यदि आप इसे समझते हैं तो आप क्या समझते हैं?
{{ParPU|178}} हम यह भी कहते हैं: “आप समझ सकते हैं कि मैं इससे नियंत्रित हूँ” — और यदि आप इसे समझते हैं तो आप क्या समझते हैं?


जब मैं अपने आप से कहता हूँ&nbsp;: "किन्तु मैं तो नियंत्रित हूँ" — सम्भवत&nbsp;: मैं अपने हाथ को कुछ इस तरह हिलाता हूँ जिससे नियन्त्रित किये जाने का पता चले। — हाथ को ऐसे ढंग से हिलायें, मानो, आप किसी को नियंत्रित कर रहे हों, और फिर अपने आप से पूछें कि इस गतिविधि में ''नियंत्रित'' करने वाला गुण किसमें निहित है। क्योंकि आप तो किसी का भी मार्गदर्शन नहीं कर रहे थे। किन्तु आप अब भी इस गतिविधि को 'नियंत्रण' करने वाली गतिविधि कहना चाहते हैं। इस गतिविधि एवं संवेदना में नियंत्रित करने का सार निहित नहीं है, तो भी यह शब्द आप पर हावी रहता है। नियंत्रित करने का ''एकल आकार'' ही हम पर अभिव्यक्ति को लादता है।
जब मैं अपने आप से कहता हूँ&nbsp;: “किन्तु मैं तो नियंत्रित हूँ” — सम्भवत&nbsp;: मैं अपने हाथ को कुछ इस तरह हिलाता हूँ जिससे नियन्त्रित किये जाने का पता चले। — हाथ को ऐसे ढंग से हिलायें, मानो, आप किसी को नियंत्रित कर रहे हों, और फिर अपने आप से पूछें कि इस गतिविधि में ''नियंत्रित'' करने वाला गुण किसमें निहित है। क्योंकि आप तो किसी का भी मार्गदर्शन नहीं कर रहे थे। किन्तु आप अब भी इस गतिविधि को 'नियंत्रण' करने वाली गतिविधि कहना चाहते हैं। इस गतिविधि एवं संवेदना में नियंत्रित करने का सार निहित नहीं है, तो भी यह शब्द आप पर हावी रहता है। नियंत्रित करने का ''एकल आकार'' ही हम पर अभिव्यक्ति को लादता है।


{{ParPU|179}} आइए हम §151 की स्थिति पर लौटें। यह तो स्पष्ट है कि हमें तब तक यह नहीं कहना चाहिए कि '''ख''' को केवल सूत्र सोचने के कारण "अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है" इन शब्दों का कहने का अधिकार है, — जब तक कि अनुभव ने यह प्रदर्शित न किया हो कि सूत्र को सोचने — उसका उल्लेख करने, उसे लिखने — और श्रृंखला को वस्तुतः आगे बढ़ाने में कोई संबंध होता है। और स्पष्ट रूप से ऐसा संबंध होता है। — और अब कोई समझ सकता है कि "मैं आगे बढ़ सकता हूँ" वाक्य का अर्थ होता है कि मुझे ऐसा अनुभव है जिस के बारे में मैं प्रयोग-ज्ञान से जानता हूँ कि वह श्रृंखला को आगे बढ़ाता है"। किन्तु जब '''ख''' कहता है कि वह आगे बढ़ सकता है तो क्या उसका यह तात्पर्य होता है? क्या वह वाक्य उसके मन में आता है, अथवा क्या वह उसे अपने तात्पर्य की व्याख्या करते समय देने को तत्पर है?
{{ParPU|179}} आइए हम §151 की स्थिति पर लौटें। यह तो स्पष्ट है कि हमें तब तक यह नहीं कहना चाहिए कि '''ख''' को केवल सूत्र सोचने के कारण “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है” इन शब्दों का कहने का अधिकार है, — जब तक कि अनुभव ने यह प्रदर्शित न किया हो कि सूत्र को सोचने — उसका उल्लेख करने, उसे लिखने — और श्रृंखला को वस्तुतः आगे बढ़ाने में कोई संबंध होता है। और स्पष्ट रूप से ऐसा संबंध होता है। — और अब कोई समझ सकता है कि “मैं आगे बढ़ सकता हूँ” वाक्य का अर्थ होता है कि मुझे ऐसा अनुभव है जिस के बारे में मैं प्रयोग-ज्ञान से जानता हूँ कि वह श्रृंखला को आगे बढ़ाता है"। किन्तु जब '''ख''' कहता है कि वह आगे बढ़ सकता है तो क्या उसका यह तात्पर्य होता है? क्या वह वाक्य उसके मन में आता है, अथवा क्या वह उसे अपने तात्पर्य की व्याख्या करते समय देने को तत्पर है?


नहीं। जब उसने सूत्र के बारे में सोचा था तो "अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है" शब्दों का उचित प्रयोग हुआ; यानी जब तक पता हो कि उसने बीजगणित सीखा था, पहले ऐसे सूत्र प्रयोग किये थे। — किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उसका कथन हमारे भाषा-खेल के दृश्य की संरचना करने वाली सभी परिस्थितियों के विवरण का संक्षिप्त रूप है। — विचार कीजिए&nbsp;: "अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है", "अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ" और अन्य अभिव्यक्तियों को हम कैसे सीखते हैं; भाषा-खेलों के किस समूह में हम उनका प्रयोग सीखते हैं।
नहीं। जब उसने सूत्र के बारे में सोचा था तो “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है” शब्दों का उचित प्रयोग हुआ; यानी जब तक पता हो कि उसने बीजगणित सीखा था, पहले ऐसे सूत्र प्रयोग किये थे। — किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उसका कथन हमारे भाषा-खेल के दृश्य की संरचना करने वाली सभी परिस्थितियों के विवरण का संक्षिप्त रूप है। — विचार कीजिए&nbsp;: “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है”, “अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ” और अन्य अभिव्यक्तियों को हम कैसे सीखते हैं; भाषा-खेलों के किस समूह में हम उनका प्रयोग सीखते हैं।


हम ऐसी स्थिति की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें '''ख''' के मन में सिवाए इसके कुछ भी नहीं होता कि उसने अचानक — सम्भवतः चैन के साथ — कहा "अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है" और बिना सूत्र का प्रयोग किए वह श्रृंखला को आगे बढ़ाता गया। और इस स्थिति में हमें कहना चाहिए&nbsp;: विशिष्ट परिस्थितियों में वह निश्चय ही जानता था कि आगे कैसे बढ़ना है।
हम ऐसी स्थिति की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें '''ख''' के मन में सिवाए इसके कुछ भी नहीं होता कि उसने अचानक — सम्भवतः चैन के साथ — कहा “अब मैं जानता हूँ कि आगे कैसे बढ़ना है” और बिना सूत्र का प्रयोग किए वह श्रृंखला को आगे बढ़ाता गया। और इस स्थिति में हमें कहना चाहिए&nbsp;: विशिष्ट परिस्थितियों में वह निश्चय ही जानता था कि आगे कैसे बढ़ना है।


{{ParPU|180}} ''ये शब्द इसी तरह प्रयुक्त होते हैं।'' उदाहरणार्थ, इस उत्तरोक्त स्थिति में शब्दों को "मनःस्थिति का विवरण" कहना तो अत्यन्त भ्रामक होगा। — वस्तुतः उन्हें "संकेतक" कहा जा सकता है; संकेतक के उचित प्रयोग के प्रश्न का निर्धारण हम उसके आगामी कार्य से करते हैं।
{{ParPU|180}} ''ये शब्द इसी तरह प्रयुक्त होते हैं।'' उदाहरणार्थ, इस उत्तरोक्त स्थिति में शब्दों को “मनःस्थिति का विवरण” कहना तो अत्यन्त भ्रामक होगा। — वस्तुतः उन्हें “संकेतक” कहा जा सकता है; संकेतक के उचित प्रयोग के प्रश्न का निर्धारण हम उसके आगामी कार्य से करते हैं।


{{ParPU|181}} यह समझने के लिए हमें इस पर विचार करने की आवश्यकता है: मान लीजिए '''ख''' कहता है कि वह यह जानता है कि आगे कैसे बढ़ना है — किन्तु जब वह आगे बढ़ना चाहता है तो वह द्विविधा-ग्रस्त हो जाता है और आगे नहीं बढ़ पाता; क्या हमें कहना चाहिए कि जब उसने कहा कि वह आगे बढ़ सकता है तो वह गलती पर था, अथवा यह कि तब वह आगे बढ़ सकने में समर्थ था परन्तु अब नहीं? — स्पष्टतः हम भिन्न स्थितियों में भिन्न बातें कहेंगे। (दोनों प्रकार की स्थितियों पर विचार कीजिए।)
{{ParPU|181}} यह समझने के लिए हमें इस पर विचार करने की आवश्यकता है: मान लीजिए '''ख''' कहता है कि वह यह जानता है कि आगे कैसे बढ़ना है — किन्तु जब वह आगे बढ़ना चाहता है तो वह द्विविधा-ग्रस्त हो जाता है और आगे नहीं बढ़ पाता; क्या हमें कहना चाहिए कि जब उसने कहा कि वह आगे बढ़ सकता है तो वह गलती पर था, अथवा यह कि तब वह आगे बढ़ सकने में समर्थ था परन्तु अब नहीं? — स्पष्टतः हम भिन्न स्थितियों में भिन्न बातें कहेंगे। (दोनों प्रकार की स्थितियों पर विचार कीजिए।)


{{ParPU|182}} "फिट होने", "समर्थ होने", और "समझने" का व्याकरण।
{{ParPU|182}} “फिट होने”, “समर्थ होने”, और “समझने” का व्याकरण।


अभ्यास&nbsp;: (1) हम कब कहते हैं कि बेलन '''ब''' खोखले बेलन '''ख''' में फिट होता है? केवल तभी जब '''ब''' को '''ख''' में फँसाया जाता है? (2) कभी-कभी हम कहते हैं कि अमुक-अमुक समय पर '''ब''', '''ख''' में फिट नहीं होता। ऐसी स्थिति में उसके फिट होने की कौन सी कसौटी प्रयुक्त की जाती है ? (3) किसी समय विशेष पर जब कोई वस्तु तुला पर नहीं होती उसके भार परिवर्तन की क्या कसौटी होगी ? (4) कल मुझे कविता कंठस्थ थी; परन्तु अब मुझे वह याद नहीं। किन स्थितियों में यह पूछने का अर्थ होता है: "मैं उसे कब से भूला?" (5) कोई मुझसे पूछता है: "क्या आप यह भार उठा सकते हैं?" मैं उत्तर देता हूँ "हां"। अब वह कहता है "उठाओ!" — पर मैं उठा नहीं पाता। किन स्थितियों में यह कहना असंगत होगा "जब मैंने 'हाँ' में उत्तर दिया था तो मैं ऐसा कर ''सकता'' था, किन्तु अब नहीं "?
अभ्यास&nbsp;: (1) हम कब कहते हैं कि बेलन '''ब''' खोखले बेलन '''ख''' में फिट होता है? केवल तभी जब '''ब''' को '''ख''' में फँसाया जाता है? (2) कभी-कभी हम कहते हैं कि अमुक-अमुक समय पर '''ब''', '''ख''' में फिट नहीं होता। ऐसी स्थिति में उसके फिट होने की कौन सी कसौटी प्रयुक्त की जाती है ? (3) किसी समय विशेष पर जब कोई वस्तु तुला पर नहीं होती उसके भार परिवर्तन की क्या कसौटी होगी ? (4) कल मुझे कविता कंठस्थ थी; परन्तु अब मुझे वह याद नहीं। किन स्थितियों में यह पूछने का अर्थ होता है: “मैं उसे कब से भूला?(5) कोई मुझसे पूछता है: “क्या आप यह भार उठा सकते हैं?मैं उत्तर देता हूँ “हां”। अब वह कहता है “उठाओ!— पर मैं उठा नहीं पाता। किन स्थितियों में यह कहना असंगत होगा “जब मैंने 'हाँ' में उत्तर दिया था तो मैं ऐसा कर ''सकता'' था, किन्तु अब नहीं ?


"फिट होने", "योग्य होने", "समझने" के लिए जिन कसौटियों को हम स्वीकार करते हैं, वे पहली नजर में दिखाई देने वाली जटिलता से कहीं अधिक जटिल होती हैं। अतः इन शब्दों से खेले जाने वाले खेल, उनके प्रयोग द्वारा होने वाले भाषाई-सम्पर्क — हमारी भाषा में इन शब्दों की भूमिका — हमारी कल्पना से कहीं अधिक जटिल होते हैं।
“फिट होने”, “योग्य होने”, “समझने” के लिए जिन कसौटियों को हम स्वीकार करते हैं, वे पहली नजर में दिखाई देने वाली जटिलता से कहीं अधिक जटिल होती हैं। अतः इन शब्दों से खेले जाने वाले खेल, उनके प्रयोग द्वारा होने वाले भाषाई-सम्पर्क — हमारी भाषा में इन शब्दों की भूमिका — हमारी कल्पना से कहीं अधिक जटिल होते हैं।


(दार्शनिक विरोधाभासों के समाधान के लिए हमें इन भूमिकाओं को समझना आवश्यक है। और इसीलिए सामान्यतः, परिभाषाएं उनका समाधान करने में असफल होती हैं; और इसीलिए ''सुतरां स्पष्ट'' यह अभिकथन भी कि शब्द 'अनिर्वचनीय' है।)
(दार्शनिक विरोधाभासों के समाधान के लिए हमें इन भूमिकाओं को समझना आवश्यक है। और इसीलिए सामान्यतः, परिभाषाएं उनका समाधान करने में असफल होती हैं; और इसीलिए ''सुतरां स्पष्ट'' यह अभिकथन भी कि शब्द 'अनिर्वचनीय' है।)


{{ParPU|183}} किन्तु क्या §157 की स्थिति में "अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ" का अर्थ "अब मुझे सूत्र पता चल गया है" के समान था, अथवा इससे कुछ भिन्न? हम कह सकते हैं कि इन परिस्थितियों में दोनों वाक्यों का एक समान अर्थ है, उनकी निष्पत्ति भी समान है। किन्तु यह भी कह सकते हैं कि ''साधारणतया'' इन दो वाक्यों का अर्थ
{{ParPU|183}} किन्तु क्या §157 की स्थिति में “अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ” का अर्थ “अब मुझे सूत्र पता चल गया है” के समान था, अथवा इससे कुछ भिन्न? हम कह सकते हैं कि इन परिस्थितियों में दोनों वाक्यों का एक समान अर्थ है, उनकी निष्पत्ति भी समान है। किन्तु यह भी कह सकते हैं कि ''साधारणतया'' इन दो वाक्यों का अर्थ


एक समान नहीं होता। हम कहते ही हैं: "अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ, मेरा तात्पर्य है कि मुझे सूत्र ज्ञात है", इसको उसी प्रकार कहते हैं, जैसे "मैं चल सकता हूँ मेरा तात्पर्य है कि मेरे पास समय है"; और यह भी कह सकते हैं "मैं चल सकता हूँ मेरा तात्पर्य है कि मुझमें पहले से ही यथेष्ट बल है"; अथवा&nbsp;: "मैं चल सकता जहाँ तक कि मेरी अंगों की स्थिति का सम्बन्ध है", यानी जब हम चलने की इस परिस्थिति की तुलना चलने की अन्य परिस्थितियों से करते हैं। किन्तु यहाँ हमें इस समझ से बचना होगा कि प्रत्येक स्थिति, उदाहरणार्थ, व्यक्ति के चलने की स्थिति के अनुरूप परिस्थितियों, की ''सम्पूर्णता'' होती है ताकि यदि उन सब परिस्थितियों की पूर्ति हो जाए तो वह चलने के ''अतिरिक्त कुछ भी न'' कर पाएगा।
एक समान नहीं होता। हम कहते ही हैं: “अब मैं आगे बढ़ सकता हूँ, मेरा तात्पर्य है कि मुझे सूत्र ज्ञात है”, इसको उसी प्रकार कहते हैं, जैसे “मैं चल सकता हूँ मेरा तात्पर्य है कि मेरे पास समय है”; और यह भी कह सकते हैं “मैं चल सकता हूँ मेरा तात्पर्य है कि मुझमें पहले से ही यथेष्ट बल है”; अथवा&nbsp;: “मैं चल सकता जहाँ तक कि मेरी अंगों की स्थिति का सम्बन्ध है”, यानी जब हम चलने की इस परिस्थिति की तुलना चलने की अन्य परिस्थितियों से करते हैं। किन्तु यहाँ हमें इस समझ से बचना होगा कि प्रत्येक स्थिति, उदाहरणार्थ, व्यक्ति के चलने की स्थिति के अनुरूप परिस्थितियों, की ''सम्पूर्णता'' होती है ताकि यदि उन सब परिस्थितियों की पूर्ति हो जाए तो वह चलने के ''अतिरिक्त कुछ भी न'' कर पाएगा।


{{ParPU|184}} मैं किसी गाने की धुन को स्मरण करना चाहता हूँ, किन्तु वह मुझे याद नहीं आती; अचानक मैं कहता हूँ "अब मुझे वह ज्ञात है", और मैं उसे गाता हूँ। उस धुन को एकाएक जानने में क्या होता है? निश्चय ही उस क्षण वह अपनी ''सम्पूर्णता'' में तो मुझे याद नहीं आ सकती! — सम्भवतः आप कहें&nbsp;: "यह तो मानो वह धुन ''वहाँ'' मौजूद हो इस बात की विशेष अनुभूति है" — किन्तु क्या वह धुन वहाँ मौजूद ''होती है?'' — मान लीजिए कि मैं उसे गाना आरम्भ करता हूँ और अटक जाता हूँ? — किन्तु क्या उस क्षण उसे जानने के बारे में मैं ''निश्चित'' नहीं हो सकता था? अतः, किसी अर्थ में तो वह ''वहाँ'' मौजूद थी ही! — किन्तु किस अर्थ में? यदि कोई धुन को आद्योपांत गाए, अथवा उसे आरंभ से अन्त तक मन-ही-मन सुने तो आप कहेंगे कि वह वहाँ मौजूद थी। बेशक, मैं इस बात से इंकार नहीं कर रहा कि धुन वहाँ मौजूद है इस अभिकथन को नितान्त भिन्न अर्थ भी दिया जा सकता है — उदाहरणार्थ, मेरे पास ऐसा कागज का टुकड़ा है जिस पर धुन लिखी हुई है। — और उसका 'सुनिश्चित' होना, उसका उसे जानना, किस में निहित है? — बेशक हम कह सकते हैं: यदि कोई दृढ़ निश्चय से कहता है कि अब वह धुन जानता है तो वह सम्पूर्ण रूप से उसके मन में (किसी न किसी तरह) मौजूद होती है। — और यही "धुन सम्पूर्ण रूप में उसके मन में उपस्थित है" अभिव्यक्ति की परिभाषा है।
{{ParPU|184}} मैं किसी गाने की धुन को स्मरण करना चाहता हूँ, किन्तु वह मुझे याद नहीं आती; अचानक मैं कहता हूँ “अब मुझे वह ज्ञात है”, और मैं उसे गाता हूँ। उस धुन को एकाएक जानने में क्या होता है? निश्चय ही उस क्षण वह अपनी ''सम्पूर्णता'' में तो मुझे याद नहीं आ सकती! — सम्भवतः आप कहें&nbsp;: “यह तो मानो वह धुन ''वहाँ'' मौजूद हो इस बात की विशेष अनुभूति है” — किन्तु क्या वह धुन वहाँ मौजूद ''होती है?'' — मान लीजिए कि मैं उसे गाना आरम्भ करता हूँ और अटक जाता हूँ? — किन्तु क्या उस क्षण उसे जानने के बारे में मैं ''निश्चित'' नहीं हो सकता था? अतः, किसी अर्थ में तो वह ''वहाँ'' मौजूद थी ही! — किन्तु किस अर्थ में? यदि कोई धुन को आद्योपांत गाए, अथवा उसे आरंभ से अन्त तक मन-ही-मन सुने तो आप कहेंगे कि वह वहाँ मौजूद थी। बेशक, मैं इस बात से इंकार नहीं कर रहा कि धुन वहाँ मौजूद है इस अभिकथन को नितान्त भिन्न अर्थ भी दिया जा सकता है — उदाहरणार्थ, मेरे पास ऐसा कागज का टुकड़ा है जिस पर धुन लिखी हुई है। — और उसका 'सुनिश्चित' होना, उसका उसे जानना, किस में निहित है? — बेशक हम कह सकते हैं: यदि कोई दृढ़ निश्चय से कहता है कि अब वह धुन जानता है तो वह सम्पूर्ण रूप से उसके मन में (किसी न किसी तरह) मौजूद होती है। — और यही “धुन सम्पूर्ण रूप में उसके मन में उपस्थित है” अभिव्यक्ति की परिभाषा है।


{{ParPU|185}} आइए हम §143 के अपने उदाहरण की ओर लौटें। अब — साधारण कसौटी द्वारा परखने पर — शिक्षार्थी पूर्णांकों की श्रृंखला में निपुण हो गया है। इसके बाद हम उसे अंकों की अन्य श्रृंखला लिखना सिखाते हैं और उसे इतना सिखा देते हैं कि '''+n''' आकार के आदेश देने पर वह '''0, n, 2n, 3n''' इत्यादि आकार की श्रृंखला लिख देता है; अतः +1 आदेश पर वह पूर्णांकों की शृंखला लिखता है। आइए हम मान लें कि हमने उसे 1000 तक अभ्यास कराया है और उसकी परीक्षा ली है।
{{ParPU|185}} आइए हम §143 के अपने उदाहरण की ओर लौटें। अब — साधारण कसौटी द्वारा परखने पर — शिक्षार्थी पूर्णांकों की श्रृंखला में निपुण हो गया है। इसके बाद हम उसे अंकों की अन्य श्रृंखला लिखना सिखाते हैं और उसे इतना सिखा देते हैं कि '''+n''' आकार के आदेश देने पर वह '''0, n, 2n, 3n''' इत्यादि आकार की श्रृंखला लिख देता है; अतः +1 आदेश पर वह पूर्णांकों की शृंखला लिखता है। आइए हम मान लें कि हमने उसे 1000 तक अभ्यास कराया है और उसकी परीक्षा ली है।
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अब हम शिक्षार्थी को श्रृंखला को 1000 से आगे बढ़ाने (मान लीजिए +2) को कहते हैं — और वह लिखता है 1000, 1004, 1008, 1012।
अब हम शिक्षार्थी को श्रृंखला को 1000 से आगे बढ़ाने (मान लीजिए +2) को कहते हैं — और वह लिखता है 1000, 1004, 1008, 1012।


हम उसे कहते हैं: "देखो तुमने क्या किया!" — वह समझता नहीं। हम कहते हैं: तुम्हें तो दो जोड़ना था&nbsp;: "ध्यान दो कि तुमने श्रृंखला का आरम्भ कैसे किया था।" — वह उत्तर देता है: "ओह, क्या वह ठीक नहीं है? मैंने समझा कि मुझे ऐसा ही ''करना'' था।" — अथवा मान लीजिए कि वह श्रृंखला को इंगित करता है और कहता है: "किन्तु मैं तो उसी प्रकार आगे बढ़ा।" — अब उसे यह कहने "किन्तु क्या तुम्हें नहीं सूझता कि....?" — और पुराने उदाहरणों एवं व्याख्याओं को दुहराने से कोई लाभ नहीं होगा। ऐसी स्थितियों में सम्भवतः हम कहें&nbsp;: यह व्यक्ति हमारी व्याख्याओं सहित हमारे आदेश को स्वाभाविक रूप से उसी प्रकार समझता है जैसे हम "1000 तक 2 जोड़ो 2000 तक 4, 3000 तक 6, आदि" आदेशों को समझते हैं।
हम उसे कहते हैं: “देखो तुमने क्या किया!— वह समझता नहीं। हम कहते हैं: तुम्हें तो दो जोड़ना था&nbsp;: “ध्यान दो कि तुमने श्रृंखला का आरम्भ कैसे किया था।” — वह उत्तर देता है: “ओह, क्या वह ठीक नहीं है? मैंने समझा कि मुझे ऐसा ही ''करना'' था।” — अथवा मान लीजिए कि वह श्रृंखला को इंगित करता है और कहता है: “किन्तु मैं तो उसी प्रकार आगे बढ़ा।” — अब उसे यह कहने “किन्तु क्या तुम्हें नहीं सूझता कि....?— और पुराने उदाहरणों एवं व्याख्याओं को दुहराने से कोई लाभ नहीं होगा। ऐसी स्थितियों में सम्भवतः हम कहें&nbsp;: यह व्यक्ति हमारी व्याख्याओं सहित हमारे आदेश को स्वाभाविक रूप से उसी प्रकार समझता है जैसे हम “1000 तक 2 जोड़ो 2000 तक 4, 3000 तक 6, आदि” आदेशों को समझते हैं।


यह तो कुछ ऐसी स्थिति है जिसमें किसी व्यक्ति की अंगुली का इशारा दिखाने पर वह अंगुली की दिशा की ओर देखने के बजाय कलाई की ओर देखने लगे।
यह तो कुछ ऐसी स्थिति है जिसमें किसी व्यक्ति की अंगुली का इशारा दिखाने पर वह अंगुली की दिशा की ओर देखने के बजाय कलाई की ओर देखने लगे।


{{ParPU|186}} "तो आपके कहने का अर्थ यह होता है: '''+n''' को उचित रूप से पालन करने के लिए पग-पग पर नई अन्तर्दृष्टि — अन्तःप्रज्ञा — की आवश्यकता होती है।" — उचित रूप से पालन करने के लिए! किसी विशेष स्थिति में कौन सा उचित कदम है इस का निर्णय कैसे किया जाता है? — "उचित कदम वह होता है जो आदेश — जैसा कि उसका ''तात्पर्य'' है — के अनुरूप होता है।" अतः, जब आपने +2 का आदेश दिया तो आपका तात्पर्य था कि वह 1000 के पश्चात् 1002 लिखे — और क्या आपका तात्पर्य यह भी था कि उसे 1866 के पश्चात् 1868, और 100034 के पश्चात् 100036 इत्यादि ऐसी प्रतिज्ञप्तियों की अनन्त संख्या लिखनी चाहिए? "नहीं&nbsp;: मेरा तात्पर्य तो यह था कि वह ''प्रत्येक'' अंक से एक अंक छोड़कर लिखे&nbsp;: और उससे वे सभी प्रतिज्ञप्तियां निष्पादित होती हैं।" — किन्तु यही तो विवाद का विषय है: किसी भी स्थिति में उस वाक्य से क्या निष्पादित होता है? अथवा पुनः, किसी भी स्थिति में हमें उस वाक्य के "अनुरूप होना" किसे कहना चाहिए (वाक्य को आपके द्वारा दिए गए ''अर्थ'' के साथ — चाहे वह जिसमें भी निहित हो)। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि प्रत्येक स्थिति में अन्तःप्रज्ञा की आवश्यकता न होकर नए निर्णय की आवश्यकता होती है।
{{ParPU|186}} “तो आपके कहने का अर्थ यह होता है: '''+n''' को उचित रूप से पालन करने के लिए पग-पग पर नई अन्तर्दृष्टि — अन्तःप्रज्ञा — की आवश्यकता होती है।” — उचित रूप से पालन करने के लिए! किसी विशेष स्थिति में कौन सा उचित कदम है इस का निर्णय कैसे किया जाता है? — “उचित कदम वह होता है जो आदेश — जैसा कि उसका ''तात्पर्य'' है — के अनुरूप होता है।” अतः, जब आपने +2 का आदेश दिया तो आपका तात्पर्य था कि वह 1000 के पश्चात् 1002 लिखे — और क्या आपका तात्पर्य यह भी था कि उसे 1866 के पश्चात् 1868, और 100034 के पश्चात् 100036 इत्यादि ऐसी प्रतिज्ञप्तियों की अनन्त संख्या लिखनी चाहिए? “नहीं&nbsp;: मेरा तात्पर्य तो यह था कि वह ''प्रत्येक'' अंक से एक अंक छोड़कर लिखे&nbsp;: और उससे वे सभी प्रतिज्ञप्तियां निष्पादित होती हैं।” — किन्तु यही तो विवाद का विषय है: किसी भी स्थिति में उस वाक्य से क्या निष्पादित होता है? अथवा पुनः, किसी भी स्थिति में हमें उस वाक्य के “अनुरूप होना” किसे कहना चाहिए (वाक्य को आपके द्वारा दिए गए ''अर्थ'' के साथ — चाहे वह जिसमें भी निहित हो)। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि प्रत्येक स्थिति में अन्तःप्रज्ञा की आवश्यकता न होकर नए निर्णय की आवश्यकता होती है।


{{ParPU|187}} "आदेश देने के समय मैं पहले से ही जानता था कि उसे 1000 के पश्चात् 1002 लिखना चाहिए।" — निश्चित रूप से; और आप यह भी कह सकते हैं कि
{{ParPU|187}} “आदेश देने के समय मैं पहले से ही जानता था कि उसे 1000 के पश्चात् 1002 लिखना चाहिए।” — निश्चित रूप से; और आप यह भी कह सकते हैं कि


उस समय आपका यह ''अर्थ'' था; किन्तु आप अपने आप को "जानने" और "अर्थ होने" के व्याकरण द्वारा भ्रमित न होने दें। क्योंकि आप यह नहीं कहना चाहते कि उस समय आपने 1000 से 1002 के पदन्यास के बारे में सोचा था — और यदि आपने इस पदन्यास के बारे में सोचा भी हो तो भी आपने अन्य पदन्यासों के बारे में तो नहीं सोचा था। जब आपने कहा "मैं उस समय पहले से ही जानता था..." तो उसका अर्थ कुछ इस प्रकार था&nbsp;: "यदि उस समय मुझसे पूछा जाता कि 1000 के पश्चात् किस संख्या को लिखा जाना चाहिए तो मैं उत्तर देता '1002' को।" और उसके बाद मैं शंकित नहीं हूँ। यह कल्पना तो वस्तुतः वैसी ही है: "यदि वह पानी में गिर जाता तो मैं भी उसके पीछे कूद पड़ता"। — तो, आपकी समझ में क्या गड़बड़ी थी?
उस समय आपका यह ''अर्थ'' था; किन्तु आप अपने आप को “जानने” और “अर्थ होने” के व्याकरण द्वारा भ्रमित न होने दें। क्योंकि आप यह नहीं कहना चाहते कि उस समय आपने 1000 से 1002 के पदन्यास के बारे में सोचा था — और यदि आपने इस पदन्यास के बारे में सोचा भी हो तो भी आपने अन्य पदन्यासों के बारे में तो नहीं सोचा था। जब आपने कहा “मैं उस समय पहले से ही जानता था...तो उसका अर्थ कुछ इस प्रकार था&nbsp;: “यदि उस समय मुझसे पूछा जाता कि 1000 के पश्चात् किस संख्या को लिखा जाना चाहिए तो मैं उत्तर देता '1002' को।” और उसके बाद मैं शंकित नहीं हूँ। यह कल्पना तो वस्तुतः वैसी ही है: “यदि वह पानी में गिर जाता तो मैं भी उसके पीछे कूद पड़ता”। — तो, आपकी समझ में क्या गड़बड़ी थी?


{{ParPU|188}} यहाँ पहले तो मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: आप समझते थे कि आदेश का अर्थ होने की क्रिया से पहले ही, अपने ढंग से, आपने उन सभी पदन्यासों को पार कर लिया जिनकी किसी भी क्रिया को भौतिक रूप से करने से पहले आवश्यकता होती है: जब आपका वह अर्थ था तो आपके मन ने, मानो आगे उड़ान भरी और आपके इस या उस पदन्यास पर भौतिक रूप से पहुँचने से पहले ही उसने सभी पदन्यासों को पार कर लिया।
{{ParPU|188}} यहाँ पहले तो मैं कहना चाहूँगा&nbsp;: आप समझते थे कि आदेश का अर्थ होने की क्रिया से पहले ही, अपने ढंग से, आपने उन सभी पदन्यासों को पार कर लिया जिनकी किसी भी क्रिया को भौतिक रूप से करने से पहले आवश्यकता होती है: जब आपका वह अर्थ था तो आपके मन ने, मानो आगे उड़ान भरी और आपके इस या उस पदन्यास पर भौतिक रूप से पहुँचने से पहले ही उसने सभी पदन्यासों को पार कर लिया।


अतः आपकी रुचि ऐसी अभिव्यक्तियों को प्रयोग करने में हुई&nbsp;: "''वास्तव'' में कदम तो मेरे लिखने, बोलने अथवा विचार करने से पूर्व ही उठाये जा चुके हैं।" और ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे किसी ''अप्रतिम'' ढंग से पूर्वनिर्धारित, पूर्वानुमानित हों — क्योंकि मात्र अर्थ प्रदान करने की क्रिया ही वास्तविकता का पूर्वानुमान कर सकती है।
अतः आपकी रुचि ऐसी अभिव्यक्तियों को प्रयोग करने में हुई&nbsp;: ''वास्तव'' में कदम तो मेरे लिखने, बोलने अथवा विचार करने से पूर्व ही उठाये जा चुके हैं।” और ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे किसी ''अप्रतिम'' ढंग से पूर्वनिर्धारित, पूर्वानुमानित हों — क्योंकि मात्र अर्थ प्रदान करने की क्रिया ही वास्तविकता का पूर्वानुमान कर सकती है।


{{ParPU|189}} "किन्तु, तब, क्या पदन्यास बीजगणितीय सूत्र द्वारा निर्धारित ''नहीं'' किए जाते?" — इस प्रश्न में एक भ्रान्ति निहित है।
{{ParPU|189}} “किन्तु, तब, क्या पदन्यास बीजगणितीय सूत्र द्वारा निर्धारित ''नहीं'' किए जाते?— इस प्रश्न में एक भ्रान्ति निहित है।


हम इस अभिव्यक्ति का प्रयोग करते हैं: "...... सूत्र द्वारा पदन्यास निर्धारित किए जाते हैं।" — इसका प्रयोग ''कैसे'' किया जाता है? — संभवतः हम इस तथ्य को उद्धृत करें कि लोगों को इस प्रकार शिक्षित (प्रशिक्षित) किया जाता है कि वे y = x<sup>2</sup> सूत्र का प्रयोग इस प्रकार करें कि जब वे x को एक ही संख्या से प्रतिस्थापित करें तब उन्हें y का एक ही मूल्य मिले। अथवा हम कह सकते हैं: "ये व्यक्ति इस प्रकार प्रशिक्षित हैं कि वे '3 जोड़ो' आदेश मिलने पर समान स्थान पर समान पदन्यास करते हैं"। हम इसे यह कहकर अभिव्यक्त कर सकते हैं: इन लोगों के लिए "3 जोड़ो" आदेश एक संख्या से आगामी संख्या तक प्रत्येक पदन्यास को पूर्णतः निर्धारित करता है। (उन अन्य लोगों की तुलना में जिन्हें यह नहीं पता कि यह आदेश मिलने पर उन्हें क्या करना है, अथवा उन लोगों की तुलना में जो इस पर पूर्ण निश्चितता से प्रतिक्रिया करते हैं, किन्तु अपने-अपने ढंग से।)
हम इस अभिव्यक्ति का प्रयोग करते हैं: ...... सूत्र द्वारा पदन्यास निर्धारित किए जाते हैं।” — इसका प्रयोग ''कैसे'' किया जाता है? — संभवतः हम इस तथ्य को उद्धृत करें कि लोगों को इस प्रकार शिक्षित (प्रशिक्षित) किया जाता है कि वे y = x<sup>2</sup> सूत्र का प्रयोग इस प्रकार करें कि जब वे x को एक ही संख्या से प्रतिस्थापित करें तब उन्हें y का एक ही मूल्य मिले। अथवा हम कह सकते हैं: “ये व्यक्ति इस प्रकार प्रशिक्षित हैं कि वे '3 जोड़ो' आदेश मिलने पर समान स्थान पर समान पदन्यास करते हैं”। हम इसे यह कहकर अभिव्यक्त कर सकते हैं: इन लोगों के लिए “3 जोड़ो” आदेश एक संख्या से आगामी संख्या तक प्रत्येक पदन्यास को पूर्णतः निर्धारित करता है। (उन अन्य लोगों की तुलना में जिन्हें यह नहीं पता कि यह आदेश मिलने पर उन्हें क्या करना है, अथवा उन लोगों की तुलना में जो इस पर पूर्ण निश्चितता से प्रतिक्रिया करते हैं, किन्तु अपने-अपने ढंग से।)


इसके विपरीत हम विभिन्न प्रकार के सूत्रों और उनके उपयुक्त विभिन्न प्रयोगों (विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षणों) की तुलना कर सकते हैं। फिर हम विशिष्ट प्रकार के सूत्र (उपयुक्त प्रयोग की विधियों सहित) को "x के प्रदत्त मूल्य के लिए y संख्या का निर्धारण करने वाला सूत्र" कहकर ''पुकारते'' हैं, और अन्य प्रकार के सूत्र को "x के प्रदत्त मूल्य के लिए y संख्या का निर्धारण न करने वाला" सूत्र कहते हैं। (प्रथम प्रकार का सूत्र y = x<sup>2</sup> होगा, y ≠ x<sup>2</sup> दूसरे प्रकार का सूत्र होगा।) "..... सूत्र y संख्या का निर्धारण करता है" प्रतिज्ञप्ति तो अब सूत्र के आकार के बारे में अभिकथन होगी — और अब हमें इस प्रकार की प्रतिज्ञप्तियों "मेरे द्वारा लिखित सूत्र y का निर्धारण करता है" अथवा "यहy का निर्धारण करने वाला सूत्र है" का निम्न प्रकार की प्रतिज्ञप्तियों से भेद करना होगा&nbsp;: "y = x<sup>2</sup> सूत्र x के प्रदत्त मूल्य के लिए y संख्या का निर्धारण करता है"। "क्या वहाँ लिखे हुए सूत्र द्वारा y का निर्धारण होता है?" प्रश्न का अर्थ तो "क्या जो वहाँ है वह इस अथवा उस प्रकार का सूत्र है?" इसके समान होगा — किन्तु यह तो तुरन्त स्पष्ट नहीं होता कि हम इस प्रश्न का क्या करें&nbsp;: "क्या y = x<sup>2</sup> सूत्र वही नहीं है जो x के प्रदत्त मूल्य के लिए y का निर्धारण करता है?" शिक्षार्थी से यह प्रश्न, यह जानने के लिए किया जा सकता है कि वह "निर्धारण करने" शब्द का प्रयोग समझता है या नहीं; अथवा किसी विशिष्ट प्रणाली में यह एक गणितीय समस्या हो सकती है — यह सिद्ध करने के लिए कि x का मात्र एक वर्ग होता है।
इसके विपरीत हम विभिन्न प्रकार के सूत्रों और उनके उपयुक्त विभिन्न प्रयोगों (विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षणों) की तुलना कर सकते हैं। फिर हम विशिष्ट प्रकार के सूत्र (उपयुक्त प्रयोग की विधियों सहित) को “x के प्रदत्त मूल्य के लिए y संख्या का निर्धारण करने वाला सूत्र” कहकर ''पुकारते'' हैं, और अन्य प्रकार के सूत्र को “x के प्रदत्त मूल्य के लिए y संख्या का निर्धारण न करने वाला” सूत्र कहते हैं। (प्रथम प्रकार का सूत्र y = x<sup>2</sup> होगा, y ≠ x<sup>2</sup> दूसरे प्रकार का सूत्र होगा।) ..... सूत्र y संख्या का निर्धारण करता है” प्रतिज्ञप्ति तो अब सूत्र के आकार के बारे में अभिकथन होगी — और अब हमें इस प्रकार की प्रतिज्ञप्तियों “मेरे द्वारा लिखित सूत्र y का निर्धारण करता है” अथवा “यहy का निर्धारण करने वाला सूत्र है” का निम्न प्रकार की प्रतिज्ञप्तियों से भेद करना होगा&nbsp;: “y = x<sup>2</sup> सूत्र x के प्रदत्त मूल्य के लिए y संख्या का निर्धारण करता है”। “क्या वहाँ लिखे हुए सूत्र द्वारा y का निर्धारण होता है?प्रश्न का अर्थ तो “क्या जो वहाँ है वह इस अथवा उस प्रकार का सूत्र है?इसके समान होगा — किन्तु यह तो तुरन्त स्पष्ट नहीं होता कि हम इस प्रश्न का क्या करें&nbsp;: “क्या y = x<sup>2</sup> सूत्र वही नहीं है जो x के प्रदत्त मूल्य के लिए y का निर्धारण करता है?शिक्षार्थी से यह प्रश्न, यह जानने के लिए किया जा सकता है कि वह “निर्धारण करने” शब्द का प्रयोग समझता है या नहीं; अथवा किसी विशिष्ट प्रणाली में यह एक गणितीय समस्या हो सकती है — यह सिद्ध करने के लिए कि x का मात्र एक वर्ग होता है।


{{ParPU|190}} अब कहा जा सकता है: "सूत्र के अर्थ-निर्धारण से पदन्यास भी निर्धारित होता है"। सूत्र के अर्थ-निर्धारण की कौन सी कसौटी है? उदाहरणार्थ, यह उसी प्रकार की होती है जिसका हम सदैव प्रयोग करते हैं, हम उसे उसी प्रकार से प्रयोग करते हैं जिस प्रकार से उसे प्रयोग करने का हमें प्रशिक्षण दिया जाता है।
{{ParPU|190}} अब कहा जा सकता है: “सूत्र के अर्थ-निर्धारण से पदन्यास भी निर्धारित होता है”। सूत्र के अर्थ-निर्धारण की कौन सी कसौटी है? उदाहरणार्थ, यह उसी प्रकार की होती है जिसका हम सदैव प्रयोग करते हैं, हम उसे उसी प्रकार से प्रयोग करते हैं जिस प्रकार से उसे प्रयोग करने का हमें प्रशिक्षण दिया जाता है।


उदाहरणार्थ, किसी अपरिचित-संकेत का प्रयोग करने वाले को हम कहते हैं: "यदि x!2 से आपका तात्पर्य x<sup>2</sup> है तो आपको y का अमुक मूल्य मिलेगा, यदि आपका तात्पर्य 2x है तो अमुक।" — अब अपने आप से पूछें&nbsp;: x!2 से अमुक अथवा अमुक ''अर्थ'' कैसे होता है?
उदाहरणार्थ, किसी अपरिचित-संकेत का प्रयोग करने वाले को हम कहते हैं: “यदि x!2 से आपका तात्पर्य x<sup>2</sup> है तो आपको y का अमुक मूल्य मिलेगा, यदि आपका तात्पर्य 2x है तो अमुक।” — अब अपने आप से पूछें&nbsp;: x!2 से अमुक अथवा अमुक ''अर्थ'' कैसे होता है?


''इसी'' प्रकार सूत्र के अर्थ-निर्धारण से पहले ही पदन्यास निर्धारित हो जाते हैं।
''इसी'' प्रकार सूत्र के अर्थ-निर्धारण से पहले ही पदन्यास निर्धारित हो जाते हैं।


{{ParPU|191}} "भानो शब्द का संपूर्ण प्रयोग हमने एकाएक समझ लिया।" उदाहरणार्थ ''किस'' प्रकार? — क्या प्रयोग को — एक विशेष अर्थ में — एकाएक समझा नहीं जा सकता? और ''किस'' अर्थ में इसे एकाएक समझा नहीं जा सकता — बात यह है इसे तो मानो अन्य, और इससे कहीं अधिक स्पष्ट अर्थ में, हम 'एकाएक समझ' सकते हों। — किन्तु क्या इसके लिए आपके पास कोई नमूना है? नहीं। यह अभिव्यक्ति तो स्वयं अपने आपको सुझाती है। विभिन्न चित्रों के मिश्रण के परिणाम की तरह।
{{ParPU|191}} “भानो शब्द का संपूर्ण प्रयोग हमने एकाएक समझ लिया।” उदाहरणार्थ ''किस'' प्रकार? — क्या प्रयोग को — एक विशेष अर्थ में — एकाएक समझा नहीं जा सकता? और ''किस'' अर्थ में इसे एकाएक समझा नहीं जा सकता — बात यह है इसे तो मानो अन्य, और इससे कहीं अधिक स्पष्ट अर्थ में, हम 'एकाएक समझ' सकते हों। — किन्तु क्या इसके लिए आपके पास कोई नमूना है? नहीं। यह अभिव्यक्ति तो स्वयं अपने आपको सुझाती है। विभिन्न चित्रों के मिश्रण के परिणाम की तरह।


{{ParPU|192}} आपके पास श्रेष्ठतम तथ्य का कोई नमूना नहीं है, किन्तु आप श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति को प्रयोग करने के लिए लालायित रहते हैं। (इसे दार्शनिक श्रेष्ठतम कहा जा सकता है।)
{{ParPU|192}} आपके पास श्रेष्ठतम तथ्य का कोई नमूना नहीं है, किन्तु आप श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति को प्रयोग करने के लिए लालायित रहते हैं। (इसे दार्शनिक श्रेष्ठतम कहा जा सकता है।)
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हम इस प्रकार वार्तालाप करते हैं मानो ये पुर्जे केवल इसी ढंग से गतिशील होते हैं, मानो वे कुछ और कर न सकते हों। ऐसा कैसे होता है — क्या हम उनके मुड़ने, टूटने, पिघलने इत्यादि की संभावना को भूल जाते हैं? हाँ, बहुत सी स्थितियों में तो हम उस के बारे में सोचते ही नहीं। हम यंत्र की किसी विशेष क्रिया को सांकेतिक रूप में दिखाने के लिए यन्त्र का, अथवा यन्त्र के आरेखन का प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ, हम किसी को ऐसा आरेखन देते हैं, और मान लेते हैं कि वह उससे पुर्जों की गतिविधि निष्पादित कर लेगा। (उसी प्रकार जैसे कि हम किसी को कोई संख्या यह कह कर बताते हैं कि वह संख्या 1, 4, 9, 16...... श्रृंखला में पच्चीसवीं है।)
हम इस प्रकार वार्तालाप करते हैं मानो ये पुर्जे केवल इसी ढंग से गतिशील होते हैं, मानो वे कुछ और कर न सकते हों। ऐसा कैसे होता है — क्या हम उनके मुड़ने, टूटने, पिघलने इत्यादि की संभावना को भूल जाते हैं? हाँ, बहुत सी स्थितियों में तो हम उस के बारे में सोचते ही नहीं। हम यंत्र की किसी विशेष क्रिया को सांकेतिक रूप में दिखाने के लिए यन्त्र का, अथवा यन्त्र के आरेखन का प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ, हम किसी को ऐसा आरेखन देते हैं, और मान लेते हैं कि वह उससे पुर्जों की गतिविधि निष्पादित कर लेगा। (उसी प्रकार जैसे कि हम किसी को कोई संख्या यह कह कर बताते हैं कि वह संख्या 1, 4, 9, 16...... श्रृंखला में पच्चीसवीं है।)


"यंत्र की क्रिया आरंभ से ही उसमें प्रतीत होती है" का अर्थ है: हम यंत्र की आगामी गतिविधियों की निश्चितता की तुलना मेज की दराज में पहले से ही रखी वस्तुओं से करने को प्रवृत्त हैं जिन्हें हम बाद में बाहर निकाल लेते हैं। — किन्तु जब हम यंत्र की वास्तविक कार्य-प्रणाली का पूर्वानुमान करते हैं तो हम इस प्रकार की बातें नहीं करते। सामान्यतः उस समय तो हम पुर्जों के विकारों इत्यादि की संभावना को नहीं भूलते। — बहरहाल, जब हम यंत्र को किसी ''गतिशीलता'' के प्रतीकीकरण के लिए प्रयोग किए जा सकने के ढंग पर विचार करते हैं, तब हम इसी प्रकार की बातें ''करते'' हैं, क्योंकि वह नितान्त ''भिन्न'' ढंग से भी गतिशील हो सकता है।
“यंत्र की क्रिया आरंभ से ही उसमें प्रतीत होती है” का अर्थ है: हम यंत्र की आगामी गतिविधियों की निश्चितता की तुलना मेज की दराज में पहले से ही रखी वस्तुओं से करने को प्रवृत्त हैं जिन्हें हम बाद में बाहर निकाल लेते हैं। — किन्तु जब हम यंत्र की वास्तविक कार्य-प्रणाली का पूर्वानुमान करते हैं तो हम इस प्रकार की बातें नहीं करते। सामान्यतः उस समय तो हम पुर्जों के विकारों इत्यादि की संभावना को नहीं भूलते। — बहरहाल, जब हम यंत्र को किसी ''गतिशीलता'' के प्रतीकीकरण के लिए प्रयोग किए जा सकने के ढंग पर विचार करते हैं, तब हम इसी प्रकार की बातें ''करते'' हैं, क्योंकि वह नितान्त ''भिन्न'' ढंग से भी गतिशील हो सकता है।


हम कह सकते हैं कि जिस चित्र-श्रृंखला को हमने इसमें निष्पादित करना सीखा है उसका पहला चित्र तो यह यंत्र, या इस यंत्र का चित्र है।
हम कह सकते हैं कि जिस चित्र-श्रृंखला को हमने इसमें निष्पादित करना सीखा है उसका पहला चित्र तो यह यंत्र, या इस यंत्र का चित्र है।
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{{ParPU|194}} यह विचार कब आता है: यंत्र की सामान्य संभावित गतिविधियाँ किसी रहस्यपूर्ण ढंग से उसमें पहले से ही उपस्थित रहती हैं? बेशक, तब, जब हम तत्त्व-चिंतन कर रहे होते हैं। और हम ऐसा क्यों सोचते हैं? जिस ढंग से हम यंत्रों के बारे में बात करते हैं; उदाहरणार्थ, हम कहते हैं कि यंत्र में गतिविधियों की अमुक-अमुक संभावनाएं ''होती'' हैं; हम अमुक-अमुक ढंग से ही गतिमान हो सकने वाले वाले पूर्ण दुर्धर्ष यंत्र का उल्लेख करते हैं। — गतिविधि की यह संभावना क्या होती है? वह ''गतिविधि'' तो नहीं होती — जैसे पिन और सॉकेट की फिटिंग में ढील रहना, पिन का सॉकेट में पूरी तरह फिट न होना। जबकि गतिविधि की यह आनुभविक परिस्थिति है, तो भी इससे भिन्न कल्पना करना भी संभव है। गतिविधि की संभावना, तो वस्तुतः गतिविधि की परछाईं के समान ही मानी जाती है। किन्तु क्या आप ऐसी परछाई के बारे में जानते हैं? और परछाई से मेरा तात्पर्य गतिविधि का कोई चित्र नहीं है — क्योंकि ऐसे चित्र को मात्र ''इस'' गतिविधि का ही चित्र नहीं होना होगा। किन्तु इस गतिविधि की संभावना को मात्र इस गतिविधि की ही संभावना होना चाहिए। (यहाँ इस पर गौर करें कि भाषा की लहरें कितने ऊँची उठती हैं।)
{{ParPU|194}} यह विचार कब आता है: यंत्र की सामान्य संभावित गतिविधियाँ किसी रहस्यपूर्ण ढंग से उसमें पहले से ही उपस्थित रहती हैं? बेशक, तब, जब हम तत्त्व-चिंतन कर रहे होते हैं। और हम ऐसा क्यों सोचते हैं? जिस ढंग से हम यंत्रों के बारे में बात करते हैं; उदाहरणार्थ, हम कहते हैं कि यंत्र में गतिविधियों की अमुक-अमुक संभावनाएं ''होती'' हैं; हम अमुक-अमुक ढंग से ही गतिमान हो सकने वाले वाले पूर्ण दुर्धर्ष यंत्र का उल्लेख करते हैं। — गतिविधि की यह संभावना क्या होती है? वह ''गतिविधि'' तो नहीं होती — जैसे पिन और सॉकेट की फिटिंग में ढील रहना, पिन का सॉकेट में पूरी तरह फिट न होना। जबकि गतिविधि की यह आनुभविक परिस्थिति है, तो भी इससे भिन्न कल्पना करना भी संभव है। गतिविधि की संभावना, तो वस्तुतः गतिविधि की परछाईं के समान ही मानी जाती है। किन्तु क्या आप ऐसी परछाई के बारे में जानते हैं? और परछाई से मेरा तात्पर्य गतिविधि का कोई चित्र नहीं है — क्योंकि ऐसे चित्र को मात्र ''इस'' गतिविधि का ही चित्र नहीं होना होगा। किन्तु इस गतिविधि की संभावना को मात्र इस गतिविधि की ही संभावना होना चाहिए। (यहाँ इस पर गौर करें कि भाषा की लहरें कितने ऊँची उठती हैं।)


ये लहरें शांत हो जाती हैं ज्यों ही हम अपने आप से यह प्रश्न पूछते हैं: जब हम किसी यंत्र के बारे में बात करते हैं "तो गतिविधि की संभावना" वाक्यांश का प्रयोग हम किस प्रकार करते हैं? — किन्तु इस स्थिति में विचित्र विचार हमें कहाँ से आए? अच्छा मैं आपको गतिविधि की संभावना प्रदर्शित करता हूँ, मान लीजिए गतिविधि के ''चित्र'' द्वारा&nbsp;: 'अत&nbsp;: संभावना तो वास्तविकता के समान कुछ होती है'। हम कहते हैं: "यह अभी तक गतिमान नहीं है, किन्तु इसमें गतिशील होने की संभावना है" — अतः संभावना तो वास्तविकता के अत्यन्त सन्निकट होती है। क्या अमुक-अमुक भौतिक परिस्थितियाँ इस गतिविधि को संभव बनाती हैं, इसके बारे में यद्यपि हमें शंका हो सकती है परन्तु हम यह विवेचन कभी नहीं करते कि ''यह'' इस अथवा उस गतिविधि की संभावना
ये लहरें शांत हो जाती हैं ज्यों ही हम अपने आप से यह प्रश्न पूछते हैं: जब हम किसी यंत्र के बारे में बात करते हैं “तो गतिविधि की संभावना” वाक्यांश का प्रयोग हम किस प्रकार करते हैं? — किन्तु इस स्थिति में विचित्र विचार हमें कहाँ से आए? अच्छा मैं आपको गतिविधि की संभावना प्रदर्शित करता हूँ, मान लीजिए गतिविधि के ''चित्र'' द्वारा&nbsp;: 'अत&nbsp;: संभावना तो वास्तविकता के समान कुछ होती है'। हम कहते हैं: “यह अभी तक गतिमान नहीं है, किन्तु इसमें गतिशील होने की संभावना है” — अतः संभावना तो वास्तविकता के अत्यन्त सन्निकट होती है। क्या अमुक-अमुक भौतिक परिस्थितियाँ इस गतिविधि को संभव बनाती हैं, इसके बारे में यद्यपि हमें शंका हो सकती है परन्तु हम यह विवेचन कभी नहीं करते कि ''यह'' इस अथवा उस गतिविधि की संभावना